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विश्लेषण, विषय के स्वरूप का (खं-1-1)
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नहीं नहाएँ तो क्या होता है? आम की तरह महकते हैं? यानी ये विषय तो नाक को ज़रा भी अच्छे नहीं लगते, आँखों को भी अच्छे नहीं लगते। जीभ की तो बात ही क्या करनी? उल्टी आने जैसा होता है। आम को सड़ जाने के बाद सूंघे तो अच्छा लगता है? सड़े हुए आम को छूना, स्पर्श करना अच्छा लगता है? तो फिर वहाँ भोगने का रहता ही कहाँ है? कोई इन्द्रिय एक्सेप्ट नहीं करती, फिर भी लोग विषय भोगते हैं, वह आश्चर्य है न? यह सब सोचना। आपको साधु बनाने नहीं आया हूँ। ये कितनी सारी गलत मान्यताएँ घुस गई हैं, उन्हें निकालने की ज़रूरत है। विषय संबंध के बारे में विस्तार से समझ लिया जाए तो विषय रहेगा ही नहीं।
हमारे जैसा तो किसी को भी समझ में नहीं आता और अगर बताएँ भी तो दूसरे दिन भूल जाते हैं। वर्ना विषय, वह सोचे-समझे बगैर की बात है। ये लोग देखा देखी से उसमें पड़े हुए है। सिर्फ लोक संज्ञा है वह और ज्ञानी की संज्ञा, यदि कभी ज्ञानी से पूछा जाए तो इसमें कोई पड़ेगा ही नहीं। एक भी इन्द्रिय इसे 'पास' नहीं करती। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि जहाँ सुख नहीं है, वहाँ कहाँ सुख मान बैठे हो? लेकिन इस विषय में उसे मूर्छा बहुत है। इसलिए मूर्छा को लेकर उसे भान नहीं रहता।
सभी इन्द्रियो ने निंदा की विषय की विषय, वह संडास है। नाक-कान में से, मुँह में से, सब जगहों से जो-जो निकलता है, वह सब संडास ही है। डिस्चार्ज, वह भी संडास ही है। जो परिणामिक भाग है, वह संडास है लेकिन तन्मयाकार हुए बिना गलन नहीं हो सकता। संडास होता है वह भी, अंदर जो कॉज़ेज़ होते हैं, उनका परिणाम है। खीरपूड़ी किसे अच्छी नहीं लगती? लेकिन भगवान कहते हैं कि कल सुबह वह संडास बन जाएगा। विषय को संडास क्यों कहा गया है? इसीलिए, क्योंकि वह गलन है।