________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रख-रखाव/339
स्थान दूसरे, रखने की व्यवस्था—जिस कक्ष में उन्हें रखा गया था वह अच्छी तरह बन्द कर दिया गया था, यहाँ तक कि बौद्ध पुजारी को भी उनका पता ही नहीं था कि वहाँ कोई ग्रन्थ-भण्डार भी है । उसका आकस्मिक रूप से ही पता लगा ।
___ इसी प्रकार हम बचपन में यह अनुश्रुति सुनते आये थे कि सिद्ध लोग हिमालय की गुफाओं में चले गये हैं। वहाँ वे आज भी तपस्या कर रहे हैं। डॉ० बंशीलाल शर्मा ने 'किन्नौरी लोक-साहित्य' पर अनुसंधान करते हुए एक स्थान पर लिखा है :
___ “निङपा-लामा भी कन्दराओं में प्राचीन ग्रन्थों व लामानों की खोज करने लगे और उनके शिष्यों ने इन स्थानों में साधना प्रारम्भ की । उन लोगों का कथन था कि इन गुप्त स्थानों पर पदमसम्भव द्वारा रचित ग्रन्थ हैं तथा इस धर्म में विश्वास करने वाले कुछ महात्मा भी कन्दराओं में छिपे बैठे हैं ।"2
___ इन्होंने मौखिक रूप से मुझे बताया था कि वे एक बौद्ध लामा के साथ एक कन्दरा में होकर एक विशाल बिहार में पहुंचे, जहाँ सब कुछ सोने से युक्त जगमगा रहा था। इन्हें वहाँ एक ग्रन्थ देखना और समझना था, अतः हिमालय की कन्दराओं और गुफाओं में ग्रन्थभण्डारों की बात केवल कपोल-कल्पना ही नहीं है।
___ तात्पर्य यह है कि सुरक्षा और स्वस्थता की दृष्टि से हिमालय की गुफाओं में भी ग्रन्थ रखे गये । बिहारों में तो पुस्तकों का संग्रह रहता ही था, उसकी पूजा भी की जाती थी। श्री राम-कृष्ण कौशल ने 'कमनीय किन्नौर'3 में बताया है कि "15 पाषाढ़ की कानम् में 'कंजुरजनों' उत्सव मनाया जाता है । इस अवसर पर सब शिक्षित अथवा अशिक्षित जन श्रद्धाभाव से कानम् बिहार के वृहद् पुस्तकालय के दर्शनों के लिए जाते हैं । कानम् का यह पुस्तकालय ज्ञान-मन्दिर के रूप में प्रतिष्ठित है।"
इन उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि ग्रन्थों की रक्षा की दृष्टि से ही पुस्तकालयों के स्थान चुने जाते थे और उन स्थानों में सुरक्षित कक्ष भी उनके लिए बनाये जाते थे । साथ ही उनका ऊपर का रूप भी ऐसा बनाया जाने लगा कि आक्रमणकारी का ध्यान उस पर न जाय।
'भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला' के लेखक मुनि श्री पुन्यविजय जी ने 'पुस्तकु अने ज्ञान भण्डारोनु रक्षण' शीर्षक में बताया है कि पुस्तकों और ज्ञान-भण्डारों के रक्षण की आवश्यकता चार कारणों से खड़ी होती है :
(1) राजकीय उथल-पुथल (2) वाचक की लापरवाही
आचार्य रघबीर के सुपुत्र डॉ. लोकेशचन्द ने अपने लेख 'मध्य एशिया की धधकती गुफाओं में आचार्य रघुबीर' शीर्षक लेख (धर्मयुग : 23 दिसम्बर, 1973) में बताया है कि "यह शिलालेख मोगाओ गुफा में है ओ तुन्ह्मा की सबसे पहली गुफा है। थाङ्कालीन शिलालेख के अनुसार सन् 366 में भारतीय भिक्षु लोछुन ने इसका मंगलारम्भ किया था।" (पृ.28)। सो स्पष्ट है कि 4थी शताब्दी ईस्वी में इन गुफाओं का आरम्भ हो गया था। शर्मा, बंशीलाल (डॉ.)-किन्नौरी लोक-साहित्य (अप्रकाशित शोध-प्रबंध), पृ. 501 । कौशल, रामकृष्ण-कमनीय कित्रीर, पृ. 22 । भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 1091
For Private and Personal Use Only