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340 पाण्डुलिपि-विज्ञान
(3) चूहे, कंसारी आदि जीव-जन्तु के आक्रमण, और (4) बाहर का प्राकृतिक वातावरण ।
राजकीय उथल-पुथल की दृष्टि से रक्षा के लिए उन्होंने लिखा है, "आ तेमज आना जेवा बीजा उथल-पाथलना जमानामां ज्ञान भण्डारोनी रक्षा माटे बहारथी सादां दिखातां मकानों मां तेने राखवान्तं प्रांवता ।" यद्यपि मुनि पुण्यविजय जी यह मानते हैं कि कितने ही बड़े मन्दिरों में जो भूगर्भस्थ गुप्त स्थान हैं वे बड़ी मूर्तियों को सुरक्षित रखने के लिए हैं क्योंकि उनको अनायास ही स्थानान्तरित नहीं किया जा सकता था। इससे भी यह बात सिद्ध है कि मन्दिरों में गुप्त स्थान थे और हैं और, उनमें ग्रन्थ-भण्डारों को भी सुरक्षित किया गया। कुछ ग्रंथ-भण्डारों के तहखानों में होने के प्रमाण कर्नल टॉड की साक्षी से ही मिल जाते हैं, तो ये दोनों उपाय राजकीय उथल-पुथल से रक्षा करने के लिए काम में लाये जाते थे।
वाचकों और पाठकों की लापरवाही से बचने के लिए जो बातें की जाती थीं उनमें से एक तो यह कि वाचकों के ऐसे संस्कार बनाये जाते थे कि जिससे वे पुस्तकों के साथ प्रमाद न कर सकें। दूसरे, इसी सांस्कृतिक शिक्षण की व्याप्ति भारत के घर-घर में देखी जा सकती है, यथाः जहाँ लिखने-पढ़ने की कोई वस्तु, पुस्तक हो, दवात हो, लेखनी हो, कागज का टुकड़ा ही क्यों न हो, नीचे जमीन पर कहीं गिर जाय, अशुद्ध स्थल पर गिर जाय, अशुद्ध हाथों से छू जाए तो उसे पश्चाताप के भाव से सिर पर लगा कर तब यथास्थान रखने की सांस्कृतिक परम्परा आज भी मिलती है । इससे ग्रन्थों और तद्विषयक सामग्री की रक्षा की भावना सिद्ध होती है।
पुस्तकों को पढ़ने के लिए या तो चौकी का उपयोग होता था या सम्पुटिका (टिखटी) का उपयोग किया जाता था। इससे पुस्तक का जमीन से स्पर्श नहीं होता था। यह भी नियम था कि स्वच्छ होकर, हाथ-पैर धोकर पुस्तक पढ़ी जानी चाहिये । वैसे यह नियम यद्यपि हमारे समय से धीरे-धीरे केवल धार्मिक पुस्तकों के लिए लागू होने लगा था। फिर भी, इसकी प्रकृति से भी पता चलता है कि पुस्तकों की सुरक्षा की दृष्टि से उनके प्रति अत्यधिक आदर-भाव पैदा किया जाता था, वे पुस्तकें किसी भी विषय की क्यों न हों । इसी को मुनिजी ने इन शब्दों में बताया है "पुस्तकन् अपमान थाइ नहीं, ते बगड़े नहीं, तेने चानु बने के उड़े नहीं, पुस्तक ने शर्दी गर्मी वगेरेनी असर न लागे ये माटे पुस्तक ने पाठांनि वचमा राखी तेने ऊपर कबुल्टी अने बंधन वीटानि तेने सांपड़ा ऊपर राखता । जे पाना वाचनमां चालू होय तेमने एक पाटी ऊपर मूहकी, तेने हाथनो पासेवो ना लागे ये माटे पानू अने अंगुठानी वचमा काम्बी के छेवटे कागज ना टुकड़ो जे बुकाई राखी ने वांचता । चौमासानी ऋतुमां शर्दी भरमा वातावरणो समयानां पुस्तन ने भेज न लागे अने ते चोंटीन जाय ये माटे खास वाचननों उपयोगी पानाते बहारराखी वाकीनां पुस्तक ने कवली कपडु वगैरे लपेटी ने राखता।'' इन विवरणों से स्पष्ट है कि वाचन-पठन के लिए टिखटी पर पुस्तक रखी जाती थी। सब प्रकार के स्वच्छ होकर पढ़ने बैठते थे । पन्ने न खराब हों इसलिए काम्बी या पटरी जैसी वस्तु पंक्तियों के सहारे रखकर पड़ते थे, इस प्रकार से उँगलियाँ नहीं लग पाती थीं। गर्मी-सर्दी से बचने के लिए ग्रन्थों को कपड़े के थैले,
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भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 1131
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