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विश्लेषण, विषय के स्वरूप का (खं-1-1)
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ही सहज ही उस ओर का विचार तक नहीं आता। मुझे विषय का कभी भी विचार ही नहीं आता। मैंने इतना कुछ देख लिया है, इतना कुछ देखा है कि मुझे इंसान आरपार दिखाई दे, ऐसा देखा है। विषय का यदि पृथ्थकरण किया जाए, ज्ञान से नहीं लेकिन बुद्धि से, तो भी इंसान पागल हो जाए।
यह सब तो नासमझी से खड़ा है। प्याज की गंध किसे आती है? जो प्याज खाता है, उसे गंध नहीं आती। जो प्याज नहीं खाता है, उसे तुरंत ही गंध आती है। विषयों में पड़ा है इसलिए विषयों में रही गंदगी को नहीं समझ पाता। इसलिए विषय नहीं छूट पाता और राग करता रहता है। वह भी अभानता का राग है। सिर्फ आत्मा ही मांसरूपी नहीं है। बाकी सब निरा मांस ही है न?!
जिस तरह आहारी आहार करता है, उसी तरह विषयी विषय करता है लेकिन बात समझ में आनी चाहिए न? और वह लक्ष्य में रहना चाहिए न? आहार तो हर रोज़ अच्छा खाता है, लेकिन चार दिन का भूखा हो तो बासी गंदी रोटी भी खा जाता है। यह आहार तो अच्छा होता है, लेकिन यह विषय तो उससे भी ज़्यादा गंदगीवाला है। भूख की जलन की वजह से गंदी रोटी खाता है। उसी तरह जलन की वजह से वह विषय भोगता है। लेकिन गंदी रोटी खाते समय कहता है, 'चलेगा'। लेकिन क्या फिर से वैसा खाने की इच्छा होती है? नहीं। दोबारा वैसा खाने की इच्छा तो किसी को भी नहीं होती लेकिन विषय में ऐसा नहीं रहता न? विषय में भी ऐसा ही रहना चाहिए।
कईं लोग मांसाहार करते हैं, वे राजीखुशी से करते हैं न? और आपको मांसाहार करने को कहा हो तो? घिन आएगी न? इसका क्या कारण है? क्योंकि मांसाहार करनेवाले का डेवेलपमेन्ट अलग है और आपका डेवेलपमेन्ट अलग है। जैसे-जैसे डेवेलपमेन्ट बढ़ता जाता है, वैसे वैसे संसार की चीज़ों पर घिन आती जाती