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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू)
और ऊपर से उसकी उल्टी समझ बैठ गई। अब जैसी समझ बैठ गई, फिर वैसा ही वर्तन में आए बिना रहेगा नहीं।
व्यवहार में भी ब्रह्मचर्य का पालन करने को क्यों कहते हैं कि नॉर्मेलिटी में रहे। उससे देह, मन वगैरह स्वस्थ रहते हैं। जगत् के लोग तो मन-वचन-काया से ब्रह्मचर्य पालन कर ही नहीं सकते न? यह तो सिर्फ अपने यहीं पर पालन किया जा सकता है। ये लोग व्रत लेते हैं। व्रत लेने से क्या होता है कि उसके बाद मन ठिकाने रहता है। मन बाउन्ड्री में रहता है और जो व्रत नहीं लेते तो उनका चित्त सारा भटकता ही रहता है! फिर भी, संसार में भी यदि कभी दृष्टि का ध्यान रखे तो वह आगे ही आगे बढ़ता जाएगा
और उसे भी मोक्ष का रास्ता मिल जाएगा। यह तो बाहर के उन लोगों के लिए कह रहा हूँ जो मुझसे नहीं मिले हैं!
ब्रह्मचर्य का यदि कभी सिर्फ छ: महीने सच्चे दिल से पालन किया हो, मन-वचन-काया से, तो वे गुलाब इतने-इतने बड़े हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य तो सबसे बड़ी खाद है। जिस तरह गुलाब में खाद डालने से जो इतने छोटे होते हैं, वे फिर इतने बड़े हो जाते हैं। अत: सिर्फ छ: महीनों के लिए ही जिसे पालन करना हो वह करे! छ: महीने के ब्रह्मचर्य से तो शरीर में कितना बदलाव आ जाता है। फिर वाणी बोले तो जैसे बम गिर रहा हो, ऐसी निकलती है! जब तक संसार के किसी भी विषय में मन घुसा हुआ रहेगा, तब तक सभी डिपार्टमेन्ट पर फुल शक्ति नहीं चलेगी! किसी भी दिशा में प्रवहन् करना, वह मन का स्वभाव है! इसी वजह से मन को जैसा चाहें वैसे मोड़ा जा सकता है। उसे डाइवर्ट किया जा सकता है। दो-पाँच साल तक ही यदि मन को ब्रह्मचर्य की ओर मोड़े, इस एक ही दिशा में वहन करे तो उसके सामने कोई आँख भी नहीं गड़ा सकेगा!
अब्रह्मचर्य से ही सभी रोग खड़े होते हैं। इसलिए यह सिद्धांत रखना चाहिए कि ब्रह्मचर्य पालन करना है, और उसे पहले से ही समझ लेना अच्छा। अस्सी की उम्र में इस सिद्धांत को समझें तो