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काल निर्धारण/301
इनसे कभी-कभी जटिल समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं। कभी-कभी यह जानना कठिन हो जाता है कि कृति का कवि कौन है।
इस समस्या के कई कारण हो सकते हैं : 1. कवि ने नाम ही न दिया हो जैसे ध्वन्यालोक में ।
कबि ने नाम ऐसा दिया हो कि वह सन्देहास्पद लगे। 3. कवि ने कुछ इस प्रकार अपने नाम दिये हों कि प्रतीत हो कि वे अलग
अलग कवि हैं—एक कवि नहीं—सूरदास, सूर, सूरज आदि या ममारिक और मुवारक या नारायणदास और नाभा । कवि का नाम ऐसा हो कि उसके ऐतिहासिक अस्तित्व को सिद्ध न किया जा
सके, यथा, चन्दवरदायी। 5. ग्रन्थ सम्मिलित कृतित्व हो, कहीं एक कवि का तो कहीं दूसरे का नाम दिया
गया हो । जैसे--'प्रवीण सागर' का 6. ग्रन्थ अप्रामाणिक हो और कवि का जो नाम दिया गया हो, वह झूठा हो
यथा-'मूल गुसाईचरित', बाबा बेणीमाधवदास कृत। 7. कवि में पूरक कृतित्त्व हो इससे यथार्थ के सम्बन्ध में भ्रान्ति होती हो,
जैसे-चतुर्भुज का मधुमालती और पूरक कृतित्व उसमें गोयम का।। 8. विद्वानों में किसी ग्रन्थ के कृतिकार कवि के सम्बन्ध में परस्पर मतभेद हो । 9. ग्रन्थ के कई पक्ष हों, यथा-मूल ग्रन्थ, उसकी वृत्ति और उसकी टीका । हो
सकता है मूल ग्रन्थ और वृत्ति का लेखक एक ही हो या अलग-अलग होंजिससे भ्रम उत्पन्न होता हो । उदाहरणार्थ ध्वन्यालोक की कारिका एवं
वृत्ति । 10. लिपिकार को ही कवि समझ लेने का भ्रम, आदि। ऐसे ही और भी कुछ
कारण दे सकते हैं।
एक उदाहरण लें-संस्कृत में 'ध्वन्यालोक' के लेखक के सम्बन्ध में समस्या खड़ी हुई । 'ध्वन्यालोक' का अलंकार-शास्त्र या साहित्य शास्त्र के इतिहास में वही महत्त्व है जो पाणिनि की अष्टाध्यायी का भाषा-शास्त्र में और वेदान्तसूत्र का वेदान्त में । ध्वन्यालोक से ही साहित्य-शास्त्र का ध्वनि-सम्प्रदाय प्रभावित हुआ। ध्वन्यालोक के तीन भाग हैं : पहले में हैं 'कारिकाएँ', दूसरे में हैं वृत्ति, यह गद्य में कारिकायों की व्याख्या करती है, तीसरा है उदाहरण । -इन उदाहरणों में से अधिकाँश पूर्वकालीन कवियों के हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि ये तीनों अंश एक लेखक के लिखे हुए हैं या दो के । दो इसलिए कि वृत्ति और उदाहरण वाले अंश तो निःसंदेह एक ही लेखक के हैं, अतः मुख्य प्रश्न यह है कि क्या कारिकाकार और वृत्तिकार एक ही व्यक्ति हैं ? यह प्रश्न इसलिए जटिल हो जाता है कि 'ध्वन्यालोक' के 150 वर्ष बाद अभिनवगुप्त पादाचार्य ने इस पर लोचन नामक टीका लिखी और ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें उन्होंने आनन्दबर्धन को वृत्तिकार माना है, कारिकाकार नहीं।
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