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314/पाण्डुलिपि-विज्ञान
(प्रतिलिपिकार की असावधानी । 2. अंतरंग विकृतियाँ : (प्रतिलिपिकार का भ्रम : प्रक्षेप, वर्णभ्रम, अङ्कभ्रम । .
(प्रतिलिपिकार का अपना आदर्श और सही करने की इच्छा । ___ कुछ अशुद्धियाँ दृष्टि-प्रसाद के कारण हो सकती हैं और कुछ मनोवैज्ञानिक । दृष्टि-प्रमाद में पाठ्यह्रास, पाठ्यवृद्धि और पाठ-परिवर्तन पाते हैं । मनोवैज्ञानिक में प्रादर्श के अनुसार मूल पाठ की अशुद्धियों को समझकर उनको सुधारने की प्रवृत्ति पाती है । हाल ने इन पर एक और प्रकार से विचार किया है। इन्होंने पाठ विकृतियों के तीन भेद किये हैं : भ्रम तथा निवारण के उपाय, पाठ-ह्रास और पाठ-वृद्धि ।
भ्रम 13 प्रकार के माने गये हैं : समान-अक्षर सम्बन्धी भ्रम, सादृश्य के कारण शब्दों का गलत लिखा जाना, संकोचों की अशुद्ध व्याख्या, गलत एकीकरण, अथवा गलत पृथक्करण, शब्द-रूपों का समीकरण और समीपवर्ती रचना को आश्रय देना, अक्षर या वाक्य-व्यत्यय, संस्कृत का प्राकृत में या प्राकृत का संस्कृत में गलत ढंग से प्रतिलिपित होना, उच्चारण-परिवर्तन के कारण अशुद्धि, अंक-भ्रम, व्यक्तिवाचक संज्ञाओं में भ्रम, अपरिचित शब्दों के स्थान पर परिचित शब्दों का प्रयोग, प्राचीन शब्दों के स्थान पर नवीन शब्दों का प्रयोग तथा प्रक्षेप अथवा अज्ञात भाव से की गई भूलों का सुधार।
पाठ-हास में शब्दों का लोप पाता है। यह लोप साधारण भी हो सकता है और आदि-अन्त के साम्य के कारण भी हो सकता है। पाठवृद्धि में (1) परवर्ती अथवा पार्श्ववर्ती सन्दर्भ के कारण पुनरावृत्ति, (2) पंक्तियों के बीच अथवा हाशिये पर लिखे पाठ का समावेश, (3) मिश्रित पाठान्तर अथवा (4) सदृश लेख के प्रभाव के कारण वृद्धि ।
अनुसन्धान के इस क्षेत्र में डॉ० माताप्रसाद गुप्त का स्थान आधिकारिक है । उन्होंने विकृतियों के आठ प्रकार माने हैं : (1) सचेष्य पाठ विकृति, (2) लिपि-जनित, (3) भाषा-जनित, (4) छन्द-जनित, (5) प्रतिलिपि-जनित, (6) लेखन-सामग्री-जनित, (7) प्रक्षेप-जनित और (8) पाठान्तर-जनित । लिपिकार के द्वारा सचेष्ट पाठ-विकृति में अपने ज्ञान और तर्क से संशोधन करने की प्रवृत्ति ही है। अन्य सभी कथित प्रकार स्वयं स्पष्ट है । भाषा जनित भ्रमों में शब्दों का अनुपयुक्त प्रयोग, तद्भव शब्दों को संस्कार-शोध के उद्देश्य से तत्सम रूप देना और आवश्यकतानुसार भाषा को परिनिष्ठित बनाने का उद्योग करना पाते हैं।
ऊपर हमने जो शब्द भेद दिये हैं, उनके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि पांडुलिपि के सम्पर्क में आने पर अन्य बातों के साथ लिपि की समस्या हल हो जाने पर पांडुलिपि विज्ञानार्थी को पांडुलिपि की भाषा से परिचित होना होता है, और उसके लिए पहली 'इकाई' शब्द है, पांडुलिपि में शब्द हमें किन रूपों में मिल सकते हैं, उन्हीं को इन भेदों में प्रस्तुत किया गया है । ये शब्द-भेद पांडुलिपि को समझने के लिए आवश्यक हैं, अतः आवश्यक है कि इन भेदों को कुछ विस्तार से समझ लिया जाय ।
1.
Hall, F. W.-Companion to Classical Test श्री मिथिनेश कान्ति वर्मा, परिषद् पत्रिका (वर्ष 3, अङ्क4), पृ.50 पर उद्धत । अनुसन्धान की प्रक्रिया।
2.
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