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विश्लेषण, विषय के स्वरूप का (खं - 1-1)
होटलें ! विषय के बारे में गहराई से सोचने पर यही लगता है कि यह गटर तो खोलने जैसा है ही नहीं । कितना बंधन ! यह जगत् इसीलिए खड़ा है न!
बुद्धि से सोचा है विषय के
बारे में कभी ?
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विषय तो ऐसी चीज़ है जिसे मूर्ख भी न चाहे । बुद्धि का संपूर्ण प्रकाश हो चुका हो, बुद्धि का विकास हो चुका हो, वह भी विषय से डरता है बेचारा । क्योंकि विषय, वह तो बिल्कुल मूर्खतापूर्ण चीज़ है। इस काल में, यह तो जलन की वजह से विषय के कीचड़ में गिरता है। नहीं तो कोई कीचड़ में गिरेगा ही नहीं न! बहुत जलन होने लगे, तब इंसान क्या करे ? इसलिए उल्टा उपाय करता है । विषय के बारे में यदि सोचा जाए तो विचारक इंसान को वह अच्छा ही नहीं लगेगा। यानी कि बुद्धि से भी विषय छूट सकता है। उसमें फिर ज्ञान का और इसका क्या लेना-देना? विषय के बारे में यदि सोचा होता न, तो उसे विषय बिल्कुल अच्छा ही नहीं लगता। निर्मल बुद्धिवाले को विषय का पृथ्थकरण करने को कहें तो, 'विषय थूकने जैसी चीज़ भी नहीं है।' ऐसे कहेगा । अतः जिसकी बुद्धि निर्मल हो, उसे तो विषय अच्छा ही नहीं लगेगा । वह छूएगा ही नहीं न ! लेकिन जिसकी बुद्धि में मल जम गया हो, उसे तो सबकुछ उल्टा ही दिखेगा |
प्रश्नकर्ता : इस मनुष्य जाति में ब्रह्मचर्य रह ही नहीं सकता, इसका क्या कारण है ? मोह है ? राग है ?
दादाश्री : बुद्धिपूर्वक का सुख नहीं है यह। बिना सोचेसमझे माना गया सुख है। लोगों ने जो माना, वही हमने मान लिया। वह सिर्फ मान्यता का ही सुख है और जलेबी सुखदायी है, वह बुद्धिपूर्वक का सुख है।
विषय का खेल तो बुद्धिपूर्वक नहीं है, यह तो सिर्फ मन की ऐंठन ही है। कोई भी बुद्धिमान इंसान यदि बुद्धि से विषय