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330/पाण्डुलिपि-विज्ञान
गया, तथा अर्थ ठीक बैठ गया, अतः ऐसे कुपठित शब्दों के जाल से भी बचने के उपाय पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को करने होंगे।
यहाँ तक हमने शब्दरूपों की चर्चा की। लिपि के उपरान्त शब्द ही इकाई के रूप में उभरते हैं- और ये शब्द ही मिलकर चरण या वाक्य का निर्माण करते हैं । ये चरण या वाक्य ही किसी भाषा की यथार्थ इकाई होते हैं शब्द तो इस इकाई को तोड़कर विश्लेषित कर अर्थ तक पाठक द्वारा पहुँचने की सोपानें हैं । यथार्थ अर्थ शब्द में नहीं सार्थक शब्दावली की सार्थक वाक्य-योजना में रहता है । वस्तुतः किसी भी पांडुलिपि का निर्माण या रचना किसी अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए होती है । यह विश्लेषित शब्द यदि अपने ठीक रूप में ग्रहण नहीं किया गया तो अर्थ भी ठीक नहीं मिल सकता । भर्तृहरि ने 'वाक्य-पदीय' में ब
"प्रात्मरूपं यथा ज्ञाने ज्ञेय रूपंच दृश्यते
अर्थरूपं तथा शब्दे स्वरूपश्च प्रकाशते ।" अर्थात् ज्ञान जैसे अपने को और अपने ज्ञेय को प्रकाशित करता है उसी प्रकार शब्द भी अपने स्वरूप को तथा अपने अर्थ को प्रकाशित करता है ।।
शब्द के साथ अर्थ जुड़ा हुआ है । अर्थ से ही शब्द सार्थक बनता है । यह सार्थकता शब्द में यथार्थत: पदरूप से आती है । वह वाक्य में जो स्थान रखता है, उसके कारण ही उसे वह अर्थ मिलता है जो कवि या कृतिकार को अभिप्रेत होता है।
अर्थ समस्या
पांडुलिपि-विज्ञानार्थी के लिए अर्थ की समस्या भी महत्त्व रखती है । अर्थ ही तो ग्रंथ की आत्मा होती है । 'शब्द-रूप' की समस्या तो हम देख चुके हैं कि मिलित शब्दावली में से ठीक शब्द-रूप पर पहुँचने के लिए भी अर्थ समझना आवश्यक है और ठीक अर्थ पाने के लिए ठीक शब्द-रूप । यहाँ एक और उदाहरण 'कीतिलता' से लेते हैं। डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने यह भूमिका देते हुए कि "इन पूर्व टीकाओं में कीर्तिलता के अर्थों की जो स्थिति थी उसकी तुलना वर्तमान संजीवनी टीका के अर्थों से करने पर यह समझा जा सकेगा कि कीर्तिलता के अर्थों की समस्या कितनी महत्त्वपूर्ण थी
और उसे किस प्रकार उलझा हुआ छोड़ दिया गया था।" अपने इस कथन को पुष्ट करने के लिए उन्होंने बहुत-से स्थलों की चर्चा की है । इसी सन्दर्भ में पहली चर्चा है इस पंक्ति की:
(1) भेन करन्ता मम उवइ दुज्जन वैरिण होइ । 1/22 डॉ० अग्रवाल ने इस पर लिखा है कि
"बाबूरामजी ने 'मेक हन्ता मुझजई' पाठ रखा है जो 'क' (प्रति) का है । अक्षरों को गलत जोड़ देने से यहाँ उन्होंने अर्थ किया है-यदि दुर्जन मुझे काट डाले अथवा मार डाले तो भी वैरी नहीं । उन्होंने टिप्पणी में 'भे कहन्ता' देते हुए अर्थ दिया है.--'यदि दुर्जन मेरा भेद कह दे ।' शिवप्रसाद सिंह ने इसे ही अपनाया है । वास्तय में 'अ' प्रति से इसके मूल पाठ का उद्धार होता है । मूल का अर्थ है-मर्म का भेद करता हुआ दुर्जन पास
1. डॉ. किशोरीलाल के निबन्ध 'प्राचीन हिन्दी काव्य पाठ एवं अर्फ विवेचन' से उद्धृत । सम्मेलन
पत्रिका (भाग 56, सं. 2-3), पृ. 187 ।
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