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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/27
इस सम्बन्ध में ऊपर के क्रम सं० (ज) 'बोले हुए को सुनकर लिखना' के तथ्य को विशेष रूप से स्पष्ट करना है। कारण यह है कि अभी तक पाठ-संशोधन-कर्ताओं ने इस ओर जरा सा भी ध्यान नहीं दिया है। इससे भी बड़ा अनर्थ हुआ है । प्रायः इससे भाषा शास्त्रीय अध्येता गलत परिणाम पर पहुँच सकता है और लोग पहुँचे भी हैं।
उदाहरणार्थ-इकारान्त ग ध्वनि ‘ण्य' करके इसी 'बोले हुए को सुनकर लिखने' के कारण लिखी गयी मिलती है। नवाणि>नवण्य। इसके सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं । इस बात को न समझने के कारण "नामदेव की हिन्दी कविता" के सम्पादकों (पूना विश्वविद्यालय) ने इसे एक प्रवृत्ति माना है, जो भूल है। वस्तुतः यह रूप उच्चारण सम्बन्धी इसी विशेषता के कारण है और यह कार-प्रधान राजस्थानी भाषा की प्रवृत्ति है । ऐसी प्रतियों को 'राजस्थानी' जानकर उनमें आई भूलों का निराकरण इसी दृष्टिकोण (angle) मे करना चाहिये, अन्यथा गलत परिणाम पर पहुँचने की आशंका रहेगी।
ओर>वोर
अोवड़ छेवड़>वोवड़ छेवड़
दूसरा ऐसा ही एक और उदाहरण दृष्टव्य है :-बीकानेर, नागौर तथा नागौर से दक्षिण (देवदर तक) के चारों ओर के इलाके (जिसके अन्तर्गत मिलता हुमा जैसलमेर, बीकानेर और जोधपुर राज्यों की सीमा वाला प्रदेश है,) की एक विशिष्ट ध्वनि है आ को प्रो (प्रा>ो) बोलना। यह 'नो' 'श्रो' न होकर ") जैसी ध्वनि है । डाक्टर>डॉक्टर। इस इलाके में व्यापक रूप से यह ध्वनि प्रचलित है। यदि लिपिकार या बोलनेवाला इस इलाके का हुआ और इनमें से कोई भी दूसरा किसी और इलाके का, तो लेखन में अन्तर होगा। उदाहरणार्थ-कांदा>कोंदा। काड़>कोड़
(प्याज) (कितनी देर) (काल) (गोंद) इस स्थिति को न समझने के कारण भी बड़ी भूलें सम्भव हैं।
तीसरा उदाहरण-यह दूसरे के समान व्यापक नहीं है, किन्तु उसे भी ध्यान में रखना चाहिये । फलौदी और पोकरण के बाद पश्चिमोत्तर और पश्चिम की ओर जैसलमेर
और पुराने बहावलपुर (अब पाकिस्तान में) तक भविष्यवाचक क्रियारूप 'स्य' का प्रयोग है। यह एकवचन में 'स्यै' और बहुवचन में "स्य" है। जायस्य = जाएगा, जायस्य = जाएंगे। जरा भी असावधानी से यदि बिन्दी न लिखी या सुनी गई, तो समूचे अर्थ में परिवर्तन हो जाता है । समूह वाचक संज्ञाओं में तो विशेष तौर से । उदाहरणार्थ----
राज जायस्य = पाप जाएँगे (आदर सूचक प्रयोग)। राज जायस्य = राज (नामक व्यक्ति) जाएगा।
चौथा और अन्तिम उदाहरण-मेवाड़ में लिखित प्रतियों के सन्दर्भ में है । गुजराती-बागड़ी-भीली के प्रभाव से अनेक संज्ञा शब्दां पर " लगाने की और लगाकर बोलने की प्रथा है । जैसे, नंदी<नदी । टंका<टका । नंदी का तात्पर्य 'नहीं दीं से भी है । नदी अर्थात् नदी । टंका अर्थात् समय का एक अंश, साथ ही उक्त से संबंधित मनुष्य भी। जैसे-- चार टंका = चार वार खाने वाला मनुष्य अथवा समय का चौथाई 'भाग' । किन्तु टका अर्थात् 2 पैसे।
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