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पाण्डुलिपि विज्ञान
डॉ. सत्येन्द्र
१ ए ख और ऊँ २.दि.स्ति और न ३.नि.श्री और म ४.५ ई डा,राक रार्क ष्क र्कप्क (प्के) के. के. फ्र और पु ५. र्तृ ,ता नृ.ह और नृ ६. फ्र, फ़ै..घ.भ.पु.व्या और फ्ल 19- ग, गा, गा, उभ उर्गा, और भु ८-ह.ई हा, और दू
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पाण्डुलिपि विज्ञान
नस्क
OCToday
NA
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प्रथम-संस्करण : 1978 द्वितीय-संस्करण : 1989 Pandulipi Vijnana
मानव संसाधन विकास मन्त्रालय, भारत सरकार की विश्वविद्यालय स्तरीय ग्रन्थ-निर्माण योजना के अन्तर्गत, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित ।
मूल्य : 55.00 रुपये
© सर्वाधिकार प्रकाशक के अधीन
प्रकाशक : राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी ए-26 2, विद्यालय मार्ग, तिलक नगर जयपुर-302 004
मुद्रक : झूलेलाल प्रिण्टर्स जयपुर
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प्रकाशकीय भूमिका
राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी अपनी स्थापना के 20 वर्ष पूरे करके 15 जुलाई, 1989 को 21वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। इस अवधि में विश्व साहित्य के विभिन्न विषयों के उत्कृष्ट ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद तथा विश्वविद्यालय के शैक्षणिक स्तर के मौलिक ग्रन्थों को हिन्दी में प्रकाशित कर अकादमी ने हिन्दी-जगत् के शिक्षकों, छात्रों एव अन्य पाठकों की सेवा करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है और इस प्रकार विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी में शिक्षण के मार्ग को सुगम बनाया है।
___ अकादमी की नीति हिन्दी में ऐसे ग्रन्थों का प्रकाशन करने की रही है जो विश्वविद्यालय के स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के अनुकूल हों । विश्वविद्यालय स्तर के ऐसे उत्कृष्ट मानक ग्रन्थ जो उपयोगी होते हुए भी पुस्तक प्रकाशन की व्यावसायिकता की दौड़ में अपना समुचित स्थान नहीं पा सकते हों, और ऐसे ग्रन्थ भी जो अंग्रेजी की प्रतियोगिता के सामने टिक नहीं पाते हों, अकादमी प्रकाशित करती है। इस प्रकार अकादमी ज्ञान-विज्ञान के हर विषय में उन दुर्लभ मानक ग्रन्थों को प्रकाशित करती रही है और करेगी जिनको पाकर हिन्दी के पाठक लाभान्वित ही नहीं, गौरवान्वित भी हो सके । हमें यह कहते हुए हर्ष होता है कि अकादमी ने 330 से भी अधिक ऐसे दुर्लभ और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन किया है जिनमें से एकाधिक केन्द्र, राज्यों के बोझै एवं अन्य संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत किये गये हैं तथा अनेक विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा अनुशंसित ।
राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी को अपने स्थापना-काल से ही भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय से प्रेरणा और सहयोग प्राप्त होता रहा है तथा राजस्थान सरकार ने इसके पल्लवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, अतः अकादमी अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में उक्त सरकारों की भूमिका के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती है ।
हमें 'पाण्डुलिपि-विज्ञान' का द्वितीय संस्करण प्रकाशित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है । विद्वान् लेखक ने इस जटिल विषय को इसमें सरल एवं स्पष्ट रूप में साधिकार प्रस्तुत किया है । प्राचीन साहित्य के अध्येताओं के लिए और स्नातकोत्तर छात्रों के लिए यह अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है।
पी० बी० माथुर
अध्यक्ष राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी एवं
शिक्षा आयुक्त, राजस्थान सरकार, जयपुर
डॉ. राघव प्रकाश
निदेशक राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी
जयपुर
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श्रीमती विद्याधरी को
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भूमिका
(प्रथम संस्करण)
लीजिये यह है पांडुलिपि विज्ञान की पुस्तक । श्रापने "पांडुलिपि " तो देखी होगी, उसका भी विज्ञान हो सकता है या होता है, यह बात भी जानने योग्य है ।
इस पुस्तक में कुछ यही बताने का प्रयत्न किया गया है कि पांडुलिपि विज्ञान क्या है और उसमें किन बातों और विषयों पर विचार किया जाता है ? वस्तुतः पांडुलिपि के जितने भी अवयव हैं, प्रायः सभी का अलग-अलग एक विज्ञान है और उनमें से कइयों पर अलग-अलग विद्वानों द्वारा लिखा भी गया है, किन्तु पांडुलिपि विज्ञान उन सबसे जुड़ा होकर भी अपने श्राप में एक पूर्ण विज्ञान है, मैंने इसी दृष्टि को आधार बनाकर यह पुस्तक लिखी है । कहीं-कहीं पांडुलिपि के अवयवों में आलंकारिकता और चित्र-सज्जा का उल्लेख पांडुलिपि निर्माण के उपयोगी कला-तत्त्वों के रूप में भी हुआ है ।
।
पर, यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि पांडुलिपि मूलतः कलात्मक भावना से व्याप्त रहती है । पहले तो उपयोगी कलात्मकता का स्पर्श उसमें सुन्दर हो, जिस पर साफ-साफ लिखा जा सके । लेखनी अच्छी हो, वाली हो, और लिखावट ऐसी हो कि आसानी से पढ़ी जा सके लिखावट को देखकर उसे पढ़ने का मन करने लगे। कई रंगों पहले तो अभिप्राय या प्रयोजन भेद के नाम, अंतरंग शीर्षक, आदि मूल पाठ से हैं । किन्तु यह उपयोगी सहज सुन्दरता तो पुस्तक या पांडुलिपि की सामान्यतः उसकी ग्राहकता बढ़ाने के लिए ही होती है ।
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रहता है । लिप्यासन
स्याही भी मन को भाने
आधार पर किया जाता है; भिन्न बताने के लिए लाल
यह भी दृष्टि रहती है कि स्याहियों का उपयोग
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जैसे— पुष्पिका, छंद स्याही से लिखे जाते
पर, पांडुलिपि पूरी उत्कृष्ट कला की कृति हो सकती है, और यह भी हो सकता है कि उसमें विविध अवयवों में ही कलात्मकता हो ।
सम्पूर्ण कृति की कलात्मकता में उत्कृष्टता के लिए लिप्यासन भी उत्कृष्ट होना चाहिए, यथा बहुत सुन्दर बना हुप्रा सांचीपात हो सकता है । हाथीदांत हो सकता है । 2 उस पर कितने ही रंगों से बना हुआ आकर्षक हाशिया हो सकता है, उस पर बढ़िया पक्की स्याही या स्याहियों में, कई पार्टी में मोहक लिखावट की गयी हो, प्रत्येक अक्षर सुडौल हो । पुष्पिकाएँ भिन्न रंग की स्याही में लिखी गयी हों । मांगलिक चिह्न या शब्द भी मोहक हों । ऐसी कृति सर्वांग सुन्दर होती है, ऐसी पुस्तक तैयार करने में बहुत समय और परिश्रम करना पड़ता है ।
कृतिकार या लिपिकार की कला का प्रथम उत्कृष्ट प्रयोग हमें लिखावट में मिलता है ।
1. अलवर के संग्रहालय में 'हक्त बन्दे काशी' श्री ए० एम० उस्मानी साहब ने बताया है कि "यह किताब भी नादेरात का अजीब नमूना है। हाथीदांत में वरक तैयार करके उन पर नेहायत रोशन काली सियाही से उम्दा नसतालिक में लिखा गया है । हुरूफ की नोक पलक बहुत उमदा है । - इस पर सोने का काम सोने में सुहागा है । बहुत बारीक और काबिले दीद गुलकारी है ।" ('द रिसर्चर' पृ० 37 ) ।
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लिखावट को तरह-तरह से सुन्दर बनाने से लिपि के विकास में अन्य कारणों के साथ एक कारण उसे सुन्दर बनाने के प्रयत्न से भी सम्बन्धित है। किन्तु लिपि-लेखन अपने
आप में एक कला का रूप ले लेता है। फारस में इस कला का विशेष विकास हुआ है। वहां से भारत में भी इसका प्रभाव पाया और फारसी लिपि में तो इस कला का चरमोत्कर्ष हुआ। भारत में अक्षरों के पालंकारिक रूप में लिखने का चलन कम नहीं रहा । हमने कितने ही अक्षरों के आलंकारिक रूप, आगे पुस्तक में दिये हैं।
लेखन/लिखावट में सुन्दरता या कलात्मकता के समावेश से ग्रन्थ का मूल्य बढ़ जाता है। लिपि के कलात्मक हो जाने पर समस्त ग्रन्थ ही कलाकृति का रूप ले लेता है । 'एनसाइक्लोपीडिया आव रिलीजन एण्ड ऐथिक्स' का यह उद्धरण हमारे कथन की पुष्टि करता है : "Not only so, but Skilled Scribes have devoted infinite time to Copying in luxurious Style the Compositions of famous persian poets and their manuscripts are in themselves works of art."
अनन्त समय लगाकर धैर्य और लेखन कौशल से लिपि में सौन्दर्य निरूपित करके समस्त कृति / ग्रन्थ को ही एक कलाकृति बना देते हैं ।
लिपि में विविध प्रकार की कलात्मकता और आलंकारिकता लाकर ग्रन्थ की सुन्दरता के साथ मूल्य में भी वृद्धि की जाती है। सोने-चांदी की स्याही से भी ग्रन्थ का सुन्दरता में चार-चाँद लग जाते हैं।
इन कलात्मकता लाने वाले लिप्यासन, लिपि और स्याही-आदि जैसे उपकरणों के बाद ग्रन्थ के मूल्यवर्द्धन में सर्वाधिक महत्त्व चित्रकला के योगदान का होता है।
ग्रन्थों में चित्रांकन का एक प्रकार तो केवल सजावट का होता है । विविध ज्यामितिक प्राकृतियाँ, विविध प्रकार की लता-पताएँ, विविध प्रकार के फल-फूल और पशु-पक्षी, आदि से पुस्तक को लिपिकार और चित्रकार सजाते हैं।
ग्रन्थ चित्रांकन का दूसरा प्रकार होता है । वस्तु को, विशेषतः कथा-वस्तु को हृदयंगम कराने के लिए रेखाओं से बनाये हुए चित्र या रेखा-चित्र ।
___ यह रेखा-चित्र आगे अधिकाधिक कलात्मक होते जाते हैं। इसकी अति हमें वहाँ मिलती है जहाँ ग्रन्थ चित्राधार बन जाता है और उसका काव्य मात्र आधार बनकर रह जाता है। उत्कृष्ट कलाकार की उत्कृष्ट कलाकृति बन जाता है, यह ग्रन्थ और कवि पीछे छूट जाता है। ऐसी कृतियों का मूल्य क्या हो सकता है । जयपुर के महाराजा के निजी पोथीखाने में एक 'गीतगोविन्द' की सचित्र प्रति थी। बताया जाता है कि इसके पृष्ठ 10 इंच लम्बे और 8 इंच चौड़े थे। कुल 210 चित्र-युक्त पृष्ठ थे। यह भी बताया जाता है कि एक अमरीकी महिला इसे 6 करोड़ रुपये में खरीदने को तैयार थी। इसके प्रत्येक पृष्ठ पर चित्र थे । ये चित्र विविध रंगों में अत्यन्त कलात्मक थे । इन्हीं के कारण 'गीत गोविन्द' की इस प्रति का मूल्य इतना बढ़ गया था।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि पांडुलिपि प्रथमतः कलाकृति होती है। कलात्मक काव्य के साथ सुन्दर लिप्यासन, कलात्मक लिपि-लेखन, कलात्मक पृष्ठ-सज्जा और कलात्मक चित्र-विधान से इनके अपने मूल्य के माथ पांडुलिपि का भी मूल्य घटताबढ़ता है।
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( ix
)
इस कलात्मकता के साथ भी पांडुलिपि विज्ञान का हमने इस पुस्तक में निरूपित किया है।
पर मुझे लगता है कि यह पुस्तक पांडुलिपि-विज्ञान की भूमिका ही हो सकती है, इसके द्वारा पांडुलिपि-विज्ञान की नींव रखी जा रही है।
__ पांडुलिपि का रूप बदलता रहा है और बदलता रहेगा। पांडुलिपि-विज्ञान की समस्त सम्भावनाओं को दृष्टि में रख कर अपनी भूमि प्रस्तुत करनी होगी। पांडुलिपि सावयव इकाई है और प्रत्येक अवयव घनिष्ठ रूप से परस्पर सम्बद्ध है, किन्तु विकास-क्रम में इनमें से प्रत्येक में परिवर्तन की सम्भावनाएँ हैं। विकास-यात्रा में इकाई के किसी भी अवयव में परिवर्तन आने पर पांडुलिपि के रूप में भी परिवर्तन आयेगा तद्नुकूल ही उसकी वैज्ञानिक समीक्षा में भी और विज्ञान के द्वारा उन्हें ग्रहण करने में भी।
पांडुलिपि के प्रत्येक अवयव से सम्बन्धित ज्ञान-विज्ञान और अनुसंधान का अपनाअपना इतिहास है। प्रत्येक के विकास के अपने सिद्धान्त हैं । इन अवयवों की अलग सत्ता भी है पर ये पांडुलिपि-निर्माण में जब संयुक्त होते हैं तो बाहर से भी प्रभावित होते हैं और संयुक्त समुच्चय की स्थिति में पांडुलिपि से भी प्रभावित होते हैं, उनसे पांडुलिपि भी प्रभावित होती है। यह सब-कुछ प्रकृत नियमों से ही होता है। हाँ, उसमें मानव-प्रतिभा का योगदान भी कम नहीं होता । पांडुलिपि-विज्ञान में इन सभी क्रिया-प्रतिक्रियाओं को भी देखना होता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि पांडुलिपि-विज्ञान का क्षेत्र बहुत विशद् है, बहुत विविधतापूर्ण है और विभिन्न ज्ञान-विज्ञानों पर आश्रित है। भला मुझ जैसा अल्प-ज्ञान वाला व्यक्ति ऐसे विषय के प्रति क्या न्याय कर सकता है !
पर पांडुलिपियों की खोज में मुझे कुछ रुचि रही है जो इस बात से विदित होती है कि मेरा प्रथम लेख जो कृष्णकवि के “विदुरप्रजागर" पर था और “माधुरी" में सम्भवतः 1924 ई० के किसी अंक में प्रकाशित हुआ था, एक पांडुलिपि के आधार पर लिखा गया था। फिर श्री महेन्द्र जी (अब स्वर्गीय) ने मुझे सन् 1926 के लगभग से नागरी प्रचारिणी सभा, आगरा के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज का अधिकारी नियुक्त कर दिया। इससे पांडुलिपियों और अनुसंधान में रुचि बढ़नी ही चाहिए थी। इसी सभा के पांडुलिपि-विभाग का प्रबन्धक भी मुझे रहना पड़ा। मथुरा के पं० गोपाल प्रसाद व्यास (आज के लब्धप्रतिष्ठित हास्यरस के महाकवि, दिल्ली हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधान मन्त्री तथा पद्मश्री से विभूषित एवं हिन्दी हिन्दुस्तान के सम्पादकीय विभाग के यशस्वी सदस्य) हस्तलेखों की खोज के खोजकर्ता नियुक्त किये गये। वहीं मथुरा में श्री त्रिवेदी (अब स्वर्गीय) काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज करने आये । मुझसे उन्हें स्नेह था, वे मेरे पास ही ठहरे। इस प्रकार कुछ समय तक प्रायः प्रतिदिन हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज पर बातें होती। इन सभी बातों से यह स्वाभाविक ही था कि हस्तलिखित ग्रंथों और उनकी खोज में मेरी रुचि बढ़ती। उधर ब्रज-साहित्य-मण्डल की मथुरा में स्थापना हुई । उसके लिए भी हस्तलेखों में रुचि लेनी पड़ी। जब मैं क० मु० हिन्दी विद्यापीठ में था तो वहाँ भी हस्तलेखों का संग्रहालय स्थापित किया गया। यहाँ अनुसंधान पर होने वाली संगोष्ठी में हस्तलेखों के अनुसंधान पर वैज्ञानिक चर्चाएँ करनी और करानी पड़ी। पं० उदयशंकर शास्त्री ने विद्यापीठ का हस्त-लेखागार सम्भाला । वे भी इस विषय में निष्ण त्
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सूरसागर के संपादन और पाठालोचन के लिए एक लिए करना पड़ा था। इन पांडुलिपियों की खोज की
थे । उनसे भी सहायता मैंने ली है। वृहद् सेमीनार का आयोजन भी मुझे ब्रज साहित्य मण्डल के सभी के परिणामस्वरूप मेरी रुचि पांडुलिपियों में बड़ी और दिशा में भी कुछ कार्य किया ।
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पर इनसे मेरी पांडुलिपि - विज्ञान की पुस्तक लिखने की योग्यता सिद्ध नहीं होती । अतः यह मेरी अनधिकार चेष्टा ही मानी जायगी। हाँ, मुझे इस कार्य में प्रवृत्त होने का साहस इसी भावना से हुआ कि इससे एक प्रभाव की पूर्ति तो हो ही सकती है। इससे इस बात की सम्भावना भी बढ़ सकेगी कि आगे कोई यथार्थ अधिकारी इस पर और अधिक परिपक्व और प्रामाणिक ग्रन्थ प्रस्तुत कर सकेगा ।
जो भी हो, ग्राज तो यह पुस्तक आपको समर्पित है और इस मान्यता के साथ समर्पित है कि यह पांडुलिपि - विज्ञान की पुस्तक है । डॉ० हीरालाल माहेश्वरी एम०ए०, पी-एच०डी०, डी०लिट् ने मेरे आग्रह पर अपने अनुभव और अध्ययन के आधार पर कुछ उपयोगी टिप्पणियाँ हस्तलेखों पर तैयार करके दीं । इन्होंने शतशः हस्तलेखों का उपयोग अपने अनुसंधान में किया है । कठिन यात्राएँ करके कठिन व्यक्तियों से पांडुलिपियों को प्राप्त किया है और उनका अध्ययन किया है । इसी प्रकार श्री गोपाल नारायण बहुरा जी ने भी कुछ टिप्पणियां हमें दीं। ये बहुत वर्षों तक राजस्थान प्राच्य - विद्या-प्रतिष्ठान से सम्बन्धित रहे, वहाँ से सेवा-निवृत्त होने पर जयपुर के सिटी पैलेस के 'पौथीखाने' और संग्रहालय में हस्तलिखित ग्रन्थों के विभाग से सम्बन्धित हो गये, इस समय भी वहीं हैं । इनको हस्तलेखों का दीर्घकालीन अनुभव है । और सोने में सुगंध की बात यह है कि प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान में इन्हें विद्वद्वर मुनि जिन विजय जी (अब स्वर्गीय) के साथ भी काम करने का अच्छा अवसर मिला । हमारे ग्राग्रह पर इन्होंने भी हमें इस विषय पर कुछ टिप्पणियाँ लिखकर दीं। इनकी इस सामग्री का यथासम्भव हमने पूरा उपयोग किया है और उसे इन विद्वानों के नाम से यथास्थान इस पुस्तक में समायोजित किया है । इनके इस सहयोग लिए मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ । जहाँ तक मुझे ज्ञात है, वहाँ तक मैं समझता हूँ कि "पांडुलिपि - विज्ञान" पर यह पहली ही पुस्तक है। गुजराती की मुनि पुण्यविजय की लिखी पुस्तक "भारतीय जैन श्रमरण संस्कृति अने लेखन कला" में पांडुलिपि - विषयक कुछ विषयों पर अच्छी ज्ञातव्य सामग्री बहुत ही श्रम, अध्यवसाय और सूझ-बूझ साथ संजोयी गयी है, पर इसमें दृष्टि सांस्कृतिक चित्र उपस्थित करने की रही है । उनकी इस पुस्तक को जैन लेखन कला और संस्कृति विषय का लघु विश्वकोष माना जा सकत है । इससे भी हमें बहुत-सी उपयोगी ज्ञान-सामग्री मिली है। मुनि पुण्यविजय जी भी प्रसिद्ध पांडुलिपि शोध- कर्त्ता हैं और इस विषय के प्रामाणिक विद्वान हैं । उनके चरणों में मैं अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ ।
किन्तु इस क्षेत्र में सबसे पहले जिस महामनीषी का नाम लिया जाना चाहिए वह हैं। "भारतीय प्राचीन लिपि माला" के यशस्वी लेखक महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा जी हिन्दी के अनन्य सेवक और हिन्दी प्रती थे । “भारतीय प्राचीन लिपि माला " जैसी अद्वितीय कृति उन्होंने दबावों और प्रग्रहों को चिन्ता न करके अपने व्रत के अनुसार हिन्दी में ही लिखी, और भारतीय विद्वानों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया। उनका यह ग्रन्थ तो पांडुलिपि - विज्ञान का मूलतः श्राधार ग्रन्थ ही है । मैंने ब्राह्मी लिपि का पहला पाठ
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उनकी इसी पुस्तक से सीखा था । मैं तो उनके दिव्य चरणों में श्रद्धा से पूर्णतः समर्पित हूँ । वे और उनके ग्रन्थ तो अब भी प्रेरणा के अखंड स्रोत हैं। उनसे भी बहुत कुछ इस ग्रन्थ में लिया है । यह कहने की श्रावश्यकता नहीं है कि ऐसे ही अनेक हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं के विद्वानों के ग्रन्थों से लाभ उठाया गया है और यथास्थान उनका नामोल्लेख भी किया गया है। इन सबके समक्ष मैं श्रद्धापूर्वक विनत हूँ । इन सभी विद्वानों के चरणों में मैं एक विद्यार्थी की भाँति नमन करता हूँ और उनके आशीर्वाद की याचना करता हूँ । उनके ग्रन्थों की सहायता के बिना यह पुस्तक नहीं लिखी जा सकती थी और पांडुलिपि - विज्ञान का बीज वपन नहीं हो सकता था ।
इस पुस्तक की तैयारी में सबसे अधिक सहायता मुझे राजस्थान विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अनुसंधान अधिकारी प्रवक्ता, डॉ० रामप्रकाश कुलश्रेष्ठ से मिली है । उनकी सहायता के बिना यह ग्रन्थ लिखा जा सकता था, इसमें मुझे संदेह है । इसका एकएक पृष्ठ उनका ऋणी है ।
इस पुस्तक का एक छोटा-सा इतिहास है । जब केन्द्रीय हिन्दी - निदेशालय और शब्दावली प्रयोग ने साहित्य और भाषा की विषय- नामिकाएँ बनाई तो उनमें मुझे भी एक सदस्य नामांकित किया गया । इन्हीं विषय-नामिकाओ में जब यह निर्धारित किया गया कि किन-किन ग्रन्थों का मौलिक लेखन कराया जाय, तब "पांडुलिपि - विज्ञान" को भी उसी सूची में सम्मिलित किया गया । इसका लेखन कार्य मुझे सौंपा गया ।
जब मैं राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष होकर था गया और कुछ वर्ष बाद राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी की स्थापना हुई तो इस अकादमी के 'साहित्यालोचन' और 'भाषा' की विषय-नामिका का एक सदस्य केन्द्र की ओर से मुझे भी बनाया गया । साथ ही उक्त ग्रन्थ भी लिखवाने और प्रकाशन के लिए राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी को दे दिया गया। दिसम्बर 73 तक इस विषय पर विशेष कार्य नहीं हुआ । 74 के आरम्भ से कुछ कार्य प्रारम्भ हुआ । 5 मार्च 74 को ग्रन्थ अकादमी के निदेशक पद से निवृत्त होकर मैं इस ग्रन्थ के लिखने में पूरी तरह प्रवृत्त हो गया । इसी का परिणाम यह ग्रन्थ है ।
इस ग्रन्थ की रचना में राजस्थान विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों का पूरा-पूरा उपयोग किया गया है । राजस्थान - हिन्दी-ग्रन्थ- प्रकादमी के पुस्तकालय का भी उपयोग किया गया है ।
पं० कृपाशंकर तिवारी जी के एक लेख को अपनी तरह से इसमें मैंने सम्मिलित कर लिया है | पं० उदयशंकर शास्त्री जी के एक चार्ट को भी ले लिया गया है । इन सबका यथास्थान उल्लेख है ।
जिन विषयों की चर्चा की गयी है, उनके विशेषज्ञों के ग्रन्थों से तद्विषयक वैज्ञानिक प्रक्रिया बताने या विश्लेपण - पद्धति समझाने के लिए आवश्यक सामग्री उद्धृत की गयी है। और यथास्थान उनका विश्लेषण भी किया गया है । इस प्रकार प्रत्येक चरण को प्रामाणिक बनाने का यत्न किया गया है। इन सभी विद्वानों के प्रति मैं नतमस्तक हूँ । यदि ग्रन्थ में कुछ प्रामाणिकता है तो वह उन्हीं के कारण है ।
प्रयत्नों के किये जाने पर भी हो सकता है कि यह भानुमती का कुनबा होकर रह गया हो, पर मुझे लगता है कि इसमें पांडुलिपि-विज्ञान का सूत्र भी अवश्य है ।
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(
xii
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पांडुलिपि-विज्ञान का अध्ययन विश्वविद्यालय के स्तर के विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए उपयोगी होता है । प्रत्येक शोध-संगोष्ठी में पांडुलिपि विषयक चर्चा किसी न किसी रूप में अवश्य होती है, पर सम्यक वैज्ञानिक ज्ञान के अभाव में सतही ही रह जाती है। इतिहास, साहित्य, समाज-शास्त्र, राजनीति-शास्त्र, आदि कितने ही ऐसे विषय हैं जिनमें किसी न किसी दृष्टि से पांडुलिपियों का उपयोग करना पड़ जाता है। साहित्य के अनुसंधानकर्ता का काम तो पांडुलिपियों के बिना चल ही नहीं सकता। विश्वविद्यालयों में अब पी-एच०डी० से पूर्व एम०फिल० के अध्ययन-अध्यापन का और विधान किया गया है। इसमें पी-एच० डी० के लिए परिपक्व अनुसंधान की योग्यता प्रदान कराने की व्यवस्था है । इस उपाधि के लिए पांडुलिपि-विज्ञान का अध्ययन अनिवार्य होना चाहिए, ऐसा मैं मानता हूँ, अन्यथा एम० फिल० की उपाधि से वह लाभ नहीं मिल सकेगा जो अभीष्ट है। अनुसंधान की प्रक्रिया का ऐसे अध्ययन में अपना महत्त्व है पर अनुसंधान-प्रक्रिया के अन्तर्गत विविध विज्ञानों की सहायता अपेक्षित होती है और यह पांडुलिपि-विज्ञान ऐसा ही एक विज्ञान है । अतः इस पुस्तक की आवश्यकता स्वयंसिद्ध है ।।
यों भी यह विषय अपने-आप में रोचक है, अतः मैं आशा करता हूँ कि इसका हिन्दी-जगत में स्वागत किया जायेगा ।
-सत्येन्द्र
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विषय-सूची
क-प्रकाशकीय भूमिका
I-II ख-भूमिका
III-VIII ग-विषय-सूची
IX-XIII घ–चित्र-सूची 1. पांडुलिपि-विज्ञान और उसकी सीमाएँ
1-18 नाम की समस्या-1, पांडुलिपि-विज्ञान क्या है-2, पांडुलिपि-विषयक विज्ञान की आवश्यकता-8, पांडुलिपि-विज्ञान एवं अन्य सहायक विज्ञान-9, शोध प्रक्रिया विज्ञान-10, लिपि-विज्ञान-11, भाषाविज्ञान-11, पुरातत्त्व-12, इतिहास-12, ज्योतिष-13, साहित्यशास्त्र-13, पुस्तकालय विज्ञान-14, डिप्लोमैटिक्स-14, पांडुलिपिविज्ञान-15, आधुनिक पांडुलिपि आगार-17 । 2. पांडुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया
19-66 रचना-प्रक्रिया में लेखक तथा भौतिक सामग्री-19, लेखक-20, लिपिकार-23, पर्यायवाची-24, महत्त्व-25, लिपिकार द्वारा प्रतिलिपि में विकृतियाँ-25, उद्देश्य-28, पाठ सम्बन्धी भूलों का पता लगाना-29, लेखन-31, लेखन : प्रानुष्ठानिक टोना-31, अन्य परम्पराएँ-32, शुभाशुभ-33, सामान्य परम्पराएँ-33, लेखन दिशा-33, पंक्तिबद्धता-34, मिलित शब्दावली-34, विराम चिह्न-34, पृष्ठ संख्या35, अक्षरांकों की सूची-36, संशोधन-38, चिह्न-38, छूटे अंश की पूर्ति के चिह्न-40, अन्य चिह्न-41, संक्षिप्ति-चिह्न-41, अंकलेखन-42, शब्दों से अंक-42. शब्द और संख्या : साहित्य-शास्त्र से-44. विशेष पक्ष : मंगल-प्रतीक-45, नमस्कार-46, आशीर्वचन-47, प्रशस्ति--47, वर्जना-47, उपसंहार : पुष्पिका-48, शुभाशुभ--48, लेखन-विराम में शुभाशुभ-49, लेखनी : शुभाशुभ-49, स्याही-52, प्रकार-54, विधियाँ-56, कुछ सावधानियाँ-57, विधि-निषेध-58, रंगीन स्याही59, सुनहरी, रूपहरी स्याही-60, चित्र रचना-रंग-60, सचित्र ग्रन्थों का महत्त्व-62, ग्रन्थ रचना के उपकरण-64, रेखापाटी-64, डोरा :
डोरी-64, ग्रन्थि-64, हड़ताल-66, परकार-66 । 3. पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान 67-128
क्षेत्र एवं प्रकार-67, निजी क्षेत्र-67, खोजकर्ता-68, व्यवसायी माध्यम-69, साभिप्राय खोज-69, विवरण लेना-71, विवरण का स्वरूप-72, बाह्य-विवरण-72, उदाहरण--72, प्रांतरिक परिचय-80, अतिरिक्त पक्ष-82, रख-रखाव-82, पुस्तक का स्वरूप--82, पुस्तक
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का प्रकार-83, लिप्यासन-83, रूप-विधान-84, पंक्ति एवं अक्षर परिमाण-84, पत्रों की संख्या-85, विशेष-86, अलंकरण-86, स्याही का विवरण-87, अंतरंग-परिचय-87, ग्रन्थकार/रचयिता का नाम87, रचना-काल-88, रचना का उद्देश्य-88, स्थान, भाषा, भाषा-वैशिष्ट्य, लिपि-लिपिकार, लिपिकार का परिचय, आश्रयदाता, प्रतिलिपि का स्वामित्व-88, अंतरंग परिचय का अान्तरिक पक्ष-89, प्रस्तावित प्रारूप-89, विवरण लेखन में दृष्टि-91, लेखा-जोखा-92, कालावधि-92, अनुक्रमणिकाएं-95, तालिकाएँ-95, विवरण में क्रम-95, तुलनात्मक अध्ययन-96, उदाहरण : कविचन्द-96, निष्कर्ष -114, विवरण-प्रकार : लघु सूचना-114, नलिन विलोचन शर्मा की पद्धति-115, उदाहरण : तालिका-117, संवर्द्धनार्थ सुझाव-118, उपयोगी तालिकाएँ-118, प्रांतरिक विवरण-विस्तार के रूप--119, कालक्रमानुसार सूची-120, तालिका-रूप-121, कल्लेवाइट की सूची : रूप-122, प्रतिलिपि काल का महत्त्व-123, नकली पांडुलिपियाँ
1251 4. पांडुलिपियों के प्रकार
129-173 प्रकार-भेद : अनिवार्य-129, लिप्यासन के प्रकार-130, चट्टानीय शिलालेख-131, शिलापट्टीय-133, स्तम्भीय-134, धातु वस्तु-137, पांडुलिपियों के प्रकार-प्रस्तर शिलाओं पर ग्रन्थ-139, धातु पत्रों पर ग्रन्थ-141, मृण्मय-141, पेपीरस-142, चमड़े पर लेख-143, ताड़पत्रीय-144, भूर्जपत्रीय-146, सांचीपातीय-146, कागजीय149, तूलीपातीय-152, पटीय ग्रन्थ--152, रेशमी कपड़े के-154, काष्ठपट्टीय-155, आकार के आधार पर प्रकार-157, गण्डी-157, कच्छी -157, मुष्टी-158, संपुट फलक-158, छेद पाटी-158, लेखन-शैली से प्रकार-158, कुंडलित-158, रूप विधान से प्रकार-- 160, त्रिपाट--160, पंचपाट-160, शुड-160, अन्य-160, सजावट के आधार पर प्रकार-160, ग्रन्थ में चित्र-161, सजावटी चित्रों की पुस्तकें-162, उपयोगी चित्रों वाली पुस्तकें-162, भिन्न माध्यम में लिखी पुस्तकें-163, अक्षरों के आकार पर आधारित प्रकार-163, कुछ अन्य प्रकार-163, पत्रों के रूप में-164, जिल्द के रूप में-164, पोथो, पोथी, गुटका-166, शिलालेख के प्रकार-इनकी छाप लेना169, धातु-पत्र-171, पत्र : विट्ठी-पत्री-172, कुछ अद्भुत लेख-172,
उपसंहार--1731 5. लिपि-समस्या
174-214 महत्त्व-174, लिपियाँ-174, चित्र-लिपि-175, चित्र और ध्वनि176, वित्र-178, बिम्ब एवं रेखा-चित्र--180, चित्र-लिपि से विकास -181, तीन प्रकार की लिपियाँ-182, अज्ञात लिपियों को पढ़ने के
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5
प्रयास-183, भारत की लिपियों को पढ़ने का इतिहास-183, लिपि के अनुसंधान की वैज्ञानिक प्रक्रिया-190, सिन्धुघाटी की लिपि-191, शब्द मूलक चित्रलिपि (logograph)-191, ध्वनिवर्ती शब्द-प्रतीक वाली लिपि-192, शब्द चिह्नों में व्याकरण सम्बन्धों को जानने का सिद्धान्त-192, लिपि के पढ़ने में अड़चनें-197. ब्राह्मी-लिपि की सामान्य वर्णमाला-199, भारत में लिपि-विचार- 200, लिपियों के वर्ण-201, विदेशी लिपियाँ-201, प्रादेशिक लिपियाँ-201, जनजातियों की लिपियाँ-202, साम्प्रदायिक लिपियाँ-202, चित्र रेखाचित्र लिपियाँ-202, स्मरणोप-कारी लिपियाँ-202, उभारी या खोदी हुई लिपियाँ-202, शैली-परक लिपियाँ--203, संक्रमण स्थिति द्योतक लिपि-203, त्वरा लेखन-203, विशिष्ट शैली-203, हिसाब-किताब विषयक शैली-203, दैवी या काल्पनिक-203, अठारह लिपियाँ-203, म्लेच्छित विकल्प-204, पल्लवी लिपियाँ-205, दातासी लिपि-206, सहदेवी लिपि-206, व्यावहारिक समस्याएँ-206, पांडुलिपियों की विशिष्ट अक्षरावली-207, विवादास्पद वर्ण-208, भ्रान्त वर्ण-210, प्रमाद से लिखे वर्ण-210, विशिष्ट वर्ण-चिह्न-212, विराम चिह्नों के लिए चार बातें-213, उपसंहार-214 । पाठालोचन
215-245 भूमिका-215, मूल-पाठ के उपयोग-215, लिपिक का सर्जन-215, पाठ की अशुद्धि और लिपिक-216, शब्द-विकार : काल्पनिक-216, शब्द-विकार : यथार्थ उदाहरण-216, प्रमाद का परिणाम-217, छूट, भूल और पागम-217, समानता के कारण अन्य अक्षर : मुनि पुण्य-विजयजी की सूची-218, लिपिक के कारण वंश-वृक्ष-219, पाठालोचन की आवश्यकता-220, प्रक्षेप या क्षेपक-221, क्षेपक के कारण-221, छुट-222, अप्रामाणिक कृतियाँ-222, पाठालोचन में शब्द और अर्थ का महत्त्व- 223, पांडुलिपि-विज्ञान और पाठालोचन224, प्रणालियाँ -224, वैज्ञानिक चरण-225, प्रक्रिया--226, ग्रन्थसमूह-226, तुलना-226, संकेत प्रगाली-227, वर्तनी सम्बन्धी उलझनें-228, विश्लेषण से निष्कर्ष-232, प्रतिलिपिकार प्रणाली232, स्थान संकेत प्रणाली-232, पाठ-साम्य के समूह की प्रणाली233, पत्र-संख्या प्रणाली-233, अन्य प्रणाली-233, पाठ-प्रतिया - 233, पाठ-तलना-234,प्रामाणिक पाठ-निधारा-234, पाठ-सम्बन्धों का वृक्ष-236, बाह्य और अंतरंग सम्भावनाएँ-236, पाठानुसंधान में भ्रान्ति और निवारण-237, तत्कालीन रूप और अर्थ से पुष्टि-236, पाठान्तर देना-238, प्रक्षेप और परिशिष्ट-239, अर्थन्यास और पाठलोचन-240, पाठ-निर्माण-241, पंचतन्त्र : वंश-वृक्ष-242, एजरटन की प्रणाली-243, हर्डन की सांख्यिकीय पद्धति-244, तुलनात्मक-भाषा वैज्ञानिक पद्धति-245, संकल्पनात्मक पद्धति-25 ।
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7. काल निर्धारण
246-309 भूमिका--246, काल-संकेत से समस्या-246, काल-संकेत के प्रकार246, इनसे समस्याएँ-248, काल-निर्धारण की दो पद्धतियाँ-249, काल-संकेत न रहने पर-250, पाणिनी की अष्ठाध्यायी का उदाहरण250, अंतरंग साक्ष्य का प्राधार-251, काल-संकेतों के रूप-252, सामान्य पद्धति-255, कठिनाइयाँ-255, अर्थान्तर की कठिनाई और पाठान्तर का झमेला-257, विविध सन्-संवत्-259, नियमित संवत्259, शक संवत्--259, शाके शालिवाहने-260, पूर्वकालीन शकसंवत्-260, कुषारण संवत्-260, कृत, मालव तथा विक्रम संवत्-260, गुप्त वंश तथा वल भी संवत्-261, हर्ष संवत्-261, सप्तर्षि संवत्262, कलियुग संवत्-262, बुद्ध निर्वारण संवत्-262, बार्हस्पत्य संवत्262, ग्रह परिवृत्ति संवत्सर-264, हिजरी सन्-264, शाहूर सन् या सुर सन् या अरबी सन्-264, फसली सन्-265, संवतों का सम्बन्ध : तालिकावद्ध-266, निरपेक्ष काल-क्रम-269, संवत्-काल जानना270, सौर वर्ष : संक्रान्ति-270, चान्द्रवर्ष-271, योग-271, भारतीय काल-गणना की जटिलता-272, शब्दों में काल संख्या-273, राज्यारोहा सवत् से काल-निर्धारण : श्री डी. सी. सरकार के आधार पर, विवेचना सहित-275, साक्ष्य : बाह्य अंतरंग-279, बाह्य साक्ष्य-279, अंतरंग साक्ष्य-279, वैज्ञानिक-280, बाह्य साक्ष्य : विवेचन-280, तुलसी के उदाहरण से-280, बहिःसाक्ष्य की प्रामाणिकता-284, अनुश्रुति या जनश्रुति-284, इतिहास एवं ऐतिहासिक घटनाएँ-285, इतिहास की सहायता में सावधानी-286, काल-निर्णय में झमेले के कुछ कारण (पद्मावत का उदाहरण)-288, सामाजिक परिस्थितियाँ एवं सांस्कृतिक उल्लेख-289, अंतरंग साक्ष्य-291, कागज : लिप्यासन-292, स्याही-293, लिपि-293, लेखन-पद्धति, अलंकरण आदि296, संकेताक्षरों की कालावधि-296, अंतरंग पक्ष : सूक्ष्म साक्ष्य293, भाषा-298, वस्तु-विषयक साक्ष्य-299, वैज्ञानिक प्रविधि
300, कवि-निर्धारण समस्या-300 । 8. शब्द और अर्थ की समस्या
310-333 अर्थ की दृष्टि से शब्द-भेद-310, शास्त्र एवं विषय के आधार पर शब्द-भेद : तालिका-311, मिलित शब्द-312, विकृत शब्द-312, पाठ-विकृतियों के मूल कारण-313, विकृत शब्दों के भेद-316, मात्राविकार-316, अक्षर-विकृत शब्द-316, विभक्त अक्षर-319, युक्ताक्षरविकृति-320, घसीटाक्षर विकृति-321, अलंकरण निर्भर विकृति321, नवरूपाक्षर युक्त शब्द-322, लुप्ताक्षरी शब्द-323, आगमाक्षरी -323, विपर्यस्ताक्षरी-323, संकेताक्षरी शब्द-324, विशिष्टार्थी शब्द-324, संख्या वाचक शब्द-326, वर्तनीच्युत शब्द-326,
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स्थानापन्न शब्द-326, अपरिचित शब्द-327, कुपठित-329, अर्थ समस्या-330, व्याकरण की उपेक्षा के परिणाम-332, अभिधा, लक्षणा, व्यंजना-3331 रख-रखाव
334-361 रख-रखाव की समस्या-334, ताडपत्र ग्रन्थ कहाँ सुरक्षित-334, भूर्जपत्र ग्रन्थ कहाँ-334, कागज के ग्रन्थों की स्थिति-335, ग्रन्थों के विनाश के कारण-335, विदेशी आक्रमण-335, साम्प्रदायिक विद्वेष336, भंडारों को बचाने के उपाय--336, 'तुन ह्वांङ' में ग्रन्थ सुरक्षा का कारण-337, कन्दराओं के ग्रन्थ-339, ज्ञान भंडारों के रक्षण की आवश्यकता के कारण-339, बाहरी प्राकृतिक वातावरण से रक्षा341, व्हलर का अभिमत-342, रख-रखाव का विज्ञान-344, वातावरण का प्रभाव-344, अच्छे रख-रखाव के उपाय-345, साधन345, पांडुलिपियों के शत्रु-346, थाइमल चिकित्सा-347, कीड़ेमकोड़ों से हानि और रक्षा-347, वाष्प चिकित्सा-348, दीमक-348, पांडुलिपियों में विकृतियाँ और चिकित्सा--350, सामग्री-350, चिकित्सा-351, अन्य चिकित्साएं-352, शिफन चिकित्सा-353, टिश्यू चिकित्सा-353, परतोपचार-354, भीगी पांडुलिपियों का उपचार-354, कागज को अम्ल रहित करना-355, अम्ल-निवारण355, राष्ट्रीय अभिलेखागार की पद्धति-356, अमोनिया गैस से उपचार-357, ताड़पत्र एवं भूर्जपत्र का उपचार-357, डेक्स्ट्राइन की लेई-358, मैदे की लेई-359, चमड़े की जिल्दों की सुरक्षा-359, उपयोगी पुस्तकें-360। परिशिष्ट--1 पुस्तकालय सूची
362-374 परिशिष्ट-2 काल निर्धारण
374-375 परिशिष्ट-3 ग्रन्थ-सूची
375-380
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चित्र-सूची
चित्र
पृष्ठ संख्या मंगल प्रतीक [5]
पृष्ठ 45-48 के लिए खंभात के कल्पसूत्र का एक चित्र
पृष्ठ 61 के लिए चंदायन का चित्र
पृष्ठ 61 के लिए ताड़पत्र की पांडुलिपि का चित्र
पृष्ठ 61 के लिए सचित्र सूर सागर
पृष्ठ 62 के लिए मैनासत प्रसंग का अन्तिम पत्र
पृष्ठ 65 के लिए 1. चट्टानीय शिलालेख
131 2. रोसेटा का शिलालेख
132 3. पुष्पगिरि का शिलालेख
133 4. कालकुंड का पालि या वीर स्तम्भ
134 5. देवगिरि का सतो स्तम्भ
135 6. महाकूट का धर्म स्तम्भ
135 7. नालन्दा की मृण्मय मुहर
137 8. मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर
137 9. काष्ठपट्टिका सचित्र
156 10. सचित्र कुंडलित ग्रन्थ 11. कुंडली ग्रन्थ : रखने के पिटक के साथ
159 12. रेखाचित्र की प्रक्रिया (चित्र-1)
176 13. आदिम मानव के बनाये चित्र : वर्गाकार धड़ युक्त (चित्र-2)
176 14. सिन्धुघाटी की मुहरों से चित्रलिपि में मनुष्य के विविध रेखांकन
(चित्र-3) 15. प्रस्तर युग का जंगली बैल
178 16. दो शैली बद्ध हिरण : वुशमैन चित्र
179 17. बनियावेरी गुफा में स्वास्तिक पूजा
179 18. सहनर्तन
180 19. पारोही नर्तन
180 20. एरिजोना में प्राप्त प्राचीनतम चित्रलिपि
180 21. मिस्र की हिरोग्लिफिक चित्रलिपि
181 22. चित्रलिपि
182 23. हस्तलेखों की वर्णमाला, मात्राएँ एवं अंक
200 24. ददरेवा का शिलालेख
254 25. तुनह्नांग की बौद्ध गुफाओं का चित्र
338
156
176
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अध्याय
1
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पाण्डुलिपि - विज्ञान और उसकी सीमाएँ
नाम की समस्या
ताम्रपत्र तथा अन्य धातु
इस विज्ञान का सम्बन्ध मनुष्य द्वारा लिपिबद्ध की गई सामग्री से है। मनुष्य ने कितनी ही सहस्राब्दियों पूर्व लेखन कला का आविष्कार किया था। तब से अब तक लिपिबद्ध सामग्री अनेक रूपों में मिलती है । श्रतः यहाँ लेखन से भी कई ग्रर्थ ग्रहण किये जा सकते हैं। आधुनिक युग में जिस तरह से हाथ से, लेखनी के द्वारा कागज पर लिखा जाता है। उसी प्रकार मनुष्य की सभ्यता के प्रारम्भ और विकास की अवस्थाओं में यह लेखनक्रिया ईंट पर पत्थरों पर, शिलालेखों के रूप में या टंकरण द्वारा की जाती रही । मोम-पाटी पर या चमड़े पर भी लिखा गया । ताड़पत्र पर नुकीली लेखनी से गोदन द्वारा यह कार्य किया गया और कपड़ों पर छापों द्वारा, भोजपत्र पर लेखनी के द्वारा, पत्रों पर टंकरण द्वारा या ढालकर या छापों द्वारा अपने विचारों को अंकित किया गया है । तः इस विज्ञान को इन सभी प्रकार के लेखों का अपनी सामग्री के रूप में उपयोग करना होगा । इन सभी को हम लेख तो आसानी से कह सकते हैं क्योंकि विविध रूपों में लिपिबद्ध होने पर भी लिखने का भाव इनके साथ बना हुआ है। मुहावरों में भी टंकरण द्वारा लेखन, गोदन द्वारा लेखन, आदि प्रयोग प्राते हैं । इतिहासकारों ने भी अपने अनुसंधानों में इनको अभिलेख, शिलालेख, ताम्रपत्र लेख आदि का नाम दिया है। इन्हें जो लेख भी मिले हैं। उन्हें, वासुदेव उपाध्याय ने धार्मिक लेख, 'प्रशंसामय-अभिलेख, स्मारक - लेख, प्राज्ञापत्र एवं दान-पत्र' के रूपों में प्रस्तुत किया गया बताया है । मुद्राओं पर भी अभिलेख अंकित माने जाते हैं । इन अभिलेखों से आगे पुस्तक लेखन प्राता है तो इसका एक अलग वर्ग बन जाता है । वस्तुतः यही वर्ग संकुचित अर्थ में इस पाण्डुलिपि - विज्ञान का यथार्थ क्षेत्र है । अंग्रेजी में इन्हें 'मैन्युस्त्रिप्ट्स' कहते हैं । 'मैन्युस्क्रिप्ट' शब्द को हस्तलेख नाम भी दिया जाता है। और पाण्डुलिपि भी । रूढ़ अर्थ में पाण्डुलिपि का उपयोग हाथ की लिखी पुस्तक के उस रूप को दिया जाने लगा है जो प्रेस में मुद्रित होने के लिए देने की दृष्टि से अन्तिम रूप से तैयार हो । फिर भी, इसका निश्चित अर्थ वही है जो हस्तलेख का हो सकता है । हस्तलेख का अर्थ पाण्डुलिपि से अधिक विस्तृत माना जा सकता है क्योंकि उसमें शिलालेख तथा ताम्रपत्र प्रादि का भी समावेश माना जाता है किन्तु पाण्डुलिपि का संबंध ग्रन्थ से ही होता है । आज मैन्युस्क्रिप्ट के पर्याय के रूप 'हस्तलेख' और 'पाण्डुलिपि' दोनों
आजकल हस्तलिखित ग्रन्थों को हस्तलेख को कहा जाता था
पं० उदयशंकर शास्त्री ने पांडुलिपि के सम्बन्ध में यह लिखा है कि पांडुलिपियों कहा जाने लगा है। किन्तु प्राचीन काल में पांडुलिपि उस . जिसके प्रारूप (मसविदा) को पहले लकड़ी के पट्टे या जमीन पर खड़िया (पांड) (चाक) से लिखा : जाता था फिर उसे शुद्ध करके अन्यत्र उतार लिया जाता था और उसी को पक्का कर दिया जाता था । हिन्दी में यह अर्थ विपर्यय अग्रेजी के कारण हुआ है । अंग्र ेजी में किसी भी प्रकार के हस्तलेख को 'मैग्युस्क्रिप्ट' कहते हैं । - [भारतीय साहित्य, जनवरी, १६५६, पृ० १२० ]
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2 पाण्डुलिपि-विज्ञान
ही प्रयुक्त होते हैं। हस्तलेख से हस्तरेखानों का भ्रम हो सकता है। इस दृष्टि से 'मैन्युस्क्रिप्ट' के लिए पाण्डुलिपि शब्द कुछ अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है इसलिए हमने इसी शब्द को मान्यता दी है।
अंग्रेजी के विश्वकोषों में 'मैन्युस्क्रिप्ट' का क्षेत्र काफी विशद माना गया है ।। फलतः आज 'मैन्युस्क्रिप्ट' या 'पांडुलिपि' का यही विस्तृत अर्थ लिया जाता है । यही अर्थ इस ग्रन्थ में भी ग्रहण किया गया है । पांडुलिपि विज्ञान क्या है ?
___ मनुष्य अपनी आदिम अवस्था के वन्य-स्वरूप को पार करके इतिहास और संस्कृति का निर्माण करता हुआ, लाखों वर्षों की जीवन-यात्रा सम्पन्न कर चुका है। वह अपनी इस यात्रा में चरण-चिह्न छोड़ता आया है। इन चिह्नों में से कुछ आदिम अवस्था में गुफापों में निवास के स्मारक गुहा-चित्र हैं जो 30,00,00 वर्ष ई. पू. से मिलते हैं । इन चिह्नों में इनके अतिरिक्त भवनों के खंडहर हैं, विशाल समाधियाँ हैं, देवस्थान हैं; अन्य उपकरण जैसे बर्तन, मृद्भांड, मुद्राएं, एवं मृण्मूर्तियाँ हैं, ईंटें हैं, तथा अस्त्र-शस्त्र हैं। इनके साथ ही साथ शिलालेख हैं, ताम्रपट्ट हैं, भित्तिचित्र हैं। इन सबके द्वारा और सब में
1. न्यू यूनिवर्सल ऐनसाइक्लोपीडिया भाग 10 में बताया गया है कि मैन्युस्क्रिप्ट मैटिन के [Manu
Scriptus] मनु-+-स्क्रिप्ट्स से उत्पन्न है। इसका अर्थ होता है हाथ की लिखावट । विशद अर्थ में कोई भी ऐसा लेख जो छपा हुआ नहीं है इसके अन्तर्गत आयेगा। सकुचित अर्थ में छपाई का प्रयत्न होने से पूर्व जो सामग्री पेपीरस, पार्चमेण्ट अथवा कागज पर लिखी गई वही 'मैन्यु स्क्रिप्ट' कही गई । एनसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना के अनुसार छापेखाने की छपाई आरम्भ होने से पूर्व का समस्त साहित्य 'मैन्युस्क्रिप्ट' के रूप में ही था। इसके अनुसार वह समस्त सामग्री 'मैन्युस्क्रिप्ट' कही जायेगी जो किसी भी रूप में लिखी गई हो, चाहे वह कागज पर लिखी हो अथवा किसी अन्य वस्तु पर, जैसे धातु, पत्थर, लकड़ी, मिट्टी, कपड़े, वृक्ष की छाल, वृक्ष के पत्त, अथवा चमड़े पर ।
in Archae logy a manuscript is any early writing on stone, metal, wood, clay, linen, bark and leaves of tress and prepared skins of animals, such as goats, sheep and calves. -The American People's Encyclopaedia. (p. 175).
विद्वानों का यह अभिमत है कि खोज में जो सामग्री अब तक मिली है उसके आधार पर यह माना जा सकता है कि पहले लेखन-कार्य आदिम मानवों की चित्रकला की भाँति गफाओं की भित्तियों पर या शिलाश्रयों की भित्तियों पर हुआ होगा। तब पत्थरों या ढोकों का उपयोग किया गया होगा। तदनन्तर मिटी (Clay) की ईटों पर। इंटों के बाद पेपीरस का आविष्कार हआ होगा । पेपीरस के खरड़ों [Rolls] पर ग्रन्थ रहता था। इसी के साथ-साथ लिखने, मिटाने और फिर लिखने की सुविधा की दृष्टि से लकड़ी की पाटी या पट्टी काम में ली जाने लगी। पश्चिम में मोम की पाटी का उपयोग मिलता है। आगे के विकास में यह मोम पाटी आवरण पटल का रूप लेने लगी। 'पेपीरस' के रोल्स या खरीते बलचिताएं या कुण्डलियां बहुत लम्बे होते थे। ये असुविधाजनक लगे तो इन्हें दुहरा तिहरा कर पृष्ठ या पन्ने का रूप दिया गया और मोमपाटी के आवरण पटल इन पृष्ठों के रक्षक बन गये । ये ऊपर और नीचे के दोनों पटल एक ओर तार से गूथे जाते थे। बाद में लिप्यासन के लिए पेपीरस के स्थान पर पार्चमेण्ट [चर्मपत्न] काम में आने लगा तो पार्चमेण्ट या चर्म-पत्र ग्रन्थ के पृष्ठों की भांति और मोमपाटी या लकड़ी की पट्टियां आवरण पटल की भांति उपयोग में आने लगे । इनको कोडैक्स [Codex] कहा जाता है। आधुनिक जिल्द-बन्द ग्रन्थों के पूर्वज ये 'कौडक्स' ही हैं । ऐसा माना जाता है कि पार्चमेण्ट [चर्मपत्र का उपयोग निप्यासन के लिए प्रथम ई० शती से होने लगा था। इनका कोडेक्सी रूप में प्रचार ईसा की चौथी शताब्दी से विशेष रूप से हआ। ये सभी पांडलिपि के भेद हैं, जिन्हें विकास-क्रम से यहां बताया गया है ।
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पाण्डुलिपि-विज्ञान और उसकी सीमाएँ /3
से उस प्रागैतिहासिक मनुष्य का रूप ऐतिहासिक काल की भूमिका में उभरता है, जो प्रगति पथ की ओर चलता ही जा रहा है। उसके संघर्ष के अवशेष इतिहास के काल-क्रम में दबे मिल जाते हैं । उनसे मनुष्य की संवर्ष कथा का बाह्य साक्ष्य मिलता है । इन बाह्य साक्षियों के प्रमाण से हम उसके अंतरंग तक पहुंचने का प्रयत्न करते हैं। प्रत्येक ऐसे आदिम उपादानों के साथ सहस्राब्दियों का मानवीय इतिहास जुड़ा हुआ है। इन अवशेषों के माध्यम से इतिहासकार उन प्राचीन सहस्राब्दियों का साक्षात्कार कल्पना के सहारे करता है। उन्हीं के आधार पर वह प्राचीन मानव के मन एवं मस्तिष्क, विचारों और प्रास्थानों के सूत्र तैयार करता है।
उदाहरणार्थ-अल्टामीरा की गुफाओं में दूर भीतर अँधेरे में कुछ चित्र बने मिले । मनुष्य ने अभी भवन या झोपड़ी बनाना नहीं सीखा, अतः वह प्राकृतिक पहाड़ियों या गुफाओं में शरण लेता था । गुफाओं में भीतर की ओर उसने एक अँधेरा स्थान चुना यानी उसने निभृत स्थान, एकान्त स्थान चुना क्योंकि वह चाहता था कि वहाँ वह जो कुछ करना चाहे, वह सबकी दृष्टि में न आवे । उसका वह स्थान ऐसा है, कि जहाँ उसके अन्य साथी भी यों ही नहीं पा सकते । स्पष्ट है कि वह यहाँ पर कोई गुह्य कृत्य करना चाहता था।
चित्र-यहाँ उसने चित्र बनाये । अवश्य ही वह इस समय तक कृत्रिम प्रकाश उत्पन्न करना जान गया था, उसी प्रकाश में वह चित्र बना सका, अन्यथा वह चित्र न बना पाता । साथ ही गुह्य स्थान पर जो चित्र उसने बनाये वे चित्र सोद्देश्य हैं । इसका उद्देश्य टौना हो सकता है । वह टोने में अवश्य विश्वास करता था। उसी टोने के लिए तथा तद्विषयक अनुष्ठानों के लिए एकान्त अन्धकार पूर्ण गुह्य अंश उस गुफा में उसने चुना, और वहाँ वे चित्र बनाये 12 इन चित्रों के माध्यम से टोने के द्वारा अपना अभीष्ट प्राप्त करना चाहता था। प्रागैतिहासिक काल के लोग टोने में विश्वास करते थे। उनके लिए टोना धर्म का ही एक रूप था ऐसा कुछ हम गुहा और उनके चित्रों को देखकर कह सकते हैं। किन्तु यथार्थ यह है कि यह जो कुछ कहा गया है उससे भी और अधिक कहा जा सकता था-पर यह सब कुछ बाह्य साक्ष्य से मानस के अंतरंग तक पहुँचाने के उपक्रम में कल्पना के उपयोग से सम्भव होता । उदाहरणार्थ--सामने चित्र है । पुरातत्वविद् उसे देख रहा है। चित्र, उसकी भूमि, उसका स्थान-स्थान का स्वरूप और स्थिति, वहाँ उपलब्ध कुछ उपादान, गुफाओं का काल-ये सब पुरातत्वविद् की कल्पना दृष्टि के लिए एक
2
Much research in this field has been done in recent yea s, and we now have a fairly definite knowledge of the Art of some of the most-primitive of men known to the anthropologist (from 30,000 to 10,000 B C.)......but the famous cave drawings of animals at Altamira in Spain are the most important.
-The Meaning of Art, p. 53. There is evidence to show that painting have been often repainted, and that the places where they are found were in some way regarded as sacred by the Bushmen
-The Meaning of Art, p. 54. "By the symbolical representation of an event , primitive man thinks he can secure the actual occurence of that event. The desire for progeny, for the death of an enemy, for servival after death, or for the exorcism or propitiation of adequate symbol. (यही टोना है।)
-Read, Herbert : The Meaning of Art, p. 57.
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4/पाण्डुलिपि-विज्ञान
भाषा हैं जिनसे वह आदिम युग के मनुष्य के मानस को पढ़कर निरूपित कर पाता है । ..सभ्यता और संस्कृति के विकास में यह आदिम मनुष्य ऐसे मोड़ पर पहँचाता है कि वह एक और तो चित्र से लिपि की दिशा में बढ़ता है, दूसरी ओर 'भाषा' का विकास कर लेता है । तब वह अपने विचारों को इस प्रकार लिख सकता है कि पढ़ने वाला जैसे स्वयं लिखने वाले के समक्ष खड़ा होकर लिपि की लकीरों से लेखक के मानम का साक्षात्कार कर रहा हो। अब सामान्यतः अपनी कल्पना से उसे लेखक के मानस का निर्माण नहीं करना, जैसे गुफा-निवासी के मानस का किया गया; वह मानस तो लेख से लेखक ने ही खड़ा कर दिया है। इस लेखन के अनेक रूप हो सकते हैं, अनेक लिपियाँ हो सकती हैं, अनेक भाषाएँ हो सकती हैं। पर सबमें मनुष्य का मानस-व्यापार, उसके भाव-विचार, उसने जो देखा-समझा उसका विवरण होता है। वस्तुतः लेख में ही मनुष्य, का साक्षात् मानस प्रतिबिंबित मिलता है। ये सभी, चित्र से लेकर लिपि-लेखन सक, पांडुलिपि के अन्तर्गत माने जा सकते हैं।
'लेखन' एक जटिल व्यापार है। इसमें एक तत्त्व तो लेखक है. जिसके अन्तर्गत उसका व्यक्तित्व, उसका मनोविज्ञान और अभिव्यक्ति के लिए उसका उत्साह, अभिप्राय और प्रयत्न–शरीर, हृदय और मस्तिष्क-इन सबसे बनी एक इकाई-सभी सम्मिलित हैं; उसके अन्य तत्त्व लेखनी, लिखने के लिए पट या कागज, स्याही प्रादि हैं । इनमें से प्रत्येक का अपना इतिहास है, सबके निर्माण की कला है, और सबको समझने का एक विज्ञान भी है। लिपिक अपना अलग महत्त्व रखता है। लेखक जब ग्रन्थ-रचना करता है, तब वह अपना लिपिक भी होता है क्योंकि वह स्वयं लिखकर ग्रन्थ प्रस्तुत करता है । लेखक के अपने हाथ में लिखे ग्रन्थ का अपने आप में ऐतिहासिक महत्त्व है। ग्रन्थ-रचयिता कितना ही विद्वान और पंडित हो, जब ग्रन्थ रचना करता है, अपने विचारों और विषयों को लिपिबद्ध करता है तो कितनी ही समस्याओं को जन्म देता है। ये प्रायः वे ही समस्याएँ होती हैं, जो सामान्य लिपिकार पैदा करता जाता है। और ऐमी अनेक प्रकार की समस्याओं के लिए पांडुलिपि-विज्ञान की अपेक्षा है।
हमने यह देखा कि पांडुलिपि से सम्बन्धित कई पक्ष हमारे सामने आते हैं । एक पक्ष ग्रन्थ के लेखन और रचना विषयक हो सकता है। यह ग्रन्थ-लेखन की कला का विषय बन सकता है । दूसरा पक्ष, उसकी लिपि से सम्बन्धित हो सकता है, यह 'लिपि विज्ञान' का विषय है । 'लिपिकार' सम्बन्धी पक्ष भी कम महत्त्व का नहीं। तीसरा पक्ष, भाषा-विषयक है जो भाषा-विज्ञान और व्याकरण के क्षेत्र की वस्तु है। चौथा पक्ष, उस ग्रन्थ में की गई चर्चा के सम्बन्ध में हो सकता है, उसमें ज्ञान-विज्ञान की चर्चा हो सकती है, वह काव्य ग्रन्थ भी हो सकता है। ये सभी पक्ष साहित्यालोचन या विविध ज्ञान-विज्ञान और काव्य शास्त्र से सम्बन्धित हैं । यह पक्ष 'शब्द-अर्थ' का ही एक पक्ष है । ये ग्रन्थ चित्रयुक्त भी हो सकते हैं। चित्र का विषय चित्रकला के क्षेत्र में जायेगा। ग्रन्थ जिस पर लिखा गया है उस वस्तु (चमड़ा, ईट, छाल, पत्ता, कपड़ा, आदि) का एक अलग पक्ष है, फिर उसे किस प्रकार पुस्तकाकार बनाया जाता है यह अलग विज्ञान है । स्याही एवं लेखनी का निर्माण एक पृथक् अध्ययन का विषय है। ग्रन्थ इन सभी से मिलकर तैयार होता है और ये सभी पक्ष इससे बँध जाते हैं । इसके बाद ग्रन्थों की प्रतिलिपि का पक्ष आता है। किसी प्राचीन ग्रन्थ की अनेकानेक प्रतियाँ लम्बे ऐतिहासिक काल में बिखरी हुई और विस्तृत
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पाण्डुलिपि-विज्ञान और उसकी सीमाएँ।5
भु-भाग में फैली हुई मिलती हैं । प्रतिलिपि की अपनी कला है। इस पक्ष का अपना महत्त्व है । इन प्राचीन प्रतियों को लेकर उनके प्राधार पर ग्रन्थ का सम्पादन करना तथा एक ग्रादर्श पाठ प्रस्तुत करना एक अलग पक्ष है । इसका एक अलग ही पाठालोचन-विज्ञान अस्तित्व में पा चुका है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि एक पांडुलिपि में कितनी ही बातें होती हैं और उनमे से अनेक का एक अलग विज्ञान है पर उनमें से कोई भी अलग-अलग पांडुलिपि नहीं है, न लिपि मात्र पांडुलिपि है और न उसमें लिखी भाषा और अंक, न चित्र, न स्याही और न कागज, न शब्दार्थ, न उसमें लिखा हुमा ज्ञान-विज्ञान का विषय, ---पांडुलिपि इन सबसे मिलकर बनती है, साथ ही इन सबसे भिन्न है । लेकिन इन सबके ज्ञान-विज्ञान से पांडुलिपि के विज्ञान को भी हृदयंगम करने में महायता मिल सकती है। उसके ज्ञान के लिए ये विज्ञान सहायक हो सकते हैं। पांडुलिपि विज्ञान की दृष्टि से जिस पर सबसे पहले दृष्टि जाती है वह तो इन सबके पारस्परिक नियोजन की बात है। उन सबका नियोजनकर्ता एक व्यक्ति अवश्य होता है । वह स्वयं उस पांडुलिपि का कता हो सकता है अतएव विद्वान और पण्डित । किन्तु वह मात्र एक लिपिक भी हो सकता है जो उसकी प्रतिलिपि प्रस्तुत करे । मूल पांडुलिपि भी पांडुलिपि है और उसकी प्रतिलिपि भी पांडुलिपि है । इस प्रकार एक व्यक्ति द्वारा पांडुलिपि के विभिन्न तत्त्वों के नियोजन मात्र से ही वह व्यक्ति पांडुलिपि को पूर्णता प्रदान करने में समर्थ नहीं है । क्योंकि उसके जो उपादान हैं उन पर लेखक तथा लिपिकर्ता का वश नहीं होता । उमे कागज दूसरे से तैयार किया हुआ लेना होता है, वह कागज स्वयं नहीं बनाता । यदि अनेक प्रकार के कागज हों तो वह चयन कर सकता है। इसी प्रकार लेखनी तथा काम पर भी उसका अधिकार नहीं । वह प्राकृतिक उपादानों से लेखनी तैयार करता है और जैसी भी लेखनी उसे मिलती है उसका वह अपनी दृष्टि से निकृष्ट और उत्कृष्ट उपयोग कर सकता है । स्याही भी वह बनी बनाई लेता है और यदि बनाता भी है तो जिन पदार्थों से स्याही बनायी जाती है, वे सभी प्रकृतिदत्त पदार्थ होते हैं जिनका वह स्वयं उत्पादन नहीं करता। फिर जब वह लिखना प्रारम्भ करता है तो वर्ण, शब्द और भाषा उसे संस्कार, शिक्षा तथा अभ्यास से मिलते हैं । लिपि के अक्षरों के निर्माण में उसका कोई हाथ नहीं होता किंतु प्रत्येक अक्षर के निर्धारित रूप को लिखने में वह अपने अभ्यास का और रुचि का भी फल प्रस्तुत करता है इसमे वर्गों के रूप-विन्यास में कुछ अन्तर पा सकता है । किन्तु इन सभी वस्तुओं का नियोजन वह एक विधि से ही करता है और इस विधि की परीक्षा ही पांडलिपि-विज्ञान का मुख्य लक्ष्य है। पांडलिपि का विषय क्या है, यह पांडुलिपि-विज्ञान के अध्येता की दृष्टि से विशेष महत्त्व की बात नहीं है । इसका उसे इतना ही परिचित होने की आवश्यकता है जितने से वह पांडुलिपि के विषय की कोटि निर्धारित कर सके।
किन्तु यह उसके लिए अवश्य आवश्यक है कि पांडुलिपि के सम्बन्ध में जो प्रश्न उठे उनका वह प्रामाणिक समाधान प्रस्तुत कर सके । अतः जिन विषयों पर पांडुलिपिवेत्ता से प्रश्न किये जा सकते हैं वे सम्भवतः इस प्रकार के हो सकते हैं :--- (1) पांडुलिपि की खोज और प्रक्रिया। पांडुलिपि का क्षेत्रीय अनुसंधान भी इसी के
अन्तर्गत आयेगा। (2) भौगोलिक और ऐतिहासिक प्रणाली से पांडुलिपियां के प्राप्त होने के स्थानों का
निर्देश ।
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6 पाण्डुलिपि-विज्ञान
(3) पांडुलिपियों के मिलने के स्थान के समस्त परिवेश से प्राप्त पांडुलिपि का सम्बन्ध
निरूपण । (4) पांडुलिपियों के विविध पाठों के संकलन के क्षेत्रों का अनुमानित निर्देश । (5) पांडुलिपि के काल-निर्णय की विविध पद्धतियाँ । (6) पांडुलिपि के कागज, स्याही, लेखनी आदि का पांडुलिपि के माध्यम से ज्ञान और
प्रत्येक काल-ज्ञान के अनुसंधान की पद्धति । (7) पांडुलिपि की लिपि का विज्ञान तथा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि । (8) पांडुलिपि के विषय की दृष्टि से उसकी निरूपण शैली का स्वरूप । (9) पांडुलिपि के विविध प्रकारों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य तथा उन प्रकारों का भौगोलिक
सीमा-निर्देश । (10) पांडुलिपि की प्रतिलिपियों के प्रसार का मार्ग तथा क्षेत्र । (11) पांडुलिपियों के माध्यम से लिपि के विकास का इतिहास । (12) लिपिकारों के निजी व्यक्तित्व का परिणाम । (13) लिपियों में वैशिष्ट्य और उन वैशिष्ट्यों की भौगोलिक तथा ऐतिहासिक व्याख्या । (14) पांडुलिपियों की प्रामाणिकता की परीक्षा । (15) पाठालोचन-प्रणाली । (16) पाठ-पुनर्निर्माण-प्रणाली । (17) शब्द रूप और अर्थ तथा पाठ । (18) पांडुलिपियों की सुरक्षा की वैज्ञानिक पद्धतियाँ । (19) पांडुलिपियों के संग्रहालय और उनके निर्माण का प्रकार । (20) पांडुलिपियों के उपयोग का विज्ञान । (21) पांडुलिपि और अलंकरण । (22) पांडुलिपि में चित्र । (23) पांडुलिपि की भाषा का निर्णय । (24) पांडुलिपि-लेखक, प्रतिलिपिकार, चित्रकार और सज्जाकार । (25) पांडुलिपि, प्रतिलिपि लेखन के स्थान, तथा प्राप्त सुविधाएँ, प्रतिलिपिकार की
योग्यताएँ। (26) ग्रन्थ-लेखन तथा प्रतिलिपि-लेखन के शुभ-अशुभ मुहूर्त । (27) पांडुलिपि के लिप्यंकन में हरताल प्रयोग, काव्य प्रयोग, संशोधन-परिवर्द्धन को
पद्धतियाँ ।
पांडुलिपि विज्ञान इसलिए भी विज्ञान है कि वह पांडुलिपि का अध्ययन किसी एक विशिष्ट पांडुलिपि को दृष्टि में रखकर नहीं करता वरन् पांडुलिपि के सामान्य रूप को ही लेता है । पांडुलिपि शब्द से कोई विशेष पुस्तक सामने नहीं आती । प्रत्येक प्रकार की पांडुलिपियों में कुछ सामान्य लक्षण ऐसे होते हैं कि उनसे युक्त सभी प्रन्थ पांडुलिपि कहे जाते हैं। पांडुलिपि शब्द के अन्तर्गत समग्र पांडुलिपियाँ सामान्य रूप में अभिहित होती है जो लिखी गई हैं, लिखी जा रही हैं, या लिखी जाएंगी। यह विज्ञान उन सभी को दृष्टि में रखकर विचार करता है। इसी दृष्टि से पांडुलिपि-गत सामान्य विषयों का पांडुलिपि-विज्ञान विश्लेषण करता है और विश्लेषित प्रत्येक अंग पर वैज्ञानिक दृष्टि से कार्य-कारण परम्परा
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पाण्डुलिपि-विज्ञान और उसकी सीमाएं/7
में बांधकर सैद्धान्तिक विचार करता है । इनके आधार पर वह ऐसे निष्कर्ष प्रस्तुत करता है जिनसे तत्सम्बन्धी विभिन्न प्रश्नों और समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। पांडुलिपि-विज्ञान पांडुलिपि से सम्बन्धित तीनां पक्षों से सम्बन्धित होता है, ये पक्ष हैं : लेखन पक्ष, पांडुलिपि का प्रस्तुतीकरण पक्ष, जिसमें सभी प्रकार की पांडुलिपियाँ परिगणनीय हैं और तीसरा सम्प्रेषण पक्ष, जिसमें पाठक वर्ग सम्मिलित होता है, पांडुलिपि लेखक और पाठक इन दोनों पक्षों के लिए सेतु या माध्यम है । अतएव पांडुलिपि के अपने पक्ष के साथ पांडुलिपि-विज्ञान इन दोनों पक्षों का पांडुलिपि के माध्यम से उस अंश का जिस अंश के कारण पांडुलिपि हस्तलेख में ग्राती है वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन करता है । यह विज्ञान पांडुलिपि के समग्र रूप के निर्माण में इन दोनों पक्षों के योगदान का भी मूल्यांकन करता है।
ग्रन्थ रचना की प्रक्रिया में मूल अभिप्राय है लेखक का यह प्रयत्न कि वह पाठक तक पहुंच सके और आज के पाठक तक ही नहीं दीर्घाति-दीर्घकालीन भविष्य के पाठकों तक पहुंच सके । 'लेखन' क्रिया का जन्म ही अपनी अभिव्यक्ति को भावी युगों तक सुरक्षित रखने के लिए हुया है।
फलतः लेखन के परिणामस्वरूप प्राप्त अन्य या पांडुलिपि लेखक के विचारों को सुरक्षित रख कर उसे पाठक तक पहुँचाते हैं । इस प्रकार पांडुलिपि एक सेतु या उपादान है जो काल की सीमाओं को लाँघ कर भी लेखक को पाठक से जोड़ता है । पाठक भी इन्हीं के माध्यम से लेखक के पास पहुँच सकता है । इसे यों समझा जा सकता है :
भाषा-लिपि
AA पाण्डुलिपि
लिपि भावा कश्य.
भाषा-लिपि
लेखक-कश्य
। पाठक
भाषानिधि
भाषा लिपि
भावाला
लेखक का कथ्य भाषा में रूपान्तरित होकर लिपिबद्ध होकर लेखनी से लिप्यासन पर अंकित होकर पांडुलिपि का रूप ग्रहण कर पाठक के पास पहुँचता है । अब पाठक ग्रन्थ के लिप्यासन या लिपिबद्ध भाषा के माध्यम से लेखक के कथ्य तक पहुँचता है । लेखक और पाठक में काल गत और देशगत अन्तर है, और यह अन्तर ग्रन्थ के द्वारा शून्य हो जाता है, तभी तो आज हजारों वर्ष पूर्व के काल को लांघकर देश काल के अन्तराल को मिटाकर हम लेखक से मिल सकते हैं। फिर भी, लेखक से पाठक तक या पाठक से लेखक तक की इस यात्रा में समस्याएं खड़ी होती हैं । उनके समाधान का महत्त्वपूर्ण साधन पांडुलिपि है । इसी महत्त्वपूर्ण साधन तक पहुँचने की दृष्टि से पांडुलिपि-विज्ञान की उपादेयता सिद्ध होती है।
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६/पाण्डुलिपि-विज्ञान
पाण्डुलिपि विषयक विज्ञान को आवश्यकता
- यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है और उठाया भी जा सकता है कि पांडुलिपियों का 'अस्तित्व' इतना पुराना है जितना कि लिपि या लम्बन का आविष्कार, किन्तु आज पांडुलिपि-विज्ञान की आवश्यकता का अनुभव क्यों नहीं किया गया? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है इसमें संदेह नहीं । इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार
आविष्कार की जननी आवश्यकता है उसी प्रकार विज्ञान की जननी भी किसी प्रकार की श्रावश्यकता ही है । इस विज्ञान की अावश्यकता तव ही अनुभव की गई जबकि वैज्ञानिक रष्ट्रि की प्रमुख ता हो गई । जिम युग में वैज्ञानिक दृष्टि प्रमुख होने लगती है उस युग में भक बात को वैज्ञानिक पद्धति से समझने का प्रयत्न किया जाता है । इसी प्रयत्न के फलस्वसप नये-नये विज्ञानों का जन्म होता है। यह वैज्ञानिक दृष्टि उम विषय पर पहले पडती है जो कि विविध परिस्थितियों के फलस्वरूप अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो सकता है । जैसे भाषा को लोग सहस्राब्दियों से उपयोग में लाते रहे और उसे एक व्यवस्थित प्रगाली से समझने के स्थूल प्रयत्न भी प्रारम्भ से होते रहे किन्तु विज्ञान का रूप उसने उस समय ग्रहण किया जबकि एक ओर तो औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप नये निर्माण और नये अनुसंधानों की प्रवृत्ति ने विज्ञान को प्रमुख आकर्षगा बना दिया। दूसरे, उपनिवेशवाद और वाणिज्य-विस्तार के कारण देश-विदेशों की विविध प्रकार की भाषाएँ मामने आयीं । उनका तुलनात्मक अध्ययन करना भी प्रावश्यक हो गया, और इसको तब और भी प्रोत्साहन मिला जबकि संस्कृत भाषा और साहित्य पाश्चात्य विद्वानों के सम्मुख प्राया। इन मबने मिलकर तुलनात्मक रूप से भाषाओं को समझने के साथ-साथ भाषाओं के वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन करने की आवश्यकता प्रस्तुत कर दी। तब से भाषा का विज्ञान निरन्तर प्रगति करता हया आज भाषिकी या लिंग्विस्टिक्स (Linguistics) के नये रूप में एक प्रकार से पूर्ण. विज्ञान बन चुका है । इसी प्रकार पाठालोचन की जब आवश्यकता प्रतीत हुई और विविध ग्रन्थों का पाठालोचन प्रस्तुत करना पड़ा तो उसके भी विज्ञान की आवश्यकता प्रतीत हुई । फलतः अाज पाठालोचन का भी एक विज्ञान बन गया है । यह पहले साहित्य के क्षेत्र में कविता के शुद्ध रूप तक पहुंचने के साधन के रूप में पाया फिर यह भाषा विज्ञान की एक प्रशाखा के रूप में पल्लवित हुआ । अब यह एक स्वतन्त्र विज्ञान है । यही स्थिति पांडुलिपि-विज्ञान की है । अाज भारत में अनेक प्राचीन हस्तलेख एवं पांडुलिपियाँ उपलब्ध हो रही हैं । शतशः हस्तलेख भण्डार, निजी भी और संस्थानों के भी, इधर कुछ वर्षों में उद्घाटित हुए हैं । अतः पांडुलिपियाँ भी यह अपेक्षा करने लगी हैं कि उनकी समस्याओं को भी समग्रतः अध्ययन करने के लिए वैज्ञानिक दृष्टि को अपनाया जाय । इस आवश्यकता को अनुभव करते हुए अभी कुछ वर्ष पूर्व भारतवर्ष में संस्कृत-साहित्य-सम्मेलन ने पांडुलिपिविज्ञान की आवश्यकता अनुभव की और एक प्रस्ताव पारित किया कि विश्वविद्यालयों में पांडुलिपिविज्ञान भी अध्ययन का एक विषय होना चाहिए । अतः आज पांडुलिपि विज्ञान की उपादेयता सिद्ध हो चुकी है । इसका महत्त्व भी कम नहीं है क्योंकि शायद ही कोई विश्वविद्यालय ऐसा हो कि जिसमें पांडुलिपियों का संग्रह न हो । नई परिभाषा में सरकारी कार्यालयों और संस्थाओं एवं संस्थानों के कागज पत्र भी पांडुलिपि हैं । इनके भण्डार दिनदिन महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हैं । जैसाकि ऊपर बताया जा चुका है कि देश भर में पुराने और नये शतशः हस्तलेख और पांडुलिपियों के भण्डार फैले हुए हैं और बहुत से नये-नये
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पाण्डुलिपि-विज्ञान और उसकी सीमाएँ।9
पांडुलिपि भण्डार प्रकाश में प्राते जा रहे हैं । इस कारण भी पांडुलिपि-विज्ञान आज महत्त्वपूर्ण हो उठा है।
एक बात और हैं, कुछ ऐसे विज्ञान पहले से विद्यमान हैं जिनका सीधा सम्बन्ध हमारे पांडुलिपि-विज्ञान से है-यथा-पेलियोग्राफी एक विज्ञान है। यह वह विज्ञान है जो पेपीरस, पार्चमेंट, मोमीपाटी (Postherds), लकड़ी या कागज पर के पुरातन लेखन को पढ़ने का प्रयत्न करता है, तिथियों का उद्घाटन करता है और उसका विश्लेषण करता है। इसके प्रमुख ध्येय दो माने गये हैं : पहला ध्येय है पुरातन हस्तलेखों को पढ़ना । यह बताना आवश्यक नहीं कि पुरातन हस्तलेखों का पढ़ना कोई प्रासान कार्य नहीं है । वस्तुतः प्राचीन मध्ययुग एवं आधुनिक युग की हाथ की लिखावट को ठीक-ठीक पढ़ने के लिए लिपिविज्ञान (पेलियोग्राफी) का प्रशिक्षण आवश्यक है। इस विज्ञान के अध्ययन का दूसरा ध्येय है इन हस्तलिपियों का काल-निर्धारण एवं स्थान-निर्धारण । इसके लिए अन्तः साक्ष्य और बहिःसाक्ष्य का सहारा लेना होता है, लिखावट एवं उसकी शैली आदि की भी सहायता लेनी होती है । ग्रन्थ का रूप कैसा है ? वह वलयिता है, पट्टग्रथित पुस्तक (कोडेक्स) है, या पत्रारूप है ? उसका कागज या लिप्यासन, उसकी स्याही, लेखनी का प्रकार, उसकी जिल्दबन्दी तथा साज-सज्जा, सभी की परीक्षा करनी होती है, और उनके आधार पर निष्कर्ष निकालने होते हैं । सचित्र पांडुलिपियों के काल एवं स्थल के निर्धारण में चित्र बहुत सहायक होते हैं क्योंकि उनमें स्थान और काल के भेद के आधार बहुत स्पष्ट रहते हैं।
एक विज्ञान है ऐपीग्राफी। यह विज्ञान प्रस्तर-शिलाओं या धातुओं पर अंकित लेखों या अभिलेखों को पढ़ता है, उनका काल निर्धारित करता है, और उनका विश्लेषण करता है।
___ इसी प्रकार अन्य विज्ञान भी हैं। ये सभी पांडुलिपि के निर्मायक विविध तत्त्वों से सम्बन्धित हैं । पर इन सबसे मिलकर जो वस्तु बनती है और जिसे हम 'पांडुलिपि' कहते हैं, उस समग्र इकाई का भी विज्ञान आज अपेक्षित है । अन्य विविध विज्ञान इस विज्ञान के तत्त्व निर्धारण में सहायक हो सकते हैं । पर, समस्त अवयवों से मिलकर जब एक रूप खड़ा होता है, तब उसका स्वयमेव एक अलग वैज्ञानिक अस्तित्व होता है । उसको एक अलग विज्ञान के रूप में हमें जानना है । अतः पांडुलिपि-विज्ञान वह विज्ञान है जो अध्येता को पांडुलिपि को पांडुलिपि के रूप में समझने एवं तद्विषयक समस्याओं के वैज्ञानिक निराकरण में सहायक सिद्ध होता है ।
पांडुलिपि-विज्ञान एवं अन्य सहायक विज्ञान ___पांडुलिपि विज्ञान से सम्बन्धित कई विज्ञान हैं । ये इस प्रकार हैं : 1. डिप्लोमैटिक्स 2. पेलियोग्राफी, 3. भाषाविज्ञान, 4. ज्योतिष, 5. पुरातत्त्व, 6. साहित्य शास्त्र, 7. पुस्तकालय विज्ञान, 8. इतिहास, 9. खोज, शोध प्रक्रिया विज्ञान (Research Methodology) और 10. पाठालोचन-विज्ञान (Textu:1 Criticism).
1.
Palaeography, Science of Reading, dating and analyzing ancient writing on papyrus, parchment, waxed teblets, pcstherds, wood or paper.
-The Encyclopaedia Americana, Vol. 2,p. 163.
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10/ पाण्डुलिपि - विज्ञान
सबसे पहले शोध प्रक्रिया विज्ञान (Research Methodology) को ले सकते हैं । हस्तलिखित ग्रन्थां अथवा पांडुलिपियों को प्राप्त करने के लिए इस खोज - विज्ञान का बहुत महत्त्व है । बिना खोज के हस्तलेख प्राप्त नहीं हो सकते। यह खोज - विज्ञान हमें हस्तलेख खोज करने के सिद्धान्तों से ही अवगत नहीं करता, वह हमें क्षेत्र में काम करने के व्यावहारिक पक्ष को भी बताता है । पांडुलिपि विज्ञान के लिए इसकी सर्वप्रथम श्रावश्यकता है । इसी से ग्रन्थ संकलन हो सकता है । यही संकलन हमारे लिए आधार भूमि है । यों तो भारत में और विदेशों में भी प्राचीन काल से पुस्तकालय रहे हैं । प्राचीन काल में संपूर्ण साहित्य हस्तलेखों के रूप में ही होता था, अतः प्राचीन पुस्तकालयों में अधिकांश हस्तलेख र पाडुलिपियाँ ही हैं । उन्हीं की परम्परा में कितने ही धर्म - मन्दिरों में आज तक हस्तलेखों के भण्डार रखने की प्रथा चली आ रही है ।" इसी प्रकार राजा-महाराजा भी अपने पोथीखानों में विशाल हस्तलेखों के भण्डार रखते थे । किन्तु इन पुस्तकालयों के अतिरिक्त भी बहुत सी ऐसी हस्तलिखित सामग्री है जो जहाँ-तहाँ बिखरी पड़ी है । उस सामग्री को प्राप्त करना, उसका विवरण रखना या अन्य प्रकार से उसे प्रकाश में लाना भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है । पांडुलिपि - विज्ञानविद् का इस क्षेत्र में योगदान अत्यन्त आवश्यक है ।
सामग्री प्राप्त करने की दिशा में दो प्रकार से कार्य हो सकता है :- 1. व्यक्तिगत प्रयत्न एवं 2 संस्थागत प्रयत्न ।
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(1) व्यक्तिगत प्रयत्नों में कर्नल टॉड, टैस्सिटेरी, डॉ. रघुवीर एवं राहुल सांकृत्यायन प्रभृति कितने ही विद्वानों के नाम आते हैं। टॉड ने राजस्थान से विशेष रूप से कितनी ही सामग्री एकत्र की थी: शिलालेख, सिक्के, ताम्रपत्र, ग्रन्थ आदि का निजी विशाल भण्डार उन्होंने बना लिया था । वे साधन सम्पन्न थे, और साम्राज्य-तन्त्र के अधिकार सम्पन्न अंग
। इटेलियन विद्वान टैस्सिटेरी ने राजस्थानी साहित्य की खोज के लिए अपने को समर्पित कर दिया था। राहुल जी एवं डॉ. रघुवीर के प्रयत्न बड़े प्रेरणाप्रद हैं । ये विद्वान् कितनी ही अभूतपूर्व सामग्री किन-किन कठिनाइयों में, अकिंचन होते हुए भी तिब्बत, मंचूरिया प्रादि से लाये जो अविस्मरणीय है ।
3.
(2) संस्थागत प्रयत्नों में हिन्दी क्षेत्र में नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, अग्रगण्य है । सन् 1900 से पूर्व से ही हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज सभा ने आरम्भ कराई। 1900 से खोज-विवररण प्रकाशित कराये । यह परम्परा श्राज तक चल रही है । इन खोज विवरणों से विदित होता है कि गाँवों और शहरों में यत्र-तत्र कितनी विशाल सामग्री अब भी है । बहुत सी सामग्री नष्ट हो गयी है । इन खोज विवरणों में जो कुछ प्रकाशित हुआ है, उससे हिन्दी साहित्य के इतिहास - निर्माण में ठोस सहायता मिली है तथा शतशः साहित्यिक अनुसंधानों में भी ये विवरण सहायक सिद्ध हुए हैं । अतः ग्रन्थ संग्रह तो महत्त्वपूर्ण हैं ही,
1.
मिस्र में अलक्जैणिड्रया का, यूनान में एथेंस का एशिया माइनर में पोम्पिआई का भारत में नालदा को, तक्षशिला का पुस्तकालय । कितने ही विश्वविद्यालयों का इतिहास में उल्लेख मिलता है, जिनके प्राचीन पुस्तकालय हस्तलेखों से मरे पड़े थे ।
2. भारत में जैनों के मन्दिरों, बौद्ध संघारामों आदि में आज तक मी हस्तलेखों के विशाल संग्रह हैं ।
जैसलमेर के संग्रहालय का कुछ विवरण टॉड ने दिया है।
राजस्थान के प्रत्येक राज्य में ऐसे ही पोषी खाने थे ।
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पाण्डुलिपि-विज्ञान और उसकी सीमाएँ/11
उनका विवरण भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
इस समस्त कार्य को आज वैज्ञानिक प्रणाली से करने के लिए 'क्षेत्रीय प्रक्रिया' की अनिवार्यता सिद्ध हो जाती है। वस्तुतः पांडुलिपि विज्ञान के लिए यह विज्ञान पहली आधार शिला है।
पेलियोग्राफी लिपि-विज्ञान होता है। पांडुलिपि विज्ञान की दृष्टि से लिपि-विज्ञान बहुत महत्त्वपूर्ण विज्ञान है। इसका सैद्धान्तिक पक्ष तो लिपि के जन्म की बात भी करेगा। उसका विकास भी बतायेगा । व्यावहारिक पक्ष में यह विज्ञान उन कठिनाइयों पर विजय के उपायों की ओर भी संकेत करता है, जो किसी अज्ञात लिपि को पढ़ने में सामने आती है।' मिस्र की चित्रलिपि पढ़ने का इतिहास कितना रोचक है, उससे कम रोचक इतिहास भारत की प्राचीन लिपियों के उद्घाटन और पठन का नहीं है। इसी विज्ञान के माध्यम से हम विश्व की समस्त लिपियों के स्वरूप से भी परिचित होते हैं। इसी विज्ञान की सहायता से पांडुलिपि-विज्ञान विविध प्रकार की पांडुलिपियों की लिपियों की प्रकृति से परिचित होकर, उन्हें अपने उपयोग के योग्य बनाने की क्षमता पा सकता है। पांडुलिपियों में लिपि का महत्त्व बहुत है। लिपि के पढ़ने-समझने के सिद्धान्तों, स्थितियों और समस्याओं को हृदयंगम करना पांडुलिपि-विज्ञान का एक आवश्यक पक्ष है।
लिपि-विज्ञान के व्यावहारिक दृष्टि से दो भेद किये जाते हैं : इनको अंग्रेजी में ऐपीग्राफी (Epigraphy) अर्थात् अभिलेख लिपि विज्ञान तथा पेलियोग्राफी (Palaeography) अर्थात् लिपि विज्ञान कहते हैं।
डेविड डिरिजर का कहना है कि अभिलेख लिपि-विज्ञान यूनानी अभिलेख विज्ञान, लातीनी अभिलेख विज्ञान, हिब्रू अभिलेख विज्ञान जैसे विशेष क्षेत्रों में विभाजित हो जाता है । यह विज्ञान मुख्यतः उन प्राचीन अभिलेखों के अध्ययन में प्रवृत्त रहता है जो शिलाओं, धातुओं और मिट्टी जैसी सामग्री पर काट कर, खोद कर, या डालकर प्रस्तुत किये गये हैं। इस अध्ययन में अज्ञात् लिपियों का उद्घाटन (decipherment) तथा उनकी व्याख्या सम्मिलित रहती है।
पेलियोग्राफी (Palaeography) भी एपीग्राफी की तरह क्षेत्रीय विभागों में बाँट दी गई है । इसका उद्देश्य मुख्यतः उस लेखन का अध्ययन है जो कोमल पदार्थों पर यथा कागज, चर्मपत्र, पेपीरस, लिनेन (linen) और मोमपट्ट पर या तो चित्रित किया गया है या उतारा (Traced) या चिह्नित किया गया है। यह क्रिया शलाका (स्टाइलस), कूँची, सेंटा या कलम से की जा सकती है। इस विज्ञान का भी अनिवार्य अंतरंग विषय लिपि उद्घाटन (decipherment) एवं व्याख्या भी है। स्पष्ट है कि उपर्युक्त दोनों विज्ञानों में मूल भेद 'लिप्यासन' के कठोर या कोमल होने के कारण है। कुछ विद्वान 'डिप्लोमैटिक्स' को भी पेलियोग्राफी की ही एक शाखा मानते हैं, इसमें शासकीय पट्टोंपरवानों की लिपि को पढ़ने का प्रयत्न सम्मिलित रहता है। यह विषय भी हमारे विज्ञान का अंतरंग विषय ही है।
___ 'भाषा-विज्ञान' भाषा का विज्ञान है । पांडुलिपि में लिपि के बाद भाषा ही महत्त्वपूर्ण होती है। भाषा-विज्ञान लिपि के उद्घाटन में सहायक होता है। यह हम आगे देखेंगे कि
1. देखिये अध्याय-"सिपि समस्या'। 2. डिरिजर, डेविड-राइटिंग पृष्ठ 20.
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12/पाण्डुलिपि-विज्ञान
किस प्रकार एक अभिलेख को एक अन्य भाषा में लिखा परिकल्पित कर लेने के कारण ठीक नहीं पढ़ा जा सका। भाषा लिपि-ज्ञान में बहुत सहायक होती है। फिर पांडुलिपि विज्ञान में पांडुलिपि के कई आयाम भाषा पर ही निर्भर करते हैं। पांडुलिपि की वस्तु का परिचय भाषा के बिना असम्भव है। भाषा विज्ञान से ही वह तकनीक भी निकाली जा सकती है, जिसमें बिल्कुल ही अज्ञात लिपि और उसकी अज्ञात् भाषा का कुछ अनुमान लगाया जा सके। ऐसी लिपि जिसकी लेखन-प्रणाली और भाषा का पता नहीं, उद्घाटित नहीं की जा सकती है। एक प्रकार से यह कार्य असम्भव ही माना गया है। विश्व के इतिहास में अभी तक ऐसे उद्घाटन का केवल एक ही उदाहरण मिलता है। माइकेल वैट्रिस ने क्रीट की लाइनियर बी (Linear B) का उद्घाटन किया। यह क्रीट की एक भाषा थी । किन्तु इसके उद्घाटन से पूर्व न तो इसकी लेखन-प्रणाली का ज्ञान था, न यह ज्ञान था कि यह कौनसी भाषा है। वस्तुतः यह सफलता वेंट्रिस महोदय को मुख्यतः भाषावैज्ञानिक-विश्लेषण की एक संगत तकनीक के उपयोग से ही मिली। अतः भाषा-विज्ञान ऐसे कठिन मामलों में सहायक हो सकता है।
किसी भी हस्तलेख के भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन से ही यह ज्ञात हो सकता है कि वह किस भाषा में लिखा गया है। इसी से उस ग्रन्थ की भाषा के व्याकरण, शब्दरूपों एवं वाक्य-विन्यास तथा शैली का ज्ञान भी होता है। किस काल की और कहाँ की भाषा है, यह जानने में भी यह विज्ञान सहायक होता है । इस प्रकार भाषा ज्ञान से हम पांडुलिपि के क्षेत्र का परिचय पा सकते हैं। दूसरी ओर पांडुलिपि की भाषा स्वयं भाषा-विज्ञान की किसी समस्या पर प्रकाश डालने वाली सिद्ध हो सकती है। किसी विशेष-कालगत भाषा की प्रवृत्तियों का ज्ञान पांडुलिपियों से हो सकता है। इस प्रकार भाषा-विज्ञान और पांडुलिपियाँ एक दूसरे के लिए सहायक हैं।
पुरातत्त्व (Archaelogy) के विशद अनुसंधान क्षेत्र में शिलालेख, मुद्रालेख ताम्रपत्र आदि अनेक प्रकार की ऐसी सामग्री आती है जिसका उपयोग हस्तलेख-विज्ञान भी करता है। वस्तुतः पुरातत्त्व के क्षेत्र में जब ऐसे प्राचीन लेखों का अध्ययन होता है, तब वह हस्तलेख विज्ञान के क्षेत्र में भी सम्मिलित होता है । अतः उसके लिए इस विज्ञान की शरण अनिवार्य ही है, और हमारे विज्ञान के लिए भी पुरातत्त्व सहायक है, क्योंकि बहुत से प्राचीन महत्त्वपूर्ण हस्तलेख पुरातत्त्व ने ही प्रदान किये हैं। मिस्र के पेपीरस, सुमेरियन सभ्यता के ईट-लेख, भारत के तथा अन्य देशों के शिलालेख तथा अन्य लेख आदि पुरातत्त्व ने ही उद्घाटित किये हैं । और उनका उपयोग पांडुलिपि-विज्ञान-विशारदों ने किया है । यह भी तथ्य है कि पांडुलिपि-विज्ञान को पांडुलिपि के विषय में पुरातन कालीन जिस परिवेश और पृष्ठभूमि के ज्ञान की आवश्यकता होती है, वह पुरातत्त्व से प्राप्त हो सकता है।
__ इतिहास का क्षेत्र भी बहुत विशद है । इसकी आवश्यकता प्रायः प्रत्येक ज्ञान-विज्ञान को पड़ती है। इसी दृष्टि से हमारे विज्ञान के लिए भी इतिहास की शरण आवश्यक होती है। इस विज्ञान को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए इतिहास की सहायता लेनी पड़ती है। हस्तलेखों की पृष्ठभूमि का ज्ञान भी इतिहास से ही मिलता है।
पांडुलिपियों में लेखकों के नाम और वंश रहते हैं, आश्रय-दाताओं के नाम रहते हैं, देश एवं काल से सम्बन्धित कितनी ही बातों का भी उल्लेख रहता है, प्राश्रय-दाताओं की भी वंश परम्परा दी जाती है। ऐसी प्रभूत सामग्री पांडुलिपियों की पुष्पिकानों में भी दी
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पाण्डुलिपि-विज्ञान और उसकी सीमाएँ/13
जाती हैं। लिपि का स्वरूप भी देश-काल से जुड़ा रहता है, इसी प्रकार कागज या लिप्यासन के प्रकार का सम्बन्ध भी देशकाल से होता है। किसी ग्रन्थ की विषय-वस्तु में विद्यमान तथ्यों की ओर न भी जाएं तो भी उक्त बातों के लिए भी इतिहास का ज्ञान या इतिहास-ज्ञान की प्रक्रिया जाने बिना काम नहीं चल सकता।
इसी प्रकार इतिहास की बहुत सी सामग्री प्राचीन ग्रन्थों से, हस्तलेखों से मिलती है। उसके लिए भी पांडुलिपि-विज्ञान की सहायता अपेक्षित है।
ज्योतिष-ज्योतिष का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। उसमें एक शाखा काल-निदान की भी है। इसके अन्तर्गत दिन, तिथि, संवत्सर (संवत्-सन्) मुहूर्त, पक्ष, नक्षत्र, ग्रह, करण ग्रादि का निदान और निर्णय पाता है। यह ज्ञान इतिहास के लिए भी उपयोगी है, और हस्तलेख-विज्ञान के लिए भी । प्रत्येक हस्तलेख या पांडुलिपि का काल-निर्धारण ज्योतिष के 'पंचांग' आदि की सहायता से किया जाता है। काल-निर्धारण को कितनी ही जटिल समस्याएं ज्योतिष की सहायता के बिना हल नहीं हो सकतीं। अतः हमारे इस विज्ञान को काल-निर्णय में 'ज्योतिष' की सहायता लेनी ही पड़ती है। यह कहा जा सकता है कि हजारों वर्ष पुराने 'पंचांग' या 'जत्रियाँ' मिलती हैं, उनकी सहायता से, तथा ऐसे ही कलैण्डरों से काल-निर्णय किया जा सकता है। यह भी ठीक है, पर आखिर ये पंचांगकलण्डर आदि हैं तो ज्योतिष के ही अंग । अतः 'ज्योतिष' अत्यन्त उपयोगी और सहायक विद्या है, जिस पर हमारे विज्ञान के निष्कर्ष आधारित होते हैं ।
साहित्य-शास्त्र--साहित्य-शास्त्र के चार बड़े अंग माने जा सकते हैं : प्रथम-शब्दार्थभाषा-विज्ञान के अतिरिक्त शब्द से अर्थ तक पहुँचने के लिए शब्द-शक्तियों का विशेष महत्त्व साहित्य-शास्त्र में है । इसी का एक पहलू साहित्य शास्त्र में 'ध्वनि' है । दूसरा अंग है-'रस' । जिसके लिए साहित्य शास्त्रियों ने काव्य में 'नवरस' की प्रतिष्ठा की है। तीसरा अंग है-- 'छंद' । एक और अंग है-'अलंकार' । हमारे विज्ञान के लिए 'शब्दार्थ' वाले विभाग की अपेक्षा तो पद-पद पर रहती है । 'रस' का ज्ञान साहित्यिक पांडुलेख के लिए तो सर्वोपरि है। अन्य ज्ञान-विज्ञानों के ग्रन्थों के लिए इसकी उतनी आवश्यकता नहीं। हालांकि, प्राचीन काल में विविध ज्ञान-विज्ञान को रूपक प्रणाली से भी प्रस्तुत करने की परिपाटी रही हैं। प्रतीक-प्रणाली का उपयोग भी ज्ञान-विज्ञान के लिए किया गया है। इन दोनों परिपाटियों में काव्यगत रस के शास्त्र का उपयोग सहायक होता है । अब 'छन्द' को लें। प्राचीन काल में गद्य को 'ग्रन्थ लेखन' की भाषा ही नहीं माना जाता था। पद्य ही सर्व प्रचलित तथा लोकप्रिय माध्यम रहा है क्योंकि पद्य का रचना-विधान छंद-निर्भर होता है तथा उसे स्मरण रखना गद्य की अपेक्षा सुगम होता है। इस दृष्टि से छंद-ज्ञान प्राचीन हस्तलेखों के लिए सामान्यतः आवश्यक माना जा सकता है । यदि ग्रन्थ गद्य में लिखा गया है तो 'छंद' उतना उपयोगी नहीं होता। 'अलंकार' भी साहित्यशास्त्र का महत्त्वपूर्ण अंग है, और हस्तलेखों तथा पांडुलिपियों में इनका जहाँ-तहां उपयोग मिल सकता है। ऐसे स्थलों को समझने की दृष्टि से अलंकार-ज्ञान का महत्त्व हो सकता है । लेकिन प्रत्येक की सीमा रेखा है-पांडुलिपि विज्ञान को इनकी वहीं तक आवश्यकता है, जहाँ तक ये पांडुलिपि की विषय-वस्तु को समझाने में सहायक हैं।
1. यथा-प्रवीण सागर ।
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14/पाण्डुलिपि-विज्ञान
पुस्तकालय विज्ञान : पुस्तकालय विज्ञान का भी उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा । हस्तलेखों या पांडुलिपियां का भण्डार जहाँ भी होगा वहाँ, छोटा-मोटा पुस्तकालय स्वतः ही बन जायगा । प्राचीन काल में समस्त पुस्तकालय हस्तलेखों और पांडुलिपियों के ही होते थे। अलेक्जेण्ड्रिया, नालंदा तथा अन्य ऐसे ही प्राचीन पुस्तकालयों में सभी पुस्तकें हस्तलेखों के रूप में ही थीं। मुद्रण-यन्त्र के प्रचलन के बाद भी मुद्रित पुस्तकों के साथ हस्तलेख रहे हैं। आधुनिक काल में मुद्रित पुस्तकों के पुस्तकालय प्रधान हैं-हस्तलेखों के पुस्तकालय बहुत कम रह गये हैं। अब पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में 'आधुनिक हस्तलेखागारों' (Modern Manuscript Litrary) का एक नया आन्दोलन चला है । इन पुस्तकालयों में राज्यों, सरकारों एवं बड़े-बड़े उद्योगों के महत्त्वपूर्ण लेख, महान् व्यक्तियों के किसी भी प्रकार के हस्तलेख, पत्र, मसविदे, प्रतिवेदन, विवरण, डायरी, नत्थियाँ आदि-आदि सुरक्षित रखे जाते हैं, साथ ही इन्हें अनुसंधानकर्ताओं को पुस्तकालय द्वारा उपलब्ध भी कराया जाता है । रूथ बी. बोडिन एवं राबर्ट एम. वार्मर ने अपनी पुस्तक 'द माडर्न मैन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी' में बताया है कि :----
"मैन्युस्क्रिप्ट या पांडुलिपि पुस्तकालय का अस्तित्व ही अनुसंधाता और विद्यार्थी की सेवा करने के लिये होता है।"
अतः पांडुलिपि-विज्ञान की दृष्टि से इस सेवा को प्रस्तुत करने के लिए भी पुस्तकालय-विज्ञान का सहारा अपेक्षित होता है। हस्तलेखों और पांडुलिपियों को किस प्रकार व्यवस्थित किया जाय, कैसे उनकी पंजिकाएँ रखी जायें, कैसे उनकी सामान्य सुरक्षा का ध्यान रखा जाय, कैसे उन्हें पढ़ने के लिए दिया जाय, आदि बातें वैज्ञानिक विधि से पुस्तकालय-विज्ञान ही बताता है। संग्रहालयों (Museum) और अभिलेखागारों के लिए इस विज्ञान का महत्त्व स्वयं-सिद्ध है। डिप्लोमैटिक्स
डिप्लोमेटिक्स वस्तुतः 'पट्टा-परवाना विज्ञान' है । डिप्लोमेटिक्स यूनानी शब्द 'डिप्लोमा' से व्युत्पन्न है। इसका यूनानी में अर्थ था 'मुड़ा हुआ कागज' । ऐसा कागज प्रायः राजकीय पत्रों, चार्टरों आदि में काम आता था। फलतः इसका अर्थ विशेषतया ऐसे पत्रों से जुड़ गया जो पट्टे, परवाने, लाइसेंस या डिगरी के कागज थे।
___आगे चल कर डिप्लोमेटिक्स ने विज्ञान का रूप ग्रहण कर लिया। आज इस विज्ञान का काम है प्राचीन शासकीय पट्टों-परवानों (documents), प्रमाण-पत्रों (diplomas), चारटरों एवं बुलों के लेख को उद्घाटित ( ecipherment) करना । ये परवाने शाहंशाह, पोप, राजा तथा अन्य शासकों की चांसरियों से जारी किये गये हैं। इस प्रकार यह विज्ञान पेलियोग्राफी की ही एक शाखा है।
स्पष्ट है कि 'डिप्लोमेटिक्स' विज्ञान इतिहास के उन स्रोतों का आलोचनात्मक अध्ययन करता है, जिनका सम्बन्ध अभिलेखों (rer ords या archive documents) से होता है । इन अभिलेखों में चारटर, मैनडेट डीड (सभी प्रकार के), जजमेण्ट (न्यायालयादेश) आदि सम्मिलित हैं । इन पट्टों-परवानों के लेख को समझना, उनकी प्रामाणिकता पर विचार करना, उनके जारी किये जाने की तिथियों का अन्वेषण और निर्धारण करना, साथ ही
1. Bordin, R. B. & Warner. R. M.-The Modern Manuscript Library, P. 14.
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पाण्डुलिपि-विज्ञान और उसकी सीमाएँ/15
उनके निर्माण की प्रविधि को समझना तथा यह निर्धारित करना कि वे इन रूपों में किस उद्देश्य के लिए उपयोग में लाये जाते थे-इन सभी बातों को आज इस विज्ञान के क्षेत्र में माना जाता है । पहले इसमें मुहरबंद (Sealing) करने की पद्धतियों का अध्ययन भी एक विषय था । अब यह विषय अलग विज्ञान बन गया है ।
अतः यह विषय भी किसी सीमा तक पाण्डुलिपि-विज्ञान का ही अंग है। पांडुलिपि-विज्ञान
पुस्तकें ज्ञान-विज्ञान का माध्यम हैं । ये पुस्तकें प्राचीन काल में पांडुलिपियों के रूप में ही होती थीं । अतः सभी प्राचीन पुस्तकालय पांडुलिपि-पुस्तकालय ही थे ।
इन प्राचीन पुस्तकालयों के इतिहास से हमें विदित होता है कि सबसे पहले पुस्तकालय मिस्र में प्रारम्भ हुए होंगे । मिस्र में पेपीरस पर ग्रंथ लिखे जाते थे । ये खरीते (Srolls) के रूप में होते थे । इन ग्रंथों में से एक पेपीरस ग्रन्थ ब्रिटिश संग्रहालय में है वह 133 फुट लम्बा है । ये खरीते गोलाकार लपेट कर रखे जाते थे । पेपीरस बहुत जल्दी नष्ट हो जाता है, अतः यह सम्भावना है कि बहुत से खरीते (स्क्रॉल) और ऐसे पुस्तकालय जिनमें वे रखे गये थे, ऐसे मिट गये हैं कि उनका हमें पता तक नहीं। फिर भी, जो कुछ ज्ञात हो सका है, उसके आधार पर विदित होता है कि पेपीरस स्क्रॉलों के ग्रन्थ ई० पू० 2500 में मिस्र में विद्यमान थे।
पेपीरस के साथ-साथ या कुछ पहले से बेबीलोन (असीरिया) में मिट्टी की ईटों (Clay tablets) पर लिखा जाता था । आधुनिक युग की ऐतिहासिक खुदाई से निन्हेवेह में 10,000 लेख-ईंटें मिलीं, इससे निन्हेवेह में उनके पुस्तकालय का अस्तित्व सिद्ध होता है । मोहेनजोदड़ों में भी मिट्टी की पकाई हुई मुहरें प्राप्त हुई हैं जिन पर लेख लिखे गये हैं ।
ईटां और पेपीरस के बाद पार्चमेण्ट (चर्मपत्र) का उपयोग हुआ, उसके बाद कागज का उपयोग हुआ।
__ भारत में मोहेनजोदड़ों की लिपि का विकास 3000 ई० पू० में हो चुका होगा। यहां भी लेखयुक्त मुहरें या ताबीज मिले हैं। बाद में ग्रंथों के लिए वृक्षों के पत्र और छाल का उपयोग पहले हुा । ताड़पत्र और भोजपत्र से ग्रंथ-रचना के लिए लिप्यासन का काम लिया जाने लगा । धातुपत्रों का भी उपयोग किया गया । भारतेतर क्षेत्रों में प्राचीन पुस्तकालयों की जो सूचना प्राज उपलब्ध है वह नीचे की तालिका से जानी जा सकती
वर्ष (लगभग)
स्थापनकर्ता
लिप्यासन
स्थान 2
ग्रन्थ 3
पेपीरस पेपीरस
1. ई. पू. 2500 गिजेह (Gizeh) - 2. ई. पू. 1400 अमर्ना - एमेह्रोटौप तृतीय
(Amenio top III) 3. ई. पू. 1250 थीवीज .- रेमेज (Remese) 1. इन्हें वलयिताएँ, कुण्डलियां अथवा 'खरड़ा' भी कहते हैं ।
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16/पाण्डुलिपि - विज्ञान
1
4. ई. पू. 600
56
5.
6.
?
?
7.
?
8. ?
9. ई. पू. 500
10.
?
11. ई. पू. 237
14. 600 ईसवी
2
नन्हेवेह (असीरिया)
15. 800 €.
12. ई. पू. 411 से पर्गेमम पूर्व । (दूसरी शती ई. पू. के आरम्भिक चरण के लगभग)
13. 500 ईसवी
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उर
निप्पर ( Nippur)
किसी
तेल्लो
एथेन्स (यूनान) अलेक्जेण्ड्रया
3
4
5
10,000 ईंटें असुरबेनी पाल इंट (clay
tablets)
इदफिर (प्राचीन इदफुल ( Idful) होरेस के मंदिर में
सेंट कैथराइन की मोनस्ट्री सिनाई पर्वत पर
सैंट गेले (स्विटजर
लैंड में)
(?)
एथोस पर्वत पर ( यूनान में )
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ईंट
पेपीरस
पिजिस्ट्रेटस 500,000 (1) अलेक्जेंडर पेपीरस खरीते (2) टालमी प्रथम (Scrolls)
पेपीरस
200,000 सिंकदर के बाद के पेपीरस एवं खरीतों से भी उत्तराधिकारी कहीं अधिक
पार्चमेन्ट
(चर्मपत्र )
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कोडेक्स पार्चमेन्ट
1.
मार्क एण्टनी ने 41 ई० पू० में पर्गेमम पुस्तकालय के 200,000 खरीते (Scrolls) ग्रंथ 'किलोपेट्रा' को दे दिये थे कि उन्हें अलेक्जेंड्रियन पुस्तकालय में रखवा दिया जाय ।
2. पर्गे मम के पुस्तकालय का बहुत संवर्द्धन हुआ । इससे सिकंदरिया के लोगों को यह आशंका हो गयी कि कहीं सिरिया के पुस्तकालय का महत्व कम न हो जाय । अतः उन्होंने पर्गेमम को पेपीरस देना बंद कर दिया। तब पर्गेमम में चमड़े के चर्म-पत्र का आविष्कार किया गया, जिसे 'पर्गेमेण्टम' कहा गया,
ही पार्श्वमेण्ट हो गया । पार्श्वमेण्ट के खरीते नहीं बन सकते थे, अत: उनके पृष्ठ बने या पन्ने बने । इन पन्नों की सिलाई की गयी। यह सिले हुए पन्नों का रूप कोडेक्स ( Codex) कहलाया । यही आधुनिक जिल्दबंद पुस्तक का जनक है।
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पाण्डुलिपि-विज्ञान और उसकी सीमाएं/17
2
45
16. 1200 ई. के
बाद
लौरेजों डे मेडिसी का - पुस्तकालय, फ्लोरेंस,
कोडेक्स पार्चमेण्ट
इटली
17. 1367 ई. बिब्लियोथीक नेशनल -
(नेशनल लाइब्रेरी),
पेरिस, फ्रांस 18. 1447 ई. वेटिकन पुस्तकालय,
वेटिकन सिटी में (भारत तथा कुछ अन्य देशों के प्रमुख ऐतिहासिक पुस्तकालयों का विवरण परिशिष्ट में दिया गया है।) अाधुनिक पांडुलिपि प्रागार
'द माडर्न मैन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी' के लेखक ने तीन प्रकार के संग्रहालयों में अन्तर किया है :
1. रक्षागार (Archives) 2. म्यूजियम-अजायबघर का अदभूतालय 3. हस्तलेखागार या पांडुलिप्यागार
'रक्षागार' के सम्बन्ध में इनका कथन है कि : One of the most important types of Manuscript repo itory is the off cial archive which preserves the records of federal, state, or local government bodies.
_ 'रक्षागार' सरकारी कागज-पत्रों का भण्डार होता है। भारत में 'राष्ट्रीय लेखा रक्षागार' (National Archives) ऐसा ही संग्रहालय है । बीकानेर में 'राजस्थान' के समस्त राज्यों के कागज-पत्र एक संग्रहालय में सुरक्षित हैं । अजायबघर (Museum) में ऐसी वस्तुओं और हस्तलेखों का संग्रह रहता है जिनका महत्त्व दर्शनीयता के कारण होता है । कलात्मक वैचित्र्य या वैशिष्ट्य इनमें रहता है । इनका उपयोग हस्तलेखागारों या पांडुलिप्यागारों से भिन्न रूप में होता है।
उपर्युक्त ग्रंथकार के अनुसार हस्तलेखागार का प्रधान उद्देश्य है अध्येताओं तथा अनुसंधान-कर्ताओं के लिए उपयोगी सिद्ध होना । वह लिखते हैं कि, 'A manuscript library exists to serve the scholar and the student'
किन्तु 'हस्तलेखागार' का जो स्वरूप और विशेषता इस लेखक ने प्रस्तुत की है, वह ऐसे देशों के लिए है जहाँ सभ्यता, संस्कृति और लेखन का सूत्र 300-400 वर्ष पूर्व
1.
Bordin, R. B. & Warner, R.M. --The Modern Manuscript Library, P 9 इसी लेखक ने यह भी लिखा है 'Archives are the permanent records of a body usually, but not necessarily, or going, of either a public or private character. (P.6)
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18/पाण्डुलिपि-विज्ञान
से प्रारम्भ होता है और जहाँ 'ग्रंथ लेखन' मुद्रणालयों के प्रा जाने के कारण स्वतन्त्र महत्त्व नहीं प्राप्त कर सका।
भारत जैसे प्राचीन देश में तथा ऐसे ही अन्य प्राचीन देशां में हस्तलेखागार में ज्ञान-विज्ञान के हस्तलेख या पांडुलिपियाँ बड़ी संख्या में मिलते हैं।
__इसका एक आभास हस्तलेखागारों की उस सूची से हो जाता है जो हम पहले दे चुके हैं । मुद्रण-यन्त्र के प्रचलन से बहुत पूर्व से पांडुलिपियाँ प्रस्तुत की जाती रही हैं । अतः ऐसे पांडुलिपि भाण्डागारों का उद्देश्य अनुसंधान से जुड़ा होकर भी विस्तृत है। इतिहास के विविध युगों में ज्ञान-विज्ञान की स्थिति ही नहीं ज्ञान-विज्ञान के सूत्रों को जानने के साधन भी ग्रंथागारों में उपलब्ध होते हैं । महत्त्व
फलतः पांडुलिपि-विज्ञान का महत्त्व स्वयं-सिद्ध है । पांडुलिपि-विज्ञान के विधिवत जान से इस महान् सम्पत्ति को समझने-समझाने का द्वार खुलता है, और हम रस्किन के शब्दों में, 'राजसी-सम्पदाकोष' (Kings Treasuries) में प्रवेश पाकर अभूतपूर्व रत्नों की परख करने में समर्थ हो सकते हैं । यह बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है।
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श्रध्याय 2
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पांडुलिपि-ग्रन्थ रचना - प्रक्रिया
लेखन और उसके उपरान्त ग्रन्थ-रचना का जन्म भी हमें आदिम आनुष्ठानिक पर्यावरण में हुआ प्रतीत होता है। रेखांकन से लिपिविकास तक के मूल में भी यही है और उसके आगे ग्रन्थ-रचना में भी । प्राचीनतम ग्रन्थों में भारत के वेद और मिस्र की 'मृतकों की पुस्तक' आती हैं। वेद बहुत समय तक मौखिक रहे । उन्हें लिपिबद्ध करने का निषेध भी रहा । पर मिस्र के पेपीरस के खरीतों (scrolls) में लिखे ये ग्रन्थ समाधियों में दफनाये हुए मिले हैं । इन दोनों ही प्राचीन रचनाओं का सम्बन्ध धर्म और उनके श्रनुष्ठानों से रहा है । इन दोनों देशों में ही नहीं अन्य देशों में भी लेखन ऐसे ही आनुष्ठानिक पर्यावरण से युक्त रहा है । प्रायः सभी प्रारम्भिक ग्रन्थों में प्रानुष्ठानिक जादुई धर्म की भावना मिलती है । इसीलिए पद-पद पर शुभाशुभ की धारणा विद्यमान प्रतीत होती है । यही बात ग्रन्थ-रचना सम्बन्धित प्रत्येक माध्यम तथा साधन के सम्बन्ध
में है ।
ग्रन्थ रचना में पहला पक्ष है- 'लेखक' । आरम्भ में लेखक का धर्म प्रचलित परम्पराओं, धारणाओं और वाक्-विलासा को लिपिबद्ध करना था । यह समस्त लोकवार्त्ता 'अपौरुषेय' मानी जाती रही है और वाक् - विलास 'मन्त्र' | इसमें लेखक को अधिक से अधिक 'व्यासजी' की तरह सम्पादक माना जा सकता है। बाद में 'लेखक' शब्द से मौलिक कृति का लेखन करने वाला भी अभिहित होने लगा। मौलिक कृति में कृतिकार को या ग्रन्थकार को किन बातों का ध्यान रखना होता था, इसका ज्ञान हमें पाणिनि के आधार पर डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने India As Known to Panini' ( पारिणनि कालीन भारत) में कराया है । उन्होंने बताया है कि पहले ग्रन्थ का संगत रूप - विधान होना चाहिए । इसका पारिभाषिक नाम है - तन्त्र युक्ति । तन्त्र-युक्ति में ये बातें ध्यान में रखनी होती हैं : 1 - अभिकार या संगति अर्थात् प्रांतरिक समीचीन व्यवस्था या विधान । 2 - मंगल - मंगल कामना से प्रारम्भ । ३ हेत्वर्थ - वर्ण्य का आधार । ४- उपदेश कृतिकार के निजी निर्देश । ५ - अपदेश - खंडनार्थ दूसरे के मत को उद्धृत करना ।
इसी पहले पक्ष में लेखक के साथ पाठवक्ता या पाठवाचक भी रखना होगा । यह व्यक्ति मूल ग्रन्थ और लिपिकार के बीच में स्थान रखता है ।
दूसरा पक्ष है भौतिक सामग्री |
'राजप्रश्रीयोपांग सूत्र' (चित्रम की छठी शती) में इनका वर्णन यों किया गया है :
" तस्सजं पौत्थरयणस्स, इमेयारूवे वष्णावासे पष्णत्ते, तं जहां रयग्गामधाई पत्तगाई, रिट्टामईयों कंविया, तब गिज्जयए दोने, नाजामणिमए गंठी, वेरूलियमणिमए लिप्पासणे, रिट्ठामए छंदणे, तवणिज्जमई संकला, रिट्ठामई मसी वइरामई लक्ष्मी, रिट्ठामयाई कवराई, धम्मिए सत्थे | ( पृ० 96 ) 1
1. मुनि श्री पुण्यविजय जी - भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ० 18 पर उद्धृत ।
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20/ पाण्डुलिपि - विज्ञान
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भौतिक सामग्री में निम्नलिखित वस्तुएँ प्राती हैं
1. लिप्यासन - वह वस्तु जिस पर लिखा जाना है; यथा- ईंट, पत्थर, कागज, पत्र (ताड़ पत्र ), धातु, चमड़ा, छाल (भूर्जपत्र ), पेपीरस, कपड़ा आदि । इसकी विस्तृत चर्चा 'प्रकार' शीर्षक अध्याय में की गई है क्योंकि लिप्यासन भेद से भी ग्रन्थ-भेद माने जाते हैं ।
2. मसि - स्याही
3. लेखनी - कूंची, टाँकी, कलम आदि ।
4. डोरा
---
सीप, नारियल आदि की कर गांठ दी जाती है । कहते हैं ।
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5. काष्ठ-पट्टिकाएँ (काम्बिका)
6. वेष्ठन -- छंदजु (ग्राच्छादन)
7. ग्रन्थि - - ताड़पत्र आदि के ग्रन्थों में बीच में छेद करके डोरी पिरोयी जाती है । ग्रन्थ के दोनों ओर इस डोरी के दोनों छोरों पर
लकड़ी, हाथी- दाँत,
गोल टिकुली में से इस डोरी को निकाल इन टिकुलियों को भी ग्रन्थि या गांठ
8. हड़ताल या हरताल -- गलत लिख जाने पर उसे मिटाने का साधन है
'हड़ताल' । तीसरा पक्ष है-लिपि और लिपिकार
लिपिकार और लेखक तब ही पर्यायवाची होते हैं, जब लेखक ही लिपिकार का भी काम करता है । दोनों के लिए लिपि ज्ञान और उसका अभ्यास अवश्य अनिवार्य है । जी. बहलर ने हमें बताया है कि प्राचीन काल में इन लेखकों या लिपिकारों के लिये निर्देश -ग्रन्थ लिखे गये थे । दो ऐसे ग्रन्थों का उन्होंने उल्लेख भी किया है : 1. लेख पंचाशिका । इसमें निजी पत्रों की रचना का वर्णन ही नहीं है वरन् पट्टों, परवानों तथा राजाओं की संधियों को लिखने का रूप भी बताया गया है । दूसरी पुस्तक है क्षेमेन्द्र व्यासदास रचित 'लोक प्रकाश' जिसके एक भाग में हुंडी, अनुबंध आदि तैयार करने के रूप बताये गये हैं । वत्सराज सुत हरिदास की 'लेखक मुक्ता मणि' का भी यही विषय है । एक ऐसी ही कृति महाकवि 'विद्यापति' की 'लिखनावली' भी है। इसका रचना काल सन् 1418 ई० है ।
लेखक : ग्रन्थ रचना में यह सबसे प्रधान पक्ष है ।
'लेखक' शब्द लेखन-क्रिया के कत्र्ता के लिये प्राचीनतम शब्द माना जा सकता है । रामायण एवं महाभारत में इसका उपयोग हुआ है । इससे विदित होता है कि महाकाव्य - युग में 'लेखक' होना एक व्यवसाय भी था और लेखन कला की प्रतिष्ठा भी हो चुकी थी । पालि में 'विनय-पिटक' के लेखन को एक महत्त्वपूर्ण और श्लाध्य कला माना गया है और भिक्खुरियों को लेखन कला की शिक्षा देने का विधान है ताकि वे पवित्र धर्मग्रन्थों का लेखन कर सकें । इस काल में पिता की इच्छा यही मिलती है कि उसका पुत्र लेखक का व्यवसाय ग्रहण करे, ताकि वह सुखी रह सके । महावग्ग और जातका में भी ऐसे उल्लेख
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया 21
है जिनसे उस काल में लेखन-व्यवसाय विशेषज्ञ का पता ललता है । पोथक (पाण्डुलिपि) लेखक का दो बार उल्लेख मिलता है और यह लेखक व्यावसायिक विशेषज्ञ लेखक ही हो सकता है।
शिला-लेखों के अनुसंधान से विदित होता है कि सांची स्तूप के एक शिलालेख में 'लेखक' का प्राचीनतम उल्लेख है। यहाँ 'लेखक' लेखन-व्यवसाय प्रवृत्त व्यक्ति ही है, बूलर ने इस शिला-लेख का अनुवाद करते हुए लेखक का अर्थ 'कापीइस्ट प्रॉव मैन्युस्क्रिप्टस्' (Copyist of Mss) या राइटर, क्लर्क ही दिया है। बाद के कितने ही शिलालेखों से सिद्ध होता है कि 'लेखक' शब्द से व्यवसायी लेखन कला विज्ञ का ही अभिप्राय है और इस समय तक 'लेखक-वर्ग' एक व्यवसायवाची शब्द हो गया था। ये लेखक शिलालेखों पर उत्कीर्ण किये जाने वाले प्रारूप तैयार किया करते थे। बाद में लेखक को पाण्डुलिपिकर्ता का कार्य सौंपा जाने लगा-ये लेखक बहुधा ब्राह्मण होते थे, या दरिद्र और थकेमाँदे वृद्ध कायस्थ । मन्दिरों और पुस्तकालयों में इन लेखकों की नियुक्ति ग्रन्थ-लेखन के लिये की जाती थी।
लेखक के पर्यायवाची जो शब्द भारतीय परम्परा में मिलते हैं वे हैं। लिपिकार या लिबिकार या दिपिकार । इस शब्द का प्रयोग चतुर्थ शती ई० पू० में हुआ मिलता है । प्रशो 6 के अभिलेखों में यह शब्द कई बार आया है। इनमें यह दो अर्थों में आया है । एक तो लेखक दूसरे शिलानों पर लेख उत्कीर्ण करने वाला व्यक्ति । संस्कृत कोषों में इसे लेखक का ही पर्यायवाची माना गया है, जैसे-अमरकोश में--"लिपिकारोऽक्षरचणोऽ क्षर चुचुश्च लेखके" । डॉ० राजबली पाण्डेय ने बताया है कि, A persual of Sanskrit literature and epigraphical documents will show that the 'lekl aka'....and it was employed more in the sense of a copyist' and 'an engraver' than in the sense of 'a writer.'
यों लिपि' और 'लिपिकार' शब्द का प्रयोग पाणिनि की अष्टाध्यायी में भी हुआ है । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का निष्कर्ष है कि पाणिनि के समय में 'लिपि' का अर्थ होता था लेखन तथा लेख ।
1. Pandey, R. B.--Indian Palaeography, P. 90. 2. India As Known to Panini (अध्याय ५, खण्ड २, पृ० ३११) में बताया है कि गोल्डस्टुकर
के मतानुसार 'लेखन कला' पाणिनि से बहुत पूर्व से प्रचलित थी। पाणिनि की वैदिक साहित्य ग्रन्थ रुप (MSS) में भी उपलब्ध था। डॉ० अग्रवाल का कथन है कि पाणिनि ने 'ग्रन्थ'. 'लिपिकार' 'यवनानी लिपि' आदि शब्दों का उपयोग किया है। अतः इसमें सन्देह नहीं रह जाता कि पाणिनि के समय लेखन कला विकसित हो चुकी थी। डॉ० अग्रवाल ने आगे लिखा है कि
___(i) Lipikar (HI. 2.21) as well as its variant form libikara', denoted a writer. The term lipi with its variant was a standing term for writing in the Maurya period and earlier. Dhammalipi, with its alternative form dharmalipi, stands for the Edicts of Asoka engraved on rocks in the third centiry F.C. An engraver is there referred to as lipikara (M.R.E. 11). Kautilya also knows the term : 'A king shall learn the lipi (alphatet) and sankhyana (numbers, Arth 1.5). He also refers to samjna-lipi. 'Code Writing' (Arth. I. 12) used at the espionage Institute in the Behistum inscription we find lipi for engraved writing. Thus it is certain that lipi in the time of Panini meant writing and script'.
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22/पाण्डुलिपि-विज्ञान
'मत्स्य-पुराण' में लेखक के निम्नांकित गुण बताये गये हैं :
सर्व देशाक्षराभिज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः । लेखकः कथितो राज्ञः सर्वाधिकरणेषु वै ॥ शीर्षोपेतान् सुसंपूर्णन् शुभ श्रेरिणगतान् समान् । अक्षरान् वै लिखेद्यस्तु लेखकः स वरः स्मृतः ।। उपाय वाक्य कुशलः सर्वशास्त्रविशारदः । बह्वर्थवक्ता चाल्पेन लेखकः स्यान्नृपोत्तम ।। वाजाभिप्राय तत्त्वज्ञो देशकालविभागवित् । अनाहार्यो नृपे भक्तो लेखकः स्यान्नृपोत्तम ।।
(अध्याय, 189)
'गरुड़ पुराण' में लेखक के ये गुण बताये गये हैं
मेधावी वाक्पटुः प्राज्ञः सत्यवादी जितेन्द्रियः । सर्वशास्त्र समालोकी ह्यष साधुः स लेखकः ।।
1,
लेखक शब्द पर कुछ और रोचक सूचना हमें डॉ. वासुदेवणरण अग्रवाल के लेख 'Notes from the Brahat Kathakosha' से मिलती है। उनका यह लेख 'The Journal of the United Provinces Historical Society, (Vol. XIX. पार्ट I-II, जुलाईदिसम्बर, १९४६) में प्रकाशित है। इसमें पृ. ८०-८२ में अनुभाग /३ में 'लेखक' शीर्षक से यह बताया है कि मौर्यों के समय से लेखक प्रशासकीय तन्त्र का एक सदस्य रहा। कौटिल्य ने संख्याक (Accountant) और लेखक (Clerk) का वेतन ५०० कार्षापण वार्षिक बताया है। जैसे-जैसे समय बीता, लेखक के दायित्व में भी वैसे-वैसे ही वृद्धि हुई। फ्लीट के अनुसार हस्तिन् के एक अभिलेख में लिखितञ्च' का पांचवीं शताब्दी में अभिप्राय कोई अभिलेख प्रस्तुत करना था, शिल्पकार (Engraver) के लिए उत्कीर्ण करने के लिए एक प्लेट पर मसौदा तैयार कर देना था।
सातवीं शताब्दी के एक आदेश लेख (निर्माण्ड ताम्रपत्र अभिलेख) में लेखक' के उल्लेख से विदित होता है कि राजा के निजी सचिवों में वह सम्मिलित था और उसका अधिकार और कत्र्तव्य बढ गये थे। हरिषेण के कथाकोश में एक लेखक महारानी और मन्त्रियों के साथ राजभवन में उपस्थित हैं। उसकी उपस्थिति में महाराजा के पत्र आते हैं जिन्हें पढ़कर लेखक उसका अभिप्राय बनाता है। राजा ने किसी उपाध्याय के सम्बन्ध में लिखा था कि उसे सुगन्धित उबले चांवल. घी तथा मषी भोजनार्थ दिया जाय । लेखक ने 'मषी' का अर्थ बताया 'कृष्णांगार मषी' अर्थात् कोयले की काली स्याही घी में घोल कर चावल के साथ खाने को दी जाय । स्पष्ट है कि लेखक ने माष या मषी का यथार्थ अर्थ 'दाल' न बताकर काली स्याही बताया। पन महारानी के नाम था। उसे पढ़ने का और उसकी व्याख्या का दायित्व लेखक पर था। जब राजा को विदित हुआ तो उसने
कृढभाज' को निकलवा दिया। यह २४वीं कहानी में है। इसी प्रकार की दो अन्य कहानियां हैं. दोनों में पत्र महारानी के नाम है। पढना और व्याख्या करना या अर्थ बताना लेखक का काम है। एक में लेखक ने स्तम्भ (खम्भों) के स्थान पर 'स्तभ' पढ़ कर अर्थ किया बकरी । अत: राजाज्ञा मारकर एक हजार खम्भों के स्थान पर एक हजार बकरियां खरीदी गयीं। एक ऐसे ही पत्र में लेखक ने 'अध्यापय' को 'अन्धापय' पढ़ा और राजकुमार को अन्धा कर दिया। मंत्रीगण और महारानी को उस अर्थ की समीचीनता आदि से कोई लेना-देना नहीं। स्पष्ट है कि लेखक का दायित्व बहुत ब गया था। उसकी व्याख्या ही प्रमाण थी।
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ रचना-प्रक्रिय 23
यही बातें 'शार्ङ्गधर पद्धति' में भी बताई गई हैं । 'पत्र कौमुदी' में तो राजलेखक के गुण की लम्बी सूची दी गई है, इसके अनुसार लेखक को ब्राह्मण होना चाहिये । 1 जो मन्त्ररणाभिज्ञ हो, राजनीति- विशारद हो, नाना लिपियों का ज्ञाता हो, मेधावी हो, नाना भाषा का ज्ञाता हो, नीतिशास्त्र- कोविद हो, सन्धि विग्रह के भेद को जानता हो, राजकार्य में विलक्षण हो, राजा के हितान्वेषण में प्रवृत्त रहने वाला हो, कार्य और कार्य का विचार कर सकता हो, सत्यवादी हो, जितेन्द्रिय हो, धर्मज्ञ हो और राजधर्म-विद् हो, वही लेखक हो सकता था । स्पष्ट है कि लेखक का प्रदर्श बहुत ऊंचा रखा गया है । उस काल में लेखक को पाण्डुलिपि लेखक ही मानना होगा, क्योंकि तब मुद्रण यन्त्र नहीं थे, अतः लेखक जो रचना प्रस्तुत करता था वह पाण्डुलिपि (मैन्युस्क्रिप्ट) ही होती थी । उस मूल पाण्डुलिपि से अन्य लिपिकार प्रतियाँ प्रस्तुत करते थे और जिन्हें श्रावश्यकता होती थी उन्हें देते थे । ब्राह्मणों को, मठों और विहारों को ऐसा ग्रन्थ-प्रदान करने का बहुत माहात्म्य माना गया है ।
ऊपर के श्लोकों में लेखक के जिन गुणों का उल्लेख किया गया है, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है 'सर्व देशाक्षराभिज्ञ :- समस्त देशों के अक्षरों का ज्ञान लेखक को अवश्य होना चाहिये । साथ ही 'सर्वशास्त्र समालोकी' - समस्त शास्त्रों में समान गति लेखक की होनी चाहिये । एक पाण्डुलिपिविद् में आज भी ये दो गुण किसी न किसी मात्रा में होने ही चाहिये । यों पाण्डुलिपि विज्ञान विद् विविध लिपिमालाओं से और ज्ञान-विज्ञान कोशों से भी आज अपना काम चला सकता है, फिर भी उसके ज्ञान की परिधि विस्तृत अवश्य होनो चाहिए और उसके लिए सन्दर्भ-ग्रन्थों का ज्ञान तो अनिवार्य ही माना जा सकता है ।
ऊपर उद्धृत पौराणिक श्लोकों में जिस लेखक की गुणावली प्रस्तुत की गई है, वह वस्तुतः राज- लेखक है और उसका स्थान और महत्त्व लिखिया या लिपिकार के जैसा माना जा सकता है । हिन्दी में लेखक मूल रचनाकार को भी कहते हैं और लिखिया या लिपिकार को भी विशेषार्थक रूप में कहते हैं ।
लिपिकार का महत्त्व विश्व में भी कम नहीं रहा । रोमन साम्राज्य के बिखर जाने पर साम्राज्य की ग्रन्थ सम्पत्ति कुछ तो विद्वानां ने अपने अधिकार में कर ली, और कुछ पादरियां (मोंक्स) ने । इस युग में प्रत्येक धर्म - बिहार (मोनस्ट्री ) में एक अलग कक्ष पाण्डुलिपि कक्ष 'स्क्रिप्टोरियम' (Scriptor um) ही होता था । इस कक्ष में पादरी प्राचीन ग्रन्थां की हस्तप्रतियाँ या पाण्डुलिपियाँ स्वयं अपने हाथों से बड़ी सावधानी से तैयार किया करते थे । पाण्डुलिपि-लेखन को उन्होंने उच्चकोटि की कला से युक्त कर दिया था ।
1.
इस सम्बन्ध में डॉ० राजबली पाण्डेय ने यह मत व्यक्त किया है: “There is no doubt that the invention of alphabet required some knowledge of linguistics and phonetics and as such it could be under taken only by experts ed cated and cultured. That is why, for a very long time, the art of writing remained a special preserve of literary and priestly experts, mainly belonging to the Brahman class." -Panday, R. B. Indian Palaeography, p. 83.
Alphabet या अक्षरावली या वर्णमाला जव बनी तब ब्राह्मण वर्ण का अस्तित्व था भी, यह अनुसन्धान का विषय है, पर ब्राह्मण धर्म-विधाता थे और वर्णमाला देव भाषा की थी ---अतः उनका उस पर अधिकार हो अवश्य गया ।
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24/पाण्डुलिपि-विज्ञान
वे विविध प्रकार की चित्र-सज्जा से इन ग्रन्थों को विभूषित करते थे ।। जैन मन्दिरों और बौद्ध बिहारों में भी ऐसा ही प्रबन्ध था ।
किन्तु यह बताया जाता है कि इससे पहले प्राचीन पाण्डुलिपियों के लिपिकार वे गुलाम होते थे, जिन्हें मुक्त कर दिया जाता था। रोम में कुछ व्यावसायिक लिपिकार स्त्रियाँ थीं । सन् 231 ई० में जब ओरिगेन ने 'ओल्ड टेस्टामेन्ट' के सम्पादन-संशोधन का कार्य प्रारम्भ किया तो सन्त अम्ब्रोज ने लिपि सुलेखन (कैलीग्राफी) में विज्ञ कुछ कुशल अधिकारी (Deacon) एवं कुमारियाँ भेजी थीं। इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थ का सुलेखन एक • व्यवसाय हो चुका था, जिसमें कुमारियाँ विशेष दक्ष थीं। बाद में, वह लेखन पादरियों का कर्तव्य बन गया । इन धर्म-विहारों में जहाँ ग्रन्थ-लेखन-कक्ष रहता था, लिपिकारों की सहायता के लिए पाठ-वक्ता (Dictator) भी रहते थे, जो ग्रन्थ का पाठ बोल-बोल कर लिखाते थे, इसके बाद वह ग्रन्थ एक संशोधक के पास भेजा जाता था, जो अावश्यक संशोधन करके उसे चित्रकार (मिनिएटर) को दे देता था जो उसे चित्र-सज्जा से सुन्दर बना देता था।
भारत में भी धर्म-बिहारों, मन्दिरों, सरस्वती तथा ज्ञान भण्डारों में लेखक-शालाओं का उल्लेख मिलता है । 'कुमारपाल प्रबन्ध' में यह उल्लेख इस प्रकार आया है “एकदा प्रातर्गुरून सर्वसाधूंश्च वन्दित्वा लेखकशाला विलोकनाय गताः । लेखकाः कागदपत्राणि लिखन्तो रष्टाः । जैन धर्म में पुस्तक लेखन को महत्त्वपूर्ण और पवित्र कार्य माना है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'योग-दृष्टि-समुच्चय' में 'लेखना पूजनां दानं' में श्रावक के नित्यकृत्यों में पुस्तक लेखन का भी विधान किया है । जैन-ग्रन्थों से यह भी विदित होता है कि ग्रन्थ-रचना के लिए विद्वान् लेखक को विद्वान् शिष्य और श्रमण विविध सूचनाएँ देने में सहायता किया करते थे । ऐसी भी प्रथा थी कि ग्रन्थ-रचनाकार अपने विषय के मान्य शास्त्रवेत्ता और आचार्य के पास अपनी रचना संशोधनार्थ भेजा करते थे । उनसे पुष्टि पाने के बाद ही इन रचनाओं की प्रतियाँ कराई जाती थीं। भारत में ग्रन्थ-लेखन या लेखक का कार्य पहले ब्राह्मणों के हाथ में रहा, बाद में 'कायस्थों के हाथ में चला गया । कायस्थ लेखकों का व्यवसायी वर्ग था । विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य स्मृति (1,336) की टीका में मूल पाठ में आये 'कायस्थ' शब्द का अर्थ लेखक ही किया है; 'कायस्थगणका लेखकाश्च' । इसमें सन्देह नहीं कि कायस्थ वर्ग व्यावसायिक लेखकों का वर्ग ही था-यही आगे चल कर जाति के रूप में परिणत हो गया। कायस्थों का लेखन बहुत सुन्दर होता था । 'कायस्थ' शब्द के कई अर्थ किये गये हैं । किन्तु यथार्थ अर्थ यही प्रतीत होता है कि कायस्थ वह है जो काय में स्थित रहे-'काय' मौर्य काल में सेक्रेटेरियट (Secretariate) को कहा जाता था, और इसमें स्थित व्यक्ति था कायस्थ ।
लेखक, लिपिकार, दिपिकार या दिविर के साथ अन्य पर्यायवाची भी भारत में प्रचलित थे-ये हैं : करण, कगिन्, शासनिन् तथा धर्मलेखिन् । डॉ० वासुदेव उपाध्याय
1. The World Book Encyclopedia (Vol. 11), p. 224. 2 Encyclopedia Americana, (Vol. 18), p. 241. 3. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ० 25 । 4. वही, पृ० 107। 5. उपाध्याय, वासुदेव-प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० 256-2571
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/25
ने बताया है कि---
“कायस्थ शब्द के अतिरिक्त लेखक के लिए करण, करणिक, करनिन् आदि शब्द प्रयुक्त होते रहे । चेदिलेख में (करणिक धीर सुतेन) तथा चन्देलों की खजुराहो प्रशस्ति में करणिक शब्द का प्रयोग मिलता है जो सुन्दर अक्षर लिखते थे......."कीलहान ने करण को भी कानूनी पत्रों के लेखक के अर्थ में माना है । ......."उन्हें संस्कृत भाषा का अच्छा ज्ञान रहता था ।
शिल्पी, रूपकार, सूत्रधार तथा शिलाकूट का काम भी लेख उत्कीर्ण करना ही था। __ पांडुलिपि विज्ञान की दृष्टि से 'लिपिकार' का महत्त्व बहुत अधिक है। उसके प्रयत्न के फलस्वरूप ही हमें हस्तलेख प्राप्त हुए हैं। उसकी कला से ग्रन्थ सुन्दर या असुन्दर होता है, उसका व्यक्तित्व ग्रन्थ में दोष भी पैदा कर सकता है। लिपिकार के सम्बन्ध में डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने बताया है कि किसी हस्तलेख की प्रामाणिकता पर भी लिपिकार के व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ता है। उन्होंने दस प्रकार के लिपिकार बताये हैं :
(1) जैन श्रावक या मुनि । (2) साधु/सम्प्रदाय-विशेष का या आत्मानंदी । (3) गृहस्थ । (4) पढ़ाने वाला (चाहे कोई हो) (5) कामदार (राजघराने के लिपिक) (6) दफ्तरी।
5वें और छठे में भेद है । कामदार तो लिपिक के रूप में ही रखे जाते हैं,
दफ्तरी अन्य कार्यों के साथ प्राज्ञा होने पर प्रतिलिपि भी करता था। (7) व्यक्ति विशेष के लिए लिखी गई प्रति का लिपिक कोई भी हो सकता है। (8) अवसर विशेष के लिए लिखी गई प्रति का लिपिक कोई भी हो सकता है। (9) संग्रह के लिए लिखी गई प्रति का लिपिक कोई भी हो सकता है ।
(10) धर्म विशेष के लिए लिखी गई प्रति का लिपिक कोई भी हो सकता है । लिपिकार द्वारा प्रतिलिपि में विकृतियाँ
उद्देश्य
लिपिकार से ही लिपिगत विकृतियां जुड़ी हुई हैं।
किसी प्रति का महत्त्व उसमें लिखी रचना अथवा पाठ के कारण ही है । अतः पांडुलिपि-विज्ञान एवं पांडुलिपि सम्पादन के सन्दर्भ में जितनी भी भूलें संभव हो सकती हैं, उनको जानना भी आवश्यक है। संपादन में तो उनका निराकरण भी करना होता है। निराकरण प्रधानतया प्रति के 'उद्देश्य' से किया जा सकता है। पाठालोचन के विज्ञान में अभी तक इस ओर इंगित भी नहीं किया गया है। मुख्यतः पाठ सम्बन्धी भूलें/समस्यायें ये होती हैं :--
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26/पाण्डुलिपि-विज्ञान
विकृतियाँ :
(अ) सचेष्ट (जानबूझ कर की गयी) (ब) निश्चेष्ट (अनजाने हो जाने वाली) तथा
(स) उभयात्मक (सचेष्ट-निशचेष्ट) ये कई प्रकार से होती हैं या लाई जाती हैं :--- (क) मूल पाठ में वृद्धि के लिए। (ख) मूल पाठ में से कुछ कमी के लिए। (ग) मूल पाठ के स्थान पर अन्य पाठ बैठाने के लिए। (घ) मूल पाठ के क्रम में परिवर्तन के लिए, (ङ) मूल पाठ में मिश्र पाट की प्रति का अंश ग्रहण करने के लिए,
स्वेच्छा से। (च) मिश्र पाठ की प्रति का किसी एक परम्परा की प्रति से मिलान करते
समय स्वेच्छा से । अन्तिम दोनों का (ङ और च) एक प्रकार से प्रारम्भिक चारों में से किसी न किसी में अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि इनमें से कोई न कोई भूल हो जाती है :
(क) लिपिभ्रम, लिपि-साम्य । (ख) वर्ण-साम्य (द् यूटना या दुबारा लिखना) । (ग) शब्द-साम्य (द्यूटना या दुबारा लिखना)। (घ) लिपिकार द्वारा लिखे गये संकेत चिह्नों को न समझना । (ङ) शब्द का ठीक अन्वय न कर सकना । (च) पुनरावृत्ति (पंक्ति, शब्द और अर्द्ध पंक्ति की)। (छ) स्मृति के सहारे लिखना। . (ज) बोले हुए को सुनकर लिखना । समान ध्वनियों वाली गलतियाँ
इसी कारण होती हैं। यहाँ पाठ-वक्ता या पाठ-वाचक के तत्त्व को स्थान देते हैं । क्योंकि लिपिकार अक्षर देख नहीं रहा, सुन
रहा है। (झ) हाशिये में दिये गये पाठ को प्रतिलिपि करते समय सम्मिलित कर
लेना । इसके तीन रूप हो सकते हैं1. हाशिये में क्रमशः पाई पंक्ति का एक सीध वाली मूल पाठ की पंक्ति में मिश्रण कर
लेना। 2. हाशिये की सम्पूर्ण पंक्तियों या पूरे पाठ का बराबर वाले पूर्ण विराम चिह्न के
पश्चात् वाले मूल पाठ के बाद लिखना । अपवाद (Exception) के तौर पर कभी-कभी सम्पूर्ण हाशिये का पाठ प्रतिलिपि में आदि/अन्त ओर प्रसंग-विशेष की समाप्ति पर भी ले लिया जाता है। (डॉ. माहेश्वरी को मेहोजी कृत रामायण के विभिन्न हस्तलेखों का पाठ मिलान करने पर ऐसे उदाहरण मिले हैं । पर ऐसा कम ही पाया जाता है ।)
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/27
इस सम्बन्ध में ऊपर के क्रम सं० (ज) 'बोले हुए को सुनकर लिखना' के तथ्य को विशेष रूप से स्पष्ट करना है। कारण यह है कि अभी तक पाठ-संशोधन-कर्ताओं ने इस ओर जरा सा भी ध्यान नहीं दिया है। इससे भी बड़ा अनर्थ हुआ है । प्रायः इससे भाषा शास्त्रीय अध्येता गलत परिणाम पर पहुँच सकता है और लोग पहुँचे भी हैं।
उदाहरणार्थ-इकारान्त ग ध्वनि ‘ण्य' करके इसी 'बोले हुए को सुनकर लिखने' के कारण लिखी गयी मिलती है। नवाणि>नवण्य। इसके सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं । इस बात को न समझने के कारण "नामदेव की हिन्दी कविता" के सम्पादकों (पूना विश्वविद्यालय) ने इसे एक प्रवृत्ति माना है, जो भूल है। वस्तुतः यह रूप उच्चारण सम्बन्धी इसी विशेषता के कारण है और यह कार-प्रधान राजस्थानी भाषा की प्रवृत्ति है । ऐसी प्रतियों को 'राजस्थानी' जानकर उनमें आई भूलों का निराकरण इसी दृष्टिकोण (angle) मे करना चाहिये, अन्यथा गलत परिणाम पर पहुँचने की आशंका रहेगी।
ओर>वोर
अोवड़ छेवड़>वोवड़ छेवड़
दूसरा ऐसा ही एक और उदाहरण दृष्टव्य है :-बीकानेर, नागौर तथा नागौर से दक्षिण (देवदर तक) के चारों ओर के इलाके (जिसके अन्तर्गत मिलता हुमा जैसलमेर, बीकानेर और जोधपुर राज्यों की सीमा वाला प्रदेश है,) की एक विशिष्ट ध्वनि है आ को प्रो (प्रा>ो) बोलना। यह 'नो' 'श्रो' न होकर ") जैसी ध्वनि है । डाक्टर>डॉक्टर। इस इलाके में व्यापक रूप से यह ध्वनि प्रचलित है। यदि लिपिकार या बोलनेवाला इस इलाके का हुआ और इनमें से कोई भी दूसरा किसी और इलाके का, तो लेखन में अन्तर होगा। उदाहरणार्थ-कांदा>कोंदा। काड़>कोड़
(प्याज) (कितनी देर) (काल) (गोंद) इस स्थिति को न समझने के कारण भी बड़ी भूलें सम्भव हैं।
तीसरा उदाहरण-यह दूसरे के समान व्यापक नहीं है, किन्तु उसे भी ध्यान में रखना चाहिये । फलौदी और पोकरण के बाद पश्चिमोत्तर और पश्चिम की ओर जैसलमेर
और पुराने बहावलपुर (अब पाकिस्तान में) तक भविष्यवाचक क्रियारूप 'स्य' का प्रयोग है। यह एकवचन में 'स्यै' और बहुवचन में "स्य" है। जायस्य = जाएगा, जायस्य = जाएंगे। जरा भी असावधानी से यदि बिन्दी न लिखी या सुनी गई, तो समूचे अर्थ में परिवर्तन हो जाता है । समूह वाचक संज्ञाओं में तो विशेष तौर से । उदाहरणार्थ----
राज जायस्य = पाप जाएँगे (आदर सूचक प्रयोग)। राज जायस्य = राज (नामक व्यक्ति) जाएगा।
चौथा और अन्तिम उदाहरण-मेवाड़ में लिखित प्रतियों के सन्दर्भ में है । गुजराती-बागड़ी-भीली के प्रभाव से अनेक संज्ञा शब्दां पर " लगाने की और लगाकर बोलने की प्रथा है । जैसे, नंदी<नदी । टंका<टका । नंदी का तात्पर्य 'नहीं दीं से भी है । नदी अर्थात् नदी । टंका अर्थात् समय का एक अंश, साथ ही उक्त से संबंधित मनुष्य भी। जैसे-- चार टंका = चार वार खाने वाला मनुष्य अथवा समय का चौथाई 'भाग' । किन्तु टका अर्थात् 2 पैसे।
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28/पाण्डुलिपि-विज्ञान
कहने का तात्पर्य यह है कि इन प्रवृत्तियों का जानना जरूरी है, जो कि आदि, मध्य या पुष्पिका में लिखी रहती है।
उपर्युक्त समस्त भूलों का निराकरण प्रधानतः तो प्रति के 'उद्देश्य' से हो सकता है । उद्देश्य का पता प्रति में हमें इस प्रकार लग सकता है :(अ) प्रति के प्रथम पत्र के प्रथम पृष्ठ पर लिखा हुआ मिलता है। (ब) प्रति के अन्त में (पुष्पिका के भी अन्त में) अन्तिम पत्र पर लिखा हुआ मिलता है।
ये दोनों पत्राकार तथा शेष प्रकार की प्रतियों में पाये जाते हैं । (स) पुष्पिका के पश्चात् (संवत् आदि का उल्लेख करने के बाद) मिलता है । (द) यदि गुटकों, पोथी, या पोथियों आदि में कुछ रचनाएँ एक हस्तलेख में हों, और
कुछ भिन्न में, तो प्रायः एक प्रकार के हस्तलेख के अन्त में मिलते हैं।
कारण-ये संग्रह ग्रन्थ भी हो सकते हैं, जिनमें ध्येय यही रहता है कि अधिक से अधिक रचनाएँ सुविधापूर्वक एक साथ ही सुरक्षित रह सकें । इस कारण विभिन्न प्रकार की प्रतियों को (जो एक आकार के पन्नों पर हों) एकत्र कर जिल्द बंधवा ली जाती हैं । अतः अध्येता को ध्यानपूर्वक मध्य का अंश (जहाँ एक हस्तलेख समाप्त होता है और दूसरा प्रारम्भ होता है) देखना चाहिये । (क) कभी-कभी हाशिये में भी लिखा रहता है। ऐसे उदाहरण भी मिले हैं कि उद्देश्य
अन्तिम पत्र के हाशिये में स्थान की कमी से नहीं लिखा जा सका, अतः लिपिकार ने उस पत्र के ठीक पूर्व के पत्र के दाएँ हाशिये पर शेषांश लिखा हो। इस पूर्व के पत्र पर लिखित अंश को हाशिये का शेषांश नहीं समझना चाहिये । एकाध प्रतियों में ऐसा भी लिखा मिला है कि उद्देश्य लिखा तो प्रारम्भ के पन्ने पर है, किन्तु समाप्ति पुष्पिका के पश्चात् की गई है। इसका उद्देश्य प्रति की एकान्विति को द्योतित करना होता है तथा एक लिपिकार द्वारा लिखित है यह.निर्दिष्ट
करना होता है। 'उद्देश्य' में क्या लिखा रहता है ?
निम्नलिखित वाक्यावली से उद्देश्य का पता लगाया जा सकता है। सीधे रूप में तो उद्देश्य कहीं भी लिखा रहता है, यह ध्यान में रखने की बात है । जहाँ ऐसा है भी, वहाँ यह निश्चित समझना चाहिये कि उसमें सचेष्ट विकृतियों के अनेक उदाहरण मिलेंगे। 1. लिपिकार अमुक का शिष्य है । 2. लिपिकार ने अमुक गाँव में अमुक गाँव में अमुक के घर में अमुक गाँव के अमुक
निवास स्थान पर प्रति लिखी। 3. लिपिकार ने अमुक 'डेरे' पर अमुक साथरी में अमुक देश (बीकाण, जोधाण,
जैसाण, मेवाड़ों, ढूंढाड़ों आदि) में लिखी । 4. लिपिकार ने अमुक समय में यात्रा (जातरा) में/मन्दिर में अमुक की सत्संगति
में/अमुक अवसर पर (पाखातीज, गणेश चौथ, घूज, पून्यू आदि) प्रति लिखी। 5. लिपिकार ने अमुक के कहने पर/आदेश पर/प्रति लिखी।
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/29
8.
6. लिपिकार ने अमुक के लिए अमुक की भेंट के लिए/अमुक के पाठ के लिए अमुक के
पढ़ने के लिए/अमुक के संग्रह के लिए अमुक को सुनाने के लिए लिखी। 7. लिपिकार ने स्व-पठनार्थ पाठ के लिए संग्रह के लिए लिखी।
लिपिकार ने अमुक प्रति के बदले लिखी। (मूल प्रति नष्ट प्रायः हो रही थी, उसके पाठ को सुरक्षित रखने के लिए) "अमुक""रै बदल माँ लिखी," या
"अमुक..."रै बदलायत लिखी," लिखा मिलता है । 9. ऐसे भी अनेक लिपिकार रहे हैं जिन्होंने प्रचारार्थ / बिक्री के लिए धर्म भावना
से परिवार और मित्रों में भेंट देने के लिए प्रतियाँ लिखीं हैं । दो के नाम ये हैं
साहबरामजी तथा प्रारणसुख (नगीने वाला) । 10. कई ऐसे भी लिपिकार हैं, जो एक समय एक के शिष्य हैं, बाद की लिखी प्रति में
दूसरे के और तीसरी में तीसरे के शिष्य । ध्यानदास, साहबराम, परमानन्द के नाम लिये जा सकते हैं । इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि :
(अ) इससे यह न समझना चाहिये कि लिपिकार गुरु बदलता रहा है । अधिकांशतः वह नहीं ही बदलता है । गुरु से यह तात्पर्य है
(क) पिता (जो गृहस्थ त्याग कर संन्यासी हो गये) (ख) विद्या पढ़ाने वाला गुरु (ग) दीक्षा देने वाला गुरु (घ) अध्यात्म-पथ-निर्देशक गुरु, एवं (ङ) सम्प्रदाय-विशेष के प्रवर्तक गुरु ।
चार-चार [प्रथम चार (क) से (घ) तक] गुरुओं के नाम अनेक प्रतियों में (एक ही प्रति में भी) मिलते हैं । धर्म के क्षेत्र में गुरु भी बदल जाते हैं, किन्तु बहुत कम ।
(ब) राजस्थान में एक और विचित्र बात गुरु के सम्बन्ध में है। स्वर्गस्थ गुरु के 'खोले' (गोद) भी किसी वर्तमान गुरु का शिष्य चला जाता है । खोले वह तब जाता है जबकि स्वर्गस्थ गुरु का प्रारम्भ किया हुआ कार्य उनकी मृत्यु के कारण अधूरा रह गया हो अथवा वर्तमान गुरु के निर्देश से मृतक गुरु की आकांक्षा-विशेष की पूर्ति के निमित्त भी चला जाता है । ऐसी स्थिति में एक ही प्रति में रचना-विशेष की समाप्ति पर एक जगह एक गुरु का नाम और दूसरी जगह स्वर्गस्थ गुरु का नाम लिखा मिलता है।
किसी भी प्रति के पाठ को ग्रहण करते समय अथवा पाठ-सम्पादन के लिए चुनने के समय उल्लिखित प्रकार से उद्देश्य जानना आवश्यक है। तभी उसकी तुलनात्मक विश्वसनीयता का पता लग सकेगा।
इससे (उद्देश्य से) यह कैसे पता चलता है कि पाठ-सम्बन्धी कैसी और कौनकौनसी मूले सम्भव हैं :नोट : 'सम्भावना' की जा सकती है। निश्चित रूप से तो पाठ-सम्पादन के समय
आई विकृतियों आदि के आधार पर ही कहा जा सकता है । सतर्कता के लिए कुछ आवश्यक बिन्दु प्रस्तुत किए जा रहे हैं : .
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30/पाण्डुलिपि-विज्ञान
1. गुरु की कृतियों में, साम्प्रदायिक भावना के अनुसार कुछ समावेश जोड़-तोड़। 2. गाँव किसका है ? ज्यादा कौन लोग हैं ? घर किसका है ? बास किसका है ? किस
पर निर्भर है ? जैसे---यदि राजपूतों का गाँव है, तो सम्भव है कि सम्बन्धित प्रति में वह ऐसा नाम बैठा दे जैसा प्रायः राजपूतों के होते हैं क्योंकि पात्र प्रतीक हैं, अथवा (युद्ध से सम्बन्धित) घटना में मिश्रण कर दें : उनकी प्रसन्नता हेतु ।
यदि घर 'थापनों' का है, तो नाम-साम्य के कारण प्रसिद्ध कवि को भी थापन बना दे, लिपिकार यदि जाति-विशेष का है, तो कवि-विशेष को भी उस जाति का बना दे।
उदाहरण : सुरजनदासजी पूनिया जाति के थे । पूनिया थापन नहीं होते। थापन लिपिकार ने/थापन के घर में रहकर लिखने वाले ने/थापन के कहने से लिखने वाले ने इनको थापन लिख दिया ।
3.
डेरा किसका है ? साथरी की शिष्य-परम्परा क्या है ? 'देश' का नाम क्या है ? प्रथम से गद्दीधारी महन्त का, उसके गुरु का, उसके सम्प्रदाय की मान्यताओं का निदर्शन यत्र-तत्र किया गया मिलेगा । साथरी वाली स्थिति में प्रथम गुरु और उसके किसी शिष्य का नाम-उल्लेख किया गया मिलेगा। 'देश' का नाम लिखने वाला उससे इतर प्रान्त का होगा ।
समय क्या था ? कौनसी 'जातरा' थी ? मन्दिर किसका था ? प्रधान उपदेशक कौन था, (उसका सम्प्रदाय और गुरु कौन था) अवसर क्या था ? निश्चित है कि यत्र-तत्र इनसे सम्बन्धित पंक्तियाँ (मूल पाठ को तोड़-मरोड़ कर) यदि भावुक
हुआ तो भावावेश में लिपिक लिख देगा। 5. किसके कहने आदेश पर लिखी, उसकी पूर्वज-परम्परा और मान्यता का समावेश
हो सकता है।
इसमें सचेष्ट विकृति के उदाहरण पदे-पदे मिलेंगे । तात्पर्य यह है कि मूल रचना को (यदि वह किसी भी प्रकार से अस्पष्ट, दुरूह और कठिन हो तो भी) सरल
करके रखना होता है। 7. इसमें भी उपर्युक्त (6) बात हो सकती हैं । अन्तर यह है कि इसमें एक विशेष
सुरुचि, सफाई और एकान्विती तथा एकरूपता का ध्यान रखा जाता है । 8. यह मक्षिका स्थाने मक्षिका-पात का उदाहरण है । इस प्रकार की प्रति अपेक्षाकृत
अधिक विश्वसनीय होगी। 9. इसमें भी (6 व 7) स्थिति आएगी। 10. ऐसे लिपिकार भी तुलना की दृष्टि से अधिक विश्वसनीय हैं । उनका ध्येय रचना
विशेष को आगे लाना ही प्रायः पाया गया है।
महत्त्वपूर्ण बात :
इस सम्बन्ध में अन्तिम एक बात और है । जहाँ लिपिकार स्वयं कवि हो, स्वयं के
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ रचना-प्रक्रिया / 31
पास प्रभूतं रचना - सामग्री हो और सम्प्रदाय - विशेष का हो, ऐसी स्थिति में यदि वह ईमानदार है, तब तो ठीक है, अन्यथा बड़ी भारी सतर्कता बरतनी पड़ेगी । यह पता लगाना बड़ा कठिन होगा कि कौनसा अंश किस रूप में उसका स्वयं का है, और कौनसा नहीं । यह प्रश्न और भी जटिल हो जाता है, जब हम इस बात को ध्यान में रखते हैं कि मध्ययुग में पूरक - कृतित्व की भी सुदीर्घ परम्परा रही है । इससे भी अधिक क्षेपकों की । तब प्रश्न यह है
( 1 ) क्या सम्बन्धित समस्या पूरक-कृतित्त्व या क्षेपक के स्वरूप से उपस्थित हुई है ?
(2) क्या वह ऐसे लिपिकार की स्वयं की रचना है ?
(3) क्या यत्र-तत्र से कुनबा जोड़ने का प्रयास ?
यदि प्रति एक ही मिली है तो और भी जटिलता बढ़ती है, क्योंकि तब पाठालोचन की दृष्टि से आँकने का साधन नहीं रहता ।
डा० माहेश्वरी के इस विवेचन से लिपिकार के एक ऐसे पक्ष पर प्रकाश पड़ता है, जिसे हमें पाठालोचन में भी ध्यान में रखना होगा ।
लेखन
डेविस डिरिजर ने लिखा है कि "प्राचीन मिस्र वासियों ने लेखन का जन्मदाता या तो थोथ (Thoth) को माना है, जिसने प्रायः सभी सांस्कृतिक तत्त्वों का श्राविष्कार किया था, या यह श्रय प्राइसिस को दिया है, बेबीलोनवासी माईक पुत्र नेवो (Nebo) नामक देवता को लेखन का आविष्यकारक मानते हैं । यह देवता मनुष्य के भाग्य का देवता भी है । एक प्राचीन यहूदी परम्परा में मूसा को लिपि (Script) का निर्माता माना गया है। यूनानी पुराणगाथा (मिस्र) में या तो हर्मीज नामक देवता को लेखन का श्रेय दिया गया है, या किसी अन्य देवता को । प्राचीन चीनी, भारतीय तथा अन्य कई जातियाँ भी लेखन का मूल देवी ही मानते हैं । लेखन का अतिशय महत्त्व ज्ञानार्जन के लिए सदा ही मान्य रहा है, उधर लेखन का प्रपढ़ लोगों पर जादुई शक्ति के जैसा प्रभाव पड़ता है ।" "
यह बताया जा चुका है कि लेखन का आरम्भ आदिम आनुष्ठानिक आचरण और टोने के परिवेश में हुआ । यही कारण है कि सभी भाषाएँ और उनकी लिपियाँ देवी - उत्पत्ति वाली मानी गई हैं और उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ और ग्रन्थ भी दैवी कृति हैं । भारत के वेद अपौरुषेय हैं ही । प्राचीन मिस्र वासियों ने अपनी प्राचीन भाषा को 'देवताओं की वाणी' या 'मन्त्र' नाम दिया था । मद्वन्त्र ( Maw-ntr) संस्कृत मन्त्र का ही रूपान्तरण प्रतीत होता है । इस दृष्टि से यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि आज भी या आज से कुछ पूर्व भी लेखन कार्य को धार्मिक महत्त्व दिया गया और लेखक को सब प्रकार की शुचिता से युक्त होकर ही लेखन में प्रवृत्त होने की परम्परा बनी । लेखनमात्र को इतना पवित्र माना गया कि लिप्यासन --- कागज, पत्र आदि भी पवित्र मान लिये गए । भारत में कैसा ही कागज क्यों न हो अब से 20-25 वर्ष पूर्व अत्यन्त पावन माना जाता था । कागज का टुकड़ा भी यदि पैर से छू जाता था तो उसे धार्मिक अवमानना मान 1. Diringer, David-The Alphabet, p. 17.
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32/पाण्डुलिपि-विज्ञान
कर सिर से लगाते थे और मन से क्षमा-याचना करते थे। जैनियों में 'पाशातना' की भावना लेखन की इसी शुचिता के सिद्धान्त पर खड़ी हुई है । पुस्तक पर थूक आदि अपवित्र वस्तु न लगे, पैर की ठोकर न लगे, इन बातों का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक माना गया । यह विधान भौतिक दृष्टि से तो पुस्तक की रक्षा के लिए ही था, जिसे धार्मिक परिवेश में रखा गया । वस्तुतः समस्त 'लेखन' व्यापार के साथ मूल प्रानुष्ठानिक टोने का परिवेश-भाव भी जुड़ा हुआ है तभी उसके प्रति धार्मिक पावनता का व्यवहार विद्यमान है और धर्म में उसे स्थान मिल सका है।
सम्भवतः इसीलिए बहुत से हस्तलिखित ग्रन्थों के अन्त में निम्नलिखित संस्कृत श्लोकों में से एक लिखा हुआ मिलता है :
'जलाद् रक्षेत स्थलाद् रक्षेत्, रक्षेत् शिथिल बन्धनात्, मूर्ख हस्ते न दातव्या, एवं बदति पुस्तिका ।" "अग्ने रक्षेत् जलाद् रक्षेत्, मूषकेभ्यो विशेषतः । कष्टेन लिखितं शास्त्र, यत्नेन परिपालयेत्" "उदकानिल चौरेभ्यो, मूषकेभ्यो हुताशनात्
कष्टेन लिखितं शास्त्र, यत्नेन परिपालयेत" इन श्लोकों में हस्तलेखों को नष्ट करने वाली वस्तुओं के प्रति सावधान रहने का संकेत है।
जल से ग्रन्थ की रक्षा करनी चाहिये। जल कागज-पत्र को गला देता है, स्याही को फैला देता है या धो देता है और ग्रन्थ को धब्बेदार बना देता है, जल से धातु पर मोर्चा लग जाता है । स्थल से भी रक्षा करनी होती है । कागज पत्र परधूल पड़ जाती है तो वह जीर्ण होने लगता है, तडकने लगता है। स्थल में से दीमक प्रादिनिकल कर ग्रन्थ को चट कर जाते हैं, धूल और लू दोनों ही ग्रन्थ को हानि पहुंचाते हैं । अग्नि से ग्रन्थ की रक्षा की जानी चाहिये, इसमें दो मत नहीं हो सकते । चूहों से ग्रन्थ की रक्षा का विशेष प्रयत्न होना चाहिये । ग्रन्थ की रक्षा चोरों से भी करनी चाहिये । ग्रन्थों की चोरी पहले होती थी, और आज भी होती है । हस्तलिखित ग्रन्थ अाज अत्यन्त मूल्यावान सामग्री मानी जाती है, अतः हस्तलिखित ग्रन्थ की चोरी आज उससे बड़ी धन-राशि पाने की आशा से की जाती है । इन हस्तलेखों का बाजार आज विदेशों में भी बन गया है, अतः चोरी का भय विशेष बढ़ गया है।
श्लोक में इस बात की ओर ध्यान दिलाया गया है कि शास्त्र ग्रन्थ कष्टपूर्वक लिखा जाता है, अतः यत्नपूर्वक इन की रक्षा की जानी चाहिये । अन्य परम्पराएँ
भारतीय हस्तलिखित ग्रन्थों में लेखकों द्वारा कुछ परम्पराओं का अनुसरण किया हैजो इस प्रकार हैं : सामान्य 1. लेखन-दिशा,
2. पंक्ति बद्धता, लिपि की माप, 3. मिलित शब्दावली,
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया 33
4. विराम चिह्न 5. पृष्ठ संख्या, 6. संशोधन, 7. छूटे अंश, 8. संकेताक्षर, 9. अंक-मुहर (Seal) ये पांडुलिपियों में नहीं लगाई जाती थी, प्रामाणिक
बनाने के लिए दानपत्रों आदि और वैसे ही शिला
लेखों में लगाई जाती थीं। 10. लखन द्वारा अंक प्रयोग (शब्द में भी) विशेष
विशिष्ट परम्पराओं का सम्बन्ध लेखकां में प्रचलित धारणाओं या मान्यतामों से विदित होता है । ये निम्न प्रकार की मानी जा सकती हैं :
1. मंगल-प्रतीक या मंगलाचरण 2. अलंकरण (Illumination) 3. नमोकार (Invocation) 4. स्वस्तिमुख (Intiiation) 5. आशीर्वचन (Benediction) 6. प्रशस्ति (Laudation) 7. पुष्पिका, उपसंहार (Colophone, Conclusion) 8. वर्जना (Imprecation) 9. लिपिकार प्रतिज्ञा
10. लेखनसमाप्ति शुभ शुभाशुभ ___कुछ बातें लेखन में शुभ कुछ अशुभ मानी गई हैं, ये भी परम्परा से प्राप्त हुई हैं :
यथा
1. शुभाशुभ प्राकार 2. शुभाशुभ लेखनी
3. लेखन का गुण-दोष ___4. लेखन-विराम में शुभाशुभ इनमें से प्रत्येक पर कुछ विचार आवश्यक हैसामान्य परम्पराएँ—ये वे हैं जो लेखन के सामान्य गुणों से सम्बन्धित हैं । यथा :
(1) लेखन-दिशा-लेखन की दिशाएँ कई हो सकती हैं। 1-ऊपर से नीचे की ओर, 2-दाहिनी से बाईं ओर, 3-बायीं से दाहिनी ओर, 4-बायीं से दाहिनी अोर पून
1. चीनी लिपि । 2. खरोष्ठी लिपि, फारसी लिपि । 3. नागरी (ब्राह्मी)।
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34 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
दाहिनी से बांयी ओर 12 5-नीचे से ऊपर की ओर । भारतीय लिपियों में ब्राह्मी और उससे जनित लिपियाँ बांयी ओर से दाहिनी ओर लिखी जाती हैं, हिन्दी भी इसी परम्परा में देवनागरी या नागरी रूप में बांयें से दांयें लिखी जाती है । खरोष्ठी दांयें से बांयें लिखी जाती है, जैसे कि फारसी लिपि, जिसमें उर्दू लिखी जाती है ।
साथ ही लेखन में वाक्य पंक्तियाँ ऊपर से नीचे की ओर चलती हैं। यही बात ब्राह्मी, नागरी आदि लिपियों पर लागू होती है, खरोष्ठी, फारसी आदि पर भी । पर स्वात के एक लेख में खरोष्ठी नीचे से ऊपर की ओर लिखी गई मिलती है ।
(2) पंक्तिबद्धता --- लिपि के अक्षरों की माप : पहले भारतीय लिपियों में अक्षरों पर शिरो - रेखाएँ नहीं होती थीं। फिर भी, वे लेख पंक्ति में बाँध कर अवश्य लिखे जाते थे । यह बात मौर्यकालीन शिलालेखों से भी प्रकट होती है । सभी अक्षर बाएँ से दाएँ सीधी पड़ी रेखाओं में लिखे गये हैं, मात्राएँ मूलाक्षरों से ऊपर लगाई गई हैं । कुछ व्यतिक्रम अवश्य हैं, पर वे प्रवृत्ति को तो स्पष्ट करते ही हैं। आगे तो रेखाओं के चिह्न बनाकर
अन्य विधि से सीधी पंक्ति में लिखने के सुन्दर प्रयास मिलते हैं । रेखापाटी या कंबिका ( रूल या पटरी) का उपयोग इसी निमित्त ग्रन्थों में किया जाता था । लिपि के अक्षरों की माप भी एक लेख में बँधी हुई मिलती है, क्योंकि प्रायः प्रत्येक अक्षर लम्बाई-चौड़ाई में समान मिलता है ।
जिस प्रकार शब्द-प्रतिशब्द - बद्ध लेखन करते अलग बीच में कुछ अवकाश दे कर लिखा
(3) मिलित शब्दावली - आज हम हैं, जिसमें एक शब्द अपने शब्द रूप में दूसरे जाता है, उस प्रकार प्राचीन काल में नहीं होता था, सभी शब्द एक दूसरे से मिला कर लिखे जाते थे । हम जानते हैं कि यूनानी प्राचीन पांडुलिपियों में भी मिलित शब्दावली का उपयोग हुआ है ।" यहीं हमें विदित होता है कि 11वीं शताब्दी के आसपास ही अमिलित अलग-अलग सही शब्दों में लिखने की प्रणाली यथार्थतः प्रचलित हुई ।
भारत में शिलालेखों और ग्रन्थों में ही यह मिलित शब्दावली मिलती है । इसे भी हम परम्परा का ही परिणाम मान सकते हैं। डॉ० राजबली पांडेय ने बताया है कि भारत में पृथक-पृथक शब्दों में लेखन की ओर ध्यान इसलिए नहीं गया क्योंकि यहाँ भाषा का व्याकरण ऐसा पूर्ण था कि शब्दों को पहचानने और उनके वाक्यान्तर्गत सम्बन्धों में भ्रम नहीं रह सकता था । किन्तु क्या 11वीं शताब्दी तथा यूनानी ग्रन्थों में मिलित शब्दावली का भी यही कारण हो सकता है ? हिन्दी के प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलित शब्दावली की परम्परा मिलती है ।
(4) विराम चिह्न • मिलित शब्दावली की परम्परा में विराम चिह्नों (Punctuation) पर भी ध्यान नहीं जाता । प्राचीन कोर्डेक्स ग्रन्थों की यूनानी पांडुलिपियां में सातवीं-आठवीं शताब्दी ई० में विराम चिह्नों का उपयोग होने लगा था । भारत में पाँचवीं शताब्दी ई० पू० से ईसवी सन् तक केवल एक विराम चिह्न उद्भावित हुआ था । दंड, एक थाड़ी लकीर । इसे कभी-कभी कुछ वक्र [7] करके भी लिख दिया
1.
भारत में कहीं-कहीं ही ब्राह्मी लेखों में प्रयोगात्मक |
2. The text of Greek MSS was, with occasional exce ptions, written continuously without seperation of words, even when the words were written seperately, the dimentions were often incorrectly made..........”
- The Encyclopaedia Americana (Vol 21), P. 166
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/35
जाता था । मंदसौर प्रशस्ति, (473-74 ई०) में विराम चिह्न का नियमित उपयोग हुआ। इसमें पद्य की अर्द्धाली के बाद एक दंड (1) और चरण समाप्ति पर दो दंड (|) रखे गये हैं । आगे इनका प्रयोग और संख्या भी बढ़ी । भारत में मिलने वाले विराम चिह्न
ये हैं।
1,I.T(यह उतर में नहीं मिलता). 21.74 .111 17.M.-, या ) या .. .......)
इन चिह्नों के साथ अंक तथा मंगल चिह्न भी विराम चिह्न की भाँति प्रयोग में लाये जाते रहे हैं।
(5) पृष्ठ संख्या-हस्तलिखित ग्रन्थ में यह परम्परा प्राप्त होती है कि पृष्ठ के अंक या संख्या नहीं दी जाती, केवल पन्ने के अंक दिये जाते हैं । ताम्र पत्रों पर भी ऐसे ही अंक दिये जाते थे। यह संख्या पन्ने (पत्र) की पीठ वाले पृष्ठ पर डाली जाती थी, इसलिए उसे सांक पृष्ठ कहा जाता था, यों कुछ ऐसी पुस्तकें भी हैं जिनमें पन्ने के पहले पृष्ठ पर ही अंक डाल दिये गए हैं।
किन्तु प्रश्न यह है कि यह पृष्ठ संख्या किस रूप में डाली जाती थी ? इस सम्बन्ध में मुनिजी ने बताया है कि "ताड़पत्रीय जैन पुस्तकों में दाहिनी ओर ऊपर हाशिये में अक्षरात्मक अंक और बांयी ओर अंकात्मक अंक दिये जाते थे। जैन छेद आगमां और उनकी चूणियों में पाठ, प्रायश्चित, भंग, आदि का निर्देश अक्षरात्मक अंकों में करने की परिपाटी थी। 'जिन कला सूत्र' के प्राचार्य श्री जिन भद्रिमरिण क्षमा श्रमण कृत भाष्य में मूलसूत्र का गाथांक अक्षरात्मक अंकों में दिया गया है।"
मुनि पुण्य विजय जी ने अक्षरांकों के लिए जो सूची दी है वह पृष्ठ 36 पर है। पृष्ठ 37 पर अोझाजी की सूची है।
इन अंकों को दान-पत्रों और शिलालेखों में और पांडुलिपियों में किस प्रकार लिखा जाता था, यह अोझा जी ने बताया है, जो यों है : "प्राचीन शिला-लेखों और दान-पत्रों में सब अंक एक पंक्ति में लिखे जाते थे परन्तु हस्तलिखित पुस्तकों के पत्रांकों में चीनी अक्षरों की नाई एक दूसरे के नीचे लिखे मिलते हैं । ई० सं० की छठी शताब्दी के आसपास मि० बाबर के प्राप्त किये हुए ग्रन्थों में भी पत्रांक इसी तरह एक-दूसरे के नीचे लिखे मिलते हैं । पिछली पुस्तकों में एक ही पन्ने पर प्राचीन और नवीन दोनों शैलियों से भी अंक लिखे मिलते हैं । पन्ने के दूसरी तरफ के दाहिनी ओर के ऊपर की तरफ के हाशिये पर तो अक्षर संकेत से, जिसको अक्षर-पल्ली कहते थे, और दाहिनी तरफ के नीचे के हाशिये पर नवीन शैली के अंकों से, जिनको अंक-पल्ली कहते थे।"
1. ई.पू. दूसरी शबब्दा से ई० सातवीं तक यह '' चिन्ह, (दण्ड) के स्थान पर प्रयुक्त होता रहा है । 2. ईसवी सन् की प्रथम से आठवीं शताब्दी तक दो दण्डों के स्थान पर । 3. कुषाण काल में और बाद में 6 के स्थान पर । 4. मुनि श्री पुण्य विजयजी-भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 62 ।
वही पृष्ठ 63। भारतीय प्राचीन लिपि माला. पृ. 108 ।
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36 पाण्डुलिपि-विज्ञान
222
१=१. , घ.म.श्री, श्री २-२,न, नि, सि,श्री.शी ३-३, म.,श्री,श्री,श्री ४ ,क, का,:.र्म,क,का,अ.का. ५-हह,
न र्तृस,न,ना,ता..ना,नी ६-फर्फ,फा,ढ, फ्र. ],फ्रा.आ.फु.कँ,फु, , यर -७ ग्री .ग्रा. 65,,का,, ए .ई.३०
दक अंक . १-लर्नु
घ,धा ३.मला ४प्तर्म,पा,प्त ५.८,९,८६, ६छु, ७.क. .घ. ८.७.६७ (७:४.8.30 0.0
शतक अंक १-सु.K २सू,स्त,स्त्र ३सा,सा,ला ४स्त्रास्त्रासा ५ो,मोसो ६-सं,नं , सं ७% स्त्रः सः.सू:
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचमा-प्रक्रिया/37
महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचन्द अोझा जी की सूची भी 'भारतीय प्राचीन लिपि माला' से यहां दी जाती है-1
१.ए.ख और ऊ २.द्वि.स्ति और न ३.नि.श्री और मः ४.कृ.५ ई ङ्का,राक,रार्क.क.क.क.(प्के).के.के.और पु ५.तु.र्तृ,,.ह और नृ ६-फ्र,फं,F,घ्र,भ, पुं,व्या और फ्ल ७- ग्र, ग्रा, गा, गर्भा,गर्गा , और भ्र ८-डू.ई हो, और दू ६ओ,उँ,ऊ, उं, जै.अ और . १०.ल.क,राट.अ.अ और सौ 20 थ,था.र्थ,र्था,घ,ई,प्त और ष 30-ललाल और र्ला ४०-प्तप्त,प्ता,प्ता और प्र ५0-6,5,6,E, और ण ६०- ,बु,घु,थुथु..र्थ, धु, ए और घु ७0 चु.च.धूं और त co-९७,५,७,२७ और पु ६008,६३४४और १०० सु.स.लु और अं 200 सुसू.से.आ.लू और यूं ३००-स्ता,साझा,सा,सु,सु और सू ४००- सा,स्तो,और स्ता
1. भारतीय प्राचीन लिपि माला, पृ. 107 ।
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38/पाण्डुलिपि-विज्ञान
नेपाल, गुजरात, राजपूताना आदि में यह अक्षर-क्रम ई० स० की 16वीं शताब्दी तक कहींकहीं मिल जाता है। जैसे कि,
३३- ला, १00 ४.१०२- पृ.१३९- १. १५०-४.२०E
आदि ।
(6) संशोधन :-संशोधन का एक पक्ष तो उन प्रमादों से सावधान करता है. जो लिपिकार से हो जाते हैं, और जिसके कारण पाठ भेद की समस्या खड़ी हो जाती है। यह पाठालोचन के क्षेत्र की बात है और वहीं इसकी विस्तृत चर्चा की गयी है।
दूसरा पक्ष है हस्तलिखित ग्रन्थों में लेखन की त्रुटि का संशोधन जो स्वयं लिपिकार ने किया है । मुनि पुण्य विजय जी ने ऐसी 16 प्रकार की त्रुटियाँ बतायी हैं, और इन्हें ठीक करने या इनका संशोधन करने के लिए लिपिकारों द्वारा एक चिह्न-प्रणाली अपनायी जाती है, उसका विवरण भी उन्होंने दिया है।
ऐसी त्रुटियों के सोलह प्रकार और उनके चिह्न नीचे दिये जाते हैं : त्रुटिनाम चिह्ननाम
चिह्न
-
-
-
-
x
1. पतित पाठ (कहीं पतित पाठ दर्शक चिह्न
____A.V.x.x.x किसी अक्षर या शब्द को 'हंस पग' या 'मोर का छूट जाना पग' कहा गया है। हिन्दी 'पतित पाठ' है) में 'काक पद' कहते हैं । 2. पतित पाठ विभाग पतित पाठ विभाग दर्शक
चिह्न 3. 'काना' [मात्रा की काना दर्शक चिह्न भूल]
'रेफ के समान होने से भ्रान्ति के कारण यह भी पाठ-भ्रान्ति में
सहायक होता ही है। 4. अन्याक्षरः [किन्हीं अन्याक्षर वाचन दर्शक
W प्रायः समान-सी चिह्न
जिस अक्षर पर यह चिह्न लगा ध्वनि वाले अक्षरों
होगा, उसका शुद्ध अक्षर उस में से अनुपयुक्त
स्थान पर मानना होगा । यथाः अक्षर लिख दिया
W गया ।
सत्रु । जहाँ स पर यह चिह्न है
W
अतः इसे 'श' पढ़ना होगा, खत्रिय
पढ़ा जायगा 'क्षत्रिय' । पाठपरावृत्ति दर्शक चिह्न 2, 1
लिखना था 'बनचर' लिख गये
5. उलटी-सुलटी
लिखाई
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/39
___ 1
2
3
'वचनर' तो इसे ठीक करने के
लिये व च र लिखा जायगा।
चन का अर्थ होगा कि 'न' पहले 'च' दुजे पढ़ा जायगा। अधिक उलट सुलट हो तो कम से 3,4 और अन्य अंकों का प्रयोग भी
हो सकता है। 6. स्वर-संधि की भूल स्वर संध्यंशदर्शक चिह्न
अ%5, आ 7 . ss, इ-ce६६ ई-ई.. , 3-65. अ.कर ए:ए. ऐए ओ-3, औ अम
अं7. पाठ भेद* पाठ भेद दर्शक चिह्न प्र० पा०, प्रत्यं० पाठां०, प्रत्यन्तरें
पाठांतर 8. पाठ भेद पाठानुसंधान दर्शक चिह्न
3.... 33.पंन
जं. नी. पं.नी 9. मिलित पदों में पदच्छेद दर्शक चिह्न या भ्रान्ति
वाक्यार्थ समाप्ति दर्शक चिह्न या पाद विभाग दर्शक चिह्न
यह मिलित पदों के ऊपर लगाया
जाता है। 10. विभाग-भ्रान्ति* विभाग दर्शक चिह्न 11. पदच्छेद भ्रांति* एकपद दर्शक चिह्न
ऐसे दो चिह्नों के बीच में प्रस्तुत पद में पदच्छेद-निषेध सूचित होता है। 11, 12, 13, 23, 32, 41, 53, 62, 73, 82
12. विभक्ति वचन*
भ्रांति
विभक्ति बचन दर्शक चिह्न
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40/पाण्डुलिपि-विज्ञान
2
ये चिह्न विभक्ति और ये जोड़े से अंक पाते हैं, जिनमें से वचन में भ्रांति न हो पहला अंक विभक्ति-द्योतक (1 = इसलिए लगाये जाते हैं। प्रथमा 6 षष्ठी आदि) तथा
दूसरा वचन-द्योतक होता है । (1 = एक वचन, 2 = द्विवचन, 3 = बहुवचन) जैसे 11 का अर्थ
है प्रथमा एक वचन ।। 13. पदों के अन्वय में अन्वयदर्शक चिह्न शिरोभाग पर अन्वय क्रम
भ्रांति
द्योतक अंक-यथा न ततोऽर्थान्तरं 42 स्व संवेदनं प्रत्यक्षम् यहाँ 1 संख्या वाला पद पहले, 2 का उसके बाद, 3 उसके बाद तथा उसके बाद 4 अंक वाला इस क्रम में अन्वय होता है । ठीक अन्वय हुमा : ततोऽर्थान्तरं प्रत्यक्ष न स्वसंवेदनम् ।
14. विशेषण-भ्रम विशेषण विशेष्य सम्बन्ध विशेष्य-भ्रम* दर्शक चिह्न
कभी-कभी वाक्यों में, प्रायः लम्बे वाक्यों में विशेषण कहीं और विशेष्य कहीं पड़ जाता है तब शिरोपरि लगाये गये उक्त चिह्नों से विशेषण-विशेष्य बताये जाते हैं,
इससे भ्रान्ति नहीं हो पाती । कुछ अन्य सुविधाओं के लिए कुछ अन्य चिह्न भी मिलते हैं जिनसे 'टिप्पणी' का पता चलता है, अथवा किसी शब्द का किसी दूसरे पद से विशिष्ट सम्बन्ध विदित हो जाता है ।
ऊपर के विचरण से यह भी स्पष्ट होगा कि ये चिह्न दो अभिप्राय सिद्ध करते हैं : एक तो इनसे लिपिकार की त्रुटियों का संशोधन हो जाता है, तथा दूसरे, पाठक को पाठ ग्रहण करने में सुविधा हो जाती है। हमने जिन पर पुष्प (*) लगाए हैं, वे त्रुटि मार्जन के लिए नहीं, पाठक की सुविधा के लिए हैं। (7) छूटे अंश की पूर्ति के चिह्न
भूल से कभी कोई शब्द, शब्दांश, या वाक्यांश लिखने से छूट जाते हैं तो उसकी पूर्ति के कई उपाय शिलालेखों या पांडुलिपियों में किये गये मिलते हैं ।
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ रचना-प्रक्रिया / 41
पहले जैसा अशोक के शिलालेखों में मिलता है, जहाँ छूट हुई वहाँ उस वाक्य के ऊपर या नीचे छूटा हुआ अंश लिख दिया जाता था । कोई चिह्न विशेष नहीं रहता था । फिर ऊपर संशोधक चिह्नों में 'पतित पाठ दर्शक चिह्न' बताया गया है । इसे हंसपग, मोर पग या का पद कहते हैं । इसे छूट के स्थान पर लगा कर छूटा पद पंक्ति के ऊपर या हाशिये में लिख दिया जाता है । पतित पाठ का अर्थ ही छूटा हुआ पद है । का पद VAX L ये भी हैं और x + ये भी हैं ।
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किन्तु कभी-कभी इस कट्टम (X + ) के स्थान पर स्वस्तिक 5 का प्रयोग भी मिलता है । यह भी छूट का द्योतक है और काक पद का ही काम करता है । कुछ अन्य चिह्न
5 स्वस्तिक का उपयोग कहीं-कहीं एक और बात के लिए भी होता आया है : जहाँ कहीं प्रतिलिपिकार को अर्थ अस्पष्ट रहता है, वह समझ नहीं पाता है तो वह वहाँ यह स्वस्तिक लगा देता है या फिर 'कुंडल' (O) लगा देता है। कुंडल से वह उस अंश को घेर देता है, जो उसे अस्पष्ट लगा या समझ में नहीं आया ।
(४) सकेताक्षर या 'संक्षिप्ति चिह्न" (Abbreviations)
भारत में शिलालेखों तथा पांडुलिपियों में संक्षिप्तीकरण पूर्वक संकेताक्षरों की परिपाटी आन्ध्रों घोर कुषाणों के समय से विशेष परिलक्षित होती है । विद्वानों ने ऐसे संकेताक्षरों की सूची अपने ग्रन्थों में दी है । वह यों है :
1. सम्वत्सर के लिए सम्व, संव, सं या स०
2.
ग्रीष्म 2 - ग्री० (०) गं० गि० या गिगहन
3.
हेमन्त हे०
4.
दिवस-दि०
5.
6.
7.
8.
9.
10.
11.
12.
13.
14.
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पाद--पा०
शुक्ल पक्ष दिन-सु० सुदि० या सुति० । शुक्ल पक्ष को शुद्ध भी कहा जाता है ।
बहुल पक्ष दिन- ब०, ब०दि०, या बति०
द्वितीय- द्वि०
सिद्धम् - प्र० श्री० सि०
राउत - रा०
दूतक - दू० (संदेश वाहक या प्रतिनिधि)
गाथा - गा०
श्लोक - श्लो०
ठक्कुर-ठ०
1. यह पर्याय प्रो. वासुदेव उपाध्याय द्वारा दिया गया है, प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० 206 :
..
उपाध्याय जी ने गृष्म रूप दिया है । वही, पृ० 260
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42/पाण्डुलिपि-विज्ञान
15.
एद० ।। या एर्द० ।--‘योंकार' का चिह्न कुछ लोगों का विचार रहा है कि यह चिह्न सं० 980 है । जैन-शास्त्र-लेखन इसी संवत् से प्रारम्भ हुआ पर मुनि पुण्यविजय जी इसे 'प्रो०' का चिह्न मानते हैं ।
क ॥
ये चिह्न कभी-कभी ग्रन्थ की समाप्ति पर लगे मिलते हैं।
ये 'पूर्ण कुम्भ' के द्योतक चिह्न हैं । जो ‘मंगल वस्तु है । -६०,3-के०,४.
किन्हीं-किन्हीं पुस्तकों के अन्त में ये चिह्न मिलते हैं । मुनि पुण्यविजयजी का विचार है कि पांडुलिपियों में अध्ययन, उद्देश्य, श्रुतस्कंध, सर्ग, उच्छवास, परिच्छेद, लंभक, कांड आदि की समाप्ति को एकदम ध्यान में बैठाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की
चित्राकृतियाँ बनाने की परिपाटी थी, ये चिह्न भी उसी निमित्त लिखे गये हैं। ((10) लेखक द्वारा अंक लेखन
___ ऊपर हम अक्षरों से अंक लेखन की बात बता चुके हैं, पर ग्रन्थों में तो शब्दों से अंक द्योतन की परिपाटी बहुत लोकप्रिय विदित होती है । पांडुलिपियों की पुष्पिकानों में जहाँ रचना काल आदि दिया गया है वहाँ कितने ही रचयिताओं ने शब्दों से अंक का काम लिया है ।
संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी तथा अन्य देशी भाषाओं के ग्रन्थों में शब्दों से अंक सूचित करने की परिपुष्ट प्रणाली मिलती है । भा० जैन श्रम० सं० तथा भा० प्रा० लि. मा० में 'अंकों' के लिए उपयोग में आने वाले शब्दों की सूची दी गई है । अोझा जी का यह प्रयत्न प्राचीनतम है, भा० जैन श्र० सं० बाद की कृति है । दोनों के आधार पर यह सूची यहाँ प्रस्तुत की जाती है । यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि पहले इकाई की संख्या वाचक फिर दहाई एवं सैकड़े व हजार की संख्या के बोधक शब्दों का प्रयोग होता है जैसेकि पाद टिप्पणी का भाग (अ) संवत् 1623 को बता रहा है ।
1. कुछ ग्रन्थों में से उदाहरण इस प्रकार हैं :
3 2 61 (अ) गुणनयनरसेन्दु मिते वर्षे भाव प्रकरणवि चूरि :
78 4 1 (ब) मुनि वसु सागर सितकर मित वर्षे सम्यक्त्व कौमुदी।
1 181 (स) संवत मसिकृतवसु ससी आस्वनि मिति तिथि नाग,
दिन मंगल मंगल करन हरत सकल दुख दाग ।
4 181 (द) वेद इन्दु गज भू गनित संवत्सर कविचार,
श्रावन शुक्ल त्रयोदशी रच्यो ग्रन्थ सुविचारि ।
6 7 7 1 (य) रस सागर रवितरंग विध संवत मधुर वसंत,
विकस्यो 'रसिक रसाल' लखि हुलसत सुहृद व सन्त' ।
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/43
0- शून्य, ख, गगन, आकाश, अम्बर, अभ्र, वियत्, व्योम, अन्तरिक्ष, नभ, पूर्ण,
रन्ध्र प्रादि । + बिन्दु, छिद्र । आदि, शशि, इन्दु, विघ, चन्द्र, शीतांशु, शीतरश्मि, सोम, शशांक, सुधांशु, अब्ज, भू, भूमि, क्षिति, धरा, उर्वरा, गो, वसुधरा, पृथ्वी, क्षमा, धरणी, वसुधा, इला, कु, मही, रूप, पितामह, नायक, तनु, आदि । + कलि, सितरुच, निशेश, निशाकर, औषधीश, क्षपाकर, दाक्षायणी-प्राणेश, जैवातृक । यम, यमल, अश्विन, नासत्य, दस्र, लोचन, नेत्र, अक्षि, दृष्टि, चक्षु, नयन, ईक्षण, पक्ष, बाहु, कर, कर्ण, कुच, ओष्ठ, गुल्फ, जानु जंघा, द्वय, द्वन्द्व, युगल, युग्म, अयन,
कुटुम्ब, रविचन्द्रौ, ग्रादि । + श्रुति, श्रोत्र । 3- राम, गुण, त्रिगुण, लोक, त्रिजगत् भुवन, काल, त्रिकाल, त्रिगत, त्रिनेत्र, सहोदरा,
अग्नि, वह्नि, पावक, वैश्वानर, दहन, तपन, हुताशन, ज्वलन, शिखिन, कृशानु, होतृ आदि । + त्रिपदी, अनल, तत्व, त्रैत, शक्ति, पुष्कर, संध्या, ब्रह्म, वर्ण,
म्वर, पुरुष, अर्थ, गुप्ति । 4. वेद, श्रुति, समुद्र, सागर, अब्धि, जलधि, उदधि, जलनिधि, अम्बुधि, केन्द्र, वर्ण,
आश्रम, युग, तुर्य, कृत, अय, पाय, दिश, दिशा, बन्धु, कोष्ठ, वर्ण आदि । + वाद्धि, नीरधि, नीरनिधि, वारिधि, वारिनिधि, अंबुनिधि, अंमोधि, अर्णव, ध्यान, गति, संज्ञा, कषाय । बाण, शर, सायक, इषु, भूत, पर्व, प्राण, पाण्डव, अर्थ, विषय, महाभूत, तत्त्व, इन्द्रिय, रत्न आदि । + अक्ष, वर्म, व्रत, समिति, कामगुण, शरीर, अनुत्तर,
महाव्रत, शिवमुख। 6- रम, अंग, काम, ऋतु, मासार्थ, दर्शन, राग, अरि, शास्त्र, तर्क कारक, आदि ।
+समास, लेश्या, क्षमाखंड, गुण, गुहक, गुहवक्त्र । नग, अग, भूभृत, पर्वत, शैल, अद्रि, गिरि, ऋषि, मुनि, अत्रि, वार, स्वर, धातु, अश्व, तुरंग, वाजि, द्वन्द्व, धी, कलत्र आदि । हय, भय, सागर, जलधि, लोक । वसु, अहि, नाग, गज, दंति, दिग्गज, हस्तिन्, मातंग, कुंजर, द्वीप, सर्प, तक्ष, सिद्धि, भूति, अनुष्टुभ, मंगल, आदि । + नागेन्द्र, करि, मद, प्रभावक, कर्मन, धी गुण,
बुद्धि गुण, सिद्ध गुण । 9.- अंक, नन्द, निधि, ग्रह, रन्ध्र, छिद्र, द्वार, गो, पवन आदि । + खग, हरि, नारद,
रव, तत्त्व, ब्रह्म गुप्ति, ब्रह्मवृति, ग्रैवेयक ।। 10- दिश, दिशा, आशा, अंगुलि, पंक्ति, कुकुभ, रावणशिरं, अवतार, कर्मन आदि ।
+यतिधर्म, श्रमणधर्म, प्राण । 11- रुद्र, ईश्वर, हर, ईश, भव, भर्ग, हूलिन, महादेव, अक्षौहिणी आदि । + शूलिन । 12- रवि, सूर्य, अर्क, मार्तण्ड, धुमणि, भानु, आदित्य, दिवाकर, मास, राशि, व्यय
आदि । +दिनकर, उष्णांशु, चक्रिन, भावना, भिक्षु प्रतिमा, यति प्रतिमा । 13- विश्वदेवाः, काम, अतिजगती, अघोष आदि । + विश्व, क्रिया स्थान, यक्षः । -14 मनु, विद्या, इन्द्र, शक्र, लोक आदि । + वासव, भुवन, विश्व, रत्न, गुणस्थान,
पूर्व, भूतग्राम, रज्जु ।
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18- धृति, + श्रब्रह्म, पापस्थानक ।
19- प्रतिधृति ।
20 -
44 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
15- तिथि, घर, दिन, ग्रह्न पक्ष आदि । + परमार्थिक ।
16- नृप, भूप, भूपति, अष्टि, कला, आदि । + इन्दुकला, शशिकला ।
17
प्रत्यष्टि |
21 -
22 -
नख, कृति ।
उत्कृति, प्रकृति, स्वर्ग ।
कृति, जाति, + परीषद् |
23-- विकृति ।
24 -- गायत्री, जिन, श्रर्हत्, सिद्ध ।
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दो
25- तत्त्व |
27- नक्षत्र, उडु, भ, इत्यादि ।
32
दन्त, रद + रदन ।
33
देव, अमर, त्रिदण, सुर ।
नरक ।
4048- जगती ।
49
तान, पवन ।
+ 64 स्त्री कला ।
+72 - पुरुष कला ।
यह बात यहाँ ध्यान में रखना आवश्यक है कि एक ही शब्द कई अंका के पर्याय के रूप में आया है । उदाहरणार्थ -- तत्त्व 3, 5, 9, 25 के लिए आ सकता है । उपयोग कर्ता और अर्थ कर्त्ता को उसका ठीक अर्थ अन्य सन्दर्भों से लगाना होगा ।
साहित्य में भी कविसमय या जाता है | साहित्य-शास्त्र के एक ग्रन्थ से जाती है जो 'काव्य कल्पलता वृत्ति' में दी गयी है ।
संख्या
पदार्थ
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काव्य रूढ़ि के रूप में संख्या को शब्दों द्वारा बताया यहाँ शब्द और संख्या विषयक तालिका उद्धृत की
अगुष्ठ,
एक- आदित्य, मेरु, चन्द्र, प्रासाद, दीपदण्ड, कलश, खंग, हर नेत्र, शेष, स्वर्दण्ड, हस्तिकर, नासा, वंश, विनायक -दन्त, पताका, मन, शक्राश्व, अद्वैतवाद ।
भुज, दृष्टि, कर्ण, पाद, स्तन, संध्या, राम-लक्ष्मण, श्रृंग, गजदन्त, प्रीति रति, गंगा-गौरी, विनायक -स्कन्द, पक्ष, नदीतट, रथधुरी, खंग-धारा, भरत शत्रुघ्न, रामसुत, रवि चन्द्र ।
तीन- भुवन, वलि, वह्नि, विद्या, संध्या, गज-जाति, शम्भुनेत्र, त्रिशिरा, मौलि, दशा, क्षेत्रपाल - फरण, काल, मुनि, दण्ड, त्रिफला, त्रिशूल, पुरुष, पलाश - दल, कालिदासकाव्य, वेद, अवस्था, कम्बुग्रीवारेखा, त्रिकूट-कूट, त्रिपुर, त्रियामा, यामा, यज्ञोपवीत सूत्र, प्रदक्षिणा, गुप्ति, शल्य, मुद्रा, प्ररणाम, शिव, भवमार्ग, शुमेतर ।
चार- ब्रह्मा के मुख, वेद, वर्ग, हरिभुज, सूर-गज-रद, चतुरिका स्तम्भ, सघ, समुद्र, प्राश्रम, गो-स्तन, श्राश्रम कषाय, दिशाएँ, गज जाति, याम, सेना के अंग, दण्ड, हस्त,
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EROS
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया / 45
दशरथ-पुत्र, उपाध्याय, ध्यान, कथा, अभिनय, रीति, गोचरगा, माल्य, संज्ञा, असुर,
भेद, योजनक्रोश, लोकपाल । पांच- स्वर, बाण, पाण्डव, इन्द्रिय, करांगुलि, शम्भुमुख, महायज्ञ, विषय, व्याकरणांग,
व्रत-वह्नि, पार्श्व, फरिण-फण, परमेष्ठि, महाकाव्य, स्थानक, तनु-वात, मृगशिर,
पंचकुल, महाभूत, प्रणाम, पंचोत्तर, विमान, महाव्रत, मरुत्, शस्त्र, श्रम, तारा । छ:- रस, राग, ब्रज-कोण, त्रिशिरा के नेत्र, गुण, तर्क, दर्शन, गुहमुख । मात- विवाह, पाताल, शक्रवाह-मुख, दुर्गति, समुद्र, भय, सप्तपर्ण-पर्ण । पाठ- दिशा, देश, कुम्भिपाल, कुल, पर्वत, शम्भू-मूर्ति, वसु, योगांग, व्याकरण, ब्रह्म, श्रुति
अहिकुल । नौ. सुधा-कुण्ड, जैन पद्म, रस, व्याघ्री-स्तन, गुप्ति, अधिग्रह। दश- रावण-मुख, अंगुली, यति-धर्म, शम्भु, कर्ण, दिशाएँ, अंगद्वार, अवस्था-दश । ग्यारह- रुद्र, अस्त्र, नेत्र, जिनमतोक्त अंग, उपांग, ध्रुव, जिनोपासक, प्रतिमा । वारह- गुह के नेत्र, राशियाँ, माम, संक्रान्तियाँ, आदित्य, चक्र, राजा, चक्रि, सभासद् । तेरह--- प्रथम जिन, विश्वेदेव । चौदह- विद्या-स्थान, स्वर, भुवन, रत्न, पुरुष, स्वप्न, जीवाजीवोपकरण, गुण, मार्ग, रज्जु,
सूत्र, कुल, कर, पिण्ड, प्रकृति, स्रोतस्विनी । पन्द्रह- परम धार्मिक तिथियाँ, चन्द्रकलाएँ । सोलह- शशिकला, विद्या देवियाँ । सत्रह- संयम अट्ठारह-विद्याएँ, पुराण, द्वीप, स्मृतियाँ । उन्नीस-ज्ञाताध्ययन बीस- करशाखा, सकल-जन-नख और अंगुलियाँ, रावण के नेत्र और भुजाएँ। शत- कमल दल, रावणाँगुलि, शतमुख, जलधि-योजन, शतपत्र-पत्र, आदिम जिन-सुत,
वृतराष्ट्र के पुत्र, जयमाला, मरिण हार, स्रज, कीचक । सहस्र- अहिपति मुख, गंगामुख, पंकज-दल, रविकर, इन्द्रनेत्र, विश्वामित्राश्रम वर्ष,
अर्जुन-भुज, सामवेद की शाखाएँ, पुण्य-नर-दृष्टि-चन्द्र ।1। यहाँ तक हमने सामान्य परम्पराओं का उल्लेख दिया है।
विशेष में ऐसी परम्पराएँ आती हैं, जिनके साथ विशिष्ट भाव और धारणाएँ संयुक्त रहती हैं, इनमें कुछ प्रानुष्ठानिक भाव, टोना या धार्मिक सन्दर्भ रहता है। साथ ही ग्रन्थेतर कोई अन्य अभिप्राय भी संलग्न रहता है । इस अर्थ में हमने 10 बातें ली हैं :
___ (1) मंगल-प्रतीक : मंगल-प्रतीय या मंगलाचरण-शिलालेख, लेख या ग्रन्थ लिखने से पूर्व मंगल-चिह्न या प्रतीक जैसे स्वस्तिक卐या शब्द बद्ध मंगल आदि अंकित करने की प्रथा प्रथम शताब्दी ई०पू० के अन्तिम चरण मे और ई० प्रथम के प्रारम्भ से मिलने लगती है। इससे पूर्व के लेख बिना मंगल-चिह्न, प्रतीक या शब्द के सीधे प्रारम्भ कर दिये जाते थे । मंगलारंभ के लिए सबसे पहले 'सिद्धम्' शब्द का प्रयोग हुआ, किर इसके लिए 1. हमने यह तालिका प्रो० रमेशचन्द्र दुबे के "भारतीय साहित्य' (अप्रैल, 1957) में प्रकाशित
(पृ० १९४-१९६) लेख से ली है।
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46 पाण्डुलिपि-विज्ञान
एक चिह्न परिकल्पित हुआ।
.
पहले यह चिह्न और 'सिद्ध' दोनों साथ-साथ पाये
फिर अलग-अलग भी इनका प्रयोग हुआ। वस्तुतः यह चिह्न 'ओं०' 5 का स्थानापन्न है । आगे चलकर 'इष्ट सिद्धम्' का उपयोग हुआ भी मिलता है, पर 'सिद्धम्' बहुत लोकप्रिय रहा ।
पाँचवीं शताब्दी ईसवी में एक और प्रतीक मंगल के लिए काम में आने लगा यह था 'स्वस्ति' । इसके साथ 'ओम' भी लगाया जाता था, 'स्वस्ति' या 'प्रोम स्वस्ति' कभी-कभी 'प्रोम' के लिए '१' का प्रयोग भी कर दिया जाता था।
__'प्रोम्', 'प्रोम् स्वस्ति' या 'स्वस्ति' मात्र के साथ 'स्वस्ति श्रीमान्' भी इसी भाव से लिखा मिलता है। फिर कितने ही मंगल प्रतीक मिलते हैं, जैसे--स्वस्ति जयत्याविष्कृतम्, प्रोम् स्वामी महासेन प्रोम् स्वस्ति अमर संकाश, स्वस्ति जयत्यमल, प्रोम् श्री स्वामी महासेन, ओम् स्वस्ति जयत्याविष्कृतम्, अोम स्वस्ति जयश्चाम्युदयश्च । प्रोम् नमः शिवाय अथवा नमश्शिवाय, श्री ओम् नमः शिवाय, श्री प्रोम् नमः शिवाभ्याम्, प्रोम् प्रोम् नमो विनायकाय,
ओम् नमो वराहाय, प्रोम् श्री आदि-वाराहाय नमः, प्रोम् नमो देवराज-देवाय, ओम नमः सर्वज्ञाय । ये शिलालेखों आदि से प्राप्त मंगल-प्रतीक हैं। पर हस्तलेखों-पाडुलिपियों में हमें 'जिन' स्मरण मिलता है या अपने संप्रदाय के संस्थापक का 'प्रोम् निम्बार्काय या 'वाग्देवी' का स्मरण 'ओम् सरस्वत्यः नमः' और सामान्यतः "श्री गणेशाय नमः' मिलता है । राम-सीता, कृष्ण-राधा का स्मरण भी मिलता है। इस प्रकार की अनेक विधियों से पांडुलिपियों में मंगल शब्द मिलते हैं जिनका काल-क्रम निर्धारण नहीं किया गया है, जैसा कि शिलालेखों के मंगल वाचकों का हुआ है।
(2) नमस्कार (Invocation)-ऊपर के विवरण में हम मंगल या स्वस्ति के साथ 'नमस्कार' को भी मिला गये हैं । 'नमोकार' या 'नमस्कार' एक अन्य भावाश्रित तत्त्व है । इसको अंग्रेजी में डॉ. पांडेय ने INVOCATION (इनवोकेशन) का नाम दिया है । वस्तुतः जिस मांगलिक शब्द-प्रतीक में 'नमो'-कार लगा हो वह इंवोकेशन या नमोकार ही है । सबसे प्राचीन नमोकार खारबेल के हाथी-गुभ्फा वाले अभिलेख में आता है । सीधे सादे रूप में 'नमो अर्हतानाम्' एवं 'नमो सर्व सिद्धानाम्' आता है । शिलालेखों में जिनको नमस्कार किया गया है वे हैं-धर्म, इन्द्र, संकर्षण, वासुदेव, चन्द्र, सूर्य, महिमावतानाम, लोकपाल, यम, वरुण, कुबेर,
1. इस सम्बन्ध में मुनि पुण्यविजय जी का यह कथन है कि "भारतीय आर्य संस्कृति ना अनुयायियों कोई
पण कार्यनी शुरूआत कांई न कोई नानु के मोदु मंगल करीने जेज करे छे शाश्वत नियमानुसार ग्रन्थ लेखनना आरम्भ माँ हरेक लेखकों में नम ऐं नमः जयत्यनेकांतकण्ठी रवः, नमो जिनाय, नमः श्री गुरुभ्यः, नमो बीतरागायः, ॐ नमः सरस्वत्यै, नमः सर्वज्ञाय, नमः श्री सिद्धार्थसूताय इत्यादि अनेक प्रकारना देव गुरु धर्म इष्टदेवता आदि ने लगता सामान्य के विशेष मंगलसूचक नमस्कार करता जगना.........."
-भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, धृ.57-581
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना - प्रक्रिया 47
वासव, अर्हत, वर्द्धमान, बुद्ध, भागवत-बुद्ध, संबुद्ध, भास्कर, विष्णु, गरुड़, केतु (विष्णु) शिव, पिनाकी, शूलपाणि, ब्रह्मा ग्रार्या वसुधारा (बौद्धदेवी ) । हिन्दी पांडुलिपियों में यह नमोकार विविध देवी - देवताओं से सम्बन्धित तो होता ही है, सम्प्रदाय प्रवर्त्तक गुरुयों के लिए भी होता है ।
(3) श्राशीर्वाचन या मंगल कामना (Benediction) यों तो 'मंगल कामना' के बीज-रूप अशोक के शिलालेखों में भी मिल जाते हैं किन्तु ईसवी सन् की आरम्भिक शताब्दियों में मंगलकामना का रूप निखरा और यह विशेष लोकप्रिय होने लगी । वस्तुतः गुप्त-काल में इसका विकास हुआ और भारतीय इतिहास के मध्ययुग में यह परिपाटी अपनी चरम सीमा तक पहुँच गई।
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(4) प्रशस्ति (Laudation ) — किये गये कार्य की प्रशंसा और उसके शुभ फल का उल्लेख प्रशस्ति में होता है, इसमें शुभ कार्य के कर्त्ता की प्रशस्ति भी गर्भित रहती है । इसका बीज तो अशोक के अभिलेखों में भी मिल जाता है । इनमें नैतिक और धार्मिक कृत्यां फलतः उनके कर्त्ताओं की सन्तुलित प्रशस्ति या प्रशंसा मिलती है ।
गुप्त एवं वाकाटक काल में प्रशस्ति-लेखन एक नियमित कार्य बन गया और इसमें विस्तार भी आ गया, इनमें दानदाताओं की प्रशंसा के साथ उन्हें अमुक दिव्य फल की प्राप्ति होगी, वह भी उल्लेख किया गया है। आगे चल कर धर्म शास्त्रों एवं स्मृतियों के भी पावन कार्य की प्रशंसा में उद्धृत किये गये मिलते हैं यथा :
बहुभिर्वसुधा दत्ता राजभिस्सगरादिभि:
यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।।
षष्टि वर्ष सहस्रारिण : स्वर्गे मोदेत भूमिदः ।
(दामोदरपुर ताम्रपत्रानुवास्तवे ) 1
विद्यापति की कीर्तिलता में यह प्रशस्ति अंश इस प्रकार आया है :
गेहे गेहे कलो काव्यं, श्रोतातस्य पुरे पुरे ||
देशे देशे रसज्ञाता, दाता जगति दुर्लभः ||2|| 2
बाद में यह परम्परा लकीर पीटने की भाँति रह गई ।
(5) वर्जना - निन्दा - शाप ( Imprecation ) - इसका अर्थ होता है किसी दुष्कृत्य की अवमानना या भर्त्सना, जिसे शाप के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है । इसे किसी शिलालेख, अनुशासन, या ग्रन्थ में लिखने का अभिप्राय यही होता था कि कोई उक्त दुष्कृत्य न करे जिससे वह शाप का भागी बन जाये । ऐसी निन्दा के बीज हमें अशोकाभिलेखों में भी मिलते हैं - यथा, यह परिस्रव है जो प्रपुण्य है ( एसतु पीरस्तवे य (ञ) । निन्दा या शाप वाक्यों का नियमित प्रयोग चौथी शताब्दी ईसवी से होने लगा था । छठी से तेरहवीं ईसवी शताब्दी के बीच यह निन्दा-परम्परा लकीर पीटने का रूप ग्रहण कर लेती है । बाद में कुछ शिलालेखों में इसके स्थान पर केवल 'गढे गलस'
1. Pandey, R. B.-Indian Palaeography, p. 163. 2. अग्रवाल, वासुदेवशरण (सं.) - कीर्तिलता, पृ० 4.
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48 पाण्डुलिपि-विज्ञान
अर्थात् 'पदहा शाप' गंवारू गाली के रूप में लिखा गया है और एक में तो गदहे का ही रेखांकन कर दिया गया है । भारतीय मध्य-युगीन भाषाओं की काव्य-परंपरा में खल-निंदा का भी यहो स्थान है। इसके द्वारा अशोभनीय कार्य न करने की वर्जना अभिप्रेत होती है।
(6) उपसंहार : पुष्पिका--- उपसंहार या समाप्ति की पुष्पिका में इन बातों का ममावेश रहता था---
(1) रचनाकार--(कवि आदि) का नाम, लेखादि को अनुष्ठित कराने वाले या अनुष्ठाता का नाम, उत्कीर्ण कर्ता का नाम, दूतक का नाम ।
(2) काल-रचना काल, तिथि आदि, लेखन काल, प्रतिलिपि काल । 13) स्वस्तिवचन--यथा : एवं संगर-साहस-प्रमथन प्रारब्ध लब्धोदया 12581 पुष्णाति श्रियमाशाशंकघरणीं श्री कीर्तिसिंहोनृपः
12591 (4) निमित्त(5) समर्पण, यथा-माधुर्य-प्रभवस्थली गुरु यशो-विस्तार शिक्षा सखी
यावद्विश्वमिदञ्च खेलतु कवेविद्याप्रतेभारती ।। (6) स्तुति---- (7) निन्दा(8) राजाज्ञा---[जिससे यह कृति यो प्रस्तुत की गई] यथा-संवत् 747 वैशाख शुक्ल तृतीया तिथी। श्री श्री जय जग
ज्ज्योतिर्मल्ल-देव-भूपानामाज्ञया दैवज्ञ-नारायण-सिंहेन
लिखितमिदं पुस्तकं सम्पूर्णमिति शिवम् शुभाशुभ
भारतीय परम्परा में प्रत्येक बात के साथ शुभाशुभ किसी न किसी रूप में जुड़ा ही हुआ है। ग्रन्थ-रचना की प्रक्रिया में भी इसका योग है । पुस्तक का परिमारण क्या हो, इस सम्बन्ध में 'योगिनी तन्त्र' में यह उल्लेख है :
मानं वक्ष्ये पुस्तकस्य श्रृणु देवि समासतः । मानेनापि फलं विद्यादमाने श्रीहंता भवेत् । हस्तमानं पुष्टिमान मा बाहु द्वादशां गुलम् ।
दशांगुलं तथाष्टौ चततो हीनं न कारयेत् । इसमें विधान है कि परिमाण में पुस्तक हाथ भर, मुट्ठी भर, बारह उंगली भर, दस उँगली भर और पाठ उँगली भर तक की हो सकती है। इससे कम होने से 'श्री हीनता' का फल मिलता है। श्री हीन होना अशुभ है।
__ कैसे पत्र पर लिखा जाय ? 'योगिनी तन्त्र' में बताया है कि भूर्जपत्र, तेजपत्र, ताड़पत्र, स्वर्णपत्र, ताम्रपत्र, केतकी पत्र, मातंण्ड पत्र, रौप्यपत्र, बट-पत्र पर पुस्तक लिखी जा सकती है, अन्य किसी पत्र पर लिखने से दुर्गति होती है। जिन पत्रों का ऊपर उल्लेख हुआ है उन पर लिखना शुभ है, अन्य पर लिखना अशुभ है ।
1. अगवाल, वासुदेवशरण (सं.)-कीतिलता. पृ० ३१४ ॥
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/49
इसी प्रकार 'वेद' को पुस्तक रूप में लिखना निषिद्ध बताया गया है। जो व्यक्ति लिख कर वेदां का पाठ करता है उसे ब्रह्महत्या लगती है, और घर में लिखा हुआ वेद रखा हुआ हो तो उस पर वज्रपात होता है। लेखक विराम में शुभाशुभ
भा० जै० श्र० सं० में शुभाशुभ की एक और परम्परा का उल्लेख हुआ है । यदि लेखक या प्रतिलिपिकार लिखते-लिखते बीच में किसी कार्य में लेखन-विराम करना चाहता है तो उसे शुभाशुभ का ध्यान करना चाहिये ।
उसे क, ख, ग, च, छ, ज, ठ, ढ, ण, थ, द, ध, न, फ, भ, म, य, र, ष, स, ह, क्ष, ज पर नहीं रुकना चाहिये । इन पर रुकना अशुभ माना गया है । शेष में से किसी भी अक्षर पर रुकना शुभ है।
अशुभ अक्षरों के सम्बन्ध में अलग-अलग अक्षर की फल श्रुति भो उन्होंने दी है।
'क' कट जावे, 'ख' खा जावे, 'ग' गरम होवे, 'च' चल जावे, ‘छ, छटक जावे, 'ज' जोखिम लावे, 'ठ' ठाम न बैठे, 'ढ' ढह जाये, 'रण' हानि करे, 'थ' थिरता या स्थिरता करे, 'द' दाम न दे, 'ध' धन छुड़ावे, 'न' नाश या नाठि करे, 'फ' फटकारे, 'भ' भ्रमावे, 'म' मठ्ठा या मन्द है, 'य' पुनः न लिखे, 'र' रोदे, 'ष' खिचावे, सन्देह धरे, 'ह' हीन हो, 'क्ष' क्षय करे, 'ज्ञ' ज्ञान न हो।
जिन्हें शुभ माना गया है उनकी फल-श्रुति इस प्रकार है :
'घ' घरुड़ी लावे, “झ' झट करे, 'ट' टकावी (?) राखे, 'ड' डिगे नहीं, 'त' तुरन्त लावे, 'प' परमेश्वर का है, 'ब' बनिया है, 'ल' लावे, 'व' वावे (?), 'श' शान्ति करे।
इसमें मारवाड़ की एक और परम्परा का भी उल्लेख किया गया है कि वहाँ 'व' अक्षर आने पर ही लेखन-विराम किया जाता है और बहुत जल्दी उठना आवश्यक हुआ तो एक अन्य कागज पर 'व' लिख कर उठते हैं ।
शुभाशुभ सम्बन्धी सभी बातें अन्ध-विश्वास मानी जायेंगी पर ग्रन्थ-रचना या ग्रन्थ-लेखन या प्रतिलिपिकरण में ये परम्पराएँ मिलती हैं, अतः पांडुलिपि-विज्ञान के जानार्थी के लिए यहाँ देदी गई हैं।
भारतीय भावधारा के अनुसार लेखन प्रक्रिया में आने वाली सभी वस्तुओं के साथ गुण-दोष या शुभ-अशुभ की मान्यता से एक टोने या अनुष्ठान की भावना गुथी रहती है । इसी प्रकार 'लेखन' के लिए जो अनिवार्य उपकरण है उस लेखनी के साथ भी यह धार्मिक भावना हमें ग्रन्थों में वरिणत मिलती है : लेखनी : शुभाशुभ
लेखनी के सम्बन्ध में ये प्रचलित श्लोक "भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला' में दिये गये हैं :
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50/पाण्डुलिपि-विज्ञान
ब्राह्मणी श्वेतवर्णाच, रक्तवर्णाच क्षत्रिणी, बैश्यवी पीतवर्णाचः, आसुरी श्यामलेखिनी ।।1।। श्तेवे सुखं विजानीयात्, रक्त दरिद्रता भवेत् । पीते च पुष्कला लक्ष्मीः, आसुरी क्षयकारिणी ।।2।। चिताने हरते पुत्रमाधोमुखी हरते धनम् । वामे च हरते विद्यां दक्षिणां लेखिनी लिखेत् ।।3।। अग्र ग्रन्थिहरेदायुर्मध्य ग्रन्थिहरेद्धनम् । पृष्ठग्रन्थिहरेत सर्व निग्रन्थिं लेखिनी लिखेत् ।।4।। नवांगुलमिता श्रेष्ठा, अष्टौ वा यदि वाऽधिका, लेग्विनी लेखयेन्नित्यं धन-धान्य समागमः 151
इति लेखिनी विचारः ।। अष्टाङ गुलप्रमाणेन, लेखिनी सुखदायिनी, हीनायाः हीनं कर्मस्यादधिकस्याधिकं फलम् ।।1।। आद्य ग्रन्थीहरेदायुमध्य ग्रन्थी हरेद्धनम् । अन्त्य ग्रन्थीहरेन्सोख्यं, निर्ग्रन्थी लेखिनी शुभा ।। माथे ग्रन्थी मत (मति) हरे, बीच ग्रन्थी धन खाय, चार तसुनी लेखणे
लखनारा कट जाय ।113
इन श्लोकों से विदित होता है कि लेखनी के रंग, उससे लिखने के ढंग, लेखनी में गांठे, लेखनी की लम्बाई आदि सभी पर शुभाशुभ फल बताये गये हैं, रंग का सम्बन्ध वर्ग से जोड़ कर लेखनी को भी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का माना गया है :
सफेद वर्ण की लेखनी ब्राह्मणी -इसका फल है सुख लाल वर्ण की क्षत्राणी
-इसका फल है दरिद्रता पीले वर्ण की वैश्यवी
-इसका फल है पुष्कल धन, श्याम वर्ण की आसुरी होती है एवं इसका फल होता है धन-नाश ।
किन्तु इस समस्त शुभ-अशुभ के अन्तरंग में यथार्थ अर्थ यही है कि निर्दोष लेखनी ही सर्वोत्तम होती है, उसी से लेखक को लेखन करना उचित है ।
वैसे 'लेखनी' एक सामान्य शब्द है, जिसका प्रयोग तूलिका, शलाका, वर्णवर्तिका, वरिणका और वर्णक सभी के लिए होता था । पत्थर और धातु पर अक्षर
1. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 34। 2. यह प्रलोक स्व. चिमनलाल द. दलाल द्वारा सम्पादित 'लेख पद्धति' में भी आया है। 3. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ० 34। 4. दशकुमार चरित में । 5. कोशों में। 6. ललित-विस्तर में।
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पाण्डुलिपि - ग्रन्थ रचना-प्रक्रिया / 51
उत्कीर्ण करने वाली शलाका भी लेखनी है । चित्रांकन करने वाली कूंची तूलिका भी लेखनी है, अतः लेखनी का अर्थ बहुत व्यापक है । लेखन के अन्य उपकरणों के नाम ऊपर दिये जा चुके हैं । बूहलर ने बताया है कि “The general name of 'an instrument for writing' is lekhani, which of course includes the stilus, pencils, brushes, reed and wooden pens and is found already in epics"
नरसल या नेजे की लेखनी का प्रयोग विशेष रहा। इसे 'कलम' कहा जाता है । 2 इसके लिए भारतीय नाम है इषीका या ईषिका जिसका शब्दार्थ है नरसल ( reed ) ।
डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में कलम शीर्षक से यह सूचना दी है कि :
"विद्यार्थी लोग प्राचीन काल से ही लकड़ी के पाटों पर लकड़ी की गोल तीखे मुख की कलम (वर्णक) से लिखते चले आते हैं । स्याही से पुस्तकें लिखने के लिए नड (ब) या बाँस की कलमें (लेखनी) काम में श्राती हैं। अजंता की गुफाओं में जो रंगों से लेख लिखे गये हैं वे महीन बालों की कलमों (वर्तिका) से लिखे गये होंगे । दक्षिणी शैली के ताड़पत्रों के अक्षर कुचरने के लिए लोहे की तीचे गोल मुख की कलम ( शलाका) अब तक काम में आती है । कोई-कोई ज्योतिषी जन्मपत्र और वर्षफल के खरड़ों के लम्बे हाशिये लाते हैं, जिसका ऊपर
तथा आड़ी लकीरें बनाने में लोहे की का भाग गोल और नीचे का स्याही के
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कलम को अब तक काम परकार जैसा होता है ।
पाश्चात्य जगत् में एक ओर तो पत्थरों और शिलाओं में उत्कीर्ण करने के लिए छैनी (Chisel ) को आवश्यक माना गया है, वहीं लेखनी के लिए पंख ( पर या पक्ष), नरसल या धातु शलाका का भी उल्लेख मिलता है । पाश्चात्य जगत् में पंख की लेखनी का प्राचीनतम उल्लेख 7 वीं शती ई० में मिलता है 14
कोडेक्स आधुनिक पुस्तक का पूर्वज है । यह एक प्रकार से दो या अधिक काष्ठपाटियों से बनती थी । ये काष्ठ पाटियाँ एक छोर पर छेदों में से लौह छल्लों से जुड़ी रहती थीं । इन पर मोम बिछा रहता था। इस पर एक धातु शलाका से खुरच कर या कुरेद (उकेर) कर अक्षर लिखे जाते थे ।
'One wrote or scratched (which is the original meaning of the word) with a sharply pointed instrument, the stylus which had at the other end a flat little spatula for erasing, like the eraser at the end of the modern pencil'.5
यह स्टाइलस ओझा जी की बताई शलाका जैसी ही विदित होती है। इसी से मोमपाटी पर अक्षर उत्कीर्ण किये जाते थे ।
1. Buhler, G.-Indian Palaeography, p. 147.
2. वहीं, 147।
3. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 157
4.
5.
Encyclopaedia Americana (Vol. 18), p. 241.
Op. cit., (Vol. 4), p. 225.
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52/पाण्डुलिपि-विज्ञान स्याही
श्री गोपाल नारायण बहुरा के शब्दों में 'स्याही' विषयक चर्चा की भूमिका यों दी जा सकती है--
यों तो ग्रन्थ लिखने के लिए कई प्रकार की स्याहियों का प्रयोग दृष्टिगत होता है परन्तु सामान्य रूप से लेखन के लिए काली स्याही ही सार्वत्रिक रूप में काम में लाई गई है । काली स्याही को प्राचीनतम संस्कृत में 'मषी' या 'मसि' शब्द से व्यक्त किया गया है । इसका प्रयोग बहुत पहले से ही शुरू हो गया था।
जैनों की मान्यता है कि कश्यप ऋषि के वंशज राजा इक्ष्वाकु के कुल में नाभि नामक राजा हुआ । उसकी रानी मरुदेवी से ऋषभ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । यह ऋषभ ही नाभेय ऋषभदेव नाम से जैनों में आदि तीर्थङ्कर माने जाते हैं । कहते हैं कि आदिनाथ ऋषभदेव से पूर्व पृथ्वी पर वर्षा नहीं होती थी, अग्नि की भी उत्पत्ति नहीं हुई थी, कोई कँटीला वृक्ष नहीं था और संसार में विद्या तथा चतुराईयुक्त व्यवसायों का नाम भी नहीं था । ऋषभ ने मनुष्यों को तीन प्रकार के कर्म सिखाये-1. असिकर्म अर्थात् युद्ध विद्या, 2. मसिकर्म अर्थात् स्याही का प्रयोग करके लिखने-पढ़ने की विद्या, और 3. कृषि कर्म अर्थात् खेती-बाड़ी का काम । इसे चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का ही रूप माना जा सकता है । अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर का निर्वाण विक्रम संवत् से 470 वर्ष पूर्व और ईसा से 526 वर्ष पूर्व माना गया है । कहते हैं कि इससे 3 वर्ष आठ मास और दो सप्ताह बाद पाँचवें आरे का प्रारम्भ हुआ है जो 21 हजार वर्ष तक चलेगा। इससे मषी कर्म के प्रारम्भ का अनुमान लगाया जा सकता है ।
मसि, मशि या मषी का अर्थ कज्जल है । 'मसी कज्जलम्', मेला मसी पत्रांजन च स्यान्मसिद्ध योरिसि त्रिकाण्डशेषः' । काली स्याही के निर्माण में भी कज्जल ही प्रमुख वस्तु है । इसीलिये स्याही के लिए भी मषी शब्द प्रयुक्त हुआ है । काली स्याही बनाने के कई नुस्खे मिलते हैं। उनमें कज्जल का प्रयोग सर्वत्र दिखाई देता है । एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिये कि ताड़-पत्र और कागज पर लिखने की काली स्याहियाँ बनाने के प्रकारों में भी अन्तर है । ताड़पत्र वास्तव में काष्ठ जाति का होता है और कागज की बनावट इससे भिन्न होती है । इसीलिए इन पर लिखने की स्याही के निर्माण में भी यत्किंचित् भिन्नता है।
स्याही बनाने में कज्जल और जल के अतिरिक्त अन्य उपकरणों का मिश्रण करने की कल्पना बाद की होगी । प्राचीन उल्लेखों में केवल जल और कज्जल के ही सन्दर्भ मिलते हैं। यह भी हो सकता है कि इन दोनों के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं की गणता रही हो । पुष्पदन्त विरचित महिम्नःस्तोत्र के एक श्लोक में स्याही, कलम, दवात और पत्र का सन्दर्भ है :
असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी । लिखति यदि गृहीत्त्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानमीश पारं न याति ।।
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया / 53
अर्थात् श्वेतगिरि (हिमालय) जितना बड़ा ढेर कज्जल का हो, जिसे समुद्र जितने बड़े पानी से भरे पात्र (दवात) में घोला जाय, देव वृक्ष ( कल्प वृक्ष) की शाखाओं से लेखनी बनाई जाय (जो कभी समाप्त न हो) और समस्त पृथ्वी को पत्र (कागज) बनाकर शारदा ( स्वयं सरस्वती) लिखने बैठे और निरन्तर लिखती रहे तो भी हे ईश ! तुम्हारे गुग्गों का पार नहीं है ।
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हिम्न स्तोत्र का रचनाकाल 9वीं शताब्दी से पूर्व का माना गया है किन्तु उक्त लोकको प्रक्षिप्त मानकर कहा गया है कि मूल स्तोत्र के तो 31 ही श्लोक हैं जो अमरेश्वर के मन्दिर में उत्कीर्ण पाये गये हैं । 15 श्लोक बाद में स्तोत्र पाठकों द्वारा जोड़ लिये गये हैं । 1
परन्तु यह निश्चित है कि विस्तृत पत्र और स्याही यदि लेखन के प्रावश्यक उपकरणां के व्यापक प्रयोग के प्रमाण 8वीं शताब्दी के माहित्य में भी उपलब्ध होते हैंसुबन्धु कृत 'वासवदत्ता' कथा में भी एक ऐसा ही उद्धरण मिलता है।
'त्वत्कृते यानया वेदानुभूता सा यदि नमः लिपिक रायते भुजगपतिर्वाक्कथकः तदा किमपि कथ्यते वा 12
पत्रायते सागरों लोलायते ब्रह्मा कथमप्येकेकैर्यु सहस्रं रभि लिख्यते
अर्थात् आपके लिए इसने जिस वेदना का अनुभव किया है उसको यदि स्वयं ब्रह्मा लिखने बैठे, लिपिकार बने, भुजगपति शेषनाग बोलने वाला हो ( साँप की जीभ जल्दी चलती है) और लिखने वाला इतनी जल्दी-जल्दी लिखे कि कलम डुबोने से सागर रूपी दवात में हलचल मच जाये तो भी कोई एक हजार युग में थोड़ा बहुत ही लिखा जा सकता है ।
पाश्चात्य जगत् में हमें प्राचीनतम स्याही काली ही विदित होती है। सातवीं शती ईस्वी से काली स्याही के लेख मिल जाते हैं । यह स्याही दीपक के काजल या घुये सेतो बनती ही थी, हाथी दाँत को जलाकर भी बनायी जाती थी । कोयला भी काम में आता था । " बहुत चमचमाती लाल स्याही का उपयोग भी होता था, विशेषतः प्रारम्भिक प्रक्षरों के लेखन में तथा प्रथम पंक्ति भी प्रायः लाल स्याही से होती थी । नीली स्याही का भी नितांत प्रभाव नहीं था । हरी और पीली स्याही का उपयोग जब कभी ही होता था । सोने और चांदी से भी पुस्तकें लिखी जाती थीं ।
भारत में हस्तलेखों की स्याही' का रंग बहुत पक्का बनाया जाता था । यही कारण है कि वैसी पक्की स्याही से लिखे ग्रन्थों के लेखन में चमक अब तक बनी हुई है । विविध प्रकार की स्याही बनाने के नुस्खे विविध ग्रन्थों में दिये हुए हैं। वैसे कच्ची
1.
Brown, W. Normon-The Mahimnastava (Introduction). p. 4-6.
2. शुक्ल, जयदेव (सं.) - वासवदत्ता कथा, पृ. 39
3. The Encyclopaedia Americana (Vol. 18 ), p. 241.
4.
भारत में स्याही का पर्यायवाची मसी या मषी था । प्राचीन काल में इन्हीं का उपयोग होता था । ई. पू. . के ग्रन्थ 'गृह्य-सूत्र' में यह शब्द आया है । 'मसी' का अर्थ डॉ. राजवली पांडेय ने बताया हैमसलकर बनाई हुई । व्हूलर ने इसका अर्थ चूर्ण या पाउडर बनाया है । स्याही के लिए एक दूसरा 'मेला' शब्द भी प्राचीन काल में कहीं-कहीं प्रयोग में आता था। व्हूलर ने 'मेला' की व्युत्पत्ति 'मला' नमानी है। मेला = dirty : black : गंदा या काला। डॉ० पाण्डेय ने ठीक बताया है कि यह
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54 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
स्याही भी बनाई जाती रही है। पक्की और कच्ची स्याही के अन्तर का एक रोचक ऐतिहासिक कथांश 'भारतीय प्राचीन लिपिमाला' में डॉ० प्रोझा ने दिया है । वह वृत्त द्वितीय राजतरंगिणी के कर्त्ता जोनराज द्वारा दिया गया है और उनके अपने ही एक मुकदमें से सम्बन्धित है ।
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जनराज के दादा ने एक प्रस्थ भूमि किसी को बेची । उनकी मृत्यु हो जाने पर खरीदने वाले ने जाल रचा । वैनामे में था - - 'भूप्रस्थमेकं विक्रीतम्' । खरीदने वाले ने उसे 'भूप्रस्थ दशकं विक्रीतम्' कर दिया । जोनराज ने यह मामला राजा जैनोल्लाभदीन के समक्ष रखा । उसने उस भूर्ज-पत्र को पानी में डाल दिया । फल यह हुआ कि नये अक्षर धुल गए और पुराने उभर आये, जोनराज जीत गए। " ( जोनराजकृत राजतरंगिणी श्लोक 1025-37 ) । प्रतीत होता है कि नये अक्षर कच्ची स्याही से लिखे गये थे, पहले अक्षर पक्की स्याही के थे । भोजपत्र को पानी में धोने से पक्की स्याही नहीं धुलती,, वरन् और अधिक चमक उठती है । कच्ची-पक्की स्याहियों के भी कई नुस्खे मिलते हैं :
"1
"भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला" में बताया है कि पहले ताड़-पत्र पर लिखा जाता था । तीन-चार सौ वर्ष पूर्व ताड़-पत्र पर लिखने की स्याही का उल्लेख मिलता है । ये स्याहियाँ कई प्रकार से बनती थीं- “भारतीय जैन श्रमरण संस्कृति अने लेखन कला' में ये नुस्खे दिये हुए हैं जो इस प्रकार हैं :
प्रथम प्रकार :
सहवर-भृंग त्रिफलः, कासीसं लोहमेव नीली च
समकज्जल - बोलयुता, भवति मषी ताडपत्राणाम् ||
व्याख्या - सहवरेति कांटासे हरी ओ ( घेमासो) भृगेति भांगुर । त्रिफला प्रसिद्धैव । कासीसमिति कसीसम्, येन काष्ठादि रज्यते । लोहमिति लोहचूर्णम् । नीलीति गली निष्पादको वृक्ष: तेंद्ररसः । रसं विना सर्वेषामुत्कल्य क्वाथः क्रियते स च रसोऽपि समवर्तित कज्जल- बोलयोर्मध्ये निक्षिप्यते, ततस्ताडपत्रमषी भवतीति । यह स्याही ताम्बे की कढ़ाही में खूब घोटी जानी चाहिए 12
दूसरा प्रकार :
काजल पा (पो) इण बोल (बीजा बोल), भूमिलया या जल मोगरा ( ? ) थोड़ा पारा, इन्हें ऊष्ण जल में मिला कर ताँबे की कढ़ाई में डाल कर सात दिन ऐसा घोटें कि सब एक हो जाय । तब इसकी बड़ियाँ बना कर सुखा लें। स्याही की आवश्यकता पड़ने पर बड़ियों को आवश्यकतानुसार गर्म पानी में खूब मसल कर स्याही बनालें । इस स्याही से लिखे अक्षर रात में भी दिन की भाँति ही पढ़े जा सकते हैं ।
शब्द 'मेला' नहीं 'मेला' ही है जो मेल से बना है । स्याही में विविध वस्तुओं का मेल होता है । स्याही - स्याहकाला से व्युत्पत्र है, पर इसका अर्थ-विस्तार हो गया है ।
- व्हूलर, पृ. 146 तथा डॉ. राजबली पांडेय, पृ. 84. निआर्कष और क्यू. कर्दियस जैसे यूनानी लेखकों की साक्षियों से यह सिद्ध है कि भारतीय कागज और कपड़े पर स्याही से ही लिखते थे । यह साक्षी 4थी शती ई. पू. की है। 1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 155 ( पाद टिप्पणी) ।
2. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 38 ।
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/55
तीसरा प्रकार:
कोरडए वि सरावे, अंगुलिया कोरडम्मि कज्जलए । मद्दह सरावलग्गं, जावं चिय चि (वक) गं मुअइ । पिचुमंद गुंदलेसं, खायर गुदं व बीयजल मिस्सं ।
भिज्जवि तोएण दढं, मद्दह जातं जलं मुसइ। अर्थात् नये काजल को सरवे (सकोरे) में रखकर ऊँगलियों से उसे इतना मलें या रगड़ें कि सरवे से लगकर उसका चिकनापन छूट जाय । तब नीम के गोंद या खेर के गोंद
और वियाजल के मिश्रण में उक्त काजल को मिलाकर इतना घोटें कि पानी सूख जाये फिर वड़िया बना लें। चौथा प्रकार :
निर्यासात् विचुमंद जात् द्विगुरिणतो बोलस्ततः कज्जलं, संजातं तिलतैलतो हुतवहे तीव्रतपे मर्दितम् । पात्रे शूल्बमये तथा शन (?) जलैक्षि रमै वितः,
सद्भल्लातक-मृगराज रसयुतो सम्यग् रसोऽयं मषी।। अर्थात नीम का गोंद, उससे दुगुना बीजाबोल, उससे दुगुना तिलों के तेल का काजल लें। ताँबे की कढ़ाही में तेज आंच पर इन्हें खूब घोंट और उसमें जल तथा अलता (लाक्षारस) को थोड़ा-थोड़ा करके सौ भावनाएँ दें और अच्छी स्याहो बनाने के लिए इसमें शोधा हुअा भिलावा तथा भॉगरे का रस डालें ।। पाँचवा प्रकार :
पाँचवें प्रकार की स्याही का उपयोग ब्रह्म देश, कर्नाटक आदि देशों में ताड़-पत्र पर लिखने में होता था।
ऊपर के सभी प्रकार ताड़-पत्र पर लिखने की स्याही के है ।
भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 38-40. श्लोक में तो यह नहीं बताया गया है कि उक्त मिश्रण को कितनी देर धोटना चाहिए परन्तु जयपुर में कुछ परिवार स्याही वाले ही कहलाते हैं। त्रिपोलिया के बाहर ही उनकी प्रसिद्ध दुकान थी। वहाँ एक कारखाने के रूप में स्याही बनाने का कार्य चलता था। महाराजा के पोथीखाने में भी 'सरबरा. कार' स्याही तैयार किया करते थे। इन लोगों से पूछने पर ज्ञात हुआ कि स्याही की घटाई कम से कम आठ पहर होनी चाहिए । मात्रा अधिक होने पर अधिक समय तक घोटना चाहिए।
-गोपालनारायण बहुरा 3. पहले कह चुके हैं कि ताइपन्न पर स्याही से कलम द्वारा भी लिखते हैं और लोहे की नोंकदार कृतरम्भी
से अक्षर कुरेदे भी जा सकते हैं। लिखने के लिए तो ऊपर लिखी विधियों से बनाई हई स्थाहियां दी काम में आती हैं, परन्तु कुरेदे हुए अक्षरों पर काला चूर्ण पोत कर कपड़े से साफ करते हैं। इससे वह चूर्ण कुरेदे हुए अक्षरों में भरा रह जाता है और पत्र के समतल भाग से कज्जल या काला चर्ण अपसारित हो जाता है। फिर अक्षर स्पष्ट पढ़ने में आ जाते हैं। समय बीतने पर यदि अक्षर फीके पड जावे तो यह विधि दोहरा दी जाने पर पुन: अक्षर स्पष्ट हो जाते हैं। ऐमा मषी-चूर्ण बनाने के के लिए नारियल की जटा या केंचुल तथा बादाम आदि के छिलके जलाकर पीस लिए जाते हैं।
-गोपालनारायण बहुरा
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56/पाण्डुलिपि-विज्ञान
इस प्रकार कागज-कपड़े पर लिखने की स्याही बनाने की भी कई विधियाँ हैं : पहली विधि :
जितना काजल उतना बोल, ते थी दूणा गूंद झकोल, जे रस भांगरानो पड़े, तो अक्षरे अक्षरे दीवा जले ।
दूसरी विधि:
मष्यर्धे क्षिप सद्गुन्दं गुन्दार्धे बोलमेव च, लाक्षाबीयारसेनोच्चै मर्दयेत् ताम्रभाजने ।
तीसरी विधि :
बीग्रा बोल अनइल करवा रस, कज्जल वज्जल (?) नइ अंबारस । 'भोजराज' मिमी नियाद्, पान प्रो फाटई मिसी नवि जाई ।
चौथी विधि:
लाख टांक बीस मेल, स्वांग टांक पांच मेल नीर टांक दो सौ लेई, हांडी में चढ़ाइये, ज्यौं लों आग दीजे त्यों लौ ओर खारे सब लीजे । लोदर खार बालबाल पीस के रखाइये मीठा तेल दीय जल, काजल सो ले उतार नीकी विधि पिछानी के ऐसे ही बनाइये चाइक चतुर नर लिखके अनूप ग्रन्थ बांच बांच बांच रीझरीझ मौज पाइये। मसी विधि ।
पाँचवी विधि:
स्याही पक्की करण विधि :-लाख चोखी अथवा चीपडी लीजे पईसा 6, सेर तीन पानी में डालें, सुवागो (सुहागा) पैसा 2 डालें, लोध 3 पैसा भर डालें। पानी तीन पाव रह जाये तो उतार लें। बाद में काजल । पैसा भर डालकर घोंट-घोंट कर सुखा लें। अावश्यकतानुसार इसमें से लेकर शीतल जल में भिगो दें तो पक्की स्याही तैयार हो जाती है।
छठी विधि:
काजल छह टंक, बीजाबोल टंक 12, बेर का गोंद 36 टक, अफीम टंक 1/2, अलता पोथी टंक 3, फिटकरी कच्ची टंक 1/2, नीम के घोंटे से ताम्बे के पात्र में सात दिन तक घोटे ।
स्याही के ये नुस्खे मुनि श्री पुण्यविजयजी ने यहाँ-वहाँ से लेकर दिये हैं। उनका अभिमत है कि पहली विधि से बनी स्याही श्रेष्ठ है। अन्य स्याही पक्की तो है, पर क गज
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/57
कपड़े को क्षति पहुँचाती हैं । लकड़ी की पाटी (पट्टी) पर लिखने के लिए ठीक हैं ।।
राजस्थान में उपयोग आने वाली स्याही के बनाने की विधि अोझाजी ने इस प्रकार बताई है :
___'पक्की स्याही बनाने के लिए पीपल की लाख को जो अन्य वृक्षों की लाख से उत्तम समझी जाती है, पीस कर मिट्टी की हँडिया में रखे हुए जल में डालकर उसे आग पर चढ़ाते हैं । फिर उसमें सुहागा और लोध पीस कर डालते हैं। उबलते-उबलते जब लाख का रस पानी में यहाँ तक मिल जाता है कि कागज पर उससे गहरी लाल लकीर बनने लगती है तब उसे उतार कर छान लेते हैं। उसको अलता (अलक्तक) कहते हैं, फिर तिलों के तेल के दीपक के काजल को महीन कपड़े की पोटली में रखकर अलते में उसे फिराते जाते हैं जब तक कि उससे सुन्दर काले अक्षर बनने न लग जावें। फिर उसको दवात (मसीभाजन) में भर लेते हैं । राजपूताने के पुस्तक लेखक अब भी इसी तरह पक्की स्याही बनाते हैं ।"
ओझाजी ने कच्ची स्याही के सम्बन्ध में लिखा है कि यह कज्जल, कत्था, बीजाबोर और गोंद को मिलाकर बनाई जाती है। परन्तु पन्नों पर जल गिरने से यह स्याही फैल जाती है और चौमासे में पन्ने चिपक जाते हैं । अतः ग्रन्थ लेखन के लिए अनुपयोगी है ।
आपने भोज-पत्र पर लिखने की स्याही के सम्बन्ध में लिखा है कि "बादाम के छिलकों के कोयलों को गोमूत्र में उबाल कर यह स्याही बनायी जाती थी। यही बात डॉ. राजबली पाण्डेय ने लिखी है :
In Kashmir, for writing on birch-bark, ink was manufactured out of charcoal made from almonds and boiled in cow's urine. Ink so prepared was absolutely free from damage when MSS were periodically washed in water-tubes. 5 कुछ सावधानियाँ
मूलतः कज्जल, बीजाबोल समान मात्रा में और इनसे दो गुनी मात्रा में गोंद को पानी में घोलकर नीम के घोंटे से ताम्र-पात्र में घुटाई करना ही कागज और कपड़े पर
इसी बात को और स्पष्ट करते हुए मुनिजी ने बताया है कि 'जिस स्याही में लाख (लाक्षारस), कत्था, लोध पड़ा हो, वह कपड़ा कागज पर लिखने के काम की नहीं है। इससे कपड़े एवं कागज तम्बाकू के पत्ते जैसे हो जाते हैं। -भारतीय जैन श्रमण सस्कृति अने लेखन कला, पृ० ४२ ।
मुनि पुण्यविजयजी ने काली स्याही सम्बन्धी खास सूचनाओं में ये बातें बताई है कज्जलमत्र तिलतैलतः संजात ग्राह्यम । २, गुन्दोऽत्र निम्बसत्कः खदिरसत्को वबब्रसत्को वा ग्राह्यः । धवसत्कस्तु सर्वथा त्याज्य: मषी विनाशको ह्ययम् (धी का गोंद नहीं डालना चाहिए)।
भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 1551 ___ वही, पृ. 1551 4. व्हलर ने सूचना दी हे (काश्मीर रिपोर्ट,30) कि गफ पेपर्स आदि (18F) में राजेन्द्रलाल भित्र ने
टिप्पणियों में स्याही बनाने के भारतीय नुस्खे दिये है। -पृ. 146, पाद टिप्पणी, पृ. 537 5. Pandey, R. B-Indian Palaeography, P, 85, 6. थी गोपाल नारायण बहुरा की टिप्पणियां ।
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58/पाण्डुलिपि-विज्ञान
लिखने की स्याही बनाने की उपयोगी विधि है, अन्य रसायनों को मिलाने से वे उसको खा जाते हैं और अल्पायु बना देते हैं, जैसे-भांगरा डालने से अक्षरों में चमक तो पाती है परन्तु आगे चलकर कागज काला पड़ जाता है। इसी तरह लाक्षारस, स्वांग या क्षार
आदि भी हानिकारक हैं । वीआरस बीया नामक वनस्पति की छाल का चूर्ण बनाकर पानी में औटाने से तैयार होता है। इसको इसलिए मिलाया जाता है कि स्याही गहरी काली हो जाती है । परन्तु यदि आवश्यकता से अधिक बीपारस पड़ जाय तो वह गोंद के प्रभाव को कम कर देता है और ऐसी स्याही के लिखे अक्षर सूखने के बाद उखड़ जाते हैं । लाक्षारस इस कारण डाला जाता है कि इससे स्याही कागज में फूटती नहीं है । खौलते हुए साफ पानी में जरा-जरा सा लाख का चूर्ण इस तरह से डालकर हिलाया जाता है कि वह उसमें अच्छी तरह धुलता जाय, उसकी लुगदी न बनने पावे। बार-बार किसी सींक या फरड़े को उसमें डुबोकर कागज पर लकीर खींचते हैं। शुरू में जब तक लाख पानी में एकरस नहीं होती तब तक वह पानी कागज में फूटता है पर जब अच्छी तरह लाख के रेशे उसमें एकाकार हो जाते हैं तो वह रस कागज पर जम जाता है। इसकी मात्रा में भी यदि कमीवेशी हो जाय तो स्याही अच्छी नहीं बनती। स्याही : विधि निषेध
स्याही बनाने के सम्बन्ध में कुछ विधि निषेध भी हैं - यथा- कज्जल बनाने के लिए तिल के तेल का दिया ही जलाना चाहिए। किसी अन्य प्रकार के तेल से बनाया हुया काजल उपयोगी नहीं होता । गोंद भी नीम, खेर या बबूल ही का लेना चाहिए । इसमें भी नीम सर्वश्रेष्ठ है । धोंक (धव) का गोंद स्याही को नष्ट करने वाला होता है। स्याही में रीगणी नामक पदार्थ, जिसे मराठी में 'डोली' कहते हैं, डालने से उसमें चमक आ जाती है और मक्खियाँ पास नहीं पातीं। जिस स्याही में लाख, कत्था और लोहकीट का प्रयोग किया जाता है उसे ताड़-पत्र आदि पर ही लिखने के काम में लेना चाहिए, कागज और कपड़े पर इसका प्रभाव विपरीत पड़ता है। वह कागज आगे चलकर क्षीण हो जाता हैप्रति लाल पड़ जाती है और पत्र तड़कने लगते हैं। बीआरस की मात्रा अधिक हो जाने से गोंद की चिकनाहट नष्ट हो जाती है और ऐसी स्याही से लिखे पत्रों की रगड़ से अक्षर घुलमिल जाते हैं और प्रति काली पड़ जाती है ।
___ जब किसी संग्रह के ग्रन्थों को देखते हैं तो विभिन्न प्रतियाँ विभिन्न दशा में मिलती हैं । कोई-कोई ग्रन्थ तो कई शताब्दी पुराना होने पर भी बहुत स्वस्थ और ताजी अवस्था में मिलता है। उसका कागज भी अच्छी हालत में होता है और स्याही भी जैसी की तैसी चमकती हुई मिलती है; परन्तु कई ग्रन्थ बाद की शताब्दियों में लिखे होने पर भी उनके पत्र तड़कने वाले हो जाते हैं और अक्षर रगड़ से विकृत पाये जाते हैं। कितनी ही प्रतियाँ ऐसी मिलती हैं कि उनका कुछ भाग काला पड़ा हुआ होता है । ऐसा इसलिए होता है कि वर्षा के बाद कभी-कभी धूप में रखते समय जिन पत्रों को समान रूप से ऊष्मा नहीं पहुँचती अथवा आवश्यकता से अधिक समय तक धूप में रह जाते हैं उनके कुछ हिस्सों की सफेदी उड़ जाती है । कुछ लेखक तो स्याही में चिथड़ा डाल देते हैं (कभी-कभी सर्पाकार) जिससे वह अधिक गाढ़ी या पतली न हो जाय । परन्तु कुछ लेखक लोहे के टुकड़े या कीलें दवात में रख देते हैं । अपर दशा में ऐसा होता है कि उस लोहे का काट हिलाने पर स्याही में मिल जाता
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/59
है और तत्काल उससे लिखी हुई पंक्तियाँ काली पड़ जाती हैं या पत्र का वह भाग छिक जाता है, अतः एक ही पत्र में विभिन्न पंक्तियाँ विभिन्न प्रकार की देखने में आती हैं । प्रतियों की यह खराबियाँ संक्रामक भी होती हैं। कई बार हम देखते हैं कि किसी प्रति के आद्य और अन्त्य पत्र के अतिरिक्त शेष पत्र स्वस्थ दशा में होते हैं । इसका कारण यह होता है कि बस्ते में जब कई प्रतियाँ वाँधी जाती हैं तो उस प्रति के ऊपर नीचे कोई रुग्ण प्रतियाँ रख दी जाती हैं जिनकी स्याही व कागज की विकृति बीच की प्रति के ऊपर-नीचे के पत्रों में पहुंच जाती है । इसीलिए जहाँ तक हो सके वहाँ तक एक प्रति को दूसरी से पृथक् रखना चाहिए । इसके लिए प्रत्येक प्रति को एक स्वच्छ और रूखे सफेद कागज में लपेटना चाहिए (अखबारी कागज में कभी नहीं) और फिर उसको कार्डबोर्ड के दो समाकृति के टुकड़ों के बीच में रखकर वेष्टित करना चाहिए जिससे न तो कार्डबोर्ड का असर प्रति पर पड़ सके और न अन्य प्रति का रोग ही उसमें पहुँच सके । रंगीन स्याही
रंगीन स्याहियां का उपयोग भी ग्रन्थ लेखन में प्राचीन काल से ही होता रहा है । इसमें लाल स्याही का उपयोग बहुधा हुआ है । लाल स्याही के दो प्रकार थे-एक अलता की, दूसरी हिंगलू की। डॉ. पाण्डेय ने बताया है कि--"Red ink was mostly used in the MSS for marking the medial signs and margins on the right and the left sides of the text, sometimes the endings of the chapters, stops and the phrases like 'so and so and said thus' were written with red ink.'2
ओझाजी इनसे पूर्व यह बता चुके हैं कि 'हस्तलिखित वेद के पुस्तकां में स्वरों के चिन्ह, और सब पुस्तकों के पन्नों पर की दाहिनी और बांयी ओर की हाशिये की दो-दो खड़ी लकीरें अलता या हिंगली से बनी हुई होती हैं । कभी-कभी अध्याय की समाप्ति का अंश एवं 'भगवानुवाच्', 'ऋषिरुवाच' आदि वाक्य तथा विरामसूचक खड़ी लकीरें लाल स्याही से बनाई जाती हैं । ज्योतिषी लोग जन्म-पत्र तथा वर्षफल के लम्बे-लम्बे खरड़ों में ग्वड़े हाशिये, आड़ी लकीरें तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की कुण्डलियाँ लाल स्याही से ही बनाते हैं। फलतः काली के बाद लाल स्याही का ही स्थान प्राता है।
पाश्चात्य जगत् में भी लाल स्याही का कुछ ऐसा ही उपयोग होता था। चमकीली लाल स्याही का उपयोग पाश्चात्य जगत् में पुराने ग्रन्थों में सौन्दर्यवर्द्धन के लिए हाता था। इससे प्रारम्भिक अक्षर तथा प्रथम पंक्तियाँ और शीर्षक लिखे जाते थे, इसी से वे 'स्वैरिक्स' कहलाते थे और लेखक कहलाता था 'रुब्रीकेटर' । इसी का हिन्दोस्तानी में अर्थ है 'सुर्जी' । जिसका अर्थ लाल भी होता है और शीर्षक भी। उधर भारत में लाल के बाद
1. हिंगली को शुद्ध करके लाल स्याही बनाने की अच्छी विधि भा. ज. श्र. सं. अने लेखन कला में
पृ.45 पर दी हुई है। 2. Pandey, Bajbali-Indian Poleography, p.85. 3. भारतीय प्राचीन लिपिमाला पृ० 1561 4. '-of coloured varieties red was the most common......'
-Pandey, Rajbali Indian Palaeography, p. 85.
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60/पाण्डुलिपि-विज्ञान
नीली स्याही का भी प्रचलन हुआ, हरी और पीली भी उपयोग में लाई गई । हरी तथा पीली स्याही का भी उपयोग हुआ पर अधिकांशतः जैन ग्रन्थों में ।
अोझाजी ने बताया है कि सूखे हरे रंग को गोंद के पानी में घोल कर हरी जंगाली और हरिताल से पीली स्याही भी लेखक लोग बनाते हैं । सुनहरी एवं रूपहरी स्याही
सोने और चाँदी की स्याही का उपयोग भी पाश्चात्य देशों में तथा भारत में भी हुआ है। साहित्य में भी प्राचीन काल के उल्लेख मिलते हैं। सोने-चांदी में लिखे ग्रन्थ भी मिलते हैं । राजे-महाराजे और धनी लोग ही ऐसी कीमती स्याही की पुस्तकें लिखवा सकते थे । ये स्याहियाँ सोने और चाँदी के वरको से बनती थीं। वरक को खरल में डाल कर धव के गोंद के पानी के साथ खरल में खूब घोंटते थे। इससे वरक का चूर्ण तैयार हो जाता था। फिर साकर (शक्कर) का पानी डाल कर उसे खूब हिलाते थे । चूर्ण के नीचे बैठ जाने पर पानी निकाल देते थे । इसी प्रकार तीन-चार बार धो देने से गोंद निकल जाता था। अब जो शेष रह जाता था वह स्याही थी।
___ सोने और चांदी की स्याही से लिखित प्राचीन ग्रन्थ नहीं मिलते । प्रोझाजी ने अजमेर के कल्याणमल ढड्ढा के कुछ ग्रन्थ देखे थे, ये अधिक प्राचीन नहीं थे । हां, चाँदी की स्याही में लिखा यन्त्रावचूरि ग्रन्थ 15वीं शती का उन्हें विदित हुआ था।
भारतीय जैन श्रमरण संस्कृति अने लेखन कला में अनुष्ठानादि के लिए जन्त्र-मन्त्र लिखने के लिए अष्ट-गन्ध एवं यक्ष कर्दम का और उल्लेख किया गया है । अण्ट-गन्ध दो प्रकार से बनायी जाती है :
एक : 1 अगर, 2. तगर, 3. गोरोचन, 4. कस्तूरी, 5. रक्त चन्दन, 6. चन्दन, 7. सिन्दूर, और 8. केसर को मिला कर बनाते हैं।
दो : 1. कपूर, 2. कस्तूरी, 3. गोरोचन, 4. सिदरफ, 5. केसर, 6. चन्दन, 7. अगर, एवं 8. गेहूला–इससे मिला कर बनाते हैं।
यक्ष कर्दम में 11 वस्तुएं मिलाई जाती हैं : चन्दन, केसर, अगर, बरास, कस्तूरी, मरचकंकोल, गोरोचन, हिंगलो, रतंजणी, सोने के वरक और अंवर । चित्र रचना और रंग
'ऐनसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना' में बताया गया है कि सचित्र पांडुलिपि उस हस्तलिखित पुस्तक को कहते हैं जिसके पाठ को विविध चित्राकृतियों से सजाया गया हो और सुन्दर बनाया गया हो । यह सज्जा रंगों से या सुनहरी और कभी-कभी रूपहली कारीगरी से भी प्रस्तुत की जाती है । इस सज्जा में प्रथमाक्षरों को विशदतापूर्वक चित्रित करने से लेकर विषयानुरूप चित्रों तक का आयोजन भी हो सकता था, या सोने और चांदी से
यह हरिताल, हडताल गलत लिखे शब्द या अक्षर पर फेर कर उस अक्षर को लुप्त किया जाता था। इसी से मुहावरा भी बना 'हड़ताल फेरना-नष्ट कर देना।' भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ.44। भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ.44 । Encyclopaedia Americana (Vc! 18), p. 242.
3.
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FuTurmullaina
खम्भात के कल्पसूत्र का एक चित्र (अपभ्रश, 1481 ई.)
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मोकयामानायक मानिरागसवता विनाशकार:
तिकाले । नासागवावजाति शिववलगाववकाला
MPAWAN
ताड़पत्र की पाण्डुलिपि 'निशीथ चूणिका' पर चित्रित जिन भगवान्
- जैन शैली, 1182 वि०
शाधवाचन तारतमातापिशाखा मेवा ११८४माना । লিহিনয়ে घरमाणाoया
देसल
ताड़पत्र की पाण्डुलिपि 'निशीथचणिका' पर चित्रित सरस्वती
- जैन शैली, 1184 वि०
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ima
SARO0
* लौर चन्दा के चित्र (अपभ्रश, 1540)
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ रचना-प्रक्रिया / 61
चमकते अक्षरों से सजावट कराना। ऐसी सजावट का आरम्भ पश्चिम में 14 वीं शताब्दी मे माना जाता । दाँते ने और चॉसर ने ऐसे चित्रित हस्तलेखों का उल्लेख किया है।
भारत में 'अपभ्रंश शैली' के चित्र जो 11वीं से 16वीं शताब्दी तक बने मुख्यतः हस्तलिखित ग्रन्थों में मिलते हैं । डॉ. रामनाथ ने बताया है कि “मुख्यतः ये चित्र जैन धर्म सम्बन्धी पोथियों (पांडुलिपियों) में बीच-बीच में छोड़े हुए चौकोर स्थानों में बने हुए मिलते हैं ।"
इन चित्रों में पीले और लाल रंगों का प्रयोग अधिक हुआ है । रंगों को गहरागहरा लगाया गया है ।
"गुजरात के पाटन नगर से भगवती सूत्र की एक प्रति 1062 ई० की प्राप्त हुई है । इसमें केवल अलंकरण किया गया है । चित्र नहीं है सबसे पहली चित्रित कृति ताड़पत्र पर लिखित निशीयचूरिर्ण नामक पांडुलिपि है जो सिद्धराज जयसिंह के राज्य काल में 1100 ई० में लिखी गई थी और अब पाटन के जैन-भण्डार में सुरक्षित है । इसमें बेल बूटे और कुछ पशु-आकृतियाँ हैं । 13वीं शताब्दी में देवी-देवताओं के चित्रण का बाहुल्य हो गया। अब तक ये पोथियाँ ताड़पत्र की होती थीं। 14वीं शताब्दी से कागज का प्रयोग हुआ 11 हमें विदित है कि 14वीं शताब्दी में पश्चिम में पार्चमेंट पर पांडुलिपि लिखी जाती थी और उन्हें चित्रित भी किया जाता था । भारत में 3 शताब्दी पूर्व ताड़पत्र पर ही यह चित्र कर्म होने लगा था। भारत में 14वीं शताब्दी तक प्राय: जैन धर्म-ग्रन्थ सचित्र लिखे गये, उधर 'पाल शैली" की चित्रांकित पुस्तकें बौद्ध-धर्म-विषयक थीं। प्राचीनतम पांडुलिपि 980 ई० की मिलती है। डॉ० रामनाथ के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं।
"पाल शैली के अन्तर्गत चित्रित पोथियाँ तालपत्रों में हैं । लम्बे-लम्बे तालपत्र के एक से टुकड़े काट कर उनके बीच में चित्र के लिए स्थान छोड़ कर दोनों ओर ग्रन्थ लिख दिया जाता था । नागरीलिपि में बड़े सुन्दर अक्षरों में यह लिखाई की जाती थी । बीच के खाली स्थानों में सुरुचिपूर्ण रंगों में चित्र बनाये जाते थे । सुन्दर और सुघड़ प्राकृतियाँ बनायी जाती थीं । जिनमें बड़े आकर्षक ढंग से आँखों और अन्य अंग-प्रत्यंगां का आलेखन होता था 13
1451 में चित्रित बसंत - विलास के समय से कला जैन-बौद्ध एवं वैष्णव धर्म का पल्ला छोड़ कर लौकिक हो चली । यह एक नया मोड़ था । काम-शास्त्र के ग्रन्थ ही नहीं, प्रेम गाथाएँ जैसे चन्दायन, मृगावती आदि भी सचित्र मिलती हैं ।
ये चित्र बहुधा रंगीन होते थे । विविध रंगों से चित्रित किये जाते थे । विविध रंगों की स्याही या मषी बनाई जाती थी । काली, लाल, सुनहरी - रुपहली ग्रादि रंगीन स्थाहियों का विवरण ऊपर दिया जा चुका है। लाल रंग हिंगलू से, पीला हड़ताल से, धौला या सफेद सफेदे से तैयार किया जाता था । अन्य मिश्रित रंग भी बनाये जाते थे जैसे, हड़ताल एवं हिंगलू मिला कर नारंगी, हिंगलू और सफेद से गुलाबी, हरताल और काली स्याही मिला कर नीला रंग बनाया जाता था । इसी प्रकार अन्य कई विधियाँ थीं
1. रामनाथ (डॉ.) - मध्यकालीन भारतीय कलाएं और उनका विकास, पृ० 6-7।
2.
वही, पृ० 6-7
3. वही, पृ० 6-7
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62/पाण्डुलिपि-विज्ञान .
जिनसे पुस्तकों को चित्रित करने के लिए भाँति-भाँति के रंग बनाये जाते थे । ये रंग स्याही की तरह ही काम करते थे। सचित्र ग्रन्थों का महत्त्व
गे सचित्र ग्रन्थ कई कारणां से महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं : एक तो ग्रन्थ-रचना के इतिहास में सचित्र पांडुलिपियों का महत्त्व है क्योंकि इन सचित्र ग्रन्थों से विदित होता है कि मानव अपनी अनुभूतियों को किस-किस प्रकार की रंगीनियों और चित्रोपमताओं से व्यक्त करता रहा है । इन अभिव्यक्तियों में उस मानव और उसके वर्ग के सांस्कृतिक बिम्ब भी समाविष्ट मिलते हैं।
दूसरे चित्रित पांडुलिपियों में विविध प्रकार के आकारांकन और अलंकरण मिलते हैं । इनमें इन अंकनों के अनन्त रूप चित्रित हुए हैं जो स्वयं चित्रों की अलंकरण कला के इतिहास के लिए भारी सार्थकता रखते हैं ।
तीसरी बात यह है कि मध्य युग में भारत में दसवीं शताब्दी से पांडुलिपियों में अंकित चित्र' ही एकमात्र ऐसे साधन हैं, जिनसे मध्ययुगीन चित्रकला की प्रवृत्तियाँ एवं स्वरूप समझे जा सकते हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि चित्रित पांडुलिपियों में रंग कौशल के साथ कुछ अन्य बातें भी हैं जो देखनी होती हैं ।
कविता और चित्रकला दोनों ही प्रमुख ललित कलाएँ मानी गई हैं । इसलिए कवि और चित्रकार का चोली-दामन का सा साथ है । जैसे ग्रन्थ को चित्रों से सजाकर सचित्र बनाया जाता था वैसे ही चित्रों को भी कई बार सलेख बनाया जाता था, अर्थात् ग्रन्थ के विषय को समझाने के लिए जैसे चित्र-चित्रित कर दिये जाते थे उसी प्रकार किसी चित्र के विषय को स्पष्ट करने के लिए उस पर लेख या कविता की पंक्ति अंकित कर दी जाती थी। ऐसे चित्र-कर्म के लिए विविध रंगों की स्याहियाँ तैयार की जाती थीं।
___ भोजदेव कृत 'समराँगण-सूत्रधार' (11वीं० श०) में चित्रकर्म के आठ अंगों का वर्णन है । इसी प्रकार विष्णुधर्मोत्तरपुराण में भी चित्रकर्म के गुणाष्टक वणित हैं । इन दोनों में अन्तर अवश्य है, परन्तु लेखन अथवा लेखकर्म प्रायः समान रूप से ही उल्लिखित हैं । ये हैं--1. वतिका, 2. भूमिबन्धन, 3. लेख्य अथवा लेप्य, 4. रेखाकर्माणि, 5. वर्णकर्म (कर्ष कर्म), 6. वर्तनाक्रम, 7. लेखन अथवा लेखकर्म और 8. द्विक कर्म-यह क्रम 'समरांगणसूत्रधार' में बताया गया है।
1. 'वर्तिका' एक प्रकार का 'बरता' या पेंसिल होती है । इसको बनाने का प्रकार यह है कि या तो एक विशेष प्रकार की मिट्टी (जैसे पीली या काली) लेते हैं और उसका लकीरें खींचने में प्रयोग करते हैं अथवा दीपक का काजल लेकर उसको चावल के चूर्ण या आटे में मिलाते हैं और थोड़ा सा गीला करके पेंसिलां जैसी यष्टिका बना कर सुखा देते हैं । चावल के आटे के स्थान पर उबला हुआ चावल भी काम में लिया जा सकता है .
2. 'भूमिबन्धन' से तात्पर्य है चित्र या लेख का आधार स्थिर करना जैसे-दीवार, 1. विस्तृत विवरण के लिए देखिये-भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेग्युन कला', पृ० 119। 2. अंग्रेजी में इन्हें मिनिएचर (Miniature) कहते हैं ।
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/63 काष्ठपट्टिका, कपड़ा, ताड़पत्र, भूर्जपत्र या रेशमी कपड़ा आदि । लकड़ी के पटरे का ताड़पत्र पर पहले सफेद रंग पोतते हैं । यही सफेद रंग चित्र में भी प्रयुक्त होता है।
3. 'लेख्य या लेप्य कर्म' द्वारा चित्र के लिए भूमि का लेपन या आलेखन किया जाता है । जैसे जिन भागों में अमुक रंग या कोई झांई की पृष्ठभूमि तैयार करना है तो तदनुकूल रंग को प्लास्टर की तरह लीपा या पोता जाता है । ग्रन्थ पर चित्र बनाने के लिए यह प्रक्रिया सदैव अावश्यक नहीं होती, चित्र बनाते समय ही पृष्ठभूमि का रंग भी भर दिया जाता है । वृहदाकार भूमि पर चित्रित होने वाले चित्रों के लिए ही इसकी आवश्यकता होती है।
4. 'रेखाकर्म'-फिर, कूची से रेखाएँ खींचकर चित्र का प्रारूप बनाया जाता है जिसको खाका कह सकते हैं ।
5. इसके बाद अर्थात् जब खाका पूर्णतया तैयार हो जाता है तो रंग भरने का काम प्रारम्भ होता है । इसको 'वर्णकर्म' कहते हैं। प्राचीन चित्रकार प्रायः सफेद, पीला, नीला, लाल, काला, और हरा रंग काम में लेते थे । सफेद रंग शंख की राय से बनाया जाता था । पीला रंग हरताल से बनता था और इसका प्रयोग शरीरावयव-संरचना तथा देवताओं के मुखमण्डन के लिए किया जाता था। पूर्वी भारत और नेपाल की चित्रकारियों में ऐसे प्रयोग खूब मिलते हैं। नीला रंग बनाने में नील काम में ली जाती है । यह प्रयोग भारत में सर्वत्र और सभी कालां में होता रहा है । लाल रंग के लिए पालक्तक, लाक्षारस
और गरिक (गैरू) तथा दरद का प्रयोग होता था। काले रंग की तैयारी में कज्जल की प्रधानता थी।
__हरा रंग मिश्र वर्ण कहलाता है । इसको बनाने के लिए नीले और पीले रंगों को बहुत सावधानी से मिलाना होता है, फिर, छाया की मध्यमता अथवा उज्ज्वलता को न्यूनाधिक करने के लिए सफेद रंग भी मिलाया जाता है । प्राचीन भारतीय चित्रों में हरे रंग का प्रयोग कम ही किया जाता था । मुस्लिम-काल में इसका चलन अधिक हुआ है परन्तु देखा गया है कि नील और हरताल के मिश्रण के कारण यह रंग कागज को जल्दी ही क्षति पहुंचाता है। कितने ही प्राचीन चित्रों में जहाँ हाशिये की जगह हरा रंग लगाया गया है वहाँ से कागज जीर्ण होकर गल गया है और बीच का चौखटा बच गया है ।
शिल्परत्न' और 'मानसोल्लास' में रंगों के विषय में विस्तार से लिखा गया है । बताया गया है कि कपित्थ और नीम भी रंग बनाने में प्रयुक्त होते थे।
6. विस्तार और गोलाई प्रशित करने के लिए रंगां में जो हल्कापन और गहरापन देकर स्पष्ट सीमोल्लेखन किया जाता है उसको 'वर्तनाक्रम' कहते हैं । इसमें वर्तनी अर्थात कूची के प्रयोग की सूक्ष्मता का चमत्कार प्रधान होता है । 'विष्णु धर्मोत्तरपुराण' में 'वर्तनाक्रम' का विवरण द्रष्टव्य है।
7. चित्र में अन्तिम निश्चयात्मक रेखांकन को लेखन अथवा 'लेखकर्म' कहते हैं । मूल चित्र से भिन्न रंग में जो चौहद्दी बनाई जाती है वह भी इसी में सम्मिलित है ।
8. कभी-कभी मूल रेखा को अधिक स्पष्ट बनाने के लिए उसको दोहरा बना दिया जाता है-यह 'द्विककर्म' कहलाता है ।
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64/पाण्डुलिपि-विज्ञान ग्रन्थ-रचना के काम के अन्य उपकरण : रेखापाटी या समासपाटी और कांबी
'रेखापाटी' का विवरण अोझाजी ने भारतीय प्राचीन लिपिमाला में दिया है। लकड़ी की पट्टी पर या पट्टे पर डोरियाँ लपेट कर और उन्हें स्थिर कर समानान्तर रेखाएं बनाली जाती हैं । इस पर लिप्यासन या कागज रख कर दबाने से समानान्तर रेखाओं के चिह्न उभर आते हैं । इस प्रकार पांडुलिपि लिखने में रेखाएं समानान्तर रहती
यही काम कांबी या कंबिका से लिया जाता है । यह लकड़ी की पटरी जैसी होती है। इसकी सहायता से कागज पर रेखाएं खींची जाती थीं। कांबी का एक अन्य उपयोग होता था । पुस्तक पढ़ते समय हाथ फेरने से पुस्तक खराब न हो, इस निमित्त कांबी (सं० कंबिका) का उपयोग किया जाता था । इसे पढ़ते समय अक्षरों की रेखाओं के सहारे रखते थे, और उस पर उंगली रख कर शब्दों को बताते जाते थे । यह सामान्यतः बाँस की चपटी चिप्पट होती थी। यों यह हाथी दांत, अकीक, चन्दन, शीशम, शाल वगैरह की भी बनाली जाती थी। डोरा : डोरी
ताड़पत्र के ग्रन्थों के पन्ने अस्तव्यस्त न हो जायं इसलिए एक विधि का उपयोग किया जाता था । ताड़पत्रों की लम्बाई के बीचोंबीच ताड़पत्रों को छेद कर एक डोरा नीचे से ऊपर तक पिरो दिया जाता था। इस डोरे से सभी पत्र नत्थी होकर यथास्थान रहते थे । लेखक प्रत्येक पन्ने के बीच में एक स्थान कोरा छोड़ देता था । यह स्थान डोरे के छेद के लिए ही छोड़ा जाता था । ताड़पत्रों के इस कोरे स्थान पर की पावृत्ति हमें कागजों पर लिखे ग्रन्थों में भी मिलती है । अब यह लकीर पीटने के समान है, अनावश्यक है । हाँ, लेखक का कुछ कौशल अवश्य लक्षित होता है कि वह इस विधि से लिखता है वह स्थान छूटा हुअा भी सुन्दर लगता है। ग्रन्थि
___- डोरी से ग्रन्थ या पुस्तक के पन्नों को सूत्र-बद्ध करके इन डोरों को काष्ठ की उन पट्टिकाओं में छेद करके निकाला जाता था, जो पुस्तक की लम्बाई-चौड़ाई के अनुसार काट कर ग्रन्थ के दोनों ओर लगाई जाती थीं । इनके ऊपर डोरियों को कस कर ग्रन्थि लगाई जाती थी। यह प्राचीन प्रणाली है । हर्ष चरित में सूत्रवेष्टनम् का उल्लेख मिलता है । इन डोरों को उक्त काष्ठपाटी में से निकाल कर ग्रन्थि या गाँठ देने के लिए विशेष प्रणाली अपनाई गई-लकड़ी, हाथीदाँत, नारियल के खोपड़े का टुकड़ा लेकर उसे गोल चिपटी चकरी 1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 157 । 2. वही, पृ. 1581 3. भारतीय जैन श्रमण सस्कृति अने लेखन कला, पृ० 19।
(93) Wooden covers, cut according to the siza of the sheets, were placed on the Bhurja and Palm leaves, which had been drawn on strings, and rhis is still the custom even with the paper MSS. In Southern India the covers are mostly pierced by holes, through which the long strings are passed. The latter are wound round the covers and knotted.
-Buhler, G.-Indian Palaeography.p. 147.
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अस्कहायो तुमननहारैःजोनसरुपरयो
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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/65
चतुरभुजदास की मधुमालती में मैनांसत प्रसंग
जातनधारकडोर एतका
प्रपामारी विचारदिस्यको शिन्देहीमालवितात माददिन भरनलैटैकोयत्या
बाजातातोपणराया जा जिनीलाध्यौ मन्यवचनमेल साबरवारकाकामका दिग्देहीमनीनुन नोकदातर साललोयरमतवंताना मेोप जनजायनामापावरक्षाएका सावधदारीनाटनटाला मंजीदरिकोंधानलमायन चोरकरस्मारण्देश्वी सदर बनमयो मिलाकुसरचय वना नियमवनलाया माममक्दिा नायनावादापतित|
हम इतराधाकिरतार उतनंदा परिसमापदरीकरमारएस्ताददायान्यूदङवाधरे नावाचसोपाय शिरपति
करसानरकयाराममायरलेारकमादागाचवीलोश्केकदेखनापीयवार उमा स्वसाकानारामनाबालकतरजाताना कंगा यानादकतासकथमन गनबाई यानीयवाकरमश सत्राध्यागोयलपापीलारकेतीपकड़बोलाइव नागबैंग पकेसरंकीडझायों को पारिंगआबईदागोएकमेगायक तार के नावार साहयतीपरीभनोलारमार ब काशहकाराधिनदाइरादा परमारफिरामोरेशकशनदेवनदाय
पायदानासपनेहात पतिवता यावर पवित्रतापूस्तीतयेद शेख रहावाशार यतःसारखी नानुगरोह
सावधानवाकोदय विदामारनेशन कायज्योरममाश्यांगणेवादीलेव मजरकोशवपाजणे सयोगंडकीकात लापरवटेणेवाकाकवारुवाचार
तोषकोई ताकेजशावादेश मदिरोयलतीभव्या कलाविले मादेवयनःमगतमालालाच समय अमनोयोदवारसग मिनरचना
पक्षवामाचावीमारिजातले
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मनांसत प्रसंग का अन्तिम पत्र
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66/पाण्डुलिपि-विज्ञान
के रूप की बना लेते हैं, उसमें छेद कर उस डोर या डोरी की इस चकरी में से निकाल कर बाँधते हैं, यथार्थ में ये चकरियाँ ही ग्रन्थि या गांठ कही जाती हैं ।। हड़ताल
पुस्तक-लेखन में 'हड़ताल' फेरने का उल्लेख मिलता है । हड़ताल या हरताल का उपयोग हस्तलेखों में उन स्थलों या अंशों को मिटाने के लिए किया जाता था, जो गलत लिख लिये गये थे । 'हरताल' से पीली स्याही भी बनाई जाती है । हरताल फेर देने से वह गलत लिखावट पीले रंग के लेप से ढक जाती है। कभी-कभी हड़ताल के स्थान पर मफेद का उपयोग किया जाता है। परकार
अोझाजी ने बताया है कि प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों में कभी-कभी विषय की समाप्ति आदि पर स्याही से बने कमल मिलते हैं । वे परकारों से ही बनाये हुए मिलते हैं। वे इतने छोटे होते हैं कि उनके लिए जो परकार काम में आये होंगे वे बड़े सुक्ष्म मान के होने चाहिये ।
1. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ.201 2. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 1571
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अध्याय 3
पाण्डुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न :
क्षेत्रीय अनुसन्धान
. 'पाण्डुलिपि-विज्ञान' सबसे पहले 'पांडुलिपि' को प्राप्त करने पर और इसी से सम्बन्धित अन्य प्रारम्भिक प्रयत्नों पर ध्यान देता है। इस विज्ञान की दृष्टि से यह समस्त प्रत्यन 'क्षेत्रीय अनुसंधान' के अन्तर्गत आता है । क्षेत्र एवं प्रकार
पांडुलिपि-प्राप्ति के सामान्यतः दो क्षेत्र हैं-प्रथम पुस्तकालय, तथा द्वितीय निजी । पुस्तकालयों के तीन प्रकार मिलते हैं--एक धार्मिक, दूसरा राजकीय तथा तीसरा विद्यालयों के पुस्तकालयों का ।
1. धार्मिक पुस्तकालय-ये धार्मिक मठों, मन्दिरों, बिहारों में होते हैं । 2. राजकीय पुस्तकालय-राज्य के द्वारा स्थापित किये जाते हैं । 3. विद्यालय पुस्तकालय-इनका क्षेत्र विद्यालयों में होता है ।
पूर्वकाल में यह विद्यालय-पुस्तकालय धर्म या राज्य दोनों में से किसी भी क्षेत्र में या दोनों में हो सकता था । आजकल इसका स्वतन्त्र अस्तित्व है। निजी क्षेत्र
भारत में घर-घर में ग्रन्थ-रत्नों को पुराने समय से धार्मिक प्रतिष्ठाएँ मिली हुई थी। किसी के घर में पांडलिपियों का होना गर्व और गौरव की बात मानी जाती थी । इन पोथियों की पूजा भी की जाती थी। अतः बीसवीं शती में ग्रंथानुसंधान करने पर घर-घर में हस्तलिखित ग्रंथों के होने का पता चला। काशी नागरी-प्रचारिणी सभा ने सन् 1900 ई० से जो खोज कराई उससे हमारे इस कथन की पुष्टि होती है । राजस्थान में भी यही स्थिति है । यहाँ तो निजी ग्रंथागार काफी अच्छे हैं । डॉ० ओझाजी ने 'भारतीय प्राचीन लिपिमाला' में अजमेर के सेठ कल्याणमल ढढ्ढा के पुस्तकालय का उल्लेख किया है जिसमें मूल्यावान स्वर्ण और रजत में लिखे ग्रंथ थे । यह पुस्तकालय निजी था । बीकानेर में श्री अगरचन्द नाहटा का निजी भण्डार काफी बड़ा है । यहीं बिहार के 'खुदाबख्श पुस्तकालय' का उल्लेख भी करना होगा । यह खुदाबख्श का निजी पुस्तकालय था । खुदाबख्श को अपने पिता से उत्तराधिकार में 1900 पांडुलिपियाँ मिली थीं । खुदाबख्श ने इस संग्रह को और समृद्ध किया। 1891 में जब इसे सार्वजनिक पुस्तकालय का रूप दिया गया तब इसमें पांडुलिपियों की संख्या 6000 हो गई थी । सन् 1976 में इस पुस्तकालय में 12000
1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ० 156 ।
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68/पाण्डुलिपि-विज्ञान
पांडुलिपियाँ थीं, 50,000 मुद्रित ग्रन्थ थे । इसी प्रकार बिहार के ही भरतपुरा गांव के श्री गोपाल नारायण सिंह का संग्रहालय भी पहले निजी ही था । सन् 1912 में इसे सार्वजनिक पुस्तकालय बनाया गया। इस समय इसमें 4000 पांडुलिपियाँ हैं, ऐसा बताया जाता है। खोजकर्ता
हस्तलेखों की खोज करने वाले व्यक्ति पांडुलिपि-विज्ञान के क्षेत्र के अग्रदूत माने जा सकते हैं। पर, उन्होंने जिम समय से कार्य प्रारम्भ किया, उस समय भी दो कोटियों के व्यक्ति पांडुलिपियों के क्षेत्र में कार्य में संलग्न थे । एक कोटि के अन्तर्गत उच्चस्तरीय विद्वान् थे जो हस्तलिखित ग्रन्थों और ऐतिहासिक सामग्री की शोध में प्रवृत्त थे, जैसे-कर्नल टॉड, हॉर्नले, स्टेन कोनो, बेडेल, टेसिटरी, आरेल स्टाइन, डॉ० ग्रियर्सन, महामहोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री, काशी प्रसाद जायसवाल, मुनि पुण्यविजय जी, मुनि जिनविजय जी, डॉ० राहुल सांकृत्यायन, डॉ० रघुवीर, डॉ० भण्डारकर, श्री अगरचन्द नाहटा, डॉ० भोगीलाल मांडेसरा, डॉ० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, भाष्कर रामचन्द्र भालेराव आदि । दूसरी कोटि उनकी है जिन्हें एजेण्ट अथवा खोजकर्ता कहा जा सकता है । ये किसी संस्था की ओर से इस कार्य के लिए नियुक्त थे ।
इनमें से प्रथम कोटि का कार्य विशिष्ट प्रकृति का होता है, उसके अन्तर्गत उनको पांडुलिपि के मर्म और महत्त्व का तथा उसके योगदान का वैज्ञानिक प्रामाणिकता के आधार पर निर्णय करना होता है ।
दूसरा वर्ग सामग्री एकत्र करता है । घर-घर जाता है और जहाँ भी जो सामग्रो उसे मिलती है वह उसे या तो उपलब्ध करता है या फिर उसका विवरण या टीप ले लेता है । स्वयं वस्तु को या ग्रन्थ को प्राप्त करना तो बड़ी उपलब्धि है । पर उसका विवरण, दीप या प्रतिवेदन (रिपोर्ट) भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । पुस्तक उपलब्ध हो जाने पर भी विवरण प्रस्तुत करना पहली आवश्यकता है। किन्तु इससे भी पहला चरण तो ग्रन्थ तक पहुँचना ही है।
___ अतः सबसे पहला प्रश्न यही है कि पांडुलिपियों का पता कैसे लगाया जाय ? इसके लिए ग्रन्थ-खोजकर्ता में साधारण तत्पर बुद्धि होनी ही चाहिये, उसमें समाज-प्रिय या लोकप्रिय होने के गुण होने चाहिये । उसमें विविध व्यक्तियों के मनोभावों को तोड़ने या समझने की बुद्धि भी होनी चाहिये जो साधारण बुद्धि का ही एक पक्ष है । फिर, उसके पास कोई ऐसा गुण (हुनर) भी होना चाहिये जिससे वह दूसरों की कृतज्ञता पा सके । जहाँ ग्रन्थों की टोह लगे वहाँ के लोगों का विश्वास पा सकने की क्षमता भी होना अपेक्षित है। विश्वासपात्रता प्राप्त करने के लिए उस क्षेत्र में प्रभाव रखने वाले व्यक्तियों से परिचय-पत्र ले लेने चाहिये । ऐसे क्षेत्रों में मुखिया, पटवारी, जमींदार तथा पाठशाला के अध्यापक अपनाअपना प्रभाव रखते हैं । इन व्यक्तियों से मिलकर हम अच्छी तरह ग्रन्थों का पता भी लगा
कते हैं तथा सामग्री भी जुटा सकते हैं। ज्योतिष या हस्तरेखा-विज्ञान और वैद्यक को कुछ जानकारी ग्रन्थ-खोजकर्ता को सहायक सिद्ध हुई है । इनके कारण लोग उसकी ओर सहज रूप से आकृष्ट हो सकते हैं। इसी प्रकार पशु-चिकित्सा का कुछ ज्ञान हो तो क्षेत्रीय कार्य में उपयोगी होगा तथा दैनिक जीवन में काम आने वाली ऐसी अन्य चीजों को यदि वह जानता
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान/69
है, जिनके न जानने से मनुष्य दुःखी रहते हैं तो वे उसकी सहायता करने के लिए मदा प्रस्तुत रहेंगे । व्युत्पन्न-मति और तत्परबुद्धि भी बड़ी सहायक सिद्ध हुई है।
काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा के एक ग्रन्थ-खोजकर्ता मेरे मित्र थे। उनकी सफलता का एक बड़ा कारण यही था कि वे हस्तरेखा विज्ञान भी जानते थे और कुछ वैद्यक भी जानते थे । आकर्षक ढंग से लच्छेदार रोचक बातें करना भी उन्हें पाता था। यह भी एक बहुत बड़ा गुण है।
हस्तलिखित पुस्तकों की खोज का ऊपर दिया गया विवरण यह बताता है कि पांडुलिपियों का संग्रह किसी संस्थान या किसी पांडुलिपि विभाग के लिए किया जा रहा है। ऊपर दी गई पद्धति से निजी संग्रहालय के लिए भी पांडुलिपियाँ प्राप्त की जा सकती हैं ।
व्यवसायी माध्यम-कुछ व्यक्ति व्यवसाय के लिए, अपने लिए अर्थ-लाभ की दृष्टि से स्वयं अनेक विधियों से जहाँ-तहाँ से ग्रन्थ प्राप्त करते हैं, मुफ्त में या बहुत कम दामों में खरीदकर वे संस्थाओं को और व्यक्तियों को अधिक दामों में बेच देते हैं । राजस्थान में राजाओं और सामन्तों की स्थिति बिगड़ने से उनके संग्रहों से हस्तलेख इन व्यवसायियों ने प्राप्त किये थे। कभी-कभी ये ग्रन्थ ऐसे विद्वानों, कवियों और पण्डितों के घरों में भी मिलते हैं जिनकी संतान उन ग्रन्थों का मूल्य नहीं समझती थी, या आर्थिक संकट में पड़ गयी थी। व्यवसायी इनसे वे ग्रन्थ प्राप्त कर लेते हैं और संस्थानों को बेच देते हैं । ऐसे व्यवसायियों मे भी ग्रंथ प्राप्त किये जा सकते हैं ।
साभिप्राय खोज-खोज के सामान्य रूपों की चर्चा की जा चुकी है। इनके तीन प्रकार बताये जा चुके हैं--1. शौकियासंग्रह, जो प्रायः निजी संग्रहालयों का रूप ले लेते हैं । खुदाबख्श पुस्तकालय का उल्लेख हम कर चुके हैं । 2. संस्था के निमित्त वेतनभोगी एजेण्ट द्वारा, जैसे-नागरी-प्रचारिणी-सभा ने कराया। दान की भावना से भी ग्रन्थ मिले हैं। कुछ व्यक्तियों ने अपने निजी संग्रहालय भावी सुरक्षा की भावना से किसी प्रतिष्ठित संस्थान को भेंट कर दिये हैं । 3. व्यवसायी के माध्यम से संग्रह ।
सामान्य खोज तो होती है, पर कभी-कभी साभिप्राय खोज भी होती है । यह खोज किसी या किन्हीं विशेष हस्तलेखों के लिए होती है । इन खोजों का इतिहास कभी-कभी बहुत रोचक होता है । साभिप्राय खोज की दृष्टि से पहले यह जानना अपेक्षित होता है कि जिस ग्रन्थ को आप चाहते हैं वह कहाँ है ? इसके लिए आप विविध संग्रहालयों में जाकर सूचियाँ या आगारों का अवलोकन करते हैं, कुछ जानकारी से पूछते हैं । मुल्ला दाऊद कृत 'चन्दायन' को प्राप्त करने का इतिहास लें । आगरा विश्वविद्यालय के क० मु० हिन्दी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ ने प्रारम्भ में ही निर्णय लिया कि 'चन्दायन' का सम्पादन किया जाय ।
यह सुझाव डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने दिया था। उनके सुझाव पर शिमला के राष्ट्रीय संग्रहालय को लिखा गया, उसका कुछ अंश वहीं पर था। उसकी फोटोस्टेट प्रतियाँ मंगवायीं गयीं । विदित हुआ कि इसी ग्रन्थ के कुछ अंश पाकिस्तान में उनके लाहौर के राष्ट्रीय आगार में हैं । उनसे भी फोटोस्टेट प्रतियाँ प्राप्त की गयीं। और भी जहाँ-तहाँ संपर्क किये गये । तब जितने पृष्ठ मिले उन्हें ही सम्पादित किया गया । पर, यह आवश्यकता रही कि इसकी पूरी व्यवस्थित प्रति कहीं से प्राप्त की जाय । हिन्दी विद्यापीठ को तो वह प्राप्त नहीं हो सकी परन्तु डॉ. परमेश्वरी लाल गुप्त उसे प्राप्त कर सके । कैसे प्राप्त की,
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70/पाण्डुलिपि-विज्ञान इसका रोचक वृत्तान्त यहाँ दिया जाता है । इससे खोज के एक और मार्ग का निर्देश होता
. डॉ० परमेश्वरी लाल गुप्त ने एक भेटवार्ता में बताया कि 'चन्दायन' की उन्होंने जिस प्रकार खोज को उसे 'जासूसी' कहा जा सकता है ।।
डॉ० गुप्त को प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम में चन्दायन के कुछ पृष्ठ मिले । उन पर भूमिका लिखने के लिए वे 'गार्सा द तासी' का 'हिंदुई साहित्य का इतिहास के पन्ने पलट रहे थे कि उनका ध्यान उस उल्लेख की ओर आकर्षित हुआ जिसमें तासी ने बताया था कि ड्यूक ऑफ ससक्स के पुस्तकालय में हूरक और हंदा की कहानी का सचित्र ग्रन्थ था। डॉ० गुप्त समझ गये कि यह हरक हंदा 'लूरक या लोरिक' चन्दा ही है । यह उल्लेख तासी ने 1834 ई. में किया था।
डॉ० गुप्त जानते थे कि किसी बड़े ड्यूक के मरने के बाद उसका पुस्तकालय बेचा गया होगा। उन्होंने यह भी अनुमान लगा लिया कि वह पुरानी पुस्तकों के विक्रेताओं ने वरीदा होगा और फुटकर बिक्री की गयी होगी।
यह अनुमान कर उन्होंने इण्डिया आफिस (लंदन) ब्रिटिश म्यूजियम से प्राचीन पुस्तक विक्रेताओं द्वारा प्रकाशित सूची-पत्र प्राप्त किये । उनसे पता चला कि ससैक्स का पुस्तकालय लिली नाम के विक्रेता ने खरीदा था ।
आगे पता लगाया तो विदित हुआ कि लिली से अरबी-फारसी के ग्रन्थ इन भाषाओं के च विद्वान ग्लांड ने खरीदे ।
पता लगा कि ग्लांड मर चुके हैं, पुस्तकालय बिक चुका है।
खोज आगे की। उनका संग्रह इंग्लैण्ड के किसी अर्ल ने खरीदा था । अर्ल को पत्र लिखा । उत्तर देने वाले अर्ल ने बताया कि उनके पिताजी का संग्रह मेनचेस्टर विश्वविद्यालय के रिलैंड पुस्तकालय में है।
वहाँ वह पुस्तक डॉ० गुप्त को मिल गयी।
इस विवरण से यह सिद्ध हुआ कि एक सूत्र को पकड़ कर अनुमान के सहारे आगे बढ़कर अन्य सूत्र तक पहुँचा जा सकता है, उससे अन्य सूत्र मिल सकते हैं तब अभीष्ट ग्रंथ प्राप्त हो सकता है। किन्तु इसके लिए सूत्र मिलते जाने चाहिये । भारत में ऐसे सूत्र आसानी से नहीं मिलते हैं।
नागरी-प्रचारिणी-सभा की खोज-रिपोटों में प्रत्येक हस्तलेख के मालिक का नाम दिया रहता है । पूरा पता भी रहता है । आज पत्र लिखने पर न तो कोई उत्तर पायेगा, और न आगे खोज करने पर ही कुछ पता चलेगा।
किन्तु इस प्रकार की खोज में सूत्र से सूत्र मिलाने में भी कितने ही अनुमान और उनके आधार पर कितने ही प्रकार के प्रयत्नों की अपेक्षा रहती है । बड़े धैर्यपूर्वक एक के बाद दूसरे अनुमान करके उनसे सूत्र मिलाने के प्रयत्न किये जाते हैं ।
निश्चय ही यह भी पुस्तक खोज का एक मार्ग है । ग्रन्थ शोधक को एक डायरी रखनी चाहिये । इसमें उसे अपने किये गये दैनंदिन
1. कादम्बिनी (मासिक प्रकाशन, जून 1975), निबन्ध : तस्करी के जाल में कला-कृतियाँ', प्रस्तोता :
. श्री रतीलाल शाहीन : १० 44।
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान/71
उद्योगों का पूरा विवरण देना चाहिये । उसमें ये बातें रहनी चाहिये : गाँव का परिचय, जिसके यहाँ ग्रन्थ मिलता है उस व्यक्ति का नाम, उसकी जाति, उसके माँ-बाप का परिचय, उसकी पीढ़ियों का संक्षिप्त इतिहास तथा यह सूचना भी कि वह ग्रंथ उनके घर में कब से है। इस प्रकार उस ग्रन्थ का उस घर में आने और रहने का पूरा इतिहास उस डायरी में सुरक्षित हो जायगा । कितने ग्रन्थ आपको मिले और वह किस दशा में थे, वेष्टनों में लपेटे हुए रखे थे या यों ही ढेर में पड़े थे ? यह उल्लेख करने की भी जरूरत है कि वे ग्रन्थ पत्रों के रूप में हैं या सिली पुस्तक के रूप में । ग्रन्थकार या रचयिता का समस्त उपलब्ध परिचय दें। जिस व्यक्ति के पास वह ग्रन्थ है उस व्यक्ति से रचयिता के सम्बन्ध का पूरा परिचय भी दें। ग्रन्थ का लेखक कौन है ? यह ग्रन्थकार किस समय हुआ ? ग्रंथ और उसके लेग्नक के संबंध में कुछ किंवदन्तियाँ प्रचलित हों तो उन्हें भी डायरी में लिख लेना चाहिये।
अब पहला प्रयत्न तो यह करना चाहिए कि जिन ग्रन्थों का पता लगा है, उन्हें प्राप्त कर लिया जाय । यदि आपको ग्रन्थ भेंट में या दान में मिल जाते हैं तो वहुत अच्छा है, किन्तु यदि मूल्य से भी प्राप्त हो जाते हैं तो भी सफलता में चार चाँद लगे माने जाते हैं। किमी पांडुलिपि का मूल्य निर्धारण करना कठिन कार्य है । जिन क्षेत्रों में पांडुलिपियों के महत्त्व के विषय में चेतना नहीं है वहाँ से नाममात्र का मूल्य देकर पुस्तकें पांडुलिपियाँ प्राप्त की गयी हैं किन्तु जिस क्षेत्र में यह चेतना आ गयी है, वहाँ तो ग्रन्थ के महत्त्व का मूल्यांकन कर ही मूल्य निर्धारित करना पड़ेगा । ग्रन्थ का महत्त्व उसके रचना-काल, उसमें वणित विषय की उत्कृष्टता, उसकी लेखा-प्रणाली का वैशिष्ट्य, उसमें दिये चित्र तथा सज्जा की कला आदि अनेक बातों पर निर्भर करता है।
मूल्य देकर प्राप्त या भेंट, दान में प्राप्त ग्रन्थों के सम्बन्ध में विक्रेता या दाता से प्रमाण-पत्र लेना भी अत्यन्त आवश्यक है। इसमें विक्रेता या दाता यही लिखेगा कि यह ग्रन्थ उसकी अपनी सम्पत्ति है और उसे उसके हस्तान्तरण का अधिकार है। यदि ग्रन्थ का स्वामित्व न मिल पाये तो भी ग्रन्थ का विवरण अवश्य ले लेना चाहिये । विवरण लेना
यदि ग्रन्थ घर ले जाने के लिए न मिले तो समय निकाल कर ग्रन्थ के मालिक के घर पर ही उसकी टीप ले लें । साधारण परिचय में सबसे पहले उस ग्रन्थ के आकार-प्रकार का भी परिचय दें। इसके बाद आप देखें कि वह कितने पृष्ठ का है, उसकी लम्बाई-चौड़ाई
और हाशिया कितना और कैसा है ? हाशिया दोनों ओर कितना छूटा हुआ है और मुख्य लिखावट कितने भाग में है । यह नाप कर हमें लिख देने की आवश्यकता है । उसमें कुल कितने पृष्ठ हैं और उनमें से सभी पृष्ठ हैं या कुछ खो गये हैं, पूरी पुस्तक में पृष्ठ कहाँ-कहाँ कटे-फटे होने से हमें सहायता नहीं पहुंचाते, छन्दों की संख्या कितनी है, किसी छन्द का क्रम भंग तो नहीं है, अध्याय के अनुसार तो छन्द नहीं बदले गये हैं ? एक पूरे पृष्ठ में कितनी पक्तियाँ हैं ? इस तरह हरेक पृष्ठ की पंक्तियाँ गिनना जरूरी है। यह भी देखना होगा कि उसका कागज किस प्रकार
यहाँ तक ग्रन्थ का बाहरी परिचय पाने का प्रयत्न हुआ ।
अब हम ग्रन्थ के अन्तरंग की ओर चलते हैं। इसमें तीन बातें देखनी चाहिये, पहली बात तो यह देखनी होगी कि प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने क्या किसी देवता या राजा की
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72/पाण्डुलिपि-विज्ञान
स्तुति की है, अपने गुरु को स्तुति की है ? फिर क्या अपना तथा अपने कुटुम्ब का परिचय दिया है और क्या रचना का रचनाकाल दिया है ? कहीं-कहीं ये बातें ग्रन्थ के अन्त में होता है । यह 'पुष्पिका' कहलाती है । प्रायः ग्रन्थ के अन्त में अनुक्रमणिका भी होती है, और प्रलोक ज्या दे दी जाती है । इनकी टीप लेना भी आवश्यक है।
___ जो हस्तलिखित ग्रन्थ आपको उपलब्ध हुए हैं यदि उनमें से कुछ ऐसे हैं जो छप चुके हैं तो भी उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये । वे बहुत मूल्यवान सिद्ध हो सकते हैं । कभीकभी उनमें भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अनोखी वीजें मिलने की सम्भावना रहती है। वे पाठालोचन में उपयोगी हो सकते हैं । अब यह देखना चाहिये कि उस ग्रन्थ की भाषा किम प्रकार की है। उसमें कितने प्रकार के कितने छन्द हैं और कौन-कौन से विषय ग्रन्थ में आए हैं, उन विषयों का ग्रंथ में किस प्रकार उल्लेख किया गया है ? पांडुलिपियों में साधारणतः तिथियाँ खास ढंग से दी हुई होती हैं। बहुधा ये तिथियाँ और संवत् 'अंकानां वामतो गतिः' के अनुसार उलटे पढ़े जाते हैं । फिर यह देखना चाहिये कि उस ग्रंथ की शैली क्या है ? उसमें स्फुटपद हैं अथवा वह प्रवन्धकाव्य है, आदि से अन्त तक समस्त ग्रंथ छंद में ही लिला गया है या बीच-बीच में गद्य भी सम्मिलित है, गद्य किस अभिप्राय से किस रूप में
आया है, इन बातों का भी टीप में विवरण दिया जाना चाहिये । विवरण प्रस्तुत करने का स्वरूप
इस प्रकार ग्रन्थ तक पहुँच कर और उससे कुछ परिचित होकर पहली आवश्यकता होती है कि उसका व्यवस्थित विवरण प्रस्तुत किया जाय । यहाँ हम कुछ विवरण उद्धृत कर रहे हैं, जिनसे उनके वैज्ञानिक या व्यवस्थित स्वरूप की स्थापना में सहायता मिल सकती है। उदाहरण : कुब्जिकामतम् का
1898-99 में महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने एशियाटिक सोसायटी प्राव बंगाल के तत्त्वावधान में नेपाल राज्य के दरबार पुस्तकालय के ग्रन्थों का अवलोकन किया और उन ग्रन्थों का विवरण प्रस्तुत किया। उसमें से एक ग्रन्थ 'कब्जिकामतम्' का विवरण यहाँ दिया जाता है।
(क) (29।का) (ख) कुब्जिकामतम् (कुलालिकाभ्नायान्तर्गतम्) (ग) 10X1. inches, (घ) Folio, 152 (ड) Lines 6 on a page (च) Extent 2,964 slokas, (छ) Character Newari, (ज) Date ; Newar Era 229, (भ) Appearence, Old (st; Verse.
BEGINNING ॐ नमो महाभैरवाया संकर्ता मण्डलान्ते क्रमपदनिहितानन्दशक्तिः सुभीमा शृस्टक्षाढ्यं चतुष्कं अकुलकुलनतं पंचकं चान्यपट्कम् । चत्वारः पंचकोऽन्यः पुनरपि चतुरस्तत्वती मण्डलेदं संस्टष्टं येन तस्मै नमत गुरुतरं भैरवं श्रीकुजेशम् ।।2।।
1. Sastri, H. P.--A Catalogue of Palm leaf and Selected Paper MSS belonging to
the Durhar Library. Nepal.
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान/73
श्री
...........
___ मरिमवतः पृष्ठे त्रिकूटशिखरानुगम् सन्तानपुटमध्य स्थमनेका काररूपिणम् ॥
........."त्रिप्रकारन्तु त्रिशक्ति त्रिणुणोज्वलम् चन्द्र सूर्यकृता.............."स्वाह्नि देदीप्यवर्चसम् । .................................................................... कार्यकारणाभेदेन किंचित्कालमपेक्षया । तिष्ठते भैरवीशानं मौनमांदाय निश्चलम् (?) तत्र देवगणाः सर्वे सकिन्नरमहोरगा । कुर्वन्ति कलकलारावं समागत्य समीपतः ।। श्रुत्वा कलकलारावं को भवान् किमिहागतः हिमवान् तु श्रसत्रात्मा गतोह्यन्वेषणं प्रति ॥ इत्यादि । नानेन रहिता सिद्धिमुक्तिर्न विद्यते ।
निराधारपदं ह्य तत् तद्वेद परमपदम् ।। COLOPHON इति कुलालिका भांये श्रीमत् कुब्जिकामते समस्तस्थानावबोधश्चर्या
निर्देशो (2) नाम पंचविंशतिमः पटल समाप्तः । संवत् 299 फाल्गुन कृष्णा । विषय: इति श्री कुलालिकान्भाये श्री कुब्जिकामते चन्द्रद्वीपावतारो नामः 11 पटल ।
आपय्याय कौमार्याधिकारी नाम ।। मन्थानभेद प्रचाररतिसंगमो नाम ।। मन्त्रनिर्णयो गह्वर मालिन्यो द्वारे ।। बृहत्समयोद्धारः शब्दराशि मालिनीतद्ग्रह व्याप्ति निर्णय 151 मुद्रानिर्णयः
161 मंत्रोद्धारे षंडगविधाधिकारोनाम 171 स्वच्छन्दशिखाधिकारो
नाम
181 शिरवाकल्येक देशा (?) नाम । देव्यासमयो (?) नाम मन्त्रोच्चारे ।10। षट्प्रकार
निर्णयो
नाम 1111 षट्प्रकारधिकारवर्णनो
1121 दक्षिणाषट् कपटिज्ञानो नाम ।13। देवीदूती निर्णयो
नाम 1141 षट् प्रकारे योगिनी निर्णयः ।151 षट् प्रकारे महानन्द मन्त्रको नाम ।16। पदद्वय हैस निर्णयो नाम 1171 चतुष्कस्य
पदमेदम्
1181 चतुष्क निर्णयो
1191
जय
नाम
नाम
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74/पाण्डुलिपि-विज्ञान
नाम
चन्द्र द्वीपायतारो द्वीपानायो
नाम समस्त व्यस्तव्याधि निर्णयो नाम त्रिः कालमुत् कान्ति सम्बन्धः तद्ग्रंह्य पूजा विधि पवित्रारोहरणम् समस्त स्थानावस्कंघश्चर्या निर्देशो (?) नाम
1201 1211 1221 1231 1241 1251
इसमें सबसे पहले (क) ग्रन्थ की पुस्तकालय-गत संख्या विदित होती है। यह ग्रन्थसन्दर्भ है । (ख) पुस्तक का नाम उसकी उप-व्याख्या के साथ है। उप-व्याख्या कोष्ठकों में दी गई है।
(ग) में पुस्तक का आकार बताने के लिए पृष्ठ की लम्बाई 10 इंच, चौड़ाई 11 इंच बताई गई है । इसे संक्षेप में यों 10" x 1" बताया गया है। (घ) में फोलियो या पृष्ठ संख्या बताई गई है । यह 152 है। (ङ) में प्रत्येक पृष्ठ में पंक्ति संख्या बतायी गयी है। 6 पंक्ति प्रति पृष्ठ । (च) में ग्रन्थ परिमाण-कुल श्लोक संख्या 2964 बतायी गयी है। (छ) में लिपि प्रकार है-लिपि प्रकार 'नेवारी लिपि' बताया गया है। (ज) में तिथि का उल्लेख है-यह है नेवारी संवत् 299 । (झ) में 'रूप' का विवरण है-रूप में यह प्रति प्राचीन लगती है । पद्यबद्ध है, यह बात (अ) में बतायी गयी है।
इतनी सूचनाएं देकर ग्रन्थ में से पहले प्रारम्भ के कुछ पद्य उदाहरणार्थ दिये गये हैं । तब 'अन्त' के भी कुछ अंश उदाहरणस्वरूप दिये गये हैं ।
यहीं पुष्पिका (Colophon) उद्धृत की गई है । यहाँ तक ग्रन्थ के रूप-विन्यास का आवश्यक विवरण दिया गया है। तब विषय का कुछ विशेष परिचय देने के लिए क्रमात ‘विषय सूची' दे दी गई है । प्रत्येक विषय के आगे दी गई संख्या परिच्छेदसूचक है। उदाहरण : डॉ. टेसोटरी के सर्वेक्षण से
__अब एका उद्धरण डॉ० टेसीटरी के राजस्थानी ग्रन्थ सर्वेक्षण से दिया जाता है। एशियाटिक सोसाइटी ऑव बंगाल ने इन्हें 1914 में सुपरिटेंडेन्ट 'वारडिक एण्ड हिस्टोरिकल सर्वे ऑव राजपूताना' बनाया। उनके ये ग्रन्थ-सर्वेक्षण 1917-18 के बीच में सोसाइटी द्वारा प्रकाशित किये गये। इन्हीं में से 'गद्यभाग' के अन्तर्गत 'ग्रन्थांक 6' का विवरण 'परम्परा' में डॉ. नारायणसिंह भाटी द्वारा किये गये अनुवाद के रूप में नीचे दिया जा
ग्रन्थांक-6-नागौर के मामले री बात नै कविता गुटके के रूप में एक छोटा-सा ग्रंथ, पत्र 132, आकार 50x51" पृ. 21 ब 26 ब, 45ब-96ब, तथा 121 ब-132 ब खाली हैं। लिखे हुए पन्नों में 13 से 27 अक्षरों वाली 7 से 16 तक पंक्तियाँ हैं। पृ० 100-125 पर साधारण (नौसिखिए के बनाये हुए) चित्र पानी के रंगों में 'रसूल रा दूहा' को चित्रित करने के लिए बनाए गए हैं (देखें नीचे घ)। ग्रन्थ कोई 250 वर्ष पुराना लिपिबद्ध है । पृ० 7 ब पर लिपिकाल सं० 1696 जेठ सुद 13 शनिवार और लेखक का नाम रघुनाथ दिया गया है । लिपि मारवाड़ी 1. 'परम्परा' (भाग 28-29), पृ. 25-2611
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसंधान / 75
है और ड तथा ड में भेद नहीं किया गया है । ग्रन्थ में निम्न कृतियाँ हैं : - (क) परिहाँ दुहा वगेरे फुटकर वातां, पृ० 1 9 11 ब (ख) नागौर रै मामले री कविता, पृ० 12 अ 21 अ। ।. .
इसमें तीन प्रशस्ति कविताएँ हैं-एक गीत एक झमाक तथा एक नीसारणी जिसका विषय करणसिंह और नागौर के अमरसिंह की प्रतिस्पर्धा है, जिसका उद्धरण दूसरे अनुच्छेद में नीचे दिया गया है। इन कविताओं में मुख्यतया बीकानेर के सेनाध्यक्ष मुहता वीरचन्द की वीरता का बखान किया गया है। गीत का रचयिता जगा है और झमाक का लेखक चारण देवराज बीकूपुरिया है । नीसांणी के लेखक का नाम नहीं दिया गया है।
तीन कविताओं की प्रारम्भिक पंक्तियाँ क्रमशः निम्न प्रकार हैं : - गीत--दलांथम रूदरु भ..............."पादि
झमाल-कैरव पाँडव कलहीया......"पादि
नीसांणी-अबरल दवी अषट सपर""""नादि (ग) नागौर रै मामले री बात, पृ० 27 अ-45 ब ।
जाखणिया ग्राम को लेकर बीकानेर और नागौर के बीच सं0 1699-1700 के मध्य जो संघर्ष हुआ था उसका बड़ा बारीक और दिलचस्प वृतांत इसमें है । जबसे नागौर, जोधपुर के राजा गजसिंह के पुत्र राव अमरसिंह को मनसब में प्रदान किया गया, जाखणिया गांव बीकानेर के महाराजा के अधिकार में ही चला आता था परन्तु सं० 1699 में नागौरी लोगों ने जाखणिया ग्राम के आस-पास खेत बो दिये इससे झगड़े का सूत्रपात हुआ जिसका अन्त सं० 1700 के युद्ध के बाद हुआ, जिसमें अमरसिंह की फौज को खदेड़ दिया गया और उसका सेनापति सिंघवी सींहमल भाग खड़ा हुआ । युद्ध सम्बन्धी वृर्तान्त ठेठ अमरसिंह की मृत्यु तक चला है । यह छोटी-सी कृति बड़े महत्त्व की है क्योंकि इसमें अनेक बातों पर बारीकी से प्रकाश डाला गया है जो उस समय की सामन्ती जीवन-व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश डालती हैं । इसका प्रारम्भ होता है--
बीकानेर महाराजा श्री करनीसिंह जी रै राज ने नागौर राउ अमरसिंह गजसिंघात रो राज सु नागौर बीकानेर रो कॉकड़ गांव (०) 1 जाषपीयो सु गाँव बीकानेर रो हुतो ने नागौर रा कहे नु गांव माहरोद्वीवहीज असरचो हुतो......"प्रादि ।
' अन्त इस प्रकार है
इसड़ो काम मुहते रामचन्द नु फबीयो बड़ो नावं हुयो पातसाही माहे बदीतो हुवो इसड़ो बीकानेर काही कामदार हुयो न को हुसी। (घ) रसालू रा दूहा पृ० 99 व 115 ब । इसमें 33 दोहे हैं। प्रारम्भ-ऊँच (?) 3 महल्ल चवंदड़ी ।।2।। यह दूसरे दोहे का चौथा चरण है और अन्तिम राजा भोजु जुहारवै ॥3111 (ङ) किवलास रा दूहा पृ० 116 3--117 ब । इसमें 30 छन्द हैं । प्रारम्भ किरणही सावरण संयोग-आदि।
इस विवरण में टेसीटरी महोदय ने सबसे पहले ग्रन्थ के आकार को हृदयंगम कराने के लिए इसे गुटका बताया है। उसके आगे भी व्याख्या में 'छोटा-सा ग्रन्थ' कहा है। टेसीटरी महोदय ग्रन्थ की आकृति के साथ उसके वेष्टन आदि का भी उल्लेख कर देते हैं : यथा, ग्रंथांक एक में पहली ही पंक्ति है "394 पत्रों का चमड़े की जिल्द में बँधा वृहदाकार ग्रन्थ" । संथांक 2 में भी ऐसा ही उल्लेख है कि "कपड़े की जिल्द में बँधा 82 पत्रों का
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76 पाण्डुलिपि-विज्ञान
सामान्य ग्रंथ" । तब पत्रों की संख्या बतायी है, '132' । पत्रों का आकार है 5" x51" । इन 132 पत्रों में सामग्री का ठीक अनुमान बताने के लिए यह भी उल्लेख किया गया है। कि कितने और कौन-कौन से पृष्ठ खाली हैं। फिर पंक्तियों की गिनती प्रति पृष्ठ तथा प्रत्येक पंक्ति में अक्षर का अनुमान भी बताया गया है कि इसमें 13 से 27 अक्षरों वाली 7 से 16 तक पंक्तियाँ हैं।
पुस्तक चित्रित है। चित्र कितने हैं ? कैसे हैं ? और किस विषय के हैं, इनका विवरण भी दिया गया है--
चित्र कितने हैं ? 16 किन पृष्ठों पर हैं ? 'पृ. 100-~~115 तक' पर । कैसे हैं ?
नौसिखिये के बनाये, पानी के रंगों के । विषय क्या है ?
'रसुल रा दूहा' को चित्रित करने वाले । फिर लिपिकाल का अनुमान दिया गया है :-- "कोई 250 वर्ष पुराना लिपिबद्ध ।"
यदि लेखक और लिपिकार का भी उल्लेख कहीं ग्रन्थ में हुआ है तो उसका विवरण भी है
कहाँ उल्लेख है ? पृ० 7 ब पर लिपिकाल क्या है ? स० 1696, जेठ सुद 13, शनिवार लिपिकार का नाम क्या है ? रघुनाथ
लिपि की प्रकृति भी बतायी गयी है--लिपि मारवाड़ी। एक वैशिष्ट्य भी बताया है कि 'ड' तथा 'ड' में अन्तर नहीं किया गया। तब ग्रन्थ के विषय का परिचय दिया गया है।
कुछ और उदाहरण लें : अन्य उदाहरण : पृथ्वीराज रासो
(क) प्रति सं० 5 (ख) साइज 10X11 इंच (ग) 1-पुस्तकाकार, (ग) 2-अपूर्ण, और (ग) 3-बहुत बुरी दशा में है। (घ) इसके आदि के 25 और अन्त के कई पन्ने गायब हैं जिससे आदि-पर्व के प्रारम्भ के 67 रूपक और अन्तिम प्रस्ताव (वाण वेध सम्यों) के 66वें रूपक के बाद का समस्त भाग जाता रहा है। इस समय इस प्रति के 786 (26-812) पन्ने मौजूद हैं। बीच में स्थान-स्थान पर पन्ने कोरे रखे गये हैं जिनकी संख्या कुल मिलाकर 25 होती है। प्रारम्भ के 25 पन्नों के नष्ट हो जाने से इस बात का अनुमान तो लगाया जा सकता है कि अन्त के भी इतने ही पन्ने गायब हुए हैं । (ड) 1-पर अन्त के इन 25 पन्नों में कौन-कौनसे प्रस्ताव लिखे हुए थे, इनमें कितने पन्ने खाली थे, इस प्रति को लिखवाने का काम कब पूरा हा था और (ङ) 2-यह किसके लिए लिखी गई थी ? इत्यादि बातों को जानने का इन पन्नों के गायब हो जाने से अब कोई साधन नहीं है। लेकिन प्रति एक-दो वर्ष के अल्पकाल में लिखी गई हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता, क्योंकि (च) इसमें नौ-दस तरह की लिखावट है और (छ) प्रस्तावों का भी कोई निश्चित क्रम नहीं है। ज्ञात होता है, रासो के भिन्न-भिन्न प्रस्ताव जिस क्रम से और जब-जब भी हस्तगत हुए वे उसी क्रम से इसमें लिख लिये गये हैं। (ज) 'ससिव्रता सम्यो',
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसधान/77
'मलष युद्ध सम्य' और 'अनंगपाल सम्यों' के नीचे उनका लेखन-काल भी दिया हुआ है। ये प्रस्ताव क्रमशः सं० 1770, सं. 1772 और सं. 1773 के लिखे हुए हैं, लेदिन 'चित्ररेखा,' 'दुर्गाकेदार' आदि दो एक प्रस्ताव इसमें ऐसे भी हैं जो कागज आदि को देखते हुए इनसे 25-30 वर्ष पहले के लिखे हुए दिखाई पड़ते हैं। साथ ही, 'लोहाना अजान बाहु सम्यौ' स्पष्ट ही सं० 1800 के आस-पास का लिखा हुआ है । कहने का अभिप्राय यह है कि रासौ की यह एक ऐसी प्रति है जिसको तैयार करने में अनुमानतः 60 वर्ष (मं. 1740-180(3) का समय लगा है।
भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के हाथ की लिखावट होने से प्रति के सभी पृष्ठों पर पंक्तियों और अक्षरों का परिमाण भी एकसा नहीं है। किसी पृष्ठ पर 13 पंक्तियां, किसी पर 15, किसी पर 25 और किसी-किसी पर 27 तक पंक्तियाँ हैं। लिखावट प्रायः सभी लिपिकारों की सुन्दर और सुपाठ्य है । पाठ भी अधिकतर शुद्ध ही है। दो एक लिपिकारों ने संयुक्ताक्षरों में लिखने में असावधानो की है और ख्ख, ग, त्त इत्यादि के स्थान पर क्रमशः ख, ग, त आदि लिख दिया है, जिससे कहीं-कहीं छंदोभंग दिखाई देता है । पर ऐसे स्थान बहुत अधिक नहीं हैं। इसमें 67 प्रस्ताद हैं। उपरोक्त प्रति सं० 2 के मुकाबले में इसमें तीन प्रस्ताव (विवाह सम्यौं, पद्मावती सम्यौं और रेणसी सम्यों) कम और एक (समरसी दिल्ली सहाय सम्यों) अधिक हैं।
___ इस प्रति में से 'ससिव्रता सम्यो' का थोड़ा-सा भाग हम यहाँ देते हैं । यह सम्यौ, जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है, सं० 1770 का लिखा हुआ है----
दूहा आदि कथा शाशिवृत की कहत अब समूल । दिल्ली वै पतिसाह गृहि कहि लहि उनमूल ।।१।।
अरिल्ल ग्रीषम ऋतु क्रीडंत सुराजन । षिति उकलंत षेह नभ छाजन ।। विषम बाय तप्पित तनु भाजन । लागी शीत सुमीर सुराजन ।।
कवित्त
लागी शीत कल मंद नीर निकटं सुरजत षट । अमित सुरंग सुगंध तनह उबटंत रजत पट । मलय चन्द मल्लिका धाम धारा-गृह सुवर । रंजि विपिन वाटिका शीत द्रुम छांह रजततर ॥ कुमकुमा अंग उबटंत प्रधि मधि केसरि धनसार धनि । कीलंत राज ग्रीषम सुरिति आगम पावस तईय भनि ।
इसकी प्रति मेवाड़ के प्रसिद्ध कवि राव बख्तावर जी के पौत्र श्री मोहनसिंह जी राव के पास है।
1. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज (प्रथम भाग), पृ. 64-65।
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78 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
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इस विवरण में 'क' के द्वारा तो ग्रन्थ का क्रमांक दिया गया है ।
(ख) में आकार या साइज दी गई है --- 10 इंच चौड़ी X 11 इंच लम्बी
(ग) में विशिष्ट आकार बताया गया है - इसमें पहले तो यह उल्लेख है कि यह पुस्तकाकार है । पुस्तकाकार से अभिप्राय है कि सिली हुई पुस्तक है, पत्राकार नहीं कि जिसमें पत्र अलग-अलग रहते हैं । फिर, कुछ अन्तरंग परिचय दिया है कि पुस्तक अपूर्ण है । फिर ऊपरी दशा बताई गई है। 'बहुत बुरी दशा' | दशा का यह वर्णन लेखक ने अपनी रुचि के रूप में किया है। 'बुरी दशा' की व्याख्या नहीं दी है ।
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(घ) में आन्तरिक विवरण है-- पहले इसका स्थूल पक्ष है । इस स्थूल पक्ष में 'पन्नों की दशा' बताई गई है। इसमें जिन बातों का उल्लेख किया जाता है वे हैं : पन्ने गायब हैं क्या ? कितने और कहाँ कहाँ से गायब हैं ? क्या कुछ पन्ने को छोड़ दिये गये हैं ? कोरे छोड़े गये हैं ? अब कुल कितने पन्ने ग्रन्थ में हैं ? ग्रन्थ की वस्तु को ग्रहण करने में 'कुछ पड़ी है
कितने और कहाँ पन्ने क्या पन्ने की ऐसी दशा
?
यह अन्तिम प्रश्न स्थूल पक्ष से सम्बन्धित नहीं है । यह तो अन्तरंग पक्ष अर्थात् ग्रंथ की वस्तु से सम्बन्धित है । वस्तुतः यह स्थूल और अन्तरंग को जोड़ने का प्रयत्न भी करता है । इसी दृष्टि से यह प्रश्न भी यहाँ दिया गया है ।
(ङ) अब अन्तरंग पक्ष में निम्नलिखित बातों की जानकारी दी गई है : पहली बात तो
यही बतायी गयी है कि पन्नों के गायब हो जाने या नष्ट हो जाने का क्या प्रभाव पड़ा है ? यह सूचना दी जाती है कि 'इन पृष्ठों में क्या था अब नहीं बताया जा सकता, अन्य आवश्यक सूचनाएँ भी नहीं मिल सकतीं ।'
(च) अन्तरंग पक्ष में ही यह जानकारी अपेक्षित होती है कि पुस्तक में एक ही लिखावट है या कई लिखावटें हैं ।
(छ) क्या अध्याय - क्रम ठीक है, या प्रस्तव्यस्त और प्रक्रम (रासी में अध्याय को 'प्रस्ताव' या 'सम्यो' का नाम दिया गया है ।)
उदाहरण : रुक्मिणी मंगल
(ज) ग्रन्थ में लिपिकाल की सूचनाएँ या अन्य सूचनाएँ क्या-क्या हैं ?
ये सभी बातें आन्तरिक विवरण के अन्तरंग पक्ष से सम्बन्धित हैं । विवरण- लेखक उपलब्ध सामग्री के आधार पर अनुमानाश्रित अपने निष्कर्ष भी दे सकता है । एक और विवरण लें :
327 - रुक्मिणी मंगल, पदम भगत कृत ।
(क) प्रत्येक राग-रागिनी के अन्तर्गत प्राए छन्दों की संख्या पृथक्-पृथक् है । (ख) पत्र संख्या - 83 है ।
(ग) अपेक्षाकृत मोटे देशी कागज पर है ।
(घ) श्राकार 11x5.5 इंच का है ।
(ङ) हाशिया - दाएँ - एक इंच, बाँए-एक इंच है ।
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसंधान/79
(च) पंक्ति-प्रति पृष्ठ 10 पंक्तियाँ हैं । (छ) अक्षर-प्रति पंक्ति 26-30 तक अक्षर हैं । (ज) लिपि-पाठ्य है, किन्तु बीच में कई पन्नों के आपस में चिपक जाने से कहीं-कहीं
अपाठ्य है। (झ) श्री साहबरामजी द्वारा। (ञ) यह प्रति सं० 1935 में लिपिबद्ध की गयी। (ट) प्राप्ति स्थान-लोहावट साथरी है। (ठ) आदि का अंश-"श्री विष्णु जी श्री रामचन्द्र जी नम" (ड) अथ श्री प्रदमईया कृत (ढ) रुकमणी मंगल लिषतं : (ण) दोहा - "संसार सागर अथाग जल ॥ सूझत बार न पार ॥
गुर गोबिन्द कृपा करो ।। गाँवाँ मंगल चार ॥१॥" (त) अन्त का अंश-जो मंगल कू सुन गाय गुन है बाजे अधिक बजाय
पूरण ब्रिह्य पदम के स्वामी मुक्त भक्त फल पाय ।।5।।192 (थ) ईती श्री पदमईया कृत रुकमणी मंगल सम्पूर्ण (थ) 1-सम्वत् 1935 रा वृष मीती भाद्रवाद 4 वार आदितवारे लीपीकृतं (थ) 2-शाध श्री 108 श्री महंतजी श्री प्रातमारामजी का सिष शायवरांमेग (थ) 3-गाँव फीटकासणी मेधे (थ) 3-1 विष्णुजी के मीदर में (थ) 4-जीसी प्रती देषी (प्रति) तसी लिषी मम दोस न दीजीये-- . (थ) 4-1 हाथ पाव कर कुबडी मुष अरु नीचे नैन । ईन कष्टा पोथी लीषी तुम नीके
- राषीयो सेन । (द) सुभमस्तु कल्याणमस्तु विष्णुजी । (भिन्न हस्तलिपि में) (ध) 1-प्रती व्यावलो श्रीकिसन रुकमणी रो मंगलाचार री पोथी साद गोंविददास
विष्णु बैईरागी की कोई उजर करण पावैन्ही ॥ साद रूपराम विसनोइयाँ रा
कनां सु लीनो छ गाँव रामड़ावास रा छै ।। ...इसमें
(क) में कृतिकार का नाम दिया गया है । : (ख) में यह सूचना है कि राग-रागिनी में छन्द संख्या अलग-अलग है। (यह अन्तरंग
पक्ष है) . (ग), 'कागज' विषयक सूचना (प्राकार एवं स्वरूप पक्ष से सम्बन्धित) मोटा देशी
कागज । वस्तुतः कागज या लिप्यासन की प्रकृति बताना बहुत आवश्यक है । कभीकभी इससे काल-निर्धारण में भी सहायता मिलती है, कागज के विविध प्रकारों
का ज्ञान भी अपेक्षित है। (घ) में आकार बताते हुए इंचों में लम्बाई-चौड़ाई बतायी गई है। (ङ) यह लेखन-सज्जा से सम्बन्धित है : हाशिये कैसे छोड़े गये हैं : दाँये और बाँये दोनों
.. ओर हाशिये हैं : 1. माहेश्वरी, हीरालाम (डॉ.)-जाम्भोजी, विष्णोई सम्प्रदाय और साहित्य, पृ. 120 1 .
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80 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
(च) में प्रत्येक पृष्ठ में पंक्ति-संख्या का निर्देश है । (छ) में प्रति पंक्ति में अक्षर संख्या बतायी गयी है ।
(ज) में लिपि - इसमें सुपाठ्य या पाठ्य की बात बतायी गई है । ( लिपि का नाम
नहीं दिया गया है । लिपि नागरी है ।)
(झ) में लिपिकार का नाम,
(न) में लिपिबद्ध करने की तिथि,
(ट) में प्राप्ति-स्थान की सूचना है ।
आन्तरिक परिचय :
(ठ) में ग्रन्थ के 'आदि' से अवतरण दिया गया है । ग्रन्थारम्भ 'नमोकार' से होता है : इसमें साम्प्रदायिक इष्ट को नमस्कार है ।
(ड) ग्रन्थ के आदि में पुष्पिका है । इसमें रचनाकार और
(ढ) ग्रन्थ का नाम दिया गया है । तब
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(ग) ग्रन्थ का प्रथम दोहा उद्धृत है, यह दोहा 'मंगलाचरण' है ।
(त) में 'अन्त के अंश का उद्धरण है, जिसमें ग्रन्थ की 'फल श्रुति' है, यथा 'मुक्ति भक्ति फलपाया'
(द)
(ध)
(थ) में ग्रन्थ के अन्त को 'पुष्पिका' (Colophon ) है । जिसमें 'इति' और 'सम्पूर्ण' से ग्रन्थ के अन्त और सम्पूर्ण होने की सूचना के साथ रचनाकार एवं ग्रन्थ-नाम दिया गया है । तब (थ) 1 - लिपिबद्ध करने की तिथि, (थ) 2 - लिपिकार का परिचय, (थ) 3 - में लिपिबद्ध किये जाने के स्थान - गाँव का नाम है एवं (थ) 3-1 उस गाँव में वह विशिष्ट स्थान (विष्णु मन्दिर) जहाँ बैठ कर लिखी गई । (थ) 4 -- लिपिकार की प्रतिज्ञा और दोषारोपरण की वर्जना है । (थ) 4-1 में पाठक एवं संरक्षक से निवेदन है, इसका स्वरूप परम्परागत है ।
आशीर्वचन |
1 - भिन्न हस्तलिपि में पुस्तक के मालिक की घोषणा ।
उदाहरण-- एक पोथी
एक और ग्रन्थ के विवरण को उदाहरणार्थ यहाँ दिया जा रहा है। इस ग्रन्थ का विवरण में लेखक ने 'पोथी'' बताया है।
81 पोथी, जिल्दबंधी (ब, प्रति ) । यत्र-तत्र खण्डित । एकाध पत्र अप्राप्य । अपेक्षाकृत मोटा देशी कागज । पत्र संख्या 152 | आकार 10x7 इंच । हाशिया - दाएँ बाएँ : पौन इंच । तीन लिपिकारों द्वारा सं० 1832 से 1839 तक लिपिबद्ध । लिपि, सामान्यतः पाठ्य । पंक्ति, प्रति पृष्ठ |
(क) हरजी लिखित रचनाओं में 23-29 तक पंक्तियाँ हैं ।
(ख) तुलखीदास लिखित सबदवारणी में 31 पंक्तियाँ हैं, तथा ।
(ग) ध्यानदास लिखित रचनाओं में 24-25 पंक्तियाँ हैं । अक्षर-प्रति-पंक्ति-क्रमशः
(क) में 18 से 20 तक, (ख) में 24 से 25 तक तथा (ग) में 23 से 25 तक 1
1. माहेश्वरी हीरालाल (डॉ.) -- जाम्भोजी, विष्णोई सम्प्रदाय और साहित्य, पृ. 41-42 ।
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान 81
गाँव 'मुकाम' के श्री बदरीराम थापन को प्रति होने से इसका नाम ब० प्रति रखा गया है । इसमें ये रचनाएं हैं(क) अौतार पात का बाण, बोल्होजी कृत । छन्द संख्या 140। (ख) गूगलीय की कथा, बील्होजी कृत । छन्द संख्या 86 । (प्रथम रचना का अन्तिम
और दूसरी के प्रारम्भ का एक पन्ना भूल से शायद जिल्द बांधते समय, 'कथा
जैसलमेर की' के बीच में लग गया है ।) (ग) सच अषरी विगतावली, बील्होजी कृत । छन्द संख्या-48 । (घ) कथा दूरणपुर की, बील्होजी कृत । छन्द संख्या-60 । (क) व.था जैसलमेर की, बील्होजी कृत । छन्द संख्या-89 (च) कथा झोरड़ा की, बील्होजी कृत । छन्द संख्या-33 । (छ) कथा ऊदा अतली की, केसौजी कृत । छन्द संख्या-77 । (ज) कथा सँसे जोषागी की, कैसौदासजी कृत । छंद संख्या-106 । (झ) कथा चीतोड़ की, कैसौदासजी कृत । छंद संख्या-130 । (न) कथा पुल्हेजी की, बील्होजी कृत । छंद संख्या-25 । (ट) कथा असकंदर पातिसाह की, केसौदासजी कृत । छंद संख्या-191 । (8) कथा बाल-लीला, कैसीदासजी कृत । छंद संख्या-61 । (ड) कथा ध्रमचारी तथा कथा-चेतन, सूरजनदास जी कृत । छंद संख्या-115 । (ढ) ग्यांन महातम, सुरजनदासजी कृत । छंद संख्या-199 ।
सभत् 1832 मिती जेठ बद 13 लिषते वरिणबाल हरजी लिषावतं अतित रासाजी लालाजी का चेला पोथी गाँव जाषांणीया मझे लिषी छै सुभ मसतु कल्याण ।।
कथा चतुरदस में लिषी अरज करू कर धारि ।
घट्य बधि अक्षर जो हुवै । सन्तो ल्यौह सुधारि ।।1।। (ण) पहलाद चिरत, कसौदासजी कृत । छन्द संख्या-595। (त) श्री वायक झांभजी
का (सबदवारणी) पद्य प्रसंग समेत । सबद संख्या-1171 आदि का अंश-श्री परमात्मनेनमः श्री गणेसायनमः । लिषते श्री वायक झांभजी का ॥
कार्य करवं जल रष्या। सबद जगाया दीप । वांभण कूपरचा दिया । असा असा अचरज कीप ||1|| जो बूझ्या सोई कह्या । अलष लषाया मेव ।।
घोषा सवै गमाईया। जदि सबद कहया अभदेव ।।2।। शबद ।। गुर चीन्हो गुर चिन्ह पिरोहित ।। गुर मुष धरम वषाणीं ।।
अन्त का अंश : भलीयाँ होइ त मल बुधि आवे । बुरिया बुरि कमावे ।।117।। संवत 1833 ॥ तिथ तीज भादवो सुदि । सहर गोर मध्ये लिषते। वषत सागर तटे । लिषावतू रासा प्रतीत झांभापंथी। शबद झांभजी का सपूरण ।। लिषतेतू तुलीछीदास ।। झांभार्पथी केसोदास जी का चेला । केसोदास जी कालीपोस । बाबाजी नूर जी का सिष । नूरजी राजजी का सिष । पैराज जी जसाणी । आगे बाबा झांभाजी ताई पीढ़ी में सु हम जांणत भी नांही । जिसी मुसाहिब जी की लिपति थी तिसी लिषी छ यथार्थ प्रिति
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82, पाण्डुलिपि-विज्ञान
उतारी छ । सबद।। दोहा ।।कवित्।। अरिल जो कुछ था सोई ॥थ। कवत सुरजनजी रा कह्या, संख्या 329। समत् 1839 रा बैसाष मासे तिथौ 5 देवा गुरवारे लिषतं वैष्णव ।। ध्यांनदास दुगाली मध्ये जथा प्रति तथा लिषतं ।। वाचे विचारै तिणनु राम राम । (द) होम को पाढ (ध) ग्रादि बंसावली । (न) विवरस (प) कलस थापन (फ) पाहल । (ब) चौजूगी वीवाह की । (भ) पांहलि (पुनः) आदि-श्री गणेसायनमः श्री सारदाय नमः श्री विसनजी सत सही ।। लिषतु औतार पात का वषाण ॥
दुहा ।। नवणि करू गुर आपण ।। नउं निरमल भाय।
कर जोड़े बंदू चरण ।। सीस नवाय नवाय ।। अन्त-म छ को पाहलि ।। कछ की पाहली ।। बारा की पाहली ।। नारिसिंघ की पाहलि ।। वांवन की पाहलि फरसराम की पाहलि राम लक्षमण की पाहलि । कन की पाहलि बुध की पाहलि निकलंकी पाहलि-॥
ऊपर कुछ ग्रन्थों के विवरण (Notices) उद्धृत किये गये हैं। साथ ही प्रत्येक विवरण में आयी बातों का भी संकेत हमने अपनी टिप्परिणयों में कर दिया है। उनके प्राधार पर अब हम ग्रन्थ के विवरण में अपेक्षित बातों को व्यवस्थित रूप में यहाँ दे देना चाहते हैं : पांडुलिपि हाथ में आने पर विवरण लेने की दृष्टि से इतनी बातें सामने आती हैं ::
(1) ग्रन्थ का 'अतिरिक्त पक्ष' । इसमें ये बातें पा सकती हैं :
ग्रन्थ का रख-रखाव : वेष्टन, पिटक, जिल्द, पटरी (कांवी), पुट्ठा, डोरी, ग्रन्थि । वेष्टन कैसा है ? सामान्य कागज का है, किसी कपड़े का है, चमड़े का है या किसी अन्य का ? वह पिटक, जिसमें ग्रन्थ सुरक्षा की दृष्टि से रखा गया है, काष्ठ का है या धातु का है। जिल्द-यदि ग्रन्थ जिल्दयुक्त है तो वह कैसी है। जिल्द किस वस्तु की है, इसका भी उल्लेख किया जा सकता है।
ताड़-पत्र की पांडुलिपि पर और खुले पत्रों वाली पांडुलिपि पर ऊपर नीचे पटरियाँ या 'काष्ठ-पट्ट' लगाये जाते हैं, या पट्ठ (पुट्ठ) लगाये जाते हैं। इन्हें विशेष पारिभाषिक अर्थ में 'कंबिका या कांबी' भी कहा जाता है। भा.ज.श्र.सं. अने लेखन कला में बताया है कि 'ताड़-पत्रीय लिखित पुस्तकना रक्षण माटे तेनी ऊपर अने नीचे लाकड़ानी चीपो-पाटीओं राखवामां आवती तेनु नाम 'कंबिका' छे। तो यह भी उल्लेख किया जा सकता है कि क्या ये पट्टिकायें ग्रन्थ के दोनों ओर हैं। इनके ऊपर डोरे में ग्रन्थि लगाने की ग्रन्थियाँ (गोलाकार टुकड़े जिनमें डोरे को पिरोकर पक्की गाँठ लगायी जाती है) भी हैं क्या? ये किस वस्तु की हैं ? और कैसे हैं ? क्या इन पर अलंकरण या चित्र भी बने हैं ? अलंकार और चित्र का विवरण भी दिया जाना चाहिये ।
(2) पुस्तक का स्वरूप---'अतिरिक्त पक्ष' के बाद पांडुलिपि के 'स्वपक्ष' पर दृष्टि जाती है । इसमें भी दो पहलू होते हैं ।
भा, जै. श्र सं. अने लेखन कला में 'काष्ठ पटिका' उस लकड़ी की 'पट्टी' को बताया है जिस पर व्यवसायी लोग कच्चा हिसाब लिखते थे, और लेखकगण पुस्तक का कच्चा पाठ लिखते थे । बच्चों को लिखना सिखाने के लिए भी पट्टी काम आती थी। यहाँ इस काष्ठ पट्टिका का उल्लेख नहीं है। यहाँ 'काष्ठ पटिटका' से 'पटरी' अभिप्रेत है, जो पांडुलिपि की रक्षार्थ ऊपर-नीचे लगायी
जाती है। 2. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 19 ।
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसधान/83
पहला पहल पुस्तक के सामान्य रूप-रंग-विषयक सूचना से सम्बन्धित होता है। पुस्तक देखने में सुन्दर है, अच्छी है, गन्दी है, बुरी है, मटमैली है, जर्जर है, जीर्ण-शीर्ण है,
आदि । या भारी-भरकम है, मोटी है, पतली है। वस्तुतः इस रूप में पुस्तक का विवरण कोई अर्थ नहीं रखता, उपयोगी भी नहीं है। हाँ, यदि सुन्दर है या गन्दी है न लिख कर उसके बाह्य रूप-रंग का परिचय दे दिया जाय तो उसे ठीक माना जा सकता है, यथा, ग्रंथ का कागज गल गया है, उस पर स्याही के धब्बे हैं, चिकनाई के धब्बे, हल्दी के दाग हैं, रेतमिट्टी, धुएँ प्रादि से धूमिल हैं, कीड़े-मकोड़ों ने, दीमक ने जहाँ-तहाँ खा लिया है, पानी में भीगने से पुस्तक लिद्धड़ हो गयी है, आदि ।
पुस्तक के रूप का दूसरा पहलू है, 'प्राकार-सम्बन्धी' । यह बहुत महत्त्वपूर्ण है, और सभी विवरणों में इसका उल्लेख रहता है । इसमें ये बातें दी जाती हैं :
(क) पुस्तक का प्रकार : प्रकार नामक अध्याय में इनकी विस्तृत चर्चा है। आजकल प्रकारों के जो नाम-विशेष प्रचलित हैं, वे डॉ० माहेश्वरी ने अपने ग्रन्थ में दिये हैं, वे निम्नलिखित हैं : . 1. पोथी-प्रायः बीच से सिली, प्राकार में बड़ी । 2. गुटका-पोथी की भाँति, पर छोटा : 6X4.5 इंच के लगभग । ..
बहीनुमा पुस्तिका-21X4:25" इंच । अधिक लम्बी भी होती है । 4. पुस्तिका : आकार 7.5"X525" के लगभग ।
पोथा। · 6. पत्रा (खुले पत्रों या पन्नों का) 7. पानावली (विशेष विवरण 'प्रकार' शीर्षक अध्याय में देखिये)।
(ख) पुस्तक का कागज या लिप्यासन : सामान्यत: लिप्यासन के दो स्थूल भेद किये गये हैं : (1) कठोर लिप्यासन-मिट्टी की ईंटें, शिलाएँ, धातुएँ, आदि इस वर्ग में आती हैं । धर्म, पत्र, छाल, वस्त्र, कागज आदि (2) कोमल माने जाते हैं। मिट्टी की ईंटें, शिला, धातु, चर्म, छाल, ताड़-पत्र आदि में से पत्र, पत्थर, धातु, चर्म, छाल, वस्त्र आदि के प्रकारों को तो 'जनक' कह सकते हैं। क्योंकि इनसे लिप्यासन जन्म लेते हैं। इनमें इनका प्रकृत रूप विद्यमान रहता है। उधर कागज पूरी तरह 'जनित' या मानव निर्मित है। यह विविध वस्तुओं से बनाया जाता है। कागज के भी कितने ही प्रकार होते हैं : यथा-देशी कागज, सामान्य, मोटा, पतला, कुछ मोटा, मशीनी और ये विविध रंगों के-भूरा, बादामी, पीला, नीला प्रादि । इस सम्बन्ध में मुनि पुण्यविजय जी ने जो उल्लेख किया है वह ध्यातव्य है : - "कागज ने माटे आपणा प्राचीन संस्कृत ग्रन्थामां कागद अने कद्गल शब्दों वपराग्रेला जोवा माँ आवे छे । जेम प्राजकाल जुदा जुदा देशों में नाना मोटा, झीणा जाड़ा, सारा नरसा आदि अनेक जातना कागलो बने छे तेम जून जमाना थी मांडी आज पर्यन्त
आपणा देशना हरेक विभाग माँ अर्थात् काश्मीर, दिल्ली, बिहारना पटणा शाहाबाद आदि जिल्लौं , कानपुर, घोसुडा (मेवाड़), अहमदाबाद, खंभात, कागजपुरी (दौलताबाद पासे) प्रादि इनके स्थली माँ पोत पीतानी खपत अने जरूरी आतना प्रमाणमां काश्मीरी, मुगलीया, अरवाल, साहेवखानी, अहमदाबादी, खंभाती, शणीया, दौलताबादी आदि जात जातनों कॉगलो बटता हत। अने हनु पण घणे ठेकाणे बने छ, ते मांथी जेजे जे सारा, टकाऊ
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84/पाण्डुलिपि-विज्ञान
अने माफक लाने ते नो ते प्रो पुस्तक लखवा माटे उपयोग करता।"1 इस पुस्तक में काश्मीरी कागज की बहुत प्रशंसा की है। यह कागज बहुत कोमल और मजबूत होता था। इस विवरण में मेवाड़ के घोसुन्दा के कागज का उल्लेख है, पर जयपुर में सांगानेर का सांगानेरी कागज भी बहुत विख्यात रहा है ।
कागज के सम्बन्ध में श्री गोपाल नारायण बहुरा की नीचे दी हुई टिप्पणी भी ज्ञानवर्द्धक हैं :
___ "स्यालकोट अकबर के समग्र में ही एक प्रसिद्ध विद्या-केन्द्र बन गया था। वहाँ पर लिखने-पढ़ने का काम खूब होता था और कागज व स्याही बनाने के उद्योग भी वहाँ पर बहत अच्छे चलते थे । स्यालकोट का बना हा बढ़िया कागज 'मानसिंही कागज' के नाम से प्रसिद्ध था । यहाँ पर रेशमी कागज भी बनता था। इस स्थान के बने हुए कागज मजबूत, साफ और टिकाऊ होते थे। मुख्य नगर के बाहर तीन 'ढानियों' में यह उद्योग चलता था और यहाँ से देश के अन्य भागों में भी कागज भेजा जाता था। दिल्ली के बादशाही दफ्तरों में प्रायः यहाँ का बना हुअा कागज ही काम में प्राता था।
इसी प्रकार कश्मीर में भी कागज तो बनते ही थे, साथ ही वहाँ पर स्याही भी बहुत अच्छी बनती थी। कश्मीरी कागजों पर लिखे हुए ग्रन्थ बहुत बड़ी संख्या में मिलते हैं। जिस प्रकार स्यालकोट कागज के लिए प्रसिद्ध था उसी तरह कश्मीर की स्याही भी नामी मानी जाती थी।
राजस्थान में भी मुगलकाल में जगह-जगह कागज और स्याही बनाने के कारखाने थे। जयपुर, जोधपुर, भीलवाड़ा, गोगूदा, बूदी, बांदीकुई, टोटाभीम और सवाईमाधोपुर आदि स्थानों पर अनेक परिवार इसी व्यवसाय से कुटुम्ब पालन करते थे । जयपुर और प्रास-पास के 55 कारखाने कागज बनाने के थे, इनमें सांगानेर सबसे अधिक प्रसिद्ध था और यहां का बना हुआ कागज ही सरकारी दफ्तरों में प्रयोग में लाया जाता था। 200 से 300 वर्ष पुराना सांगानेरी कागज और उस पर लिखित स्याही के अक्षर कई बार ऐसे देखने में आते हैं मानो आज ही लिखे गये हों।
शहरों और कस्बों से दूरी पर स्थित गाँवों में प्रायः बनिये और पटवारी लोगों के घरों व दुकानों पर 'पाठे और स्याही' मिलते थे। सांगानेरी मोटा कागज 'पाठा' कहलाता था, अब भी कहते हैं । 'पाठा' सम्भवतः 'पत्र' का ही रूपान्तर हो। सेठ या पटवारी के यहाँ ही अधिकतर गाँव के लोगों का लिखा-पढ़ी का काम होता था। कदाचित् कभी उनके यहाँ लेखन सामग्री न होती तो वह काम उस समय तक के लिए स्थगित कर दिया जाता जब तक कि शहर या पास के बड़े कस्बे या गाँव से 'स्याही' पाठे' न पा जावें । नुकता या विवाह आदि के लिए जब सामान खरीदा जाता तो 'स्याही-पाठा' सबसे पहले खरीदा जाता था।"
तात्पर्य यह है कि जो हस्तलेख हाथ में पायें उनके लिप्यासन की प्रकृति और प्रकार का ठीक-ठीक उल्लेख होना चाहिये ।
1. भारतीय जैन श्रमण संस्कृनि अने लेखन कला, पृ. 29-30 । 2. Surcar, J.-Topography of the Mughal Empire, p. 25. 3. Ibid, p.112.
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4.
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पांडुलिपि प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसंधान / 85
(ख) 1-- कागज के प्रकार के साथ कागज के सम्बन्ध में ही कुछ अन्य बातें और
दी जाती हैं :
1.
2.
3.
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कागज का रंग स्वाभाविक है या काल - प्रभाव से अस्वाभाविक हो गया है ।
क्या कागज कुरकुरा (Brittle) हो गया है ?
कीड़ों-मकोड़ों या दीमकों या चूहों से खा लिया गया है ? कहाँ-कहाँ, कितना ? इससे ग्रन्थ के महत्त्व को क्या और कितनी क्षति पहुँची है ।
समस्त पांडुलिपि में क्या एक ही प्रकार का कागज है, या उसमें कई प्रकार के कागज हैं ?
इन ग्रन्य बातों का अभिप्राय यह होता है कि कागज विषयक जो भी वैशिष्ट्य है वह विदित हो जाय ।
(ख) 2 -- कागज से काल-निर्धारण में भी सहायता मिल सकती है । इस दृष्टि से भी टीप देनी चाहिये ।
(ग) पत्रों की लम्बाई-चौड़ाई- -यह लम्बाई-चौड़ाई इंचों में देने की परिपाटी 'लम्बाई इंच चौड़ाई इंच' इस रूप में देने में सुविधा रहती है। अब तो सेंटीमीटर में देने का प्रचलन भी आरम्भ हो गया है ।
3. पांडुलिपि का रूप - विधान
(क) पंक्ति एवं प्रक्षर परिमाण - सबसे पहले लिपि का उल्लेख होना चाहिये । देवनागरी है या अन्य ?1 यह लिपि शुद्ध है या अशुद्ध ? पांडुलिपि के अन्तरंग-रूप का यह एक पहलू है ।
प्रत्येक पृष्ठ में पंक्तियों की गिनती दी जाती है, दी जाती है। इनकी श्रीमत संख्या ही दी जाती है। अक्षर-परिमाण विदित हो जाता है ।
तथा प्रत्येक पंक्ति में ग्रक्षर संख्या इससे सम्पूर्ण ग्रन्थ की सामग्री का
संस्कृत ग्रन्थों में 'अनुष्टुप' को एक श्लोक की इकाई मान कर श्लोक संख्या दे दी जाती थी । इस सम्बन्ध में 'भाग्यसं० अ लेखन कला' से यह उद्धरण यहां देना समीचीन होगा :
3.
........... ग्रन्थनी श्लोक संख्या गरवा माटे कोईपण साधुने थे नकल आपवामां श्रावती ने ते साधु "बत्रीस ग्रक्षरता श्रेक श्लोक" ने हिसावे श्राखा ग्रन्थना अक्षरों गणीने श्लोक संख्या नक्की करतो" ।। 3 बत्तीस अक्षर का एक अनुष्टुप श्लोक होता है : एक चरण में 8 अक्षर, पूरे चार चरणों में 84 = 32 अक्षर । इस प्रकार गणना का मूलाधार अक्षर ही ठहरता है ।
(ख) पत्रों की संख्या -पंक्ति एवं ग्रक्षरों का विवरण देकर यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि पत्रों की पूर्ण संख्या भी दे दी जाय । यथा टसीटरी, 436 पत्रों का वृहदाकार
मारवाड़ी लिपि में लिपिबद्ध
1. यथा- देसीटरी "कुछ देवनागरी में और कुछ
है ।" परम्परा (28-29), पृ. 146 1
2.
यह पद्धति भी है कि कम से कम अक्षरों की संख्या और अधिक से अधिक अक्षरों की संख्या दे दी जाती है, यथा 23 से 25 तक ।
मारती जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 106
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86/पाण्डुलिपि-विज्ञान
ग्रन्थ' । पत्रों की संख्या के साथ यह भी देखना होगा कि (क) पत्र संख्या का क्रम ठीक है, कोई इधर-उधर तो नहीं हो गया है ।
(ख) कोई पत्र या पन्ने कोरे छोड़े गये हैं क्या ? (ग) उन पर पृष्ठांक कैसे पड़े हुए हैं ? (घ) पन्ने व्यवस्थित हैं और एक माप के हैं या अस्त-व्यस्त और भिन्न-भिन्न मापों
विशेष : 1. इसी के साथ यह बताना भी आवश्यक होता है कि लिखावट कैसी हैं-सुपाठ्य है, सामान्य है या कुपाठ्य है कि पढ़ी ही नहीं जाती । सुपाठ्य है तो सुष्ठ भी है या नहीं । लिपि सौष्ठव के सम्बन्ध में ये श्लोक आदर्श प्रस्तुत करते हैं :
"अक्षराणि समशीर्षाणि बर्तुलानि धनानि च । परस्परमलग्नानि, यो लिखेत् स हि लेखक : । समानि समशीर्षाणि, बतुलानि धनानि च । मात्रासु प्रतिबद्धानि, यो जानाति स लेखक : । "शीर्पोपेतान् सुसम्पूर्णान्, शुभ श्रेणिगतान् समान्
अक्षरान् वै लिखेद् यस्तु, लेखकः स वरः स्मृतः ॥" यथा टेसीटरी "अनेक स्थानों पर पढ़ा नहीं जाता क्योंकि खराब स्याही के प्रयोग के कारण पत्र आपस में चिपक गये हैं।
2. यह भी बताना होता है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ में एक ही हाथ की लिखावट है या लिखावट-भेद है । लिखावट में भेद यह सिद्ध करता है कि ग्रन्थ विभिन्न हाथों से लिखा गया है, यथा : टेसीटरी : समय-समय पर अलग-अलग लेखकों के हाथ से लिपिबद्ध किया हुआ
(ग) अलंकरण-सज्जा एवं चित्र
(आ) सज्जा की दृष्टि से इन दोनों बातों की सूचना भी यहीं देनी होगी कि ग्रथ अलंकरणयुक्त है या सचित्र है । अलंकरण केवल सुन्दरता बढ़ाने के लिए होते हैं, विषयों से उनका सम्बन्ध नहीं रहता । पशु-पक्षी, ज्यामितिक रेखांकन, लता-बेल एवं फल-फूल की प्राकृतियों से ग्रन्थ सजाये जाते हैं। अतः यह उल्लेख करना आवश्यक होगा कि सजावट की शैली कैसी है। सजावट के विविध अभिप्रायों या मोटिफों का युग-प्रवृत्ति से भी सम्बन्ध रहता है, अतः इनसे काल-निर्धारण में भी कुछ सहायता मिल सकती है । साथ ही, चित्रालंकरण से देश और युग की संस्कृति पर भी प्रकाश पड़ सकता है । यह सिद्ध है कि मध्ययूग में चित्रकला का स्वरूप ग्रन्थ-चित्रों (Miniatures) के द्वारा ही जान सकते हैं । जो भी हो, पहले अलंकरण से सजावट की स्थिति का ज्ञान कराया जाना चाहिये ।
तब, ग्रन्थ चित्रों का परिचय भी अपेक्षित है । क्या चित्र पुस्तक के विषय के अनुकूल है, क्या वे विषय के ठीक स्थल पर दिये गये हैं ? वे संख्या में कितने हैं ? कला का स्तर कैसा है ?
1. परम्परा (28-29), पृ. 112 । 2. वही, पृ. 1121
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान/87
यह बात ध्यान में रखने की है कि चित्र-सज्जा के कारण पुस्तक का मूल्य बढ़ जाता है । ग्रन्थ के चित्रों का भी मूल्य अलग से लगता है।
(प्रा) चित्रों की संख्या की ओर उसके कला-स्तर का उल्लेख करते हुए एक सम्भाबना की ओर और ध्यान देना अपेक्षित है । कितनी ही पुस्तकों के चित्रों में एक विशेषता यह देखने को मिलती है कि चारों कोनों में से किसी एक में चतुर्भुज बना कर एक व्यक्ति का रूपांकन कर दिया गया है । इस व्यक्ति का चित्र के मूल कथ्य से कोई सम्बन्ध नहीं बैठता । यह सिद्ध हो चुका है । यह चतुर्भुज में अंकित चित्र कृतिकार का होता है । अतः विवरण में यह सूचना भी देनी होगी कि पुस्तक में जो चित्र दिये गये हैं उनमें एक झरोखासा बना कर पुस्तक-लेखक का चित्र भी अंकित मिलता है क्या ?
__ (ग) चित्रों में विविध रंगों के विधान पर भी टीप रहनी चाहिये । हाशिये छोड़ने और हाशिये की रेखाओं की सजावट का भी उल्लेख करें। (घ) स्याही या मषी
स्याही का भी विवरण दिया जाना चाहिये :
1. कच्ची स्याही में लिखा गया है या पक्की में ? एक ही स्याही में सम्पूर्ण ग्रन्थ पूरा हुआ है अथवा दो या दो से अधिक स्याहियों का उपयोग किया गया है ? प्रायः काली और लाल स्याही का उपयोग होता है। लाल स्याही से दाएं-बाएं हाशिये की दो-दो रेखाएँ खींची जाती हैं। यह भी देखने में आया है कि ग्रन्थों में प्रारम्भ का नमोकार और "प्रथ""ग्रन्थ लिख्यते" आदि शीर्षक लाल स्याही में लिखा जाता है । इसी प्रकार प्रत्येक अध्याय के अन्त की पुष्पिका भी और ग्रन्थ-समाप्ति की पुष्पिका भी लाल स्याही से लिखी जाती है । पूरा ग्रन्थ काली स्याही में, उसके शीर्षक और पुष्पिकाएँ लाल स्याही में हों तो उसका उल्लेख भी विवरण में किया जाना उचित प्रतीत होता है। किन्हीं ग्रन्थों में ऐसे स्थलों पर लाल रंग फेर देते हैं, और उस पर काली स्याही से ही पुष्पिका आदि दी जाती
यह तो वे बातें हुई जो पांडुलिपि के रूप का बाह्य और अन्तरंग रूप का ज्ञान कराती हैं। 4. अन्तरंग परिचय
___ इसके बाद विवरण या प्रतिवेदन (रिपोर्ट) में कुछ और आन्तरिक परिचय भी देना होता है । यह अन्तरंग परिचय भी स्थूल ही होता हैं । इस परिचय में निम्नांकित बातें बताई जाती हैं :
(क) ग्रन्थकार या रचियता का नाम : यथा, टेसीटरी-“दम्पति विनोद ........... (1) इसका कर्ता जोशीराया है ।" बीकानेर के राठौर्डारी ख्यात (2) ग्रन्थ का निर्माण चारण सिढायच दयालदास द्वारा हुआ । ढोला मारवरणी री बात-- रचयिता-अज्ञात'
रचयिता के सम्बन्ध में अन्य विवरण जो ग्रन्थ में उपलब्ध हो वह भी यहाँ देना चाहिये । यथा, निवास स्थान, वंश परिचय आदि ।
1. परम्परा (28-29), पृ. 48 ।
राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, पृ. 38।
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88 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
(ख)
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रचनाकाल - : इस विवरण में कर्त्ता ने दिया है । यदि उसने चाहिये ।
हाँ, यदि आपके पास ऐसे कुछ ग्राधार हैं कि आप इस कृति के सम्भावित काल का अनुमान लगा सकते हैं तो अपने अनुमान को अनुमान के रूप में दे सकते हैं । (ग) ग्रन्थ रचना का उद्देश्य यथा, "बीकानेर के राठौड री ख्यातः ग्रन्थ का निर्माण "बीकानेर के महाराजा सिरदार सिंह के आदेश पर किया गया है ।"
"इसी प्रकार ये उद्देश्य भिन्न-भिन्न ग्रन्थों के भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, यथा-राजाज्ञा से' और 'सुफल प्राप्त्यर्थ' विष्णुदास ने 'पांडव चरित्र' लिखा ।
(घ) ग्रन्थ रचना का स्थान । यथा, 'गढ़ गोपाचल वैरिनि सालू' 3 यदि किसी के आश्रय में लिखा गया है तो श्राश्रयदात सिंघ राउवर वीरा' तथा श्राश्रयदाता का अन्य परिचय |
(झ)
वही रचना - काल दिया जायगा जी ग्रन्थ में ग्रन्थ रचना काल नहीं दिया तो यही सूचना दी जानी
(च) भाषा विषयक अभिमत - यहाँ स्थूलतः यह बताना होगा कि संस्कृत, डिंगल, प्राकृत, अपभ्रंश, बंगाली, गुजराती, ब्रज, अवधी, हिन्दी (खड़ीबोली), तामिल या राजस्थानी (मारवाड़ी, हाड़ौती, ढूँढारी, शेखावाटी), आदि विविध भाषाओं में से किस भाषा में ग्रंथ लिखा गया है ।
(ST)
(ट)
यहाँ भाषाओं की यह सूची संकेत मात्र देती है । भाषाएँ तो और भी हैं, उनमें से किसी में भी यह ग्रंथ लिखा हुआ हो सकता है ।
-1 भाषा का कोई उल्लेखनीय वैशिष्ट्य ।
लिपि एवं लिपिकार का नाम
लिपिकार का कुछ और परिचय ( ग्रन्थ में दी गयी सामग्री के आधार पर)
1. किस गुरु-परम्परा का शिष्य
2.
3.
4.
माता-पिता तथा भाई आदि के नाम
लिपिकार के आश्रयदाता प्रतिलिपि कराने का अभिप्राय :
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क - किसी राजकुमार के पठनार्थ ख - किसी अन्य के लिए पठनार्थ ग- स्व- पठनार्थ
घ- प्रदेश - पालनार्थ
ड - शुभ फल प्राप्त्यर्थ
च --- दानार्थ प्रादि-आदि
लिपिकार के आश्रयदाता का परिचय प्रतिलिपि का स्वामित्व
का नाम - यथा, 'डोंगर
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1. विस्तृत विवरण के लिए देखिए 'काल निर्णय की समस्या' विषयक सातवाँ अध्याय |
2. परम्परा (28-29), पृ.१1
3. पांडव चरित, पृ. 5 1
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पाण्डुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसंधान/89 (8) प्रत्येक अध्याय के अन्त में भी यदि पुष्पिका हो तो उसे भी उद्धृत कर
देना चाहिये। 5. अन्तरंग परिचय का आन्तरिक पक्ष (क) प्रतिपाद्य विषय का विवरण । यथा, टेसीटरी-इसी अध्याय में पृ. 74 पर (ग)
'नागौर रे मामले री बात' का विवरण देखें। (ख) प्रारम्भ का अंश, कम से कम एक छन्द चार चरणों का तो देना ही चाहिए।
यदि प्रारम्भ के अंश में कुछ और ज्ञातव्य सामग्री हो तो उसे भी उद्धृत कर दिया
जाय, जैसे पुष्पिका । (यथावत् उद्धृत करनी होती है।) (ग) प्रारम्भ में यदि पुष्पिका या कोलोफोन हो तो उसे भी यथावत् उद्धृत करना
होगा। (घ) मध्य भाग से भी कुछ अंश देना चाहिये । ये अंश ऐसे चुने जाने चाहिये कि उनसे
कवि के कवित्य का आभास मिल सके। (ङ) अन्त का अंश, इस अंश में अन्तिम पुष्पिका, तथा उससे पूर्व का भी कुछ अंश
दिया जाता है। (च) परम्परागत फलश्रुति, लेखक की निर्दोषिता (जैसा देखा वैसा लिखा) तथा श्लोक
या अक्षर की संख्या । (छ) अन्य उल्लेखनीय बात या उद्धरण । यथा,
प्राप्ति स्थान, एवं उस व्यक्ति का नाम एवं परिचय जिसके यहाँ से ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है। विवरण के लिए प्रस्तावित प्रारूप
काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा ने विवरण लेने वाले व्यक्तियों की सुविधा के लिए प्रारूप मुद्रित कर दिया था । विवरण लेनेवाला उसमें दिये विविध शीर्षकों के अनुकूल सूचना भर देता है । इस योजना से यह भय नहीं रहता है कि खोजकर्ता किन्हीं बातों को छोड़ देगा । ऊपर जो विवेचन दिया गया है उसके आधार पर एक प्रारूप यहाँ प्रस्तुत किया जाता है।
हस्तलिखित ग्रन्थ (पांडलिपि ) का सामान्य
परिचयात्मक विवरण (रिपोर्ट) क्रमांक........
पांडुलिपि का प्रकार.......
गुटका/पोथी....
1. पांडुलिपि (ग्रन्थ) का नाम......" 2. कर्ता या रचयिता::....... 3. रचना काल....... 4. पुस्तक की कुल पत्र संख्या.......
विशेष(क) कितने पृष्ठ या पन्ने कोरे छोड़े गये हैं । किस-किस स्थान पर छोड़े गये हैं........ (ख) क्या कुछ पृष्ठ/पन्ने अपाठ्य हैं । कहाँ कहाँ ?......"
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90/पांडुलिपि-विज्ञान
(ग) क्या कहीं कटे-फटे हैं ? कहाँ-कहाँ ?........ 5. प्रत्येक पत्र की लम्बाई-चौड़ाई (इंचों या सेन्टीमीटरों में)........ 6. प्रत्येक पृष्ठ पर पंक्ति संख्या...."
प्रत्येक पंक्ति में अक्षर संख्या....." पांडुलिपि का लिप्यासन प्रकार"....
इट
शिला चर्म ताम्र या अन्य धातु का ताड़-पत्र भूर्जपत्र छाल, पेपीरस आदि कपड़ा कागज......"प्रकार सहित........ लिपि-प्रकार...... देवनागरी, मारवाड़ी, कैथी आदि लिखावट क्या एक ही हाथ की या कई हाथों की........ लिखावट के सम्बन्ध में अन्य विशिष्ट बातें........ प्रत्येक पन्ने पर लिपि की मापी.........
(औसत में) लिपिकार/लिपिकारों के नाम" स्थान....... लिप्यंकन की तिथि........ रचनाकार के आश्रयदाता...'
(परिचय) 13. लिपिकार के प्राश्रयदाता....
(परिचय) 14. रचना का उद्देश्य
प्रतिलिपि करने का उद्देश्य 16. पुस्तक का रख-रखाव
बुगचा, थैला, सामान्य वेष्टन, पुढे, तख्तियाँ, डोरी, ग्रन्थि, अन्य छादन"...... 17. विषय का संक्षिप्त परिचय-अध्यायों की संख्या के उल्लेख के साथ................ 17. (i) विषय का कुछ विस्तृत परिचय 18. प्रादि (उद्धरण)
15.
1. लिपि के माप से यह पता चलेगा कि अक्षर छोटे हैं या बड़े है ।
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19. मध्य (उद्धरण)
20 अन्त (उद्धरण)
21. ग्रन्थ में आयी सभी पुष्पिकाएँ
पांडुलिपि प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान / 91
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शोध-विवरण का यह प्रारूप अपने-अपने दृष्टिकोण से घटा-बढ़ा कर बनाया जा सकता है । इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि कोई भी महत्त्वपूर्ण बात छूट नहीं सकती है और सूचनाएँ क्रमांक युक्त हैं । यथार्थ से इन ग्रंकों का उपयोग भी लाभप्रद हो सकता है ।
विवरण लेखन मे दृष्टि
डॉ० नारायणसिंह भाटी ने 'परम्परा'" में डॉ० टेसीटरी के राजस्थानी ग्रन्थ सर्वेक्षण अंक' में सम्पादकीय में डॉ० टेसीटरी के शोध सिद्धान्तों को संक्षेप में अपने शब्दों में दिया है । वे इस प्रकार हैं :
1. " ग्रन्थ का परिचय देने से पहले उन्होंने बड़े गौर से उसे आद्योपान्त पढ़ा है तथा पूरे ग्रन्थ में कोई भी उपयोगी तथ्य मिला है उसका उल्लेख अवश्य किया है ।
2. डिंगल में पद्य और गद्य दोनों ही विधाओं के अधिकांश ग्रन्थ ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित हैं । अतः उन्होंने इतिहास को कहीं भी अपनी दृष्टि प्रोल नहीं होने दिया है । उस समय कर्नल टॉड के 'राजस्थान' के अतिरिक्त यहाँ का कोई प्रामाणिक इतिहास प्रकाशित नहीं था । अतः ऐसी स्थिति में भी ऐतिहासिक तथ्यों पर टिप्पणी करते समय लेखक ने सचेष्ट जागरूकता का परिचय दिया है और अनेक स्थलों पर अपना मत व्यक्त करते हुए शोधकर्त्ताओं के लिए कई गुत्थियों को सुलझाने का भी प्रयास किया है ।
3. कृति में से उद्धरण चुनते समय प्रायः इतिहास, भाषा अथवा कृति के लेखक व संवत् आदि तथ्यों को पाठक के सम्मुख रखने का उद्देश्य रखा है । उद्धरण अक्षरशः उसी रूप में लिए गये हैं जैसे मूल में उपलब्ध हैं ।
4. एक ही ग्रन्थ 'प्रायः अनेक कृतियाँ संगृहीत है परन्तु प्रत्येक कृति का शीर्षक लिपिकर्ता द्वारा नहीं दिया गया है । ऐसी कृतियों पर सुविधा के लिए टॅसीटरी ने अपनी ओर से राजस्थानी शीर्षक लगा दिये हैं ।
1. परम्परा (28--29), पृ. 1-2 ।
5. जो कृतियाँ ऐतिहासिक व साहित्यिक दृष्टि से मूल्यवान नहीं हैं उनका या तो उल्लेख मात्र कर दिया है या निरर्थक समझ कर छोड़ दिया है. परन्तु ऐसे स्थलों पर उनके छोड़े जाने का उल्लेख अवश्य कर दिया है ।
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92/पांडुलिपि-विज्ञान
6. जहाँ ग्रन्थ में कुछ पत्र त्रुटित हैं अथवा किसी कारण से कुछ पृष्ठ पढ़े जाने योग्य नहीं रहे हैं तो इसका उल्लेख भी यथास्थान कर दिया गया है।
7. जहाँ एक ग्रन्थ की कृतियाँ दूसरे ग्रन्थ की कृतियों के समरूप हैं, या उनकी प्रतिलिपि हैं या पाठान्तर के कारण तुलनात्मक दृष्टि से महत्त्व रखती हैं, ऐसी स्थिति में उनका स्पष्ट उल्लेख बराबर किया गया है।
8. जहाँ गीत, दोहे, छप्पय, नीसाणी आदि स्फुट छन्द आए हैं वहाँ उनका विषयानुसार वर्गीकरण करके उनके सम्बन्ध में यथोचित् जानकारी प्रस्तुत की गई है। कृति के साथ कर्ता का नाम भी यथासम्भव दे दिया गया है। कर्ता का नाम देते समय प्रायः उसकी जाति व खाँप आदि का भी उल्लेख कर दिया है।
9. डॉ० टैसीटरी प्रमुखतया भाषा-विज्ञान के जिज्ञासु विद्वान थे, अतः उन्होंने प्राचीन कृतियों का विवरण देते समय उनमें प्राप्त क्रियारूपों आदि पर भी अवसर निकाल कर टिप्पणी की है। लेखा-जोखा :
पांडुलिपि की खोज में प्रवृत्त संस्था या व्यक्ति उक्त प्रकार से ग्रन्थों के विवरण प्राप्त कर सकते हैं । साथ ही उन्हें अपनी इस खोज पर किसी एक कालावधि में बांधकर विचार करना और लेखा-जोखा भी लेना होगा। यह कालावधि तीन माह, छः माह, नौ माह, एक वर्ष या तीन वर्ष की हो सकती है।
यह लेखा-जोखा उक्त शोध से प्राप्त सामग्री के विवरणों के लिए भूमिका का काम दे सकता है । इसमें निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जा सकता है : लेखे-जोखे की कालावधि
सन्......"से सन्......"तक 1. खोज कार्य में आने वाली कठिनाइयां, उन्हें किन उपायों से दूर किया गया । 2. खोज कार्य का भौगोलिक क्षेत्र । सचित्र हो तो उपयोगिता बढ़ जाती है। 3. भौगोलिक क्षेत्र के विविध स्थानों से प्राप्त सामग्री का संख्यात्मक निर्देश । किस ___ स्थान से कितने ग्रन्थ मिले ? सबसे अधिक किस क्षेत्र से ? 4. कुल ग्रन्थ संख्या जिनका विवरण इस कालावधि में लिया गया ।
5. इस विवरण को (विशेष कालावधि में) प्रस्तुत करने के सम्बन्ध में नीति, यथा : (क) सबसे पहले मेवाड़ और मेवाड़ में भी सबसे पहले यहाँ के तीन प्रसिद्ध राजकीय
पुस्तकालयों-सरस्वती भण्डार, सज्जनवाणी विलास और विक्टोरिया हॉल लाइब्रेरी
से ही इस काम (शोध) को शुरू करना तय किया । __ "प्रारम्भ में मेरा इरादा जितने भी हस्तलिखित ग्रन्थ हाथ में आयें उन सबके नोटिस लेने का था । लेकिन बाद में जब एक ही ग्रन्थ की कई पांडुलिपियाँ मिली तब इस विचार को बदलना पड़ा"..."अतएव मैंने एक ही ग्रन्थ की उपलब्ध सभी हस्तलिखित प्रतियों का एकसाथ तुलनात्मक अध्ययन किया और जिन-जिन ग्रन्थों
1. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज (प्रथम भाग), प्राक्कथन पृ. क ।
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान/93
की विभिन्न प्रतियों में पाठान्तर पाया उन सब के नोटिस ले लिये और जिन-जिन ग्रन्थों की भिन्न-भिन्न प्रतियों में पाठान्तर दिखाई नहीं दिया उनमें से सिर्फ एक, सबसे प्राचीन, प्रति का विवरण लेकर शेष को छोड़ दिया । लेकिन इस नियम का
निर्वाह भी पूरी तरह से न हो सका "1---- (ग) “कुल मिलाकर मैंने 1200 ग्रन्थों की 1400 के लगभग प्रतियाँ देखीं और 300
के नोटिस लिये । मूल योजना के अनुसार इस प्रथम भाग में इन तीन सौ ही प्रतियों के विवरण दिये जाने को थे, लेकिन कागज की महंगाई के कारण ऐसा न हो सका और 175 ग्रन्थों (201 प्रतियों) के विवरण देकर ही संतोष करना पड़ा।
6. समस्त ग्रन्थों का विषयानुसार विभाजन या वर्गीकरण । पं० मोतीलाल मेनारिया ने इस प्रकार किया है :
1. भक्ति 2. रीति और पिंगल 3. सामान्य काव्य 4. कथा-कहानी 5. धर्म, अध्यात्म और दर्शन 6. टीका 7. ऐतिहासिक काव्य 8. जीवन-चरित 9. श्रृंगार काव्य 10. नाटक 11. संगीत 12. राजनीति 13. शालिहोत्र 14. वृष्टि-विज्ञान 15. गणित 16. स्तोत्र 17. वैद्यक 18. कोश 19. विविध 20. संग्रह
प्रत्येक खोज संस्थान या खोज-प्रवृत्त व्यक्ति को यह विभाजन अपनी सामग्री के आधार पर वर्गीकरण के वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार करना चाहिए । पुस्तकालयविज्ञान का वर्गीकरण उपयोग में लाया जा सकता है । प्रत्येक विषय की प्राप्त पांडुलिपियों की पूरी संख्या भी देनी चाहिए ।
1. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्यों की खोज (प्रथम भाग), प्राक्कथन पृ. ख । 2. वही पृ. 3. वही पृ. च
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94/पाण्डुलिपि-विज्ञान
धर्म
7. यह सूचना भी देनी होती है कि--- (1) ऐसे लेखक कितने हैं जो अब तक अज्ञात थे। उनकी अज्ञात कृतियों की
संख्या । (2) ज्ञात लेखकों को अज्ञात कृतियों की संख्या तथा नयी उपलब्धियों का
कुल योग । डॉ० हीरालाल, डी० लिट०, एम० आर० ए० एस० ने त्रयोदश त्रैवार्षिक विवरण (सन् 1926-1928 ई०) की विवरणिका में प्राप्त ग्रन्थों का विषयानुसार वर्गीकरण यों दिया था : "हस्तलेखों के विषय : हस्तलेखों के विषय का विवरण निम्नलिखित हैं :
358 हस्तलेख दर्शन
114 , पिंगल अलंकार श्रृंगार राग रागिनी नाटक जीवन चारित्र उपदेश राजनीतिक कोश ज्योतिष सामुद्रिक गणित व विज्ञान वैद्यक शालिहोत्र कोक इतिहास कथा-कहानी विविध
जोड़
1279 हस्तलेख"
8. मेनारिया जी और डॉ. हीरालाल जी दोनों के वर्गीकरण सदोष हैं, पर इनसे प्राप्त ग्रन्थ सम्पत्ति के वर्गों का कुछ ज्ञान तो हो ही जाता है । किन्तु पांडुलिपिविद को अपनी सामग्री का अधिक से अधिक वैज्ञानिक वर्गीकरण प्रस्तुत करना चाहिए, अन्यथा पुस्तकालय विज्ञान में दिये वर्गीकरण का सिद्धान्त ही अपना लेना चाहिये ।
9. नयी उपलब्धियों का कुछ विशेष विवरणा, उनके महत्त्व के मूल्यांकन की दृष्टि से :
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसंधान/95 इस विशेष कालावधि के विवरण में पुस्तकों के विवरणों को अकारादि क्रम से प्रस्तुत करने में सुविधा रहती है ।
कुछ अनुक्रमणिकाएँ दी जानी चाहिएँ । 1. ग्रन्थ नामानुक्रमणिका 2. लेखक नामानुक्रमणिका
लेखे-जोखे में रचना काल और लिपिकाल दोनों की कालक्रमानुसार उपलब्ध रचनाओं और विषयवार ग्रन्थों की सूचना भी दी जानी चाहिये। इसके लिए निम्न प्रकार की तालिका बनायी जा सकती है :
भक्ति विषय वर्ग
रीति काल
र० काल ग्रन्थ | लिपिकाल र० काल ग्रन्थ लिपिकाल यादि
संख्या ग्रन्थ सं० । संख्या । ग्रन्थ सं० 10011 1010 1020 1030 .
-
इस तालिका द्वारा शताब्दी क्रम से उपलब्ध ग्रन्थ-संख्या का ज्ञान हो जाता है।
एक तालिका यहाँ 'हिन्दी हस्तलेखों' की खोज की तेरहवीं 'विवरणिका' से उदाहरणार्थ उद्धृत की जाती है : शतियाँ 12वीं | 13वीं | 14वीं | 15वीं | 16वीं | 17वीं | 18वीं | 19वीं अज्ञात योग
2 |- -17 | 36 | 2011 209 1 4271 394 (1278
इस तालिका द्वारा शताब्दी क्रम से उपलब्ध ग्रन्थ संख्या का ज्ञान हो जाता है। इससे यह स्पष्ट है कि 13वीं विवरणिका के वर्षों में 12वीं शती से पूर्व की कोई कृति नहीं मिली थी। 12वीं शती की 2 कृतियाँ मिलीं। फिर दो शताब्दियाँ शून्य रहीं।
इस तालिका से यह विदित हो जाता है कि किस काल में किस विषय की कितनी पुस्तकें उपलब्ध हुई हैं। इस काल-क्रम से प्राचीनतम पुस्तक की ओर ध्यान जाता है । काल-क्रम में जो पुस्तक जितनी ही पुरानी होगी उतनी ही कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण मानी जायेंगी । इससे यह भी विदित होता है कि काल-क्रम में विविध शताब्दियों में उपलब्धियों का अनुपात क्या रहा?
अब तक के अज्ञात लेखकों और अज्ञात कृतियों का विशेष परिचय प्राप्त हो सके तो उसे प्राप्त करके उन पर कुछ विशेष टिप्पणियाँ देना भी लाभप्रद होता है।
काशीनागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्टों में जो क्रम अपनाया गया है, वह इस प्रकार है : (1) में विवरणिका, जिसमें खोज के निष्कर्ष दिये जाते हैं। फिर परिशिष्ट एवं रचयिताओं का परिचय । (2) में ग्रन्थों के विवरण, (3) में अज्ञात रचनाकारों के
1. इस 'काल-क्रम' का आरम्भ उस प्राचीनतम मन्/संवत् से करना चाहिये, जिसकी कृति हमें खोज में
मिल चुकी हो।
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96/पाण्डुलिपि-विज्ञान
ग्रन्थों की सूची, (4) में महत्त्वपूर्ण हस्तलेखों की समय-सूचक तालिका । यह परिपाटी दीर्घ अनुभव का परिणाम है। इसे कोई भी पांडुलिपि-विज्ञान-विद् अपने लाभ के लिये अपना सकता है।
तात्पर्य यह है कि लेखे-जोखे के द्वारा ग्रन्थ शोध से प्राप्त सामग्री का संक्षेप में मूल्यांकन प्रस्तुत किया जाता है, जिससे शोध उपलब्धियों का महत्त्व उभर सके । तुलनात्मक अध्ययन
पांडुलिपि-विद् के लिए यहीं एक और प्रकार का अध्ययन-क्षेत्र उभरता है। इसे उपलब्ध सामग्री का तुलनात्मक मूल्यांकन या अध्ययन कह सकते हैं । हमें क्षेत्रीय कार्य करते हुए और विवरण तैयार करते हुए कुछ कवि प्राप्त हुए । अब हमें यह भी जानना आवश्यक है कि क्या एक ही नाम के कई कवि हैं ? उनकी पारस्परिक भिन्नता, अभिन्नता और उनके कृतित्व की स्थूल तुलना करके अपनी उपलब्धि का महत्त्व समझा और समझाया जा सकता है । इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करना होगा। 'चन्द कवि' नाम के कवि के आपको कुछ ग्रन्थ मिले। आपने अब तक प्रकाशित या उपलब्ध सामग्री के आधार पर उनका विवरण एकत्र किया । तब तुलनापूर्वक कुछ निष्कर्ष निकाला। इसका रूप यह हो सकता है : कवि चन्द
हिन्दी साहित्य में आदिकालीन चंदवरदायी से लेकर आधुनिक युग तक चंद नाम के अनेक कवि हुए हैं । 'मिश्रबंधु विनोद' ने 'चंद' नाम के जिन कवियों का उल्लेख किया है उनका विवरण निम्न प्रकार है। इस विवरण के साथ ‘सरोज सर्वेक्षणकार' की टिप्पणियाँ भी यथास्थान दे दी गई हैं । मिश्रबन्धु विनोद
भाग 2 पृष्ठ---548 नाम-(1316) चन्द्रधन ग्रन्थ---भागवत-सार भाषा।
कविताकाल--1863 के पहले (खोज 1900)। यहाँ वैषम्य केवल इतना है कि हमारे निजी संग्रह के कवि का नाम 'कवि चन्द' है और मिश्रवन्धु में चन्द्रधन ।।
अब ‘चन्द' नाम के अन्य कवि 'मिश्रबन्धु विनोद' में नाम साम्य के आधार पर
प्रथम भाग (135) चन्द पृष्ठ 134 प्रन्थ-हितोपदेश कविताकाल-सं० 1563 पृ०---71 (39) नाम महाकवि चन्द बरवाई ग्रन्थ-पृथ्वीराज रासो
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसंधान 97
सरोजकार ने पृथ्वीराज रासो के रचयिता चन्द को ‘चन्द कवि प्राचीन वन्दीजन, सम्भल निवासी' स्वीकार किया है । सं० 1196 में उपस्थित माना है।
सरोज-सर्वेक्षणकार ने चन्द का रचना काल सं0 1225 से 1249 तक माना है। इनकी मान्यता के अनुसार चन्द की मृत्यु सं० 1249 में हुई ।
द्वितीय भाग प्र०--278 (538) नाम-(403) चन्द
ग्रन्थ-नागनौर की लीला (कालीनाथना)। मगंज सर्वेक्षण कार का मत है कि इस पुस्तक का नाम 'नाग लीला' भी है।
रचना काल-1715 पृ०-325 (382) चन्द व पठान सुल्तान
सरोजकार ने इस चन्द कवि को संवत् 1749 में उपस्थित माना है । कवि सुलतान पठान नवाब राजागढ़ भाई बन्धु बाबू भूपाल के यहाँ थे । इन्होंने कुण्डलियाँ छंद में सुलतान पठान के नाम से बिहारी सतसई का तिलक बनाया है।
सरोज सर्वेक्षणकार का मत है कि चन्द द्वारा प्रस्तुत यह टीका मिलती नहीं है । भूपाल का नवाब सं० 1761 में सुलतान मुहम्मद खाँ था। इन्हीं के आश्रित चन्द कवि का उल्लेख मिलता है।
तृतीय माग पृष्ठ-44 (2138) नाम--(1784) चन्द कवि विवरण-सं0 1890 के लगभग थे। पृष्ठ-85 (2341) नाम-(2003) चन्द कवि
ग्रन्थ-भेद प्रकाश-(प्र० भ्र० रि०), महाभारत भाषा (1919) (खोज 1904)।
कविताकाल-सं० 1904
कुछ-कुछ नाम साम्य के आधार पर निम्न कवि मिश्रबन्धु विनोद से मिलते हैं । ये चन्द नाम के नहीं, वरन् चन्द से मिलते-जुलते नाम वाले हैं। इन्हें यहाँ केवल इसलिए दिया जा रहा है कि इनके नाम में जो साम्य है, उससे कहीं प्रागे भ्रम न रहे और 'चन्द' या 'चन्द्र' जिसका नामांश है वह भी ज्ञात हो जाय ।
- प्रथम भाग पृष्ठ-194 (265) नाम-चन्द सखी (ब्रजवासी)
1. सरोजकार से हमारा अभिप्राय 'शिवसिंह सरोज' के लेखक से है। 2. 'सरोज सर्वेक्षणकार' से हमारा अभिप्राय डॉ. किशोरी लाल गुप्त से है।
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98, पाण्डुलिपि-विज्ञान
कविता काल----1638
द्वितीय भाग पृष्ठ-301 (584) नाम-----चन्द्रसेन ग्रन्थ माधव-निदान पृष्ठ-467 (1066/2) नाम--- चन्द्रलाल गोस्वामी (राधावल्लभी)। कविता काल---1824 (द्वि० ० रि०) पृष्ठ-344 (763) नाम-चन्द्रलाल गोस्वामी (राधावल्लभी) कविता काल--1767 पृष्ठ-~-437 (998) नाम--चन्द्र (राधा वल्लभी) रचनाकाल-1820 पृष्ठ-466 (1064) नाम-चन्द्रदास कविता काल-1823 के पूर्व पृष्ठ-470 (1077) नाम- चन्द्र कवि सनाढ्य चौबे कविता काल-1828 पृष्ठ-475 (1094) नाम-~-चन्दन समय-सं० 1830 के लगभग वर्तमान थे। पृष्ठ-815 नाम-(1011) चन्द्रहित, राधावल्लभी पृष्ठ-508 नाम---(1190/1) चन्द्र गुसाई रचनाकाल-1846 पृष्ठ-571.... . नाम--(1433) चन्द्रशेखर वाजपेयी
तृतीय भाग
पृष्ठ---13
नाम-(1716) चन्द्रदास नाम-(1717) चन्द्ररस कुद नाम--(1718) चन्द्रावल पृष्ठ-~-77 नाम---(2248) चन्दसखी
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पांडुलिपि - प्राप्ति और तत्सम्वन्धित प्रयत्न क्षेत्रीय ग्रनुसंधान / 99
कविताकाल - 1900 के पूर्व
पृष्ठ-154
नाम --- (2634) चन्द्रिका प्रसाद तैवारी
पृष्ठ-196
नाम - ( 2923) चन्द्र झा
पृष्ठ 260
नाम -- (3255) चन्द्रभान रचनाकाल
सं० 1875
चतुर्थ भाग
पृष्ठ - 322
नाम - ( 3449) चन्द्रकला बाई समय - सं० 1950
पृष्ठ - 406
नाम --- ( 3853) चन्द्र मनोहर मिश्र रचनाकाल -सं० 1963 पृष्ठ - 410
नाम -- ( 3858) चन्द्रमौलि सुकुल रचनाकाल - सं० 1964 पृष्ठ-413
नाम -- (3867) चन्द्र शेखर शास्त्री
रचनाकाल - सं० 1965
पृष्ठ-417
नाम -- ( 3878) चन्द्रभानु सिंह दीवान बहादुर
रचनाकाल - सं० 1967
पृष्ठ-447
नाम - (3970) चन्द्रशेखर मिश्र
पृष्ठ-454
नाम - ( 4028) चन्द्रशेखर (द्विज चन्द्र )
जन्मकाल - सं० 1939
पृष्ठ-456
नाम -- ( 4055) चन्द्रलाल गोस्वामी
जन्मकाल --- लगभग 1940
नाम - ( 4056) चन्द्रिका प्रसाद मिश्र
रचनाकाल — सं० 1965
पृष्ठ - 464
नाम -- ( 4117) चन्द्रराज भण्डारी पृष्ठ-- 465
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100/पाण्डुलिपि-विज्ञान
नाम--(4124) चन्द्रभानु राय पृष्ठ--480 नाम-(4216) चन्द्रमती देवी जन्मकाल-सं० 1950 पृष्ठ-520 नाम--(4312) चन्द्रमाराय शर्मा रचनाकाल--म० 1982 पृष्ठ ---557 नाम--(4437) चन्द्रशेखर शास्त्री जन्मकाल. -मं० 1957 पृष्ठ----574 नाम----(4521) चन्द्रकला
रचनाकाल-मं० 1987 सरोजकार ने उपर्युक्त 'चन्द' कवियों के अतिरिक्त निम्नलिखित दो अन्य कवियों हा उल्लेख किया है
प्रथम-चन्द कवि । यह सामान्य कवि थे। इन चन्द कवि के सम्बन्ध में सरोज सर्वेक्षणकार ने लिखा है कि कायस्थों की निंदा का एक कवित्त सरोज में प्रस्तुत किया है ।
द्वितीय-चन्द कवि के सम्बन्ध में सरोजकार ने लिखा है कि इन्होंने शृंगार रस में बहुत सुन्दर कविता ही है । हजारा में इनके कवित्त हैं। सरोज सर्वेक्षण कार ने इन चन्द कवि का अस्तित्व सं० 1875 के पूर्व स्वीकार किया है।
मिश्रबन्ध विनोद और 'सरोज सर्वेक्षण' से 'चन्द कवि' नामधारी कवियों के इस सर्वेक्षण के उपरान्त कुछ अन्य स्रोतों से भी 'चन्द' नाम के कवियों का पता चलता है, उन्हें यहाँ देना ठीक होगा।
एक कवि चन्द का उल्लेख 'जयपुर का इतिहास में है। इस 'चन्द कवि' के ग्रन्थ 'नाथ वंश प्रकाश' का उल्लेख इसमें हुआ है। ये चौमू नरेश रणजीतसिंह तथा कृष्णसिंह
और जयपुर नरेश जगतसिंह के समकालीन थे। 'नाथ वंश प्रकाश' में से 'जयपुर का इतिहास' में जो उद्धरण लिखे गये हैं-वे निम्नलिखित प्रकार हैं--- (अ) जहाज (भाज) की लड़ाई में रणजीत सिंह की विजय--..
"शहर फतेहपुर में फते-करी नंद रतनेश ।
झाज गयो पापाण तजि, लखि रगाजीत नरेण ।" (प्रा) महाराजा जगत सिंह (जयपुर) की सेनाओं द्वारा जोधपुर को घेरने का उल्लेख
गही कोट की अोट को, मान प्रभा बलमन्द ।
लूटि जोधपुर को लियो कृष्ण सुभाग बलन्द । 1. शर्मा, हनुमानप्रसाद-जमपुर का इतिहास, पृ. 226. 2. बही, पृ. 226. 3. वही, पृ. 231.
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न क्षेत्रीय अनुसंधान / 101
'नाथ वंश प्रकाश' ( पद्य 275) में लिखा है कि 'मीर खाँ' के युद्ध के समय कृष्ण सिंह जी का चेहरा चमकता था और शत्रुगरण उससे क्षोभित होते थे ।
'नाथ वंश प्रकाश' ( पद्य 270 ) में लिखा है कि समरू बेगम ने चौमूं पर चढ़ाई की। उस समय उसका कर्नल आगे आया था । उसको कृष्ण सिंह जी ने ससैन्य परास्त किया और उसके साथ वालों के रुण्ड-मुण्ड उठाकर पीछे हटा दिया ।
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'प्राचार्य श्री विनय चन्द ज्ञान भण्डार ग्रंथ सूची ( भाग - 1 ) से विदित होता है कि इस भण्डार में चन्द कवि के तीन ग्रंथ हैं-
1. चन्द - नेम राजमती पद (हिन्दी - राजस्थानी ) 5 छंद 1
2. चन्द - राधा कृष्ण के पद - 5 पद
3. चन्द - सीमन्धर स्वामी की स्तुति - 6 छन्द
इनमें से दो जैन कवि हैं और एक कवि को उसकी रचना के विवरण के आधार पर वैष्णव माना जा सकता है ।
इससे पूर्व कि कवि चंद के सम्बन्ध में ऊपर की सूची को लेकर और पं० कृपा शंकर तिवारी के हस्तलेखागार में प्राप्त सामग्री के आधार पर कुछ कहा जाय हम तिवारी जी की सामग्री पर भी संक्षिप्त टिप्पणियाँ नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं ।
(1) कवि चंद
रचना -- नाग दवन ('नाग लीला' लिपिकार द्वारा) पूर्ण । रचना काल - संवत् 1756 श्री. सु. 5, बुधवार ।
लिपिकाल - संवत् 1869 अध० बदी 3, फोलियो 1 से 9 तक
विवररग
यह ग्रन्थ कवि चंद द्वारा संवत् 1756 में रचा गया है। इसमें कृष्ण द्वारा काली दमन की घटना का वर्णन है । ग्रन्थ ब्रज एवं राजस्थानी भाषा से युक्त है । कवि ने द्वित शब्दों का अवसरानुकूल प्रयोग किया है । भाव, भाषा, शैली आकर्षक है । कहीं-कहीं पृथ्वीराज रासो की सी झलक दृष्टिगत होती है। प्रारम्भ में गणेश, शारदा की वंदना है । कवि ने चोपाई का अधिक प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त अरिल्ल, छप्पय, दोहा, भुजंगी, कुण्डलियाँ, पाधरी, सर्वया आदि का अच्छा प्रयोग किया है । भावनाओं का वर्णन करने में कवि सफल हुआ है । यह ग्रन्थ पूर्ण है । उदाहरणार्थ :
प्रारम्भ
दोहा
हौ गनपति गुन विस्तरों सिधिवुधि दातार । अष्ट सिधि नव निधि करो कृपा करतार ॥ तुब तन बरदाइनी करें मूढ़ कबिराइ । बुधि विचित्र कवि चन्द को दे अब सारद भाइ ।। सत्रह से दस पंचच्छर मैं नही
1. भानावत, नरेन्द्र (डॉ०) सं. - आचार्य श्री विनय चन्द ज्ञान भंडार, ग्रन्थ सूची, पृ. 38 |
2. वही, पृ.661
3. वही, पृ. 88
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102 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
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नागदवन ( नागलीला )
सढ़ि सांवन तिथि पंच चन्द कवियों कही | मढ़यौ ग्रन्थ गुन मूल महा बुधवार है परिहां हाजूं नागदवनि कौं छंद कियो विस्तार है ॥
इसी कवि की इसी 'नागदमन' या 'नागलीला' की एक हस्तलिखित प्रति की सूचना श्री कृष्ण गोपाल माथुर ने दी है । उन्होंने इसका रचनाकाल संवत् 1715 माना है । ऊपर हमने ग्रन्थ में श्राये तिथि विषयक उल्लेख को उद्धृत कर दिया है । इसमें सत्रह से दस पंचर' लिखा हुआ है । इसका अर्थ करते समय यदि हम 'पंच' शब्द पर ही रुक जायेंगे तब तो सं० 1715 मानना होगा जैसा कि श्री माथुर ने माना है किन्तु पूरा शब्द 'दस पंचछः ' है जो कि संधि के कारण 'पंचछर' हो गया है । अतएव हमारी दृष्टि में इसका ठीक र्थ होगा - सत्रह सौ और दस पंच = 50 +6 अर्थात् 1756 1 नागदवन के कुछ पद उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं ।
रिस रोस रहा मुरली धुनिको सुनि नाद गाव तिहुंपुर छांही । व्याल जग्यो जम ज्वाला उठी विख झाल इति ब्रह्ममण्डल माहीं । हरखि जसुधा व्रज की वसुधा जब फुलि फिरयी घर ही घर मांहीं । कंस गिरयों मुरझाइ तबै घरको छतियां मुरली धुनि पांहीं ॥। मुरली धुनि को सुनि सबद चौंकि उठयो तत्काल झटकि पुंछि फन फुकरत उठयो क्रोध को काल ||
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जागो भाग काली धरा भूमि हाली, विखं ज्वालाभाली हरे वृद्ध जाली । कछे बदल संग्राम को वन्नवारी, फन्नफुकरं फफुन झांक अरी | लरी निरख झाला मुरछे मुरायरी, हरख्खी दुचि भइ नाग नारी । हट को वनाने कह्यो वृधवारी, हंसते उठे चेति वाला विहारी । कछे काकली प्रीति वाधै कटैठी, भुजां ठाक ठाठे अखारे मेंहीं । सु सूंघे अचानक कूदे कन्हाई, घिरे कुण्डली मघि बैठे नन्हाई । वनं तालज्जै सिरं सेस मद्धि, द्विपावै तनं तो करें पूछि सद्धी । रिसं रोस सेस बिखं झाल अग्गी, जले झार भासे द्रुमंदाह लग्गी । वुझाव जदुनाथ एह्थयवथ्यं वजै मुठि पंसी जुतीर तत्त । झट वकै फनं पुछि फुकारं भारे, जदुनाथ ज्यां गारहु उदं मारे || नफरी बजै बैस मंजीर मेरं बजे ताल तूंवर घंटा घनेरं बजे दुदुभि सुर नाइ चंगी वजै मोह चंथं दुतारा उपगी । प्रौ संरगी बजी खंजरी सब-नाद उपज्यो सही तो महा रुप स्वादं । बजै संख सुधं प्रसखं अभंगी नरसिंघ वज्जे उछाहं सुअंगी । बजे घुंघरु घू घरी घोर-नीकी कंटताल कंसावरी नाद हीकी । हथं नाल बजे अलगोज भारी, नचे ग्वाल वालं सु प्रानंद कारी ॥
भई वधाई व्रज में जदुकुल हरखि अपार । सकल सभा रछा करें काली नाथ न हार ।।
1. बीणा, ( इन्दौर), अप्रैल, 1972, पृ. 53
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान / 103
(2) कवि चंद रचिन ग्रन्थ-भागवत् दोहासूची ग्रन्थ ।
रचनाकाल-सं० 1896 (नरसिंह चौदस को पूर्ण हुई)। पुस्तक विवरण--
जिल्द की सिली हुई, दायें-बायें हाशिया, 10.6 इंच, कुछ जीर्ण, देशी कागज । फोलियो सं० 32 । कुछ दो-तीन पृष्ठ खाली हैं । दसम स्कंध रंगीन हाशियों में लिखा है। लिपिकाल--
इसमें लिपिकार का नाम तथा काल नहीं दिया है। ऐसा विदित होता है कि यह स्वयं कवि की ही लिखी पहली प्रति है । एक ओर का पुट्ठा नहीं है । लेख सामान्य रूप में सुपाठ्य है। विवरण
यह पुस्तक कवि चन्द रचित है । यह कवि चन्द वाघ नृपति के पुत्र हैं। यह पूर्ण श्रीमद्भागवत् श्रीधरी टीका की दोहों में सूची है। कवि ने एक-एक दोहे में एक-एक अध्याय का अर्थ लिखा है, इस प्रकार से सभी स्कंधों के अध्यायों की दोहे में सूची है। इतने बड़े अध्याय की दोहे में सूची बनाना कठिन कार्य है। चन्द कवि ने इसमें सफलता पाई है। भाषा ब्रजभाषा है । धर्म की दृष्टि से कवि का यह प्रयास विशेष महत्त्व रखता है । पुस्तक विभिन्न स्कधों में विभाजित है । दसम स्कंध कवि ने सं० 1805 असाड़ बु० पडवा गुरु को समाप्त किया । द्वादस स्कंध सं० 1896 नरसिंह चौदस को समाप्त हमा।
कवि ने अपने परिचय में केवल निम्न पंक्तियाँ लिखी हैं---
इतिश्री भागवते महापुराणं श्री धरी टीकानुसारणं 12 स्कंधे सूची सम्पूर्ण महाराज श्री बाघ सिंह जी फतेहगढ़ नृपत सुतचन्द कथक्तत दोहा समाप्तं ।
कवि ने प्रारम्भ में वल्लभाचार्य, विट्ठलनाथ जी और उनके पुत्र की गुरु के रूप में वंदना की है । पुष्टि मार्ग की महानता भी बताई है ।
उदाहरण
दसवीं अध्याय दिलीप रा रामचन्द्र अवतार । रावण हत पाए अवधि ताकै कैज सहै भार । भ्रातन जुत श्री रामचन्द्र जिग कीयि अवध विराज । ग्यारीध्या मण्डल कथा विरची सुक सुभ साज ।
इक-इक दोहा में लिख्यो इक ईकध्या कौर्थ । सूची द्वादसकंध की स्मजन बुध असमर्थ । बाघ नपत सुत चन्द कृत दुहा सूची मांन ।
को विद वाज विचार कर सुध कीज्यो बुधवान । टिप्पणी-अन्तिम पृष्ठ में जगदीश पण्डे के सम्बन्ध में लिखा है ।
(3) कवि चंद (घ) रचना--अभिलाष पच्चीसी
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104, पांडुलिपि-विज्ञान
लिपिकाल--सं० 1833 (एक लिखावट के कारण) फोलियो ! ले 8 तक, रचना
पूर्ण है। विवरण
कवि चंद के हित हरिवंश हरिव्यासी सम्प्रदाय के हैं । इसमें इन्होंने नागरीदास का भी नाम लिया है । सुन्दर ब्रजभाषा में कवित्त सवैया में रचना है । अभिभावनायुक्त सुन्दर 26 पद हैं । रचनाकार ने इसका नाम मनो-अभिलाषा रखा है।
उदाहरणार्थ 'अमिलाष पच्चीसी' में से कुछ पद प्रस्तुत हैं :प्रारम्भ---
जाति पाति नाना भाँति कुल अभिमान तजि निसी दिन सीस को नवाऊं रसिकन मैं । सेवा कुज मण्डल पुलिन वंशीवट निधिवन औ समीर धीर बिचरौ मगन में । लता द्रुम हेरो राधाकृष्ण कहि टेरौं, रज लपटाऊ तन मैं औ सुख पाऊ मन मैं । अहो राधा वल्लभ जू तुम ही सौ विनती है जैसे बन तैसी मोहि राखौ वृन्दवन में ।।
सध्य
वह वन भूमि द्रुम लता रही झमि लेतो त्रिविधी समीर सौ रुस्ति लहकि लहकि । फुली नव कुज तहां भंवर करत गुज सदा सुख पुंज रहयौ सौरभ मकि महकि । कौकिल मयूर सुक सारों आदि पक्षी सब दम्पति रिझावत है गावत गहकि गहकि । हित सौ जे देखें नित तिनकी दो कहा कहौं । बात ही मैं चन्द चित जात है बहकि बहकि ।।
अन्त
ढोलक मृदंग मुह चंग और उमंग चंग गदायरो तंबूरा बीन आदि सब साज है। इनको भिलाइबो परन उपजाईबो सरस रंग छाईबौ प्रवीनन को काज है। कर सौ तो कर प्रो सुधर होत जैसे सब सौज तैसे रसिक रयाज है। जब मिल संगी चन्द रस रंगी
तब रंग जाम टुटै भव पाज है। (ब) रचना-समय पचीसी रचनाकार--कवि चंद हित
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रचना का समय नहीं दिया है । ग्रन्थ पूर्ण है। लिपिकाल और लिपिकार संवत् 1833 वि. । फोलियो 9 से 15 तक ।
विवरण
अन्त
भक्तियुक्त अत्यन्त सुन्दर ब्रजभाषा के कवित्त सवैया इस ग्रन्थ में हैं। पद संख्या कुल 26 हैं । रचना पूर्ण है । उदाहरणार्थ
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प्रारम्भ---
मध्य
श्रन्त
:
इतनी विचारि चन्द सबन सौ नय चले जाएँ भला होई सोई करो निशि भोर ही ।
उदाहरणार्थ---'समय पच्चीसी' के कुछ पद प्रस्तुत हैं
समय बिपरीति कहूं देखिये न प्रीति
मिटि गई परतीति रीति जगन की न्यारी जू 1 स्वारथ मैं लगे परमारथ सौ भगे झूठे तन ही में पगे साची वस्तु न निहारी जु । मोह मैं भुलाने सदा दुख लपटानें ज्ञान ऊर में न आने भक्ति हिय में न धारी जू" । चंद हितकारी तौपे होत बलिहारी लाज तुमको हमारी कृपा करिये बिहारी नृ ||
जग दुख सागर में गोता खात जीव यह माया की पवन के झकोर मांझ परचों है । धारि शिर भार क्योहु हो नहि पार से करत विचार मन मेरो अरबरयो है टेरत तहा ते दीनबन्धु करुणा के सिन्धु तुम बिन दुख को को काप जात हय है । वह प्राण धर्यो, कृपा ही कों अनुसरयों प्यारे जोई तुम कर्यो सोई आनन्द सौ भय है ।
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दैनि के समय मैं न होत हैं प्रभात कहुं भोर के समय मैं न होत कभू रात है । ठीक दुपहर मांझ होत नहिं संझ चन्द सांझ ही के मांझ कहो कैसे होत प्रात है । प्रात मध्य सांझ रात होत है समय ही मैं
से हानि लाभ सुख दुख निजु गात है । सम की जो बात तेतौ सम ही मैं होतजात जानत बिबेकी विवेकी पछितात है ।
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106/पाण्डुलिपि-विज्ञान
(स) रचना-श्री राम जी चौपर को ष्याल रचनाकार-कवि चन्द (हित) लिपिकाल--- 1 82 3, अपूर्ण । फोलियो 15 से 20 तक ।
इस रचना में 12 पद पूर्ण हैं। 13वाँ पद पूर्ण नहीं है और मागे के पृष्ठ नहीं है । अतः यह विदित नहीं होता कि रचना कितनी बड़ी है । पद बड़े सुन्दर हैं । भाषा ब्रजभाषा है । कवित्ता सवैया का प्रयोग है । उदाहरणार्थ :---
चीपर को पयाल सब षेलत जगत माझ
यह सब ही को ज्ञान प्रगट दिषावै है। नोट :---यह चन्द हित है, इनका रचनाकाल जानना है । तीनों ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण
inc'
उदाहरणार्थ--'श्री राम जी चौपर को ज्याल' के पद उद्धृत किये जाते हैं।
चौपर
कविता बनावें पाछे अछरनि लावै जानि जमक मिलावै अनुप्रास हं सबै कहौं । भाट ह्व सुनाव हरखावै ललचाव, दाम एक नहिं पाव वृथा नर की कृपा चहै। सब मैं प्रवीन हरिपद मैं न लीन प्रेम रस के नहीं लहै . भक्ति सौ विमुख ताको मुख न दिखाओ हम चाहत हैं यह वासौं दूर नित ही रहै उत्तम पदारथ बनाय के जो आगे धरै तहि नहि देखें यह भुस को चरेल है। असे परमारथ की बात न सुहात याहि बृथा बकवाद विख सेवे बिगरैल है ।
आगे और पीछे को विचार नाहि करे कम् महानीच सबही सौं अरत अरेल है हरि गुरु कौं संतन को रूप नहि जान्यो यात भक्तिहीन नर सींग पूछ बिन वैल है ।।
अब साय लिक्खते
रूप के सरोवर में अली कुमुदावली है लाल है चकोर तहां राधा मुख चन्द है छवि की मरीचिन सौ सींचत है निस दिन कोटि कोटि रवि ससि लागे अति मन्द है इकटक कर रहैं मुख नाम सुख लहैं फिरि कृपा दृष्टि चहैं सुख रूप नंदनंद हैं
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान 107
जाको बेद गावै मुनि ध्यान हुं न पावै तती बलि बलि जावै चन्द फसे प्रेम फन्द्र है। पीत रंग बोरे खरे खेलत है हौरी दाऊ वृन्दावन वीथिन मैं धूम मची भारी हैं। सुधर समाज सब सखी सौंज लिये सौहैं फैटनि गुलाल कर कंज पिचकारी हैं। चोटनि चलाव तब तब चावत अदायनि यो नैननि नचावत हंसत सुकुवारी हैं । हो हो कहि बोलें चन्द हित संग डोने
कहै सुख को निकेत ये बिहारिन बिहारी है ।। (द) रचना---चंद्र नाथ जी की सबदी प्रति गृढ भाषा में 19 पद हैं । यह ग्रन्थ योग से सम्बन्धित है ।
उदाहरण
काया सोनौ सिध सुनार प्रारम्भ अग्नि जगावण हार । ताहि अग्नि को लागौ पास
अग्नि जगाई चकमक स्वास । (3) ग्रन्थ----श्री नीतिसार भाषायाम रचनाकार-कवि चन्द रचनाकाल-जयपुर नरेश सवाई जयसिंह जी का समय लिपिकाल-कवि के समय का अथवा अनुमान से 200 वर्ष प्राचीन
विवरण
यह पुस्तक 5:8 इंच चौड़ी लगती है। दोनों ओर 1 इंच की जगह छूटी हुई है। एक हाथ की सुन्दर सधी हुई लिखावट है । यह पुस्तक अलग-अलग जुज में है, इस समय बिना सिलाई के है । सारी रचना जो विद्यमान है उसका अन्तिम फोलियो नं. 59 है परन्तु गणना करने से 64 होती है। प्रारम्भ का फोलियो अप्राप्य है, मध्य के 16 फोलियो नहीं हैं । अन्त के अनुमान से 1 या 2 फोलियो नहीं हैं ।
यह रचना कवि चंद रचित है, कवि ने जयपुर राज्य के मुसाहिब श्री मनोलाल दरोगा के लिए यह रचना की। मनोलाल दरोगा धर्मात्मा, वीर, उदार, नीतिज्ञ था। रचना में नीतिसार ग्रन्थ को अपूर्व कौशल के साथ ब्रजभाषा में दोहा, सोरठा, चौपाई, बरवे, अडिल, त्रोटक, छप्पय, कवित्त, कुण्डलियाँ, आदि छंदों में प्रकट किया है । राजनीति सम्बन्धी सम्पूर्ण आवश्यक बातों का, यथा-युद्ध की सामग्री, व्यूह प्रति व्यूह आदि अनेक बातों का उल्लेख किया गया है । अनेक दृष्टियों से यह रचना महत्त्वपूर्ण है। राजा-मन्त्री के गुणों का विस्तार से प्रकटीकरण है। कवि ने रचना को सर्गों में विभाजित किया है।
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श्रत-
६ / पाण्डुलिपि - विज्ञान
1- इन्द्री जयो विद्यावृद्धि संजोगोनाम प्रथमो सर्ग - 65 छंद
2 - विद्या उपदेश वर्णाश्रमधर्म दण्ड महात्मनां द्वितीयों सर्ग-35 छंद
3-प्राचार् व्यवस्थानां तृतीय सर्ग - 29 छंद
4 - राजा मुसाहिब देश कोष षजानों फौज, मित्र परीक्षण गुण वर्णनां चतुर्थ मर्ग - 49 छंद
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5 - भृत्य मित्रं वंधन उपदेस सामान्य जीत नृत्य नाम पंच सर्ग - 5 लंद
6- कंटक सागोनाम षष्टं सर्ग - 12 छंद
7- राजपुत प्रातमारनदास सरश्ता वर्णनाम् सप्तम् - 41 छंद
४- अष्टमोसर्ग के केवल 32 छंद इसमें हैं ।
५) -- प्रप्राप्य
10 अप्राप्य
11 अप्राप्य
12 श्रप्राप्य
13- प्रकीलचर प्रकरण वर्णनोनाम त्रयोदश सर्ग -42 छंद 14 - प्रकृति कर्म प्रकृति विशन वर्णनों नाम चतुर्दश - 43 छंद 15 - राजोपदेश सप्त विसन दूषरण वनेनोनामं पंचदसमी - 39 छंद
16 - राजोपदेश जाना जुवति दरसनों नाम षोडसोसर्ग - 44 छंद
17 - दरसैनो नाम सप्तदश सर्ग - 21
18- अष्टादेशमा सर्ग - 38
19- उनीसवो सर्ग -39
20 - बीसवें सर्ग में व्यूह आदि का तथा अंत में काव्य-ग्रन्थ प्रयोजन दिया है जो 51 वें छंद तक है । आगे के पृष्ठ नहीं हैं ।
इस प्रकार से इस पुस्तक में लगभग 630 छंद प्राप्य है ।
उदाहरण
दोहा
गुरु सेवहु नृप पद वितै पावहु कमला पूर सिक्षा से नीतिहि बढ़े शत्रु हनियतै सूर । जाबर भूप नहि नीति रस ताजीत अरिहीन छोटो ह जग जय लटै राजा शिक्षा लीन ||
प्रगटि घर
श्री जय साहि नरेम धरम अवतार जिनके प्रष्ट प्रधान नीति धम जान बुधिवर सिंधी थारांम स्वांम के काम सुधारत फोज मुसाहिब हुकुमचंद दल उदन विदारत जीवरण जु सिंध विजम प्रतुल मंत्री विमल प्रभानिये मनाजुलाल बगसि बिलंद टाल हिन्दु की जानिये ।
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान / 109
अमा जु चंद दीवान स्वामिमि हरिभक्त है मानासिध सिंघ जिमि बल दंडन अनुरक्त है सिरमोर सीतलाल पालना प्रजा समाम्ह षंवरि विदिसि दिस गहत षरच आवदनी हत्थ है
सब विधि सुजांन बुधिवान वरम नी लाल उदारचित । सवैयों के अंत में लिखा है “इति श्री नीतिसारे भाषायां कवि चद विरचितं दरागाजी श्री मनालालजी हेत”।
यह प्रति प्रारम्भिक प्रति हो सकती है । इसमें अनेक स्थानों पर शुद्ध किया हुआ है।
ऊपर हमने मिश्रबन्धु विनोद से चन्द अथवा चन्द्र और उनके नाम साम्य वाले कवियों की सूची दी है । उसका एक कारण सीधा यह है कि हमें हिन्दी में चन्द नाम तथा माम्य रखने वाले नाम के कवियों का एक साथ ज्ञान हो जायेगा किन्तु हमारा दूसरा उद्देश्य और मुख्य उद्देश्य यह जानना भी है कि जो ग्रन्थ हमें उपलब्ध हुए हैं और जिनके लेखक जो चंद नाम के कवि हैं उनका पता मिश्रबंधुओं तक मिल सका था अथवा नहीं। इसमें जिन चन्द नाम के कवियों का साहित्य मिला है उनमें से एक तो 18वीं शताब्दी का कवि है । शेष सभी 19वीं शताब्दी के विदित होते हैं । मिश्रबन्धु विनोद के चन्दबरदायी तो प्रसिद्ध हैं और प्रसिद्धि से भी अधिक विवादास्पद हैं । दूसरे चन्द हितोपदेश के लेखक हैं। जिनका रचना काल 1563 माना गया है । अर्थात् वे 16वीं शताब्दी के हैं । एक चन्दसखी ब्रजभाषी 1638 यानी 17वीं शती के हैं । 18वीं शती के कवि हैं एक चंद 'नागनौर की लीला' के लेखक जिनका रचनाकाल 1715 या 1756 है । दूसरे चंद पठान और सुलतान है जिनका समय 1761 है । एक चन्द्रसेन को 1726 के पूर्व का बताया गया है । एक चन्दलाल गोस्वामी 1768 के हैं । ये राधावल्लभी हैं। ये 18वीं शताब्दी के कवि हैं। 19वीं शताब्दी के कवियों में एक चन्द्रधन हैं 'भागवत सार भाषा' के लेखक जिनका समय 1863 बताया गया है । दूसरे चन्द्र राधावल्लभी हैं जिनका समय 1820 बताया गया है । एक चन्द्रदास को 1823 के पूर्व का, फिर एक चन्द्रलाल गोस्वामी राधावल्लभी जिनका कविता काल 1824 माना गया है । सम्भवतः ये वही चन्द्रलाल हैं जिनका कविता काल 1768 बताया गया है। फिर एक चन्द्रकवि सनाढ्य चौबे है, कविता काल 1828 । फिर एक चन्द्रहित राधावल्लभी जिनका रचनाकाल नहीं दिया है । एक चन्द जो गोसाई हैं जिनका रचनाकाल 1846 है। इतने 19वीं शताब्दी के कवि हैं।
इनमें से हमारे संग्रह के पहले कवि और मिश्रबन्धु विनोद के 'नागनौर' की लीला के लेखक कवि चन्द एक ही हैं जिनकी रचना 'नागदमन' हैं । मिश्रबन्धुओं ने इसे 'नागनौर' लिखा है जो मूलतः 'नागदौन' होगा और इसका रचनाकाल सं० 1715 मिश्रबन्धु विनोद में बताया गया है । हम ऊपर देख चुके हैं कि 'वीणा' में भी इसी कवि की इसी कृति का उल्लेख है और उन्होंने भी संवत् 1715 रचना काल माना है । क्योकि संवत् की जो पंक्ति है उसे 'सत्रह से दस पंच' तक ग्रहण करें तो उससे 1715 ही रचना का संवत् निकलेगा । अतः 'नागदौन' की लीला के लेखक चन्द और हमारे चन्द 'नागदवन' के लेखक एक ही प्रतीत होते हैं । कृति के नाम में विभिन्नता है पर विषय से स्पष्ट है कि उसमें नागदमन या कृष्ण की नागलीला का वर्णन किया गया है । मिश्रबन्धु विनोद में
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110/पाण्डुलिपि-विज्ञान
अत्यन्त सूक्ष्म रचना मिलती है । हमारी दृष्टि में यह कवि महत्त्वपूर्ण है। यह आवश्यक है कि इस पर विशेष ध्यान दिया जाये । हमने ऊपर स्पष्ट किया है कि हमारी दृष्टि में इसका रचनाकाल 1856 होना चाहिए । हमें 'सत्रह से दस पंच' पर ही नहीं रुकना चाहिए पागे छर' को भी ग्रहण करना होगा।
हमारे दूसरे कवि चन्द 'भागवत दोहा' सूची के लेखक हैं। जैसा कि हमने ऊपर टिप्पणी में बताया है कि यह 'भागवत दोहा सूची' ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् श्रीधरी टीका की दोहों में सूची है। कवि ने एक-एक अध्याय को एक-एक दोहे में अत्यन्त संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया है। ग्रन्थ में जो उल्लेख है उससे विदित होता है कि लेखक ने 10 स्कंध ग्रन्थ 1895 में पूरा किया, द्वादश स्कंध 1896 में नृसिंह चौदस को। इन चन्द के सम्बन्ध में इस ग्रन्थ में जो परिचय दिया हुआ है उससे प्रतीत होता है कि यह फतेहगढ़ के नृपति महाराजा बाघसिंह के पुत्र थे । अंत में, एक दोहे में यह भी उल्लेख है जो ऊपर की टिप्पणी में विद्यमान है। प्रारम्भ में जिस प्रकार वल्लभाचार्य और विट्ठलनाथजी की वंदना की गयी है उससे स्पष्ट है कि यह पुष्टि मार्गी थे। इन कवि चन्द का पता मिश्रबन्धुनों को नहीं था, ऐसा प्रतीत होता है। हमारे कवि चन्द के 'भागवत दोहा सूची' ग्रन्थ के समकक्ष ग्रन्थ 'भागवत सार भाषा' के लेखक चन्द्रधन को मिश्रबन्धुओं ने 1863 के पूर्व का बताया है। ग्रन्थ के नाम से भी यह सम्भावना प्रतीत होती है कि मिश्रबन्धुओं के चन्द्रधन पुष्टिमार्गी कवि चन्द से भिन्न हैं । अतः ये एक नये कवि हैं जिनका अब तक पता नहीं था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह 'वाधनृपति सुत चन्द' विद्वान भी थे और उच्च कोटि के कवि भी थे, तभी एक अध्याय का सार एक दोहे में दे सके ।
फिर एक कवि चन्द 'अभिलाषा पच्चीसी' के लेखक है। प्रतीत होता है कि 'समय पच्चीसी' और श्री राम जी चौपड़ के ख्याल' के लेखक भी यही कवि चन्द हैं। बहुधा इन्होंने अपने नाम के साथ हित लगाया है यथा 'कवि चन्द हित' जिससे भी सिद्ध होता है कि ये हित हरिवंश सम्प्रदाय अर्थात् राधावल्लभी सम्प्रदाय के कवि हैं ।
. कवि चन्द हित की इन रचनाओं का लिपि समय 1823 दिया हुआ है । हित शब्द के आधार पर देखें तो मिश्रबन्धुओं के 1001 की संख्या के कवि चन्द हित भी राधावल्लभी हैं अतएव दोनों एक ही प्रतीत होते हैं। पर इनमें से किसी के साथ रचनाकाल नहीं दिया हुआ है। इससे अन्तिम निर्णय नहीं लिया जा सकता।
___ इनके बाद चन्द्रलाल गोस्वामी के दो रचनाकाल हैं, एक 1767 और एक 182और एक अन्य चन्द राधावल्लभी का समय 1880 है। इन तीनों का विशेष विवरण मिश्रबन्धु विनोद में नहीं दिया गया है। इसलिये यह निर्णय सम्भव नहीं कि यह हमारे कवि चन्द हित से भिन्न हैं या अभिन्न । किन्तु इसमें संदेह नहीं कि कवि चन्द हित की रचनायें 'समय पच्चीसी', 'अभिलाष पच्चीसी' तथा 'राम की चौपड़ का ख्याल' नयी उपलब्धियां हैं और इसी प्रकार 'नीतिसार भाषायाम' के लेखक कवि चन्द भी एक नयी खोज हैं। जयपुर नरेश सवाई जयसिंह का 1699 से 1743 तक शासनकाल है । इनके राज्य के मुसाहिब श्री मनोलाल दरोगा के लिए यह रचना कवि चन्द ने रची ।।
1. इति शी नीति सारे भाषायां, कवि चन्द विरचितं दरोगा जी श्री मनीलालजी हेत।
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दोहा
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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न क्षेत्रीय अनुसंधान / 111
स्पष्ट है कि नीतिसार का सम्बन्ध विशेषतः राजनीति से है ।
एक अन्य कवि 'चन्द नाथ' हैं जिन पर संक्षिप्त टिप्पणी दी है । इनका ग्रन्थ 'चन्द्रनाथ की शब्दी' हमें प्राप्त हुआ है । यह भी नयी उपलब्धि विदित होती है। ये नाथ सम्प्रदाय के कवि हैं और इस शब्दी में योग की चर्चा है ।
एक अन्य चन्द कवि की एक कृति 'संग्राम' हमें अन्यत्र देखने को मिली । यह भी जयपुर नरेशों के कवि हैं और इसने 'संग्राम सागर' नामक ग्रन्थ में महाभारत के द्रोणपर्व के अनुवाद के रूप में युद्ध-शास्त्र का वर्णन किया है। इस कवि ने प्रारम्भ में शिव की वंदना की है फिर कृष्ण की वंदना की है किन्तु इसने विस्तारपूर्वक नृपवंश वर्णन तथा कवि वंश वर्णन दिये हैं जिससे जयपुर राजघराने के राजाओं तथा उनके आश्रित कवियों पर कुछ प्रकाश पड़ता है । हम इनके ये अंश यहाँ ज्यों के त्यों उद्धृत कर रहे हैं। प्रथ नृप वंश वर्णनम छपये
देश ढ़ढ़ाहर मध्य सर्व सुख सम्पति साजत । अमरावति सम अवनि मांझ मेरि विराजत । तास भूप पृथिराज सदा हरि भक्ति परायन । भारमल्ल तिन तनय खग्ग खंडन अरि धायन ।
भगवत दास नृप तास सुव दखल जैम दक्षिण करिये ।
सुत मान जिति शत शष्टि रण जश जहाँ न धन विथयरिय |
नाम कंवर जगतेश खान ईशव जिन खंडिय ।
महा सिंध तिन तनय कीर्ति महि मंडल मंडिय |
? (जा) उताम जयसिंध जीति सेवा गहि श्रनिय ।
तास पुत्र नृप राम अमल आसाम जुठानिय । ? य कृष्ण सिंध तिन के तनय विष्णु सिंध तिन सुत लियउ । जयसिंह सवाई जास जिन अश्वमेध अध्वर क्रियउ 181 माधवेश नरनाह तर्ने तिनके परगट्टिय ।
जिन जवाहिर हि जेर ठानि जट्टन दह बट्टिय ।
तिन तनूज परताप ताप दुज्जन दल मंडिय | करि पटेल मदमंग जंग दक्षिण दल खंडिय । राजाधिराज जगतेश मय जिन जहान जय विश्वरिय ।
करि समर (? क) ज्ज कमधज्ज कारण भजाय कमधज्ज किय । तिन तनूज जयसाह तरनि समतेज उझलल्ले ।
जन्म लेत जिन तिमिर तत भय नष्ट मुसल्ले
कूरम राम नरेन्द्र तनै तिनके परगट्टिय । पुहुमि मांझ पुरहत जेमि प्रभुता जिन पहिये ।
सवीर मांझ बट्ट सुरुचि द्रोण जुद्ध चित अनुसरिय | भाषा प्रबन्ध कवि चन्द को करन हेतु प्रायस करिय ||10| लशत भरि कुरम सदन कवि कोविद वर द देव मनुज भाषा निपुण निरख्यो तहं कवि चन्द |11|
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112 पाण्डुलिपि - विज्ञान
दोहा
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कवि वंश वर्णन
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उतन वासवन पुर विशद अंतरवेद मकार । भयो चंद्र मरिण विप्र कुल कान्य कुब्ज अवतार | 14 | तिहि तनूजा गिरधर भले गिरधर को हिथवाश | शे जायन रुजगार लहि दिल्ली पति के पाश | 15 | भये शिरोमरिण तास सुत पंडित परम सुजान । लहि निदेश याने इते दिल्ली पति तैं मान | 10 |
तिहि तनूज माधव भये चरनऊ माधव चाह । जिस हमेश वर्णन किये सुजश बड़े जयसाह | 17:
भये प्रकट तिनके तनय जाहिर लछीराम । जिन्हें रीझि जयसाह नृप दिये दिष्ष दश ग्राम | 18 |
रामचन्द्र तिनके भये पैरि सर्वगुन पंथ । महाराजा जयसाह हित अलंकार किय ग्रंथ | 19 | प्रगट पुत्र तिनके भये सोमानन्द सुजान । माधवशे नरनाह तें लह्यो सरम सनमान
120 1
तिनके सुवन सपूत भे लालचंद इक प्राय । महाराज परताप को रहै सदा गुन गाय | 21 | सुकविचंद तिनको तनय भी गुन उत्तम गात्र । करम राम नरेन्द्र के भयो कृपा को पात्र । 22 । देश विदेशन में भयो कवि पंडित विख्यात । कुरम राम नरेन्द्र हित किये ग्रंथ जिन्हें सात | 23 |
हुकम पाय जिहि राम को द्रोण पर्व अनुसार । सु संग्राम सागर रच्यो शूरन को श्रृंगार 124 1 श्रवण सुनत ही क्षेत्र कुल कायरता गटि जाय । अंग अंग अति जंग की मन उमंग अधिकाय | 25 |
रुद्र गगन योगीश शशि भाद्र शुक्ल रविवार ।
हैजि द्रोण संग्राम निधि लियो ग्रंथ अवतार। 1911 27
इति श्री मन्महाराजाधिराज राजराजेन्द्र श्री सवाई राम सिंघ देवाज्ञया सुकवि चंद विरचित संग्राम सागरे पाथुपता- - शुभमस्तु ।
पत्र संख्या 378, जिल्द बंधी ।
इसके आधार पर राजवंश वर्णन और सुकवि चंद के वंश का पारस्परिक सम्बन्ध कुछ इस प्रकार प्रतीत होता है जैसे कि प्रस्तुत तालिका में दिया हुआ है ।
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पाण्डुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसधान/113
काल राजवंश
कविवंश 1503-1527 ई० 1-पृथ्वीराज चन्द्रमणि (उतनवास, कान्य 1548-1574
2-भारमल्ल
कुब्ज, बनपुर अन्तर्वेद गिरधर 1574-1590
3-भगवतदास (दिल्ली पति की सेवा में आये) 1590-1614
4-मानसिंह
शिरोमणि
5-जगतेश 1615-1622
6-महासिंघ
7-भावसिंह 1622-1667
8-जयसिंह प्र.
1-माधव 2-लच्छीराम
3--रामचन्द्र 1667 1690
9-रामसिह प्र० 10-कृष्णसिंह
11-विष्णुसिंह 1700-1743
12-जयसिंह सवाई द्वि 1743-1751
13-सवाई ईश्वरीसिंह 1751-1778
14-सवाई माधवसिंह शोभाचंद, जवाहर 1778-1803
15-सवाई प्रतापसिंह लालचंद 1803-1818 16-सवाई जगतसिंह
17-सवाई जयशाह 1835-1880
18-सवाई रामसिंह द्वि० सुकवि चंद 1880-1922
19-सवाई माधोसिंह जी
बहादुर द्वि० 1922-1970
20-सवाई मानसिंह 1970-1971
21-सवाई भवानीसिंह ऐसा प्रतीत होता है कि 'नाथ वंश प्रकाश' का लेखक तथा 'संग्राम सागर' का लेखक तथा 'नीतिसार' का लेखक एक ही व्यक्ति है। इस कवि ने संग्राम सागर में यह उल्लेख तो किया है कि उसने सवाई रामसिंह के लिए सात ग्रन्थ लिखे । एक ग्रन्थ 'भेद प्रकाश नाटक' भी एक अन्य हस्तलेखागार में हमें देखने को मिला। उसका लेखक भी सुकवि चंद है। उसका रचना काल सन् 1890-1912 दिया हुआ है। यह भी इसी कवि का प्रतीत होता है। मिश्रबन्धु विनोद ने कवि चन्द के जिस 'भेद प्रकाश ग्रन्थ' का उल्लेख किया है वह भी इसी कवि से अभिन्न विदित होता है। इस कवि की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इस कवि का काव्य स्तर भी ऊँचा है। यहाँ खोज में प्राप्त इन 'चन्द' नाम के कुछ कवियों का सामान्य परिचय तुलनापूर्वक दिया गया है ।
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114/पाण्डुलिपि-विज्ञान
इस एक विस्तृत उदाहरण से उन सभी बातों पर प्रकाश पड़ जाता है, जो कि इस प्रकार के तुलनात्मक अध्ययन में उपयोग में आती हैं। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि जितनी भी उपलब्ध सामग्री है उसके आधार पर पहले तो एक सूची समान नाम के कवियों को बनायी जानी चाहिए। इसमें संक्षेप में वे आवश्यक सूचनाएँ दी जानी चाहिए जो सामान्यतः अपेक्षित हैं, यथा-उनके ग्रन्थ, उनका रचना-काल एवं उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के सम्बन्ध में अन्य सूचनाएँ ।
इनके आधार पर यह देखना होगा कि कौन-कौन से कवि ऐसे हैं जो एक ही व्यक्ति हैं, भले ही उनके नोटिस या विवरण अलग-अलग लिए गए हों । इस प्रकार समस्त उपलब्ध सामग्री का एक सरसरा निरीक्षण प्रस्तुत हो जाता है, जो विषय के अध्येता के लिए उपयोगी हो सकता है।
इसके साथ ही अपने संग्रह में उपलब्ध इसी नाम के कवियों के ग्रन्थों की कुछ विस्तार से चर्चा कर देने से यह भी पता चल सकता है कि क्या हमारी सामग्री बिल्कुल नयो उपलब्धि है और क्या किन्हीं दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हो सकती है ?
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उपर्युक्त एक नाम के कवियों और उनकी कृतियों की यह चर्चा इन कवियों का अध्ययन नहीं है, इसका उद्देश्य केवल जानकारी देना है।
अब पाण्डुलिपि विज्ञानार्थी को इसी प्रकार की अन्य अपेक्षित सूचियाँ या तालिकाएं भी अपने तथा अन्यों के लिए अपेक्षित उपयोगी जानकारी या सूचना देने के लिए प्रस्तुत करनी चाहिए।
यहाँ तक उन प्रयत्नों का उल्लेख किया गया है जो पाण्डुलिपि के सम्पर्क में प्राने पर पांडुलिपि विज्ञानार्थी को करने होते हैं ।
विवरण प्रकार : इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है विवरण लेने और प्रस्तुत करने का । इन प्रयत्नों को संक्षेप में यों दुहराया जा सकता है। विवरण कई प्रकार के हो सकते हैं :
एक प्रकार को 'लघु सूचना' कह सकते हैं, इसमें निम्नलिखित बातों का उल्लेख संक्षेप से पर्याप्त माना जा सकता है। 1. क्रमांक 2. रचयिता का नाम ........."(अकारादि क्रम में) 3. ग्रन्थ नाम"
डॉ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, प्रधान मन्त्री, निरीक्षक, खोज विभाग, काशी-नागरी-प्रचारिणी-समा ने 'हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों का प्रयोदश वैवार्षिक विवरण (सन् 1926-28 ई.) की 'पूर्व पीठिका' में इसी प्रकार का एक सुझाव दिया था। उन्होंने लिखा है, "गेरा विचार है कि कुछ प्रमुख ग्रन्थकारों पर खोज की सामग्री के आधार पर कुछ पुस्तकें पृथक रूप में कुमशः प्रकाशित की जाय । इनसे अनुसन्धान करने वालों को विशेष लाभ तो होगा ही, आलोचना करने गलों और ग्रंथ सम्पादित करने वालों को भी सरलता होगी। अनायास उन्हें बहत-सी सामग्री घर बैठे मिल जायगी। इधरउधर भटकने की आवश्यकता नहीं पडेगी।" (प.द)
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पाण्डुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान 115
4. विषय............. 5. रचना काल... ""रचना स्थान"....." 6. लिपि काल.... ..."लिपि स्थान .... .... 7. लिपिकार 'मिश्रबन्धु विनोद' में ऐसी सूचनाएं बहुत हैं, यथा नाम (1025) टेक चन्द
ग्रन्थ (1) तत्वार्थ श्रुत सागरी टीका की वचनिका (1837),
(2) सुदृष्टि तरंगिणी वचनिका (1838), (3) षट् पाहुड वचनिका, (4) कथा कोश (5) बुध प्रकाश (6) अनेक पूजा पाठ
रचना काल--18371 ऐसी सूचनाएँ प्रकाशन करके पांडुलिपि-विज्ञानार्थी भविष्य के अनुसन्धान का बीज वपन करता है, तथा साहित्य सम्पत्ति की समृद्धि के लेखे-जोखे में भी सहायक होता है। साहित्य के इतिहास और संस्कृति के इतिहास की यथार्थ रूप-रचना में निर्मापक तन्तु या ईंट का भी काम करता है।
कभी-कभी तो रचयिता (कवि) के नाम की सूची या ग्रन्थनाम की सूची दे देना भी उपयोगी होता है । इन सूचियों से उन कवियों और ग्रन्थों की ओर ध्यान आकर्षित होता है जो भले ही गौण हो, पर साहित्य तथा संस्कृति की महत्त्वपूर्ण कड़ियां हैं। श्री नलिन विलोचन शर्मा जी ने 'साहित्य का इतिहास दर्शन' में इन गौण कवियों का महत्त्व स्थापित करने का प्रयत्न किया है और पांडुलिपि में सिद्ध विद्वान की भाँति कुछ सूचियाँ भी परिश्रम पूर्वक किये गये अनुसंधान को चरितार्थ करने वाली दी हैं। एक सूची उन्होंने संस्कृत के गोगा कवियों की विविध सुभाषित ग्रन्थों से प्रस्तुत की है।
इस तालिका में उन्होंने 'सदुक्ति कर्णामृत' से ही छांट कर गौरण कवि दिये हैं । इन कवियों को सूची में अकारादि क्रम से संजोया है, दूसरे उन्होंने इस तालिका में यह भी संकेत
1. मिश्रबन्धु विनोद, द्वितीय भाग, पृ. 818 । 2. उन्होंने यह सूची निम्न सुभाषित ग्रन्थों से तैयार की है : (क) सदुक्ति कर्णामृत (श्रीधरदास द्वारा 13वीं शती के प्रारंभ में संकलित)। यही इस तालिका
का मुख्य आधार है। (ब) कवीन्द्र वचन समुच्चय (जिसमें सभी कवि 1000 ई. से पूर्व के ही हैं)। (ग) सुभाषित मुक्तावली एवं सूक्ति मुक्तावली (घ) दोनों (जल्हण द्वारा संकलित) 13वीं शती के मध्य की है। (ङ) शाङ्गंधर पद्धति (14वीं का मध्य) । (च) सुभाषितावली (15वीं)।
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116 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
कर दिया है कि समान छंद या कवि का नामोल्लेख किसी अन्य सुभाषित संग्रह में भी है । तीसरा महत्त्वपूर्ण संकेत इस तालिका में यह दिया गया है कि इन गौण कवियों के सम्बन्ध में 'साहित्य' तथा 'जीवनी' सम्बन्धी कुछ सामग्री आज किन-किन स्रोतों से उपलब्ध है ।
इस पद्धति को समझाने के लिए इस तालिका में से कुछ उदाहरण दिये जाते हैं1. अचल : कवीन्द्र समुच्चय ( आगे 'क' से संकेतित), कोई सूचना नहीं ( आगे न. से संकेतित) ।
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व्याख्या : 1. अकारादि क्रम में 'अचल' पहले आता है । यह शब्द शर्माजी ने 'सदुक्ति
कर्णामृत' से लिया है ।
2. 'कवीन्द्र समुच्चय' में भी यह कवि मिलता है ।
3. 'क' संकेत से अभिप्राय है कि आगे जहाँ 'कवीन्द्र समुच्चय' का उल्लेख होगा वहाँ केवल 'क' लिखा जायेगा ।
4. 'अचल' के सम्बन्ध में कोई और सूचना नहीं मिलती। इसके लिए कि कोई सूचना नहीं मिलती, संकेताक्षर 'न' रखा है। सूची में आगे जहाँ 'न' आयेगा हाँ यही अभिप्राय होगा कि उस कवि के सम्बन्ध में कोई और जानकारी नहीं मिलती ।
74. गणपति-सु. में पीटरसन ने (पृ. 33 ) लिखा है कि जल्हरण की सू. में राजशेखर का एक श्लोक है जिसमें गगापति नामक एक कवि और उसकी कृति 'महा मोह' का उल्लेख है । '
व्याख्या : 1. संख्या 74 प्रकारादि क्रम में सूची में गणपति का स्थान बताती है ।
2. 'सु.' सुभाषितावली का संकेताक्षर है । संख्या 14 के ग्रन्थ में इसका संकेत है । वहाँ यह पूरे नाम से दे दी गई है ।
3. 'सू.' यह 'सूक्ति मुक्तावली' का संकेताक्षर है । यह सूचना 36वीं संख्या के कवि के सन्दर्भ में दी गई है ।
131. तुतातित, ऑफ ख्त (कैटेलॉगस-कैटेलेगोरम) के अनुसार सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल स्वामी का नाम 12
इन उदाहरणों से यह विदित होगा कि मिश्रबन्धुनों ने जो संक्षिप्त विवरण दिये हैं उनसे यह आगे का चरण है, क्योंकि एक शब्द या एक पंक्ति लिखने के पीछे लेखक का विशद् अध्ययन विद्यमान है, उसका उपयोग भी इस तालिका में भरपूर हुआ है । यह तालिका सूची मात्र नहीं वरन् अध्ययन-प्रमाणित विवरण है ।
प्राचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने 482 गौरण कवियों की तालिका दी है। उसके साथ यह टिप्पणी है : " ऊपर प्रस्तुत तालिका से संस्कृत" के ज्ञात गौण कवियों की संख्या का अनुमान मात्र किया जा सकता है । अन्य समस्त सुलभ स्रोतों से ऐसे नाम संकलित किये जायें तो संख्या सहस्राधिक होगी ।" निश्चय ही ऐसी तालिका प्रस्तुत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किसी सीमा तक पांडुलिपि विज्ञानार्थी के क्षेत्र में आता है । उसके आधार पर संस्कृत साहित्य का पूर्ण इतिहास लिखना साहित्य के इतिहासकार का काम होगा ।
1. शर्मा, नलिन विलोचन, साहित्य का इतिहास - दर्शन, पृ. 14 | 2. वही, पृ. 16 ।
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पाण्डुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान/117
इस प्रकार प्राचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने 'हिन्दी के गौण कवियों का इतिहास' शीर्षक अध्याय में '971' कवियों की तालिका दी है। यह तालिका भी उन्होंने प्रकाशित ग्रन्थों के आधार पर प्रकाशित की है । इस सम्बन्ध में उनकी भूमिकावत् यह टिप्पणी उल्लेख्य है :
___"परमानन्द सुहाने तथा इनसे भिन्न बहुसंख्यक कवियों की स्फुट रचनाएँ शिवसिंह सरोज में भी संगृहीत हैं । यह दुर्भाग्य का विषय है कि सरोजकार द्वारा उल्लिखित आकरग्रन्थों में से प्रायः सभी अाज अप्राप्य हैं । परमानन्द सुहाने के हजारा में जिन कवियों के छंद संगृहीत हैं, उनके नामों और समय आदि को, सरोज पर अवलम्बित आगे दी गई तालिका से मिला कर हिन्दी के गौण कवियों के अध्ययन के निमित्त आधार-भूमि तैयार की जा सकती है। इस तालिका में सरोजकार द्वारा किये गये नामों तथा समय के विषय में ग्रियर्सन तथा किशोरीलाल गोस्वामी की टिप्पणियों का भी उल्लेख है।"
प्रश्न यह उठता है कि क्या मुद्रित और उपलब्ध ग्रन्थों के आधार पर ऐसी सूची प्रस्तुत करना पांडुलिपि विज्ञानार्थी के क्षेत्र में आता है ? आपत्ति सार्थक हो सकती है। पर पांडुलिपि विज्ञानार्थी को अपने भावी कार्यक्रम की दृष्टि से या किसी परिपाटी को या प्रणाली को हृदयंगम करने के लिए इनका ज्ञान आवश्यक है । हस्तलेखों में शतशः ऐसे संग्रह ग्रन्थ मिलेंगे जो 'हजारा' की भाँति के होंगे । उनके कवि और काव्य को तालिकाबद्ध करने के लिए यही प्रणाली काम में लायी जा सकती है जो प्राचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने यहाँ दी है। तालिका का रूप : अब इस तालिका के रूप को समझने के लिए कुछ उदाहरण दिये जाते हैं :
(1) प्रकबर बादशाह स०, दिल्ली, 1584 वि०, ग्रि० कि०, 1556-1605 ।
(2) अजबेस (प्राचीन) स०, 1570, वि० ; ग्रि०, कि०, इस नाम का कवि कोरी कल्पना ।
(5) अवधेश ब्राह्मण स०, वदरबारी, बुन्देलखण्डी, 1901 वि.; ग्रि०, 1840 ई० में उप० ।
(6) अवधेश ब्राह्मण स०, भूपा के बुंदेलखंडी, 1835 वि०; ग्रि०, जन्म 1832 ई० । कि० के अनुसार दोनों अवधेश ब्राह्मण एक ही हैं; रचनाकाल 1886--1917 ई० है; 1838 ई० जन्मकाल नहीं है
__(787) लक्ष्मणशरण दास कि०, “इस कवि का अस्तित्व ही नहीं है" सरोज में उद्धृत पद में 'दास सरन लछिमन सुत भूप' का अर्थ है--"यह दास लछिमन सुत अर्थात् वल्लभाचार्य की शरण में है।"
(806) शम्भु कवि स०, राजा शम्भुनाथ सिंह सुलंकी, सितारागढ़वाले 1, 1738 वि० नायिका भेद;
आचार्य शर्मा यहाँ 'गोस्वामी' भूल से लिख गए हैं । यह 'गुप्त' है। शर्मा, नलिन विलोचन' साहित्य का इतिहास-दर्शन. पृ. 161 ।
2.
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118/पाण्डुलिपि-विज्ञान
नि०, सितारा के राजा शम्भुनाथसिंह सुलकी, उर्फ शम्भुकवि, उर्फ नाथ कवि, उर्फ नृपशम्भु, 1650 ई० के आस-पास उपस्थित, सुन्दरी तिलक, सत्कविगिराविलास, कवियों के आश्रयदाता ही नहीं, स्वयं एक प्रसिद्ध ग्रन्थ के रचयिता, यह शृंगार-रस में है और इसका नाम 'काव्य निराली' (?), कि०, शम्भुनाथ सोलंकी क्षत्रिय नहीं, मराठे, सरोज में इस कवि के सम्बन्ध में लिखा है.---"शृंगार की इनकी काव्य निराली है। नायिका-भेद का इनका ग्रन्थ सर्वोपरि है । इसी का भ्रष्ट अंग्रेजी अनुवाद ग्रियर्सन ने किया है और इनके काव्य ग्रन्थ का नाम 'काव्य निराली' ढूढ़ निकाला है। इनका नखशिख रत्नाकार जी द्वारा सम्पादित होकर भारत जीवन प्रेस, काशी से प्रकाशित हो चुका है।"
इन उद्धरणों से इस प्रणाली का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है । कालक्रम में सबसे पहला ग्रन्थ 'सरोज' अर्थात् शिवसिंह सरोज, उसने कवि का उल्लेख सबसे पहले किया। आधार ही उसे बनाया है । सरोज का द्योतक संकेताक्षर 'सत्' । उसके बाद ग्रियर्सन ने सूचना दी है । ग्रियर्सन का द्योतक संकेताक्षर 'नि०' तब 'कि०' संकेताक्षर से किशोरीलाल गुप्त को अभिहित कराते हुए उनके 'सरोज सर्वेक्षण' से आवश्यक जानकारी संक्षेप में दे दी है। इस प्रकार एक ऐसी सूची या तालिका की आधारशिला प्राचार्य शर्मा ने रख दी है जिसमें पांडुलिपि विज्ञानार्थी अपनी दृष्टि से यथास्थान नये कवियों का नाम और आवश्यक सूचना जोड़ता जा सकता है तथा टिप्पणी देकर अद्यतन अध्ययनों से प्राप्त ज्ञान को हस्तामलकवत् कर सकता है।
पांडुलिपि विज्ञानार्थी इसी सूची का उपयोगी सम्वर्द्धन दो प्रकार से कर सकता है : प्रथम तो अब तक की खोजों के विवरणों से सामग्री लेकर ।
यथा, खोज में उपलब्ध हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों का अठारहवाँ त्रैवार्षिक विवरण (सन् 1941-45 ई०) द्वितीय भाग में जिसके सम्पादक पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र हैं : चतुर्थ परिशिष्ट (क) में प्रस्तुत खोज में मिले नवीन रचयिताओं की नामावली दी है, और उनका शताब्दी क्रम भी बताया है। इस नामावली में 206 कवि हैं। पांडुलिपि-विज्ञानार्थी इन नामों की परीक्षा कर अपनी तालिका में प्रामाणिक कवियों को स्थान दे सकता है ।
__इससे भी महत्त्वपूर्ण चतुर्थ परिशिष्ट (ग) है। इसमें काव्य-संग्रहों में आये नवीन कवियों की सूची दी गई है। इस सूची में गौण कवियों की तालिका और अधिक उपयोगी हो जायेगी और शोधार्थी को शोध की दिशाओं का निर्देश भी कर सकेगी।
पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को एक तालिका और बना कर अपने पास रखनी होगी। यह तालिका उसके स्वयं के उपयोग के लिए तो होगी ही, अन्य अनुसंधाता भी उसका उपयोग कर सकते हैं । इस तालिका को रा०व० डॉ० हीरालाल जी डी०लिट०, एम०पार०ए०एस० ने त्रयोदश त्रैवार्षिक विवरण में इस रूप में दिया है। यह इन्होंने चतुर्थ परिशिष्ट में दिया है। इसकी व्याख्या यों की गई है : “महत्त्वपूर्ण हस्तलेखों के समय एवं सन् 1928 ई० तक प्रकाशित खोज विवरणिकाओं में उनके उल्लेख का विवरण ।" तालिका का रूप यह है : संख्या रचयिताओं हस्तलेखों प्राप्त हस्तलेखों के विशेष का नाम का नाम उल्लेख तथा समय
5
1
2
3
4
1. शर्मा, नलिन विलोचन-साहित्य का इतिहास-दर्शन, पृ० 226 ।
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पाण्डुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान/119
यह तालिका उपयोगी है, यह स्वयंसिद्ध है, क्योंकि सन्दर्भ की दृष्टि से भी खोजविवरणों का उल्लेख कर दिया गया है, जहाँ विस्तृत विवरण देखे जा सकते हैं। संख्या 4 को दो भागां में भी विभाजित किया जा सकता है : प्रथम-यह भाग केवल समय-द्योतक होगा, और दूसरा, यह भाग विवरणिकाओं का उल्लेख करेगा। डॉ० हीरालाल ने केवल ना० प्र० स० के खोज के विवरणों के ही उल्लेख दिये हैं, पर पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को जितने भी ऐसे विवरण मिलें उन सभी से सूचनाएँ देनी होगी। स्पष्ट है कि यह तालिका जितनी परिपूर्ण होगी उतनी ही अधिक उपादेय होगी।
इस विवेचन से हमारा ध्यान डॉ० किशोरीलाल गुप्त के प्रयत्न की ओर जाता है जो उन्होंने 'सरोज सर्वेक्षण' के रूप में प्रस्तुत किया है । 'सरोज' में दिये विवरणों की अन्य स्रोतों से प्राप्त सामग्री का उपयोग कर उन्होंने परीक्षा की है और उनके सम्बन्ध में सप्रमाण अपना निर्णय भी दिया है। पांडुलिपि-विज्ञानार्थी के लिए यह प्रणाली उपयोगी है, इसमें सन्देह नहीं। वह किसी भी प्राप्त 'पांडुलिपि' के विषय में उपलब्ध अन्य सामग्री से इसी प्रकार परीक्षा करके टिप्पणी देगा, इससे अद्यतन ज्ञातव्य की सूचना उपलब्ध रह सकेगी।
इसी परिपाटी का पल्लवित रूप वह है जो 'चन्दकवि' के विवरण में ऊपर दिया गया है। ऐसे विवरण एक-एक कवि पर पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को प्रस्तुत कर लेने चाहिए ।
ऊपर हम देख चुके हैं कि विवरण के मुख्यतः दो भाग होते हैं। एक को 'परिचय' कह सकते हैं। इसका विस्तृत विवरण विवेचनापूर्वक दिया जा चुका है। दूसरा अंश है : विषय का अंतरंग परिचय आदि, मध्य और अन्त के उद्धरणों सहित ।
काशी नागरी-प्रचारिणी सभा की खोज-रिपोर्टों में प्रारम्भ में आदि, मध्य (कभी मध्य उद्धृत नहीं भी किया जाता था) और अन्त के छंद-मात्र दे दिए जाते थे। प्रारम्भ मान लीजिए दोहे से है तो मात्र वह दोहा दे दिया जाता था। अन्त एक कवित्त से हो रहा है तो बस केवल उसी को दे देते थे । इससे विषय का अपेक्षित परिचय नहीं मिल पाता था । अतः जार्ज ग्रियर्सन के परामर्श से इस विषय के अंतरंग परिचय को अधिक विस्तार दिया जाने लगा। विषय की भी कुछ अधिक विस्तृत रूपरेखा दी जाने लगी। इस बात की ओर उक्त 'विवरणिका' में डॉ० हीरालालजी ने संकेत किया है :
"इसमें विगत विवरणिकानों की अपेक्षा ग्रन्थों के विषय का विवरण विस्तार से दिया भी गया है। केवल उन्हीं का विवरण नहीं दिया गया है जिनका विवरण विगत विवरणिकाओं में विस्तृत रूप में विद्यमान है। ऐसा सर जार्ज ग्रियर्सन के सुझाव से ही किया गया है जो उपादेय तो अवश्य है किन्तु इससे विवरणिका विस्तार बहुत हो गया
विस्तार के रूप
विवरण के विस्तार के भी तीन रूप सम्भवतः माने जा सकते हैं ।
1. विषय का ब्यौरेवार बहुत संक्षेप में सार-रूप । इससे ग्रन्थ के प्रतिपाद्य का कुछ ज्ञान हो सकता है। यह परिचय ग्रन्थ का ज्ञान कराने के लिए नहीं होता, वरन् ग्रन्थ
1. हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों का प्रयोदश वैवाषिक विवरण, पृ.7।
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120/ पाण्डुलिपि - विज्ञान
की विषय-वस्तु और विज्ञानार्थी की दृष्टि से उसकी प्रकृति और प्रतिपाद्य की पद्धति का उल्लेख करता है । डॉ० टैसीटरी ने अपने दृष्टिकोण से उन हस्तलेखों की विस्तृत टिप्पणियाँ लीं, जो ऐतिहासिक महत्त्व के थे ।
दूसरा रूप है मूल उद्धरणों का ; पांडुलिपि के प्रादि, मध्य और अन्त में ऐसे उद्धरण देने का और इतने उद्धरण देने का कि उनसे उन मूल उद्धरणों के द्वारा कवि या लेखक की भाषा, शैली तथा अन्य अभिव्यक्तिगत वैशिष्ट्यों की ओर दृष्टि जा सके ।
इसका तीसरा रूप है ग्रंथ में आयी समस्त पुष्पिकाओं को उद्धृत करना । पुष्पिका से कितनी ही महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं ।
इस प्रकार विवरण प्रस्तुत करके पांडुलिपि - विज्ञानार्थी उपलब्ध सामग्री के उपयोग के लिए मार्ग प्रशस्त कर देता है ।
कालक्रमानुसार सूची
इनमें से एक कालक्रमानुसार उपलब्ध ग्रंथ सूची भी हो सकती है जो इतिहास के क्षेत्रों में प्रसिद्ध 'The Chronology of Indian History' (भारतीय इतिहास के कालक्रम) के ढंग की हो सकती है। मेरे सामने ऐसी ही एक पुस्तक C. Mabel Duff की लिखी है । उसके प्रारम्भ में दी गई कुछ बातें यहाँ देना समीचीन प्रतीत होता है ।
पहले तो उन्होंने लिखा है कि "इस कृति में नागरिक तथा साहित्यिक इतिहास की न तिथियों को एकत्र कर व्यवस्थित रूप से तालिकाबद्ध कर देना अभिप्रेत है, जो वैज्ञानिक अनुसंधान से आज के दिन तक निर्धारित की जा चुकी है ।
इससे यह सिद्ध है कि वे तिथियों ही दी गई हैं जो वैज्ञानिक प्रविधि से पुष्ट होकर निर्विवाद हो गई हैं ।
दूसरी बात उन्होंने यह बताई है कि भारतीय इतिहास की सामग्री मात्रा में प्रचुर है और अनेक ग्रंथों और निबन्धों में फैली हुई है, अतः इस काल - तालिका में उस समस्त सामग्री का व्यवस्थित करके तो रखा ही गया है, स्रोतों का निर्देश भी है जिससे यह तालिका समस्त सामग्री के स्रोतों की अनुक्रमणिका भी बन गई है ।
ये दोनों बातें हमें ध्यान में रखनी होंगी। डफ ने इस तालिका में कुछ तिथियाँ (सन् संवत ) इटेलिक्स में दी हैं । इटेलिक्स में वे तिथियाँ दी गई हैं जो पूरी तरह सही नहीं हैं, पर निष्कर्ष से निकाली गई हैं और लगभग सही (Approx mately Correct ) मानी जा सकती हैं । यह प्रणाली भी उपयोगी है क्योंकि इसमें सुनिश्चित और प्रायः निश्चित तिथियों में अन्तर स्पष्ट हो जाता है जो वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है ।
इस पुस्तक में से साहित्य सम्बन्धी कुछ उल्लेख उदाहरणार्थ प्रस्तुत करना समीचीन होगा । पुस्तक अंग्रेजी में है; यहाँ अपेक्षित अंशों का हिन्दी रूपान्तर दिया जा रहा है : ई०पू० 3102 शुक्रवार, फरवरी 18, कलियुग या हिन्दू ज्योतिष संवत् का प्रारम्भ'' यह बहुधा तिथियों में दिया जाता है, यह विक्रम संवत से 3044 वर्ष पूर्व का है और शक संवत् से 3179 वर्ष पूर्व का
140 पतंजली, वैयाकरण, 'महाभाष्य' का रचयिता ई०पू० 140-120 में विद्यमान । 'महाभाष्य' के श्रवतररणों से गोल्डस्टुकर एवं भण्डारकर ने पतंजलि की तिथि निर्धारित की है । जिनमे विदित होता है कि वह
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पाण्डुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसंधान/121
मेनांडर और पुष्यमित्र के समकालीन थे। पूर्वी भारत के गोनार्द के वे निवासी थे और कुछ समय के लिए कश्मीर में भी रहे थे। उनकी माँ का नाम गोणिका थागोल्डस्टुकर पाणिनि 234। LitRem i, 131 ff. LiAii, 485.
BD8. 1 A, i, 299 ff. JBRAS, XVI, 181, 199. सन ई० 476 आर्यभट्ट, ज्योतिषी का जन्म कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) में, प्रार्थाष्टक तथा
दशगीतिका का रचयिता-WL. 257. Indische Streifen, iii, 300-2 गणकतरंगिणी, ed. सुधाकर, The Pandit, N. S. XIV
(1892), P. 2. 600 कविबाण, श्री हर्षचरित, कादम्बरी और चंडिकाशतक के रचयिता,
मयूर, सूर्य-शतक के रचयिता, दण्डी, दशकुमार चरित एवं काव्यादर्श के रचयिता और दिवाकर इस काल में थे क्योंकि ये कन्नौज के हर्षवर्द्धन के समसामयिक थे। जैन परम्परा के अनुसार मयूर बाण के श्वसुर थे। भक्तामर स्तोत्र के रचयिता मानतुंग भी इसी काल के हैं। व्हलर, Di indischer Inschriften Petersons सुभाषितावली, Int. 88.
VOJ, IV, 67. 1490 हिन्दी कवि कबीर इसी काल के लगभग थे क्योंकि वे दिल्ली के सिकंदर
शाह लोदी के समसामयिक थे-BOD. 204। उड़िया के कवि दीन कृष्णदास, रस-कल्लोल के कर्ता भी सम्भवतः इसी काल में थे। वे उड़ीसा के पुरुषोत्तम देव (जिनका राज्यकाल 1478-1503 के बीच
माना जाता है) के समसामयिक थे, मादि । इस पद्धति में यह दृष्टव्य है कि प्रथम स्तम्भ में केवल सन् (ईस्वी) दिया गया है। और सभी बातें दूसरे स्तम्भ में रहती हैं। जिन घटनाओं की ठीक तिथियाँ विदित हैं वे यदि एक ही वर्ष के अन्दर घटित हुई हैं, तो उन्हें तिथि-क्रम से दिया जाता है।
हमें हिन्दी के हस्तलेखों या पांडुलिपियां की ऐसी कालक्रम तालिका बनाने के लिए निम्न बातों का उल्लेख करना होगा । स्तम्भ तो दो ही रखने होंगे। पहले में प्रचलित 'सन्' उक्त इतिहास की तालिका की भांति ही देना ठीक होगा। दूसरे खाने में पहले खाने के सन् के सामने सं० लिखकर 'संवत्' की संख्या देनी होगी। उसके नीचे 'चैत्र' से प्रारम्भ करके तिथि का उल्लेख करना ठीक माना जा सकता है । तिथि का पूरा विवरण 'पुष्पिका' सहित लिखना चाहिए । 'कृतिकार' का नाम, प्राश्रयदाता का नाम, कृति के लिखे जाने के स्थान का नाम, ग्रंथ का विषय । साथ ही लिपिकार या लिपिकारों के नाम । लिपि करने का स्थान-नाम, लिपिकाल, लिपिकाल की कालक्रम से भी प्रविष्टि की जायेगी। वहाँ भी लिपिकार के साथ ग्रंथ और रचयिता का उल्लेख काल-सहित किया जायेगा, यथा---
पांडुलिपि कालक्रम तालिका क्रमसंख्या ईसवी सन्
760 वि० सं० 817
सरहपा-ब्राह्मण, भिक्षु सिद्ध (6) देश मगध (नालंदा) कृतियाँकायकोष-अमृत-वज्रगीति, चित्तकोष-अंज-वज़गीति, डाकिनी गुह्य,
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122 पाण्डुलिपि-विज्ञान
वज्रगीति, दोहा कोष-उपदेशगीति, दोहा कोष, तत्वोपदेश-शिखरदोहा कोष, भावना फल-दृष्टि चर्या, दोहा-कोष, बसन्ततिलक-दोहा कोष, चर्यागीत दोहा कोष, महामुद्रोपदेश दोहा कोष, सरहपाद गीतिका (गोपालधर्मपाल के राज्य-काल (750-70-806 ई०) में विद्यमान ।। रा० सां.--"पुरातत्त्व निबन्धावलि (पृ० 169) रा० मां०- हिन्दी काव्य
धारा)। 2. 1459 वि०सं० 1516
9, ज्येष्ठ बदि, बुधवार (रचना काल)। 'लखमसेन पद्मावति' रचयिता दामो। लिपिकाल : सं० 1669 वर्ष, माह 7 । लिपिस्थान : फलखेड़ा । संवत् पनरइ सोलोत्तरा मझारि, ज्येष्ठ बदि नवमी बुधवार । सप्त तारिका नक्षत्र दृढ़ जाणि, वीर वाधारस करू बँखाण” दामो रचित लखमसेन पद्मावती सं० नर्मदेश्वर चतुर्वेदी+प्रकाशित (परिमल प्रकाशन
प्रयाग-2) प्रथम सं० 1959 ई० । अब 1459 में 10 वीं बृहस्पतिवार ज्येष्ठ वदी की कोई रचना है तो 'लखमसेन पद्मावती' के उल्लेख के बाद इसी स्तम्भ में लिखी जायगी। पहले विक्रम संवत्, तब रचनातिथि, ग्रन्थ का नाम, रचयिता का नाम तथा अन्य आवश्यक सूचनाएँ देकर नये प्रघट्रक से पुष्प या तारक ( * ) लगा कर सन्दर्भ सूचना दे दी जानी चाहिये ।
प्रत्येक पांडुलिपि विज्ञानार्थी अपने-अपने लिए ये कालक्रम तालिकाएँ बना मकते हैं, पर आवश्यकता इस बात की है कि The Chronology of Indian History की तरह समस्त पांडुलिपियों की 'कालक्रम तालिका' प्रस्तुत कर दी जाय । साथ ही दांयी ओर इतना स्थान छूटा रहे कि पांडुलिपियों के प्रकाशन की सूचना यथा समय भर दी जाय, यथा : ऊपर (+) चिह्न के साथ प्रकाशन सूचना दी गयी है।
अध्ययन को, विशेष दृष्टि से उपयोगी बनाने के लिए, ऐसी सूचियां भी प्रस्तुत करनी होंगी जैसी डबल्यू० एम० कल्लेवाइर्ट (W.M. Callewaert) ने बेल्जियम के 'मोरियंटेलिया लोवनीनसिया पीरियोडिका' के 1973 के अंक में प्रकाशित करायी है और शीर्षक दिया है "सर्च फॉर मैन्युस्क्रिप्टस् प्रॉव द दादूपन्थी लिटरेचर इन राजस्थान"! अर्थात् राजस्थान में दादूपंथी साहित्य के हस्तलेखों की खोज हुई।
___इस 12 पृष्ठ के निबन्ध में छोटी-सी भूमिका में उन्होंने यह बताया है कि 'सबसे पहले स्वामी मंगलदास जी ने 77 दादूपन्थी लेखकों की व्यवस्थित सूची प्रस्तुत की जिसमें लेखकों के नाम, उनकी कृतियाँ और सम्भावित रचना-काल दिया। फिर भी बहुत-से दादुपन्थी लेखकों के बहत-से हस्तलिखित ग्रन्थ अभी तक सूचीबद्ध नहीं हए हैं। तब लेखक ने यह बताया है कि
"इन पृष्ठों में राजस्थान, दिल्ली और वाराणसी में पांच महीने की अवधि में उन्होंने जो शोध की उसके परिणाम दिये गये हैं। लेखक ने यह बात पहले ही स्पष्ट कर दी है कि
1. Callewaert, W.M.--Search for Manuscripts of the Dadu Panthi Literature in
Rajasthan, Orientalia Lovaniensia Periodica (1973-74),
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पाण्डुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसंधान, 123
इस सूची का यह दावा नहीं कि इसमें जितने भी सम्भव संग्रह हो सकते हैं, सभी का उपयोग कर लिया गया है । इस कथन से उस भ्रम को दूर किया गया है, जो सम्भवतः इस सूची को देखकर पैदा होता कि इस लेखक ने सूची अद्यतन पूर्ण कर दी है, अब और कुछ शेष नहीं रहा । वस्तुतः मानवीय प्रयत्नों की सामर्थ्य और सीमानों के कारण ऐसा दावा कोई भी नहीं कर सकता कि ऐसी सूची उस विषय की अन्तिम सूची है।"
__फिर लेखक ने यह भी इंगित कर दिया है कि इस सूची में दादू के शिष्यों के द्वारा प्रस्तुत किये गये साहित्य का ही समावेश है, किसी अन्य की कृति का समावेश किया गया है तो यथास्थान उसका उल्लेख कर दिया गया है ।
लेखक ने सूची में उन ग्रन्थों की पांडुलिपियों का उल्लेख करना भी समीचीन समझा है जिनका मुद्रित रूप मिल जाता है। ऐसा उसने पाठालोचन के लिए उनकी उपयोगिता को दृष्टि में रख कर किया है।
यह सूचना भी उसने दी है कि सन्-संवत की संख्या से ईस्वी सन् (A.D.) ही अभिहित है। प्रतिलिपि के कालक्रम से ही ग्रन्थ सूची तैयार की गई है।
__इस सम्बन्ध में लेखक के पक्ष में हमें यह कहना है कि प्रतिलिपि-काल अधिकांश पांडुलिपियों में मिल जाता है, जब कि रचना-काल बहुत कम रचनाओं में प्राप्त होता है । यह बात संत-साहित्य के सम्बन्ध में सर्वाधिक सत्य है। अतः सूची बनाने में क्रम की दृष्टि से वैज्ञानिक आधार प्रतिलिपि का काल ही हो सकता है। यों भी प्रतिलिपि-काल महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह काल यह तो सिद्ध करता ही है कि रचना इस काल से पूर्व हुई। यह काल ग्रन्थ की लोकप्रियता का भी प्रसारण होता है, और लिपि के तत्कालीन रूप की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है।
___ इसके बाद संग्रहों या संग्रहालयों की संकेत सूची गई है, क्योंकि सूची में आगे संकेताक्षरों से ही काम चलाया गया है। ऐसे 16 संग्रहों या संग्रहालयों के संकेताक्षर दिये गये हैं, यथाः 'D.M' : दादू महाविद्यालय, मोती डूंगरी, जयपुर।
जिन संग्रहों से यह सूची प्रस्तुत की गई है वे निम्न प्रकार के हैं : 1. संस्थानों के संग्रह, जैसे-दादू महाविद्यालय का, दादूद्वारा नरैना का, काशी नागरी
प्रचारिणी सभा का, अनूप संस्कृत पुस्तकालय बीकानेर का, आदि। . 2. ऐसी बड़ी संस्थाओं के अन्तर्गत विशिष्ट वर्ग या कक्ष के संग्रह, यथा : NPM :
यह संकेत काशो नागरी-प्रचारिणी सभा वाराणसी (Varanasi) के पुस्तकालय के 'मायाशंकर याज्ञिक संग्रह के लिए है। ऐसे महाग्रंथ जिनमें ग्रंथ संकलित हों, यथा : NAR, MG यह संकेताक्षर 'दादू
द्वारा नरैना' के महाग्रंथ का द्योतक है। 4. ऐसी सूचियाँ जिनमें पांडुलिपियों का उल्लेख है : यथा : NPV. यह काशी नागरी
प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित हिन्दी पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण (1900-55)। I-II 1964 के संस्करण का द्योतक है। इस विवरण
से भी दादूपन्थी ग्रन्थों को इस सूची में सम्मिलित किया गया है। 5. व्यक्तियो के संग्रह, यथा : KT. यह संकेताक्षर है पं० कृपाशंकर तिवारी, 1,
म्यूजियम रोड़, जयपुर के संग्रह के लिए है ।
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124 पाण्डुलिपि-विज्ञान
तब उन्होंने सूची से पूर्व ही उन स्रोतों का विवरण और दे दिया है, जिनसे दादूपंथी साहित्य का पता चल सकता है।
___ अब सूची में उन्होंने पहले बायीं ओर लेखक या कवि का नाम दिया है, उसके साथ कोष्ठक में उसका अस्तित्व-काल दिया है और उसके सामने दांयें छोर पर भक्तमाल (राघवदास कृत) का उल्लेख उसकी उन पृष्ठों की संख्या सहित किया है, जिन पर इस कवि का विवरण है। जिन कवियों का उल्लेख उक्त भक्तमाल में नहीं है, उनके आगे यह संकेत नहीं किया गया ।
इस नामद्योतक पंक्ति के नीचे भिन्न टाइप में 'पुस्तक' या पांडुलिपि का नाम, उसके आगे संक्षेप में छन्दों की गणना और यदि रचनाकाल उसमें है तो उसका उल्लेख । उसके नीचे संकेताक्षरों में उन संग्रहों का उल्लेख है, जिनमें यह ग्रंथ मिलता है। कोई अन्य ज्ञातव्य उसी के साथ कोष्ठक में दिया गया है ।
इस सूची की रूपरेखा की कुछ विशिष्ट बातें केवल निर्देशनार्थ ही दी गयी हैं। पांडुलिपि-विज्ञानार्थी ऐसी सूचियाँ बनाते समय यह ध्यान में रखेगा ही कि सूची अधिकाधिक वैज्ञानिक और उपयोगी बने। इसी दिशा-निर्देशन की दृष्टि से यहाँ इस सूची का एक उद्धरण देना भी समीचीन प्रतीत होता है : Jagannathal
Bh. M. p. 732-733. Gunagan ja nama (anthology of selections from 162 poets) DM 2, p. 521-536 (1676); 14 b, p. 1-216; 17, p. 329-4.50; 10c; 14 b; NP 2521/1476, p. 1-48; p. 2520/1475, p. 1-20; NAR 3/11; 4 p. 316 ff; 72; 13/83; 23/10 (1761); VB 154/6; KT 500/SD. Mohamad raja ki Katha VB 34, p. 575-79 (1653); DM 2, p. 329-332 (1676); 24, p. 376382; 18. p. 465 ff; 20. p. 401-406; 14, p. 78-84; cp. 2987/4%; 3028/12; 3657/6; 3714/3; KT 148 (1675-1705); 399, p. 5-82; 495; 303; VB 4, p. 483-496; 74 p. 521-526, 8, p. 271-281; NAR 2/3; 19/14; 23/34; 29/21; PV 163; 588; 751; 664; NP 2346/ 1400. p. 56-68 has this word under the name of Jan Gopal. See the note in NPVI, p. 254 on the different names of Jangopal. Dattatrey ke 25 guruo ki lila VB 14. p. 154-162; KT 205%; p. 65-74 (1653), see also Jangopat's work.
Dohe--VB 4, pussiny; KT 477; AB 78, p. 148-160.
Pada---VB 12. p. 20 (1684); KT, 331, 352, 122, 469; 560, 154, 240, 311.
The (complete ?) works of Jagannath are found in DM .., p. 1b59; I, p. 429-557; NAR MG. p. 201-283. NP VI, p. 322.
1. Callewaert, W. M.--Search for Manuscripts of the Dadu-Panthi Literature in
Rajasthan, Orientalia Lovaniensia Periodica (1973-74), p. 160.
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पाण्डुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसधान/125
Dayaldas (disciple of Jagannath)
Nasiket vyakhyan (completed in 1677) VB 4, p. 390-451, NAR 2/2; 3/7; 5/5; DM 9, p. 447-469; 21, p. 329-357; 20, p. 453-481; 14, p. 131-165; 23, p. 362-388; VB 8, p. 331-400%; KT. 486%; SD : NPV I, p. 407. नकली पांडुलिपियाँ
पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को क्षेत्रीय अनुसंधान में जिस सबसे विकट समस्या का सामना करना पड़ता है वह नकली ग्रंथों की है। पांडुलिपियों के साथ यह नकली पांडुलिपियों की समस्या भी खड़ी होती है । तुलसीदास जी पर लिखे गये दो ऐसे ग्रथ मिले थे, जिनके लेखकों ने दावा किया था कि वे गोस्वामीजी के प्रिय शिष्य थे। एक ने संवत् एवं तिथि देकर उनके जीवन की विविध घटनाओं का उल्लेख किया था। इनसे कोई कोना अंधकारमय नहीं रह जायगा । किन्तु अन्तरंग परीक्षा से विदित हुआ कि उसमें सब कुछ कपोल-कल्पित है। पूरा का पूरा ग्रन्थ किसी कवि ने दूसरे के नाम से रच डाला था, अतः नकली था, जाली था। ऐसे ही अनेक उदाहरण मिलते हैं।
स्व० डॉ० दीनदयाल गुप्त, भू०पू० अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय ने डी० लिट० की एक मौखिक परीक्षा के समय वाराणसी के एक ऐसे व्यक्ति का नाम बताया था जो जाली हस्तलिखित पुस्तकें तैयार करने में दक्ष था। मुझे आज उसका नाम स्मरण नहीं, किन्तु ऐसे व्यक्तियों का होना असम्भव नहीं। जहाँ पुरानी ऐतिहासिक वस्तुओं के क्रय-विक्रय के केन्द्र होते हैं वहाँ ऐसी जालसाजी के लिए बहुत क्षेत्र रहता है । अनेक प्रकार के प्रयत्न किये जाते हैं और नकल को असल बताकर व्यवसायी पूरी ठगाई करते हैं।
___ 19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में मध्य एशिया के 'खुत्तन' शहर में तो किसी ने हस्तलिपियों के निर्माण के लिए कारखाना ही बना डाला था। डॉ. भगवतीशरण उपाध्याय ने धर्मयुग, 8 मार्च, 1970 (पृष्ठ 23 एवं 27) के अंक में 'पुरातत्व में जालसाजी' शीर्षक निबन्ध में 'पारेल स्टाइन' के आधार पर रोचक सूचना दी है। उन्होंने बताया है कि 'खुत्तन और काशगर' से एक बार जाली हस्तलिपियों की खरीदफरोख्त का तांता बंधा और अंग्रेजी, रूसी तथा अनेक यूरोपीय संग्रहकर्ताओं को जाली हस्तलिपियाँ पर्याप्त मात्रा में बेची गयीं । यह इतनी दक्षतापूर्वक की गई जालसाजी थी कि “विद्वान् और अनभिज्ञ दोनों ही समान रूप से इस धोखे के शिकार हुए।" 'आदिर पारेल स्टाइन' ने इस जालसाजी का पूरी तरह भंडाफोड़ किया । इसलाम अखुन नाम के एक जालसाज ने तो प्राचीन पुस्तकों की खपत अधिक देख कर एक कारखाना ही खोल दिया था। आरेल स्टाइन महोदय के विवरण के आधार पर डॉ० भगवतशरण उपाध्याय ने इस जालसाज इस्लाम अखुन द्वारा जालसाजी करने की कथा यों दी है :
"अब इसलाम अखुन द्वारा निर्मित 'प्राचीन पुस्तकों' की कथा सुनिये, अपनो पहली 'प्राचीन पुस्तक' इस प्रकार बनाई हुई उसने 1895 में मुंशी अहमद दीन को बेची। मुंशी अहमद दीन मैं कार्नी की अनुपस्थिति में काशगर के असिस्टेंट रेजिडेंट के दफ्तर की सम्भाल करने लगा था। वह पुस्तक हाथ से लिखी गई थी और कोशिश इस बात की की गयी थी
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126, पाण्डुलिपि-विज्ञान
कि इस कारखाने में बनी पहली पुस्तकों की तरह घसीट ब्राह्मी में लिखी असली हस्तलिपियों के कुछ टुकड़े दंदा-उइलिक में इब्राहीम को पहले कभी मिल गये थे और यह काम इन जालसाजों ने कुछ इस तरह किया था कि यूरोप के अच्छे से अच्छे विशेषज्ञ तक को आसानी से सफलतापूर्वक धोखा दिया जा सकता था। यह डॉ० हेन्र्ले की 'मध्य एशियाई पुरावस्तुओं की रिपोर्ट' से प्रमाणित है, जो पहले की सामग्री पर आधारित थी। यह पहले की सामग्री' इस्लाम अखुन के कारखाने में बनी अन्य वस्तुओं के साथ अब ब्रिटिश म्यूजियम लंदन के हस्तलिपि-विभाग के जाली कागजात के अनुभाग में सुरक्षित है। इसी प्रकार की एक 'प्राचीन खत्तन की हस्तलिपि' की अनुलिपि (फैक्सि मिली) डॉ० स्वेन हेडिन की कृति 'थ्र एशिया' के जर्भन संस्करण में सुरक्षित है जो इस्लाम इब्राहीम आदि की आधुनिक फैक्ट्री में प्राचीन रूप में सम्पादित हुई ।
काणगर में जालसाजी का यह बाजार गर्म होने तथा हस्तलिपियों की कीमत वगैर मीनमेख के कल्पनातीत मिलने से अन्यत्र के जालसाज भी वहाँ जा पहुँचे । इनमें सरगना लद्दाख और कश्मीर का एक फरेबी बनरुद्दीन था। उसका काम तो बहुत साफ न था, पर 'प्राचीन पुस्तकों की संख्या का परिमाण सहसा काफी बढ़ गया । कि उन्हें खरीदने वाले यूरोपियन उन अक्षरों को पढ़ या उनका वास्तविक प्राचीन लिपि से मिलान नहीं कर सकते थे, अत: जालसाजों ने भी जाली अक्षरों का मूल से मिलान कर अपने करतब में सफाई लाने की कोशिश नहीं की।
हाथ से लिख कर फरेब से हस्तलिपियाँ बनाने का काम बड़ी मेहनत से सम्पन्न होता था। इसी से जालसाजी के उन माहिरों ने काम हल्का और आसान करने के लिए कारखाना ईजाद किया। अब वे लकड़ी के ब्लॉकों से बार-बार छापे मार कर पुस्तकों का निर्माण करने लगे। इससे उनके काम में बड़ी सुविधा हो गयी। इन ब्लॉकों को बनाने में भी किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती थी, क्योंकि चीनी, तुर्किस्तान में लकड़ी के ब्लॉकों से छपाई ग्राम बात थी । 'प्राचीन पुस्तकों' की इस प्रकार से छपाई 1896 में शुरू हुई । नयी सिरजी लिपि की भिन्नता ने विद्वानों की कल्पना को जगाया और उसकी व्याख्या करने के लिए बड़े परिश्रम से उन्होंने नये फार्मूले रचे ।
हस्तलिपि 'प्राचीन' बनाने में जिन उपायों का अवलम्बन किया जाता था, इस्लाम अखुन ने उसका भी सुराग दिया। 'ब्लाक-प्रिंट' अथवा हस्तलिपि तैयार करने के लिए कागज भी विशेष रूप से तैयार किया जाता था और विशेष विधि से उसे पुराना भी कर लिया जाता था । तुर्किस्तान कागज के उद्योग का प्रधान केन्द्र होने के कारण खुत्तन जालसाजों के लिए आदर्श स्थान बन गया था। कारण कि वहाँ उन्हें मनोवांछित प्रकार और परिमाण का कागज बड़ी सुविधा से प्राप्त हो सकता था । 'तोगरुगा' के जरिये कागज पहले पीले या हल्के ब्राउन रंग में रंग लिया जाता था। तोगरुगा तोगरक नामक वृक्ष से प्राप्त किया जाता था, जो पानी में डालते ही घुल जाता था और घुलने पर दाग छोड़ने वाला द्रव बन जाता था ।
रंगे कागज के ताव पर जब लिख या छाप लिया जाता तब उसे धुंए के पास टांग दिया जाता था। धुंए के स्पर्श से उसका रूप पुराना हो जाया करता था । अनेक बार इससे कागज कुछ झुलस भी जाता था। जैसा कि कलकत्ते में सुरक्षित कुछ 'प्राचीन पुस्तकों' से प्रमाणित है। इसके बाद उन्हें पत्रवत् बाँध लिया जाता था। इस जिल्दसाजी
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पाण्डुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसंधान/127
से जालसाजी का भण्डाफोड़ हो सकता था। क्योंकि उसमें कुछ ऐसे बन्धन आदि का प्रयोग होता था जिनसे उनके अाधुनिक यूरोपीय सम्पर्क का जाहिर हो जाना भी अनिवार्य था । यद्यपि इसका राज भी तभी खुला जब इस्लाम अखुन ने अपना कसूर कबूल कर लिया और हकीकत बता दी। हस्तलिपि अथवा पुस्तक तैयार हो जाने पर उसके पन्नों में रेत झाड़ देते थे जिससे उनके रेगिस्तानी रेत में दीर्घकाल तक दबे रहने का आभास पैदा हो जाय । 1898 के बसंत में पारेल स्टाइन लिखते हैं, “जाली ब्लाक-प्रिंट जाँचने के पहले मुझे कपड़े के ब्रश का इस्तेमाल करना पड़ा था। यह हस्तलिपि कश्मीर के एक संग्रहकर्ता के जरिये मुझे कश्मीर में ही मिली थी।"
यहीं हम श्री पूर्णेन्दु बसु की पुस्तक 'Archives and Records : What are they ?" नामक पुस्तक से भी कुछ उद्धृत करना चाहेंगे। बसु महोदय ने तीसरे (III) अध्याय में लेखों के शत्रु (Enemies of Records) में रिकार्डों के प्रमुख शत्रु की गणना दी है कि "The are generally speaking time, fire, water, light, heat, dust, humidity, atmospheric gases, fungi, vermin", 'acts of God' and, last but not least, human beings" लेखों-अभिलेखों के शत्रुओं में उन्होंने काल, अग्नि, जल, प्रकाश, गर्मी, धूप, प्रार्द्रता, वातावरणिक गैसें, फफूंद (fungi) तथा कीड़े-मकोड़ों के साथ-साथ मनुष्यों को भी प्रमुख शत्रु बताया है। अन्य शत्रुओं पर चर्चा करने के उपरांत 'मनुष्य के सम्बन्ध में लिखा है
"Human beings can be as much responsible for the destruction of records as the elements or insects. I am not only referring to mishandling or careless handling the effects of which are obvious. There are cases of bad appraisal. It is evident that every scrap of paper produced or received in an office cannot be kept for ever-they are not sufficiently valuable to merit expenditure of money or energy for their preservation, by being retained they only occupy valuable space and obscure the more valuable materials. So at some stage a selection has to be made of the records that can be destroyed without doing any harm to either administration or scholarship. Bad appraisal has often led to the valuable record being thrown away and the valueless Kept. Then there are people who may use the information contained in records to the determent of government or of individuals. Again there are others who may wishi to temper with the records in order to destroy or distort evidence. There are some who are cither collectors of autographs and seals or are mere kleptomaniacs, and it is a problem to guard the record against them."
इसमें हस्तलेखों के मानवीय शत्रुता के कारनामों का उल्लेख है। यह बताया गया है कि 1. वे हस्तलेखों का ठीक ढंग से उपयोग नहीं करते, 2. वे ग्रन्थों-लेखों के उपयोग में
1. धर्मयुग (8 मार्च, 1970), पृ. 23 एवम् 271 2. Basu, Purendu-Archives and Records : What are they ?, p. 33.
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128/पाण्डुलिपि-विज्ञान
प्रमाद करते हैं, 3. वे महत्त्व को ठीक नहीं आंक (appriase) पाते, फलतः अभिलेखागारों में से कभी-कभी महत्त्वपूर्ण कागज-पत्र नष्ट करवा दिये गए, रद्दी हस्तलेखों को सुरक्षित रखा गया। इससे सरकार को और व्यक्ति को भी हानि उठानी पड़ी है, 4. स्वार्थियों ने साक्षी को नष्ट करने या बिगाड़ देने के लिए हस्तलेखों में जालसाजी की, 5. कुछ हस्ताक्षरों (autograph) और मुद्राओं (scal)/मुहरों के सङ्कलनकर्ता अभिलेखों में से उन्हें काट लेते हैं, कुछ को यों ही कतरनों का शौक होता है। ये सभी काम अभिलेखों के प्रति शत्रता के काम हैं।
_ लेखों-अभिलेखों में हेरफेर करना भी जालसाजी है। यह जालसाजी बहुत घातक है। ऐसी ही एक जालसाजी की बात राजतरंगिरणी के लेखक द्वितीय (तृतीय) जोन राज ने बताई है, जिसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं। इसमें स्वयं जोन राज के साथ उस व्यक्ति ने भोजपत्र पर लिखे भूमि के बिक्रीनामा में जालसाजी करके सारी भूमि हड़प लेनी चाही थी। पर पहले बिक्रीनामा पक्की स्याही से लिखा गया था बाद में जालसाज ने कच्ची स्याही से जाल किया था । फलतः पानी में भोजपत्र के डाल देने पर कच्ची स्याही चल गयी
और जाल सिद्ध हो गया। महाकवि भास के बहुत-से ग्रन्थ कुछ वर्ष पूर्व मिले थे। एक विद्वान् ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि वे जाली हैं। ब्रिटिश म्यूजियम में ऐसी जाली वस्तुओं का अलग ही एक कक्ष बना दिया गया है।
अतः पांडुलिपि-विज्ञानविद् को पुस्तक की आन्तरिक और बाह्य परीक्षा द्वारा यह आश्वस्त हो लेना आवश्यक है कि कोई पांडुलिपि जाली तो नहीं है ।
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अध्याय
पाण्डुलिपियों के प्रकार
प्रकार-भेद : अनिवार्य
'पांडुलिपि' का अर्थ बहुत विस्तृत हो गया है, यह हम पहले के अध्यायों में देख चुके हैं । वस्तुतः विस्तृत अर्थ होने का अभिप्राय ही यह है कि उसके अन्तर्गत कितने ही प्रकारों का समावेश हो गया है। पांडुलिपि में विविध प्रकार के लिप्यासनों पर लिखी कृतियाँ भी आयेंगी, साथ ही वे ग्रन्थ-रूप में भी हो सकती हैं और राज्यादेशों के रूप में भी, चिठ्ठी-पत्री के रूप में भी, और भी कितने ही प्रकार के कृतित्व "पांडुलिपि' में समावेशित हैं । अतः 'पांडुलिपि-विज्ञान' के क्षेत्र के सम्यक् ज्ञान के लिए उसके सभी प्रकारों और प्रकार-भेदों के आधारों से कुछ परिचित होना अनिवार्य हो जाता है। यह प्रकार-भेद 'पांडुलिपि' के अभिप्राय-क्षेत्र के आधार पर किया गया है। इन प्रकारों को एक दृष्टि में निम्नस्थ वृक्ष से समझा जा सकता है :
पांडुलिपि
राजकीय
लौकिक*
अन्य
राज्यादेश या शासन चिट्ठी-पत्री कार्यालयीय नत्थियाँ ग्रन्थ (ये राष्ट्रीय आर्काइब्ज
(ये आधुनिक युग में में सुरक्षित रखे जाते
महत्त्वपूर्ण हो गयी हैं । शिलालेखादि के रूप में प्रार्यालॉजी के अन्तर्गत पाते हैं)
राजकीय
लौकिक या गैर-राजकीय संस्थाओं की। उक्त वृक्ष में हमने राजकीय क्षेत्र में भी ग्रन्थ को एक प्रकार माना है, और लौकिक में भी । राजकीय क्षेत्र में भी ग्रन्थ-रचना होती थी, इसमें सन्देह नहीं। स्वयं राजाओं ने ग्रन्थ रचना की है। किन्तु इस वर्ग में ऐसे ही ग्रन्थ रखने होंगे जिनका अभिप्राय राजकीय हो । राजा की विजय या उसकी प्रशस्ति विषयक ग्रन्थ राजकीय योजनाओं पर ग्रंथ आदि ।
लिप्यासन की दृष्टि से भी पांडुलिपियों के भेद होते हैं । लेखों को प्रासन की प्रकृति के अनुसार लेखनी/कलम से, टांकी से, कोरक से, सांचे से, छेनी से, यंत्र से लिखा जाता है।
* स्मृति चन्द्रिका में उद्धत वशिष्ठोक्ति कि 'लौकिक राजकीयं च लेख्य विद्यादू द्विलक्षणं (व्यवहार 1.14)।' इसी वशिष्ठोक्ति के आधार पर हमने भी यहाँ 'राजकीय' और 'लौकिक' दो भेद स्वीकार किये हैं ।
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इस आधार से लिप्यासन के दो प्रकार हो जाते हैं : इन्हें 'कोमल' तथा 'कठोर' कहा जाता है । कोमल पर लिखा जाता है, कठोर पर । उत्कीर्ण किया जाता है।
पांडुलिपि (लिप्यासन की दृष्टि से प्रकार)
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लेखन निमित्त : कोमल लिप्यासन वाली
130, पाण्डुलिपि-विज्ञान
उत्कीगत निमित्त : कठोर लिप्यासन वाली
पाषागीय
मृण्यम
सीप-दांतिकी ताम्रपत्रीय स्वर्ण-पत्रीय रजत-पत्रीय अन्य धातुओं
की
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नाइपत्रीय भोजपत्रीय अगरुपत्रीय या
पटीय
चर्मपत्रीय कागजीय काष्ठीय (भूर्ज का एक पर्याय- समुचीपात । य (वस्त्र-निर्मित) चर्मपत्रीय-ग्रन्थ भारत कागजीय-पांडु
वाची शब्द लेखन भी ग्रंथ आसाम में संस्कृत में कापाषिक में कम । जैसलमेर के लिपियों पर लेखनी लिखित उत्तर शलाका-कोरित है) ग्रंथों के अतिरिक्त मिले । 15वीं पट। 1351-52 ई. एक पुस्तकालय में एक आगे विस्तार में । भगवान बुद्ध के दक्षिण में भोजपत्र पर चिट्ठियाँ शती का सुन्दर की एक प्रति श्रीप्रभ- कोरा चर्म-पत्र मिला से वर्णन है। उपदेश उनकी मृत्यु के 15वीं शती से विशेषतः लिखी कांड पेरिस में सूरि की 'धर्मविधि' था। रूस में पीटर्सबर्ग तुरन्त बाद ताड-पत्रों पूर्व के ही जाती थीं । अभी सुरक्षित है। की उदयसिंह की के संग्रहालय में काशपर लिखे गये । प्राचीन मिलते हैं। तक प्राप्त प्राचीनतम
टीका सहित कपड़े गर से प्राप्त कुछ चर्म ताडपत्रीय ग्रंथ भारत भोजपत्रीय ग्रन्थ
के 13 पन्नों में प्रत्येक पत्र हैं जिन पर भारसे बाहर एशिया में खरोष्ठी लिपि में,
पाना 13X5", तीय लिपि में लिखा तुरफान आदि में मिले। प्राकृत भाषा में
जन पुस्तकालय हुआ है। होरीयुजी (जापान) में धम्मपद हैं जो 2री
अन्हिलवाड़ा में सुरउष्णीय विजय धारणी 3री शती में प्रति
क्षित है। रेशमी पाट 7वीं शती ई. में भारत लिपित हैं और
भी काम में प्रामा में लिपिबद्ध हुई । नेपाल खोतान में मिली हैं।
था। में ताड़पत्रीय स्कंद पुराण 7वीं शती का प्रतिलिपित माना जाता है।
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/131
पाषाणीय-शिलालेख
ीय
मूर्तीय
चट्टानीय शिलापट्टीय स्तम्भीय
मूर्तीय
अन्य
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VAISH
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K
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चट्टानीय शिलालेख का चित्र तथा शिलापट्टीय (त्रिपुरांतकम् का)
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132/पाण्डुलिपि-विज्ञान चट्टानीय
_ 'उन्नत शिखर पुराण' दिगम्बर-जैन-सम्प्रदाय की कृति है। 1170 ई० की यह कृति उदयपुर क्षेत्र के भीलवाड़ा जिले में बिजौलियाँ गाँव की चट्टान पर खुदी हुई है।
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रौसेटा का शिलालेख
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/133
शिलापट्टीय
सामान्य शिलालेख एक शिला-पट्ट पर लिखे जाते थे और उचित स्थान पर जड़ दिए जाते थे । पर बड़ी-बड़ी प्रशस्तियाँ और ग्रन्थ भी शिलापट्टों पर लिखे और जड़े मिलते हैं। राणा कुम्भा का लेख पाँच शिला-पट्टों पर लिखा (खोदा) हुया कुम्भलगढ़ के कुंभि स्वामिन् या मामादेव के मन्दिर में जड़ा मिला है। मेवाड़ में राजसमुद्र जलाशय के पुश्तों पर 24
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पुष्पगिरि शिलालेख शिलापट्टों पर जड़ी हुई है 'राजप्रशस्ति', इसके 24 खंड हैं। इसके रचयिता हैं कवि रण छोड़। यह प्रशस्ति राणा राजसिंह के सम्बन्ध में है। राजा भोज परमार का प्राकृत भाषा का काव्य 'कूर्मशतक', मदन की संस्कृत कृति 'पारिजातमंजरी' (या विजयश्री नाटक), चाह्माण राजा विग्रहराज चतुर्थ (1153-64 ई.) का 'हर केलि नाटक' तथा उनके राजकवि सोमेश्वर कृत 'ललित-विग्रहराज नाटक' शिला-पट्टों पर खुदवाकर दीवारों में जड़वाये गए थे । इनके अंश अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित हैं ।
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134/पाण्डुलिपि-विज्ञान स्तम्भीय
स्तम्भों पर लेख उत्कीरणं करने की पुरानी परम्परा है । सम्भवतः प्राचीनतम स्तम्भ लेख अशोक (272-232 ई. पू.) कालीन हैं । इन पर खुदे लेखों में इन्हें शिला-स्तम्भ कहा : गया है । ये स्तम्भ निम्न प्रकार के मिलते है :
कालकुड का वीरस्तम्भ (पालिया)
स्तम्भ
1. शिलास्तम्भ
2. ध्वजस्तम्भ
3. जयस्तम्भ 4. कीर्तिस्तम्भ (जैसे-होलियो-डोरस का किसी विजय पर किसी किसी यशस्वी के गरुड़ध्वज) मन्दिर के सामने विजेता राजा की प्रशस्ति पुण्य कार्य के खड़े किये जाते हैं और के लिए (जैसे समुद्रगुप्त लिए खड़ा किया इन पर लेख भी रहता का एरण का और यशो- जाता है ...
धर्मन का मन्दसौर का) (क्रमशः)
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/135
स्तम्भ
5. वीर स्तम्भ 6. सती स्तम्भ 7. धर्म स्तम्भ (गुजराती में जिन्हें 'पालियाँ' ये सती होने वाली नारी (वोटिव पिलर्स) ये धर्म-स्थलों कहते हैं) गाँव या नगर के का स्मारक होता है। इन पर, विशेषतः बौद्ध धर्म के किसी वीर की युद्ध में मृत्यु पर भी लेन मिलते हैं। स्थलों पर म-लेख मिलते हैं। होने पर। इन पर लेख भी रहते हैं।
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देवगिरि का सतीस्तम्भ (पालिया)
महाकुट का धर्मस्तम्भ
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136 पाण्डुलिपि - विज्ञान
8. स्मृति स्तम्भ
ये गोत्र या गोत्र शालिका
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स्तम्भ
ग्रन्थ
अभिलेख
ईंटों पर
अभिलेख तो अन
ईंटों पर ग्रन्थ भी लिखे गए । गिलगेमश की गाथा ईंटों पर लिखी मिली, इसका उल्लेख गिनती हम अन्यत्र कर चुके मिले हैं। हैं । भारत में कुछ बौद्ध ग्रंथ ईंटों पर
उभारे गए मिले हैं ।
कुछ राजाओं ने श्वमेघ युद्ध किए, जैसे-दाममित्र एवं शीलवर्मन् ने । इनके अश्वमेघ सम्बन्धी अभिलेख ईंटों पर लिखे मिले हैं ।
I
9. छाया-स्तम्भ
इन स्मृति स्तम्भों पर
स्मृत व्यक्ति की मूर्ति उकेरी रहती है ।
भी कहे जाते हैं । अपने
कुटुम्ब के किसी व्यक्ति की
स्मृति में खड़े किए जाते
हैं ।
9. मृण्मय - मृण्मय लेख कई रूपों में मिलते हैं, तथा----
1. ईंट पकायी हुई एवं कच्ची 2. धोंधे
ईंट की सामग्री, दोनों प्रकार की प्रभूत मात्रा में मिली है - पकायी हुई ईंटों पर भी और बिना पकायी (कच्ची) ईंटों पर भी
1
कभी-कभी मिट्टी की ईंटें न बनाकर उसके धोंधे (मिट्टी को सानकर एक ढेर का आकार देकर टीम
के रूप में) उस पर लेख अंकित कर उसे पका लिया जाता
था । धार्मिक मनी
तियों के लिए विशेषतः ऐसे धोंधों पर लेख
लिखे गये ।
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10. यूप स्तम्भ ( यज्ञोपरान्त बलि को
बाँधने के लिए बनाये
3. मुहर - मुद्रा ये मृष्मुद्राएँ भी बहुत संख्या में मिली हैं। मोहनजोदड़ो एवं नालंदा से मिली
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गए स्तम्भ) इन पर भी लेख मिले हैं ।
मुद्राएँ प्रसिद्ध
हैं ।
4. घट
घड़ों या
उनके ढक्कन
पर भी लेख उत्कीर्ण हुए
मिले हैं ।
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/137
नालन्दा की मृण्मय मुहर
MENT
NURSEthe
मोहनजोदड़ों से प्राप्त मुहर
PRES
-
-
10. सीप, शंख, दांत, काष्ठ प्रादि-शंखों पर, हाथीदांत की बनी मुद्राओं पर, लकड़ी की लाटों या स्तम्भों पर भी अंकित लेख मिले हैं ।
धातु-वस्तु--धातुओं में ताँबा सबसे अधिक प्रिय रहा है। इसके बने पत्रों पर उत्कीर्ण लेख पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं और प्राचीन समय से मिलते हैं। कोई शासन ताम्रपत्र के एक ओर, कोई दोनों ओर लिखा होता था । कोई शासन कई ताम्रपत्रों पर लिखा जाता था। इन पत्रों को तांबे के कड़े में पिरोकर एक घट या किसी पात्र में बन्द करके सुरक्षित रखा जाता था । ताम्रपत्रों पर कई प्रकार के लेख मिलते हैं :
ताम्र वस्तु
पत्र रूप
मूर्ति
| प्रशस्ति
अन्य ताम्र वस्तुएँ, यथा-चमचे
पर (तक्षशिला), दीपक यन्त्र पर (दीपक : जमालगढ़ में)
कढ़ाही पर, आदि ।
शासन हनसांग ने बताया है कि कनिष्क ने बौद्ध-धर्म-ग्रंथ ताम्रपत्रों पर अंकित कराये। एक अनुश्रुति है कि सायण की वेदों की टीका ताम्रपत्रों पर अंकित करायी गयी थी।
तेलुगु में रचित 'ताल्लपा कमवरी' कई ताम्रपत्रों पर खचित तिरुपती में सुरक्षित हैं ।
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138/पाण्डुलिपि-विज्ञान
स्वर्ग
(ग) स्वर्ण की अन्य वस्तुए जिन पर लेख मिले हैं ।
(क) सोने के पत्तर पर (ख) स्वर्णमंडित ताड़-पत्र
'स्वर्णमंडित ताड़पत्र पर
| | अंकित कुछ पांडुलिपियाँ 1. ग्रंथ 2. बौद्ध 3. मंत्र 4. पत्र ब्रिटिश म्यूजियम में एक ग्रंथ धारणी
बतायी जाती हैं ।) 24 स्वर्ण- (ये पत्तर । पत्रों का भारत से राज- व्यापारिक ढाका के बाहर पत्र पत्र धामदह मिले) ताल से मिला था।
1. प्याले-कटोरे
3. लटकन
4. देवता की पालकी
रजत
1. ग्रंथ .. अभिलेख 3. प्याले-कटोरे 4. तश्तरियाँ 5. एक गोल 6. एक (ब्रिटिश म्यूजियम (i) भट्टिप्रोलु एवं तिक्षशिला) (तक्षशिला) रकाबी चलनी में चाँदी से मंडित तक्षशिला के रजत
(तक्षशिला) (तक्षताड़पत्रों पर अभिलेख हैं।
शिला) खचित कई ग्रन्थ (ii) एक तक्षशिला
का 79 ई. का अभिलेख चांदी के पतले पत्तर पर कुण्डली (Scroll) रूप है :
61" x 18" इसी तरह कांस्य पीठिका (मूर्तिकी), कांस्य पिटक, कांस्य फलक, कांस्य मुद्राएँ भी मिली हैं, जिन पर लेख अंकित हैं ।
लौह तुपक, लौह स्तम्भ (दिल्ली), लौह त्रिशूल (अचलेश्वर मन्दिर, पाबू) पर भी लेख मिले हैं।
पीतल के बहुत-से घण्टों पर, जो मन्दिरों में टंगें हैं, लेख हैं ।
संक्षेप में, लिप्यासन के आधार से उपर्युक्त भेदों का सर्वेक्षण किया गया है। इनके विस्तृत विवरण यहाँ दिये जाते हैं ।
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पाण्डुलिपियों के प्रकार 139
पांडुलिपियों के प्रकार :
लिप्यासन भेद से-लिप्यासन कितने ही प्रकार के मिलते हैं । वृक्षों की छाल, वृक्षों के पत्ते, धातुओं के पत्तर, चमड़े, कागज, कपड़ा आदि पर ग्रन्थ लिखे गये हैं । जिन वस्तुओं को ग्रन्थ-लेखन के लिए उपयोग में लाया जाता था, या लाया जा सकता है उन्हें 'लिप्यासन' (लिपि +-पासन) कहा जा सकता है । ताड़पत्र, कपड़ा, वागा आदि सभी लिप्यासन है : लिपि के ग्रासन । लिपि-आसन के भेद से पुस्तक के प्रकार स्थापित किये जा सकते हैं । क्योंकि ग्रन्थ का प्रथम भेद लिप्यासन के आधार पर ही किया जा सकता है, जैसे ताडपत्रीय ग्रन्थ, भोजपत्रीय ग्रन्थ आदि । ये ग्रन्थ प्रस्तर-शिलाओं पर भी लिखे जाते थे। ये वस्तुतः ग्रन्थ ही थे. अभिलेख-मात्र नहीं । इसमें सन्देह नहीं कि जिलाओं पर अभिलेख तो बहुत-से मिले है । पर चाहे बहुत ही कम संख्या में हों, ग्रन्थ 'भो गिलाओं पर खुदे मिल हैं। पाषागीय : प्रस्तर शिलानों पर ग्रन्थ . हम समझते हैं कि पत्थर को लेखन-आधार के रूप में इतिहास के प्रस्तर-माल से ही प्रयोग में लाया जाता रहा है। मनुष्य ने जब सर्वप्रथम अपने भावोंगो इंगित के अतिरिक्त अन्य प्रकार से व्यक्त करने का उपाय निकाला होगा, पत्थर से पत्थर पर चिह्न बना कर ही किया होगा । मूल रूप में यह प्रवृत्ति अव भी मनुष्यों में पाई जानी। बिना पढ़े मजदूर आदि अपना हिसाब जमीन पर या पत्थर के टुकड़ों पर पत्थर के ही ढोंके से आड़ी-सीधी लकीरें खींचकर लगा लेते हैं। अतः पत्थर-लेखन का आद्य आधार हो सकता है। बाद में तो पत्थर की शिलाओं को चिकनी बनाकर, स्तम्भाकार बनाकर, तथा उ हाशिया उभार पार सुन्दर अक्षरों को उत्कीर्ण करने की कला विकसित हुई है।
प्रस्तर शिलानों पर किसी घटना की स्मृति, राजाज्ञा, प्रशस्ति आदि तो उन्हें चिरस्थायी बनाने के प्राशय से खोदे ही जाते थे परन्तु कतिपय काव्य एवं अन्य रचनाएं भी शिलोत्कीर्ण रूप में पाई गई हैं। कोई-कोई प्रशस्ति भी इतनी विस्तृत और बड़ी होती है कि उसे विद्वानों ने ऐतिहासिक काव्य की ही संज्ञा दी है।
हनुमन्नाटक, (जिसको महानाटक भी कहते हैं) के टीकाकार बलभद्र ने लिखा है कि इसकी रचना वायुपुत्र हनुमान ने की और महर्षि वाल्मीकि को दिखाई। वाल्मीकि ने कहा कि उन्होंने तो इस कथा को रामावतार से पूर्व ही कविताबद्ध कर दिया था। तब हनुमान ने जिन शिलाओं पर अपनी रचना अंकित की थी उनको समुद्र-तल में रख दिया । बाद में धारा के राजा भोज को जब इसका पता चला तो उसने कुछ गोताखोरों को उन शिलानों को निकालने के लिए नियुक्त किया परन्तु वे इतनी भारी थीं कि उनको ऊपर लाना शक्य नहीं हुआ। तब यह उपाय काम में लाया गया कि गोताखोरों के सीने पर मधुमक्खियों का मल (अर्थात् शहद् निकालने के बाद बचा हुआ मोम) लेप दिया गया । वे सागरतल में जाकर निर्देशानुसार उन शिलाओं का आलिंगन करते। इस प्रकार शिलानों पर लिखित अंश की छाप उन पर उभर आती। बुद्धिमान राजा भोज द्वारा इस क्रम से उद्धार किये जाने पर काशीनाथ मिश्र ने इस नाटक को ग्रन्थित किया । उमी के पुत्र बलभद्र ने इसकी टीका बनायी।
रचितमनुलपुत्रेणाथ वाल्मीकिनाब्यो निहितममृत बुद्धया प्राङ महानाटक यत ।
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140/पाण्डुलिपि-विज्ञान
सुमति नृपति भोजेनोद्धृतं तत्क्रमेण
ग्रथितभवतु विश्वं मिश्रकाशीश्वरेण ।। इससे पता चलता है कि रचनाओं को प्रस्तर-शिलाओं पर अंकित कराने की प्रथा बहुत पुरानी है । भोजराज से पूर्व महानाटक की रचना हो चुकी थी अतः इसका शिलांकन ईसा की दसवीं शताब्दी में हुआ होगा । सम्भव है, इससे भी पूर्व हुआ हो । दूसरी बात यह है कि यद्यपि इन शिलाओं को प्रत्यक्ष तो नहीं देखा जा सका परन्तु यह तो कहा ही जा सकता है कि किसी बड़ी रचना के शिलोत्कीर्ण होने की यही सबसे पुरानी सूचना है।
राजस्थान में मेवाड़ प्रदेश के बिजोलियां ग्राम के पास एक जैन मन्दिर है, उसके निकट ही एक चट्टान पर 'उन्नत-शिखर पुराण' खुदा हुआ है। यह पोखाड़ सेठ लोलार्क द्वारा संवत् 1226 में खुदवाया गया था । इस चट्टान के पास ही एक दूसरी चट्टान पर उक्त मन्दिर से ही सम्बद्ध एक और लेख खुदा हुआ है जिसमें चाहमान से लेकर पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर तक पूरी वंशावली उत्कीर्ण है और साथ ही लोलार्क सेठ के वंश का वर्णन भी दिया हुआ है।
____ इसी प्रकार अजमेर के प्रसिद्ध अढ़ाई दिन के झोंपड़े से कुछ शिलाएँ प्राप्त की गई थीं जो अब अजमेर के संग्रहालय में रखी हुई हैं। यह 'अढ़ाई दिन का झोंपड़ा' नामक इमारत पहले बीसलदेव चौहान (विग्रहराज) द्वारा संस्थापित पाठशाला थी। इसमें उसी राजा के द्वारा रचित 'हरकेलि' नामक नाटक शिलोत्कीर्ण करके सुरक्षित किया गया था जिसकी दो शिलाएं उक्त म्यूजियम में विद्यमान हैं। सोमेश्वर कवि रचित 'ललित विग्रहराज नाटक' की दो शिलाएँ तथा चौहानों से सम्बन्धित एक और काव्य की एक शिला भी उसी संग्रहालय में मौजूद हैं।
राजस्थान में ही मेवाड़ के महाराणा कुम्भकर्ण की रचनाएँ भी शिलाओं पर खुदवाई गयी थीं जिनका नमूना उदयपुर के म्यूजियम में देखा जा सकता है। बाद में महाराणा राजसिंह (प्रथम) ने भी रणछोड़ भट्ट रचित 'राज-प्रशस्ति' नामक काव्य 24 शिलानों पर खुदवाकर राजसमंद सरोवर पर लगा कर चिरस्थायी बनाया।
धाराधीश्वर सुप्रसिद्ध विद्वान् राजा भोज ने भी अपने नगर में 'सरस्वती कण्ठाभरण' नामक पाठशाला स्थापित की थी। यह स्थान प्राजकल 'कमलमौला' नाम से जाना जाता है। उक्त पाठशाला में राजा भोज ने स्वरचित 'कूर्मशतक (प्राकृत) काव्य' और राजकवि मदन विरचित 'पारिजातमंजरी' नामक नाटिका को शिलांकित करवाया था।
ग्वालियर के पद्भनाथ देवालय (सास बहू का मन्दिर) में कछवाहा वंश का एक प्रशस्ति शतक शिलोत्खचित है जो एक उत्तम काव्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस शतक में कच्छपघातवंशतिलक लक्ष्मण तत्पुत्र गोपगिरि (ग्वालियर) दुर्गाधीश्वर वज्रदामा में लेकर पद्मपाल नामक राजा तक का वर्णन है। इस राजा ने इस मन्दिर का निर्माण कराकर ब्राह्मणों को पुष्कल दान दिया था। शतक का कवि मणिकण्ठ था जो भारद्वाज गोत्रीय रामकवीन्द्र का पौत्र और गोविन्द कवि का पुत्र था । संवत् 1150 वि. में मणिकंठ सूरि की इस रचना के वर्गों को यशोदेव दिगम्बरार्क ने लिखा । इसकी रचना के संबत् 1149 का निम्न श्लोक में उल्लेख किया गया है :.
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/141
एकादशस्वतीतेषु संवत्सर शतेषु च ।
एकोनपंचाशति च गतेष्वदेषु विक्रमात् ।। 10701 धातु-पत्रों पर ग्रन्थ
'वासुदेव हिंडि' में प्रथम खण्ड में ताम्रपत्रों पर पुस्तक लिखवाये जाने का उल्लेख मिलता है :
"इयरेण तंबपत्तेसु तणुभेसु रायल क्खवणं रएऊरणं निहालारसेणं तिम्मेऊरण तंबभायणे पोत्थाओ पाक्खितो, निक्खितो, नयरबाहिं दुवावेढमझे ।" पत्र 189
अन्य धातुओं, जैसे रौप्य, सुवर्ण, कांस्य आदि के पत्रों पर लिखी गयी पुस्तकों का उल्लेख नहीं मिलता। हाँ, विविध यन्त्र-मन्त्र, विविध उद्देश्यों की पूर्ति निमित्त ऐसे धातुपत्रों पर अवश्य लिखे जाते थे । पंच धातु के मिश्रण से बने पत्रों पर भी ये लिखे जाते थे, इसी प्रकार 'अष्टधातु के मिश्रण से बने पत्रों पर भी यन्त्र-मन्त्र लिखे जाते थे, पर इन्हें 'पुस्तक' या ग्रन्थ नहीं माना जा सकता।
मृण्मय ईट और मिट्टी (Clay) के पात्रों पर लेख
इंटों और मिट्टी के बरतनों पर भी लेख लिखवाये जाते थे। इसके प्रमाण ईसा से पूर्व के मिलते हैं । मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खननों में भी ऐसी ईंटें और मृण्मय-पात्र पाये गए हैं जिन पर लेख खुदे हुए हैं। मिट्टी के ढेलों (या धोंधों) पर मुहरें लगी हुई हैं। मिट्टी पर मुहर अंकित करने का रिवाज तो अभी 20-25 वर्ष पहले तक (सन् 1950 तक) राजस्थान के गाँवों में चालू था । जिन गाँवों में राजस्व, उत्पन्न हुए अन्न का बाँटा या हिस्सा लेकर वसूल किया जाता था वहाँ पर किसान के खेत में पैदा हुए अनाज की राशि के किनारों पर और बीच में भी मिट्टी को गोली करके उसके ढेले या धोंधे बनाकर रख दिए जाते थे और उन पर लकड़ी में खुदी हुई मुद्रा का ठप्पा लगा दिया जाता था। इसे 'चाँक' कहते थे । लकड़ी के ठप्पे में प्रायः 'श्रीरामजी', ये चार अक्षर चार खानों में
___ उलटे खुदे होते थे जो मिट्टी के धोंधे की परत पर सुलटे रूप में उभर कर HTRA आते थे । इस चाँक को लगाने वालों के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं तोड़ता तास था। इसे 'कच्ची चाँक' कहते थे । यह प्रायः अाज लगाकर कल तोड़ लो
जाती थी क्योंकि अनाज घड़ों में भर-भर कर बाँटा जाता था और पूरे गाँव
1.
अन्य सूचना :
कि चित्वं यन्महीपालो भुनक्तिस्माखिलां महीम् ।। यस्य गीर्वाणमन्त्रीव मंत्री गौरोऽभवत् सुधीः ।।।10।।
प्रशस्ति रियमत्कीर्णा पवर्गापदमशिल्पिना देवस्वामिसुतेन श्रीपयनाथ सृरालये ॥11॥
तथैव सिंहवाजेन माइलेन चशिल्पिना।
प्राप्नुवन्तु समुत्कीर्णान्यक्षराणियपार्थताम् ।।12।। भारतीय जन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ.27 । वही, पृ. 271
3.
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142/पाण्डुलिपि-विज्ञान
का बाँटा एकत्रित होने पर तौल लिया जाता था। यदि एक-दो दिन बाद में तौलने का कार्यक्रम होता तो पक्की चाँक लगाई जाती थी। पक्की चाँक लगाने के लिए गीली मिट्टी में गोबर मिला दिया जाता था और उस भीले मिश्रण को अन्न की राशि के घेरे पर छिड़क कर उस पर वाँक का ठप्पा लगाया जाता था।
__ सम्भवतः मिट्टी पर लेख अंकित करने का यह प्रारम्भिक तरीका था। बाद में कच्ची ईटों पर लेख कोर कर उन्हें पकाया जाने लगा । लम्बा लेख कई ईंटों पर अंकित करके पकाया जाता और फिर उनको क्रमात् दीवार पर लगा दिया जाता था । यह प्रथा बौद्धकाल में बहुत प्रचलित रही है। उनके धार्मिक सूत्र आदि इंटों पर खुदे हुए मिले हैं । मथुरा के संग्रहालय में ऐसे नमूने देखे जा सकते हैं।
कुछ राजाओं ने अश्वमेघ यज्ञ किए । इनके विवरण इंटों पर अंकित कराये गए। देवी मित्र, दामभित्र एवं शील बर्मन के अश्वमेघ यज्ञों के उल्लेख के ईंटों के अभिलेख मिले हैं । ये अभिलेख ईंटों पर अंकित कराने के बाद अश्वमेघ के चत्वरों में लगा दिए जाते थे । मृण्मय मुथाएँ (Seal) बहुत मिली हैं। नालंदा में मृण्मय घट (धड़े) विशेषतः मिले हैं । इन पर ने व अंकित हैं । इनका सम्बन्ध भी किसी धार्मिक कृत्य से रहा है ।
लिपि विकास का अध्ययन करते हुए यह विदित होता है कि मेसोपोटामिया में उरुक या वर्का में 'उरुक युग' में ईंटों पर पुस्तकें लिखी मिली हैं। एक हजार ईंटे, क्यूनीफार्म या सूच्याकार लिपि में लिखी मिली हैं। पेपारस ... ईसा से कोई पाँच शताब्दी पूर्व ग्रीक (यूनानी) लोगों ने मिस्र से पेपायरस' नामक
1. ( भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ० 151 । 2. बौद्ध धर्म के ईटों पर लिखे गए ग्रन्थों के विवरण के लिए देखें-निंघम, ASR, Vol. I,
p.47, Vol. II, पृ० 124 आदि । 3. डिरिजर रहोदय के ये शब्द इस सम्बन्ध में ध्यातव्य हैं
"The earliest extant written cuniform documents, consisting of over one thousand tablets and fragments, discovered mainly at Uruk or Warka, the Biblical Ereeh, and belonging to the 'Uruk period of the Mesopotamian predynastic period, are couched in a crude pictographic script and probably sumerian language".
-(Diringer, D. -The Alphabet, p. 41.) 'पेपायरस' एक बर या सरकण्डे की जाति का पौधा होता है जो दलदली प्रदेश में बहुतायत से पंदा होता है । मिस्र में नील नदी के किनारे व मुहाने पर इसकी खेती बहुत प्राचीन काल से होती थी। यह पौधा प्राय: 5-6 फीट ऊंचा होता है और इसके डण्ठल साढ़े चार से नौ-साढ़े नौ इञ्च लम्बे होते हैं। इसकी छाल से पतली चित्तियां निकाल कर लेई आदि से चिपका लेते थे उसी से लिखने के लिए पत्न बनाते थे। पहले इन पत्रों को दबाकर रखा जाता था फिर अच्छी तरह सुखाया जाता था। सूख जाने पर हाथी-दाँत या शंख से घोंटकर उन्हें चिकना बनाया जाता था. फिर विविध आकारों में काट कर लिखने के काम में लिया जाता था। इस तरह तैयार किये हुए लेखाधार लिप्यासन को योरोप वाले 'पायरस' कहते थे और इसी से पेपर शब्द बना है। पेपायरस के लम्बे-लम्बे लिखे हए खरड़े मिस की कब्रों में बड़े-बड़े सन्दूकों में रखी लाशों के हाथों में या उनके शरीरों से लिपटे हुए मिलते हैं। जो लगभग ईसा से 2000 वर्ष तक पुराने हैं । इनके नष्ट न होने का कारण मिस की गरम और सूखी जलबायु है ।
-भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 16
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/143
सरकंडे की छाल अपने यहाँ मँगाना शुरू किया था और उसी को लिखने के आसन के काम में लेते थे। फिर धीरे-धीरे योरोप में इसका व्यवसाय फैलने लगा और अरबों के शासनकाल में तो इटली आदि देशों में पेपायरस की खेती भी होने लगी और उनसे छाल निकाल कर लिखने की सामग्री बनायी जाने लगी। 704 ई० में अरबों ने समरकंद को जीत लिया और वहाँ पर ही सर्वप्रथम उन्होंने रुई और चिथड़ों से कागज तैयार करने की कला सीखी । इसके बाद दमिश्क (Damuscus) में भी कागज बनने लगा। ईसा की नवीं शताब्दी में सबसे पहले कागज पर अरवी में ग्रन्थ लिखे गए और अरबों द्वारा बारहवीं शताब्दी के अासपास योरोप में कागज का प्रवेश हुआ और पेपायरस का प्रचलन बन्द हो गया। चमड पर लेख
देवी पुराण में पुस्तक दान का उल्लेख है। उसमें ताड़पत्र पर पुस्तक लिखवाकर उमे चर्म से सम्पुटित करने का विधान है--
श्री ताड़पत्र के सञ्चे समे पत्रसुसञ्चिते ।
विचित्र काञ्चिकापावें चर्मणा सम्पुटीकृते ।। इससे ज्ञात होता है कि भारत में पुस्तक-लेखन के क्रम में चर्म का भी उपयोग होता था परन्तु बहुत कम क्योंकि यहाँ ताड़पत्र और भूर्जपत्र पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते थे । वैसे ब्राह्मणों और जैनों में चर्म का स्पर्श वजित भी माना गया है । बौद्ध ग्रन्थों में अवश्य ही चमड़े को भी लेखन-सामग्री में गिनाया गया है। जिस प्रकार कवि सम्राट कालीदास ने हिमालय के वर्णन में (क्र सं.) किन्नर सुन्दरियों द्वारा भूर्जत्वच पर धातुरस (गेरु) से लिखे गए प्रेमपत्रों की उपमा बिन्दु-मण्डित हाथी की सूड से दी है उसी प्रकार सुबन्धुकृत 'वासवदत्ता' नाम की आख्यायिका में भी रात्रि में काले आकाश में छिटके हुए चाँद-तारों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि प्राकाश अँधेरे रूपी काले रंग (मषी) से रंगे हुए चर्मपत्र के समान है जिम पर विधाता विश्व का हिसाब लगा रहा है और संसार की शून्यता के कारण चाँदरूपी व डिया के टुकड़े से उस पर तारारूपी शून्य बिन्दुएँ अंकित कर रहा है ।
"विश्वं गणयतो विधातुः शशिकाठिनीखण्डेन तमोमषीश्योमेऽजिन इव वियति संसारस्यातिशून्यत्वाच्छून्य बिन्दव इव ।"
डॉक्टर वल्हर को भी जैसलमेर के वृहद् ज्ञान-भण्डार में हस्तलिखित ग्रन्थों के साथ कुछ चर्मपत्र मिले थे जो पुस्तकें लिखने अथवा उनको आवेष्टित करने के लिए ही एकत्रित । किये गए थे।
परन्तु यह सब होते हुए भी भारत में लेखन के लिए चर्मपत्र का प्रयोग स्वल्प मात्रा में ही होता था । यूनान, अरब, योरोप और मध्य एशिया आदि स्थानों में लिखने के लिए चर्मपत्र का प्रयोग बहुधा पाया जाता है । सोक्रेटीज (सुकरात) से जब पूछा गया-"आप
1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 147 । 2. दूल्हर्स इन्सक्रिप्शन रिपोर्ट, पृ० 95।। 3. पार्चमेण्ट चमड़े में ही बना होता है।
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144 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
पुस्तकें क्यों नहीं लिखते ?" तो उस प्रसिद्ध दार्शनिक ने उत्तर दिया- "मैं ज्ञान को मनुष्य सजीव हृदय से भेड़ों की निर्जीव खाल पर नहीं ले जाना चाहता हूँ ।" इससे विदित होता है कि वहाँ भेड़ों का चमड़ा लिखने के काम में लाया जाता था ।
आरम्भिक इस्लामी काल में चमड़े पर लिखने की प्रथा थी । कुरान की प्रतियाँ शुरू में अरबी में मृगचर्म पर ही लिखी जाती थीं । ग्यारहवीं शताब्दी तक इसका खूब च रहा । पैगम्बर और ख़ैबर के यहूदियों का सन्धिपत्र और किसरा के नाम पैगम्बर का पत्र भी चमड़े पर ही लिखे गए थे ।
मिस्र में किर्ता (छत) में बाँस के डण्ठलों से कागज बनाया जाता था और इसी पर लिख कर खलीफा की आज्ञाएँ संसार-भर में भेजी जाती थीं । कुरान में भी करातीस कागज बनाने का उल्लेख मिलता है (सूर : 6, 96 ) । मिस्र में बने इस बांस के कागज में बछड़े की चमड़ी की झिल्ली लगाई जाती थी, इस विधि से बने कागज पर लिखे हुए अक्षर सहज में मिटाये नहीं जा सकते थे ।
ईरान में भी चमड़े पर ग्रन्थ लिखे जाते थे । इस चमड़े को अंग्रेजी में 'पार्चमेण्ट' कहते थे । पलवी भाषा में खाल का वाचक 'पुस्त' शब्द है । ईरानियों के सम्पर्क से ही यह शब्द धीरे-धीरे भारत में या गया और यहाँ की भाषा में व्याप्त हो गया । परन्तु ईसा की पाँचवीं शताब्दी से पहले इसका प्रयोग इसका भारतीय भाषा में नहीं पाया जाता । पाणिनि, पतञ्जलि, कालीदास और अश्वघोष की कृतियों में 'पुस्तक' शब्द नहीं पाया जाता । वैदिक साहित्य में भी 'पुस्तक' का कहीं पता ही नहीं चलता । अमरकोष में भी यह शब्द नहीं श्रता । हाँ, बाद के कोषों में 'पुस्त' शब्द लेप्यादि शिल्प कर्म का वाचक बताया गया है । 'पुस्तं शोभाकरं कर्म' - हलायुध कोष ।
मृच्छकटिक में पुस्तक शब्द का प्राकृत रूप 'पोत्थम या पोथा' मिलता है । इसी से पोथी शब्द भी बना है । बागभट्ट ने हर्षचरित और कादम्बरी, दोनों ही रचनात्रों में पुस्तक शब्द का प्रयोग किया गया है । कादम्बरी में चण्डिका देवी के मन्दिर के तमिल देशवासी पुजारी के वर्णन में लिखा है - "घूमरक्तालक्तकाक्षरतालपत्रकुहकतन्त्रमन्त्रपुस्तिका संग्राहिणा" श्रर्थात् उस पुजारी के पास कज्जल और लाल अलक्तक में बनी स्याही से तालपत्र पर लिखी तन्त्रमन्त्र की पुस्तकों का संग्रह था । इससे विदित होता है कि उस समय तक तालपत्रों पर रंगबिरंगी स्याहियों से लिखने की प्रथा भी चल चुकी थी। इसी पुजारी के वर्णन में कपड़े पर लिखित दुर्गा स्त्रोत का भी उल्लेख है। हरे पत्तों के रस और कोयले से बनी स्याही को सीपी में रखने का भी रिवाज उस समय था (हरित - पत्र - रसांगारमषीम लिनशम्बूक वाहिना) । ताड़पत्रीय ग्रन्थ
भारत में प्राचीन काल की अधिकतर हस्तलिपियाँ ताड़पत्रों पर ही मिलती हैं । ताड़ या ताल वृक्ष दो प्रकार के होते हैं, एक खरताड़ और दूसरा श्रीताड़ । गुजरात, सिंध और राजस्थान में कहीं कहीं खरताड़ के वृक्ष हैं। इनके पत्ते मोटे और कम लम्बेचौड़े होते हैं । ये सूखकर तड़कने भी लग जाते हैं और कच्चे तोड़ लेने पर जल्दी ही सड़ या गल जाते हैं । इसलिए उनका उपयोग पोथी लिखने में नहीं किया जाता । श्रीताड़ के पेड़ दक्षिण में मद्रास और पूर्व में ब्रह्मा आदि देशों में उगते हैं । इन पेड़ों के पत्ते अधिक लम्बे, लचीले और कोमल हैं। ये पत्ते 37 इंच तक लम्बे होते हैं । कभी-कभी इससे भी अधिक परन्तु इनकी चौड़ाई 3 इंच या इसके लगभग ही होती है ।
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/ 145
ताड़पत्रों को उबालकर उन्हें शख या कौड़ी से रगड़ा या घोंटा जाता था जिससे वे चिकने हो जाते थे। फिर लोहे की कलम से उन पर कुरेदते हुए अक्षर लिखे जाते थे । तदन्तर उन पर स्याही लेप दी जाती थी जो कुरेदे हुए अक्षरों में भर जाती थी। यह तरीका दक्षिणी भारत में अधिक प्रचलित था । उत्तर भारत में प्रायः ताड़पत्रों पर स्याही से लेखनी द्वारा लिखा जाता था । संस्कृत में 'लिख्' धातु का अर्थ कुरेदना होता है । स्पष्ट है कि ताड़पत्रों पर पहले कुरेदकर लिखा जाता था । अतः लिखने का अर्थ हुआ-कुरेदना । अतः इस क्रिया का नाम लेखन या लिखना हुआ है । 'लिप्' धातु का अर्थ है-लीपना । ताड़पत्र पर अक्षर कुरेद कर उन पर 'स्याही लेपन' के कारण लिपि शब्द का प्रयोग भी चालू हुआ ।
जैसा कि ऊपर लिखा गया है, ताड़पत्रों की चौड़ाई प्रायः 3 इञ्च की होती है। ऐसा लगता है कि बाद में, जैसे बाँस से कागज बनाए जाते थे, वैसे ही तालपत्रों को भी भिगोकर या गलाकर उनकी लुगदी बना कर और बाद में कूट-पीटकर अधिक चौड़ाई के पत्रों का निर्माण किया जाने लगा । ऐसा पूर्वीय देशों में होता था। महाराजा जयपुर म्यूजियम में महाभारत के कुछ पर्व ऐसे ही पत्रों पर बंग लिपि में लिखे हुए हैं जिनका लिपि संवत् लक्ष्मण सेन वर्ष में है । इसी प्रकार मोटाई अधिक करने के लिए तीन या चार पत्रों को एक साथ सीकर उन पर लिखा जाता था । ऐसा करने से पुस्तक में अधिक स्थिरता आ जाती थी। ऐसे ग्रन्थ बर्मा या ब्रह्मा देश में अधिक पाए जाते हैं।
ताड़पत्रों के लिए गर्म जलवायु हानिकारक है, इसीलिए अधिक मात्रा में लिखे जाने पर भी ताड़पत्रीय ग्रन्थ दक्षिण भारत में कम मिलते हैं । काश्मीर, नेपाल, गुजरात व राजस्थान आदि ठण्डे और सूखे प्रदेशों में अधिक संख्या में मिलते हैं। नेपाल की जलवायु को इन ग्रन्थों के लिए आदर्श बताया गया है।
कई बार ऐसा देखा गया है कि यदि किसी ताड़पत्रीय प्रति के बीच में से कोई पत्र जीर्ण हो गया या त्रुटित हो गया है तो उसी आकार-प्रकार के कागज पर उस पत्र पर लिखित अंश की प्रतिलिपि करके बीच में रख दी गई है । परन्तु कालान्तर में आस-पास के ताड़पत्र तो बचे रह गये और वह कागज जीर्णशीर्ण हो गया। कभी-कभी सुरक्षा की दृष्टि से ताड़पत्रों के बीच-बीच में हल्के पतले कपड़े की परतें रखी गईं-परन्तु उसको भी पाड़पत्र खा गया, यही नहीं ताड़पत्रीय प्रति पर बाँधा हुआ कपड़ा भी विवर्ण और जीर्ण हो जाता है। इससे जात होता है कि कपड़े, कागज और ताड़पत्र का मेल नहीं बैठता । ताड़पत्र कागज और कपड़े पर विनाशकारी प्रभाव ही पड़ता है। इसीलिए प्रायः ताडपत्रीय प्रतियाँ वाली में न बाँध कर मुक्त रूप में ही रखी जाती हैं।
ताडपत्र पर लिखित जो प्राचीनतम प्रतियाँ मिली हैं वे पाशुपत मत के आचार्य रामेश्वरध्वज कृत 'कुसुमाञ्जलिटीका' और 'प्रबोधसिद्धि' है, इनका लिपिकाल ईसा की प्रथम अथवा द्वितीय शताब्दी बताया जाता है। इसी प्रकार डॉ० लूडर्स ने अपने (Kieinene Sanskrit Texie Panti) में एक नाटक के बुटित अंश को छपवाया है जिसको ताड़पत्र पर दूसरी शताब्दी में लिखी प्रति का उल्लेख है । यह ताड़पत्र पर स्याही से लिखी प्रति है । जर्नल श्रॉफ दी एशियाटिक सोसाइटी, बंगाल की संख्या 66 के पृ. 218
1.
अक्षर अमर रहें, पृ. 41
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146 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
पर प्लेट 7, संख्या 1 में a से i तक एक संस्कृत ग्रन्थ के टुकड़े छपे हैं जो श्री मकार्ट ने काशगर से भेजे थे । ये ईसा की चौथी शताब्दी में लिखे हुए माने गये हैं । जापान के होरियूजि मठ में दो बौद्ध ग्रन्थ रखे हुए हैं जो मध्य भारत से ले जाये गये हैं । यह 'प्रजापारमिताहृदयसूत्र' और 'उष्णपविजयधारिणी' की पुस्तकें हैं, ये ईसा की छठी शताब्दी में लिखी गयी हैं । नेपाल के ताड़पत्रीय ग्रन्थ संग्रह में 'स्कन्दपुराण' (7वीं शताब्दी में लिखित) और लंकावतार' (906-7 ई० में लिखित) की प्रतियाँ सुरक्षित हैं । कैम्ब्रिज के ग्रन्थ-संग्रह में प्राप्त 'परमेश्वर तन्त्र' भी ताड़पत्र पर ही लिखित है और यह प्रति हर्ष संवत् 252 (859 ई०) की है। राजस्थान में जैसलमेर के ग्रन्थ-भण्डार अपने प्राचीन ग्रन्थसंग्रह के लिए सर्वविदित हैं। इनमें से जिनराजसूरीश्वर के शिष्य जिनभद्रसूरि द्वारा संस्थापित बृहद्भण्डार का 1874 ई० में डॉ० बहूलर ने अवलोकन करके 1160 वि० की लिखी हुई ताड़पत्रीय प्रति को उस संग्रह की प्राचीनतम प्रति बतलाया है। इसके पश्चात् 1904-5 ई० में हीरालाल हंसराज नामक जैन पण्डित ने दो हजार दो सौ ग्रन्थों का सूचीपत्र तैयार किया । उसी वर्ष अंग्रेज सरकार की ओर से प्रोफेसर श्रीधर भाण्डारकर भी जैसलमेर गये । उन्होंने अपनी विवरणी में जन पण्डित की सूची के ही आधार पर संवत् 924 की लिखी तालपत्र प्रति को प्राचीनतम बताया। परन्तु बाद में सी. डी. दलाल द्वारा अनुसंधान करने पर संवत् 1130 में लिखित 'तिलकमञ्जरी' और 1139 में लिपिकृत 'कुवलयमाला' की ही प्रतियाँ प्राचीनतम प्रमाणित हुई । इस संग्रह में अर्वाचीनतम ताड़पत्रीय प्रति 'सर्वसिद्धान्त विषमपदपर्याप्त' नामक प्रति संवत् 1439 वर्ष में लिखित है । परन्तु जैसलमेर के ही दूसरे तपागच्छ ग्रन्थ भण्डार में 'पञ्चमीकहा ' ग्रन्थ की प्रति 1109 वि. की लिखी हुई है जो वृहद् भण्डार की प्रति से भी प्राचीन है । इसी प्रकार हरिभद्रसूरि कृत 'पंचाशकों' की संवत् 1115 में लिखित प्रति भी इस भण्डार में विद्यमान है। जैसलमेर में डूंगरजी-यति-संग्रह और थाहरूशाह भाण्डागार नामक दो संग्रह और हैं किन्तु इनमें उक्त भण्डारों की अपेक्षा अर्वाचीन ग्रन्थ हैं । 1
गुजरात के खम्भात के शांतिनाथ ज्ञान भण्डार में भी संवत् 1164 में लिखित 'जीवसमासवृत्ति' और 1181 संवत् में लिखित मुनिचन्द्रमूरि रचित 'धर्माबिन्दुटीका' की प्राचीनतम ताड़पत्रीय प्रतियाँ उपलब्ध हैं ।
भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना में 'उपमिति भवप्रपञ्च कथा' नामक जैन ग्रन्थ की 178 पत्रों की ताड़पत्रीय प्रति उपलब्ध है जो विक्रम संवत् 962 (905-6 ई०) में लिखी गई है । इस ग्रन्थ की भाषा संस्कृत है ।
भूर्जपत्रीय ( भोजपत्र पर लिखे ग्रन्थ)
भूर्जपत्र से तात्पर्य है भूर्ज नामक वृक्ष की छाल । यह वृक्ष हिमालय प्रदेश में . बहुतायात से होता है । इसकी भीतरी छाल कागज की तरह होती है, उसी को निकालकर बहुत प्राचीन समय से लिखने के काम में लिया जाता था । भले ही लेखन का प्रथम अभ्यास पत्थरों पर हुआ हो पर अवश्य ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि लिखने की प्रथा
1. जैसलमेर - माण्डागारीय ग्रन्थानां सूचीपत्त्रस्य प्रस्तावना - लालचन्द्र भगवानदास गाँधी, 1923 ई० । 2. श्री खंभात, शान्तिनाथ : प्राचीन ताड़पत्रीय, जैन ज्ञान भण्डार नुं सूचीपत्र सूचीकर्ता - श्री विजयकुमुद सूरि ।
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/147
का वह प्रचलन पहले पत्र या पत्तों पर ही लिखने से हुआ होगा, क्योंकि पत्ते से ही लिखित 'पत्र' शब्द की उत्पत्ति हुई और बाद में जिस किसी अाधार पर लिखा गया वह भी पत्र ही कहलाया । लिखी हुई भूर्ज की छाल, छाल होते हुए भी पत्र ही कहलाती है और फिर इसका नाम ही भूर्जपत्र पड़ गया । इसमें भी सन्देह नहीं कि भूर्जपत्र पर लिखने की प्रथा बहुत पुरानी है । यह छाल कभी-कभी 60 फुट तक लम्बी निकल आती है । इसको लेखक
आवश्यकतानुसार टुकड़ों में काटकर विविध आकार-प्रकार का कर लेते थे और फिर उस पर तरह-तरह की स्याही से लिखते थे । चिकना तो यह अपने आप ही होता है । मूल रूप में यह छाल एक ओर से अधिक चौड़ी और फिर क्रमशः सँकड़ी होती जाती है और हाथी की सूड की तरह होती है । कवि कालिदास ने अपने 'कुमार सम्भव' काव्य के प्रथम सर्ग (श्लोक 7) में हिमालय का वर्णन करते हुए लिखा है :
न्यस्ताक्षरा धातुरसेन यत्र
भूर्जत्वचः कुञ्जरबिन्दुशोणाः । वजन्ति विद्याधरसुन्दरीणा
___ मनगंलेख क्रिययोपयोगम् ।। (1.7) इस श्लोक में 'भूर्जत्वक', 'धातुरस' और 'कुञ्जर विन्दुशोणाः' शब्द ध्यान देने योग्य हैं । हिमालय में उगने वाले वृक्ष की प्रधानता, उसकी त्वक् अर्थात् छाल का लेखक्रियोपयोग, धातुरस से शोण अर्थात् लाल स्याही का प्रयोग और उस मूल रूप में भूर्ज की छाल का लिखे जाने के बाद अक्षरों से युक्त होकर बिन्दुयुक्त हाथी की सूड के समान दिखाई देनाइसके मुख्य सूचक भाव हैं ।।
कालीदास का समय यद्यपि पण्डितों में विवादास्पद है परन्तु ईसा की दूसरी शताब्दी मे इधर वह नहीं पाता, अतः यह तो मान ही लेना चाहिए कि लिखने की क्रिया का उस समय तक बहुत विकास हो चुका था और "भूर्जत्वक्', जो पत्र लेखन के काम पाने के कारण भूर्जपत्र कहलाने लगा था, कापी प्रचलित हो चुका था । अलबेरुनी ने भी अपनी भारत यात्रा विवरण में 'तूज की छाल' पर लिखने की सूचना दी है।
भूर्जपत्र पर लिखी हुई पुस्तकें या ग्रन्थ अधिकतर उत्तरी भारत में ही पाये गए हैं विशेषतः कश्मीर में । भारत के विभिन्न ग्रन्थ संग्रहालयों में तथा योरप के पुस्तकालयों में जो प्राचीन भूर्जपत्र पर लिखित ग्रन्थ सुरक्षित हैं वे प्रायः काश्मीर से ही प्राप्त किये गए हैं । खोतान में 'धम्मपद' (प्राकृत) का कुछ अंश भूर्जपत्र पर लिखा हुआ मिला है, यही भूर्जपत्र का प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है । इसका लिपिकाल ईसा की दूसरी शती प्राँका गया है। दूसरा ग्रन्थ 'संयुक्तागमसूत्र' बौद्ध-ग्रन्थ भी डॉ० स्टाइन को खोतान में खड लिक स्थान में मिला । यह ग्रन्थ ईसा की चौथी शताब्दी का लिखा हुआ है। मिस्टर बावर को मिली पुस्तकों का उल्लेख बावर पांडुलिपियाँ (Bower Manuscripts) नामक पुस्तक में है। वे पुस्तकें भी ईसा की छठी शताब्दी के लगभग की हैं और बख्शाली का अंकगणित 8वीं शताब्दी का है । ये पुस्तकें स्तूपों और पत्थरों के बीच में रखी होने से इतने दिन
शाकुन्तल नाटक में भी शकुन्तला दुष्यन्त को प्रेमपत्र लिखते समय कहती है-"लिखने के साधन नहीं हैं तो सखियाँ सुझाव देती हैं कमलिनी के पत्ते पर नखों से गहाकर शब्द बना दो।" यह लेख्न
का नियमित साधन नहीं अपितु. तात्कालिक साधन है। 2. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 144।
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148 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
टिक सकी हैं अन्यथा खुले में रहने वाली पुस्तक तो 15वीं या 16वीं शताब्दी से पहले भी मिलती ही नहीं हैं । ताड़पत्र पर तो अब भी कोई-कोई ग्रन्थ लिखा जाता है परन्तु भोजपत्र तो अब केवल यन्त्र-मन्त्र या ताबीज़ प्रादि लिखने की सामग्री होकर रह गया है । इस पर लिखे हुए जो कई ग्रन्थ मिलते भी हैं वे भी प्रायः धार्मिक स्तोत्रादि ही हैं। राजस्थान- प्राच्यविद्या-प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रह में 'दुर्गासप्तशती' की एक प्रति सुरक्षित है। वह 16वीं शताब्दी की ( राजा मानसिंह, आमेर के समय की ) है । इसी प्रकार महाराजा जयपुर के संग्रहालय में भी एक-दो पुस्तकें हैं जो 16वीं शती से पुरानी नहीं हैं । ताड़पत्र और कागज की पेक्षा भूर्जपत्र कम टिकाऊ होता है ।
सन् 1964 ई० में विश्व - प्राच्य सम्मेलन के अवसर पर 'राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली' द्वारा आयोजित प्रदर्शनी में तक्षशिला से प्राप्त भूर्जपत्र पर ब्राह्मी लिपि में लिखे कुछ पांडुलिपीय पत्र प्रदर्शित किये गए थे, जो 5वीं - 6ठी शताब्दी के थे । इसी प्रदर्शनी में 'राष्ट्रीय अभिलेखागार' (National Archives of India) से प्राप्त "भैषज्यगुरुवैदूर्यप्रभासूत्र' नामक बौद्ध-धर्म-ग्रन्थ की प्रति भी भूर्जपत्र पर गुप्तकालीन लिपि में लिखित देखी गई जो 5वीं - 6ठी शताब्दी की है ।
सांचीपातीय
भूर्जपत्र की तरह आसाम में अगरुवृक्ष की छाल भी ग्रन्थ लिखने और चित्र बनाने के काम में आती थी । महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों, विशेषतः राजाओं और सरदारों के लिए लिखे जाने वाले ग्रन्थों के लिए इसका उपयोग मुख्यतः किया जाता था । इस छाल को तैयार करने का प्रकार श्रम-साध्य र जटिल-सा होता है । पहले, कोई 15-16 वर्ष पुराने श्रगरुवृक्ष को चुन लेते हैं । इसके तने की परिधि 30 से 35 इंच तक होती है। जमीन से कोई 4 फीट की ऊँचाई पर से छाल की पट्टियाँ उतार लेते हैं जो कभी-कभी 6 से 18 फीट लम्बी और 3 से 27 इंच तक चौड़ी होती हैं । इन पट्टियों का भीतरी अर्थात् सफेद भाग ऊपर रख कर तथा बाहरी अर्थात् हरे भाग को अन्दर की तरफ रखकर गुलिया लेते हैं । फिर इनको सात-आठ दिन तक धूप में सुखाते हैं। इसके पश्चात् इनको किसी लकड़ी के पट्ट अथवा अन्य दृढ़ आधार पर फैलाकर हाथ से रगड़ते हैं जिससे इनका खुरदरापन दूर हो जाता है । तदुपरान्त इनको रात भर प्रोस में रखते हैं और प्रातः छाल की ऊपरी सतह (निकारी) को बहुत सावधानी से उतार लेते हैं । इस शुद्ध छाल के 9 से 27 इंच लम्बे और 3 से 18 इंच चौड़े टुकड़े सुविधानुसार काट लिए जाते हैं । कोई एक घण्टे तक ठण्डे पानी में रखकर इन पर क्षार (Alkali) छिड़कते हैं, फिर चाकू से इनकी सतह को खुरचते हैं । इसके बाद इस नरम सतह पर पकी हुई ईट घिसते हैं जिससे रहा-सहा खुरदरापन भी दूर
जाता है । अब इन टुकड़ों पर माटीमह (मांटीमाता) से तैयार किया हुआ लेप लगाते हैं और फिर हरताल (पीले रंग से रंग लेते हैं। धूप में सुखाने के बाद ये अगर की छाल के पत्र संगमरमर की तरह चिकने हो जाते हैं और लेखन तथा चित्ररण के योग्य बन जाते हैं ।
इन पत्रों की लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई विभिन्न प्रकार की होती हैं । दो फीट लम्बे और लगभग 6 इंच चौड़े टुकड़े पवित्र धार्मिक ग्रन्थों की प्रतियाँ तैयार करने के लिए सुरक्षित रखे जाते थे । ऐसी प्रतियाँ प्रायः राजाओं और सरदारों के लिए निर्मित होती थीं । लिखित पत्रों पर संख्यासूचक अंक दूसरी ओर 'श्री' अक्षर लिखकर अंकित किया
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पाण्डुलिपियों के प्रकार / 149
जाता था । प्रत्येक पत्र के मध्य में बाँधने की डोरी पिराने के लिए एक छिद्र बनाया जाता था । लिखित पत्रों से अपेक्षाकृत मोटे पत्र सुरक्षा के लिए प्रति के ऊपर-नीचे लगाए जाते थे । कभी-कभी लकड़ी के पटरे भी इस कार्य के लिए प्रयुक्त किए जाते थे । इन मोटे पत्रों पर ग्रन्थ के स्वामी और उसके उत्तराधिकारियों के नाम लिखे जाते थे अथवा उनके जीवन में अथवा परिवार में हुई महत्त्वपूर्ण घटनाओं का भी लेख कभी-कभी अंकित किया जाता था । इन अतिरिक्त पत्रों को 'बेटी पत्र' कहते हैं (आसाम में 'बेटी' शब्द दासीपुत्री के रूप में प्रयुक्त होता है) । बाँधने का छिद्र प्रायः दाएँ हाथ की ओर मध्य में बनाया जाता था और इसमें बहुत बढ़िया मुगा अथवा एण्डी का धागा पिरोया जाता था जिसको 'नाड़ी' कहते थे । 18वीं शताब्दी में लिखे गए शाही ग्रन्थों में ऐसे छिद्रों के चारों ओर बेलबूटे और फारसी ढंग की सजावट तथा कभी-कभी सोने का काम भी दिखाई देता है ।
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लिखिने तथा चित्रित करने से पूर्व इन पत्रों को चिकना और मुलायम बनाने के लिए प्राय: 'माटीमाह' का ही लेप किया जाता है परन्तु कभी-कभी बतख के अण्डे भी काम में लाये जाते हैं । हरताल का प्रयोग पत्रों को पीला रंगने के लिए तो करते ही हैं, साथ ही यह कृमि नाशक भी है। जब प्रति तैयार हो जाती है तो वह गन्धक के धुएँ में रखी जाती है, इससे यह विनाशक कृमियों से मुक्त हो जाती है । आहोम के दरबार में हस्तप्रतियों, दस्तावेजों, मानचित्रों और निर्माण सम्बन्धी प्रालेखों की सुरक्षा के लिए एक विशेष अधिकारी रहता था जो 'गन्धइया बरुप्रा' कहलाता था ।
इस प्रकार तैयार किये हुये पत्रों को आसाम में 'साँचीपात' कहते हैं । कोमलता और चिक्कणता के कारण ये पत्र दीर्घायुषी होते हैं और कितने ही स्थानों पर बहुत सुन्दर रूप में इनके नमूने अब तक सुरक्षित पाये जाते हैं । परन्तु ये सब 15 वीं - 16वीं शताब्दी से पुराने नहीं है, हाँ अगर पत्रों का सन्दर्भ बाणकृत 'हर्षचरित' के सप्तम उच्छ्वास में मिलता है । बाण महाकवि हर्षवर्द्धन का समकालीन था और इसलिए उसका समय 7वीं शताब्दी का था । कामरूप का राजा भास्कर वर्मा भी हर्ष का समकालीन, मित्र और सहायक था । उसने सम्राट के दरबार में भेंटस्वरूप कुछ पुस्तकें भेजी थीं जो अगरु की छाल पर लिखे हुए सुभाषित ग्रन्थ थे ।
"अगरुवल्कल-कल्पित-सञ्चयानि च सुभाषितभाञ्जि पुस्तकानि परिणतपाटल
पटोलत्विषि ...1
बौद्धों के तान्त्रिक ग्रन्थ 'प्रार्य मञ्जुश्री कल्प" में भी प्रगरुवल्कल पर यन्त्र-मन्त्र लिखने का उल्लेख मिलता है और इस प्रकार इसके लेखाधार बनने का इतिहास और भी पीछे चला जाता है ।
1. हर्षचरित (सप्तम उच्छ्वास) ।
2. त्रिवेन्द्रम सीरीज, भाग 1, पृ. 131 |
2
महाराजा जयपुर के संग्रहालय में प्रदर्शित महाभारत के कुछ पर्व भी सांचीपात पर लिखे हुए हैं ।
कागजीय
यों तो लेख और लेखागार दोनों के लिए संस्कृत में 'पत्र' शब्द का ही प्रयोग अधिकतर पाया जाता है, परन्तु बाद के साहित्य में और प्रायः तन्त्र साहित्य में 'कागद'
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150/ पाण्डुलिपि - विज्ञान
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शब्द भी खूब प्रयुक्त किया गया है। भूर्जपत्र, रेशम, लाल कपड़ा और तालपत्र के समान 'कागद' भी यन्त्र-मन्त्र और पताकाएँ यादि लिखने के काम में प्राता था । ग्रन्थ तो इस पर लिखे ही जाते थे । इसे 'शरण पत्र' भी कहा गया है।
प्रायः कहा जाता है कि सर्वप्रथम ईस्वी सन् 105 में चीन के लोगों ने कागज बनाया | परन्तु, ईसा से 327 वर्ष पूर्व जब यूनान के बादशाह सिकन्दर ने भारत पर हमला किया तब उसके साथ निग्रार्कस नामक सेनापति प्राया था । उसने अपने व्यक्तिगत अनुभव से लिखा है कि उस समय भारत के लोग रूई से कागज बनाते थे । निर्कस सिकन्दर की इस चढ़ाई के समय कुछ समय तक पंजाब में रहा था और उसने यहाँ के हालचाल का अध्ययन करके भारत के लोगों का विस्तृत वर्णन लिखा था, इसका संक्षिप्त रूप एरिश्रम ने अपनी 'इंडिका' नामक पुस्तक में उद्धृत किया है। मैक्समूलर ने भी 'हिस्ट्री ऑफ एंशियेष्ट संस्कृत लिटरेचर' नामक पुस्तक में इसी आधार पर भारतीयों के रूई को कूटकर कागज बनाने की कला से अवगत होने का उल्लेख किया है । इससे ज्ञात होता है कि रूई व चिथड़ों आदि को भिगो कर लुगदी बनाने तथा उसको कूटकर कागज बनाने की विधि से भारतवासी ईसा से चार शताब्दी पूर्व भी अच्छी तरह परिचित थे । परन्तु किसी भी प्रकार ऐसा कागज ताड़पत्र और भूर्जपत्र की अपेक्षा अधिक टिकाऊ और सुलभ नहीं था इसलिए इस पर लिखे ग्रन्थ कम मिलते हैं और उतने पुराने भी नहीं हैं ।
1.
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फिर भी, यह अवश्य कहा जा सकता है कि एशिया और योरोप के अन्य देशों के मुकाबले में भारत ने कागज बनाने की कला पहले ही जान ली थी ।
2.
भारत में बहुत प्राचीनकाल से कागज बनता रहा है । यहाँ विविध स्थानों पर कागज बनाने के उद्योग स्थापित थे जिनके यत्किचित् परिवर्तित रूप अब भी पाये जाते हैं । कागज बनाना एक गृह उद्योग भी रहा है। काश्मीर, दिल्ली, पटना, शाहाबाद, कानपुर, अहमदाबाद, खंभात, कागजपुरा (अर्थात् दौलताबाद), घोसुण्डा और सांगानेर " श्रादि स्थान कागज बनाने के केन्द्र रहे हैं और इनमें से कई स्थान तो इसी उद्योग के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। दौलताबाद का एक बड़ा भाग तो कागजपुरा ही कहलाता था । अहमदाबाद, घोसुण्डा और सांगानेर में तो कई परिवार कागज का ही उद्योग करते थे और अब भी करते हैं । इन लोगों की बस्तियों में जाकर देखने पर कई मकानों की दीवारों पर रूई,
वाचस्पत्यम् पृ० 1855-56, Sanskrit English Dictionary - by M. M. Williams, P. 268. सुखानन्द कृत शब्दार्थ चिन्तामणि ।
सांगानेर कस्बा जयपुर से 8 मील दक्षिण में है । वहाँ का कागज उद्योग प्रसिद्ध है। सवाई जयसिंह के पुत्र सवाई ईश्वरीसिंह के समय में इस उद्योग को विशेष प्रोत्साहन मिला था। उनके समय में कागज की किस्म और माप कायम की गई और वह कागज 'ईश्वरसाही' कागज कहलाता था । कागज की चिकनाई के अनुसार उस पर राज्य की मोहर लगा दी जाती थी। तद्नुसार वह कागज 'दो मोहरिया' या 'डेढ़ मोहरिया' या 'मोहरिया' कहलाता था। इस व्यवसाय को करने वाले परिवार 'कागदी' या 'कागजी' नाम से प्रसिद्ध है । सांगानेरी कागज बहुत टिकाऊ होता है । भूतपूर्व जयपुर राज्य के बहीखाते, स्टाम्प पेपर और अन्य अभिलेख इसी कागज पर पाये जाते हैं । सामान्य रूप से सुरक्षित रखने योग्य सभी तहरीरें लिखने के लिए इसी का प्रयोग होता था। सत्रहवीं शताब्दी या इसके बाद में लिखे हुए बहुत-से ग्रन्थ भी सांगानेरी कागज पर लिखे पाये जाते हैं ।
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/151
रद्दी कागज और चिथड़ों को भिगोकर गलाने के बाद लुगदी बनाकर कूट कर बनाए हुए कागज चिपके हुए मिलेंगे, जो सूखने के लिए लगाये जाते हैं। सूखने पर इनको शंख या कौड़ी अथवा हाथीदाँत के गोल टुकड़ों से घोंटकर चिकना बनाया जाता है जिससे स्याही इधर-उधर नहीं फैलती।
इसी प्रकार देश में काश्मीरी, मुगलिया, अरवाल, साहबखानी, खम्भाती, शरिणया, अहमदाबादी, दौलताबादी ग्रादि बहुत प्रकार के कागज प्रसिद्ध हैं और इन पर लिखी हुई पुस्तकें विविध ग्रन्थ-भण्डारों में प्राप्त होती हैं। विलायती कागज का प्रचार होने के बाद भी ग्रन्थों और दस्तावेजों को देशी हाथ के बने कागजों पर लिखने की परम्परा चाल रही है । वास्तव में, अब तो हाथ का बना कागज हाथ के बने कपड़े के साथ संलग्न हो गया है और यत्र-तत्र खादी भण्डारों में हाथ के बने देशी कागज बेचने के कक्ष भी दिखाई देते हैं । देशी कागजों का टिकाऊपन इसी बात से जाना जा सकता है कि सरकारी या गैर-सरकारी अभिलेखागारों में जो कागज-पत्र रखे हुए हैं उनमें से विलायती कागज (चाहे पार्चमैण्ट ही क्यों न हो) पर लिखे हुए लेख देशी कागज पर लिखी सामग्री के आगे फीके और जीर्ण लगते हैं। ग्रन्थागारों में भी देशी कागज पर लिखी प्राचीन पांडुलिपियाँ ऐसी निकलती हैं मानों अभी-अभी की लिखी हुई हों। इन कागजों के नामकरण के विषय में यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि कोई कागज अपने निर्माण-स्थान के नाम से जाना जाता है, तो कोई अपने निर्माता के नाम से । किसी-किसी का नाम उसमें प्रयुक्त सामग्री से भी प्रसिद्ध हुया है, जैसे-शरिणया, मोमिया, बाँसी, भोंगलिया इत्यादि ।
मध्य एशिया में यारकंद नामक नगर से 60 मील दक्षिण में 'कुगिनर' नामक स्थान हैं । वहाँ मिस्टर वेबर को जमीन में गड़े हुए चार ग्रन्थ मिले जो कागज पर संस्कृत भाषा में गुप्त लिपि के लिखे हुए बताये जाते हैं। डॉ० हार्नली का अनुमान है कि ये ग्रन्थ ईसा की पाँचवीं शताब्दी के होने चाहिए । इसी प्रकार मध्य एशिया के ही काशगर आदि स्थानों पर जो पुराने संस्कृत ग्रन्थ मिले हैं वे भी उतने ही पुराने लगते हैं ।
भारत में प्राप्त कागज पर लिखित प्रतियों में वाराणसी के संस्कृत विश्वविद्यालय में सरस्वती भवन पुस्तकालय स्थित भागवत पुराण की एक मिश्रित प्रति का उल्लेख मिलता है। इसकी मूल पुष्पिका का संवत् 1181 (1134 ई०) बताया गया है ।
राजस्थान-प्राच्य-विद्या-प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रह में आनन्दवर्धन कृत ध्वन्यालोक पर अभिनवगुप्त विरचित ध्वन्यालोकलोचन टीका की प्राचीनतम प्रति संवत् 1204 (1146 ई०) की है । इसके पत्र बहुत जीर्ण हो गए हैं, पुष्पिका की अन्तिम पंक्तियाँ भी झड़ गई हैं परन्तु उसकी फोटो प्रति संगह में सुरक्षित है ।
___ महाराजा जयपुर के निजी संग्रह 'पोथीखाना' में पद्मप्रभ सूरि रचित 'भुवनदीपक' पर उन्हीं के शिष्य सिंह तिलक कृत वृत्ति की संवत् 1326 त्रि. की प्रति विद्यमान है । इस वृत्ति का रचना काल भी संवत् 1326 ही है और यह बीजापुर नामक स्थान पर
1. भारतीय प्राचीन लिपि माला, पृ० 1451 व्हलर द्वारा संग्रहीत गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, सिन्ध
और खानदेश के खानगी पुस्तक संग्रहालयों की सूची, भाग 1, पृ. 238 पर इन ग्रंथों का उल्लेख
देखना चाहिए। 2. मैन्युस्क्रिप्ट्स फ्रॉम इण्डियन कलैक्शन्स, नेशनल म्यूजियम, 1964,1.8।
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152/पाण्डुलिपि-विज्ञान
लिखी हुई है। इस प्रति के पत्र जीर्णता के कारण अब शीर्ण होने लगे हैं परन्तु प्रत्येक सम्भव उपाय से इसकी सुरक्षा के प्रयत्न किए जा रहे हैं । तूलीपातीय
अासाम में चित्रण व लेखन के लिए 'तूलीपात' का प्रयोग भी बहुत प्राचीन काल से होता आया है। इसके निर्माण की कला इन लोगों ने सम्भवतः 'ताइ' और 'शान' लोगों से सीखी थी जो 13वीं शताब्दी में अहोम के साथ यहाँ आये थे ।।
. वास्तव में 'तूलिपात' एक प्रकार का कागज ही होता है जो लकड़ी के गूदे या बल्क से बनाया जाता है । यह तीन रंग का होता है-सफेद, भूरा और लाल । सफेद 'तूलिपात' बनाने के लिए महाइ (Mahai) नामक वृक्ष को चुना जाता है, गहरे भूरे रंग के तूलिपात के लिए यामोन (जामुन) वृक्ष का प्रयोग होता है और लाल 'तूलिपात' जिस वृक्ष के गूदे से बनता है उसका नाम अज्ञात है।
उपर्युक्त वृक्षों की छाल उपयुक्त परिमाण में निकाल ली जाती हैं और फिर उसे खूब कूटते हैं । इससे उनके रेशे ढीले होकर अलग-अलग हो जाते हैं। फिर इनको पानी में इतना उबालते हैं कि एक-एक कण अलग होकर उनका सब कूड़ा-करकट साफ हो जाता है । इन कणों का फिर कल्क बना लेते हैं। इसके बाद अलग-अलग माप वाली आयताकार तश्तरियों में पानी भरकर उस पर उस कल्क को समान रूप से फैला देते हैं और ठण्डा होने को रख देते हैं । ठण्डा होने पर पानी की सतह के ऊपर कल्क एक सख्त और मजबूत कागज के रूप में जम जाता है । साधारणतया तूलिपात पत्र दो पाठों को सीकर तैयार किया जाता है अथवा एक ही लम्बे पाठे को दोहरा करके सी लेते हैं। इससे वह पत्र और भी मजबूत हो जाता है । कागज बनाने का यह प्रकार विशुद्ध भारतीय अतिरिक्त प्रकार है । इस उद्योग के केन्द्र नम्फकि.पाल, मंगलोंग और नारायणपुर में स्थित थे जो आसाम के लखीमपुर जिले के अन्तर्गत हैं । नेफा में कामेंग सीमा क्षेत्र के मोंपा बौद्ध भी इसी प्रकार के कागज का निर्माण करते हैं जो स्थानीय 'सुक्सो' नामक वृक्ष की छाल से बनाया जाता है । पटीय अथवा (सूती कपड़ों पर लिखे) ग्रन्थ
ग्रन्थ लिखने, चित्र आलेखित करने तथा यन्त्र-मन्त्रादि लिखने के लिए रूई से बना सूती कपड़ा भी प्रयोग में लाया जाता है । लेखन क्रिया से पहले इसके छिद्रों को बन्द करने हेतु आटा, चावल का माँड या लेई अथवा पिघला हा मोम लगाकर परत सुखा लेते हैं और फिर अकीक, पत्थर, शंख, कौड़ी या कसौटी के पत्थर आदि से घोंटकर उसको चिकना बनाते हैं। इसके पश्चात् उस पर लेखन कार्य होता है। ऐसे आधार पर लिखे हुए चित्र पट-चित्र कहलाते हैं और ग्रन्थ को पट-ग्रन्थ कहते हैं ।
सामान्यतः पटों पर पूजा-पाठ के यन्त्र-मन्त्र ही अधिक लिखे जाते थे-जैने, सर्वतोभद्र यन्त्र, लिंगतो-भद्र-यन्त्र, मातृका-स्थापन-मण्डल, ग्रह-स्थापन-मण्डल, हनुमत्पताका, सूर्यपताका, सरस्वती पताकादि चित्र, स्वर्ग-नरक-चित्र, सांपनसेनी-ज्ञान चित्र और जैनों के अढाई द्वीप, तीन द्वीप, तेरह द्वीप और जम्बू द्वीप एवं सोलह स्वप्न आदि के नक्शे व चित्र भी ऐसे ही पटों पर बनाए जाते हैं। बाद में मन्दिरों में प्रयुक्त होने वाले पर्दे अर्थात्
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पाण्डुलिपियों के प्रकार 153
प्रतिमा के पीछे वाली दीवार पर लटकाने के सचित्र पट भी इसी प्रकार से बनाने का रिवाज है । इनको पिछवाई कहते हैं। नाथद्वारा में श्रीनाथजी की पिछवाइयाँ बहुमूल्य होती हैं । राजस्थान में बहुत-से कथानकों को भी पटों पर चित्रित कर लेते हैं जो ‘पड़' कहलाते हैं । ऐसे चित्रों को फैलाकर लोकगायक उनके संगीतबद्ध कथानकों का गान करते हैं । पानी की पड़, रामदेवजी की पड़, आदि का प्रयोग इस प्रदेश में सर्वत्र देखा जा सकता है।
महाराजा जयपर के संग्रह में अनेक तान्त्रिक नक्शे. देवचित्र एवं इमारती खाके विद्यमान है जो 17वीं एवं 18वीं शताब्दी के हैं । कोई-कोई और भी प्राचीन हैं परन्तु वे जीर्ण हो चले हैं। इनमें महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा सम्पन्न यज्ञों के समय स्थापित मण्डलों के चित्र तथा जयपुर नगर संस्थापन के समय तैयार किए गये प्रारूप-चित्र दर्शनीय हैं । इसी प्रकार संग्रहालय में प्रदर्शित राधाकृष्ण की होली के चित्र भी पट पर ही अंकित हैं और उत्तर 17वीं शती के हैं । दक्षिण से प्राप्त किए हुए छः ऋतुओं के विशाल पट चित्रों पर विविध अवस्थाओं में नायिकायें निरूपित हैं । ये चित्र भी कपड़े पर ही बने हैं और बहुन सुन्दर हैं। जिस व
पर मोम लगाकर उसे चिकना बनाया जाता था, उसे मोमिया कपडा या पट कहते थे । एसे कपड़ों पर प्रायः जन्म-पत्रियाँ लिखी जाती थीं। ये जन्म-पत्रियाँ पट्टियों को चिपका कर बहुत लम्बे-लम्बे आकार में बनाई जाती थीं। इन पर लिखी हुई सामग्नी इतनी विशद और विशाल होती थी कि उन्हें एक ग्रन्थ ही मान लिया जा सकता है । जिसकी जन्म पत्री-होती है उसके वंश का इतिहास, वंश-वृक्ष, स्थान, प्रदेश और उत्सवादि वर्णन, नागरिक वर्णन, ग्रह स्थिति, ग्रह भावफल, दशा-निरूपण आदि का सचित्र सोदाहरग निरूपण किया जाता है । इनमें अनेक ऐसे ग्रन्थों के सन्दर्भ भी उद्ध, त मिल जाते हैं जो अब नाम शेष ही रह गये हैं । जयपुर नरेश के संग्रह में महाराजा रामसिंह प्रथम के कुमार कृष्णसिंह की जन्म-पत्री 456 फीट लम्बी और 13 इंच चौड़ाई की है जो अनेक भव्य चित्रों से सुसज्जित और विविध ज्योतिष ग्रन्थों से सन्दर्भित है। यह जन्म-पत्री संवत् 1711 से 1736 तक लिखी गई थी। इसी प्रकार महाराजा माधवसिंह प्रथम की जन्म-पत्री भी है । इसमें यद्यपि चित्र नहीं है परन्तु कछवाहा वंश का इतिहास, जयपुर नगर वगन और सवाई जयसिंह की प्रशस्तियाँ आदि अनेक उपयोगी सूचनाएँ लिखित हैं।
भाद्रपद मास में (बदि 12 से सुदि 4 तक) जैन लोग पाठ दिन का प! पण पर्व मनाते हैं। पाठवें दिन निराहर व्रत रखते हैं। इसकी समाप्ति पर ये लोक एक-दूसरे से वर्ष भर में किए हुए किसी भी प्रकार के बुरे व्यवहार के लिए क्षमा माँगते हैं। ऐसे क्षमावाणी के अवसर पर एक गाँव अथवा स्थान के समस्त संघ की ओर से दूसरे परिचित गाँव के प्रति क्षमापन पत्र' लिखे जाते थे । संघ का मुखिया प्राचार्य कहलाता है अतः वह पत्र प्राचार्य के नाम से ही सम्बोधित होता है । इन पत्रों में सांवत्सरिक-क्षमापना के अतिरिक्त पयूषण-पर्व के दिनों में अपने गाँव में जो धार्मिक कृत्य होते हैं उनकी सूचना प्राचार्य को दी जाती थी तथा यह भी प्रार्थना की जाती थी कि वे उस ग्राम में आकर संघ को दर्शन दें। ऐसे पत्र 'विज्ञप्ति-पत्र' कहलाते हैं। इनके लिखने में गाँव की ओर से पर्याप्त धन एवं समय व्यय किया जाता था। इनका प्राकार-प्रकार भी प्रायः जन्म-पत्री के खरड़ों जैसा ही होता है तथा ये कागज के अतिरिक्त ताड़पत्रादि पर भी लिखे मिलते
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154/पाण्डुलिपि-विज्ञान
हैं । कभी-कभी कोई जैन विद्वान मुनि इनमें अपने काव्य भी लिखकर प्राचार्य की सेवा में प्रेषित करते थे। महामहोपाध्याय विनयविजय रचित 'इन्दुदूत', मेघविजय विरचित 'मेघदूत', समस्या-लेख और एक अन्य विद्वान द्वारा प्रणीत चेतोदूत काव्य ऐसे ही विज्ञप्ति पत्रों में पाये गये हैं। सबसे पुराने एक विज्ञप्ति-पत्र का एक ही त्रुटित ताड़पत्रीय-पत्र पाटन के प्राचीन ग्रन्थ भण्डार में मिला है जो विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का बताया जाता है।
यद्यपि कागज पर लिखे विज्ञप्ति पत्र 100 हाथ (50 गज = 1.52 फीट) तक लम्बे और 2-13 इंच चौड़े 15वीं शती के जितने पुराने मिले हैं परन्तु कपड़े पर वित ऐसा कोई पत्र नहीं मिला । किन्तु जब इन विज्ञप्ति-पत्रों को जन्म-पत्री जैसे सारड़ों में लिखने का रिवाज था तो अवश्य ही इनके लिए रेजी, तूलिपात या अन्य प्रकार के कपड़े अथवा पट का भी प्रयोग किया ही गया होगा । ऐसे पत्रों का प्राचीन जैन-ग्रन्थ-भण्डारी में अन्वेषण होना आवश्यक है।
प्राचीन समय में पञ्चांग (ज्योतिप) भी कपड़े पर लिखे जाते थे। इनमें देवीदेवता और ग्रह-नक्षत्रादि के चित्र भी होते थे । महाराजा जयपुर के संग्रह में 17वीं शताब्दी के कुछ वहुत जीर्ण पंचांग मिलते हैं । 'राजस्थान प्राच्य-विद्या-प्रतिष्ठान' धार में भी कतिपय इसी तरह के प्राचीन पंचांग विद्यमान हैं।
दक्षिण आन्ध्र प्रदेश आदि स्थानों में इमली खाने का बहुत रिवाज़ है। इनली के बीज या 'चीयाँ' को आग में मेंक कर सुपारी की तरह तो खाते ही हैं परन्तु इसका एक
और भी महत्त्वपूर्ण उपयोग किया जाता था । वहाँ पर इस 'चीयाँ' से लेई बनाई जाती थी। उस लेई को कपड़े पर लगाकर काला पट तैयार किया जाता था। उसकी वही बनाकर व्यापारी लोग उस पर सफेद खड़िया से अपना हिसाब-किताब लिखते थे । ऐसी बहियाँ 'कडितम्' कहलाती थीं। शृंगेरी मठ में ऐसी सैकड़ों बहियाँ मौजूद हैं जो 300 वर्ष तक पुरानी हैं । पाटण के प्राचीन ग्रन्थ-भण्डार में श्री प्रभसूरि रचित 'धर्म विधि' नामक कृति उदयसिंह कृत टीका सहित पाई गयी है जो 13 इंच लम्बे और 5 इंच चौड़े कपड़े के 93 पत्रों पर लिखित है । कपड़े के पत्रों पर लिखित अभी तक यही एक पुस्तक उपलब्ध
कपड़े पर लेई लगाकर काला पट तैयार करके सफेद खड़िया से लिखने के अनुकरण में कई ऐसी पुस्तकें भी मिलती हैं जो कागज पर काला रंग पोत कर सफेद स्याही से लिखी गयी हैं।
इगली के बीज से चित्रकार भी कई प्रकार के रंग बनाते थे। रेशमी कपडे की
अलबेरुनी ने अपने भारत यात्रा विवरण में लिखा है कि उसको नगरकोट के किल में एक राजवंशावली का पता था जो रेशम के कपड़े पर लिखी हुई बताई जाती है। यह वशावली काबुल के शाहियावंशी हिन्दू राजाओं को थी । इसी प्रकार डॉ० युहल र ने
1. मुनि जिनविजय सं. 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' पृ. 32 । 2. भारमीय प्राचीन लिपि माला, पृ. 146 ।
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पाण्डुलिपियों के प्रकार 155
अपने ग्रन्य निरीक्षण विवरण (पृ० 30) में लिखा है कि उन्होंने जैसलमेर के वृहद्-ग्रन्थभण्डार में जैन सूत्रों की सूची देखी जो रेशम की पट्टी पर लिखी थी। काष्ठपट्टीय
लिखने के लिए लकड़ी के फलकों के उपयोग का रिवाज भी बहुत पुराना है। कोई 40-45 वर्ष पूर्व सर्वत्र और कहीं-कहीं पर अब भी बालकों को सुलेख लिखाने के लिए लकड़ी की पाटी काम में लाई जाती है। यह पाटी लगभग डेढ़ फुट लम्बी और एक फुट चौड़ी होती है । इसके सिरे पर एक मुकुटाकार भाग काट दिया जाता है जिसमें छिद्र होता है । बालक इस छिद्र में डोरा पिरोकर लटका लेते हैं। इसकी सहायता से घर पर भी इसे खटी पर टाँग देते हैं : क्योंकि विद्या को पैरों में नहीं रखना चाहिये । इसी पाटी पर मुलतानी या खड़िया पोतते हैं । यह लेप इतना साफ और स्वच्छ करके लगाया जाता है कि पाटी के दोनों ओर की सतह समान रूप से स्वच्छ हो जाती है। पाटी पोतने और उसको मुखाने की कला में बालकों की चतुराई अाँकी जाती थी। चटशाला में बच्चे मामूहिक रूप से पाटी पोतने बैठते और फिर 'सूख-सख पाटी, विद्या प्रावै' की रट लगाते हुए पट्टी हवा में हिलाते थे । पाटी सूख जाने पर वे इसे अपने दोनों घुटनों पर रखकर नेजे या सरकंडे की कलम और काली स्याही से सन्दर अक्षर लिखने का अभ्यास करते थे । प्रारम्भ में गुरुजी कलम के उल्टे सिरे से बिना स्याही के उस पाटी पर अक्षरों के आकार (किटकिनां) बना देते थे और फिर बालक उस आकार पर स्याही फेरकर सुलेखन का अभ्यास करते थे।
पाटी पर जो खड़िया या मुलतानी पोती जाती थी वह पाण्डु कहलाती थी और इसीलिए प्रारम्भिक मूल लेख को पाण्डुलिपि कहते हैं जो अब प्रारूप, मूल हस्तलेख मौर हस्तलिखित ग्रन्थ का वाचक शब्द बन गया है। पाटी लिखने से पहले बच्चों को 'खोरपाटा' देते थे । एक लकड़ी का आयताकार पाटा, जिसके छोटे-छोटे चार पाये होते थे या दोनों ओर नीचे की तरफ डाट होती थी, यह बालक के सामने बिछा दिया जाता था। इस पर लाल चूने या स्वच्छ भूरी मिट्टी बिछाकर इस तरह हाथ फेरा जाता कि उसकी सतह ममतल हो जाती थी। फिर लड़की की तीखी नोकदार कलम से उस सतह पर लिखना सिखाते थे । इस कलम को 'बरता' या 'बरतना' कहते थे । जब पाटा भर जाता तो लेख गुरुजी को जॅचवा कर फिर उस मिट्टी पर हाथ फेरा जाता और पुनः लेखन चालू हो जाता।
आजकल जैसे स्कूलों में कक्षाएं होती हैं उसी प्रकार पहले पढ़ने वाले छात्रों की श्रेणी-विभाजन इस प्रकार होता था कि प्रारम्भ में 'खोरा-पाटा' की कक्षा फिर 'पाटी' कक्षा । दिन में विद्यार्थी कितनी पट्टियाँ लिख लेता था, इसके आधार पर भी उसकी वरिष्ठता कायम की जाती थी। इस प्रकार पाटी या फलक पर लिखने की परम्परा बहुत पुरानी है। बौद्धों की जातक-कथाओं में भी विद्यार्थियों द्वारा काष्ठ-फलकों पर लिखने का उल्लेख मिलता है।
1.
इसका एक रूप ब्रज में यों मिलता हैसुख-सूख पटदी चन्दन गटटी, राजा आये महल चिनाये, महल गये टूट, पट्टी गई सूख ।
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156/पाण्डुलिपि-विज्ञान
सुलेख सिखाने के लिए आगे का क्रम यह होता था कि पाटियों के एक अोर लाल लाख का रोगन लगा दिया जाता और दूसरी ओर काला या हरा रोगन लेपा जाता था 11 फिर इन पर हरताल की पीली-सी स्याही या खड़िया या पाण्डु की सफेद सी स्याही से लिखाया जाता था।
दैनिक प्रयोग में बहुत से दुकानदार पहले लकड़ी की पाटी पर कच्चा हिसाब टीप लेते थे (आजकल स्लेट पर लिख लेते हैं) और फिर यथावकाश उसे स्याही से पक्की बही में उतारते थे। इसी तरह ज्योतिषी लोग भी पहले खोर पाटे पर कुण्डलियाँ ग्रादि खींच कर गणित करते थे, पुती हुई पाटियों पर भी जन्म, लग्न, विवाह लग्न आदि टीप लेते थे और फिर उनके अाधार पर हस्तलेख तैयार कर देते थे । खोर-पाटे पर लिखने को ज्योतिष-शास्त्र में 'धुलीकर्म' कहते हैं ।
_ विद्वान भी ग्रन्थ रचना करते समय जैसे आजकल पहले रूल पेंसिल से कच्चा मसविदा कागज पर लिख लेते हैं अथवा किसी पद्य का स्फुरण होने पर स्लेट पर जमा लेते हैं और बाद में उसको निर्णीत करके स्थायी रूप से लिखते या लिखवा लेते हैं। उसी तरह पुराने समय में ऐसे प्रारूप काष्ठ-पट्टिकाओं पर लिखने का रिवाज था। जनों के 'उत्तराध्ययन सत्र' की टीका की रचना नैमिचन्द्र नामक विद्वान ने संवत् 1129 में की थी। उसमें इस प्रकार पाटी से नकल करके सर्वदेव नामक गणि द्वारा ग्रन्थ लिखने का उल्लेख है--
पट्टिका तोऽलिखच्नेमाँ सर्वदेवाभिधो मरिणः ।
ग्रात्मकर्मक्षयायाथ परोपकृति हेतवे ।। 14 ।। खोतान से भी कुछ प्राचीन काष्ठ-पट्टिों के मिलने का उल्लेख है । इन पर खरोष्ठी लिपि में लेख लिखे हैं।
वर्मा में रोगनदार फलकों पर पाण्डुलिपि लिखी जाती है । ऑक्सफोर्ड की वोडलेयन पुस्तकालय में एक अासाम से प्राप्त काष्ठ-फलकों पर लिखी एक पाण्डुलिपि बतायी जाती है। : कात्यायन और दण्डी ने बताया है कि बाद-पत्र फलकों पर पाण्डु (खड़िया) से लिखे जाते थे और रोगन वाले फलकों पर शाही शासन लिखे जाते थे।
ग्रन्थों के दोनों ओर जो काष्ठफलक (या पटरी) लगाकर ग्रंथ बाँधे जाते हैं, उन पर भी स्याही से लिखी सूक्तियाँ अथवा मूल ग्रंथ का कोई अंश उद्ध त मिल जाता है जो स्वयं रचनाकार अथवा लेखक (प्रतिलिपिकर्ता) द्वारा लिखा हुआ होता है ।
कभी-कभी काष्ठ स्तम्भों पर लेख खोदे गये, जैसे किरारी से प्राप्त स्तम्भ पर मिले हैं । भज की गुफा की छतों की काष्ठ महराबों पर भी लेख उत्कोर्ण मिले हैं।
ब्रज में "हिरमिच' पोती जाती थी जिससे पट्टी लाल हो जाती थी। फिर उस पर घोंटा किया जाता था। 'घोंटा' शीशे के बड़े गोल छल्ले के आकार का लगभग तीन अंगुल चौड़ाई का होता था। उमसे घोंटने पर पट्टी चिकनी हो जाती थी उस पर खडिया के घोल से लिखा जाता था
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ग्रन्थों के अन्य प्रकार
1.
प्राकार के आधार पर :
यहाँ तक हमने ग्रन्थ लिखने के साधन या आधार की दृष्टि से ग्रन्थों के प्रकार बताये । प्राचीनतम हस्तलिखित प्रतियाँ प्रायः लम्बी और पतली पट्टियों के रूप में ही प्राप्त होती हैं, जिनको एक के ऊपर एक रखकर गड्डी बनाकर रखा जाता है। एक-एक पट्टी को पत्र कहते हैं । 'पत्र' नाम इसलिए दिया कि ये पोथियाँ ताड़पत्रों या भूर्जपत्रों पर लिखी जाती थीं। बाद में तत्समान प्रकार के मांडपत्र या कागज बनाए जाने लगे । अव वह 'पत्र' शब्द चिट्ठी के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है। 'पता' भी पत्र से ही निकला है । ग्रतः प्राचीन पुस्तकें छूटे या खुले पत्राकार रूप में ही होती थीं। इनके छोटे-बड़े प्रकार का भेद बताने के लिए जो शब्द प्रयुक्त हैं उनसे पता चलता है कि पोथियाँ पाँच प्रकार की होती थीं । दशवेकालिक सूत्र की हरिभद्रकृत टीका में एवं निशीथचूर्णी आदि में पुस्तकों के 5 प्रकार इस तरह गिनाये गये हैं 1 - ( 1 ) गण्डी, (2) कच्छपी, (3) मुष्टी, (4) सम्पुटफलक और (5) छेदपाटी, छिवाडी या सृपाटिका 12
गण्डी
जो पुस्तक मोटाई और चौड़ाई में समान होकर लम्बी ( Rectangular) होती है वह 'गण्डी' कहलाती है। जैसे पत्थर की 'कतली' होती है उसी प्रकार की यह पुस्तक होती है । ताड़पत्र पर या ताड़पत्रीय ग्राकार के कागजों पर लिखी हुई पुस्तकें 'गण्डी' प्रकार की होती है ।
कच्छपी
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पाण्डुलिपियों के प्रकार / 157
कच्छप या कछुए के आकार की अर्थात् किनारों पर सँकरी और बीच में चौड़ी पुस्तकें कच्छपी कहलाती हैं। इनके किनारे या छोर या तो त्रिकोण होते हैं अथवा गोलाकार |
'गंडी कच्छवि मुट्ठी संyडफलए छिवाडीय' एगे पुत्ययपण, चक्खाण मिणं भवेतस्य ।।
वाल्ल पुहत्त हि, गण्डी पत्थो उ तुल्लगों दीहो । कच्छवि अन्ते तणुओ, मज्झे पिलो मुणेयब्बो चउरं गुलदी हो वा ग्ट्टाहि मुट्ठि पुत्यगो अह्वा । चउरं गुलदीहोच्चि, चउरंगी होइ विन्नेओ ।। सम्पुङगो दुगनाई फलगावोच्छं मेत्ता है । तणुपत्तूसियरुबो, होई छिवाड़ी बुहा वेंति ।। दी होवा हस्सो वा, जो पिहुलो होइ अप्पवाहल्लो । तं मुणियसमयसारा, छिवाडियोत्यं भणतीह ॥
- दश वैकालिक हरिभद्री टीका, पत्र 25
'मुनि पुण्य विजय जी : भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला में पृ० 22 पर 25 वीं पाद टिप्पणी से उद्धत |
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2. मुनि पुण्य विजयजी ने भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला में पृ० 22 की 26 वी पाद टिप्पणी में बताया है कि कुछ विद्वान् छिवाड़ी को सुपटिक मानते हैं । किन्तु मुनिजी वृर्हक्ल्पसूत्र वृत्ति तथा स्थानांग सूत्र टीका आदि मान्य ग्रन्थों के आधार पर छिवाड़ी को 'छेदपाटी' ही मानते हैं ।
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158/पाण्डुलिपि-विज्ञान मुष्टी
छोटे आकार की मुष्टिग्राह्य पुस्तक को मुष्टी कहते हैं । इसकी लम्बाई चार अंगुल कही गई है। इस रूप में बाद के लिखे हुए छोटे-छोटे गुटके भी सम्मिलित किए जा सकते हैं। हैदराबाद सालारजंग-संग्रहालय में एक इंच परिमाण वाली पुस्तकें हैं । वे मुष्टी ही मानी जायेगी। संपुट-फलक
सचित्र काष्ठपट्टिकाओं अथवा लकड़ी की पट्टियों पर लिखित पुस्तकों को सम्पुटफलक कहा जाता है। वास्तव में, जिन पुस्तकों पर सुरक्षा के लिए ऊपर और नीचे काष्ठफलक लगे होते हैं, उनको ही 'सम्पुट फलक' पुस्तक कहते हैं । छेद पाटी
जिस पुस्तक के पत्र लम्बे और चौड़े तो कितने ही हों, परन्तु संख्या कम होने के कारण उसकी मोटाई (या ऊँचाई) कम होती है उसको छेदपाटी छिवाड़ी या सृपाटिका कहते हैं। पुस्तकों की लेखन शैली से पुस्तक-प्रकार
लेखन शैली के प्राधार पर पुस्तकों के निम्न प्रकार भारतीय जैन श्रमण संस्कृति भने लेखन कला' में बताये गये हैं :
1. त्रिपाट या त्रिपाठ ) ये तीन भेद पुस्तक के पृष्ठ के रूप-विधान पर 2. पंचपाट या पंचपाठ ) निर्भर हैं। 3. शुंड या शुंड . ) . . 4. चित्र पुस्तक-यह उपयोगी सजावट पर निर्भर है। 5. स्वर्णाक्षरी ) यह लेखाक्षर लिखने के माध्यम (स्याही) के विकल्प के 6. रौप्याक्षरी ) प्रकार पर निर्भर है । 7. सूक्ष्माक्षरी ) ये अक्षरों के आकार के परिमाण पर निर्भर है। 8. स्थूलाक्षरी आदि ) उक्त प्रकारों के स्थापित करने के चार प्राधार अलग-अलग हैं । ये आधार हैं : 1. पृष्ठ का रूप-विधान । 2. पुस्तक को सचित्र करने से भी पुस्तक का एक अलग प्रकार प्रस्तुत होता है । 3. सामान्य स्याही से भिन्न स्वर्ण या रजत से लिखी पुस्तकें एक अलग वर्ग की
हो जाती हैं । 4. फिर अक्षरों के सूक्ष्म अथवा स्थूल परिमारण से पुस्तक का अलग प्रकार हो
जाता है। कुण्डलित, वलयित या खरड़ा
ऊपर जो प्रकार बताये गये हैं, उनमें एक महत्त्वपूर्ण प्रकार छूट गया है । वह कुण्डली प्रकार है जिसे अंग्रेजी में स्काल (Scroll) कहा जाता है। प्राचीन काल में फराऊनों के
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/1593
युग में 'मिथ' में पेपीरस पर कुण्डली ग्रन्थ ही लिखे गये। भारत में कम ही सही कुण्डली ग्रन्थ लिखे जाते थे । 'भागवत पुराण' कुण्डली ग्रन्थ ब्रिटिश म्यूजियम में रखा हुआ है ।। जैनियों के विज्ञप्ति पत्र' भी कुण्डली-ग्रन्थ का रूप ग्रहण कर लेते थे। बड़ौदा के प्राच्यविद्यामंदिर में हस्तलिखित सचित्र सम्पूर्ण महाभारत कुण्डली ग्रन्थ के रूप में सुरक्षित हैयह 228 फीट लम्बी और 51 फीट चौड़ी कुण्डली है जिसमें एक लाख श्लोक हैं । तेनह्नांग से डॉ० रघुवीर 8000 बलयितात्रों की प्रतिलिपियाँ लाये थे।
'कुण्डली ग्रन्थ' रखने के पिटक के साथ
1. यह पुराण 5 इंच चौड़ी और 55 फुट लम्बी कुण्डली में है, सचिन है ।
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160 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
पृष्ठ के रूप-विधान से प्रकार-भेद
सामान्य ग्रंथों में पाट या पाठ का भेद नहीं होता है । श्रादि से अन्त तक पृष्ठ एक ही रूप में प्रस्तुत किया जाता है ।
किन्तु जब पृष्ठ का रूप-विधान विशेष अभिप्रायः से बदला जाये तो वे तीन प्रकार के रूप ग्रहण करते मिलते हैं :
त्रिपाट या त्रिपाठ
इस पाट या पाठ में यह दिखाई पड़ता है कि पृष्ठ तीन हिस्सों में बाँट दिया गया है । बीच में मोटे अक्षरों में मूल ग्रंथ के श्लोक, उसके ऊपर और नीचे छोटे अक्षरों में टीका, टीबा या व्याख्या दी जाती है । इस प्रकार एक पृष्ठ तीन भागों में या पाटों या पाठों में बंट जाता है । इसलिए इसे त्रिपाट या त्रिपाठ कहते हैं ।
पंचपाट या पाठ
जब किसी पृष्ठ को पाँच भागों में बाँटकर लिखा जाये तो पंचपाट या पाठ कहलाएगा । त्रिपाट की तरह इसमें भी बीच में कुछ मोटे अक्षरों में मूल ग्रन्थ रहता है, यह एक पाट हुआ । ऊपर और नीचे टीका या व्याख्या लिखी गई, यह तीन पाट हुए फिर दाईं और बाईं ओर हाशिये में भी जब लिखा जाये तो पृष्ठ का इस प्रकार का रूप-विधान पंचपाठ कहा जाता है ।
शूड या शु ंड
अन्तिम पंक्ति सबसे छोटी होती
कर लेता है । यह केवल लेखक
जिस 'पुस्तक का पृष्ठ लिखे जाने पर हाथी की सूंड की भाँति दिखलाई पड़े वह 'सूंड पाठ' कहलाएगा। इसमें ऊपर की पंक्ति सबसे बड़ी, उसके बाद की पंक्तियाँ प्रायः. छोटी होती जाती हैं, दोनों ओर से छोटी होती जाती हैं । हैं और पृष्ठ का स्वरूप हाथी की सूंड का आधार ग्रहण की या लिपिकार की अपनी रुचि को प्रगट करता है । किन्तु इस प्रकार के ग्रन्थ दिखाई नहीं पड़ते । हाँ, किसी लेखक के अपने निजी लेखों में इस प्रकार की पृष्ठ रचना मिल सकती है । किन्तु 'कुमार सम्भव' में कालिदास ने श्लोक 1.7 में 'कुंजर बिदुशोरण:' से ऐसी ही पुस्तक की ओर संकेत किया है। इसी अध्याय में भूर्जपत्र शीर्षक देखिए ।
अन्य
इस दृष्टि से देखा जाये तो लेखक की निजी पृष्ठ - रचना में त्रिकोण पाठ भी मिल सकता है । ऊपर की पंक्ति पूरी एक ओर हाशिये की रेखा के साथ प्रत्येक पंक्ति लगी हुई किन्तु दूसरी घोर थोड़ा-थोड़ा कम होती हुई अन्त में सबसे छोटी पंक्ति । इस प्रकार पृष्ठ त्रिकोण पाठ प्रस्तुत हो जाता है। अतः ऐसे ही अन्य पृष्ठ सम्बन्धी रचना - प्रयोग भी लेखक की अपनी रुचि के द्योतक हैं । इनका कोई विशेष अर्थ नहीं । त्रिपाट और पंचपाठ इन दो का महत्त्व अवश्य है क्योंकि ये विशेष अभिप्रायः से ही पाठों में विभक्त होती हैं ।
I
सजावट के आधार पर पुस्तक-प्रकार
जिस प्रकार से कि ऊपर पृष्ठ रचना की दृष्टि से प्रकार-भेद किये गये हैं उसी प्रकार से सजावट के आधार पर भी पुस्तक का प्रकार अलग किया जा सकता है । यह
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/161
सजावट चित्रों के माध्यम से होती है । एक हस्तलेख में चित्रों का उपयोग दो दृष्टियों से हो सकता है । एक-केवल सजावट के लिए और दूसरे संदर्भगत उपयोग के लिए। ये दोनों ही सादा एक स्वाही में भी हो सकते हैं और विविध रंगों में भी। नथ में चित्र
ग्रंथों में चित्रांकन की परम्परा भी बहुत प्राचीन है। 11वीं शती से 16वीं शती के बीच एक चित्रशैली प्रचलित हुई जिसे 'अपभ्रंश-शैली' नाम दिया गया है।
इनमें सम्बन्ध में 'मध्यकालीन-भारतीय कलाओं एवं उनका विकास' नामक ग्रंथ का यह अवतरण द्रष्टव्य है
"मुख्यतः ये चित्र जैन संबंधी पोथियों (पाण्डुलिपियों) में बीच-बीच में छोड़े हुए चौकोर स्थानों में बने हुए मिलते हैं।" - इसका अर्थ है कि यह 'अपभ्रंश-कला' ग्रंथ-चित्रों के रूप में पनपी और विकसित हुई । यह भी स्पष्ट है कि इससे जैन धर्म-ग्रंथों का ही विशुद्ध योगदान रहा। हाँ, अकबर के समय में साम्राज्य का प्रश्रय चित्रकारों को मिला । इस प्रश्रय के कारण कलाकारों ने अन्य ग्रंथों को भी चित्रित किया। राजस्थान-शैली में भी चित्रण हुआ। इस प्रकार हस्तलिखित ग्रंथों में चित्रों की तीन शैलियाँ पनपती मिलती हैं। एक अपभ्रश-शैली जैन-धर्म ग्रंथों में पनपी । इसके दो रूप मिलते हैं । एकमात्र अलंकरण सम्बन्धी। 1062 ई. के 'भगवती-सूत्र' में अलंकरण मात्र हैं। अलंकरण शैली में विकास की दूसरी स्थिति का पता हमें 1100 ई० की 'निशीथ-चूणि' से होता है । इस पाण्डुलिपि में अलंकरण के लिए वेलबंटों के साथ पशुओं की प्राकृतियाँ भी चित्रित हैं। 13वीं शतो में देवी-देवताओं का चित्रण बाहुल्य से होने लगा।
मे सभी प्रतियाँ ताड़पत्र पर हैं । चित्र भी ताड़पत्र पर ही बनाये गये हैं ।
"1100 से 1400 ई. के मध्य जो चित्रित ताड़पत्र तथा पाण्डुलिपियाँ मिलती हैं उनमें 'अंगसूत्र', 'कथा सरित्सागर', 'त्रिषष्ठि-शालाका-पुरुष-चरित', 'श्री नेमिनाथ चरित', 'श्रावक-प्रतिक्रमण-चूणि' आदि मुख्य हैं।"
1400 से ताड़पत्र के स्थान पर कागज का उपयोग होने लगा।
1400 से 1500 के बीच की चित्रित पांडुलिपियों में कल्पसूत्र, कालकाचार्य-कथा, सिद्धसेन आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
पंद्रहवीं-सोलहवीं शती में कागज की पांडुलिपि में कल्पसूत्र और कालकाचार्य कथा की अनेकों प्रतियाँ चित्रित की गयीं। हिन्दी में कामशास्त्र के कई ग्रंथ इसी काल में सचित्र लिखे गये । 1451 की कृति वसंत-विलास में 79 चित्र हैं ।
1. नाथ, आर० (डॉ.)-मध्यकालीन भारतीय कलाएँ एवं उनका विकास, पृ. 431 .. वही, पृ० 3. वही, पृ. 4 4. लखनऊ संग्रहालय में हैं : 1547 ई. में चित्रित 23 चित्रों से युक्त फिरदोसी का 'शहनामा अकबर
के समय में चित्रित छ: चित्रों वामी पोथी हरिवंश पुराण' के अंशों के फारसी अनुवाद वाली; 17वीं मतान्दी की काश्मीर शैली के 12 चित्रों बाली कुण्डली (Scroll) के रूप में 'भागवत'। क्रमशः
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162/पाण्डुलिपि-विज्ञान
अब यह कला प्राणवान हो चली थी और धर्म के क्षेत्र से भी बँधी हुई नहीं रही। सजावटी पुस्तकें
सजावटी चित्र-पुस्तकों को कई प्रकार से सजाया जा सकता है । एक तो ग्रंथ के प्रत्येक पृष्ठ पर चारों ओर के हाशियों को फूल-पत्तियों से या ज्यामितिक आकृतियों से या पशु-पक्षियों की प्राकृतियों से सजाया जा सकता है। दूसरा प्रकार यह हो सकता है कि प्रारम्भ में जहाँ पुष्पिका दी गयी हो या अध्याय का अन्त हुआ हो, वहाँ इस प्रकार का कोई सजावटी चित्र बना दिया जाय (जैसे राउलवेल में) । फूल पत्तियों वाला, अशोक चक्र जैसा तथा अनेक प्रकार के ज्यामितिक आकृतियों वाला अथवा पशु-पक्षियों वाला कोई चित्र बनाकर पृष्ठ को तथा पुस्तक को सजाया जा सकता है। पृष्ठों के मध्य में भी विशिष्ट प्रकार की प्राकृतियाँ लिपिकार इस रूप में प्रस्तुत कर सकता है कि लेख की पंक्तियों को इस प्रकार व्यवस्थित करे कि पृष्ठ में स्वस्तिक या स्तम्भ या डमरू या इसी प्रकार का अन्य चित्र उभर आये । पृष्ठ के बीच में स्थान छोड़कर अन्य कोई चित्र, मनुष्य की या पशु की प्राकृति के चित्र बनाये जा सकते हैं। ये सभी चित्र सजावट या लिपिकार के लेखन-कौशल के प्रदर्शन के लिए होते हैं । पांडुलिपियों में ताड़पत्रों के ग्रंथों के पत्रों के बीच में डोरी या सूत्र डालने के लिए गोल छिद्र किए जाते थे और लिखने में बीच में इसी निमित्त लेखक गोलाकार स्थान छोड़ देता था। यह अनुकरण कागज की पाण्डुलिपियों में भी किया जाने लगा । इस गोलाकार स्थान को विविध प्रकार से सजाया भी जाने लगा। उपयोगी चित्रों वाली पुस्तकें
सजावट वाले चित्रों से भिन्न जब ग्रंथ के विषय के प्रतिपादन के लिए या उसे दृश्य बनाने के लिए भी चित्र पुस्तक में दिये जाते हैं, तब में चित्र पूरे पृष्ठ के हो सकते हैं और ग्रंथ में आने वाली किसी घटना का एवं दृश्य का चित्रण भी इनमें हो सकता है । कभीकभी इन चित्रों में स्वयं लेखक को भी हम चित्रित देख सकते हैं। पूरे पृष्ठों के चित्रों के अतिरिक्त ऐसी चित्रित पुस्तकों में पृष्ठ के ऊपरी आधे भाग में, नीचे आधे भाग में, पृष्ठ के बाईं ओर के ऊपरी चौथाई भाग में या बाईं ओर के नीचे के चौथाई भाग में, या नीचे के चौथाई भाग में चित्र बन सकते हैं या बीच में भी बनाए जा सकते हैं। ऊपर नीचे लेख और बीच में चित्र हो सकते हैं । जब कभी किसी काव्य के भाग को प्रकट करने के लिए
... 1. कोटा-संग्रहालय में श्रीमद्भागवत की एक ऐसी पाण्डुलिपि है जिसका प्रत्येक पृष्ठ रंगीन चित्रों से चित्रित है।
___ कलकत्ता आशुतोष-कला-संग्रहालय में एक कागज पर लिखी 1105 ई० की बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय की पाण्डुलिपि है, इसमें बौद्ध देवताओं के आठ चित्र हैं। इस प्रति का महत्व इसलिए भी है कि यह कागज पर लिखे प्राचीनतम ग्रंथों में से है।
__ अलवर संग्रहालय में महत्वपूर्ण चित्रित पाण्डुलिपियाँ इस प्रकार हैं-(1) भागवत-कुण्डली रूप में लिखित. चित्रयुक्त 18 फुट लम्बा है। (2) गीत गोविन्द, अलवर शैली के चित्रों से युक्त है, (3) वाकयातेबाबरी, हुमायू. के समय में तुर्की से फारसी में अनुदित हुई । इसमें चित्र भारतीय-ईरानी शैली के हैं। 'शाहनामा-इसके चित्र उत्तर-मुगल-काल की शैली के हैं। 'गुलिस्तां'-इसकी वह प्रति यहाँ सुरक्षित है जिसे महाराजा विनयसिंह ने पौने दो लाख रुपये व्यथः करके तैयार कराया था और इसको तैयार करने में 15 वर्ष लगे थे।
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पाण्डुलिपियों के प्रकार / 163
चित्र दिए जाते हैं तो काव्य का कोई अंश चित्र के ऊपर या नीचे अंकित कर दिया जाता है । इस प्रकार ग्रंथ अनेक प्रचार से चित्रित किए जा सकते हैं। ये चित्र सजावट वाली चित्रशैली से भी युक्त बनाए जा सकते हैं। ऐसे चित्रों में हाशिए को विविध प्रकार की सुन्दर प्रकृतियों से सजाया जाता है, तब चित्र बनाया जाता है ।
इन चित्रों में अपने काल की चित्र कला का रूप उभर कर आता है । इनके कारण ऐसी पुस्तकों का मूल्य बहुत बढ़ जाता है ।
सामान्य स्याही में भिन्न माध्यम में लिखी पुस्तक
सामान्यतः पुस्तक लेखन में ताड़पत्रों को छोड़कर काली पक्की स्याही से ग्रंथ लिखे जाते रहे हैं । लाल स्याही को भी हम सामान्य ही कहेंगे, किन्तु इस प्रकार की सामान्य स्याही से भिन्न कीमती स्वर्ण या रजत अक्षरों में लिखे हुए ग्रंथ भी मिलते हैं । अतः इनका एक अलग वर्ग हो जाता है । ये स्वर्णाक्षर अथवा रजताक्षर हस्तलेखों के महत्त्व और मूल्य को बढ़ा देते हैं। साथ ही ये लिखवाने वाले की रुचि और समृद्धि के भी द्योतक होते हैं । स्वर्णाक्षर और रजताक्षरों में लिखे हुए ग्रंथों को विशेष सावधानी से रखा जायेगा और, उनके रखने के लिए भी विशेष प्रकार का प्रबन्ध किया जायेगा । स्पष्ट है कि स्वर्णाक्षरी और रजताक्षरी पुस्तकें सामान्य परिपाटी की पुस्तकें नहीं मानी जा सकतीं । ऐसी पुस्तकें बहुत कम मिलती हैं ।
अक्षरों के आकार पर आधारित प्रकार
अक्षर सूक्ष्म या अत्यन्त छोटे भी हो सकते हैं और बहुत बड़े भी । इसी आधार पर सूक्ष्माक्षरी पुस्तकों और स्थूलाक्षरी पुस्तकों के भेद हो जाते हैं । सूक्ष्माक्षरी पुस्तक के कई उपयोग हैं । पंचपाट में बीच के पाट को छोड़कर सभी पाठ सूक्ष्माक्षर में लिखने होते हैं, तभी पंचपाट एक पन्ने में आ सकते हैं । इसी प्रकार से एक ही पन्ने में 'मूल' के अंश के साथ विविध टीका टिप्पणियाँ भी ना सकती हैं ।
सूक्ष्माक्षरी : सूक्ष्माक्षरों में लिखी पुस्तक छोटी होगी, और सरलता से यात्रा में साथ ले जाई जा सकती है । वस्तुतः जैन मुनि यात्राओं में सूक्ष्माक्षरी पुस्तकें ही रखते थे ।
अक्षरों का आकार छोटे-से-छोटा इतना छोटा हो सकता है कि उसे देखने के लिए आतिशी शीशा आवश्यक हो जाता है । सूक्ष्माक्षर में लिखने की कला तब चमत्कारक रूप ले लेती है जब एक चावल पर 'गीता' के सभी अध्याय अंकित कर दिये जायँ ।
स्थूलाक्ष
पुस्तक बड़े-बड़े अक्षरों में भी लिखी जाती हैं । ये मंद-दृष्टि पाठकों को सुविधा प्रदान करने के लिए मोटे अक्षरों में लिखी जाती हैं अथवा इसलिये कि इन्हें पोथी की भाँति पढ़ने में सुविधा होती है ।
कुछ और प्रकार
अब जो प्रकार यहाँ दिए जा रहे हैं, वे प्राजकल प्रचलित प्रकार हैं। इन्हीं के आधार पर श्राज खोज रिपोर्टों में ग्रन्थ प्रकार दिए जाते हैं ।
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164/पाण्डुलिपि-विज्ञान
पांडुलिपियाँ इतने प्रकार की मिलती हैं :-- (1) खुले पन्नों के रूप में । पत्राकार। (2) पोथी । कागज को बीच से मोड़कर बीच से सिली हुई। (3) गुटका । बीच से या ऊपर से (पुस्तक की भाँति) सिला हुआ। इसके पत्र अपेक्षा
कृत छोटे होते हैं । पन्नों का आकार प्रायः 6XA, इंच तक होता है। (4) पोथो । बीच से सिली हुई।
पोथी और पोथो में अन्तर है। पोथी के पन्ने अपेक्षाकृत आकार में छोटे और संख्या में कम होते हैं । पोथो में इससे विपरीत बात है। (5) पानावली । यह बहीनुमा होती है। लम्बाई अधिक और चौड़ाई कम । चौड़ाई
वाले सिरे से सिलाई की गई होती है। इसे बहीनुमा पोथी भी कभी-कभी कह दिया जाता है। (6) पोथियां । पुस्तक की भांति लम्बाई या चौड़ाई की ओर से सिला हुआ।
इसमें और पोथी में सिलाई का अन्तर है । पोथियाँ प्रायः संकलन ग्रन्थ होते हैं, अथवा अनेक रचनाओं को एकत्र कर लिया जाता है, बाद में उन सबको एक साथ बड़े ग्रन्थ के रूप में सिलवा लिया जाता है। इन सिले ग्रन्थों का लिपिकाल प्रायः भिन्न-भिन्न ही होता है।
कौनसा प्रकार कितना उपयोगी है, इसको समझने के लिए उसका उद्देश्य जानना जरूरी है।
ऊपर जो प्रकार बताये गये हैं, उन्हें वस्तुतः दो बड़े वर्गों में रखा जा सकता है । (क) ग्रन्थ प्रकार
(2) पत्रों के रूप में
. जिल्द के रूप में . 1-खुले पत्रों के रूप में
पोथो पोथी गुटका 2-बीच में छेद वाले डोरी-ग्रंथि युक्त 1-इनका प्रचलन सोलहवीं शताब्दी के उत्त
लम्बाई
लम्बाई-चौड़ाई रार्द्ध से विशेष हुआ लगता है । जैनों के
चौड़ाई में लम्बाई अतिरिक्त इसके पश्चात् जन-साधारण में
बराबर अपेक्षाकृत और अन्यत्र यही रूप विशेष प्रचलित
अधिक रहा । संख्या में सर्वाधिक यही मिलते हैं। इसका विशेष उद्देश्यविशेषताएं :
पोथी: 1-घरू (1) इनमें पृष्ठ-संख्या लगाने की पद्धति : 2-सम्प्रदाय-पीठ, मन्दिर (एक शब्द (क) बाय हाथ की पोर हाशिये में में धार्मिक संख्या विशेष) के लिए
सबसे ऊपर किन्तु 'श्री गणेश' 3-पीढ़ी के लिए सामूहिक रूप से
भाग से हटकर कुछ नीचे, तथा । भविष्य की पीढियों के लिए (ख) उसी पन्ने के द्वितीय भाग (पृष्ठ पोथी : ऊपर दी गयी बातों के अतिरिक्त
2) में दायें हाथ की अोर नीचे। (i) भेंटस्वरूप देने के लिए
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/165
(2) नाम लिखने की पति :
(ii) बेचने के लिए (क) जहाँ पृष्ठ-संख्या लिखते थे उसके (iii) किसी के कहने पर दान में ठीक नीचे या ऊपर (सामान्यतः)
देने के लिए। किसी के कहने रचना के नाम का प्रथम अक्षर
पर लिखी गयी या बनायी (अपवादस्वरूप दो अक्षर भी)
गयी पोथी भी इसी वर्ग में लिखते थे। ऐसा साधारणतः
पायेगी। प्रथम पृष्ठ के बायें हाथ वाले (iv) अपने लिए। अंक के साथ ही किया जाता गुटका : उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त निम्नथा। दूसरे पृष्ठ के बायें हाशिये लिखित और: या दायें हाशिये में लिखी पृष्ठ- (i) पाठ के लिए संख्या के पास भी। यों रचना (ii) स्वाध्याय हेतु नाम हाशियों (केवल बायें ही) कुछ ऐसी प्रथा थी कि गुटके को
के बीच में भी लिखे मिलते हैं। सामान्यतः किसी को दिखाया या दिया (3) विशेष :
नहीं जाता था । किन्तु ऐसी वर्जना (क) एक पन्ने की संख्या एक ही उसी गुटके के लिए होती थी जिसमें
मानी जाती थी, आधुनिक धार्मिक भावना निहित होती थी, वैसे पुस्तकों में लिखी पृष्ठ-संख्या उसका खूब उपयोग होता था। की भाँति दो नहीं।
विशेष : इन सबमें गुटके के दोनों रूप विशेष (ख) पोथो, पोथी और गुटके में काम प्रचलित रहे।
पाने वाली पद्धति नीचे दी जा कारण : (1) सुविधा, (2) मजबूती एवं रही है।
(3) संक्षेप लघु आकार । फलतः सैकड़ों गुटके मिलते हैं। शेष दो रूप (पोथो एवं पोथी) भी मिलते
हैं, पर अपेक्षाकृत कम । विशेष उपयोगिता :
इन सब कारणों के अतिरिक्त इनकी कुछ और उपयोगिताएँ भी थीं, यथा1-राजस्थान के राजघराने में पठन-पाठन
के लिए, संग्रह के लिए। 2-राजपूत राजघराने से विशेष रूप से
सम्बन्धित चारण आदि जातियों में परम्परा सुरक्षित रखना और व्यवसाय
की प्रतिष्ठा के लिए। 3-भाटों में........दहेज में, गोद लेने पर, विशेष अवसर पर भेंट या प्रसन्नता के
प्रतीक के रूप में दिये जाने के लिए। 4-नाथों में 5-जनों में-तथा,
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166/पाण्डुलिपि-विज्ञान
6-घनिष्ठ मित्रों आदि में आपस में दिये
जाते थे-उदाहरणार्थ(धर्म-भाई बनाते समय, धर्म-बहिन बनाते
समय, पवित्र स्थानों में) ... पोथो, पोयी, गुटका
इनमें भी पृष्ठ संख्या लगाने की पद्धति भी उपरिवत् है, प्रकार में यत्किचत् भेद है। इन तीनों में ही 'लेजर' की भांति 'फोलियो' संख्या रहती है। हमें 'फोलिया' शब्द ग्रहण कर लेना चाहिए। पृष्ठ संख्या की पद्धति : 1. बायें पन्ने के ऊपर प्रारम्भिक पंक्ति के बराबर या उससे कुछ नीचे संख्या दी जाती
है। यही संख्या दायें पन्ने के दायें हाशिये के ऊपर इसी प्रकार लगाई जाती है।
इनमें संख्या सामान्यतः ऊपर की ओर ही देने की परिपाटी रही है । 2.
दूसरा रूप इस प्रकार है : बायें पन्ने के ऊपर (उपरिवत्) तथा दायें पन्ने के दायें हाशिये में नीचे की ओर । यह पद्धति विशेष सुविधाजनक रहती है। एक ओर के किनारे नष्ट होने पर भी शेषांश बचा रहने पर इस संख्या का पता लगाया जा सकता है। पृष्ठ संख्या (फोलियो संख्या से तात्पर्य है) पोथो, पोथी, गुटका आदि में कहाँ तक दी जाय, इसके लिए दो परिपाटियाँ रही हैं(क) आदि से लेकर बीच की सिलाई के दायें पन्ने तक । . (ख) आदि से लेकर अन्तिम पन्ने तक । विशेष : (ख) में दी गयी स्थिति में यदि अन्त में एक ही पन्ना हो और वह बायाँ
हो सकता है, तो भी उसी ढंग से संख्या दी जाती थी। इसकी
गणना ठीक उसी रूप में की जाती थी जिसमें शेष 'फोलियो' की। इनमें भी रचना का प्रथम अक्षर संख्या के नीचे लिखा रहता है किन्तु केवल बायें पन्ने की संख्या के नीचे ही । इन तीनों के विषय में ये बातें विशेष रूप से लागू होती हैं :(क) यदि संकलन-ग्रन्थ है, तो भिन्न रचना का नाम (उसका प्रथम अक्षर लिखा
जायेगा)। (ख) यदि हरजस, पद आदि विषयक ग्रन्थ है (जो संकलन ही है) तो उसमें 'ह०'
या 'भ०' (भजन), गी० (गीत) आदि लिखा मिलता है। (ग) यदि एक ही रचना है, तो स्वभावतः उसी के नाम का प्रथम अक्षर लिखा
जायेगा। सिलाई 1. पत्राकार पुस्तकों में
(क) खुले पत्रों के रूप में (स्त्र) बीच में छेद वाले रूप में
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पाण्डुलिपियों के प्रकार / 167
(क) खुले पन्नों वाली पुस्तकों की तो सिलाई का प्रश्न नहीं उठता। पन्ने क्रमानुसार सजाकर किसी बस्ते में बाँधे जाते थे । पुस्तक के ऊपर-नीचे विशेषतः लकड़ी की और गौणतः पत्तों के उसके पन्नों से कुछ बड़ी आकार की पटरियाँ लगा दी जाती थीं । इससे पन्नों की सुरक्षा होती थी । इसको भगवे, पीले या लाल रंग के वस्त्र से लपेट कर रखते थे । यह वस्त्र दो प्रकार का होता था :
2.
(1) बुगचा -- यह तीन प्रोर से सिला हुआ होता था, चौथे कोने में एक मजबूत डोरी भी लगी रहती थी । पटरियों सहित पुस्तक को इसमें रखकर डोरी से लपेट कर बांध दिया जाता था ।
(2) चौकोर वस्त्र - इस कपड़े से बाँध दिया जाता था ।
(ख) बीच में छेद वाली खुले पन्नों की पुस्तकें अपेक्षाकृत कम मिलती हैं । प्रतीत होता ताड़पत्र-ग्रन्थों की यह नकलें हैं । इस प्रकार की हस्तप्रति में प्रत्येक पन्ने के दोनों र ठीक बीच में एक ही आकार-प्रकार का फूल बना दिया जाता था । अनेक में केवल एक पैसे (पुराने ताँबे के पैसे) के बराबर रंगीन गोला बना रहता था । इन ग्रन्थों में पन्नों की लम्बाई-चौड़ाई सावधानीपूर्वक एकसी रखी जाती थी । सब ग्रन्थ लिखे जाने के बाद उसके पन्नों में छेद करके रेशमी या ऊन की डोरी उनमें पिरो दी जाती थी । इस प्रकार इन्हें बाँध कर रखा जाता था। ऐसे ग्रन्थ सामान्यतः दूसरों को देने के लिए न होकर धर्म के स्थान - विशेष अथवा परिवार या व्यक्तिविशेष के निजी संग्रह के लिए होते थे । इनके लिखने और रखने तथा प्रयुक्त करने में सावधानी और सतर्कता बरतनी पड़ती थी । व्यय भी अधिक होता था । यही कारण है कि ऐसे ग्रन्थ कम मिलते हैं ।
पोथो, पोथी, गुटका :
पुराने समय के जितने भी ऐसे ग्रन्थ देखने में प्राये हैं (डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने बीस हजार के लगभग ग्रन्थ देखकर यह निष्कर्ष निकाला है कि वे सभी वीच से सिले हुए मिलते हैं । इनके दो रूप हैं :
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1- एक जैसे आकार के पन्नों को लेकर, उन्हें बीच से मोड़कर बीच से सिलाई की जाती थी ।
पहले 100 पन्ने
दूसरे 100 पन्ने तीसरे 100 पन्ने
2 - क्रमश: (चौड़ाई की ओर से) घटते हुए आकार के पन्ने लगाना ।
(1) ग्रन्थ के बड़ा होने के कारण या तथा ( 2 ) लम्बाई अधिक होने के कारण ऐसा किया जाता था । उदाहरणार्थ --
1 फुट के
10 इंच (या 10 या 11") के
8 इंच के
ऐसे ग्रन्थ अपेक्षाकृत कम मिलते हैं, किन्तु यह पद्धति वैज्ञानिक है । ऐसे एक ग्रन्थ का उपयोग डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने डी० लिट्० की थीसिस में किया है । (3) सिलाई मजबूत रेशमी या बहुधा सुत की बटी हुई डोरी से होती थी । गाँठ वाला अंश प्रायः इनके बीच में लिया जाता था । यदि ग्रन्थ बड़ा हुआ तो मजबूती
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168/पाण्डुलिपि-विज्ञान
के लिए सिलाई के प्रत्येक छेद पर धागा पिरोने से पूर्व कागजों, गत्तों या चमड़ों का एक गोल आकार का अंश काटकर लगाते थे। ऐसा दोनों ओर भी किया जाता था और एक अोर भी किया जाता था । इसी को 'नथि' कहते हैं । ज्ञातव्य है कि जिन ग्रन्थों में लिपिकार की (या जिनके लिए वह तैयार किया गया हैउनकी) किसी प्रकार की धर्मभावना निहित होती थी तो चमड़े का उपयोग कभी नहीं किया जाता था। ऐसे ग्रन्थों की सिलाई के सम्बन्ध में दो बातें हैं : (क) पहले सिलाई करके फिर ग्रन्थ लेखन करना, (ख) पहले लिखकर फिर सिलाई करना । दूसरे के सम्बन्ध में एक बात और है ।
मान लीजिए कभी-कभी प्रारम्भ के 10 बड़े पन्नों पर रचना लिख ली गई। तत्पश्चात् और अधिक रचनाओं के लिखने का विचार हुआ और उनको भी लिखा गया । अब सिलाई में प्रारम्भ के 10 बड़े पन्ने दो भागों में विभक्त होंगे। प्रथम 5 का अंश आदि में रहेगा और शेषांश सिलाई के मध्य भाग के पश्चात् । अतः यदि किसी ग्रन्थ के आदि भाग में कोई रचना अपूर्ण हो,
और बाद में उसी ग्रन्थ में उसकी पूर्ति इस रूप में मिल जाये तो प्रक्षिप्त नहीं
मानना चाहिए। 3-आदि और अन्त के भाग में (प्रायः विषम संख्या के-5, 7, 9, 11) पन्ने अति
रिक्त लगा दिये जाते थे । इसके ये कारण थे :(क) मजबूती के लिए प्रादि और अन्त में कुछ कोरे पन्ने रहने से लिखित पन्ने
सुरक्षित रहते हैं। (ख) यदि रचना पूरी न लिखी जा सकी हो तो सम्भावित छूटे हुए अंश को लिखने
के लिए। (ग) लिपिकार, स्वामी, उद्देश्य आदि से सम्बन्धित बातें लिखने के लिए,
उदाहरणार्थ :(अ) कभी-कभी कोई ग्रन्थ बेचा भी जाता था । अन्त के पन्नों में या कभी आदि
के पन्नों में भी उसका सन्दर्भ रहता था। गवाहों के भी नाम दिये जाते
थे । बेचने की कीमत, मिति और संवत् का उल्लेख होता था । . (ब) यदि भेंटस्वरूप दिया गया, तो अवसर का, स्थान का, कारण का उल्लेख
रहता था। इन व्यवहारों को सूचित करने के लिए भी कुछ पन्ने कोरे छोड़े जाते थे। इन छूटे हुए या अतिरिक्त कोरे पन्नों के सम्बन्ध में ये बातें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं :(क) यदि कोई रचना अधूरी रह गई, तो प्रायः उसकी पूर्ति प्रारम्भ के पन्नों
से की जाती थी। ऐसा करने में कभी-कभी आदि के भी तीन-चार या कम-बेशी पन्ने खाली रह जाते थे । हस्त-ग्रन्थों के विद्यार्थी और पाठक को इस पर विशेष ध्यान देना चाहिये।
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/169
(ख) किसी रचना का बाद में मिला हुआ कोई अंश भी इनमें लिखा जाता
था, भले ही ऐसा कम ही किया जाता था। (ग) ग्रन्थ में जिस कवि/लेखक की रचना लिपिबद्ध होती थी, प्रायः उसकी __ कोई अन्य रचना बाद में मिलती थी तो वह इन पन्नों में लिखी
जाती थी। शिलालेख :प्रकार
ग्रन्थों के बाद हस्तलेखों की दृष्टि से शिलालेखों का स्थान प्राता है । शिलालेख भी कितने ही प्रकार के माने जा सकते हैं :1. पर्वतांश पर लेख (पर्वत में लेखन-योग्य स्थान देखकर उसे ही लेखन-योग्य बनाकर
शिला-लेख प्रस्तुत किया जाता है ।) ये शिला-लेख एक स्थान से दूसरे स्थान पर
नहीं ले जाये जा सकते। 2. गुफाओं में पर्वतांश पर खुदे शिला-लेख । ये भी अन्यत्र नहीं ले जाये जा सकते । 3. पर्वत से शिलाएँ काटकर उन पर अंकित लेख । ये शिलाएँ एक स्थान से दूसरे
स्थान पर ले जायी जा सकती हैं। स्तम्भों या लाटों पर लेख । वरिणत विषय के आधार पर इन लेखों के कई भेद किए जा सकते हैं : 1. राजकीय आदेश विषयक शिला-लेख, 2. दान विषयक शिला-लेख, 3. किसी स्थान निर्माण के अभिप्राय तथा काल के द्योतक शिला-लेख, तथा . 4. किसी विशेष घटना के स्मरण-लेख ।
शिला-लेख सभी खुदे हुए होते हैं, किन्तु कुछ में खुदे अक्षरों में कोई काला पत्थर या सीसा (lead) या अन्य कोई पदार्थ-मसाला भरकर लेख प्रस्तुत किये जाते हैं । ऐसा विशेषतः संगमरमर पर खुदे अक्षरों में किया जाता है।
ये सभी इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होते हैं । पर्वतीय शिला-लेख अचल होते हैं, अतः इन शिला-लेखों की छापें पाण्डुलिपि-यालय में रखी जाती हैं । जो शिला-लेख उठाये जा सकते हैं, वे मूल में ही ले जाकर हस्तलेखागार या पाण्डुलिपि-यालय में रखे जाते हैं।
छाप लेना : इनकी छाप लेने की प्रक्रिया यहाँ दी जाती है। यह पं० उदयशंकर शास्त्री के लेख से उद्धृत की जा रही है। . प्रारम्भ में इन शिलालेखों को पढ़ने के लिये अक्षरों को देखकर उनकी नकलें तयार की जाती थीं और फिर उन्हें पढ़ने का कार्य किया जाता था । इस पद्धति से अक्षर का परा स्वरूप पाठक के सामने नहीं आ पाता था, और इसीलिये कभी-कभी भ्रम भी हो जाया करता था । कभी-कभी परिस प्लास्टर की सहायता से भी छाएँ (Estampage) तैयार की गई, पर उनमें अक्षर की पूरी प्राकृति उभर नहीं पाती थी। अक्षर की पूरी गोलाई, मोटाई, उसके घुमाव, फिराव के लिये यह आवश्यक है कि जिस स्थान (शिला अथवा ताम्रपट्ट) पर वह उत्कीर्ण हो उस पर छाप ली जाने वाली चीज पूरी तरह से
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170/पाण्डुलिपि-विज्ञान
चिपक सके । इसके लिये अब सबसे सुविधाजनक कागज उपलब्ध है, जिसे भारत सरकार जूनागढ़ से मंगवाती है। लेख वाले स्थान को पहिले साफ पानी से अच्छी तरह धोकर साफ कर लेना चाहिये ताकि अक्षरों में धूल, मिट्टी या और किसी तरह की कोई चीज भरी न रह जाये। फिर कागज को पानी में अच्छी तरह भिगोकर चिपका देना चाहिये, फिर उसे मुलायम ब्रश से पीटना चाहिये, जिससे अक्षरों में कागज अच्छी तरह चिपक , जाये । उसके बाद एक कपड़ा भिगोकर कागज के ऊपर लगादें और उसे कड़े ब्रश से पीटपीट कर कागज को और चिपका दें। इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि लेख पर कागज चिपकाते समय लेख और कागज के बीच में बुलबुले (Bubbles) न उठने पावें, और यदि उठ जायें तो उन्हें ब्रश से पीट-पीटकर किनारे पर कर देना चाहिए अन्यथा अक्षर पर कागज ठीक चिपक न सकेगा। पीटते समय यदि कहीं से कागज फट जाये तो उसके ऊपर तुरन्त ही कागज का दूसरा टुकड़ा भिगोकर लगा देना चाहिये । थोड़ा पीट देने से कागज पहले वाले कागज में अच्छी तरह चिपक जायेगा । जब कागज अच्छी तरह से अक्षरों में घुस जाये तब ऊपर का कपड़ा उतार कर मुलायम ब्रुश से फिर इधर-उधर उठ गई फुटकियों को सुधार लेना चाहिये । अब थोड़ी देर तक कागज को हवा लगने छोड़ देना चाहिये जिससे कि कागज सूख जाये । फिर एक तश्तरी में कालिख (Black Japan) घोल कर डैबर की सहायता से लेख की पंक्तियों पर क्रमशः लगा देना चाहिये । यह ध्यान रखना चाहिये कि किसी पंक्ति पर धब्बा न आने पाये अन्यथा अक्षर धुधला पड़ जायेगा और उसकी आकृति स्पष्ट न हो सकेगी, कागज पर जब रोशनाई ठीक से लग जाये तब उसे सावधानी से उतार कर सुखा लेना चाहिये । आजकल कालिख को घोल कर लगाने के बजाय कोई-कोई सूखा ही लगाते हैं। पर उससे छाप (Estampage) में वह चमक नहीं आ पाती जो गीले काजल में आती है।
. यह पद्धति उन लेखों के लिए है जो गहरे खोदे हुए होते हैं, पर उर्दू आदि के उभरे हुए लेखों के लिए अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है अन्यथा कागज फट जाने की बहुत सम्भावना रहती है।
साधारणतया छाप तैयार करने के लिए यह मामग्री अपेक्षित होती है1. तिरछे लम्बे ब्रुश (Bent bar Brush) 2 । 2. एक गज सफेद हल्का कपड़ा। 3. स्याही घोलने के लिये तश्तरी। 4. एक डंबर (Dabbar) स्याही मिलाने के लिये। 5. एक डैबर बड़ा (लेख पर स्याही लगाने के लिये)। 6. जूनागढ़ी कागज (इसके अभाव में भी छाप लेने का काम मामूली कागज से
लिया जा सकता है, पर कागज चिकना कम होना चाहिये)। 7. चाक । 8. नापने के लिये कपड़े का फीता या लोहे का फुटा (यदि यह सब सामान एक
छोटे सन्दूक में रखा जा सके तो यात्रा में सुविधा रहेगी) भारतीय लिपियों व शिला-लेखों का अनुसन्धान करने वालों को अग्रलिखित साहित्य देखना चाहिये
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/171
एपिग्राफिया इंडिका । एपिग्राफिया इंडोमुसोलोमिका । एपिग्राफिया करनाटिका । इंडिशेपैलियोग्राफी, जार्ज ब्यूलर । इंडियन एण्टिक्वरी।
‘ए थ्योरी प्रॉफ प्रोरिजिन ऑव दी नागरी अल्फाबेट' शामा शास्त्री का लेख, इंडियन एण्टीक्वरी,
___ मा० 25, पृ० 253-321 । पेलियोग्राफिक नोट्स, भंडारकर अभिनन्दन ग्रन्थ में विष्णु सीताराम सुकथनकर का लेख
पृ० 309-322 । आउटलाइन्स प्रॉव पैलियोग्राफी, एच० आर० कापड़िया का लेख, जर्नल मॉव द यूनिवर्सिटी प्रॉव बाम्बे, आर्ट एण्ड लेटर्स सं० 12, जि० 6 सन् 1938, पृ० 87-110 ।
ए डिटेल्ड एक्सपोजिशन ऑफ दी नागरी, गुजराती एण्ड मोडी स्क्रिप्टस, एच० आर० कापडिया का लेख, भंडारकर अोरियण्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट की पत्रिका
भा० 19, 3 (1938) पृ० 386-418 । जैन-चित्र-कल्पद्रुम, भूमिका, मुनि पुण्य विजयजी ।
अहमदाबाद । भारतीय प्राचीन लिपिमाला, म० म० पंडित गौरीशंकर हीराचन्द अोझा
अजमेर। ओरिजन व दी बंगाली स्क्रिप्ट, राखालदास वन्द्योपाध्याय कलकत्ता। इंडियन पेलियोग्राफी, भाग-1, डॉ० राजबली पाण्डेय
काशी। दी अल्फावेट, डी० डिरिंगर
लंडन । हिन्दी विश्व कोश (श्री नगेन्द्रनाथ वसु रचित) का 'अक्षर' शब्द कलकत्ता। अशोक इंस्कृप्शनम इंडिकेरूम, हुल्श,
लंडन । अशोक इंस्कृप्शनम इंडिकेरूम, कनिंघम
कलकत्ता। गुप्त इंस्कृप्शनम, जे० एफ० फ्लीट..
कलकत्ता। अशोक की धर्मलिपियां, अोझा, श्यामसुन्दर दास
काशी। प्रियदर्शी प्रशस्तयः, म०म० रामावतार शर्मा
पटना। सेलेक्ट इंस्कृप्शन्स, डी० सी० सरकार
कलकत्ता। कलचुरी इंस्कृप्शन्स, वी०वी० मिराशी
उटकमण्डप क : अन्य प्रकार के लेख :
ताम्र, रोण्य, सुवर्ण, कांस्य आदि के पत्र भी ऐसे ही कामों में पाते हैं जैसे शिलालेख आते हैं । ये धातुपत्र एक विशेष उपयोग में भी लाये जाते हैं। वह है किसी के सम्मान में 'प्रशस्ति' लेखन । यह प्रथा तो अाधुनिक युग में भी प्रचलित है। कई संस्थानों ने विशिष्ट व्यक्तियों के सम्मान में उनकी यशःप्रशस्ति खुदवाकर ताम्रपत्रादि भेंट किये हैं। 1. शास्त्री. उदयशंकर (पं०)-थिला-खेखा और उनका वाचन, भारतीय साहित्य (जनवरी, 1959),
पृ. 132-1341
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172/पाण्डुलिपि-विज्ञान पत्र-चिट्ठी पत्री :
यों तो सभी व्यक्तियों की लिखी चिट्ठी-पत्री को पाण्डुलिपि या हस्तलेख माना जा सकता है, पर पाण्डुलिपिकारों की दृष्टि से किसी न किसी ऐतिहासिक महत्त्व की चिट्ठीपत्री को ही पाण्डुलिप्यागारों में स्थान दिया जा सकता है ये पत्र कई प्रकार के हो सकते हैं, यथा,
राजकीय व्यवहार के पत्र : ये पत्र परस्पर राजकीय उद्देश्य से लिखे जाते हैं । इनसे तत्कालीन राजकीय दृष्टि और मनोवृत्ति पर प्रभाव पड़ता है, और ऐतिहासिक घटनाओं का भी इनमें उल्लेख रह सकता है, तथा ये स्वयं किन्हीं राजकीय घटनाओं का कारण बन सकते हैं। -: राजकीय व्यक्तियों के निजी और घरेलू पत्रा इन पत्रों से उन व्यक्तियों की निजी और स्वयं तथा नाते-रिश्ते सम्बन्धी वार्ता पर प्रकाशः पड़ता है। कभी-कभी ये राजकीय घटनाओं की महत्त्वपूर्ण पृष्ठभूमि या भूमिका भी प्रस्तुत कर सकते हैं। इन पत्रों का एक वर्ग अपनी पत्नी या प्रेमिका को लिखे गये या उनसे मिले पत्रों का भी हो सकता है। इनमें एक वर्ग उन पथों का हो सकता है जिनसे घरेलू समस्याओं पर प्रकाश पड़ता हो ।
निम्नलिखित प्रकार के पत्र भी संग्रहणीय हो सकते हैं :साहित्यकारों-कलाकारों के पत्र बड़ी-बड़ी फर्मों के पत्र सफल व्यापारियों के व्यावसायिक पत्र सफल व्यापारियों के निजी पत्र राजनेताओं तथा अन्य महान् प्रात्माओं के पत्र, सार्वजनिक व निजी
इसी प्रकार अन्य कोटि के महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक-पत्र भी पाण्डुलिपि की कोटि में रखे जा सकते हैं। कुछ अद्भुत लेख :
कौशल दिखाने के लिए ऐसे लेख भी लिखे गये हैं जो सीप, हाथीदांत, चावल तथा अन्य ऐसे ही पदार्थों पर हों । वस्तुतः ये 'अद्भुतालय' (Museum) में रखने की वस्तुएँ हैं। पर पाण्डुलिपि के क्षेत्र में तो परिगणनीय हैं ही।
मिट्टी, चीनी या धातुओं के विविध पत्रों पर अंकित कोई लेख, जो छोटा या 2-4 अक्षरों का ही क्यों न हो, पाण्डुलिपि माना जायेगां ।
इसी प्रकार विविध सिक्के भी जिन पर काई अभिप्राय या लेख या वृत्त (Legend) अंकित हैं, पाण्डुलिपि हैं।
मिट्टी के खिलौने या साँचे भी जिनमें कोई वृत्त अंकित हो, पांडुलिपि है ।
पत्थर, धातु या अन्य प्रकार की वे मूर्तियां जिन पर लेख है, पांडुलिपि मानी जायेंगे।
ऐसे ही वस्त्राभूषण, अंगूठियाँ, पर्दे, पट-कथा के पट, जिन पर लिपि में कुछ हो ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि किसी भी प्रकार के 'लिप्यासन' (लिपि का पासन) पर लिपि-रचना पांडुलिपि की कोटि में आयेगी।
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पाण्डुलिपियों के प्रकार 173
उपसंहार
पाण्डुलिपि के कितने ही प्रकारों की विस्तृत चर्चा ऊपर की गयी है। इनमें नत्थियों एवं चिट्ठी-पत्रियों का विस्तृत विवेचन नहीं किया गया। इनका विवेचन आधुनिक पाण्डुलिपि पुस्तकालयों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। किन्तु यह विषय इतना विशद् भी है कि प्रस्तुत पुस्तक के दूसरे खण्ड को जन्म दे सकता है।
___यहाँ तक जितना विषय चर्चित हुआ है, उतना स्वयमेव एक पूरे विज्ञान का एक पूरा पक्ष प्रस्तुत कर देता है । अतः इतनी चर्चा ही इस अध्याय के लिए पर्याप्त प्रतीत होती है।
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अध्याय 5
लिपि-समस्या
महत्त्व :
पाण्डुलिपि-विज्ञान में लिपि का बहुत महत्त्व है। लिपि के कारण ही कोई चिह्नित वस्तु हस्तलेख या पाण्डुलिपि कहलाती है । 'लिपि' किसी भाषा को चिह्नों में बांधकर दृश्य कोर पाठ्य बना देती है। इससे भाषा का वह रूप सुरक्षित होकर सहस्राब्दियों बाद तक पहंचता है जो उस दिन था जिस दिन वह लिपिबद्ध किया गया । विश्व में कितनी ही भाषाएं हैं, और कितनी ही लिपियां हैं। पाण्डुलिपि-विज्ञान के अध्येता के लिए और पाण्डुलिपि-विज्ञान-विद् बनने वालों के समक्ष कितनी ही लिपियों में लिखी गयी पाण्डुलिपियाँ प्रस्तुत हो सकती हैं । पुस्तक की अन्तरंग जानकारी के लिए उन पुस्तकों की लिपियों का कुछ ज्ञान अपेक्षित है । वस्तुतः विशिष्ट लिपि का ज्ञान उतना आवश्यक नहीं जितना उस वैज्ञानिक विधि का ज्ञान अपेक्षित है जिससे किसी भी लिपि की प्रकृति और प्रवृत्ति का पता चलता है । इस ज्ञान से हम विशिष्ट लिपि की प्रकृति और प्रवृत्ति जानकर अध्येता के लिए अपेक्षित पाण्डुलिपि का अन्तरंग परिचय दे सकते हैं । अतः लिपि का महत्त्व है, किसी विशेष यूग या काल के विशेष दिन की भाषा के रूप को पाठ्य बनाने के लिए सुरक्षित करने की दृष्टि से एवं इसलिए भी कि इसी के माध्यम से पाण्डुलिपि-विज्ञानार्थी वैज्ञानिक विधि से पुस्तक के अन्तरंग का अपेक्षित परिचय निकाल सकता है, अतः आज भी लिपि का महत्त्व निर्विवाद है, वह चाहे पुरानी से पुरानी हो या अर्वाचीन । लिपियाँ :
विश्व में कितनी ही भाषाएँ हैं और कितनी ही लिपियाँ हैं । भाषा का जन्म लिपि से पहले होता है, लिपि का जन्म बहुत बाद में होता है। क्योंकि लिपि का सम्बन्ध चिह्नों से है, चिह्न 'अक्षर' या 'अल्फाबेट' कहे जाते हैं। ये भाषा की किसी ध्वनि के चिह्न होते हैं । अतः लिपि के जन्म से पूर्व भाषा-भाषियों को भाषा के विश्लेषण में यह योग्यता प्राप्त हो जानी चाहिये कि वे जान सके कि भाषा में ऐसी कुल ध्वनियां कितनी हैं जिनसे भाषा के सभी शब्दों का निर्माण हो सकता है । भाषा का जन्म वाक्य रूप में होता है । विश्लेषक बुद्धि का विकास होने पर भाषा को अलग-अलग अवयवों में बाँटा जाता है । उन अवयवों में फिर शब्दों को पहचाना जाता है। शब्दों को पहचान सकने की क्षमता विश्लेषक-बुद्धि के और अधिक विकसित होने का परिणाम होती है। 'शब्द' अर्थ से जुड़े रहकर ही भाषा का अवयव बनते हैं । संस्कृति और सभ्यता के विकास से 'भाषा' नये अर्थ, नयी शक्ति और क्षमता तथा नया रूपांतरण भी प्राप्त करती हैं । संशोधन, परिवर्द्धन, आगम, लोप और विपर्यय की सहज प्रक्रियाओं से भाषा दिन-ब-दिन कुछ से कुछ होती चलती है । इस प्रक्रिया में उसके शब्दों में भी परिवर्तन पाते हैं, तद्नुकूल अर्थ-विकार भी प्रस्तुत होते हैं । अब 'शब्द' का महत्त्व हो उठता है। शब्द की इकाइयों से उनके 'ध्वनि-तत्त्व' तक सहज ही पहुँचा जा सकता है । यह आगे का विकास है। ध्वनियों के विश्लेषण से किसी भाषा की आधारभूत ध्वनियों का ज्ञान मिल सकता है । इस चरण पर पाकर ही 'ध्वनि' (श्रव्य) को दृश्य बनाने के लिए चिह्न की परिकल्पना की जा सकती है।
भाषा बोलना आने पर अपने समस्त अभिप्राय को व्यक्ति एक ऐसे वाक्य में बोलता
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लिपि-समस्या/175
है जिसके अवयवों में वह अन्तर नहीं करता होता है-यथा, वह कहता है
(i) “मैंखानाखाताहूँ"
यह पूरा वाक्य उसके लिए एक इकाई है। फिर उसे ज्ञान होता है अवयवों का। यहाँ पहले विकास के इस स्तर पर दो अवयव ही हो सकते हैं, (i) 'मैं' तथा (ii) खाना खाता है। इस प्रकार उसे भाषा में दो अवयव मिलते हैं-अब वह अन्य अवयवों को भी पहचान सकता है । इन अवयवों के बाद वह शब्दों पर पहुँचता है, क्योंकि जैसे वह अपने लिए 'मैं' को अलग कर सका, वैसे ही वह खाद्य पदार्थ के लिए 'खाना' शब्द को भी अलग कर सका-अब वह जान गया कि मैंने चार शब्दों से यह वाक्य बनाया था
___1 2 3 4 (iii) मैं खाना खाता हूँ
सांस्कृतिक विकास से उसमें यह चेतना आती है कि ये शब्द ध्वनि-समुच्चय से बने हैं । इनमें ध्वनि-इकाइयों को अलग किया जा सकता है-यहीं ध्वनि में स्वर और व्यंजन का भेद भी समझ में आता है । अब वह विकास के उस चरण पर पहुँच गया है जहाँ अपनी एक-एक ध्वनि के लिए एक-एक चिह्न निर्धारित कर वर्णमाला खड़ी कर सकता है । यहीं लिपि का जन्म होता है : हमारी लिपि में उक्त वाक्य के लिपि चिह्न ये होंगे :-मैं-म+ + /खाना-ख++न+T/खाता-ख+T+त+/हूँ=ह + + ।
ये लिपि चिह्न भी हमें लिपि विकास के कारण इस रूप में मिले हैं। चित्र-लिपि :
किन्तु वर्णमाला से भी पहले लेखन या लिपि का आधार चित्र थे। चित्रों के माध्यम से मनुष्य अपनी बात ध्वनि-निर्भर वर्णमाला से पहले से कहने लगा था। चित्रों का संबंध ध्वनि या शब्दों से नहीं वरन् वस्तु से होता है । चित्र वस्तु की प्रतिकृति होते हैं । भाषावह भाषा जिसका मल भाषण या वाणी है, इस भाषा से पूर्व मनुष्य 'संकेतों से काम लेता था । संकेत का अर्थ है कि मनुष्य जिस वस्तु को चाहता है उसका संकेत कर उसके उपयोग को भी संकेत से बताता है-यदि वह लड्डू खाना चाहता है तो एक हाथ की पाँचों उंगलियों के पोरों को ऊपर ऐसे मिलायेगा कि हथेली और अंगुलियों के बीच ऐसा गोल स्थान हो जाये कि उसमें एक लडडू समा सके, फिर उसे वह मुंह से लगायेगा--इसका अर्थ होगा-'मैं लड्डू खाऊंगा'। इसमें एक प्रकार से चित्र प्रक्रिया ही कार्य कर रही है । हाथ की आकृति लड्डू का चित्र है, उसे मुख से लगाना लड्डू को मुंह में रखने का चित्र है । गूगों की भाषा चित्र-संकेत-भाषा है।
मनुष्य ने चित्र बनाना तो आदिम से आदिम स्थिति में ही सीख लिया था। प्रतीत यह होता है कि उन चित्रों का वह पानुष्ठानिक टोने के रूप में प्रयोग करता था ।
फिर वह चित्र बनाकर अन्य बातें भी दर्शित करने लगा। इस प्रयत्न से चित्रलिपि का प्रारम्भ हुआ । इस प्रकार से देखा जाये तो चित्रलिपि का आधार वाणी, बोली या भाषा नहीं, वस्तुबिम्ब ही है। वस्तुबिम्ब को रेखाओं में अनुकूल करने से चित्र बनता है । आदिम अवस्था में ये रेखाचित्र स्थूल प्रतीक के रूप में थे। उसने देखा कि मनुष्य के सबसे ऊपर गोल सिर है, अतएव उसकी अनुकृति के लिए उसकी दृष्टि से चिह्न एक वृत्त ० होगा । यह सिर गरदन से जुड़ा हुआ है, गरदन कन्धे से जुड़ी है । यह उसे एक ' छोटी सीधी खड़ी रेखा-सी लगी । कन्धा भी उसे पड़ी सीधी रेखा के समान दिखायी दिया
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176/पाण्डुलिपि-विज्ञान
'-'। इसके दोनों छोरों पर दो हाथ जो कुहनी से मुड़ ५, सकते हैं और छोर पर पांच अंगुलियाँ अर्थात् प्रस्तुत चित्र। धड़ को उसने दो रेखाओं से बने डमरू के रूप में समझा क्योंकि कमर पतली, वक्ष और उरु चौड़े धड़ । कभी-कभी धड़ को वर्गाकार या आयताकार भी बनाया। नीचे पैर Y और टांगें। इन्हें बनाने के लिए दो आड़ी खड़ी रेखाएँ //' और एक दिशा में मुड़े पैर की द्योतक दो पड़ी रेखाएँ'-' '-' । मानव के बिम्ब का रेखानुकृति ने यह रूप लिया :
(चित्र-1) यह रेखा-चित्र तो प्रक्रिया को समझाने के लिए है यह रेखांकन की प्रक्रिया है जिसमें चित्र बनाने वाले की कुशलता से रूप में भिन्नता आ सकती है पर जो भी रूप होगा, वह स्पष्टतः उस वस्तु का बिम्ब प्रस्तुत करेगा, यथा
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(चित्र-2) आदिम मानव के बनाये चित्र हैं । वर्गाकार छड़ दृष्टव्य है।
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wrt komoti * * * * *
(चित्र-3) चित्रलिपि में मनुष्य के विविध रेखांकन सिन्धुघाटी की मुहरों की छापों से
नीचे दिये गए हैं । ये वास्तविक लिपि-चिह्न हैं ।
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लिपि-समस्या: 177
भागते कुत्ते को बताने के लिए वह कुत्ते को भागनं की मुद्रा में रेखांकित करने का प्रयत्न करेगा। भले ही उसके पास अभी कुत्ते के लिए वाणी या भाषा में कोई शब्द न हो, न भागने के लिए ही कोई शब्द हो । चित्रलिपि इस प्रकार भाषा के जन्म से पूर्व की संकेत लिपि की स्थानापन्न हो सकती थी। चित्रलिपि के लिए केवल वस्तुविम्ब अपेक्षित था।
इतिहास से भी हमें यही विदित होता है कि चित्रलिपि ही सबसे प्राचीन लिपि है। आनुष्ठानिक टोने के चित्रों से आगे बढ़कर उसने चित्रलिपि के माध्यम से वस्तुबिम्बों की रेखाकृतियां पैदा की तथा प्रानुष्ठानिक उत्तराधिकार में देवी-देवताओं के काल्पनिक मूर्तरूपों या बिम्बों की अनुकृतियों का उपयोग भी किया। मित्र की चित्रलिपि इसका एक अच्छा उदाहरण है। इसके सम्बन्ध में "एनसाइक्लोपीडिया ऑव रिलीजन एण्ड ऐथिक्स" में उल्लेख है कि चित्रमय प्रत्याभिव्यक्ति अपने आप में अभिव्यक्ति की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ थी। अभिव्यक्ति की यह प्रतिबन्धता विचार और भाषा के द्वारा प्रस्तुत की गई थी। इन प्रतिवन्धताओं के कारण बहुत पहले ही चित्रमय प्रत्याभिव्यक्ति दो भिन्न शाखाओं में बँट गयी । एक सजावटी कला और दूसरी चित्राक्षरिक लेखन (जर्नल ग्राव ईजिप्ट, आक्योलाजी, ii [19 15), 71-75)। इन दोनों शाखामों का विकास साथसाथ होता गया और एक-दूसरे से मिलकर भी निरन्तर विकास में सहायक होती गई । कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि एक ने दूसरे के क्षेत्र में भी हस्तक्षेप किया 11 . इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दो प्रक्रियामां के योग से मिस्र की प्राचीन लिपि अपना रूप ग्रहण कर रही थी । चित्रों से विकसित होकर ध्वनि के प्रतीक के रूप में लिपि का विकास एक जटिल प्रक्रिया का ही परिणाम हो सकता है । कारण स्पष्ट है कि 'चित्र' दृश्य वस्तुबिम्ब से जुड़े होते हैं । इन वस्तुबिम्बों का ध्वनि से सीधा सम्बन्ध नहीं होता है । वस्तु को नाम देन पर चित्र ध्वनि से जुड़ता है। पर नाम कई ध्वनियों से युक्त होता है, इधर ध्वनि-समुच्चय में से एक ध्वनि-विशेष को उस वस्तुबिम्ब के चित्र से जोड़ना और चित्र का विकास वर्ण (letter) के रूप में होना,-इतना हो चुकने पर ही ध्वनि और लिपि-वर्ण परस्पर सम्बद्ध हो सकेगे और 'लिपि-वर्ण' आगे चलकर .मात्र एक ध्वनि का प्रतीक हो सकेगा। यह तो इस विकास का बहुत स्थूल विवरण है। वस्तुतः इन प्रक्रियाओं के अंतरंग में कितनी ही जटिलताएँ गुंथी रहती हैं।
पर माज तो सभी भाषाएँ 'ध्वनि मूलक' हैं, किन्तु पांडुलिपि वैज्ञानिक को तो कभी प्राचीनतम लिपि का या किसी लिपि के पूर्व रूप का सामना करना पड़ सकता है। उसके सामन मिस्र के पेपीरस पा सकते हैं। साथ ही भारत में 'सिन्धु-लिपि' के लेख पाना तो बड़ा बात नहीं । सिन्धु की एक विशेष सभ्यता और संस्कृति स्वीकार की गयी है । नये अनुसन्धानों से 'सिन्धु-सभ्यता' के स्थल राजस्थान एवं मध्य भारत तथा अन्यत्र भी मिल रह है ओर उनकी विपि के लेख भी मिल रहे हैं । तो ये लेख कभी भी पांडुलिपि-वैज्ञानिक
1. Tho inability of pictorial represenation, as such, to meet all the exigencies of
expressibn imposed by thought and language early led to its bifurcation into inu two separate ranches of illustrative art and hieroglyphic writing (Journal oi Eyyit Arecholuyy, 11. (1915) 71-75). There two branches persued their Qeve foment pari passų and in constant combination with one another, and it not seldom happened that one of them encroached upon the domain of its feliow........."
-Encyclopaedia of Religion and Ethics (Vol.IX), p.787.
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178/पाण्डुलिपि-विज्ञान
के सामने आ सकते हैं । अतः यह अपेक्षित है कि वह विश्व में लिपियों के उद्भव व विकास के सिद्धान्तों से परिचित हो । चित्र
आदिम मानव ने पहले चित्र बनाए । चित्र उसने गुफाओं में बनाए । गुफाओं में ये चित्र अंधेरे स्थान में गुफा की भित्ति पर बनाये हुए मिलते हैं । इन चित्रों में वस्तु-बिम्ब को रेखाओं के द्वारा अंकित किया गया है। आदिम मानव के ये चित्र 20,0000 ई. पू. से 4000 ई. पू. के बीच के मिलते हैं।
इन चित्रों को बनाते-बनाते उसमें यह भाव विकसित हुआ होगा कि इन चित्रों से वह अपनी किसी बात को सुरक्षित रख सकता है और ये चित्र परस्पर किसी बात के सम्प्रेषण के उपयोग में लिए जा सकते हैं। इस बोध के साथ चित्रों का उपयोग करने से ही वे चित्र 'लिपि' का काम देने लगे । यह लिपि 'बिम्ब-लिपि' थी। कई वस्तु-बिम्बों को एक क्रम में प्रस्तुत कर, उनसे उनमें निहित गति या कार्य से भाव को व्यक्त करने का प्रयत्न किया गया । यह विम्ब-लिपि चित्रलिपि की आधारभूमि मानी जा सकती है।
___ जब मानव बहुत-सी बातें कहना चाहता था, वह उन्हें उस माध्यम से प्रस्तुत करना चाहता था, जो चित्रों के आभास से उसे मिल गया था। इसका परिणाम यह हुमा कि वस्तु-बिम्ब छोटे बनाए जाने लगे, जिससे बहुत-से बिम्ब-चित्र सीमित स्थान में आ सकें और उसकी विस्तृत बात को प्रस्तुत कर सकें।
अतः लेखन और लिपि के लिए प्रथम चरण है 1. बिम्ब-ग्रंकन देखिए---ये चित्र
दला ग्रेज : जंगली बैल (प्रस्तर युग)
da fairly done anthropo Meaning o'
1. यह चित्र 30,000 से 10,000 ई.पू. के हैं | Much research in this fteld has been done
in recent years, and we now have a fairly definite knowledge of the art of some of the most primitive of mon known to the anthropologist (from 30,000 to 10,000 B.C.).
-The Meaning of Art, p. 53.
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लिपि-समस्या/17?
बुशमैन-चित्र, दो शैलीबद्ध हिरण, ब्रण्डवर्ग, दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका
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'बनियावेरी गुफा' (पचमढ़ी-क्षेत्र) में गो-पंक्ति के ऊपर अंकित स्वास्तिक पूजा
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180/पाण्डुलिपि-विज्ञान
और दूसरा चरण है उससे संप्रेषण का काम लेना । इसे हम
2. बिब-लिपि का नाम दे सकते हैं।
इस चित्र से स्पष्ट है कि स्वस्तिक पूजा और छत्र-अर्पण के पूरे शान्तिमय भाव को प्रेषित करने के लिए, पूजा-भाव में पशुओं के मादर के समावेश की कथा को और पूजाविधान को हृदयंगम कराने के लिए चित्र-लेखक इस चित्र के द्वारा बिम्बों से संप्रेषित करना चाहता है । अतः यह लिपि का काम कर उठा है । यह लिपि ध्वनियों की नहीं, बिम्बों की है। छत्रधारी मनुष्य कितने ही हैं, अतः वे लघु प्राकृतियों में हैं।
'बिम्ब धीरे-धीरे रेखाकारों के रूप में परिवर्तित हो उठता है । तब हम इसे 3. रेखाकार चित्र-लिपि कह सकते हैं।
सहनर्तन, जम्बूद्वीप (पचमढ़ी)
आरोही नर्तक, कुप्पगल्लु
(बेलारी, रायचूर, द० भा० ) 4-तब, पागे बिम्ब-लिपि और रेखाचित्र-लिपि के संयोग से 'चित्रलिपि' प्रस्तुत
१.11.11
ऐरिजोना (अमेरिका) में प्राप्त चित्र लिपि, जो प्राचीनतम लिपियों में से एक है]
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/181 'चित्रलिपि' में प्रायः रेखाकारों में छोटे-छोटे चित्रों द्वारा संप्रषण सिद्ध होता था। इसी लिपि का नाम 'हिमरोग्लाफिक' लिपि है। यह मिस की पुरातन लिपि है। कैलीफोनिया और एरिजोना में भी चित्र लिपि मिली है। ये भी प्राचीनतम लिपियाँ मानी जाती हैं। ऐस्किमो जाति और अमेरिकन इण्डियनों की चित्र-लिपि को ही सबसे प्राचीन माना जाता है।
मिस्र के अलावा हिट्टाइट, माया (मय ?) और प्राचीन क्रीट में भी चित्रलिपि या हिअरोग्लाफ मिले हैं।
हिग्ररोग्लाफ का अर्थ मिस्री-भाषा में होता है, पवित्र अंकन', इसे यूनानियों ने 'दैवी शब्द' (Gods Words) भी कहा है । स्पष्ट है कि इस लिपि वा उपयोग मिस्र में धार्मिक अनुष्ठानों में होता रहा होगा।
इस चित्रलिपि का मिस्र में उदय 3100 ई० पू० से पहले हुना होगा।
पहले विविध वस्तु-बिम्बों के रेखाकारों को एकसाथ ऐसे संजोया गया कि उसका 'कथ्य-दृश्य' पाठक की समझ में पा जाय । इसमें जन-जन द्वारा मान्य बिम्ब लिए गये । ये चित्रलिपि कभी-कभी बहुत निजी उद्भावना भी हो सकती है, इस स्थिति में ऐसे चित्र प्रस्तुत किये जाते हैं जिनको प्राकृतियाँ सर्वमान्य नहीं होती।
फिर भी, इस भाषा में अधिकांश बहुमान्य बिम्ब प्राकृतियों का उपयोग ही होता है । इन्हीं के कारण यह लिपि इस रूप में आगे विकास कर सकी।
पहली स्थिति में एक बिम्ब-चित्र उस वस्तु का ही ज्ञान कराता था, जैसे 'O' यह बिम्बाकार सूर्य के लिए गृहीत हुना । मनुष्य एक घुटने पर बैठा, एक घुटना ऊपर उठा दुपा और मुंह पर लगा हुअा हाथ-इस प्राकृति का अर्थ था 'भोजन करना।
. इसका विकास इस रूप में हुआ कि वही पहला चित्र एक वस्तु-बिम्ब का अर्थ न देकर उसी से सम्बद्ध अन्य अर्थ भी देने लगा-जैसे 0 इसका अर्थ केवल सूर्य नहीं रहा, वरन् सूर्य का 'देवता रे (Re) या रा (Ra) भी हो गया और 'दिन' भी। इसी प्रकार 'मुख पर हाथ' वाली मानवाकृति का एक अर्थ 'चुप' भी हुमा । स्पष्ट है कि इस विकास में पूर्वाकृति बस्तुबिम्ब के यथार्थ से हटकर प्रतीक का रूप ग्रहण कर रहे विदित होते हैं।
वे बाद में इस चित्रलिपि के चित्राकार ध्वनि-प्रतीकों का काम देने लगे।
इस अवस्था में चित्रों के माध्यम से मनुष्य जो भी अभिव्यक्त कर रहा था, वह भाषा का ही प्रतिरूप था। प्रत्येक चित्रकार के लिए एक बिम्ब-चित्र एक शब्द था । कुछ चित्राकार जब व्यंजन-ध्वनियों के प्रतीक बने तो वे उस शब्द के प्रथमाक्षर की ध्वनि से जुड़े रहे । जैसे 'शृङ्गीसर्प' के लिए शब्द था 'पत' (ft) । इसकी प्रथम ध्वनि 'फ' से यह 'शृङ्गीसर्प' जुड़ा रहा । अर्थात् 'शृङ्गीसर्प' अब 'फ' व्यंजन के लिए 'वर्ण' का काम कर उठा था।
इस प्रकार हमने देखा कि हम विकास में 'लिपि', जिसका अर्थ है 'ध्वनि-प्रतीक' वाली वर्णमाला, ऐसी लिपि की ओर हम दो कदम आगे बढ़े ।
5. प्रतीक चित्राकृति-चित्रलिपि में आये स्थूल चित्र जब प्रतीक होकर उस मूल बिम्बाकृति द्वारा उससे सम्बन्धित दूसरे अर्थ भी देने लगे तब वह प्रतीक अवस्था में पहुँची ।
1. शृगीसर्प-सींग वाला साप ।
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182/पाण्डुलिपि-विज्ञान -:
अब चित्रलिपि के चित्र केवल चित्र ही नहीं रहे, वे प्रतीक हो गए। इसे भावमूलक या (diographic) भी कहा जाता है । ये ही आगे विकसित होकर-- . .:. 6. ध्वनि प्रतीक हो गए । अब 'शृङ्गीसर्प', शृङ्गीसर्प नहीं रहा वह वर्णमाला की व्यंजन ध्वनि 'फ' का चिह्न हो गया । इस प्रकार चित्रलिपि ध्वनि की वर्णमाला की ओर अग्रसर हुई। किन्तु, चित्र ध्वनि-प्रतीक बने, अपने चित्र रूप को उसने फिर भी कुछ काल तक सुरक्षित रखा, पर अव तो वे लिपि का रूप ग्रहण कर रहे थे । अतएव अधिकाधिक उपयोग में आने के कारण उनकी आकृति में भी विकास हुआ । अब एक मध्यावस्था आयी । इसमें चित्र भी रहे, और चित्रों से विकसित वे ध्वनि-प्रतीक भी सम्मिलित हुए जो चित्रों से वर्णचिह्नों के रूप में परिणत हो रहे थे ।
इसी वर्ग में वह भाषा भी आती है जिसमें वर्णमाला न होकर शब्द-माला होती है, और उन्हीं से अपने विविध भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द-रूप बनाये जाते हैं।
7. अब वह विकसित स्थिति प्रायी जहाँ 'चित्र' पीछे छूट गये, ध्वनि-चिह्न मात्र काम में आने लगे । अब लिपि पूर्णतः ध्वनि-मूलक हो गयी।
ध्वनिमूलक वर्णमाला के दो भेद होते हैं : एक-अक्षरात्मक (Syllable) दूसरी-वर्णात्मक (alphabetic)
देवनागरी वर्णमाला अक्षरात्मक है क्योंकि 'क' = 'क+अ', अतः यह अक्षर या Syllabic है । रोमन वर्णमाला वर्णात्मक है क्योंकि K = क् जो वर्ण या (alphabet) है । हिन्दी की 'क' ध्वनि के लिए रोमन वर्ण K में a मिलाना होता है : क = Ka | इसमें 'a' =अ। आज विश्व में हमें तीन प्रकार की लिपियां मिलती हैं
एक-वे जिनमें एक लिपि-चिह्न एक शब्द का द्योतक होता है ।
- यह चित्र लिपि का अवशेष है या प्रतिस्थानापन्न है। दूसरी-वे, जो अक्षरात्मक हैं, तथा
तीसरी-वे जो वर्णात्मक हैं । पर, ऐसा नहीं मान लेना चाहिये कि चित्रलिपि का उपयोग अब नहीं होता। अमरीका की एक आदिम जाति की चित्रलिपि का एक उदाहरण डॉ० भोलानाथ तिवारी ने अपने ग्रन्थ में दिया है
HOO6 चित्र लिपि (रेड इंडियन सरदार का संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति के नाम पत्र)
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पाण्डुलिपियों के प्रकार/183
हमने यहाँ चित्र से चलकर ध्वनि-मूलक लिपियों तक के विकास की चर्चा अत्यन्त सक्षेप में और अत्यन्त स्थूल रूप में की है, ऐसा हमने यह जानने के लिए किया है कि लिपिविकास की कौन-कौनसी स्थितियाँ रही हैं और उनसे लिपि विकास के कौन-कौनसे स्थूल सिद्धान्तों का ज्ञान होता है । वस्तुतः पांडुलिपि-वैज्ञानिक के लिए लिपि-विकास को जानना केवल इसीलिए अपेक्षित है कि इससे विविध लिपियों से परिचित होने में और किसी भी लिपि के उद्घाटन में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सहायता मिल सकती है।
इस दृष्टि से कुछ और बातें भी जानने योग्य हैं। यथा, एक यह कि लिपियाँ सामान्यतः तीन रूपों में लिखी जाती हैं--(1) दायें से बायीं ओर-जैसे फारसी लिपि (2) बायें से दायीं ओर जैसे, देवनागरी या रोमन, और (3) ऊपर से नीचे की ओरयथा, 'चीनी' लिपि । किसी भी अज्ञात लिपि के उद्घाटन (decipher) या पठन के लिए यह जानना प्रथम आवश्यकता है कि वह लिपि दायें से बायें, बायें से दायें या ऊपर से नीचे की ओर लिखी गयी है । वस्तुतः यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि प्राचीन काल में मिस्र की चित्रलिपि में, और भारत की प्राचीन देवनागरी में हमें दायें से बायें और बायें से दायें दोनों रूपों में लिखने के उदाहरण मिल जाते हैं, और एकाध ऐसे भी कि एक पंक्ति बायें से दायें और दूसरी दायें से बायें हो, पर आज यह द्वत किसी भी लिपि में शेष नहीं रह गया । हाँ, प्राचीनकाल की लिपि को पढ़ने के लिए लिपि के इस रूप को भी ध्यान में रखना होगा। अज्ञात लिपियों को पढ़ने (उद्घाटन) के प्रयास :
हम यह जानते हैं कि हिन्दी की वर्णमाला या लिपि का विकास अशोक कालीन लिपि से हुआ । आज भारत के पुरातत्त्ववेत्ताओं में ऐसे लिपि-ज्ञाता हैं जो भारत में प्राप्त सभी लिपियों को पढ़ सकते हैं । हाँ, “सिन्धु-लिपि' अब भी अपवाद है । इसे पढ़ने के कितने ही प्रयल हुए हैं पर सभी सुझाव के या प्रस्ताव के रूप में ही हैं। किन्तु एक समय ऐसा भी था कि प्राचीन लिपियों को पढ़ने वाला कोई था ही नहीं। फिरोजशाह तुगलक ने एक विशाल अशोक-स्तम्भ मेरठ से दिल्ली मंगवाया कि उस पर खुदा लेख पढ़वाया जा सके । पर कोई उसे नहीं पढ़ सका । वह उसने एक भवन पर खड़ा कर दिया। इन स्तम्भों को कहीं-कहीं लालबुझक्ककड़ लोग भीम का गिल्ली-डण्डा आदि भी बता देते थे । लिपियों के सम्बन्ध में यह अन्धकार-युग था। फिर आधुनिक युग में भारत की लिपियों को कैसे पढ़ा जा सका । इसका रोचक विवरण मुनि जिनविजय जी के शब्दों में पढ़िये
"इस प्रकार बिभिन्न विद्वानों द्वारा भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों विषय ज्ञान प्राप्त हुमा और बहुत-सी वस्तुएँ जानकारी में आई परन्तु प्राचीन लिपियों का स्पष्ट ज्ञान अभी तक नहीं हो पाया था। प्रतः भारत के प्राचीन ऐतिहासिक ज्ञान पर अभी भी अन्धकार का आवरण ज्यों का त्यों पड़ा हुआ था । बहुल-से विद्वानों ने अनेक पुरातन सिक्कों और शिलालेखों का संग्रह तो अवश्य कर लिया था परन्तु प्राचीन लिपि-ज्ञान के अभाव में वे उस समय तक उसका कोई उपयोग न कर सके थे ।
भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास के प्रथम अध्याय का वास्तविक रूप में प्रारम्भ 1837 ई० में होता है । इस वर्ष में एक नवीन नक्षत्र का उदय हुआ जिससे भारतीय पुरातत्त्व विद्या पर पड़ा हुआ पर्दा दूर हुआ । ऐशियाटिक सोसाइटी की स्थापना के दिन से
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184:पाण्डुलिपि-विज्ञान
18.34 ई० तक पुरातत्त्व सम्बन्धी वास्तविक काम बहुत थोड़ा हो पाया था, उस समय तक केवल कुछ प्राचीन ग्रन्थों का अनुवाद ही होता रहा था। भारतीय इतिहास के एक मात्र सच्चे साधन रूप शिलालेखों सम्बन्धी कार्य तो उस समय तक नहीं के बराबर ही हुआ था। इसका कारण यह था कि प्राचीन लिपि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त होना अभी बाकी था।
___ ऊपर बतलाया जा चुका है कि संस्कृत भाषा सीखने वाला पहला अंग्रेज चार्ल्स विल्किन्स् था और सबसे पहले शिलालेख की ओर ध्यान देने वाला भी वही था। उसी ने 1785 ई० में दीनाजपुर जिले में बदाल नामक स्थान के पास प्राप्त होने वाले स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख को पढ़ा था। यह लेख बंगाल के राजा नारायणलाल के समय में लिखा गया था। उसी वर्ष में, राधाकांत शर्मा नामक एक भारतीय पण्डित ने टोमरा वाले दिल्ली के अशोक स्तम्भ पर खुदे हुए अजमेर के चौहान राजा अनलदेव के पुत्र बीसलदेव के तीन लेखों को पढ़ा। इनमें से एक लेख की भित्ति 'संवत् 1220 बैशाख सुदी 5' है। इन लेखों की लिपि बहुत पुरानी न होने के कारण सरलता से पढ़ी जा सकी थी। परन्तु उसी वर्ष जे० एच० हेरिंग्टन ने बुद्धगया के पास वाली नागार्जुनी और बराबर को गुफागों में से मौखरी वंश के राजा अनन्त वर्मा के तीन लेख निकलवाये जो ऊपर वणित लेखों की अपेक्षा बहुत प्राचीन थे। इनकी लिपि बहुत अंशों में गुप्तकालीन लिपि से मिलती हुई होने के कारण उनका पढ़ा जाना अति कठिन था । परन्तु, चासं विल्किन्स् ने चार वर्ष तक कठिन परिश्रम करके उन तीनों लेखों को पढ़ लिया और साथ ही उसने गुप्त लिपि की लगभग प्राधी वर्णमाला का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया।
गुप्तलिपि क्या है, इसका थोड़ा सा परिचय यहाँ करा देता हूँ। आजकल जिस लिपि को हम देवनागरी (अथवा बालबोध) लिपि कहते हैं उसका साधारणतया तीन अवस्थाओं में से प्रसार हुआ है । वर्तमान काल में प्रचलित प्राकृति से पहले की आकृति कुटिल लिपि के नाम से कही जाती थी। इस आकृति का समय साधारणतया ईस्वीय सन् को छठी शताब्दी से 10वीं शताब्दी तक माना जाता है। इससे पूर्व की आकृति गुप्त-लिपि . के नाम से कही जाती है । सामान्यतः इसका समय गुप्त-वंश का. राजस्वकाल गिना जाता है । अशोक के लेख इसी लिपि में लिखे गये हैं। इसका समय ईसा पूर्व 500 से 350 ई. त . माना जाता है।
सन् 1818 ई० से 1823 ई० तक कर्नल जेम्स टॉड ने राजपूताना के इतिहास की शाध-खोज करते हुए राजपूताना और काठियावाड़ा में बहुत-से प्राचीन लेखों का पता लगाया। इनमें से सातवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक के अनेक लेखों को तो उक्त कनल भाहब क गुरु यति ज्ञानचन्द्र ने पढ़ा था । इन लेखों का सारांश अथवा अनुवाद टॉड साहव ने अपने राजस्थान' नामक प्रसिद्ध इतिहास में दिया है।
__सन् 1828 ई० में बी० जी० वेविंग्टन ने मागल्लपुर के कितने ही संस्कृत और तामिल लेखों को पढ़कर उनकी वर्णमाला तैयार की। इसी प्रकार वाल्टर इलियट ने प्राचीन कनाड़ी अक्षरों का ज्ञान प्राप्त करके उसकी विस्तृत वर्णमाला प्रकाशित की।
ईस्वी सन् 1834 में केप्टेन ट्रॉयर ने प्रयाग के अशोक स्तम्भ पर उत्कीरा गुप्तवंशी राजा समुद्रगुप्त के लेख का बहुत-सा अंश पढ़ा और फिर उसी वंश में डा० लिने
1.. इसका वास्तविक नाम है-एनल्स एण्ड एण्टीक्विटीज ऑफ राजस्थान ।
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"लिपि-समस्या/185
उस सम्पूर्ण लेख को पढ़कर 1837 ई० में भिटारी के स्तम्भ वाला स्कन्दगुप्त का लेख भी पढ़ लिया।
1835 ई० में डब्ल्यू. एम. वाँथ ने वलभी के कितने ही दानपत्रों को पढ़ा ।
1837-38 ई० में जेम्स प्रिंसेप ने दिल्ली, कुमाऊँ और ऐरन के स्तम्भां एवं अमरावती के स्तूपों तथा गिरनार के दरवाजों पर खुदे हुए गुप्तलिपि के बहुत-से लेखों को पढ़ा।
साँची-स्तूप के चन्द्रगुप्त वाले जिस महत्त्वपूर्ण लेख के सम्बन्ध में प्रिंसेप ने 1834 ई० में लिखा था कि “पुरातत्त्व के अभ्यासियों को अभी तक भी इस बात का पता नहीं चला है कि माँची के शिलालेखों में क्या लिखा है ।" उसी विशिष्ट लेख को यथार्थ अनुवाद सहित 1837 ई० में प्रयुक्त करने में वही प्रिंसेप साहब सम्पूर्णतः सफल हुए ।
अब, बहुत-सी लिपियों की आदि जननी ब्राह्मी-लिपि की बारी आयी । गुप्तलिपि से भी अधिक प्राचीन होने के कारण इस लिपि को एकदम समझ लेना कठिन था। इस लिपि के दर्शन तो शोधकर्ताओं को 1795 ई० में ही हो गये थे। उसी वर्ष सर चार्ल्स मैलेट ने एलोरा की गुफाओं के कितने ही ब्राह्मी लेखों की नकलें सर विलियम जेम्स के पास भेजीं। उन्होंने इन नकलों को मेजर विल्फोर्ड के पास, जो उस समय काशी में थे, इसलिए भेजा कि वे इनको अपनी तरफ से किसी पण्डित द्वारा पढ़वावें। पहले तो उनको पढ़ने वाला कोई पण्डित नहीं मिला, परन्तु फिर एक चालाक ब्राह्मण ने कितनी ही प्राचीन लिपियों की एक कृत्रिम पुस्तक बेचारे जिज्ञासु मेजर साहब को दिखलाई और उन्हीं के आधार पर उन लेखों को गलत-सलत पढ़ कर खूब दक्षिणा प्राप्त की। विल्फोर्ड साहब ने उस ब्राह्मण द्वारा कल्पित रीति से पढ़े हुए उन लेखों पर पूर्ण विश्वास किया और उसके समझाने के अनुसार ही उनका अंग्रेजी में भाषान्तर करके सर जेम्स के पास भेज दिया । इस सम्बन्ध में मेजर विल्फोर्ड ने सर जेम्स को जो पत्र भेजा उसमें बहुत उत्सुकतापूर्वक लिखा है कि "इस पत्र के साथ कुछ लेखों की नकलें उनके सारांश सहित भेज रहा हूँ। पहले तो मैंने इन लेखों के पढ़े जाने की प्राशा बिल्कुल ही छोड़ दी थी, क्योंकि हिन्दुस्तान के इस भाग में (बनारस की तरफ) पुराने लेख नहीं लिखते हैं, इसलिए उनके पढ़ने की कला में बुद्धि का प्रयोग करने अथवा उनकी शोध-खोज करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। यह सब कुछ होते हुए भी और मेरे बहुत-से प्रयत्न निष्फल चले जाने पर भी अन्त में सौभाग्य से मुझे एक वृद्ध गुरु मिल गया जिसने इन लेखों को पढ़ने की कुञ्जी बंताई
और प्राचीनकाल में भारत के विभिन्न भागों में जो लिपियाँ प्रचलित थीं उनके विषय में । एक संस्कृत पुस्तक मेरे पास लाया। निस्सन्देह, यह एक सौभाग्य सूचक शोध हुई है जो
हमारे लिए भविष्य में बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।" मेजर विल्फोर्ड की इस 'शोध' के विषय में बहुत वर्षों तक किसी को कोई सन्देह नहीं हुया क्योंकि सन् 1820 ई० में खंडगिरि के द्वार पर इसी लिपि में लिखे हुए लेख के सम्बन्ध में स्टलिंग ने लिखा है कि "मेजर विल्फोर्ड ने प्राचीन लेखों को पढ़ने की कुञ्जी एक विद्वान ब्राह्मण से प्राप्त की और उनकी विद्वत्ता एवं बुद्धि से इलोरा व शालेसेट के इसी लिपि में लिखे हुए लेखों के कुछ भाग, पढ़े गये । इसके पश्चात् दिल्ली तथा अन्य स्थानों के ऐसे ही लेखों को पढ़ने में उस कुजी का कोई उपयोग नहीं हुआ, यह शोचनीय है।"
सन् 1833 ई० में मि० प्रिन्सेप ने सही कुञ्जी निकाली। इससे लगभग एक वर्ष
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186, पाण्डुलिपि-विज्ञान
पूर्व उन्होंने भी मेजर विल्फोर्ड की कुञ्जी का उपयोग न करने की बाबत दुःख प्रकट किया था । एक शोधकर्ता जिज्ञासु विद्वान को ऐसी बात पर दुःख होना स्वाभाविक भी है । परन्तु उस विद्वान ब्राह्मण की बताई हुई कुञ्जी का अधिक उपयोग नहीं हुआ, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार शोध-खोज के दूसरे कामों में मेजर विल्फोर्ड की श्रद्धा का श्राद्ध करने वाले चालाक ब्राह्मण के धोखे में वे आ गये इसी प्रकार इस विषय में भी वही बात हुई । कुछ भी हुआ हो, यह तो निश्चित है कि मेजर विल्फोर्ड के नाम से कहलाने वाली सम्पूर्ण खोज भ्रमपूर्ण थी। क्योंकि उनका पढ़ा हुआ लेख-पाठ कल्पित था और तदनुसार उसका अनुवाद भी वैसा ही निर्मूल था-युधिष्ठिर और पाण्डवों के वनवास एवं निर्जन जंगलों में परिभ्रमण की गाथाओं को लेकर ऐसा गड़बड़-घोटाला किया गया है कि कुछ समझ में नहीं आता। उस धूर्त ब्राह्मण के बताए हुए ऊटपटांग अर्थ का अनुसंधान करने के लिए विल्फोर्ड ने ऐसी कल्पना कर ली थी कि पाण्डव अपने वनवासकाल में किसी भी मनुष्य के संसर्ग में न आने के लिए वचनबद्ध थे। इसलिए विदुर, व्यास आदि उनके स्नेही सम्बन्धियों ने उनको सावधान करने की सूचना देते रहने के लिए ऐसी योजना की थी कि वे जंगलों में, पत्थरों और शिलाओं (चट्टानों) पर थोड़े-थोडे और साधारणतया समझ में न आने योग्य वाक्य पहले ही से निश्चित की हुई लिपि में संकेत रूप से लिख-लिख कर अपना उद्देश्य पूरा करते रहते थे। अंग्रेज लोग अपने को बहुत बुद्धिमान मानते हैं और हंसते-हंसते दुनिया के दूसरे लोगों को ठगने की कला उनको याद है परन्तु वे भी एक बार तो भारतवर्ष की स्वर्गपुरी मानी जाने वाली काशी के 'वृद्ध गुरु' के जाल में फँस ही गये, अस्तु ।
एशियाटिक सोसाइटी के पास दिल्ली और इलाहाबाद के स्तम्भों तथा खण्डगिरी के दरवाजों पर के लेखों की नकलें एकत्रित थीं, परन्तु विल्फोर्ड साहब की 'शोध' निष्फल चली जाने के कारण कितने ही वर्षों तक उनके पढ़ने का कोई प्रयत्न नहीं हुमा । इन लेखों के मर्म को जानने की उत्कट जिज्ञासा को लिए हुए मिस्टर बेम्स प्रिंसेप ने 1834-45 ई० में इलाहाबाद, रधिया और मथिमा के स्तम्भों पर उत्कीर्ण लेखों की छापें मंगवायी और उनको दिल्ली के लेख के साथ रखकर यह जानने का प्रयत्न किया कि उनमें कोई शब्द एक सरीखा है या नहीं। इस प्रकार उन चारों लेखों को पास-पास रखने से उनको तुरन्त ज्ञात हो गया कि ये चारों लेख एक ही प्रकार के हैं । इससे प्रिंसेप का उत्साह बढ़ा और उनकी जिज्ञासा पूर्ण होने की आशा बंध गई । इसके पश्चात् उन्होंने इलाहाबाद स्तम्भ के लेख के भिन्न-भिन्न आकृति वाले अक्षरों को अलग-अलग छाँट लिया। इससे उनको यह बात मालूम हो गयी कि गुप्त लिपि के अक्षरों की भांति इसमें भी कितने ही अक्षरों के साथ स्वरों की मात्राओं के भिन्न-भिन्न पाँच चिह्न लगे हुए हैं। इसके बाद उन्होंने पाँचों चिह्नों को
1. ऐसी ही एक घटना इतिहास में नेपोलियन के समय में हई थी। उस समय मिली फराऊनों की
लिपि पढने के प्रयास हो रहे थे। फ्रान्स में शांपोलियो नाम का विदवान इस लिपि के उदघाटन में संलग्न थे। इसी समय शांपोलियों की एक पुस्तक मिली जिसके लेखक ने यह दावा किया था कि उसने लिपि पढ़ने की कूजी दल ली है। पर वह कुजी भी ठीक ऐसी ही काल्पनिक और निराधर थी जैसी काशी में 'वृद्ध गुरु' ने भारतीय लिपियों के लिए निकाली थी। शापोलियों ने उसकी पोल तत्काल खोल दी थी। अतः वहाँ वह छल इसने समय तक नहीं चल सका जितने समय तक भारत में
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लिपि-समस्या/187
एकत्रित करके प्रकट किया। इससे कितने ही विद्वानों का इन अक्षरों के यूनानी अक्षर होने सम्बन्धी भ्रम दूर हो गया।
अशोक के लेखों की लिपि को देखकर साधारणतया अंग्रेजी अथवा ग्रीक लिपि की भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है । टॉम कोरिएट नामक यात्री ने अशोक के दिल्ली वाले स्तम्भलेख को देखकर एल. व्हीटर को एक पत्र में लिखा था कि "मैं इस देश के दिल्ली नामक नगर में आया हूँ कि जहाँ पहले अलेक्जेण्डर ने हिन्दुस्तान के पोरस नामक राजा को हराया था और अपनी विजय की स्मृति में एक विशाल स्तम्भ खड़ा किया था जो आज भी यहाँ पर मौजूद है।" पादरी एडवर्ड टेरी ने लिखा है कि "टॉम कोरिएट ने मुझे कहा था कि उसने दिल्ली में ग्रीक लेख वाला एक स्तम्भ देखा था जो अलेक्जेण्डर महान् की स्मृति में वहाँ पर खड़ा किया गया था।" इस प्रकार दूसरे भी कितने ही लेखकों ने इस लेख को ग्रीक लेख ही माना था।
उपर्युक्त प्रकार से स्वर-चिह्नों को पहचान लेने के बाद मि० जेम्स प्रिंसेप ने अक्षरों के पहचानने का उद्योग प्रारम्भ किया। उन्होंने पहले प्रत्येक अक्षर को गुप्त लिपि के अक्षरों के साथ मिलाने और मिलते हुए अक्षरों को वर्णमाला में शामिल करने का क्रम अपनाया। इस रीति से बहुत-से अक्षर उनकी जानकारी में आ गये। ... पादरी जेम्स स्टीवेन्सन् ने भी प्रिंसेप साहब की तरह इसी शोधन में अनुरक्त होकर 'क' 'ज' 'थ' 'प' और 'व' अक्षरों को पहचाना और इन्हीं अक्षरों की सहायता से पूरे लेखों को पढ़कर उनका अनुवाद करने का मनोरथ किया, परन्तु कुछ तो अक्षरों की पहचान में भूल होने के कारण, कुछ वर्णमाला की अपूर्णता के कारण और कुछ इन लेखों की भाषा को संस्कृत समझ लेने के कारण यह उद्योग पूरा-पूरा सफल नहीं हुआ। फिर भी प्रिंसेप को इससे कोई निराशा नहीं हुई। सन् 1835 ई० में प्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञः प्रो० लॉसेन ने एक ऑस्ट्रियन ग्रीक सिक्के पर इन्हीं अक्षरों में लिखा हुआ अंग थाँ किलस का नाम पढ़ा । परन्तु 1837 ई. के प्रारम्भ में मि० प्रिंसेप ने अपनी अलौकिक स्फुरणा द्वारा एक छोटासा 'दान' शब्द-पोध निकाला जिससे इस विषय की बहुत-सी ग्रन्थियाँ एकदम सुलझ गई। इसका विवरण इस प्रकार है । ई० स० 1837 में प्रिंसेप ने साँची स्तूप आदि पर खुदे हुए कितने ही छोटे-छोटे लेखों की छापों को एकत्रित करके देखा तो बहुत-से लेखों के अन्त में दो अक्षर एक ही सरीखे जान पड़े और उनके पहले 'स' अक्षर दिखाई पड़ा जिसको प्राकृत भाषा की छठी विभक्ति का प्रत्यय (संस्कृत 'स्य' के बदले) मानकर यह अनुमान किया कि भिन्न-भिन्न लेख भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा किये हुए दानों के सूचक जान पड़ते हैं। फिर
उन एक सरीखे दिखने वाले और पहचान में न आने वाले दो अक्षरों में से पहले के साथ । 'T' (श्रा की मात्रा) और दूसरे के साथ '' (अनुस्वर चिह्न) लगा हुपा होने से उन्होंने निश्चय किया कि यह शब्द 'दान' होना चाहिये । इस अनुमान के अनुसार 'द' और 'न' की पहचान होने से आधी वर्णमाला पूरी हो गयी झऔर उसके आधार पर दिल्ली, इलाहाबाद, सांची, मेथिया, रधिया, गिरनार, धौरमी आदि स्थानों से प्राप्त अशोक के विशिष्ट लेख सरलतापूर्वक पढ़ लिये गये । इससे यह भी निश्चित हो गया कि इन लेखों की भाषा, जैसा कि अब तक बहुत-से लोग मान रहे थे, संस्कृत नहीं है वरन् तत्स्थानों में प्रचलित देशभाषा थी (जो साधारणतया उस समय प्राकृत नाम से विख्यात थी)।
इस प्रकार ब्राह्मी लिपि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ और उसके योग से भारत के
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188/पाण्डुलिपि-विज्ञान
प्राचीन से प्राचीनतम लेखों को पढ़ने में पूरी सफलता मिली।
अब, उतनी ही पुरानी दूसरी लिपि की शोध का विवरण दिया जाता है। इस लिपि का ज्ञान भी प्रायः उसी समय में प्राप्त हुआ था। इसका नाम खरोष्ठी लिपि है । खरोष्ठी लिपि आर्य लिपि नहीं है अर्थात् अनार्य लिपि है यह । सेमेटिक लिपि के कुटुम्ब को परमेइक् लिपि से निकली हुई मानी जाती है। इस लिपि को लिखने की पद्धति फारसी लिपि के समान है अर्थात् यह दायें हाथ से बायीं ओर को लिखी जाती है। यह लिपि ईसा से पूर्व तीसरी अथवा चौथी शताब्दी में केवल पंजाब के कुछ भागों में ही प्रचलित थी। शहाबाजगढ़ी और मन्सोरा के दरवाजों पर अशोक के लेख इसी लिपि में उत्कीर्ण हुए हैं। इसके अतिरिक्त शक, क्षत्रप, पार्थिअन् और कुषाणवंशी राजाओं के समय के कितने बौद्ध लेखों तथा बाक्ट्रिअन, ग्रीक, शक, क्षत्रप आदि राजवंशों के कितने ही सिक्कों में यही लिपि उत्कीर्ण हुई मिलती है । इसलिए भारतीय पुरातत्त्वज्ञों को इस लिपि के ज्ञान की विशेष आवश्यकता थी।
कर्नल जेम्स टॉड ने वाक्ट्रिअन्, ग्रीक, शक पार्थिअन् और कुषाणवंशी राजाओं के सिक्कों का एक बड़ा संग्रह किया था। इन सिक्कों पर एक ओर ग्रीक और दूसरी ओर खरोष्ठी अक्षर लिखे हुए थे । सन् 1830 ई० में जनरल वेंटुराँ ने मानिकिाल स्तूप को खुदवाया तो उसमें से खरोष्ठी लिपि के कितने ही सिक्के और दो लेख प्राप्त हुए । इसके अतिरिक्त अलेक्जेण्डर, बन्स आदि प्राचीन शोधकों ने भी ऐसे अनेक सिक्के इकट्ठ किये थे जिनमें एक अोर के ग्रीक अक्षर तो पढ़े जा सकते थे परन्तु दूसरी ओर के खरोष्ठी अक्षरों के पढ़े जाने का कोई साधन नहीं था। इन अक्षरों के विषय में भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ होने लगीं। सन् 1824 ई० में कर्नल टॉड ने कफिसेस् के सिक्के पर खुदे इन अक्षरों को ससेनिनन्' अक्षर बतलाया। 1833 ई० में प्रपोलोडोट्स के सिक्के पर इन्हीं अक्षरों को प्रिंसेप ने 'पहलवी' अक्षर माना। इसी प्रकार एक दूसरे सिक्के की इसी लिपि तथा मामिकियाँल के लेख की लिपि को उन्होंने ब्राह्मी लिपि मान सिया और इसकी प्राकृति कुछ देदी होने के कारण अनुमान लगाया कि जिस प्रकार छपी हुई और बही में लिखी हुई गुजराती लिपि में अन्तर है उसी प्रकार प्रशोक के दिल्ली आदि के स्तम्भों वाली और इस लिपि में अन्तर है । परन्तु बाद में स्वयं प्रिंसेप ही इस अनुमान को अनुचित मानने लगे। सन् 1834 ई० में केप्टन कोर्ट को एक स्तूप में से इसी लिपि का एक लेख मिला जिसको देखकर प्रिंसेप ने फिर इन अक्षरों के विषय में 'पहलवी' होने की कल्पना की। परन्तु उसी वर्ष में मिस्टर मेसन नामक शोधकर्ता विद्वान ने अनेक ऐसे सिक्के प्राप्त किये जिन पर खरोष्ठी और ग्रीक दोनों लिपियों में राजाओं के नाम अंकित थे। मेसन साहब ने ही सबसे पहले मिनेंकों, प्रोपोलडोटो, अरमाइलो, वासिलियो और सोरों आदि नामों को पढ़ा था, परन्तु यह उनकी कल्पना मात्र थी। उन्होंने इन नामों को प्रिंसेप साहब के पास भेजा । इस कल्पना को सत्य का रूप देने का यश प्रिंसेप के ही भाग्य में लिखा था । उन्होंने मेसन साहब के संकेतों के अनुसार सिक्कों को बाँचना प्रारम्भ किया तो उनमें से बारह राजानों और सात पदवियों के नाम पढ़ निकाले । - इस प्रकार खरोष्ठी लिपि के बहुत-से अक्षरों का बोध हुआ और साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि यह लिपि दाहिनी ओर से बाँयी ओर पढ़ी जाती है। इससे यह भी निश्चय हुमा कि यह लिपि समेटिक वर्ग की है, परन्तु इसके साथ ही इसकी भाषा को, जो वास्तव
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लिपि-समस्या/189
में ब्राह्मी लेखों की भाषा के समान प्राकृत है, पहलवी मान लेने की भूल हुई । इस प्रकार ग्रीक लेखों की सहायता से खरोष्ठी लिपि के बहुत-से अक्षरों की तो जानकारी हुई परन्तु भाषा के विषय में भ्रान्ति होने के कारण पहलवी के नियमों को ध्यान में रखकर पढ़ने से अक्षरों को पहचानने में अशुद्धता आने लगी जिससे थोड़े समय तक इस कार्य में अड़चन पड़ती रही । परन्तु 1838 ई० में दो बाक्ट्रिमन् ग्रीक सिक्कों पर पालि लेखों को देखकर दूसरे सिक्कों की भाषा भी यही होगी, यह मानते हुए उसी के नियमानुसार उन लेखों को पढ़ने से प्रिंसेप का काम आगे चला और उन्होंने एकसाथ 17 अक्षरों को खोज निकाला। प्रिंसेप की तरह मिस्टर नॉरिस ने भी इस विषय में कितना ही काम किया और इस लिपि के 7 नये अक्षरों की शोध की। बाकी के थोड़े से अक्षरों को जनरल कनिंघम ने पहचान लिया और इस प्रकार खरोष्ठी की सम्पूर्ण वर्णमाला तैयार हो गई।
__ यह भारतवर्ष की पुरानी से पुरानी लिपियों के ज्ञान प्राप्त करने का संक्षिप्त इतिहास है । उपर्युक्त वर्णन से विदित होगा कि लिपि-विषयक शोध में मिस्टर प्रिंसेप ने बहुत काम किया है। एशियाटिक सोसाइटी की ओर से प्रकाशित 'सैन्टनरी रिव्यू' नामक पुस्तक में 'एन्श्यण्ट इण्डिअन अलफाबेट' शीर्षक लेख के प्रारम्भ में इस विषय पर डॉ० हॉर्नली लिखते हैं कि
"सोसाइटी का प्राचीन शिलालेखों को पढ़ने और उनका भाषान्तर करने का अत्युपयोगी कार्य 1834 ई० से 1839 ई. तक चला। इस कार्य के साथ सोसाइटी के तत्कालीन सेक्रेटरी, मि० प्रिंसेप का नाम, सदा के लिए संलग्न रहेगा, क्योंकि भारतविषसक प्राचीन-लेखनकला, भाषा और इतिहास सम्बन्धी हमारे अर्वाचीन ज्ञान की आधारभूत इतनी बड़ी शोध-खोज इसी एक व्यक्ति के पुरुषार्थ से इतने थोडे समय में हो सकी।"
प्रिंसेप के बाद लगभग तीस वर्ष तक पुरातत्व संशोधन का सूत्र जेम्स फग्र्युसन, मॉर्खम किट्टो, एडवर्ड टॉमस, अलेक्जेण्डर कनिंघम, वाल्टर इलियट, मे डोज टेलर, स्टीवेन्सन्, डॉ० भाउदाजी आदि के हाथों में रहा । इनमें से पहले चार विद्वानों ने उत्तर हिन्दुस्तान में, इलियट साहब ने दक्षिण भारत में और पिछले तीन विद्वानों ने पश्चिमी भारत में काम किया । फर्ग्युसन साहब ने पुरातन वास्तु-विद्या (Architecture) का ज्ञान प्राप्त करने में बड़ा परिश्रम किया और उन्होंने इस विषय पर अनेक ग्रन्थ लिखे । इस विषय का उनका अभ्यास इतना बढ़ा-चढ़ा था कि किसी भी इमारत को केवल देखकर वे सहज ही में उसका समय निश्चित कर देते थे। मेजर किट्टो बहुत विद्वान तो नहीं थे परन्तु उनकी शोधक बुद्धि बहुत तीक्ष्ण थी। जहाँ अन्य अनेक विद्वानों को कुछ जान न पड़ता था वहाँ वे अपनी गिद्ध जैसी पैनी दृष्टि से कितनी ही बातें खोज निकालते थे । चित्रकला में वे बहुत निपुण थे। कितने ही स्थानों के चित्र उन्होंने अपने हाथ से बनाए थे और प्रकाशित किए थे। उनकी शिल्पकला विषयक इस गम्भीर कुशलता को देखकर सरकार ने उनको बनारस के संस्कृत कॉलेज का भवन बनवाने का काम सौंपा । इस कार्य में उन्होंने बहुत परिश्रम किया जिससे उनका स्वास्थ्य गिर गया और अन्त में इंगलैण्ड जाकर वे स्वर्गस्थ हुए। टॉमस साहब ने अपना विशेष ध्यान सिक्कों और शिलालेखों पर दिया । उन्होंने अत्यन्त परिश्रम करके ई० सं० पूर्व 246 से 1554 ई० तक के लगभग 1800 वर्षों के प्राचीन इतिहास की शोध की। जनरल कनिधम ने प्रिंसेप का अवशिष्ट
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190 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
कार्य हाथ में लिया । उन्होंने ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपियों का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया । इलियट साहब ने कर्नल मेकेन्जी के संग्रह का संशोधन और संवर्द्धन किया । दक्षिण के चालुक्य वंश का विस्तृत ज्ञान सर्वप्रथम उन्होंने लोगों के सामने प्रस्तुत किया। टेलर साहब ने भारत की मूर्ति-निर्माण-विद्या का अध्ययन किया और स्टीवेन्सन् ने सिक्कों की शोधखोज की । पुरातत्त्व संशोधन के कार्य में प्रवीणता प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय विद्वान् डॉक्टर भाउदाजी थे । उन्होंने अनेक शिलालेखों को पढ़ा और भारत के प्राचीन इतिहास
ज्ञान में खूब वृद्धि की है । इस विषय में दूसरे नामांकित भारतीय विद्वान् काठियावाड़ निवासी पण्डित भगवानलाल इन्द्रजी का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने पश्चिम भारत के इतिहास में मूल्य वृद्धि की है । उन्होंने अनेक शिलालेखों और ताम्रपत्रों को पढ़ा है परन्तु उनके कार्य का सच्चा स्मारक तो उनके द्वारा उड़ीसा के खण्डगिरि-उदयगिरि वाली हाथीगुंफा में सम्राट खारवेल के लेखों को शुद्ध रूप से पढ़ा जाना ही है । बंगाल के विद्वान् डॉ० राजेन्द्रलाल मित्र का नाम भी इस विषय में विशेष रूप से उल्लेख करने योग्य है । उन्होंने नेपाल के साहित्य का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया है ।"1
इस विवरण से एक चित्र तो काशी के पण्डित का उभरता है, जिसने अपने कौशल से मिथ्या कुञ्जी प्राचीन लिपि को पढ़ने के लिए प्रस्तुत की और वह भी ऐसी कि पहले उस पर सभी को विश्वास हो गया ।
दूसरा चित्र उभरता है उस मुद्रा का जो अफगानिस्तान में मिली और उसके सम्बन्ध में यह धारणा बना ली गई कि इसकी भाषा पहलवी है और लिपि ऐसी होगी जो दायें से बायें लिखी जाती होगी । फलतः यह बहुत श्रावश्यक है कि पहले भाषा का निर्धारण किया जाय, फिर लिपि-लेखन की प्रवृत्ति का भी । क्योंकि उसकी लिपि वस्तुत: खरोष्ठी थी और उसकी भाषा पालि पहलवी का पीछा विद्वानों ने तब छोड़ा जब 1838 ई० में दो वाक्ट्रीअन ग्रीक सिक्कों पर पाली लेखों को देखा ।
• एक तीसरा चित्र यह उभरता है कि मात्र वर्णों की आकृति से लिपि किस भाषा की है यह नहीं कहा जा सकता । इसके लिए टॉम कोरिएट नामक यात्री की भ्रान्ति का उल्लेख ऊपर हो चुका है । ग्रशोक - लिपि की ग्रीक - लिपि से समानता देखकर उसने उसे ग्रीक लेख समझ लिया था ।
वस्तुतः लिपि के अनुसन्धान में वही वैज्ञानिक प्रक्रिया काम करती है जिसमें ज्ञात बदाल स्तम्भ का लेख एवं टोपरा वाले
से अज्ञात की श्रोर बढ़ा जाता । इसी आधार पर दिल्ली के अशोक स्तम्भ पर बीसलदेव के तीन लेख पढ़े गये । इससे जो प्राचीन लेख थे उनको पढ़ने में बहुत कठिनाई और परिश्रम हुआ क्योंकि उनके निकट की ज्ञात लिपियाँ थ ही नहीं । अव यहाँ पर प्रिंसेप महोदय ने अनुसन्धान की विशेष सूझ-बूझ का परिचय दिया । उन्होंने साँची स्तूप आदि पर खुदे हुए कितनी ही छापों को तुलनापूर्वक देखा । इन सबमें उन्हें दो अक्षर समान मिले और अनुमान लगाया कि दो अक्षरों वाला शब्द दान हो सकता है और इस अनुमान के आधार पर 'द' और 'न' अक्षरों का निर्धारण हुआ और इस प्रकार ब्राह्मी लिपि का उद्घाटन हो सका । स्पष्ट है कि इस प्रकार लिपि की गाँठ खोलने के लिए तुलना भी एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साधन है ।
1. मुनि जिन विजयजी -- पुरातत्व संशोधन का पूर्व इतिहास- स्वाहा, वर्ष 1 अंक 2-3, पृ० 27-34
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लिपि -समस्या / 191
यह तो ब्राह्मी लिपि को पढ़े जाने के प्रयत्नों की चर्चा हुई । अब अनुसन्धानकर्त्ताश्रों में और विद्वानों में अनुसन्धान-विषयक वैज्ञानिक प्रवृत्ति खूब मिलती है, फिर भी, लिपि विषयक कुछ कठिन समस्याएँ प्राज भी बनी हुई हैं । भारतवर्ष में सिन्धुघाटी की लिपि का रहस्य अभी भी नहीं खुला है । अनेक प्रकार के प्रयत्न हुए हैं, किन्तु जितने प्रयत्न हुए हैं उतनी ही समस्या उलझी है । इसी प्रकार और भी विश्व की कई लिपियाँ हैं जिनका पूरा रहस्य नहीं खुला । तो प्रश्न यह है कि यदि कोई एकदम ऐसी लिपि सामने आ जाय जिसके सम्बन्ध में आगे पीछे कोई सहायक परम्परा न मिलती हो तो क्या किया जाय ? इस सम्बन्ध में डॉ० पी. बी. पण्डित का 'हिन्दुस्तान टाइम्स वीकली' (रविवार, मार्च, 1969 ) में प्रकाशित 'क्रेकिंग द कोड' (Cracking the Code) उन सिद्धान्तों को प्रस्तुत करता है जिनसे ऐसी लिपि को समझा जा सके जिसकी न तो लेखन प्रणाली का और न उसमें लिखे कथ्य का ज्ञान हो । यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ऐसी लिपि की कु जी पाने में अनेक कठिनाइयाँ हो सकती हैं। वे कठिनाइयाँ भी ऐसी हो सकती हैं जिन पर पार पाना असम्भव हो । फिर भी, उनके सुझाव हैं कि पहले तो ये निर्धारित किया जाना चाहिए कि जो विविध चिह्न और रेखांकन मिले हैं क्या वे भाषा को व्यक्त करते हैं । यदि यह माना जाय कि वे चिह्न भाषा की लिपि के ही हैं तो प्रश्न यह खड़ा होता है कि यह किस प्रकार की लेखन प्रणाली है । अर्थात् क्या यह लेखन प्रणाली चित्रात्मक है अथवा शब्दात्मक (logographic) है या वर्णात्मक (alphabetic ) । यद्यपि आज कुछ लिपियाँ मक्षरात्मक (Syllabic) भी हैं पर यह अक्षरता (Syllable) वर्ण से ही जुड़ी मिलती हैं, क्योंकि दोनों ही ध्वनिमूलक हैं ।
चित्रलिपि शब्द लिपि में तभी परिणत होती है जब एक चित्र कई भावों या वस्तुनों का श्रर्थ देने लगता है । तब एक चित्राकार या चित्रलिपि का एक-एक चित्र एक उच्चरित शब्द (logo) का स्थान ले लेता है। डॉ० पण्डित ने अंग्रेजी का स्टार शब्द लिया है । 'स्टार' का चित्र जब तक केवल स्टार का ही ज्ञान कराता है तब तक वह चित्रलिपि का अंश है । इसके बाद 'स्टार' का उपयोग केवल तारे के लिए ही नहीं, आकाश के द्युतिमान सभी तारों और तारिकाओं के लिए होने लगता है या उसका अर्थ चमकदार या शिरोमणि वस्तुत्रों के लिए होने लगे तो वह भावचित्रलिपि (ideograph) का रूप ग्रहण कर लेता है । अब यदि 'स्टार' की चित्राकृति और उसकी चित्रलिपि और भाव- चित्रलिपि को कोई शब्द मिल गया है— जैसे स्टार, तब यह शब्द हो गया । भावलिपि का एक अंग होकर अब उसने चित्र रूप के साथ शब्द रूप में भी सम्बद्धता प्राप्त कर ली, यही इस शब्द ध्वनि की लिपि या शब्दमूलक चित्रलिपि (logograph) कहलाती है ।
अब शब्द का अर्थ अपने ध्वनि-चित्र से किसी सीमा तक स्वतन्त्र हो चला क्योंकि 'शुद्ध स्टार ध्वनि' के लिए तो उसका ध्वनिचित्र आयेगा ही, सम्भवतः 'स्टार' की समवर्ती
1. "Histories of writing system indicate that the Pictorial scripts develop into logographic script where a picture gets a phonetic value corresponding to its pronunciation: then it can be used for all other items which have similar pronunciation.'
(Pandit, P. B. ( Dr. ) -- Cracking the Code - Hindustan Times Weekly, Sunday, March 30, 1969)
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192, पाण्डुलिपि-विज्ञान
ध्वनि 'स्टार' के लिए भी प्रयोग में आ सकेगा और परसर्ग रूप में गैंगस्टर (gangster) में गैंग के साथ भी जुड़ जायेगा।
अब स्थिति यह हो गयी कि___वस्तु → वस्तु-चित्र → चित्रलिपि → भावचित्रलिपि → चित्र शब्दित → शब्दात्मक चित्र → शब्द-प्रतीक → ध्वनिवर्ती शब्द-प्रतीक ।
ध्वनिवर्ती शब्द-प्रतीक वाली लिपि में शब्दों की ध्वनि से उनमें 'मोरफीम' का ज्ञान होने लगता है तथा इन मारफीमों के अनुसार लिपि-प्रतीकों में विकार हो जाता है । यहाँ आकर वह प्रक्रिया जग उठती है जो शब्द प्रतीकों की ध्वनिमूलक वर्णमाला की ओर जाने में प्रवृत्त करती है । 'स्टार' में एक मोरफीम है अतः शब्द-प्रतीक ज्यों का त्यों रहेगा । पर बहुवचन 'स्टार्स' में 'स' मोरफीम बढ़ा, अतः कोई विकार 'स्टार' मारफीम में 'स' का द्योतन करने के लिए बढ़ाना पड़ेगा । 'स' यहाँ मोरफीम भी है और एक वर्णात्मक अकेली ध्वनि भी । ऐ-ली-फेंट में तीन मोरफीम हैं अतः शब्दलिपि भी तीन योग दिखाने लगेगी। इसीलिए इस अवस्था पर पहुँच कर ध्वनिवर्ती शब्द-प्रतीक, प्रतीक में ध्वनि-द्योतक चिह्नों को नियोजित करने का प्रयत्न करेगा-ध्वनिवर्ती शब्द-प्रतीक → ध्वनिवर्ती शब्द प्रतीकगत ध्वनि-प्रतीक - ध्वनि-प्रतीक अक्षर → ध्वनि-प्रतीक वर्ण । चित्रलिपि से वर्णात्मक लिपि तक के विकास का यह क्रम सम्भावित है और स्थूल है।
विद्वानों ने Pictorial Art से Pictograph, Pictograph से Ideograph, Ideograph से logograph तक का विकास तो स्थूलतः ठीक अथवा सहज माना है। उससे आगे ध्वनि की ओर लिपि का संक्रमण उतना स्वाभाविक नहीं। कुछ विद्वानों की राय में यह सम्भव भी नहीं।
पाण्डुलिपि-विज्ञान की दृष्टि से तो वे प्रक्रियाएँ ही महत्त्वपूर्ण हैं, जिनसे ये विकार होते हैं और लिपि का विकास होता है। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि हमने विकास-प्रक्रिया में जहाँ → (तीर) दिया है, वहाँ बीच में और भी कई विकास-चरण हो सकते हैं । मोहनजोदड़ों की-सी स्थिति भी हो सकती है जिसमें चित्रलिपि और ध्वनिलिपि दोनों ही प्रयुक्त हों। यह भी ध्यान देने योग्य है कि जब 'स्टार' से 'स्टार्स' तक भाषा पहुँचती हैं, तब ‘एक और बहुत' का भेद करने की शक्ति उसमें आ जाती है। साथ ही शब्दों में चिह्नों द्वारा अन्य सम्बन्धों को बताने की क्षमता भी आ जानी चाहिये । व्यंजन और स्वरों के भेद अक्षरात्मक लिपि में प्रस्तुत होने लगते हैं। .. ... शब्द चिह्नों से व्याकरण-सम्बन्धों को जानने के लिए डॉ० पण्डित का निम्न उद्धरण एक सिद्धान्त प्रस्तुत करता है :
सम्भवतः एक या अधिक मोरफीनों (morphemes) से बने शब्द संकेत-चिह्नों की संख्याओं के आधार पर सबसे अधिक प्रयुक्त समुच्चय हैं । कोई चाहे तो प्रत्यय उपसर्गपरसर्ग आदि को भी उनके स्थान और वितरण के आवर्तन से ढूंढ़ सकता है। मान लीजिए नीचे दिये सोलह वाक्यों में से वर्णमाला का प्रत्येक वर्ण एक मोरफीम है तो इस भाषा के व्याकरण के सम्बन्ध में कोई क्या बता सकता है (तब भी जबकि वाक्यों के अर्थ विदित
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लिपि-समस्या/193
नहीं है)। 1 AX2 5 CYZ 9 GZ 13 D
2 AXYZ 6 DX 10 A 14 E
3 BX 7 EX 11 B 15 F
4 Cz 8 FZ 12 c -16 G
यह कहा जा सकता है कि A B C D E F G तो नाम धातुयें हैं XYZ परसर्ग हैं । XYZ का स्थानगत मूल्य ऐसा है कि वे अपने-अपने निजी क्रम को सुरक्षित रखते हैं । अन्त में Z पाता है और Y x के बाद आती है। X धातु नाम के तुरन्त बाद आता है ।।
तात्पर्य यह है कि उपलब्ध सामग्री का इस प्रकार तुलनात्मक अध्ययन किया जाना चाहिये जिससे कि यह विदित हो सके कि कितने चिह्न स्वतन्त्र रूप से भी प्रयोग में आये और कितने चिह्न ऐसे हैं जो किसी न किसी अन्य चिह्न से जुड़कर आये हैं--और ये ऐसे चिह्नों से जुड़े मिलते हैं, जो बिना किसी चिह्न के भी प्रयुक्त हुए हैं। इससे यह अनुमान होता है कि जो चिह्न स्वतन्त्र रूप से आये हैं वे 'Stems', संज्ञानाम या क्रियानाम हैं और जो इमसे जुड़कर पाते हैं वे उपसर्ग-प्रत्यय हैं। उसी लिपि के चिह्नों की पारस्परिक तुलना से वाक्य के रूप का अनुमान लगाया जा सकता है ।
किन्तु इससे भाषा का उद्भव नहीं हो सकता, न लिपि के चिह्नों के सम्बन्ध में ही कहा जा सकता है कि वे क्या शब्द हैं या किस ध्वनि के प्रतीक हैं। प्रिंसेप ने ब्राह्मी के 'द' और 'न' अक्षरों को समझ लिया था, क्योंकि वह उनकी भाषा से परिचित था, और उन लेखों के अभिप्राय को भी समझता था। ..
किन्तु मोहनजोदड़ों की लिपि की भाषा का कुछ भी ज्ञान नहीं, अतः लिपि को ठीक-ठीक नहीं उद्घाटित किया जा सका है। लिपि जहाँ मिली हैं (1) उसकी पृष्ठभूमि, इतिहास, परम्परा, अंग, संस्कृति आदि की सम्भावनानों के आधार पर, तथा (2) अन्य ज्ञात लिपियों से तुलना करके विकल्पात्मक अनुमान खड़े किए जाते हैं ।
सिन्धुघाटी की लिपि के विषय में उक्त दोनों बातों के सम्बन्ध में न तो प्रामाणिक आधार हैं, न मत हैं क्योंकि |
पहला, पृष्ठभूमि, इतिहास, परम्परा आदि की दृष्टि से एक और यह माना गया कि यह पार्यों के भारत में आने से पूर्व की संस्कृति की लिपि है । प्रार्य पूर्व भारत में द्रविड़ थे अतः यह द्रविड़-सम लिपि है और द्रविड़-सम भाषा की प्रतीक है।
1. "The most frequent groups are possibly words, consisting of one or more
morphemes according to the number of signs. One can aiso deduct the affxessuffixes, prefixes etc. by their positions and frequency distribution Suppose, in the following data of sixteen sentences, each letter of the alphabet is a morpheme, what could one say about the grammar of the language (even of the meanings of the sentences are not known)." . विही. मार्च 30.19691 One could say that the letters A, B, C, D, E, F, G are stems and the XY & Z are suffixes. The positional values of X, Y and Z are such that they maintain their respective order. Z occurs finally, Y occurs after X, X occurs immediately after the stem.
[वही, मार्च 30, 1969
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194/पाण्डुलिपि-विज्ञान
दूसरा विकल्प यह रहा कि पार्यों से पूर्व या 4000 ई० पू० यहाँ सुमेर लोग निवास करते थे और यह उन्हीं की लिपि है।
तीसरा विकल्प यह है कि इस क्षेत्र के निवासी आर्य या उन्हीं की एक शाखा के . 'असुर' थे । यह उन्हीं की भाषा और लिपि है ।
इन तीनों परिकल्पनाओं के आधार पर विविध भाषाओं की लिपियों की तुलना करते हुए उनके प्रमाणों से भी अपने-अपने मत की पुष्टि की गयी है।
अब जी. आर. हंटर महोदय ने 'द स्क्रिप्ट ऑव हड़प्पा एण्ड मोहनजोदड़ों एण्ड इट्स कनैक्शन विद अदर स्क्रिप्ट्स' में बताया है कि- "बहत-से चिह्न प्राचीन मिस्र की महान लिपि से उल्लेखनीय समता रखते हैं। सभी एन्थ्रोपो-मारफिक चिह्न मिस्री समता वाले हैं, और वे यथार्थतः ठीक उसी रूप के हैं
और यह रोचक बात है कि इन एन्थ्रोपो-मारफिक चिह्नों से दूर की भी समता रखने वाले चिह्न सुमेरियन या प्रोटो-एलामाइट लिपि में नहीं मिलते । दूसरी ओर हमारे बहुत-से चिह्न ऐसे हैं जो प्रोटो-एलामाइट और जेमदेत नस्न की पाटियों के चिह्नों से हू-ब-हू मिलते हैं, और जिनकी मिस्री मोरग्राफिक समकक्षता की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इससे कोई भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि यह मान्यता बलवती ठहरती है कि हमारी लिपि कुछ तो मिस्र से ली गयी है और कुछ मेसोपोटामिया से । किंबहुना, एक अच्छे अनुपात में ऐसे चिह्न भी हैं जो तीनों में समान हैं, जैसे-वृक्ष, मछली, चिड़िया आदि के चिह्न । किन्तु ऐसा होना सम-आकस्मिक (Concidental) है और अनिवार्य भी है, क्योंकि लिपि की प्रवृत्ति चित्रात्मक है।
फिर वे आगे कहते हैं कि प्रोटो-एलामाइट से और भी साम्य है अतः हमने मिस्री चिह्न ही उधार लिए हैं।
और आगे वे यह सुझाव भी प्रस्तुत करते हैं कि हो सकता है कि मिस्त्री, प्रोटोएलामाइट और सिन्धुघाटी की लिपियों की जनक या मूल एक चौथी ही भाषा-लिपि हो, जो इनसे पूर्ववर्ती हो।
अब ये सभी परिकल्पनाएँ (हाइपोथीसीस) ही हैं। अभी तक भी हम सिन्धुघाटी की लिपि पढ़ सके हों, ऐसा नहीं लगता । - अभी हाल में फिर प्रयत्न हुए हैं और फिनिश-दल तथा रूसी दल ने सिन्धु-लिपि और सिन्धु-भाषा को समझने का प्रयत्न किया है। कम्प्यूटर का भी उपयोग किया गया है और ये इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यह द्रविडोन्मुख भाषा और तद्नुकूल लिपि है। साथ ही दो भारतीय विद्वानों ने भी नये प्रयत्न किये हैं। एक है श्री कृष्णराव, दूसरे हैं डॉ० फतेहसिंह । इन दोनों का ही मन्तव्य है कि सिंधुघाटी की लिपि ब्राह्मी का पूर्वरूप एवं भाषा वेदपूर्वी संस्कृत ही है । यूनीवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज की फैकल्टी प्रॉव अोरियण्टल स्टडोज के एफ. पार. अल्लचिन ने 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के एक अंक में एक पत्र में, जहाँ पाश्चात्य प्रयत्नों को रचनात्मक (constructive) प्रयत्न बताया है और भारतीय प्रयत्नों को अंतः प्रज्ञाजन्य (intuitive), अन्त में उसने लिखा है कि
1, Hunter, GR-The Script of Hadappa and Mohan Jodaro and its connection
with other Scrips, P. 45-47.
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लिपि-समस्या 195
"In the mean while let us recognise that while so many new decipherments are appearing they cannot all be right, and are more likely all to be wrong,"
इतना विवेचन 'सिंधुघाटी लिपि' के सम्बन्ध में करने की इसलिए आवश्यकता हुई कि यह जाना जा सके कि किसी अज्ञात लिपि को पढ़ने में कितनी समस्याएँ निहित रहती हैं और उन सबके रहते भी किसी और महत्त्वपूर्ण बात का प्रभाव रहने से अज्ञात लिपि को ठीक-ठीक जानने की प्रक्रिया असफल हो जाती है। सिंधुघाटी सभ्यता के सम्बन्ध में जितने भी विकल्प रखे गये हैं वे सभी इतिहास से न तो पुष्ट ही हैं, न सिद्ध ही हैं ।
___ यथा—पहला विकल्प यह है कि यह सभ्यता पार्यों के आगमन से पूर्व की द्रविड़ सभ्यता है। पार्यों के आगमन से पूर्व द्रविड़ सारे भारतवर्ष में बसे हुए थे। अब आर्यों के आगमन का सिद्धान्त तथा द्रविड़ों का आर्यों से भिन्न रक्त या नस्ल का होने का नृतात्त्विक सिद्धान्त, ये दोनों ही पूर्णतः सिद्धप्रमेय नहीं माने जा सकते, न अकाट्य प्रमाणों से पुष्ट है। इस सम्बन्ध में एक अन्तर बहुत स्पष्ट दिखाई पड़ता है, मूलत यह सिद्धान्त बिदेशियों के द्वारा ही प्रतिपादित हुए थे, और मूलतः सिन्धुघाटी को द्रविड़ सभ्यता के अवशेष बताने वाले भी अधिकांशतः विदेशी ही हैं, और भारतीयों का झुकाव अभेद को स्वीकृति पर निर्भर करता है। इमी अप्रामाणिक अन्तर के कारण द्रविड़ भाषा, द्रविड़-लिपि और कार्य भाषा तथा असुर भाषा का विकल्प उठा है।
सिंधु-लिपि में मिस्र की चित्रलिपि तथा सुमेर की लिपि के साथ ब्राह्मी लिपि के साम्य भी हैं । इससे कल्पना की गयी कि मिस्र और सुमेर में उधार लिये गये शब्द और वर्ण हैं। डॉ. राजबली पाण्डेय ने यह सुझाव दिया है कि जहां तक एक से दूसरे के द्वारा उधार लेने का प्रश्न है निम्नलिखित ऐतिहासिक परम्पराएँ इसमें हमारी सहायता कर सकती हैं(म) प्राचीन मिस्र की सभ्यता के निर्माता लोग पश्चिमी एशिया से मित्र को
गये थे । (प्रा) यूनानी लेखकों के अनुसार फोनेशियन्स, जो कि प्राचीन काल के महान्
सामुद्रिक यात्रा-दक्ष और संस्कृति-प्रसारक लोग थे; त्यर (TYR) में उप
निवेश बनाकर रहते थे जो कि पश्चिमी एशिया का बड़ा बन्दरगाह था । (इ) सुमेरियन लोग स्वयं भी समुद्र के मार्ग से बाहर से: प्राकर सुमेरिया में
बसे थे। (ई) पुरानी ऐतिहासिक परम्पराओं के अनुसार, जो कि पुराणों और महाकाव्यों
में दी हुई हैं, आर्य-जातियाँ उत्तर-पश्चिमीः भारत से उत्तर की ओर और
1. The use of Aryan ann Dravadian as racial terms is unknown to scientific stu
dents of Anthropology (Nilkantha Shastri, cultural contacts between Aryon & Dravadians P2). There is no Drevadian race and no Aryan race. (A. L. Bashem : Bulletin of the .nstitute of Historical research II (1963), Madras.
(स्वाहा. . पर उद्धृत)
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196/पाण्डुलिपि-विज्ञान
पश्चिम की ओर आर्य जातियाँ गयी थीं ।।
इन परिस्थितियों में इस तथ्य के सम्बन्ध में असम्भावना नहीं मानी जा सकती है कि या तो आर्य लोग या उनके असुर नाम के बन्धुओं ने सिन्धुघाटी की लिपि का निर्माण किया । वे ही उसे पश्चिमी एशिया और मिश्र में ले गये। इस प्रकार संसार के उन भागों में लिपि के विकास को प्रोत्साहित किया ।
_डॉ० राजबली पांडेय का सुझाव ऐतिहासिक तर्कमत्ता के अनुकूल है : निश्चय ही इस लिपि की उद्भावना भारत में हुई और यहीं से सुमेर और मिस्र को गयी, वहाँ इस लिपि का और विकास हुआ। पर इस सिद्धान्त से भी भाषा और लिपि के उद्घाटन में यथार्थ सहायता नहीं मिल पाती।
सिन्धु-लिपि दायें से बायें खरोष्ठी या फारसी लिपि की भाँति लिखी गयी है, या बायें से दायें, रोमन और नागरी लिपि की भांति । इस सम्बन्ध में भी वैध है-एक कहता है दायें से बायें, दूसरा कहता है बायें से दायें। यह समस्या एक समय ब्राह्मी के सम्बन्ध में भी उठी थी। ब्राह्मी की एक शैली दायें से बायें लिखने की भी थी, अवश्य कुछ अवशेष अब भी मिलते हैं।
ब्यूलर ने ब्राह्मी को दाहिने से बाए लिखने का जो प्रमाण दिया है वह अशोक के येरगुडी (क रनूल, मद्रास) लेख तथा एरण के एक मुद्रा-लेख पर आधारित है। कनिंघम ने मध्य प्रदेश के जबलपुर से उस सिक्के का पता लगाया था जिस पर ब्राह्मी में मुद्रा-लेख दाहिने से बाँए लिखा है । इसे एक आकस्मिक घटना मान सकते हैं और टकसाल के साँचानिर्माता की भूल से ऐसा हो गया होगा। इसी तरह अशोक के लेख में लिखने का क्रम. उलटा मिलता है। येरगुडी के लेख में पहली पंक्ति ठीक ढंग से बाँए से दाहिने लिखी है और दूसरी पंक्ति दाहिने से बाँए । तीसरी बाँए से दाहिने तथा चौथी दाहिने से बाँए । इससे स्पष्ट है कि लेख अंकित करने वाला वास्तविक रूप में ब्राह्मी लिखना जानता था।
1. As regards the question of borrowing by one from the others, the following
historical tradition will help us :(1) The authors of ancient Egyptian crvilisation migrated from Western Asia
to Egypt. (Maspeor-The Dawn for civilisation : Egypt and chaldea, p. 46; Passing
of the Empire, VIII, Smith, Ancient Egyptians, P. 24) (ii) The Phonecians the great sea-faring and culture spreading people of
ancient times, were colonists in TYR, the great sea-port of Western Asia, according to the Great writers.
(Herodouts, 11, 44) (ii) The Summerians themselves came to Sumeria from outside through seas.
(Wolley, C.L.-The Summerians, 189) (iv) The Aryans Tribes, according to the ancient historical, tradition recorded
in the Puranas and Epics migrated from N.W. India towards the north and
the west. (F. E. Pargiter-Ancient Indo-Historical Traditions, XXV) 2. Under the circumstances, there is no impossibility about the fact that either
the Aryans or their cousins the Asuras invented the Indus Valley script and carried it tc Western Asia and Egypt and thus inspired the evolution of scripts in these parts of the World. (Pandey, R.B.-Indian Paleography, P.34)
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लिपि-समस्या/197
पर एक नयी प्रणाली (दाहिने से बाँए) का उसी लेख में समावेश करना चाहता था। इसलिए उलटे क्रम (दाहिने से बाएं) का भी उसने उपयोग किया। किन्तु इस कृत्रिम रूप के आधार पर कोई गम्भीर सिद्धान्त स्थिर करना युक्तिसंगत न होगा।
ब्राह्मी को, दिल्ली के अशोक स्तम्भ पर अंकित ब्राह्मी को, : एक व्यक्ति ने यूनानी लिपि माना था, और उस ब्राह्मी लेख को अलेक्जेंडर की विजय का लेख माना था। काशी के ब्राह्मण ने एक मनगढन्त भाषा और उसकी लिपि बतायी, किसी ने उनको तंत्राक्षर बताया; एक जगह किसी ने पहलवी माना; और भी पक्ष प्रस्तुत हुए, पर प्रत्येक लेख की स्थिति और उनका परिवेश, उनका स्थानीय इतिहास तथा अन्य विवरणों की ठीक जानकारी हुई और तब तुलना से वे अक्षर ठीक-ठीक पढ़े जा सके हैं ।
पर सिन्धुघाटी की सभ्यता विषयक विविध समस्याएँ अभी समस्याएँ ही बनी हुई हैं । यह सभ्यता भी केवल सिन्धुघाटी तक सीमित नहीं थी, अब तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी इसके गढ़ भूमि-गर्भ में गभित मिले हैं। लगता यह है कि महान जलप्लावन से पूर्व की यह संस्कृति-सभ्यता थी। पानी के साथ मिट्टी बह पायी और उनमें ये नगर दब गये। पर ये सभी कल्पनाएँ हैं और अधिक उत्खनन से कहीं कोई ऐसी कुंजी मिलेगी जो इसका रहस्य खोल देगी। तो पांडुलिपि-विज्ञान के जिज्ञासु के लिए उन अड़चनों, कठिनाइयों और अवरोधों को समझने की आवश्यकता है जिनके कारण किसी अज्ञात लिपि का उद्घाटन सम्भव नहीं हो पाता।
. वे अड़चनें हैं : (1) किसी सांस्कृतिक परम्परा का न होना। ऐसी परम्परा प्राप्त होनी चाहिये जिसमें
विशेष लिपि को बिठाया जा सके।. .... (2) ठीक इतिहास का अभाव तथा इतिहास की विस्तृत जानकारी का प्रभाव या ....विद्यमान ऐतिहासिक ज्ञान में अनास्था। (3) अयथार्थ और अप्रामाणिक पूर्वाग्रहों का होना । (4) तुलना से समस्या का मोर जटिल होना। (5) लिपि-विषयक प्रत्येक समस्या के सम्बन्ध में भ्रम होना । (6) लिपि में लिखी भाषा का ठीक ज्ञान न होना, यथा-प्राकृत के स्थान पर
पहलवी और प्राकृत के स्थान पर संस्कृत भाषा समझकर किये गये प्रयत्न विफल हो गये थे।
ऊपर हम 'स्वाहा' से लिये गये उद्धरण में ब्राह्मी लिपि पढ़ने के प्रयत्नों की सामान्य रूप-रेखा पढ़ चुके हैं । यहाँ महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचन्द मोझा से भी इस सम्बन्ध में एक उद्धरण दिया जाता है, इससे ब्राह्मी लिपि के पढ़ने के प्रयत्नों का अच्छा ज्ञान हो सकेगा।
बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के संग्रह में देहली और इलाहाबाद के स्तम्भों तथा खंडगिरि के चट्टान पर खुदे हुए लेखों की छापें आ गई थीं, परन्तु विल्फर्ड का यत्न निष्फल होने से अनेक वर्षों तक उन लेखों के पढ़ने का उद्योग न हुआ। उन लेखों का आशय जानने की जिज्ञासा रहने के कारण जेम्स प्रिन्सेप के ई० सं० 1834-35 में इलाहाबाद,
उपाध्याय, वासुदेव-प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० 249 ।
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198/पाण्डुलिपि-विज्ञान
रधिया और मथिया के स्तम्भों पर के लेखों की छापें मंगवाई और उनको देहली के लेख से मिलाकर यह जानना चाहा कि उनमें कोई शब्द एक-सा है या नहीं। इस प्रकार उन चारों लेखों को पास-पास रखकर मिलाने से तुरन्त ही यह पाया गया कि ये चारों लेख एक ही हैं । इस बात से प्रिन्सेप का उत्साह बढ़ा और उसे अपनी जिज्ञासा पूर्ण होने की दृढ़ आशा बंधी। फिर इलाहाबाद के स्तम्भ के लेख से भिन्न-भिन्न आकृति के अक्षरों को अलग-अलग छांटने पर यह विदित हो गया कि गुप्ताक्षरों के समान उनमें भी कितने अक्षरों के साथ स्वरों की मात्राओं के पृथक्-पृथक् पाँच चिह्न लगे हुए हैं, जो एकत्रित कर प्रकट किये गये। इससे अनेक विद्वानों को उक्त अक्षरों के यूनानी होने का जो भ्रम था वह दूर हो गया। स्वरों के चिह्नों को पहिचानने के बाद मि. प्रिन्सेप ने अक्षरों के पहिचानने का उद्योग करना शुरू किया और उक्त लेख के प्रत्येक अक्षर को गुप्तलिपि से मिलाना और जो मिलता गया उसको वर्णमाला के क्रमवार रखना प्रारम्भ किया। इस प्रकार बहुत-से अक्षर पहिचान में आ गये।
पादरी जेम्स स्टिवेन्सन् ने भी प्रिन्सेप की भांति इसी शोध में लग कर 'क', 'ज', 'प' और 'ब' अक्षरों को पहिचाना और इन अक्षरों की सहायता से लेखों को पढ़कर उनका अनुवाद करने का उद्योग किया गया परन्तु कुछ तो अक्षरों के पहिचानने में भूल हो जाने, कुछ वर्णमाला पूरी ज्ञात न होने और कुछ उन लेखों की भाषा को संस्कृत मानकर उसी भाषा के नियमानुसार पढ़ने से वह उद्योग निष्फल हुमा। इससे भी प्रिन्सेप को निराशा न हुई। ई० सं० 1836 में प्रसिद्ध विद्वान लँसन् ने एक बैट्रिअन् ग्रीक सिक्के पर इन्हीं अक्षरों में अंगयां क्लिस का नाम पढ़ा। ई० सं० 1837 में मि. प्रिन्सेप ने सांची के स्तूपों से सम्बन्ध रखने वाले स्तम्भों आदि पर खुदे हुए कई एक छोटे-छोटे लेखों की छापें एकत्र कर उन्हें देखा तो उनके अन्त के दो प्रक्षर एक-से दिखाई दिये और उनके पहिले प्रायः 'स' अक्षर पाया गया जिसको प्राकृत भाषा के सम्बन्ध कारक के एक वचन का प्रत्यय (संस्कृत 'स्य' से) मानकर यह अनुमान किया कि ये सब लेख अलग-अलग पुरुषों के दान प्रकट करते होंगे और अंत के दोनों प्रक्षर, जो पढ़े नहीं और जिनमें से I. जर्नल ऑफ दी एशियाटिक सोसाइटी ऑफ गंगाल, जिल्द 3, पृ. 7, प्लेट 51 2. अशोक के लेखों की लिपि मामूली देखने वाले को अंग्रेजी या ग्रीक लिपि का प्रम उत्पन्न करा दे, ऐसी
है। टॉम कोरिअट नामक मुसाफिर ने अशोक के देहली के स्तम्भ के लेख को देखकर एस. हि वटकर को एक पत्र में लिखा कि "मैं इस देश (हिन्दुस्तान) के देली (देहली) नामक शहर में आया जहाँ पर 'बलेक्टर दी ग्रेट (सिकन्दर) ने हिन्दुस्तान के राजा पोरस को हराया और अपनी विजय की यादगार में उसने एक वृहत् स्तम्भ खड़ा करवाया जो अब तक वहाँ विद्यमान है" (केरस' बाँयेजिज एंड ट्रेवल्स, जि.9 पृष्ठ 423 क. आ. स. रि. जि. 1 पृष्ठ 163) इस अरह जब टॉम कोरिअट ने अशोक के लेख वाले स्तम्भ को बादशाह सिकन्दर का खड़ा करवाया हबा मान लिया तो उस पर के लेख के पढ़े न जाने तक दूसरे युरोपिअन् यानी आदि का उसकी लिपि को ग्रीक मान लेना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पादरी एडवर्ड टेरी ने लिखा है कि टॉम कोरिअट ने मुझसे कहा कि मैंने देली (देहली) में ग्रीक लेख वाला एक बहुत बड़ा पाषाण का स्तम्भ देखा जो "अलेक्बैंडर दी ग्रेट' ने उस प्रसिद्ध विजय की यादगार के निमित्त उस समय वहाँ पर खड़ा करवाया था" (क. आ. स..रि. जि. 1, पृ०163-64) इसी तरह दूसरे लेखकों ने उस लेख को ग्रीक लेख
मान लिया था। 3. जर्नल ऑफ दी एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, जि.3, पृ.4851 4. 'न' को '' पढ़ लिया था और 'द' को पहिचाना न था।
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लिपि-समस्या/199 पहिले के साथ 'पा' की मात्रा और दूसरे के साथ अनुस्वार लगा है उनमें से पहिला अक्षर 'दा' और दूसरा 'न' (दान) ही होगा । इस अनुमान के अनुसार 'द' और 'न' के पहिचाने जाने पर वर्णमाला सम्पूर्ण हो गई और देहली, इलाहाबाद, साँची, मथिया, रधिया, गिरनार प्रौली आदि के लेख सुगमतापूर्वक पढ़ लिए गये। इससे यह भी निश्चय हो गया कि उनकी भाषा, जो पहिले संस्कृत मान ली गई थी वह अनुमान ठीक न था, वरन उनकी भाषा उक्त स्थानों की प्रचलित देशी (प्राकृत) भाषा थी। इस प्रकार प्रिन्सेप आदि विद्वानों के उद्योग से ब्राह्मी अक्षरों के पढ़े जाने से पिछले समय के सब लेखों को पढ़ना सुगम हो गया क्योंकि भारतवर्ष की समस्त प्राचीन लिपियों का मूल यही ब्राह्मी लिपि है ।। ब्राह्मी वर्णमाला
जिस 'ब्राह्मी वर्णमाला' के उद्घाटन का रोचक इतिहास ऊपर दिया गया है, उसे पढ़ने में आज विशेष कठिनाई नहीं होती। प्रिंसेप आदि के प्रयत्नों ने वह वर्णमाला हमारे लिए हस्तामूलकवत कर दी है । वह वर्णमाला कैसी है, इसे बताने के लिए नीचे उसका पूरा रूप दे रहे हैं
अशोककालीन सामान्य ब्राह्मी लिपि की वर्णमाला यह है
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1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ० 39-40 ।
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200/पाण्डुलिपि-विज्ञान
(भारतीय साहित्य-जनवरी, 1959)
इस अशोक लिपि से विकसित होकर भारत की विविध लिपियाँ बनी हैं। इन लिपियों की आधुनिक वर्णमाला से तुलनात्मक रूप बताने के लिए पं० उदयशंकर शास्त्री ने एक चार्ट बनाया है, वह यहाँ उद्धृत किया जाता है । भारत में लिपि-विचार
श्री गोपाल नारायण बहुरा जी ने लिपि के सम्बन्ध में जो टिप्पणियाँ भेजी हैं, उनमें पहले लिपि विषयक प्राचीन उल्लेखों की चर्चा की गयी है । वे लिखते हैं :
_ "बौद्धग्रन्थ 'ललितविस्तार'' के दसवें अध्याय में 64 लिपियों के नाम आये हैं। 1-ब्राह्मी, 2-खरोष्ठी, 3-पुष्करसारी, 4-अंगलिपि, 5-बंगलिपि, 6-मगधलिपि, 7-मंगत्यलिपि, 8-मनुष्यलिपि, 9-अंगुलीय लिपि, 10-शकारिलिपि, 11-ब्रह्मवल्ली, 12-द्राविड़, 13-कनारि, 14-दक्षिण, 15-उग्र, 16-संख्या लिपि, 17-अनुलोम, 18-ऊर्ध्वध्वनु, 19-दरदलिपि, 20-खास्यलिपि, 21-चीनी, 22-हूण, 23-मध्याक्षरविस्तार लिपि, 24-पुष्पलिपि, 25-देवलिपि, 26-नाग लिपि, 27-यक्षलिपि, 28-गन्धर्वलिपि, 29-किन्नरलिपि, 30-महोरगलिपि, 31-असुरलिपि, 32-रुड़लिपि, 33-मृगचक्र लिपि, 34-चक्रलिपि, 35-वायुमरुलिपि, 36-मौमदेवलिपि, 37-अन्तरिक्षदेवलिपि, 38-उत्तरबुरुद्वीपलिपि, 39-अपरगौडादिलिपि, 40-पूर्वविवेहलिपि, 41-उत्क्षेपलिपि, 42-निक्षेपलिपि, 43-विक्षेप लिपि, 44-प्रक्षेप लिपि, 45-सागर लिपि, 46-ब्रजलिपि, 47-लेख-प्रतिलेख लिपि, 48-अनुद्रुतलिपि, 49-शास्त्रवर्तलिपि, 50-गणावर्तलिपि, 51-उत्क्षेपावर्त, 52-विक्षेपावर्त, 53-पादलिखितलिपि, 54-द्विरुत्तरपदसन्धिलिखित लिपि, 55-दशोत्तरपदसंधिलिखित लिपि, 56-अध्याहारिणी लिपि, 57-सर्वरुतसंग्रहणी लिपि, 58-विद्यानुलोभलिपि, 59-विमिश्रितलिपि, 60-ऋषितपस्तप्तलिपि, 61-धरणीप्रेक्षजालिपि, 62-सर्वोषधनिष्यन्दलिपि, 63-सर्वसारसंग्रहणी लिपि, 64-सर्वभूतरुद्ग्रहणी लिपि ।
उक्त लिपियों के नाम पढ़ने से ही ज्ञात हो जायेगा कि इनमें से बहुत-से नाम तो लिपि-योतक न होकर लेखन-प्रकार के हैं, कितने ही कल्पित लगते हैं और कितने ही नाम पुनरावृत्त भी हैं।
किन्तु डॉ० राजबली पांडेय इस मत को मान्यता नहीं देते। उन्होंने इन चौसठ लिपियों को वर्गीकृत करके अपनी व्याख्या दी है। इन लिपियों पर डॉ० पाण्डेय की पूरी टिप्पणी यहाँ उद्धृत की जाती है । लिखते हैं कि :
"ऊपर की सूची में भारतीय तथा विदेशी उन लिपियों के नाम हैं जिनसे उस काल में, जबकि ये पंक्तियां लिखी गयी थीं, भारतीय परिचित थे या जिनकी कल्पना उन्होंने की थी। पूरी सूची में से केवल दो ही लिपियां ऐसी हैं जिन्हें साक्षात प्रमाण के प्राधार
1. मूल 'सलितविस्तार' अन्य संस्कृत में है इसमें बुख का चरित वर्णित है। इसके रचना-काल का
ठीक-ठीक पता नहीं चलता-परन्तु इसका चीनी भाषा में अनुवाद 308 ई. में हुआ था। डॉ. राजबली पांडेय ने इतना और बताया है कि यह कृति अपने चीनी अनुवाद से कम से कम एक या दो शताब्दी पूर्व की तो होनी ही चाहिये। .
(पार, राजबली-इण्डियन पेलियोग्राफी, पृ. 26)
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(पं० उदय शंकर शास्त्रो का चार्ट
हस्तलेखों की वर्णमाला लामी बाली कुटिल साक्षरी थीं शो धवी शनी वंशती (श्वेशाती, गुरमुखी पूर्वी पश्चिमी विवीशले १०वं शताध्विीशती हिन्दी |
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फलक २
[पं० उदय शंकर शास्त्रो का चार्ट
हस्तलेखकों की वर्णमाला हामाज ज ज जा
-
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-
2222222 00387a3 35 3 35333535 टामाटामाबाद IMAM हास
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[पं० उदय शंकर शास्त्री का चार्ट
टाकरी Rav३ गतीशिवांशले १४वेशते
मातीमा ८ वीं शतगुरमुर
Jalerao DOOR0771111
-
S-RSANNA
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-
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फलक
[पं० उदय शंकर शास्त्री का चार्ट नागरीक
१२वीं शती १२वीं में शती | वी शती ११वीं शती शारदा | टाकरी | कैथी | मैथिली | हिन्दी
ISCU
2012 २२233 2 2 |२ 333 ३.३ ४४४४४
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21535 273132107
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लिपि -समस्या / 201
पर पहचाना जा सकता है । येो लिपियाँ ब्राह्मी और खरोष्ठी हैं। चीनी विश्वकोष फा-वन-सु-लिय ( रचना - काल 668 ई० ) इस प्रसंग में हमारी सहायता करता है । इसके अनुसार लेखन का आविष्कार तीन देवी शक्तियों ने किया था, इनमें पहला देवता था फन (ब्रह्मा) जिसने ब्राह्मी लिपि का आविष्कार किया, जो बांये से दाँये लिखी जाती है, से दूसरी दैवी शक्ति थी किया-लू (खरोष्ठ) जिसने खरोष्ठी का श्राविष्कार किया, जो दाँये से बाँये लिखी जाती है, तीसरी और सबसे कम महत्त्पूर्ण दैवी शक्ति थी त्साम की ( Tsam -ki) जिसके द्वारा ग्राविष्कृत लिपि ऊपर से नीचे की प्रोर लिखी है । यही विश्व-कोष हमें आगे बताया है कि पहले दो देवता भारत में हुए थे और तीसरा चीन
उत्पन्न
में........ ।”
2
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सूक्ष्मता से विचार करने पर अधिकाँश लिपियाँ (ललितविस्तर में बतायी गयी ) निम्नलिखित वर्गों में विभाजित की जा सकती हैं; कुछ तो फिर भी ऐसी रह जाती हैं जिन्हें पहिचानना और परिभाषित करना कठिन ही है :
1.
भारत में सबसे अधिक प्रचलित लिपि ब्राह्मी । यह लिपि की प्रकारादिक (alphabetic) प्रणाली थी ।
3.
4.
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वह लेखन प्रणाली जो भारत के उत्तर-पश्चिम तक ही सीमित रही खरोष्ठी । इसमें कारादिक वर्णमाला तो ब्राह्मी के समान थी पर लिपि भिन्न रही ।
भारत में ज्ञात विदेशी लिपियां :
(क) यवनाली (यवनानी ) — यूनानी (ग्रीक) वाणिज्य व्यवसाय के माध्यम से भारत इससे परिचित था । यह भारत - बास्त्री और कुषारण सिक्कों पर भी अंकित मिलती है ।
(ख) दरदलिपि ( दरद लोगों की लिपि)
(ग) खस्या लिपि (खसों-शकों की लिपि)
(घ) चीना लिपि (चीनी लिपि)
(च) हूण लिपि ( हूरों की लिपि)
(छ) असुर लिपि (असुरों की लिपि, जो कि पश्चिम एशिया में प्रायों की शाखा
के ही थे ।)
(ज) उत्तर कुरुद्वीप लिपि (उत्तर कुरु, हिमालय, उत्तर के क्षेत्र की लिपि) (झ) सागर - लिपि (समुद्री क्षेत्रों की लिपि)
भारत की प्रादेशिक लिपियाँ: आधुनिक प्रादेशिक लिपियों की भाँति पूर्वकाल में ब्राह्मी के साथ-साथ ऐसी प्रादेशिक लिपियाँ भी रही होंगी जो या तो ब्राह्मी का ही रूपान्तर हों, या उससे ही विकसित या व्युत्पन्न हों या पुरा ब्राह्मी या तत्कालीन किसी अन्य स्वतन्त्र लिपि से व्युत्पन्न न हों । ब्राह्मी के रूपान्तरों को छोड़ कर उक सभी कालकवलित हो गयीं। फिर भी नीचे लिखे नामों में कुछ की स्मृति अवशिष्ट है :
(क) पुखरसारीय ( पुष्करसारीय) अधिक सम्भावना यह है कि यह पश्चिमी गांधार में प्रचलित रही हो। जिसकी राजधानी पुष्करावती थी ।
(ख) पहारइय (उत्तर पहाड़ी क्षेत्र की लिपि)
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202/पाण्डुलिपि-विज्ञान
(ग) अंग लिपि (अंग उ०पू० बिहार की लिपि) (घ) बंग लिपि बंगाल में प्रचलित लिपि) (च) मगध लिपि (मगध में प्रचलित लिपि) (छ) द्रविड़ लिपि (दमिलि) (द्रविड़ प्रदेश की लिपि) (ज) कनारी लिपि (कनारी क्षेत्र की लिपि) (झ) दक्षिण लिपि (दखन (दक्षिण) की लिपि) (ट) अपर-गौमाद्रिड़-लिपि (पश्चिमी गौड़ की लिपि)
(ठ) पूर्व विदेह लिपि (पूर्व विदेह की लिपि) 5. जनजातियों की (Tribal) लिपियाँ :
(क) गंधर्व लिपि (गंधों की लिपि, ये हिमालय की जन-जाति हैं)। (ख) पौलिंदी (पुलिंदों की : विध्यक्षेत्र के लोगों की) (ग) उग्रलिपि (उग्र लोगों की लिपि) (घ) नागलिपि (नागों की लिपि) (च) यक्षलिपि [यक्षों (हिमालय की एक जाति) की] (छ) किन्नरलिपि (कन्नरों, हिमालय की एक जाति की लिपि)
(ज) गरुड़लिपि (गरुड़ों की लिपि) 6. साम्प्रदायिक लिपियां :
(क) महेसरी (महेस्सरी माहेश्वरी, शैवों में प्रचलित एक लिपि)
(ख) भीमदेव लिपि (भूमि के देवता (ब्राह्मण) द्वारा प्रयुक्त लिपि) 7. चित्ररेखान्वित लिपियाँ :
(क) मंगल्य लिपि (एक मंगलकारी लिपि) (ख) मनुष्य लिपि (एक ऐसी लिपि जिसमें मानव-प्राकृतियों का उपयोग हो) (ग) प्रांगुलीय लिपि (अंगुलियों के से आकार वाली लिपि) (घ) उध्वं धनु लिपि (चढ़े हुए धनुष के से आकार वाली लिपि) (च) पुष्पलिपि (पुष्पांकित लिपि) (छ) मृगचक्र लिपि (वह लिपि जिसमें पशुओं के चक्रों का उपयोग किया गया
हो।) (ज) चक्र लिपि (चक्राकार रूप वाली लिपि)
(झ) बज्र लिपि (वज्र के समरूप वाली लिपि) ४. स्ममरणोपकरी (Mnemonic) लिपि
(क) ग्रंकलिपि (या संख्या लिपि)
(ख) गणित लिपि (गणित के माध्यम वाली लिपि) 9. उभारी या खोदी लिपि : (क) प्रादंश या पायस लिपि (बाच्यार्थतः कुतरी हुई (bitten) अर्थात् छेनी से
खोदी हुई)
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लिपि-समस्या/ 203
10. शैली-परक लिपियां :
(क) उत्क्षेप लिपि (ऊपर की ओर उभार कर (उछालकर) लिखी गयी लिपि) (ख) निक्षेप लिपि (नीचे की ओर बढ़ा कर लिखी गयी लिपि) (ग) विक्षेप लिपि (सब अोर से लंवित लिपि) (घ) प्रक्षेप लिपि (एक ओर विशेष संवद्धित लिपि) (च) मध्यक्षर विस्तार लिपि (वह लिपि जिसमें मध्य-अक्षर को विशेष सम्बद्धित
किया गया हो ।) 11. संक्रमण-स्थिति द्योतक लिपि :
विमिश्रित लिपि (चित्ररेखान्वित, अक्षर (Sylla bics) तथा वर्ण से विमिश्रित
लिपि)। 12. त्वरा लेखन :
___(क) अनुद्र त लिपि-शीघ्रगति से लिखने की लिपि या त्वरा लेखन की लिपि) 13. पुस्तकों के लिए विशिष्ट शैली :
शास्त्रावर्त (परिनिष्ठित कृतियों की लिपि) 14. हिसाबकिताब की विशिष्ट शैली :
(क) गणावर्त (गणित मिश्रित कोई लिपि) 15. दैवी या काल्पनिक :
(क) देवलिपि (देवताओं की लिपि) (ख) महोरग लिपि सर्पो (उरगों) की लिपि (ग) वायुमरु लिपि (हवाओं की लिपि) (घ) अन्तरिक्ष-देव लिपि (आकाश के देवताओं की लिपि)
दैवी या काल्पनिक लिपियों को छोड़ कर शेष भेद या रूप भारत के विविध भागों की लिपियों में, पड़ोसी देशों की लिपियों में, प्रादेशिक लिपियों में और अन्य चित्र-रेखा नन्वयी या प्रालंकारिक लेखन में कहीं न कहीं मिल ही जाते हैं ।
इस लेखक ने मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की लिपि को विमिश्रित लिपि माना है जिसमें संक्रमण सूचक चित्ररेखक (pictographs), भावचित्र रेखिक (ideographs) तथा ध्वनि- त्रिक (अक्षर) रूप मिलेजुले मिलते हैं ।
किन्तु अठारह लिपियों का उल्लेख कई प्रमाणों में मिलता है । इस सम्बन्ध में हम पुनः श्री बहुरा जी की टिप्पणी उद्धृत करते हैं : __ वर्णक समुच्चय में मध्यकालीन अट्ठारह लिपियों के नाम इस प्रकार हैं :
1. उड्डी (उड़िया), 2. कीरी, 3. चणक्की, 4. जक्खा (यक्ष लिपि), 5. जवणी (यावनी ग्रीक लिपि), 6. तुरक्की (तुर्की), 7. द्राविड़ी, 8. नडि, नागरी (ई०सं० की
1. Pandey, Rajbali-Indian Palaeography, P.25-28. 2. Ibid. P. 29.
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204/पाण्डुलिपि-विज्ञान
8वीं शताब्दी के बाद में विकसित) 9. निमित्री (ज्योतिष सम्बन्धी), 10. पारसी, 11. मूयलिबि, मालविणी (मालव प्रदेशीय लिपि), 12. मूलदेवी (चौरशास्त्र के प्रणेता मूलदेव प्रणीत संकेत लिपि), 13. रक्वशी (राक्षसी), 14. लाडलि (लाट प्रदेशीय), 15. सिधविया (सिंधी, 16. हंसलिपि (Arrow headed alphabets) के नाम तो लावण्यममयकृत 'विमलप्रबन्ध' में मिलते हैं और इनसे जूनी (प्राचीन) लिपियों के नाम, 17. जवगालिया अथवा जवणनिया और 18. दामिलि अोर है ।
___'पन्नवणा सूत्र' की प्राचीन प्रति में 18 लिपियों के नाम इस प्रकार हैं :-1. बंगी, 2. जवणालि, 3. दोसापुरिया, 4. खरोट्ठी, 5. पुक्खरसारिया, 6. भोगवइया, 7. पहाराइया, 8. उपअंतरिरिक्खया, 9. अक्खरपिठिया, 10. तेवरणइया (वेवणइया) 11. गिलिगहइया, 12. अंकलिपि, 13. गणितलिपि, 14. गंधव्व लिपि, 15. आदंस (प्रायस) लिपि, 16. माहेसरी, 17. दमिली, 18. पोलिंदी।
_ 'जैन समवायांग सूत्र' की रचना अशोक से पूर्व हुई मानी जाती है। इसमें दी हुई अट्ठारह लिपियों की सूची में ब्राह्मी और खरोष्ठी के अतिरिक्त जिन लिपियों के नाम दिए गए हैं उनमें लिखा हुआ कोई शिलालेख प्राप्त नहीं हुआ है । सम्भवतः वे सभी लुप्तप्रायः हो गई होंगी और उनका स्थान ब्राह्मी ने ही ले लिया होगा।
___ इसी प्रकार 'विशेषावश्यक सूत्र' की गाथा 464 की टीका में भी 18 लिपियों के नाम गिनाये गए हैं-1. हंस लिपि, 2. मुअलिपि, 3. जक्खीतट लिपि, 4. रक्खी अथवा बोधघा, 5. उड्डी; 6. जवणी, 7. तुरुक्की, 8. कीरी, 9. दविडी, 10. सिंधविया, 11. मालविणी, 12. नड़ि, 13. नागरि, 14. लाडलिपि, 15. पारीसी वा बोधघा, 16. तहअनिमितीय लिपि, 17. चाणक्की, 18. मूलदेवी।
'समबायांगसूत्र' और 'विशेषावश्यक' टीका में आयी हुई 18 लिपियों के नामों में बड़ा अन्तर है। 'समवायांग' में ब्राह्मी और खरोष्ठी के नाम पाते हैं परन्तु विशेषावश्यक टीका में एशिया और भारत के प्रदेशों के नामों पर आधारित तथा कतिपय प्रसिद्ध पुरुषों की नामाश्रित लिपियों के नाम देखने को मिलते हैं, यथा-तुरुक्की, सिंधविया, दविडी, मालविणी, पारसी ये देशों के नाम पर हैं और बाणक्की, मूलदेवी आदि व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित हैं । रक्खसी और पारसी दोनों के पर्याय बोधघा दिए हैं। ये दोनों एक ही थीं क्या ? समवायांगसूत्र वाली सूची स्पष्ट है ।
इनमें कुछ तो शुद्ध सांकेतिक लिपियाँ हैं जो अमुक-अमुक वर्णों का सूचन करती हैं और कुछ एक ही लिपि के वर्गों में क्रम-परिवर्तन करके स्वरूप-ग्रहण करती हैं, यथाचाणक्की और मूलदेवी लिपियाँ नागरी के वर्गों में परिवर्तन करके ही उत्पन्न की गयी हैं । वात्स्यायन कृत 'कामसूत्र' में परिगणित 64 कलाओं में ऐसी लिपियों का भी उल्लेख आता हे और इनको 'म्लेच्छित विकल्प की संज्ञा दी गयी है । जब शुद्ध शब्द के अक्षरों में विकल्प या फेरफार करके उसे अस्पष्ट अर्थ वाला बना दिया जाता है तो वह 'म्लेच्छित विकल्प' कहलाता है, यथा- 'क', 'स', 'थ' और 'द' से 'क्ष' तक के अक्षरों को ह्रस्व और दीर्घ तथा अनुस्वार और विसर्ग, इन सबको उल्टा क्रम करके अन्त में क्ष लगाकर लिखने से दुर्बोध्य 'चाणक्यी' लिपि बन जाती है।
प्रक, ख ग, घ ङ, च ट, तप, यश, इनको लस्त अर्थात् अ की जगह क, ख के स्थान पर ग रखने तथा शेष को यथावत् रखने से मूलदेवीय रूप हो जाता है ।
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लिपि-समस्या 205
News
गूढ़ लेख-ग्रह 9-अइउऋलएऐोऔ, नयन-2 दीर्घ, वसु 8-कखगघङ चछज, षडानन 6झयटठडढ, सागर 7-णतथदधनप, मुनि 7-फबभमयरल, ज्वलनांग 5-वशषसह, तुंकशृंगविसर्ग-अनुस्वार । इस कुञ्जी से लिखा गूढ़ लेख कहलाता है-"ग्रहनयनवसुसमेतं पडाननख्यानि सागरा मुनयः । ज्वलनांग तुंकशृंग दुलिखितं गूढ़ लेख्यामिदम् ।। यथावसु 1 = + ग्रह 1 नयन = आ = क + अ + आ = का
4 =म् --ग्रह 1 = म+ सागर 4 = द्+ ग्रह 6 = द + ए ज्वलनांग 1 = ब+ग्रह 1 =ब+अ
= कामदेव एव "प्रकारा अन्येऽपि द्रष्टव्याः"
इसी प्रकार अंक पल्लवी, शून्य पल्लवी और रेखा पल्लवी लिपियाँ भी होती थीं। ग्रंक पल्लवी में पहला अंक वर्ण का द्योतक, दूसरा उस वर्ग के अक्षर का और तीसरा मात्रा का द्योतक होता है । अपहला वर्ग है, सभी स्वर इसके अक्षर हैं। क, च, ट, त, प, य और श ये अन्य वर्ग हैं। इन वर्गों के अंक ये होंगे : 1 = अ वर्ग-स्वर वर्ग, 2 = क वर्ग, 3 = च वर्ग, 4 = ट वर्ग, 5 = त वर्ग, 6 = प वर्ग तथा 7 = यरलव एवं 8 = शषसह । अंक पल्लवी में लेख यों लिखा जायेगा212
651 537 7 41
का
शून्यांकों में हल्की और गहरी शून्य से लघु और गुरु का संकेत किया जाता है, इसी प्रकार रेखांकों में हल्की-गहरी और बड़ी-छोटी रेखाओं से संकेत बनाये जाते हैं।
कितनी ही प्राचीन ताड़पत्रीय और कागज पर लिखी प्रतियों में अक्षरात्मक अंक भी पाये जाते हैं, जैसे-रोमन-लिपि में १० (10) के लिए X, ५० (50) के लिए L, १०० (100) के लिए C अक्षरों का प्रयोग किया जाता है। जैसे दस, बीस, तीस प्रादि दशक संख्याओं के सूचक अक्षर लिखे जाते हैं, परन्तु शून्य के स्थान पर शून्य ही चलता है, जैसेल = 10, थ = 20, ला = 30, प्त = 40, 0 = 50, \ = 60, \ = 70,0 = 80,0 = 90, () 0 0 0 सु = 100, सू = 200, स्ता = 300, स्ति = 400, स्तो = 500, स्तं = 600, स्तः = 70)
0
0
0 ) 0 इत्यादि ।
हम देखते हैं कि इन संख्यात्रों क पोड़ी पंक्ति में न लिख कर ऊपर-नीचे खड़ी पंक्ति में लिखा जाता है। कुछ अंकों के स्थान पर दहाई में वे अंक ही अपने रूप में लिखे जाते हैं और कुछ के लिए अन्य अक्षर नियत हैं, यथा-ल = 11, ल = 12, ल = 13, परन्तु,
14 के लिए लुं लिखा जायेगा। इसी प्रकार लू = 15, ल = 16, लु = 17, ल = 18,
र्या ब्रा ल = 19 इत्यादि।
एक
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206/पाण्डुलिपि-विज्ञान
हमारे बचपन में चटशालाएं चलती थीं। चटशालाएँ सम्भवतः चेट्टिशाला का रूपान्तर हैं । चेट्टि शब्द शिष्य का वाचक है। चटशाला के बड़े छात्र या अध्यापक को जोशीजी कहते थे । मानीटर को 'वरचट्टी' कहा जाता था। उन दिनों पहले एक पटरे पर गेरू या लाल मिट्टी बिछा कर लकड़ी के 'बरते' से अक्षर लिखना सिखाया जाता था। फिर लकड़ी की पाटी पर मुल्तानी पोत कर नेजे (सरकण्डे) की कलम और गोंदवाली काली स्याही से सुलेख लिखाया जाता था। इसको 'अक्षर जमाना' कहते थे। पहले वर्णमाला फिर गणित पाटी आदि तो लिखाते ही थे, परन्तु बड़े छात्रों को 'सिद्धा' अर्थात् कातन्त्र सूत्र "सिद्धो वर्णाः' लिखाते थे--पर साथ ही, हमें याद है कि एक 'दातासी' लिपि भी लिखाई जाती थी। इसको जानने वाला सबसे चतुर छात्र समझा जाता था-स्वर तो वही रहते हैं, परन्तु 32 व्यंजनों के लिए ये अक्षर होते थे :
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
श्री दा - ता - ध - न - को - स - मा - वो - वा - ल 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 म-हि - ष - गो - घ - टी - प्रा - ई -पू - छ -ज-डा-थ-ढा 25 26 27 28 29 30 31 32 इति दातासी। उ-च-री- य-ठ-रण -- झ - फू इसका दूसरा सूत्र इस प्रकार है
दाता धरण कोस भावं, बाला महं खगं घटा । आशा पीठं जढे षण्डे, चयं रिच्छं थनं झफा ।।
इति दातासी। वर्ण विपर्यय द्वारा लिखी जाने वाली एक सहदेवी विधि भी है, जिसका क्रम इस प्रकार है :
प्रप । फब । मम । कच । खछ । गज । घझ । ङञ । टत । ठथ । डद । ढध । णन । हय । शव । रस । लष ॥
इति सहदेवी
लिपि व्यावहारिक समस्यायें :
यहाँ तक हमने ऐतिहासिक दृष्टि से लिपि के स्वरूप पर विचार किया है । साथ ही विविध लिपियों की वर्णमालाओं पर भी प्रकाश डाला है। पांडुलिपि-विज्ञान के अध्येता
और अभ्यासी को तो आज विविध ग्रन्थागारों में उपलब्ध ग्रन्थों का उपयोग करना पड़ता है । इन ग्रन्थों में देवनागरी के ही कुछ अक्षरों के ऐसे रूप मिलते हैं कि उन्हें पढ़ना कठिन होता है । इस दृष्टि से ऐसे कुछ अक्षरों का ज्ञान यहाँ करा देना उपयुक्त प्रतीत होता है ।
___एक अनुसन्धानकर्ता गुजरात के ग्रन्थागारों के ग्रन्थों का उपयोग करने गये तो उन्हें एक प्रतिष्ठित प्राचार्य ने ऐसे ही विशिष्ट अक्षरों की एक अक्षरावली दी थी और उस अक्षरावली के कारण उन्हें वहाँ के ग्रन्थों को पढ़ने में कठिनाई नहीं हुई। वह अक्षरावली
1. सत्येन्द्र (डॉ०)-अनुसन्धान, पृ. 111।
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लिपि-समस्या/207 नीचे दी जाती है : उ अ ओ औ छ ज झ उ,ऊ,, , , ड., 2, 5. 8 . भ ल श स . है ख
भब ५ सप (कके, (के कै, कास्की, को को , on कु, काकू संयुक्त वर्ण
अ.ज.68, 4 , का , in-3 मे 2%
3D U , मल्ल-जमत
द० २॥ त ६ म्म
काव्य... ६% .
इस अक्षरावली पर दृष्टि डालने से एक बात तो यह विदित होती है कि 'उ ऊ प्रो यौ' चारों स्वरों में 'मूल स्वर' का एक रूप है, उ ऊ में भी और 'भो यौ' में भी वह है ११ इसमें शिरोरेखा देकर 'उ' बनाया गया है इसी में 'ज' की मात्रा लगाकर '' बनाया गया है । यह 'ऊ' की मात्रा -" और यह अशोककालीन ब्राह्मी की 'ऊ' की मात्रा का ही अवशेष है जो आज तक चला आ रहा है। ओ औ में 2 की रेखा को 3 की भाँति वृत्तांवित या घुण्डीयुक्त कर दिया गया है। फिर 3 पर शिरोरेखा में भी अशोक लिपि की परम्परा मिलती है। दोनों ओर '_' यह लगाने में 'यौ' बनता है, ये 'नो' की मात्राएं हैं । 'नौ' की मात्रा में भी एक रेखा (ऊ) की मात्रा के सिर पर चढ़ाई गयी है । ये ब्राह्मी के अवशेष हैं। यही प्रवृत्ति कु-कुमें भी मिलती है। के के, को कौ में बंगला लिपि की मात्राओं से सहायता ली गई है।
अब यहाँ कुछ विस्तार से राजस्थान के ग्रन्थों में मिलने वाली अक्षरावली या वर्णमाला पर विस्तार से वैज्ञानिक विश्लेषगापूर्वक विचार डॉ. हीरालाल माहेश्वरी के शब्दों में दिये जाते हैं : राजस्थानी की और राजस्थान में उपलब्ध प्रतियों के विशेष सन्दर्भ में उनकी वर्णमाला विषयक ज्ञातव्य बातें निम्नलिखित हैं--- 1. (क) राजस्थान में उपलब्ध ग्रन्थों में प्रयोग में आयी देवनागरी की वर्णमाला की कुछ
विशेषताएं कहीं-कहीं मिलती हैं। उन्हें हम इन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं :
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208/पाण्डुलिपि-विज्ञान
(अ) विवादास्पद वर्ण (आ) भ्रान्त वर्ण (इ) प्रमाद से लिखे गये वर्ण (ई) विशिष्ट वर्ण चिह्न, उनका प्रयोग करना अथवा न करना तथा
(उ) उदात्त-अनुदात्त-ध्वनि वर्ण पहले प्रत्येक के एकाध उदाहरण देकर इनको स्पष्ट करना है :
(अ) विवादास्पद (Controversial) वर्णो के उदाहरण 1-थ 7 है। हु थ
(सं. 1887 पोह सुदि 1 को लिखे गए च । य च । . बीकानेर परवाने से) अन्य परवानों में
भी ऐसे ही रूप दोनों के मिलते हैं, थ 7, 8 सं. 1907 तक । प्रयोग के उदाहरण
थाप> छाप/हेक थेक था > दा/छड़ी 7 थही
थो , छो/खुणटुणो थुणथुणो 2-र>द । द>र।
दार र १८ (ये रूप सभी प्रतियों और परवानों में)
-
चवरा > चवदा । चवदा > चवरा (4) (14)
(ब)
3-थ > व । ब> थ। 1
थोबड़ो > बोबड़ो। (ग्रा)
1--छ
> ब । व
>
छ
(परनारी
छुरी > बुरी । (परनारी दानीदरी) बंद > छंद । ।
बुरी) पद्घड़िया छद। छाप > बाप > अ तो म्हारे छाप का ।
औ तो म्हारे बाप का ।।
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लिपि-समस्या 209
2-ट> ढ।
बट बट गया इवांणी (अज्ञानी पृथक्-पृथक् हो गए) (मेल-मिलाप न रखकर)
बढ बढ गया इवाणी (अज्ञानी कह बढ़ गए) 3--भ > म।
भरेड़ी > मरेड़ी 4--स >म ।
सिसियर > मिसियर
(चन्द्रमा) (काला, काले वर्ग का, काले वर्ण के समूह का) 5--छ> ध।
छमछम करती आई।
धमधम करती आई। 6-च>व।
चांदणो > वांदणो 7----ज > त।
जाण्यो तेरो जत। न जा , जाण्यो तेरो तत। ज
8--ण्य >ण।
पापा
जाण्यो पण पाण्यो नहीं + (आना किन्तु लाया नहीं)
जाणो पण प्राणो नहीं - (जानते हो किन्तु लाते नहीं) 9-त > ट।
"तूटेगो 'टूटेगो
त ट
र
.
10- >घ।
धण जों यां काई मिल । (स्त्रियों को देखने से क्या मिलता है)
घण जों यां काई मिले । [अधिक (आतुरता) दिखाने से क्या मिलता है] 11-न > त। न न त
नातो तेरे नाम रो। (तेरे नाम का नाता है)
तातौ तेरै नाम रो। (तेरे नाम का प्रेमी हूँ) 12-4 > म। पपम,
पड़े पड़ ताल समंदा पारी। (समुद्रों के पार तक खबर होती है) म. मड़ ताल समंदा पारी (सरोवरों, समुद्रों के पार तक लाशें ही लाशें हैं ।)
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210/पाण्डुलिपि-विज्ञान
13-फ >
क
फ
फ
.
फर फरड़ाटो आयो
कर करड़ाटो आयो 14- >म।
जय कुंण जाण ।
जम कुंण जाण । 15-म > स।
मान निहोरा कित रह्या । सान निहोरा कित रह्या ।
16-ह > ड।
ह. है . है,
17-ड > द ।
हडूकियो > डकियो डेल्ह > देल्ह (सुप्रसिद्ध कवि का नाम) (ब) भ्रामक वर्ण
प्रपतनपत । नपत
त्रपत
2-हलन्त 'र' के लिए दो अक्षरों के बीच ...-'" चिह्न भी लिखा मिलता है (अनेक
प्रतियों में) । सत्रहवीं शताब्दी की प्रतियों में अपेक्षाकृत अधिक । उदाहरणार्थ :
घावा » धान्य मावा > मान्या
इससे ये भ्रम हो सकते हैं :(अ) सम्भवतः धा और या को मिलाया गया है (धाख्या > धा-या)। (ब) सम्भवतः इन दोनों के बीच कोई अक्षर, मात्रादि छूट गया है। (स) सम्भवतः इसके पश्चात् शब्द समूह या अोल (पंक्ति) छूट गई है।
इसको कोई चिह्न-विशेष न समझकर 'र' का हलन्त रूप (-) समझना चाहिए
यह (-) अन्तिम अक्षर के साथ जुड़े हुए रूप में मिलती है, पृथक् नहीं। (स) प्रमाव से लिखे गये बर्ण इस शीर्षक के अन्तर्गत उल्लिखित ( अ ) विवादास्पद (Controversial) और
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लिपि-समस्या/211
(प्रा) भ्रामक (Confusing) दोनों वर्ग भी सम्मिलित है। अब यहाँ प्रमादी लेखन से क्या परिणाम होते हैं और क्या कठिनाइयो घड़ी होती हैं, उन्हें देखना है। पहले मात्राओं पर ध्यान जाता है :
(1) भाषा: 17 । का का का 7 की। का > की
2-(क) उ > अ
(ख) ओ > आ आ (क) मा ध सात्रा (
13) (ख) कामोदरी > कामादरी
कामादरी कामादरी
41504 दृष्टव्य है कि अनेक हस्तलिखित प्रतियों में दो मात्राएँ बंगाली लिपि की भांति लगी मिलती हैं। यह प्रवृत्ति 19वीं शताब्दी तक की प्रतियों में पाई जाती हैं । दोनों मात्राएं नं0 (1) में इष्टव्य हैं। यह प्रवृत्ति बीकानेर के 'दरबार पुस्तकालय' में सुरक्षित ग्रन्थों में विशेष मिली हैं। - 37 अ
ए ऐसे ए 4- ओ औ औ 7 ओ . )
प्रतीत होता है कि यह गुरुमुखी के प्रभाव का परिणाम है और यह प्रवृत्ति 18वीं शताब्दी और उससे आगे लिखे ग्रन्थों में अधिक मिलती है।
अब हम इन वर्गों में मिलने वाले वैशिष्ट्य को ले सकते हैं : (2) वर्ण: क> फ। ष>प। दृष्टव्य है कि राजस्थानी में 'ख' वर्ण 19वीं शताब्दी तक की प्रतियों
में नहीं पाया जाता । बदले में 'ष' ही पाया जाता है । इसके अपवाद ..
. ये हैं : 1. संस्कृत शब्द में 'ख' भी मिलता है, 2. ब्राह्मण प्रतिलिपि
कारों ने दोनों का प्रयोग किया है।
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212/पाण्डुलिपि-विज्ञान
ग > म । स्याही की अधिकता, पन्ने का फटना, स्याही का फैलना तथा लिखे
हुए पर लिखने के कारण कुछ का कुछ पढ़ना मिलता है । इससे अर्थ का अनर्थ बहुत हुआ है।
च > वय थ
झ> भुया भु > झ । फ > पु। पु >फ । बंगला लिपि के अनुसार लिखित 'उ' में यथा
झम > भुम । यहाँ भ में '(उ) की मात्रा मिलायी गयी है, इससे
'भ' 'झ' लगने लगा है। ट >ठ। ठ>ट।
> उ। उ> ड।
m
द
> ब ।
ब
द ।
ख > स्त (द्विवत्य युक्त त्) लत <त्तत
व > न । न जलन
व
> न।
-
स> य्य त्र> प्त । त (त्र)
दृष्टव्य है कि इस वर्ग के अन्तर्गत जो उदाहरण मिलते हैं, वे अमेक हैं और प्रत्येक लिपिकार के अनुसार बदलते, घटते-बढ़ते रहते हैं । 'मक्षिका स्थाने मक्षिका पात' के सिद्धान्त पालन करने वाले मामूली पढ़े-लिखे लिपिकार ऐसी भूलें किया करते हैं । (द) विशिष्ट वर्ण-चिह्न
य और व के नीचे बिन्दी लगाने की प्रथा राजस्थान में बहुत पुराने काल से है । इनको क्रमशः य और व लिखा जाता है। पुराने ढंग की पाठशालाओं में वर्णमाला सिखाते समय 'ववा तकै स बींदली' तथा 'ययियो पेटक' और 'ययियो वींदक' बताया जाता था। ववा तले स वींदली अर्थात् 'व' के तले बिन्दी (व) । ययियो पेटक अर्थात् य शुद्ध । ययिया वींदक अर्थात् य के नीचे बिन्दी (य)। 17वीं शताब्दी तक य य दो पृथक ध्वनियाँ थीं, इसके संकेत रूप में प्रमाण मिलते हैं। उसके पश्चात् शब्द के आदि के य को तो प और बीच के प को य करके लिखा जाता रहा । अठारहवीं शताब्दी और उसके बाद की प्रतियों में प्रत्येक 'य' को 'य' करके ही लिखा जाने लगा चाहे आदि में हो या मध्य में या अन्त में । य (प्र) और (य) के बीच ध्वनि (yeh, yes को yeh जैसे बोलते हैं) रही थी। इसी प्रकार व और व में अन्तर है। व को W और ब को V की सी ध्वनियाँ मान सकते हैं । तात्पर्य यह है कि प्राचीन लिपि में बिन्दी लगाई जाती थी जो अर्थ-भेद स्पष्ट करने का प्रयास था । अठारहवीं शताब्दी से (य, य) की भाँति व व को भी व करके लिखा जाने लगा।
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लिपि- समस्या /
213
इनसे फायदा यह है कि एक तो व और य का निश्चित पता चल जाता है, अन्यथा कोप, य को मयाप आदि श्रादि समझने की भ्रांति हो सकती है । दूसरे यह पता लग जाता है कि या तो रचना, अथवा लिपिकार, राजस्थानी है, और सामान्यतया जो भूलें राजस्थानी लिपिकार करता है, वे सम्बन्धित प्रति में भी होंगी ।
ड और ड़ पृथक् ध्वनियाँ हैं । कहीं-कहीं दोनों के लिए केवल 'ड' ही लिखा मिलता है । पहचान यह है कि 'ड' श्रादि में नहीं प्राता । इसके अतिरिक्त जो भ्रांति हो सकती है, उसका निराकरण अन्य उपायों से होगा ।
चन्द्र बिन्दु का प्रयोग कहीं भी नहीं होता । जहाँ चन्द्र बिन्दु जैसा प्रयोग होता है, निश्चित समझना चाहिए कि या तो यह छूटे हुए अंश को द्योतित करने का ( ) चिह्न है, अथवा बड़ी 'ई' की मात्रा ( हजारों प्रतियों में मुझे तो एक भी चन्द्र बिन्दु का उदाहरण नहीं मिला ।) ध्यातव्य है कि गुजराती लिपि में चन्द्र-बिन्दु नहीं है । भाषा - शास्त्रीय और सांस्कृतिक दृष्टियों राजस्थान का उससे विशेष सम्बन्धों के कारण भी ऐसा हुआ
लगता है ।
क्ष को ष्य लिखा जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी से 'क्ष' भी लिखा मिलने लगता है, किन्तु यह ध्वनि संस्कृत शब्दों के अतिरिक्त राजस्थानी में नहीं है । ङ नहीं है । ध्यातव्य है कि ड़ को 'ङ' करके लिखा जाता है इसको 'ड' समझना चाहिए 'ङ' नहीं ।
'ञ' को पाठशालाओं में तो 'नदियो खांडो चाँद' करके पढ़ाया जाता था । खंडित चन्द्राकार होने से इसको ऐसा कहा गया । केवल बारहखड़ी काव्य में ही 'ञ' आया है । इसी प्रकार 'ड' भी बारहखड़ी काव्य में प्रयुक्त हुआ है । अन्य स्थानों पर ये दो (ङ और ञ) नहीं आते । ज्ञ को सदा ग्य करके लिखा जाता है ।
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विराम चिह्नों के लिए चार बातें देखने में आई हैं- (,) कोमा का प्रयोग नहीं होता, केवल पूर्ण विराम का होता है। (2) पूर्ण विराम या तो ( 1 ) की भाँति लिखा जाता है अथवा (3) विसर्ग की भाँति ( : ) या (4) कुछ स्थान छोड़ दिया जाता है । विराम चिह्न रूप में विसर्ग अक्षर से ठीक जुड़ती हुई लगाकर कुछ जगह छोड़कर लगाई जाती है, यथा 'जागो चाहिजै काम करणौ चाहिजे' आदि । इसी प्रकार कुछ न लगाकर रिक्त स्थान छोड़ने का तात्पर्य भी पूर्ण विराम है, यथा 'जाणो चाहिजै = काम कररणो चाहिजे' । रेखांकित स्थान पर पूर्ण विराम मानना चाहिए ।
न
छूटे हुए अक्षर और मात्रादि, तथा जुड़वे संकेत (-) के लिए ये बातें दृष्टव्य हैं:छूटा हुआ अक्षर दाएँ, बाँए हाशिये में, मात्रादि भी हाशिये में लिखी जाती हैं । किस हाशिये में कौन-सा अक्षर और मात्रादि लिखा जाये इसका सामान्य नियम यह है कि आधे से पूर्व तक कोई अक्षरादि छूट गया है, तो बाएँ में और बाद में कोई अक्षरादि छूट गया है तो दाएँ में लिखा जाता है। इसका चिह्न अथवा / अथवा L है । अन्तिम को आधा प या = न समझना चाहिए। है, तो वह प्रायः ऊपर के स्थान पर या नीचे के स्थान पर लिखी जाती है । मूल लिखावट में दो स्थानों पर चिह्न देकर ऊपर या नीचे (ओ) या (वो) लिखकर छूटी हुई पंक्ति लिखते हैं । यह पंक्ति प्रधान बाएँ हाशिये से कुछ हटकर दाहिनी ओर होती है, ताकि पाठक को आसानी से पता चल जाए (प्रो अर्थात् प्रोली - Live, और वो अर्थात् वोली > श्रोली ।
यदि अर्ध या पूर्ण पंक्ति छूट गई
AA
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214/पाण्डुलिपि-विज्ञान
लिखते समय यदि शब्द तो पूरा लिखा गया किन्तु मात्रा छूट गई या स्थान नहीं रहा तो वह बाएँ या दाएँ हाशिये में लिखी जाएगी। आधे वाला नियम यहाँ भी लागू होगा । इससे कभी-कभी बड़ा भ्रम उत्पन्न हो जाता है।
इस सम्बन्ध में तीसरी स्थिति यह है कि यदि आधा शब्द लिखा गया और एक या अधिक उसके अक्षर लिखे जाने से रह गए तो लिपिकार हाशिये में एक चिह्न (5) देता है, इसको प्रा (1) या पूर्ण विराम (1) समझना चाहिए। यह सदैव दाएँ हाशिए में ही होगा । उदाहरणार्थ एक शब्द 'प्रकरण' को लें। लिखते समय पूर्व पंक्ति में अक तक लिखा गया क्योंकि बाद में हाशिया आ गया था । इसको यों लिखा जाएगा-अक । रण । भूल से इसको अकारण न समझना चाहिए।
. (हाशिया) विद्वानों ने उपयुक्त चारों वर्गों वाली अनेक भूलें की हैं । पाठ को हड़बड़ी में पढ़ने, प्रतिप्रकृति को ठीक से न समझने आदि-आदि के कारण ऐसी भूलें हुई हैं । एक अत्यन्त मनोरंजक उदाहरण यहाँ दिया जा रहा है । डॉ० सियाराम तिवारी ने अपने शोध प्रबन्ध 'मध्यकालीन हिन्दी खण्ड काव्य' में रामलता कृत रुक्मणी-मंगल का परिचय दिया है। उस मूल प्रति में पन्नों का व्यतिक्रम था जो डॉ. तिवारी के ध्यान में नहीं आया । ध्यान में न आने का कारण यह था कि 'मंगल' में छन्द संख्या क्रम से न होकर रागों के अन्तर्गत पृथकपृथक है । क्रम से यदि संख्या होती तो वे संगति बैठा लेते । इस प्रति को क्रमानुसार (अरेन्ज) न करके उसी रूप में उन्होंने लिखा है। इस कारण उनका यह समूचा अंश सर्वथा गलत और भ्रांतिपूर्ण हो गया है।
__ (ई) उदात्त-अनुदात्त ध्वनियों से सम्बन्धित कोई चिह्न नहीं है, केवल प्रसंग, अर्थ और अनुभव ज्ञान से ही सहायता मिल सकती है । कहीं-कहीं तो यह भी संभव नहीं है । एक उदाहरण यह है, शब्द है 'सांड' यह सांड भी हो सकता है और सांड भी । सां'-ड का तात्पर्य ऊँटनी है । जहाँ अनेक पशुओं की नामावली आदि हो, वहाँ बड़ी भ्रांति की संभावना है, क्योंकि उदात्त और अनुदात्त शब्द के अर्थ भिन्न-भिन्न होते हैं । इसी प्रकार धन और ध'न है । धन अर्थात् सम्पत्ति और ध'न (ध'ण) अर्थात् पत्नी। उपसंहार
इस अध्याय को समाप्त करने से पूर्व एक बात की ओर ध्यान आकर्षित करना अावश्यक प्रतीत होता है । गुजरात के पुस्तकालयों/ग्रंथागारों के ग्रंथों को पढ़ने के लिए एक अक्षरावली एक विद्वान ने शोध-छात्र को दी थी । प्रश्न यह है कि वह उन्हें कहाँ से उपलब्ध हई थी ? फिर डॉ० माहेश्वरी ने जो विविध अक्षर-रूपों को उद्धृत कर उदाहरणपूर्वक हस्तलेखों को पढ़ने की अड़चनों की ओर संकेत किया है, उसके लिए उन्हें सामग्री किसने दी ? दोनों का उत्तर है कि 'स्वानुभव' से । इन दो उदाहरणों से मिले इस निष्कर्ष के अनुसार पाण्डुलिपि विज्ञानविद् को चाहिये कि वह अन्य क्षेत्रों में पाण्डुलिपियों को देखकर उनके आधार पर ऐसी ही क्षेत्रीय लिपि-मालाएं तैयार कराये । ये स्वयं उसके उपयोग में आ सकेंगी तथा अन्य अनुसंधित्मनों को भी पाण्डुलिपियों की शोध में सहायक हो सकेंगी। ... विविध क्षेत्रीय वर्णमालाओं के समस्या-शोधक रूप प्रस्तुत हो जाने पर तुलनात्मक
आधार पर आगे के चरण को प्रस्तुत कर सकना संभव होगा। इस प्रकार किसी भी एक लिपि के व्यवहार-क्षेत्र की समस्त समस्याएँ एक स्थान पर मिल सकेंगी और उनके समाधान का मार्ग भी तुलनात्मक पद्धति से प्रशस्त हो सकेगा।
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अध्याय 6
पाठालोचन
'लिपि' की समस्या के पश्चात् 'पाठ' आता है। प्रत्येक ग्रन्थ का मूल लेखक जो लिखता है वह मूल पाठ होता है । मूल पाठ-स्वयं लेखक के हाथ का लिखा हुआ पाठ बहुत महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान वस्तु होती है । यदि किसी भी हस्तलेखागार में किसी भी ग्रंथ का मूल पाठ सुरक्षित है तो उस ग्रंथागार की प्रतिष्ठा और गौरव बहुत बढ़ जाता है। ऐसी प्रति का मूल्य वस्तुतः रुपये-पैसों में नहीं आंका जा सकता। अतः ऐसे ग्रंथ पर आगाराध्यक्ष को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है । मूल-पाठ के उपयोग
मूल-पाठ के कितने ही उपयोग हैं । कुछ उपयोग निम्नलिखित प्रकार के हैं : 1- लेखक की लिपि-लेखन शैली का पता चलता है जिससे उसको लिखते समय
की स्थिति और अभ्यास का भी ज्ञान हो जाता है। 2-उसकी अपनी वर्तनी-विषयक नीति का पता चलता है । 3-ग्रंथ-संघटन सम्पादन में मूल-पाठ प्रादर्श का काम दे सकता है। वस्तुतः
पाठालोचन-विज्ञान इस मूलपाठ की खोज करने वाला विज्ञान ही है। 4-मूल-पाठ से लेखक की शब्दार्थ-विषयक-प्रतिभा का शुद्ध ज्ञान होता है। 5-मूलपाठ से अन्य उपलब्ध पाठों को मिलाने से पाठान्तरों और पाठभेदों में लिपि,
वर्तनी और शब्दार्थ के रूपान्तर में होने वाली प्रक्रिया का पता चल जाता
है। इस प्रक्रिया का ज्ञान अन्य पाठालोचनों में बहुत सहायक हो सकता है। 6--मूलपाठ के कागज, स्याही, पृष्ठांकन, तिथिलेखन, चित्र, हाशिया, हड़ताल
उपयोग, आकार, ग्रंथन आदि से बहुत-सी ऐतिहासिक बातें विदित हो सकती हैं या उनकी पुष्टि-अपुष्टि हो सकती है । कागज-स्याही आदि के अलग-अलग
इतिहास में भी ये बातें उपयोगी हैं । लिपिक का सर्जन
अतः हस्तलेखाधिकारी को अपेक्षित है कि वह इनके सम्बन्ध में सामान्य वैज्ञानिक और ऐतिहासिक सूचनाएँ अपने पास रखे । ये सूचनाएँ उसके स्वयं के लिए भी उपयोगी और मार्ग-दर्शक हो सकती हैं । किन्तु सभी हस्तलेख मूलपाठ में नहीं होते हैं । वे तो मूलपाठ के वंश की आगे की कई पीढ़ियों से आगे के हो सकते हैं। मूलपाठ से प्रारम्भ में जितनी प्रतिलिपियाँ तैयार हुई वे सभी मूलपाठ के वंश की प्रथम स्थानीय संताने मानी जा सकती हैं । मूल-पाठ से ही मान लीजिये तीन लिपिक प्रतिलिपि प्रस्तुत करते हैंवह इस प्रकार : पहला लिपिक-3 प्रतियाँ
दूसरा लिपिक --2 प्रतियाँ तीसरा लिपिक -4 प्रतियाँ
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216/पाण्डुलिपि-विज्ञान
अब यह स्पष्ट है कि प्रत्येक लिपिक अपनी ही पद्धति से प्रतिलिपि प्रस्तुत करेगा। हम इस सम्बन्ध में 'अनुसंधान' में जो लिख चुके हैं उसे उद्धृत करना समीचीन समझते हैं : पाठ की अशुद्धि और लिपिक
"प्राचीनकाल में प्रेस के अभाव में ग्रंथों को लिपिक द्वारा लिखवा-लिखवा कर पढ़ने वालों के लिए प्रस्तुत किया जाता था । फल यह होता था कि लिपिक की कितनी ही प्रकार की अयोग्यताओं के कारण पाठ अशुद्ध हो जाता था, यथा लिपिक में रचयिता की लिपि को ठीक-ठीक पढ़ने की योग्यता न हो तो पाठ अशुद्ध हो जायगा। सभी लेखकों के हस्तलेख सुन्दर नहीं होते, यदि लिपिक बुद्धिमान न हुआ और ग्रंथ के विषय से अपरिचित हुआ अथवा उसका शब्दकोष बहुत सीमित हुअा तो वह किसी शब्द को कुछ का कुछ लिख सकता है।
शब्द विकार : काल्पनिक
____ 'राम' को राय पढ़ लेना या 'राय' को राम पढ़ लेना असम्भव नहीं । र और व (र व) को 'ख' समझा जा सकता है । ऐसे एक नहीं अनेक स्थल किसी भी हस्तलिखित ग्रंथ को पढ़ने में आते हैं, जहाँ किंचित् असावधानी के कारण कुछ का कुछ पढ़ा जा सकता है और फलतः लिपिक भ्रम से कुछ का कुछ लिख सकता है। इस भ्रम की परम्परा लिपिक से लिपिक तक चलते-चलते किसी मूल शब्द में भयंकर विकार पैदा कर देती है, परिणामतः काव्य के अर्थ ही कुछ के कुछ हो जाते हैं, उदाहरणार्थ--- लेखक ने लिखा
-राम पहले लिपिक ने पढ़ा दूसरे ने इसे पढ़ा -राच (लिखने में य की शीर्ष रेखा कुछ हटा ली तो
'य' को 'च' पढ़ लिया गया ।) तीसरे ने इसे पढ़ा ---सच (उसे लगा कि र और 'पा' के डंडे के बीच 'स'
बनाने वाली रेखा भूल से छूट गई है।) चौथे ने इसे पढ़ा
-सत्र ('च' लिपिक की शैली के कारण चत्र पढ़ा
जा सकता है।) पाँचवे ने इसे पढ़ा -रुच ('स' को जल्दी में रु के रूप में लिखा या पढ़ा
जा सकता है।) इस शब्द के विकार का यह एक काल्पनिक इतिहास दिया गया है, पर होता ऐसा ही है, इनमें संदेह नहीं । इसके कुछ यथार्थ उदाहरप भी यहाँ दिये जाते हैं : शब्द-विकार-~-यथार्थ उदाहरण 'पद्मावत'-~में "होइ लगा जेंवनार सुसारा-पाठः सा. प. गुप्त
___ "होइ लगा जेंवनार पसाहा---पाठः प्रा. शुक्ल एक ने 'ससारा' पढ़ा, दूसरे ने 'पसारा' ।
'मानस' के एक पाठ में एक स्थान पर 'सुसारा' है, बाबू श्यामसुन्दर दास के पाट में 'सुपारा' है।
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पाठालोचन/217
- 'काव्य निर्णय' (भिखारीदास) में एक चरण है :
"अहट करै ताही करन" चरबन फेरबदार इसे एक ने लिखा च रबन के खदार दूसरे ने चिरियन फे र बदार तीसरे ने
चरवदन फे खदार चौथे ने
चखन फेरबदार प्रमाद का परिणाम
लिपिक पुष्पिकाओं में यही कहता है कि "मक्षिका स्थाने मक्षिका पात" किया गया है, "जैसा देखा है वैसा ही लिखा है" पर ऊपर के उदाहरण यह सिद्ध करते हैं कि लिपिक ऐसा करता नहीं या कर नहीं पाता । जो रचयिता ने लिखा होता है उसे पढ़कर ही तो लिपिक लिखेगा और पढ़ने एवं लिखने दोनों में अज्ञान और प्रमाद से कुछ का कुछ परिणाम जाता है । ऊपर दिये गये उदाहरण लिपिक के प्रभाव के उदाहरण हैं। यह प्रमाद 'दृष्टिकोण' कहा जा सकता है। पर एक अन्य प्रकार का प्रमाद हो सकता है इस प्रभाद को 'लोपक प्रमाद' कह सकते हैं। इसमें लिपिक किसी शब्द को या वाक्य के -किसी अंश को ही छोड़ जाता है। छूट और भूल और आगम और अन्य विकार
उदाहरणार्थ, लिपिक सरवर का 'सवर' भी लिख सकता है। वह 'र' लिखना ही भूल गया । बिन्दु, चन्द्र बिन्दु तथा नीचे ऊपर की मात्राओं को भूलने के कितने ही उदाहरण मिल सकते हैं। कभी-कभी लिपिक प्रमाद में किसी प्रक्षर का पागम भी कर सकता है। एक ही अक्षर को दो बार लिख सकता है।
कभी लिपिक रचनाकार से अपने को अधिक योग्य समझ कर या किसी शब्द के अर्थ को ठीक न समझ कर अज्ञान में अपनी बुद्धि से कोई अन्यार्थक शब्द अथवा वाक्यसमूह रख देता है। 'छरहटा' लिपिक को जंचा नहीं तो उसने 'चिरहटा' कर दिया, अथवा 'चिर हटा' को 'छर हटा' । अभी कुछ वर्ष पूर्व जायसी के पाठ को लेकर इन दो शब्दों पर विवाद हुआ था। इसी प्रकार कहीं उसने सूर के पद में 'हटरी' शब्द देखा, वह इससे परिचित नहीं था उसे 'हरी' (अर्थात् अरी हट) कर दिया । ऐसी ही भूल 'पाखत ले' को 'पाख तले' करने और बाद में उसे 'प्राँख तले' करने में भी है।
से लिपिकार के प्रमादों के कारण पाठ में बड़े गम्भीर विकार हो जाते हैं।
ऐसे ही लिपिकों के लिए डॉ. टैसीटरी ने यह लिखा था कि मैं 'वचनिका' की उन तेरह प्रतियों का वंशवृक्ष नहीं बना सका क्योंकि एक तो प्रतियां बहत अधिक मिलती हैं. दूसरे, “In the peculiar Conditions under which bardic works are handed down, subject to every sort of alternations by the Copyists who generaly are bards themselves and often think themselves authorized to modefy ori***improve any text they Copy to suit their tastes or ignorance as the case may be'. (वचनिका, भूमिका, पृ.9'लिपि समस्या' शीर्षक अध्याय में डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने भी कुछ ऐसी ही बातों की ओर ध्यान आकर्षित कराया है।
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218/पाण्डुलिपि-विज्ञान
__मुनि पुण्यविजय जी ने (क) हस्तलिखित ग्रंथों में पाने वाले ऐसे अक्षरों की सूची दी है जिसमें परस्पर समानता के कारण लिपिकार एक के स्थान पर दूसरा अक्षर लिख जाता है, वह सूची यहाँ उद्धृत करना उपयोगी रहेगा---
क का क् लिखा जा सकता है । ख कार व स्व ,
त्त तू,
छ,, द्व, द्ध, द्र ग्र, ग, ग्ज
घ, व, थ, प्य च,, वुठ, ध छ ,, ब ,, ज, ज्ञ, गज,"
FD
-444444
44444444444444
घ, थ, थ,ध ज्ज , ब्व, द्य सू, स्त, स्व, म् स्थ ,, च्छ
कृ , क्ष त्व, च,न
था, टा, य
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एयणा , एम था, थ्य
#
,
स, रा, ग,
सा, स्य षा, ष्य
व ,, ब, त
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है
1
भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 78।
भार
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पाठालोचन/219
तव
ऐ ,, पे ये क्ष, क्र, कु, क्ष प्त ,, प्, पृ सु, मु ष्ठ , व, ष्ट, ष्ट, ब्द त्म ,, त्स, ता, त्य
क क्त ऋ (ख) मुनिजी ने लिपिकार की भ्रान्तियों से शब्दरूपों के परस्पर भ्रान्त लेखन की एक सूची दी है । यह सूचियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं
1. प्रभाव प्रमाद से प्रसव लिखा जा सकता है 2. स्तवन । सूचन , , 3. यच्च , यथा , , 4. प्रत्यक्षतोवगम्या प्रत्यक्ष बोधगम्या 5. नवाँ
तथा 6. नच 7. तदा , तथा ॥ " 8. पर्वत्तस्य , पवन्नस्य, " 9. जीवसालिम्मी कृतं , जीवमात्मीकृत 10. परिवुड्ढि , परितुट्ठि 11. नचैव तदैव 12. अरिदारिणा ,, अरिवारिणी या अविदारिणी 13. दोहल क्खेविया ,, दो हल कबे दिया
कभी-कभी लिपिक अक्षर ही नहीं 'शब्द' भी छोड़ जाता है, दूसरा लिपिक इस कमी का अनुभव करता है, क्योंकि छंद में कुछ गड़बड़ दिखायी पड़ती है, अर्थ में भी बाधा पड़ती है, तो वह अपने अनुमान से कोई शब्द वहाँ रख देता है। लिपिक के कारण वंश-वृक्ष ।
लिपिक को लिखने की दक्षता की कोटि, उसकी लिखावट का रूप कि वह 'अ' या 'म' लिखता है, 'ष' या 'ख' लिखता है, शिरोरेखाएँ लगाता है या नहीं, भ और म में, 'प'
और 'य' में अन्तर करता है या नहीं-ये सभी बातें लिपिकार की प्राकृति-प्रवृत्ति से संबद्ध हैं । इसी प्रकार से प्रत्येक अक्षर के लेखन के साथ उसकी अपनी प्रकृति जुड़ी हुई हैं, जिससे प्रत्येक लिपिकार की प्रति अपनी-अपनी विशेषताओं से युक्त होने के कारण दूसरे लिपिक से भिन्न होगी । अतः वंशवृक्ष में प्रथम स्थानीय सतानें ही तीन लिपिकों के माध्यम से तीन वर्गों में विभाजित हो जायेंगी। इन प्रथम-स्थानीय प्रतियों से फिर अन्य लिपिकार प्रतिलिपियाँ तैयार करेंगे और एक के बाद दूसरी से प्रतिलिपियाँ तैयार होती चली जायेंगी। इस प्रकार एक ग्रंथ का वंशवृक्ष बढ़ता जाता है । इसके लिए उदाहरणार्थ एक वंशवृक्ष का रूप यहाँ दिया जाता है।
!. भारतीय जैन यमण सस्कृति अने लेखन कला, पृ० 79 ।
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220 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
4:
3:
लिपिकार 'क'
1:
J
2
5:
2:
3
पहली पीढ़ी |
दूसरी पीढ़ी
तीसरी पीढ़ी
चौथी पीढ़ी
1
1
1
2
3
4 5
इस प्रकार वंश-वृक्ष बढ़ता जायगा । प्रत्येक पाठ में कुछ वैशिष्ट्य मिलेगा ही । यह वैशिष्टय ही प्रत्येक प्रति का निजी व्यक्तित्व है । यह तो प्रतिलिपि की सामान्य सृजन का निर्माण प्रक्रिया है ।
पाठालोचन की आवश्यकता
2
2: पहली शाखा दूसरी शाखा तीसरी शाखा
पाठालोचन की हमें आवश्यकता तब पड़ती है, जब हस्तलेखागार में एक प्रति उपलब्ध होती है, पर वह 'मूलपाठ' वाली नहीं - वह प्रतिलिपि है निम्नलिखित वर्ग की -
(4) 2-3-1-5-2
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अर्थात चौथी पीढ़ी की दूसरी शाखा की 3 प्रतियों में से पहली प्रति की पांचवी प्रति की दूसरी प्रति । इसे यहाँ दिए वंशवृक्ष से समझा जा सकता है।
मूलपाठ
3
मूलपाठ
2
लिपिकार 'ख'
प्रथम स्थानीय प्रतिलिपियाँ
1
2
2
( इनसे कोई प्रतिलिपि नहीं हुई)
3
3
तीसरी प्रति
पहली प्रति दूसरी प्रति
14
4
1
4
1
पांचवी प्रति
2
दूसरी प्रति
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लिपिकार 'ग'
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1
3
3
2
4
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पाठालोचन / 221
अव हस्तलेखागाराध्यक्ष या पांडुलिपि - विज्ञानवेत्ता इस प्राप्त प्रति का क्या करेगा ? यह स्पष्ट है कि इस ग्रंथ के पूरे वंशवृक्ष में प्रत्येक प्रति का महत्त्व है, क्योंकि प्रत्येक प्रति एक कड़ी का काम करती है ।
प्रक्षेप या क्षेपक
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ऊपर हमने प्रतिलिपिकार के प्रमाद से हुए पाठान्तरों का उल्लेख किया है और उनमें वर्तनी और शब्द भेदों की ही चर्चा की है । पर प्राचीन ग्रन्थों में प्रक्षेपों और छूटों के कारण भी विकार आता है :
प्राचीन ग्रंथों में 'प्रक्षेपों' का या 'क्षेपकों' का समावेश प्रचुर मात्रा में हो जाता है । कुछ काव्यों को एक नये नाम से पुकारा जाने लगा है। उन्हें आज 'विकसनशील' काव्य कहा जाने लगा है, यह बताने के लिए कि मूल रूप में छोटे काव्य को बाद के कवियों ने या पाठकों ने या कथावाचकों ने अपनी ओर से कुछ जोड़-जोड़ कर उस वाक्य को विशाल बना दिया है ।
'महाभारत' के विद्वान् अध्येता यह मानते हैं कि मूल रूप में यह काफी छोटा था । 'पृथ्वीराज रासो' के सम्बन्ध में भी यह झगड़ा है । उसके तीन संस्करण विद्वानों ढूंढ निकाले हैं, कुछ की धारणा है कि 'लघु' संस्करण मूल रहा होगा, बाद में उसमें अन्य बहुत-सी सामग्री जुड़ती गयी। इस प्रणाली से उसका आधुनिक वृहद् रूप खड़ा हुआ । हमारे यहाँ कुछ ग्रंथों का उपयोग 'कथा' कहने के लिए होता रहा है । तुलसी का 'रामचरित मानस' इसका एक उदाहररण है । कथाकार को कथा कहते समय कोई प्रसंग ऐसा विदित हुआ, जो और विस्तार चाहता है, तो उसने 'स्वयं' की रचना कर डाली और अपनी प्रति में उसे जोड़ दिया । मानस में 'गंगावतरण' का प्रसंग ऐसा ही प्रक्षेप या क्षेपक माना जाता है ।
प्रक्षिप्त या क्षेपक के कारण
इन प्रक्षेपों का पाँच कारणों से किसी काव्य में समावेश हो जाता है। ( 1 ) किसी कवि (अथवा कथाकार) द्वारा अपने उपयोग के लिए, ऐसे स्थलों को जोड़ देना, जो उसे उपयोगी प्रतीत होते हैं, यह उपयोगिता दो रूपों में हो सकती है :
(क) किसी विशेष प्रकरण को और अधिक पल्लवित करने के लिए, तथा(ख) कवि का अपना कोई स्वतन्त्र कृतित्व जो उसके पाठ्य-ग्रन्थ के किसी अंश से सम्बन्धित हो और जो उसे लगे कि मूल कवि की कृति में जुड़कर उसे प्रसन्नता प्रदान करेगा ।
(2) एक ही विषय के भिन्न-भिन्न स्वतन्त्र कृतित्वों को किसी अन्य यथा-सन्दर्भ सम्पादित कर देना । कुछ कवि इस बात को स्वयं चुप बने रहते हैं । जैसे- 'गोयम' ने चतुर्भुजदास की 'मधुमालती' में अपने द्वारा किये परिवर्द्धन का उल्लेख कर दिया है । * गोयम या गोतम 'स्वयं' ऐसा उल्लेख
* 'नंददास' की अनेकार्थं मंजरी और 'यान' मंजरी में 'रामहरि' ने जो अंश कर दिया है । यथा, बीस ऊपरें एक सौ नंददास जू कीस और दोहरा म 55 अनेकार्थ ध्वनि मंजरी ।
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व्यक्ति द्वारा एक में लिख देते हैं, कुछ
जोड़ा है, उसका उल्लेख रामहरि को है जु नवीन
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222 / पाण्डुलिपि-विज्ञान
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नहीं करता तो प्रक्षिप्तांश किसके रचे हैं, यह समस्या बनी रहती, जैसी कि 'रामचरितमानस' के गंगावतरणादि के सम्बन्ध में बनी हुई है ।
( 3 ) कभी-कभी कवि के अधूरे काव्य को उसी कवि के पुत्र या शिष्य पूरा करते हैं या उसमें आगे कुछ परिवर्द्धन करते हैं, और कभी-कभी पूर्व कृतित्व को भी संशोधित कर देते हैं ।
(4) किसी बिखरी सामग्री को एक व्यवस्था में रखते समय बीच की लुप्त कड़ियों को जोड़ने के प्रयत्न भी कविगरण करते हैं, और ये कड़ियां या तो व्यवस्था करने वाला कवि अपने कौशल से जोड़ देता है, जैसे कुशललाभ ने लोक प्रचलित 'ढोला मारू रा दूहा' के दोहे को लेकर उन्हें एक व्यवस्था में बांधा और कथा - पूर्ति के लिए बीच-बीच में चौपाई द्वारा अपना कृतित्व दिया। इस प्रकार पूरक कृतित्व के रूप में वह एक अन्य कृति में अपने कृतित्व का समावेश करता है या फिर वह किसी अन्य कवि से उपयोग सामग्री ले लेता है और अपनी पाठ्य-कृति में जोड़ देता है |
(5) मुक्तकों के संग्रह ग्रन्थों में समान-भाव के मुक्तक अन्य कवियों के भी स्थान पा लें तो आश्चर्य नहीं । ऐसे संग्रहों में नाम छाप भी बदल दी जाती है । 'सूरसागर' में ऐसे पद मिलते हैं जो किसी अन्य कवि के हो सकते हैं । यह नाम छाप की अदला-बदली कभी-कभी लोक-क्षेत्र में अत्यन्त लोकप्रिय कवियों के साथ हो जाती है | कबीर, मीरा, सूर, तुलसी की छाप गायक चाहे जिस पद में लगा देता है ।
फलतः पाठानुसंधान का धर्म है कि ऐसे प्रक्षेपों या क्षेपकों को वैज्ञानिक प्रणाली से पहचाने और उन्हें निकाल कर प्रामाणिक मूल प्रस्तुत करें। यह वैज्ञानिक प्रणाली से होना चाहिये, स्वेच्छा या वैज्ञानिक ढंग से नहीं । अवैज्ञानिक ढंग से स्वेच्छ या जैनोडोटस जैसे विद्वान ने होमर की कृति का सम्पादन करते समय बहुत सा अंश निकाल दिया था । उसकी में वह अंश प्रक्षिप्त था, जबकि आगे के विद्वानों ने वैज्ञानिक पद्धति से पाया कि वे अंश प्रक्षिप्त नहीं थे 1
छूट :
प्रक्षेपों की भांति ही काव्य में 'छूट' भी हो सकती है । प्रतिलिपिकार कभी तो प्रमाद में कोई पंक्ति, शब्द या अक्षर छोड़ जाता है पर कभी वह प्रतिलिपि किसी विशेष दृष्टि से करता है और कुछ अंशों को अपने लिए अनावश्यक समझ कर छोड़ देता है ।
पाठालोचन का यह कार्य भी होता है कि ऐसी छूटों की भी प्रामाणिक मूल पाठ की प्रतिष्ठा करके वह पूर्ति करे । अप्रामाणिक कृतियाँ :
यहीं यह बताना भी आवश्यक है कि कभी-कभी ऐसी कृतियाँ भी मिल जाती हैं जो पूरी की पूरी प्रामाणिक होती है । उस ग्रन्थ का रचयिता, जो कवि उस ग्रन्थ में बताया गया है, यथार्थतः वह उसका कर्त्ता नहीं होता । इस छल का उद्घाटन पाठालोचन ही कर सकता है ।
1. Smith. William, (Ed)--Dictionary of Greek and Roman Biography and Mythology, p. 510-512.
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पाठालोचन/223
अतः स्पष्ट है कि पाठालोचन अथवा पाठानुसंधान एक महत्त्वपूर्ण अनुसंधान है। किसी भी अन्य अनुसन्धान से इसका महत्त्व कम नहीं माना जा सकता। इस अनुसंधान में उन सभी मनःशक्तियों का उपयोग करना पड़ता है जो किसी भी अन्य अनुसंधान में उपयोग में लायी जाती हैं। पाठालोचन में शब्द और अर्थ का महत्त्व
पाठालोचन का सम्बन्ध शब्द तथा अर्थ दोनों से होता है अतः इसे केवल भाषावैज्ञानिक विषय ही नहीं माना जा सकता, साहित्यिक भी माना जा सकता है। डॉ० किशोरीलाल ने अपने एक निबन्ध में इसी सम्बन्ध में यों विचार प्रकट किये हैं :
"इस दृष्टि से सम्पादन की दो सरणियों का उपयोग हो रहा है- (1) वैज्ञानिकसम्पादन, और (2) साहित्यिक सम्पादन ।
वैज्ञानिक एवं साहित्यिक प्रक्रिया में मूलतः अन्तर न होते हुए भी आज का वैज्ञानिक सम्पादक शब्द को अधिक महत्त्व देता है और साहित्यिक सम्पादक मर्थ को । इसमें सन्देह नहीं कि शब्द और अर्थ की सत्ता परस्पर असंपृक्त नहीं है फिर भी अर्थ को मूलतः ग्रहण किये बिना प्राचीन हिन्दी काव्यों का सम्पादन सर्वथा निर्धान्त नहीं। इन्हीं सब कारणों से शब्द की तुलना में अर्थ की महत्ता स्वीकार करनी पड़ती है। आज अधिकतर पाठ-सम्पादन में जो भ्रान्तियाँ उत्पन्न होती हैं, वे अर्थ न समझने के कारण।"
डॉ. किशोरीलाल जी ने जो विचार व्यक्त किये हैं, वे समीचीन हैं, पर किसी सीमा तक ही। ठीक पाठ न होने से ठीक अर्थ पर भी नहीं पहुँचा जा सकता। डॉ. किशोरीलाल जी ने अपने निबन्ध में जो उदाहरण दिये हैं, वे गलत अर्थ से गलत शब्द तक पहुंचने के हैं । उदाहरणार्थ, 'आँख तले' जिसने पाठ दिया, उसकी समझ में 'आखतले' नहीं जमा, उसे लगा कि 'ख' को ही गलती से 'पाख' लिख दिया गया है। 'पाख' का कोई अर्थ नहीं होता, ऐसा उसने माना । क्योंकि पाठ-सम्पादक या लिपिक ने अर्थ को महत्त्व दिया उसने 'पाख' को 'मांख' कर दिया । अब आप अर्थ को महत्त्व देकर 'आखत ले' कर रहे हैं, तो भ्रांत पाठ वाले की परिपाटी में ही खड़े हैं। यथार्थ यह है कि 'आँख' और 'पाख' शब्द रूप से अर्थ ठीक नहीं बैठता । आपने उसके रूप की नयी सम्भावना देखी। 'तले' का 'त' आंख से मिलाया और 'ले' को स्वतन्त्र शब्द के रूप में स्वीकार किया । 'आँख तले' शब्द रूप के स्थान पर 'पाखत ले' रूप जैसे ही खड़ा हुआ, अर्थ ठीक लगने लगा। शब्द रूप 'आख+तले' नहीं 'पाखत+ले' है । जब हम शब्द का रूप 'आखत ले' ग्रहण करेंगे तभी ठीक अर्थ पर पहुंच सकेंगे । शब्द ही ठीक नहीं होगा तो अर्थ कैसे ठीक हो सकता है। शब्द से ही अर्थ की ओर बढ़ा जाता है । अतः आवश्यक यह है कि वैज्ञानिक प्रणाली से ठीक या यथार्थ शब्द पर पहुंचा जाय, क्योंकि शुद्ध शब्द ही शुद्ध या समीचीन अर्थ दे सकता है। वस्तुतः ग्रन्थ से अर्थ प्राप्त करने का एक अलग ही विज्ञान है । उक्त उदाहरण को ही लें तो 'प्राख (प्रांख)+तले 'पाखत + ले' और 'पा+ख+तले' ये तीन रूप एक शब्द के बनते हैं, तो इसमें से किस रूप को पाठ के लिए मान्य किया जाय ? यहाँ अर्थ ही सहायक हो सकता है।
1. लाल, किशोरी -प्राचीन हिन्दी काव्य : पाठ एवं अर्थ विवेचन, सम्मेलन पत्रिका (चैत्र-भाद्रपद,
अंक 1892), पृ. 177 ।
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224 पाण्डुलिपि-विज्ञान
अतः यह मानना ही होगा कि वैज्ञानिक विधि से पाठ-निर्धारण में भी अर्थ का महत्त्व है। हाँ, पाठालोचन की वैज्ञानिक प्रणाली में शब्दों का महत्त्व स्वयं-सिद्ध है। पांडुलिपि-विज्ञान और पाठालोचन
इस दृष्टि से यह भी आवश्यक प्रतीत होता है कि हस्तलेखवेत्ता को 'पाठालोचन' का ऐसा ज्ञान हो कि वह किसी प्रति का महत्त्व आँकने या अँकवाने में कुछ दखल रख सके।
पाठालोचन की प्रक्रिया से अवगत होने पर और कागज, लिपि, वर्तनी तथा स्याही के मूल्यांकन की पृष्ठभूमि पर तथा विषय की परम्परा के प्ररिप्रेक्ष्य में वह उस ग्रन्थ पर सरसरा मत निर्धारित कर सकता है। यह मत उस प्रति के उपयोगकर्ताओं और अनुसंधित्सुनों को 'अनुसंधेय धारणा' (Hypothesis) के रूप में सहायक हो सकता है ।
स्पष्ट है कि पाठालोचन का ज्ञान पांडुलिपि-विज्ञानवेत्ता को पाठालोचन की दृष्टि से नहीं करना, वरन् इसलिए करना है कि उस ज्ञान से ग्रन्थ की उस प्रति का मूल्य आँकने में कुछ सहायता मिल सकती है, और वह उसके आधार पर ग्रन्थ-विषयक बहुत-सी भ्रान्तियों से भी बच सकता है। पाठालोचन वास्तविक पाठ तक पहुंचने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है और पाठ 'ग्रन्थ' का ही एक अंग है, और वह ग्रंथ उसके पास है, अतः अपने ग्रन्थ के अन्य अवयवों के ज्ञान की भांति ही इसका ज्ञान भी अपेक्षित है। पाठालोचन-प्रणालियाँ
___पाठालोचन की एक सामान्य प्रणाली होती है । सम्पादक पुस्तक का सम्पादन करते समय जो प्रति उसे उपलब्ध हुई है, उसी पर निर्भर रह कर, अपने सम्पादित ग्रन्थ में वह उन दोषों को दूर कर देता है, जिन्हें वह दोष समझता है। इसे 'स्वेच्छया-पाठ-निर्धारणप्रणाली' का नाम दे सकते हैं।
दूसरी प्रणाली को 'तुलनात्मक-स्वेच्छया-सम्पादनार्थ-पाठ-निर्धारण' की प्रणाली कह सकते हैं। सम्पादक को दो प्रतियाँ मिल गयीं। उसने दोनों की तुलना की, दोनों में पाठभेद मिला, तो जो उसे किसी भी कारण से कुछ अच्छा पाठ लगा, वह उसने मान लिया। ऐसे सम्पादनों में वह पाठान्तर देने की आवश्यकता नहीं समझता । हाँ, जहाँ वह देखता है कि उसे दोनों पाठ अच्छे लग रहे हैं वहाँ वह नीचे या मूलपाठ में ही कोष्ठकों में दूसरा पाठ भी दे देता है।
- इसी प्रणाली का एक रूप यह भी मिलता है कि ऐसे विद्वान् को कई ग्रन्थ मिल गये तब भी पाठ-निर्धारण का उसका सिद्धान्त तो वही रहता है कि स्वेच्छया जिस पाठ को ठीक समझता है, उसे मूल में दे देता है। इस स्वेच्छया पाठ-निर्धारण में उसकी ज्ञानगरिमा का योगदान तो अवश्य रहता है, एक पाठ स्वेच्छया स्वीकार कर वह उसे ही प्रामाणिक घोषित करता है-इसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए वह कवि-विषयक अपने पाण्डित्य का सहारा लेता है, और कवि की भाषा सम्बन्धी विशेषताओं की भी दुहाई देता है । किन्तु यथार्थतः इस सम्पादन में पाठ के निर्धारण में वस्तुतः अपनी रुचि को ही महत्त्व देता है, फिर उसे ही कवि का कर्तत्व मान कर वह उसे सिद्ध करने के लिए कवि के तत्सम्बन्धी वशिष्टय को सिद्ध करता है। अपनी इस प्रणाली की चर्चा वह भूमिका में कर देता है। हाँ, जब उसे दो प्रतियों के पाठों में यह निर्धारित करना कठिन हो जाता है कि किसमें
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पाठालोचन/225 ऐसा श्रेष्ठतम भाव है, जो कवि को अपेक्षित रहा होगा, 'प्रथा जब वह समझता है कि दोनों ही या दोनों में से कोई भी पाठ कविसम्मत "हो सकता हैं, क्योंकि उत्कृष्टता में उसे दोनों एक-दूसरे से कम नहीं लगते तब वह एक पाठ के साथ दूसरी पाठे विकल्प में दे देता है। इसे वह पाठान्तर की तरह पाद टिप्पणी के रूप में भी दे सकता है।
इसी प्रणाली का आगे का चरण वह होता है. जिसमें पाठालोचनकार को.दो से अधिक हस्तलिखित प्रतियाँ मिल जाती हैं । इन समस्त प्रतियों के पाठों में से वह उस पाठ
Edi को ग्रहण कर लेता है जो उसे अपनी दृष्टि से सर्वोत्तम लगता है । अब वह अन्य प्रतियों के सभी पाठों को पाठान्तर के रूप में पद के नीचे दे देता है ।। वैज्ञानिक चरण
और अब कह चरल पाता है जिसे वैज्ञानिक चरण कह सकते हैं। इस चरण की प्रमाली में कई हस्तलेखों की तुलना की जाती है । अव सुलधात्मक अाधार पर प्रायः प्रत्येक प्रति में मिलने वाली त्रुष्टियों में साम्य वैषम्य देखा जाता है। इसके परिणाम के आधार पर इन समस्त हस्तलेखों का एक वंशवृक्ष तैयार किया जाता है और कृति का आदर्श पाठ
"स्वेच्छया पाठ निर्धारण - का ऐसा ही रोचक वृत्तांत., होमर-काव्य के प्रात-निर्धारण के सम्बन्ध में मिलता है । यह माना जाता है कि जेनोडोटस ने व्यवस्थित आलोचना (पामलोचन) की नींव रखी यो। उसने कुछ सिद्धान्त निर्धारित किए थे : (1) समस्त ग्रन्थं के परिप्रेक्ष्य में जो सामग्री. विरुद्ध है अथवा अनावश्यक है, उसे निकाल दिया जाय।" (2) कवि की प्रतिभा की दृष्टि से जो सामग्री अयोग्य लगे उसे भी अस्वीकार कर देना चाहिए । इन सिद्धान्तों के आधार पर अपने ढंग से उसने लम्बे प्रघटकों को काट का, अन्यों की स्वेच्छया परिवर्तित कर दिया तथा इधर-उधर रख दिया। संक्षेप में यह सब उसने उसी प्रकार मिाया जिा प्रकार पहन अपनी कृति में फरता । उसके बाद के गम्भीर आलोचकों को इस प्रणाली से बहत धक्का लगा।"
-विलियम स्मिथ-डिक्शनरी ऑफ ग्रीक एण्ड रोमन बायोग्राफी एण्ड माइथालोजी, पृ. 510. keyr7: स्वेच्छया पाठ-मिरिका का यही परिणाम होता है। जैनेडोट्स का समय सिकन्दर महान् के बाद पडती है
"होमर के साथ एक और बात भी यौ। होमर का सम्पूर्ण काव्य पहले कंठस्थ ही था। पीजिस्ट्रेटस के समय से होमार, काव्य लिपिबद्ध किया गया। पाठालोचन की समस्या वस्तुतः जैनोडोट्स के समय से ही खड़ी हुई। इस समय तक होमर का काव्य-अध्ययमाऔर चर्चा का विषय बन गया था कएल सी. वाइडीच के समय में ही होमर: का काव्य माठशालाओं में अनिवार्यतः पढ़ाया जाने लगा था। इसी समय के लगभग समाज मे दो कर्म हो गए थे एक वर्ग उसके काव्य में नैतिकता के रूप में असन्तुष्ट था, इसरा उस रूपक माला पार उसका पोषक था। इस स्थिति में भी होमर-काव्य के लिखित रूपों की मांग बढ़ी सिवादर महान तो इस काव्य-ग्रन्थ को एक राजसी सुन्दर पेटिको'मैं सदा अपने । गए। तब अलेक्जण्डिया में आलोचकों को दल बड़ा हुआ और पाठालोचनात्मक संस्करण होमर
काव्य के प्रस्तुत किए जाने लगे। यहीं से वैज्ञानिक पाठालोचन प्रणाली का मी. जन्म माना जा 1. सकता है सरसमी देशों की आरम्भिक कृतियाँ कंठस्था रहती हैं. भारत में भी वेद मंठस्थ रखे जाते
थे और इनका इतना महत्व या ठिस्थ स्थिति में ही 'यहाँ के ऋषियों में कई प्रकार के पाठों का आविष्कार किया और इन-पाछे की प्रणालियों से वेदों की वर्ण-शब्द संरचना सबकी विकृति से रक्षा कोतया प्रक्षेपों से भी रक्षा की वेद मंत्र थे और यह धारणा इस कॉल में प्रबल थी कि किंचित भी विकृत उच्चारण से कुछ का कुछ परिणाम हो सकता है। अत: वर्दी की पाठ-शुद्धि पर बईत अधिक ध्यान दिया गया
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226/पाण्डुलिपि - विज्ञान
या मूल पाठ निर्धारित किया जाता है । 1
यहाँ से वैज्ञानिक पाठालोचन का आरम्भ माना जा सकता है । प्राज पाठालोचन एक अलग विज्ञान का रूप ग्रहण कर रहा है । यह भी हुआ है कि पाठालोचन को भाषाविज्ञान या भाषिकी का एक अंग माना जाने लगा है, साहित्य का नहीं, जैसाकि इससे पहले
माना जाता था ।
पाठालोचन अथवा पाठानुसंधान की प्रक्रिया :
(क) ग्रन्थ संग्रह :
किसी एक ग्रन्थ का पाठालोचन करने के लिए यह अपेक्षित है कि पहले उस ग्रन्थ की प्रकाशित तथा हस्तलेख में प्राप्त प्रतियां एकत्र करली जायें। इसके लिए पहले तो उनके प्राप्ति स्थलों का ज्ञान करना होगा | कहाँ कहाँ इस ग्रन्थ की प्रतियाँ उपलब्ध हैं । यह कोई साधारण कार्य नहीं है । सूचनाएँ प्राप्त करने के लिए लिखा-पढ़ी से, मित्रों के द्वारा, यात्रा करके, सरकारी माध्यम से एक जाल-सा बिछा लेना होगा । पं० जवाहरलाल चतुर्वेदी ने 'सूरसागर' विषयक सामग्री का जो लेखा-जोखा दिया है, उसे पढ़कर इसकी गरिमा को समझा जा सकता है । 2
ऐसी सूचना के साथ- साथ ही उन ग्रन्थों को प्राप्त करने के भी यत्न करने होंगे । कहीं से ये ग्रन्थ आपको उधार मिल जायेंगे, जिनसे काम लेकर आप लौटा सकेंगे । कहीं से इन ग्रन्थों की किसी सुलेखक से प्रतिलिपि करानी पड़ेगी, कहीं से इनके फोटो - चित्र तथा माइक्रोफिल्म मँगानी होंगी। इस प्रकार ग्रन्थों का संग्रह किया जायगा ।
(ख) तुलना :
अब इन ग्रन्थों के पाठ की पारस्परिक तुलना करनी होगी। इसके लिए
(1) पहले इन्हें कालक्रमानुसार सजा लेना होगा, तथा (2) प्रत्येक ग्रन्थ को एक संकेत नाम देना होगा ।
1. The chief task in dealing with several MSS of the same work is to investigate their mutual relations, especially in the matter of mistakes in which they agree and to construct a geneological table, to establish the text of the archetype, or original, from which they are derived.
— The New Universal Encyclopaedia (Vol. 10), p. 5499. किन्तु यह वंशवृक्ष (geneological table) प्रस्तुत करना बहुत कठिन कार्य है और कभी-कभी तो असम्भव हो जाता है। इसके लिए टेसीटरी महोदय का यह कथन पठनीय है। वे 'वर्धनिका' का पाठ - निर्धारण करते समय लिखते हैं
"I have tried hord to trace the pedigree of each of these thirteen MSS and ascertain the degree of their depending on the archetype and one another and have been unsuccessful. The reason of the failure is to be sought partly in the great number of MSS in existence and partly in the peculiar conditions under which bardic works are handed down, subject to every sort of alterations by the copyists who generally are bards themselves and often think themselves authorized to modify or, as they would say, improve any text they copy, to suit their tastes or ignorance as the case may be".
- टेसीटरी — वचनिका (भूमिका), पृ० 9. यह एक दृष्टि से अत्यन्त विशिष्ट स्थिति है, जिसमें इतनी अधिक प्रतियों के उपलब्ध होने के कारण भी वंशवृक्ष बनाने में सफलता नहीं मिल सकी।
2.
चतुर्वेदी, जवाहर लाल - पोद्दार अभिनन्दन ग्रंथ, पृ० 119-132
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पाठालोचन/227
संकेत नाम देने से ग्रन्थ के पाठ-संकेत देने में सुविधा होती है, स्थान कम घिरता है और समय की बचत भी होती है।
'संकेत प्रणाली'—संकेत देने की कई प्रणालियां हो सकती हैं, जैसे-(क) क्रमांकसभी आधार-ग्रन्थों को सूचीबद्ध करके उन्हें जो क्रमांक दिये गये हों उन्हें ही 'ग्रन्थ' संकेत मान लिया जाय-यथा (1) महावनवाली प्रति, (2) आगरावाली प्रति, आदि । अब इनका विवरण देने की आवश्यकता नहीं रही केवल 'संकेत' संख्या लिख देने से काम चल जायगा। प्रति संख्या (2) सदा आगरा वाली प्रति समझी जायगी । यह आवश्यक है कि सूचीबद्ध करते समय प्रत्येक संकेत' के साथ ग्रन्थ का विवरण भी दिया जाय । जिससे उस संख्या के ग्रन्थ के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो सके । उदाहरणार्थ-हम 'पृथ्वीराज रासो' की एक प्रति का परिचय उद्धृत करते हैं :
क्रमांक-1--यह प्रति प्रसिद्ध जैन विद्वान मुनि जिनविजय के संग्रह की है। यह 'रासो' के सबसे छोटे पाठ की एकमात्र अन्य प्राप्त प्रति है, और उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी 'धा०' है । इस प्रति के लिए मुनि जी को जब मैंने लिखा, वह श्री अगरचन्दजी नाहटा के पास थी । कदाचित् प्रति की जीर्णता के ध्यान से नाहटा जी ने मूल प्रति न भेजकर उसकी एक फोटोस्टेट कापी मुझे भेज दी । इस बहुमूल्य प्रति के उपयोग के लिए मैं मुनिजी का अत्यन्त प्रभारी हूँ । प्रस्तुत कार्य के लिए इसी फोटोस्टेट कापी का उपयोग किया गया है । मूल प्रति मैंने 1956 के जून में डॉ० दशरथ शर्मा के पास दिल्ली में देखी थी। फोटोस्टेट होने के कारण यह कापी प्रति की एक वास्तविक प्रतिकृति है।
इस प्रति के प्रारम्भ के दो पन्ने नहीं हैं, शेष सभी हैं। इसमें भी खण्ड-विभाजन और छन्दों की क्रम-संख्या नहीं है । इसमें वार्ताओं के रूप में इस प्रकार के संकेत भी प्रायः नहीं दिये हुए हैं जैसे 'धा०' में हैं । प्रारम्भ के दो पन्ने न होने के कारण इसकी निश्चित छन्द संख्या कितनी थी, यह नहीं कहा जा सकता है, किन्तु इन त्रुटित दो पत्रों में से प्रथम पृष्ठ-रचना के नाम का रहा होगा, जैसा अनिवार्य रूप से मिलता है, और शेष तीन पृष्ठ ही रचना के पाठ के रहे होंगे । तीसरे पत्र के प्रारम्भ में जो छन्द आता है वह 'धा०' में 17 है, जिसका कुछ अंश पूर्ववर्तीय द्वितीय पत्र पर रहा होगा और 'धा०' की तुलना में इसमें 30-31 प्रतिशत रूपक अधिक हैं । इसलिए 'धा०' के 16 रूपकों के स्थान पर इसके प्रथम दो पत्रों में 20-21 रूपक रहे होने चाहिये । फलतः इन निकले हुए दो पत्रों में 20 छन्द मान लेने पर प्रति की कुल छन्द संख्या 552 ठहरती है । यह प्रति अत्यन्त सुलिखित है और उपर्युक्त दो पत्रों के अतिरिक्त पूर्णतः सुरक्षित भी है । इसका आकार 6:25"x3" और इसकी पुष्पिका इस प्रकार है।
___"इति श्री कविचन्द विरचिते प्रथीराज रासु सम्पूर्ण । पण्डित श्री दान कुशल गणि । गणि श्री राजकुशल । गणि श्री देव कुशल । गणि धर्म कुशल । मुनि भाव कुशल लषितं । मुनि उदय कुशल । मुनि मान कुशल । सं० 1697 वर्ष पौष सुदि अष्टम्यां तिथी गुरु वासरे मोहनपूरे।"
यह एक काफी सुरक्षित पाठ-परम्परा की प्रति लगती है, क्योंकि इसमें पाठ-त्रुटियाँ बहुत कम हैं, और अनेक स्थानों पर एकमात्र इसी में ऐसा पाठ मिलता है जो बहिरंग और अन्तरंग सभी सम्भावनाओं की दृष्टि से मान्य हो सकता है । फिर भी श्री नरोत्तमदास स्वामी ने कहा है कि इसका 'पाठ बहुत ही अशुद्ध और भ्रष्ट है।' उन्होंने यह धारणा इस
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228 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
प्रति के सम्बन्ध में कैसे बनाई है, यह उन्होंने नहीं लिखा है । किन्तु इस प्रकार की धारणा के दो कारण सम्भव प्रतीत होते हैं, एक तो यह कि इसमें वर्तनी - विषयक कुछ ऐसी विशिष्ट प्रवृत्तियाँ मिलती हैं जिनके कारण शब्दावली और भाषा का रूप विकृत हु लगता है, दूसरे यह कि इसका पाठ अनेक स्थलों पर अपनी सुरक्षित प्राचीनता के कारण दुर्बोध हो गया है, और उन स्थलों पर अन्य प्रतियों में बाद का प्रक्षिप्त किन्तु, सुबोध पाठ मिलता है । कहीं-कहीं पर ये दोनों कारण एकसाथ इकट्ठा होकर पाठक को और भी अधिक उलझा देते हैं
V.
*****
1
* वर्तनी सम्बन्धी इसकी सबसे अधिक उलझन में डालने वाली प्रवृत्तियाँ प्रावश्यके
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उदाहरणों के साथ निम्नलिखित हैं
কা
(1) इसमें 'इ' की मात्रा का अपना सामान्य प्रयोग तो है ही, 'अ' के लिए भी उसका प्रयोग प्रायः हुआ है, यथा :
गुन तेज प्रताप ति रिण 'कहि दिन पंच प्रजेत न ग्रन्त लहइ
ब्रह्म वेद नहि चषि अॅलप युधिष्ठिर 'बोल' । जु शायर (सायर) जल 'तजि' मेरे मरजादहं डोलई रहि गय उर झषेव उरह मि (मइ) प्रवरे न बुझइ । उन जीवइ कोई मोहि परमपर 'भूमि' । किरणाटी राणो किं (कइ) श्रावासि राजा विदा मांगन ग 'पछि' (पछई) राजा परमारि प्रावासि विदा मांगन गयु ! *पछि' (पछइ) राजा परमारि सुषुली विंदा भोगने ग T 'पछि' (es) राजा वांधेली के प्रवास विदा मांगन गये तुलना कीजिये
18
"पछई राजा कछवाही कई आवासि विदा मांगन गयु (मो० 125 अ PK VIE मनु प्रकाले टडीओ शंघन 'पवि' (पव्वेइ) छुटि प्रवाह (#10234-2) 'तिनं' 'मि' (मई) दसि' 'सि' (सइ) और दलन 'उप्परि' (उप्पारइ) गॅर्ज दंत ।" THIS 18: PEE NF THE तिन मि' (मई) कवि' पंजे सिंह (सहि) भाषै भाप 'विठडे काज 'विनै मिं* (मह) दिवंगत देव॒ने सम॑ह॒ तिने महि पुहु प्रथीराजे ।
" (मो० 438-2) TE-OFFEE
जे कल साधे मनें 'मि' (मई) भई सबै ईछा रस दोन्ह 'असमि' (असमैइ) सौइ मग्यु सुकवि नृपति 'विचार' (विचारई) संब
d
मो० 122
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(2) 'इ' की मात्रा का प्रयोग पुनः 'ऐ' के लिए भी हुआ 123 124 तथा 125 के उद्धरणों में
राजा भटियानी प्रावामि विदा माँगन गये ।
'कीजिए
דין
(मो. 95tsite 95 51-52)
(मो० 5302)
"इस प्रवृत्ति की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि कहीं-कहीं "की मात्रा को "ई" के रूप में पढ़ा गया Mohit Shah his pin whi हैं
जीपी
"तम 'सरबंगई (संवर्ग) से काँवराज राज गुरू सम ।
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(मो० 2243-4 ) Pot S
545-3-4) (मौ122) (मो० 123 अ) (मौ० 124 अ
(मी० 125 अॅ) की
(to 439)
(मो05132)
(मो० 4023)
का
मिलती हैं, "यथा : ऊपर
आए
हुए 'क' की तुलना
DO
(मो० 127)
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भरी भोज "भाजि' (भाजई) नहीं सारि "भागि
भरि मल मान नहीं लौह लागे ।
मुनि त पंग चहान कुं मुष जंपि इह 'विन' (वैन) । बोल सूर सामंत सब कहु एक शेन (सैन) । जलबिन भट सुभट भो करि पहि भुज 'विन' (वैन) ।"
भये तोमर मतिहीन काय किली 'सि' (तै) ढिली
'ति' (ते) जीतु गंजनुं गंजि प्रपार हमीरह 'ति' (ते) जीतु चालुक विहरि संनाहः सरीरह 'ति' (ते) पहुषंग सू गहुँ इदु जिम गहि सू रहह, 'ति' (तै) गोरीय दल दहु वारि कट जिन बन दहह । तुव तु ग ते तब उचतम ति (ते) तो प्राशन मिलयू । भरे देव दानव जिम 'विर' (वर) चीतु ।
परमतत्त्व सूभि ( सूझइ) नृपति मगि मगि फरमानन ( फरमान ) ।" ति' (त) राषु हींदुग्रान गंज गौरी गाहंतु ।
तराषु जालौर चंपि चालूक बाहंतु । 'ते' राषु पगुरु भीम भटी 'दि' (द) मधु । 'तँ' राषु रणथंभ राय जादव 'सि' (सइ) हिथुः ।
'कमा
वही
वहीं
वही
वही
वही
वही
(मी० 73.4)
( मो० 77.1) **(822)**
(मो० 99.2)
(101-2)
(10 105-10
(मो. 198:3)
(मो० 116 1)
(मो० 121 1)
(To 548 3)
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एक पाठालोचन / 229
वही
वही
वही
तुलना कीजिए
मन्त्री का काम अन्धा देवी विदा गति । "हि (इ) 'कयमास' कहूँ कोइ जानहुँ ।
(मो० 32719-20)
(मो० 424-1-5) (मो० 454, 45)
इस प्रवृत्ति की पुष्टि भी इस प्रकार होती है कि कहीं कहीं पर 'इ' की मात्रा को 'ऐ' के रूप में पढ़ा गया है, यथा
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विदूजन 'बोल' (बोलि) दिन धरा
(मोष 40.54)
1 (3) कहीं कहीं 'इ' की मात्रा का प्रयोग 'प्रय' के लिए भी हुआ मिलता है,
यथा-
(मो० 229)
(मो० 547)
~(#70 308·1-4) - (मोठ 33.4)
* 1 K
(मो० 74.4) (मो० 98.4)
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230/पाण्डुलिपि-विज्ञान
(4) 'इ' की मात्रा का प्रयोग 'ए' की मात्रा के लिए भी हुआ है, यथादुहु राय रषत ति रत 'उठि'। विहुरे जन पावस श्रम उठे ।
(मो० 314:5-6) नीयं देह दिषि विरषि ससाने । जिते मोह मज्जा लगये 'प्रासमानि' ।
(मो0 498.35-36) शकुंने मरने जनंगे विहाने । वजे दहुँ दुभिदे विभू 'मनि' ।
(मो० 498.39-40) इस प्रवृत्ति की पुष्टि भी कहीं-कहीं 'इ' की मात्रा के 'ए' की मात्रा के रूप में पढ़े गए होने से होती है, यथा
पिनि गंडु नृप अधनिसा सम दासी 'सूरिात' (सुरिआति)। देव धरह जल धन अनिल कहिग चंद कवि प्रात ।। (मो० 87) पहिचानु जयचन्द इहत ढिलीसुर पेर्षे । नहिन चंदु उनुहारि दुसह दारुण तब दिर्ष ।
(मो० 223-1-2) गहीय चंदु रह गजने जाहाँ सजन जु 'नरेंद' । कबहुँ नयन निरषहूँ मनहु रवि अरविंद ।
(मो० 474) (5) 'इयइ' या 'इये' के स्थान पर प्रायः 'ईई' लिखा गया है, यथा
सोइ एको बान संभरि घनी बीउ बान नह 'संधीइ' ।
धारिपार एक लग मोगरी एक बार नृप टुकीयै। (मो० 544-5-6) हम बोल रिहि कलि अन्तिर देहि स्वामि 'पारथीइ' (पारथयइ) । अरि असीइ लष को अंगमि परणि राय 'सारथीइ' (सारथियइ)।
(मो0 305.5-6) मंगल वार हि मरन की ते पति सधि तन ('पंडियइ)। जेत चढि युथ कमधज सू मरन सब मुष 'मंडीह' (मंडियइ)।
(मो0 309:5-6) क्षिनु इक दरहि 'विलंबिइ' (विलंबियइ) कवि न करि मनु मंदु ।
(मो० 488.2) सह सहाव दर 'दिषीई' ('दिषियइ) सु कछ भूमि पर मिछ। (मो० 479-2) सीरताज साहि 'सोभीइ' (सोभियइ) सुदेसि ।
(मो० 492-17) 'सुनीइ' (सुनियइ) पुन्य सम मझ राज ।
(मो0 52.5) (6) 'इयउ' के स्थान पर प्रायः 'ईऊ' लिखा मिलता हैइम पिचंद 'विरदीउ' (विरदियउ) सु प्रथीराज उनिहारि एहि ।
(मो0 189-6, 190-6) इम जंपि चंद 'विरदीउ' (विरदियउ') षट त कोस चहुवान गयु ।
(मो० 335-6)
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इम जंपि चंद ' विरदीउ' (विरदियउ ) दस कोस चहुत्रांन गउ ।
पाठालोचन / 231
( मो० 80.2-4 )
जिम सेत वज 'साजीउ' (साजियउ ) पथ । (7) 'उ' की मात्रा का प्रयोग प्रायः 'उ' के लिए हुआ है, यथातव ही दास कर हथ सुवंय सुनाययूउ । बानावलि विहु बांन रोस रिस 'दाहयु' । मनहू नागपति पतिन अप 'जगाइयु' । पायक धनू धर कोटि गनि असी सहस हयमंत जहु । कहि सामंत सुइ जु जीवत ग्रहि प्रथीराज 'कुं' । निकट सुनि सुरतांन वांग दिसि उच हथ 'सुं' (सउ) जस अवसर सतु सचि अछि लुटीय न करीय 'भू' (भउ ) । 'सु' (सउ) बरस राज तप अंत किंन ।
'सु' (सउ) उपरि 'सु' (सउ ) सहस दौह अगनित लष दह । ( मो० 283-2) कन (उ) ज राडि पहिलि दिवसि 'शु' (शउ) मि सात निवटिया । ( मो० 298.6) (8) कभी-कभी 'उ' की मात्रा से 'ओ' की मात्रा का भी काम लिया गया है
निशपल पंच घटीए दोई 'धायु' । आखेटकन्नंखे नृप आयो । (9) और कभी-कभी 'उ' की मात्रा कवि देष कवि कुमन 'रत्त ' न्याय नयन कन ( उ ) जि पहुतो । इसकी पुष्टि एकाध स्थान पर 'उ' होती है
प्रात राउ संप्रापतिग जाहां दर देव 'अनोपं' । सयन करि दरबार जिहि सात सहस अंस भूप ॥ (10) इसी प्रकार कहीं-कहीं 'उ' वर्ण का प्रयोग तुलंत जू तुज तराजून्ह गोप | मनु धन मद्मि तडितह 'उ' । गंग जल जिमन घर हलि 'उजे' । पंगरे राय राठुर फोजे ।
(मो० 343.7)
(मो० 492-24)
(मो० 230.5-6 )
(मो० 92.3-4 )
से 'श्री' की मात्रा का काम लिया गया है
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( मो० 533.3 -4 )
(मो० 21 की अन्तिम श्रद्धर्शली )
(मो० 176.1-2)
के स्थान पर 'ओ' की मात्रा मिलने से भी
(मो० 214 )
'ओ' के लिए हुआ मिलता है
(मो० 161.27-28)
( मो० 284.15 - 16 )
प्रति की वर्तनी सम्बन्धी ऐसी ही प्रवृत्तियों का यहाँ उल्लेख किया गया है जो हिन्दी की प्रतियों में प्रायः नहीं मिलती हैं, और इसीलिए हिन्दी पाठक को ऐसा लग सकता है कि ये प्रतिलिपिकार की अयोग्यता के कारण हैं, किन्तु ऐसा नहीं है । नारायणदास तथा रत्नरंग रचित 'छिताई वार्ता' की भी एक प्रति में, जो इस प्रति के कुछ पूर्व की है, वत्तनी - सम्बन्धी ये सारी प्रवृत्तियाँ मिलती हैं, यद्यपि ये परिमाण में कम हैं, पश्चिमी
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232/पाण्डुलिपि-विज्ञान
राजस्थानी तथा गुजराती को इस समय की प्रतियों में तो ये प्रवृत्तियाँ : प्रचुरता से पाई जाती हैं । फलतः वर्तनी-सम्बन्धी इन प्रवृत्तियों का परिहार करके ही प्रति के पाठ पर विचार करना उचित होगा और इस प्रकार के ..परिहार के अनन्तर मो० का पाठ किसी भी प्रति से बुरा नहीं रहता है, वरन् वह प्रायः प्राचीनतर और इसलिए कभी-कभी दुर्बोध भी प्रमाणित होता है, यह सम्पादित पाठ और पाठांतरों पर दृष्टि डालने पर स्वतः स्पष्ट हो जायगा ।
"अतः इस प्रति को हम ।' मानेंगे और जहाँ-जहाँ इस प्रति का उल्लेख करेंगे।' का ही उल्लेख करेंगे।"
यदि इस समस्त कथन का विश्लेषण किया जाय तो विदित होगी कि इसके परिचय में निम्न बातें दी गई हैं---
(क) प्रति के प्राप्ति स्थान एवं उसके स्वामी का परिचर्य(ख) 'प्रति की दशा (1) पूरी है या अधूरी है या कुछ पृष्ठ नहीं हैं, या फटे है या
कीट-भक्षित हैं ? (2) पृष्ठ में पंक्तियों की और शब्दों की संख्या; (3) स्याही कैसी, एक रंग की या दो की, (4) कागज़ कैसा, (5) सचित्र या सादा ?
कितने चित्र ? (ग) छन्द संख्या पृष्टगत तथा कुल ग्रन्थ में कुछ त्रुटित पत्र, हों तो उनके सम्बन्ध
में भी अनुमान । (घ) लेख की प्रवृत्ति सुलेख, कुलेख, स्पष्ट आदि । (ङ) आकार-फुटं तथा इंच मैं । (च) 'प्राप्ति से उपाय । (छ) पुष्पिका। (ज) ग्रंथ आदि का इतिहास । (झ) ..पाठ-परम्परा तथा पाठ-विषयक उल्लेखनीय बातें । वर्तनी भेद के उदाहरणों
के साथ। (न) इस शोध की दृष्टि से इस ग्रन्थ का महत्त्व ।
ग्रन्थों का यह क्रम 'कालक्रमानुसार' भी रखा जा सकता है, पर नाम उसका 'क्रमांक ही बनायेगा । हाँ, यदि एक ही सन् या संवत में एक ही प्रति मिलती है, और पूरी सूची-भर में ऐसी ही स्थिति हो तो सन् या संवत् को भी 'संकेत माना जा सकता है : यथा, सन् 1762 वाली प्रति आदि । प्रतिलिपिकार-प्रणाली
ग्रन्थों के नाम-संकेत 'अंकों में न रखकर ग्रन्थ के प्रतिलिपिकार के नाम के पहले अक्षर के आधार पर रखे जा सकते हैं जैसे 'बीसलदेव रास' की एक प्रति का संकेत 'प' | उसके प्रतिलिपिकार 'पण्डित सीहा' के प्रथम अक्षर के आधार पर रखा गया है। स्थान संकेत प्रणाली
गन्ध की प्रतिलिपि अथवा रचना के स्थान का जाल्लेख्य सहक की पुष्पिकार में हो तो
TAITI
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1.
गप्त, माताप्रसाद (डॉ.)-पृथ्वीराज
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पाठालोचन / 233
उसके नाम के प्रथम अक्षर के आधार पर भी 'संकेत' बनाया जा सकता है। पृथ्वीराज रासो की एक प्रति 'मो० ' संकेत इसलिए दिया गया है कि उसकी पुष्पिका में स्थान का उल्लेल है कि सं० 1697 वर्ष पोष सुदि अष्टमी तिथो गुरुवासरे मोहनपूरे ।
पाठ-साम्य के समूह की प्रणाली
समस्त प्रतियों का वर्गीकरण पाठ-साम्य के आधार पर किया जा सकता है । इस वर्गीकरण का नाम भी उक्त प्रणालियों से दिया जा सकता है, फिर ग्रन्थांक भी । जैसे 'पद्मावत' के सभी प्राधार ग्रन्थों को पाँच पाठ- साम्य-समूहों में बाँट दिया गया और नाम रखा- 'प्र०' प्रथम समूह का, 'द्वि' द्वितीय समूह का, 'पंचम' पाँचवें समूह को । अब प्रथम समूह में दो ग्रन्थ हैं तो उनके संकेत होंगे 'प्र० 1' तथा 'प्र० 2' । पत्र संख्या प्रणाली
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जब ग्रन्थ से और कोई सूचना नहीं मिलती जिसके आधार पर संकेत निर्धारित किया जा सकें तो पत्रों की संख्या को ही आधार बनाया जा सकता है ।
एक प्रति आठ पत्रों में ही पूरी हुई है, केबल इसी आधार पर इसे '०' कहा गया है ।
अन्य प्रणाली
(क) डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने एक अन्य प्रणाली का उपयोग किया है जिसे उन्होंने इस प्रकार स्पष्ट किया है
" इस प्रति की पुष्पिका भी स्पष्टतः अपर्याप्त थी । किन्तु इसको देखने पर ज्ञात हुआ कि इसके कुछ पत्रे एक प्रति के थे और शेष पत्रे दूसरी प्रति के थे दोनों प्रतियाँ खंडित थीं और उन्हें मिलाकर एक पुस्तक पूरी कर दी गई थी- यही कारण है कि 19वीं संख्या के इसमें दो पत्र हैं । इसी पुनरुद्धार के आधार पर इस प्रति का संकेत 'पु० ' रख लिया गया है । 1
1.
(ख) मूल पुष्पिका नष्ट हो गयी, पर ग्रन्थ-स्वामी ने किसी अन्य ग्रन्थ से वह पुष्पिका लिखकर जोड़ दी, तो स्वामी के नाम से ही ग्रंथ का संकेत दे दिया है ।
(ग) ऊपर की प्रणालियों का बिना अनुगमन किये अनुसंधानकर्त्ता स्वयं अपनी कल्पना से या योजना से कोई भी संकेत ग्रन्थ को दे सकता है ।
पाठ- प्रतियाँ
ग्रन्थों के 'संकेत-नाम' निर्धारित हो जाने पर उनमें से प्रत्येक के एक-एक क्रमशः एक-एक कागज पर लिख लिया जाना चाहिये । प्रत्येक छन्द की प्रत्येक भी क्रमांक दे देना चाहिये, तथा छन्द का भी क्रमांक ( वह अंक जो उसके लिए दिया हो) देना चाहिये । यथा
101
पंडियउ पहुतउ सातमई मास (1)
देव कह थान करी अरदास (2) तपीय सन्यासीय तप करह (3)
गुप्त, माताप्रसाद ( डॉ० ) - बीसलदेव रास, पृ० 5
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छन्द को
पंक्ति को ग्रन्थ में
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234/पाण्डुलिपि-विज्ञान
प्रत्येक पत्र इतना बड़ा होना चाहिये कि पूरा छंद लिखने के बाद उसमें आवश्यक टिप्पणियाँ देने के लिए स्थान रहे।
इन प्रतिलेखों को सावधानी से उम ग्रन्थ-मूल से फिर मिला लेना चाहिए । पाठ-तुलना
इसके उपरांत प्रत्येक छंद की समस्त प्रतियों के रूपों से तुलना की जानी चाहिए। इसमें ये बातें देखनी होंगी।
(क) इस छंद के चरण सभी प्रतियों में एक से हैं अर्थात् यदि एक में पूरा छंद चार में चरणों है तो शेष सभी में भी वह चार चरण वाला ही है।
अथवा एक चरण में संख्या कुछ, दूसरे में कुछ आदि । (ख) यदि किसी-किसी प्रति में कम चरण हैं तो किस प्रति में कौनसा चरण
नहीं है। (ग) यदि किसी में अधिक चरण है तो कौनसा चरण अधिक है। (घ) फिर क्रमश: प्रत्येक चरण की तुलना
क्या चरण के सभी शब्द प्रत्येक प्रति में समान हैं अथवा शब्दों में क्रमभेद है ? किस प्रति में किस चरण में कहाँ-कहाँ वर्तनी-भेद है ?
किस-किस प्रति में इस चरण में कहाँ-कहाँ अलग-अलग शब्द हैं ? जैसे बीसलदेव की एक प्रति में 102 छंद का 637 चरण है-"ऊँचा तो धरि-धार वार" । यह चरण एक अन्य प्रति में है--
___'धरि धरि तोरण मंगल ध्यारि'। इसी प्रकार चरण प्रति चरण, शब्द प्रति शब्द तुलना करके प्रत्येक शब्द के पाठों के अन्तरों की सूची प्रस्तुत करनी चाहिए । प्रत्येक परिवर्तित चरण की सूची, प्रत्येक लोप की सूची, प्रत्येक अधिक चरण (आगम) की सूची बनायी जानी चाहिए।
साथ ही प्रत्येक प्रति चरण की छन्द-शास्त्रीय संगति भी देखी जानी चाहिए।
इसके अनन्तर उक्त आधारों पर तीन 'सम्बन्धों' की दृष्टि से तुलना करनी होगी-- प्रतिलिपि सम्बन्ध से, प्रक्षेप सम्बन्ध से, पाठान्तर सम्बन्ध से ।
प्रामाणिक पाठ के निर्धारण में प्रतियों के प्रतिलिपि सम्बन्ध की महत्ता स्वयं सिद्ध है, क्योंकि इसीसे हमें उन सीढ़ियों का पता लग सकता है जिनके आधार पर मूल प्रामाणिक पाठ का अनुसन्धान किया जा सकता है। प्रतिलिपि सम्बन्धों की तुलना से ही हमें विदित होता है कि किस प्रति की पूर्वज कौनसी प्रति है। इस प्रकार ममस्त प्रतिलिपित ग्रन्थों का एक वंश-वृक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है। वंश-वृक्ष बनाने के लिए समस्त प्रतियों के पाठों का गहन अध्ययन अपेक्षित होता है तभी हम उन प्रतियों के पूर्वजों की कल्पना भी कर सकते हैं जो हमें शोध में प्राप्त हुई हैं। ऐसे कल्पित पूर्वज को वंश-वृक्ष में (X) गुणन के चिह्न से बताया जा है। इससे प्रतियों के परस्पर सम्बन्ध ही नहीं विदित होते वरन् प्रामाणिकता की दृष्टि से महत्त्व भी स्पष्ट हो जाता है । इसी प्रकार प्रक्षेपों की तुलना की जा सकती है। इनके भी परस्पर सम्बन्धों का वंश-वृक्ष दिया जा सकता है।
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पाठालोचन/235
पाठान्तर सम्बन्ध की तुलना सभी ग्रन्थों में नहीं हो सकती, क्योंकि कुछ ग्रन्थ तो ऐसे मिलते हैं जिनमें लिपिकार हाशिये में किसी शब्द का पाठान्तर लिख देता है । पद्मावत की प्रतियों में ऐसे पाठान्तर मिले थे। पर अन्य बहुत-से ग्रन्थों में पाठान्तर नहीं लिखे होते । यदि प्रतिलिपियों में पाठान्तर मिलते हैं तो उनकी तुलना से भी मूल पाठ के अनुसंधान में , सहायता ली जा सकती है।
इन तीन सम्बन्धों के द्वारा तुलनापूर्वक जब सबसे अधिक प्रामाणिक पाठ वाली प्रति निर्धारित कर ली जाय तो उसके पाठ को आधार मान सकते हैं, या मूल पाठ मान मकते हैं, किन्तु उसे अभी प्रामाणिक पाठ नहीं कह सकते ।
प्रामाणिक पाठ पाने के लिए यह आवश्यक है कि उक्त पाठ-सम्बन्धों को विवेचना करके पाठसम्पादन के सिद्धान्त निर्धारित कर लिये जायें। इसमें हमें यह देखना होगा कि जिन प्रतियों के पाठ मिश्रण से बने हैं वे प्रामाणिक पाठ नहीं दे सकते, जिन प्रतियों की परम्परा पर दूसरों का प्रभाव कम से कम पड़ा है, वे ही प्रामाणिक मानी जानी चाहिये।
प्रामाणिकता के लिए विविध पाठान्तरों की तुलना अपेक्षित है। तुलनापूर्वक विवेचना करके 'शब्द' और 'चरण' के रूप को निर्धारित करना होगा।
इसमें यह देखना होगा कि यदि कम विकृत पाठ किसी प्राचीन पीढ़ी का है तो वह अतिविकृत बाद की पीढ़ी से अधिक प्रामाणिक होगा ।
इसके साथ ही यह स्पष्ट है कि यदि कोई एक पाठ कुछ स्वतन्त्र पाठ-परम्पराओं में समान मिलता है तो वह निस्संदेह प्रामाणिक होगा। इसी प्रकार अन्य स्वतन्त्र परम्पराओं या कम प्रमाणित परम्पराओं के पाठों का सापेक्षिक महत्त्व स्थापित किया जा सकता है।
क्योंकि कुछ अंश तो ऐसा हो सकता है जो सभी स्वतन्त्र और कम प्रभावित परम्पराओं में समान मिले, कुछ ऐसा अंश होगा जो सब में समान रूप से प्राप्त नहीं, तब तुलना से जिनको दूसरी कोटि का प्रमाण माना है उन पर निर्भर करना होगा। हमें दूसरी कोटि के पाठ को पूर्णतः प्रामाणिक बनाने के लिए "शेष समस्त बाह्य और अन्तरंग सम्भावनाओं के साक्ष्य से ही पाउ-निर्णय करना चाहिए।"
इसे डॉ० माताप्रसाद गुप्ता के 'बीसलदेव रास' की भूमिका में दी गयी प्रक्रिया के एक अंश के उद्धरण से समझाया जा सकता है। डॉ० गुप्त ने विविध प्रतिलिपि-सम्बन्धों का भली प्रकार विवेचन करके उन प्रतियों के पाठ-सम्बन्धों को एक 'वंश-वृक्ष' से प्रस्तुत किया है जो आगे के पृष्ठ पर दिखाया गया है।
___ इस वृक्ष से स्पष्ट प्रतीत होता है कि एक मूल ग्रन्थ से प्रतियों की तीन स्वतन्त्र परम्पराएँ चलीं। इसमें पं० समूह की प्रतियाँ बहुत पहली पीढ़ी की हैं, तीसरी-चौथी पीढ़ी की ही हैं और इस पर 'म' के किसी पूर्वज का, सम्भवतः पाँचवी पीढ़ी पूर्व की प्रति का प्रभाव 'पं' समूह के पूर्व की दूसरी पीढ़ी के पूर्व की प्रति पर पड़ा है, और कोई नहीं पड़ा है । 'म' समूह पर 'स' समूह की दूसरी-तीसरी पीढ़ी पूर्व के प्रभाव पड़े हैं, अन्यथा वह दूसरी स्वतन्त्र धारा है । 'स' तीसरी स्वतन्त्र धारा है । अतः निष्कर्ष निकाले गये कि--
1. गुप्त, माताप्रसाद (०) तथा नाहटा, अगर गंद-बीसलदेव रास, (भभिका), पृ०47 ।
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236/पाण्डुलिपि-विज्ञान
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उक्त चित्र में x गुगा का चिह्न यह बताता है कि यह प्रति प्राप्त नहीं हुई है किन्तु उपलब्ध प्रतियों के माध्यम से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ऐसी प्रति होनी चाहिए।
- तीर का यह चिह्न यह बताता है कि तीर शीर्ष जिस प्रति की ओर है उस पर उस प्रति का प्रभाव है, जिससे तीर प्रारम्भ होता है।
(1) पं० समूह का पाठ 'स' समूह का अथवा उसके किसी पूर्वज का ऋणी नहीं है। इसलिए इन दोनों समूहों का जिनमें पं० प्रा० चा० की० पु० तथा 'या' प्रतियाँ आती हैं, पाठ-साम्य मात्र पाठ की प्रामाणिकता के लिए साधारणतः प्रामाणिक माना जाना चाहिये ।
___ (2) जिन विषयों में म०प० तथा स० तीनों समूहों में पाठ-साम्य हैं, उनकी प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध मानी जानी चाहिये ।
(3) जिन विषयों में म० तथा प० समूह एकमत हों और स० भिन्न हो, अथवा म. तथा स० समूह एकमत हों, और प० समूह भिन्न हो, उन विषयों में शेष समस्त बाह्य और अन्तरंग सम्भावनाओं के साम्य से ही पाठ-निर्णय करना चाहिये । बाह्य और अन्तरंग सम्भावनाएँ
पाठ की प्रामाणिकता की कसौटी बाह्य और अन्तरंग सम्भावनाएँ हैं । संदिग्ध स्थलों के शब्दों या चरणों की प्रामाणिकता के लिए अन्तरंग साक्ष्य तो मिलता है वैसे ही शब्द अथवा चरणों की ग्रन्थ के अन्दर ग्रावृत्ति के द्वारा अन्यत्र कहाँ', किस-किस स्थान
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पाठालोचन/237
और रूप में प्रयोग मिलता है। इस प्रयोग की प्रावृत्ति की सांख्यिकी (Statistics) प्रामाणिकता को पुष्ट करती है ।
__ 'अर्थ' की समीचीनता की उद्भावना भी प्रामाणिकता को पुष्ट करती है । इसे हम डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के कुछ उद्धरणों से स्पष्ट करेंगे। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जी ने पद्मावत की टीका की भूमिका में प्रचुर तुलनात्मक विवेचना से यह सिद्ध किया है कि डॉ० माताप्रसाद गुप्त का वैज्ञानिक विधि से संशोधित पाठ शुक्ल जी के पाठ से समीचीन है। उसमें एक स्थान पर एक उदाहरण यों दिया हुआ है--
(34) शुक्लजी--जीभा खोलि राग सौं मढ़े । लेजिम घालि एराकलि चढ़े ।
शिरेफ ने कुछ संदेह के साथ पहली अर्द्धाली का अर्थ किया है ---- तोपों ने कुछ संगति के साथ अपना मुंह खोला । वस्तुतः यह जायसी की प्रतिक्लिष्ट पंक्ति थी जिमका मूल पाठ इस प्रकार था
गुप्तजी-जेबा खोलि राग सौं मढ़े ।
इसमें जेबा, खोल, राग तीनों पारिभाषिक शब्द हैं। शाह की सेना के सरदारों के लिए कहा गया है कि वे जिरहबख्तर (जेबा), झिलमिल टोप (खोल) और टाँगों के कवच (राग) से ढके थे। 512/4 में भी 'राग' मूलपाठ को बदलकर 'सजे' कर दिया गया ।
इसमें 'जेवा', 'खोलि', 'राग' ये पारिभाषिक शब्द हैं । अतः इस विषय के बाह्य प्रमाण से इसकी पुष्टि होती है, और 'शक्ल' जी के पाठ की अपेक्षा इस वैज्ञानिक-विधि मे प्राप्त पाठ की समीचीनता सिद्ध होती है।
पाठानुसंधान में भ्रम से अथवा संशोधन-शास्त्र के नियमों के पालन में असावधानी से अभीष्ट पाठ और अर्थ नहीं मिल सकता। इसे समझाने के लिए डॉ० अग्रवाल ने अपनी ही एक भ्रान्ति का उल्लेख यों किया है :
"इस प्रकार की एक भ्रान्ति का मैं सविशेष उल्लेख करना चाहता हूँ क्योंकि वह इस बात का अच्छा नमूना है कि कवि के मूल पाठ के निश्चय करने में संशोधन शास्त्र के नियमां के पालन की कितनी आवश्यकता है और उसकी थोड़ी अवहेलना से भी कवि के अभीष्ट अर्थ को हम किस तरह खो बैठते हैं। 152/4 का शुक्लजी का पाठ इस प्रकार
सांस डांडि मन मथनी गाढ़ी । हिये चोट बिनु फूट न साढ़ी ।।
माताप्रसाद जी को डांडि के स्थान पर वेध, वोठ, वैठ, वोइठा, दुध, दहि, दधि, दंवाल, डीढ इतने पाठान्तर मिले । सम्भव है और प्रतियों में अभी और भी भिन्न पाठ मिलें । मनेर शरीफ की प्रति में प्रोट पाठ है। गुप्त जी को इनमें से किसी पाठ से सन्तोष नहीं हा । अतएव उन्होंने अर्थ की आवश्यकता के अनुसार अपने मन से 'दहेंडि' इस पाठ का सुझाव दिया, पर उसके आगे प्रश्न चिह्न लगा दिया--स्वांस दहेंडि (?) मन मंथनी गाढ़ी । हिये चोट बिनु फूट न साढ़ी । मैंने इस प्रश्न चिह्न पर उचित ध्यान न ठहरा कर सांस दही की हांडी है, मन दृढ़ मथानी है, ऐसा अर्थ कर डाला। प्रसंगवश श्री अम्बाप्रसाद सुमन के साथ इस पंक्ति पर पुनः विचार करते हुए इसके प्रत्येक पाठान्तर को जब मैं देखने लगा तो 'दवाल' शब्द पर ध्यान गया । 'श्री सुमन' जी ने सुनते ही कहा कि
1. अग्रवाल, वासुदेव शरण (डॉ.)-पद्मावत (प्राक्कथन), पृ. 19 ।
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238, पाण्डुलिपि-विज्ञान
अलीगढ़ की बोली में द्वाली चमड़े की डोरी या तस्में को कहते हैं। काश देखने से ज्ञात हुया कि फारसी में दवाल या दुवाल रकाब के तस्में को कहते हैं (स्टाइनगास फारसी कोश पृ. 539)। क्रुक ने दुप्रालि, दुमाल का अर्थ चमडे की बग्घी, हल आदि बाँधने का तस्मा किया है (ए रूरल एण्ड एग्रीकल्चरल ग्लासरी, पृ० 91)। जियाउदीन बरनी ने तारीखे फिरोजशाही में अलाउद्दीनकालीन वस्त्रों के विवरण में बुरदा नामक वस्त्र को 'दवाले लाल' अर्थात लाल डोरियों का धारीधार कपड़ा लिखा है (सैयद अतहर अब्बास रिजवी, खिलजी कालीन भारत, पृ. 82, तारीखे फिरोजशाही का हिन्दी अनुवाद)। इन अर्थों पर विज्ञार करने से मुझे निश्चय हो गया कि प्रस्तुत प्रसंग में डोरी का वाचक दुअाल शब्द नितांत क्लिष्ट पाठ था, और वही कविकृत मूल पाठ था । पद्मावत की एक ही हस्तलिखित प्रति में अभी तक यह शुद्ध पाठ प्राप्त हुआ है (गोपालचन्द जी को फारसी लिपि की प्रति जो बहुत सुलिखित है-यही गुप्त जी की 'च.' । प्रति है)। सम्भव है भविष्ठा में किसी और अच्छी प्रति में भी यह पाठ मिल जावे । रामपुर की प्रति का पाठ इस समय विदित नहीं है। इस प्रकार इस पंक्ति का कविकृत पाठ यह हुा--
___ सांस दुआलि मन मथनी गाढ़ी। हिए चोट बिनु फूट न साढ़ी ।।
सांस दुग्राली मा डोरी है। शूनलजी ने 'डांडि' पाठान्तर को प्रसंगवश डोरी अर्थ में ही लिया है पर डांडि पाठ किसी प्रति में नहीं मिला। मूल पाठ दुप्रालि होने में सन्देह नहीं । सांस का ठीक उपमान डोरी ही हो सकती है दहेंडि नहीं ।
___इसमें डॉ. अग्रवाल ने एक 'बाह्य' सम्भावना से 'दुआलि' पाठ को प्रामाणिक सिद्ध किया है। डॉ० गुप्त ने ग्रन्थों में प्राप्त किसी पाठान्तर को ठीक नहीं माना, और 'दहेंडि' की कल्पना 'अर्थ-न्यास' के आधार पर की। यह प्रयत्न पाठालोचन के सिद्धान्त के अधिक अनुकूल नहीं।
पाठ की प्रामाणिकता की दृष्टि से 'शब्दों' को तत्कालीन 'रूप' और 'अर्थों' से भी पुष्ट करने की आवश्यकता है। जैसे 'पद्मावत' के अनेक शब्दों के अर्थ 'आईने अकबरी' के द्वारा पुष्ट होते हैं । इसी प्रकार से अन्य समकालीन कवियों की शब्दावली अथवा तत्कालीन नाममालाओं से 'शब्दों' की पुष्टि की जा सकती है।
पाठ-सिद्धान्त निर्धारित हो जाने के बाद, जिसका पूर्ण विवेचन ऊपर लिखे ढंग से प्रारम्भ में किया जाना चाहिये, एक पृष्ठ पर एक छन्द रहना चाहिये और उसके नीचे जितने भी पाठान्तर मिलते हैं वे सभी दे दिये जाने चाहिये । पाठान्तर किस-किस प्रति के क्या-क्या हैं, इसका भी संकेत रहना चाहिये। डॉ० भाताप्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित 'पृथ्वीराज रासउ' से एक उदाहरण लेकर इस बात को भी स्पष्ट किया जा सकता है । साटिका--'छन्त या मद गंध घ्राण* लुब्धा आलि भूरि पाच्छादिता । (1)
गुंजाहार अधार सार गुन या2 रुजा पया भासिता । (2) अग्रे या स्रति कुंडला करि नवं तुंडीर*X उद्धारया x 1 (3)
सोंयं पातु गणेस सेस सफलं प्रिथिराज काव्ये हितं । (4) पाठान्तर ----
x चिह्नित शब्द धा. में नहीं है। * चिह्नित शब्द ना. में नहीं है।
1. अग्रवाल, वासुदेव शरण (डॉ.)-गद्मावत (प्राक्कथन), पृ० 26 ।
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पाठालोचन 239
(1) 1. मो. में यहाँ 'पुन' है, जो अन्य किसी प्रति में नहीं है । 2. धा. या, नो. जां. शेष में 'जा'। 3. मो. रागुरु वांश, धा. गंधरसिका, स. राग रुचयं म. प्र. प्रागा (घ्रान-म.) लुब्धा, ना-लुब्धा । 4. मो. भार, ना. अ. भोर स. भूर. म. भौंर । 5. म. पाच्छादितं ।
(2) 1. मो. आधार, स. आधार, ना. म. अ. बिहार (तुल० अगले छन्द का चरग ।) 2. मो. गुनीजा, धा. गुनीजा, म. गुनया, ना. अ. गुगजा। 3. मो. झंच. पया. धा. रंजा पिया, अ. रुजा पया, ना. रंजा पया झंझा पया ।
(3) 1. धा. म. या, शेष में 'जा' । 2. मो. सुत कुंडलं । 3. मो. नवं धा. नव, ना. गाव, अ. फ. करा, म. करि, स. कर । 4. मो. धुंडीर, अ. तुद्धीर, म. जुदीर, ना. धुंदीर । 5. मा. उदारवं ।
(4) 1. मो. स. सेस सालं (शेष सफलं--भो.) धा. सतत फलं, अं. ना. सेवित फलं । 2. मो. काहितं, मं स, काव्यं कृतं ।।
इसमें ऊपर प्रामाणिक पाठ दिया हुआ है । नीचे 'पाठान्तर' शीर्षक से मूल प्रामाणिक पाठ के शब्दों से भिन्न शब्द रूपों का उल्लेख किया गया है, और साथ में प्रति संकेत दिया गया है 'धा' 'ना' 'यो' 'स' 'व', 'अ' 'फ'-ये अक्षर प्रतियों के संकेताक्षर हैं।
प्रामाणिक पाठ निर्धारित करने में बहुत-सी सामग्री 'प्रक्षेप' के रूप में अलग निकल जाएगी। उस सामग्री को ग्रन्थ में 'परिशिष्ट' रूप में, उसके पाठ को भी यथासम्भव प्रामाणिक बनाकर दे देना चाहिये । इस प्रकार इस समस्त सामग्री को सजा देने में सिद्धान्त यह है कि 'पाठालोचन' की वैज्ञानिक कसौटी में यदि कोई त्रुटि रह गयी हो तो विद्वान पाठक अपनी कसौटी से समस्त सामग्री की स्वयं जाँच कर सके। अनुसंधानकर्ता का और कोई आग्रह नहीं होता, अतएव भूलचूक के लिए वह स्वयं समस्त सामग्री और समस्त प्रक्रिया को विज्ञ पाठक के समक्ष रख देता है।
पाठानुसंधान की वैज्ञानिक प्रक्रिया के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह होता है कि 'अर्थ-न्यास' का पाठालोचन में क्या महत्त्व है ?
यों तो यह सत्य है कि किसी भी कृति का पाठ उसका अर्थ प्राप्त करने के लिए ही किया जाता है । विकृत पाठ से अपेक्षित अर्थ नहीं पाया जा सकता, ऐसे अर्थ को प्रामाणिक भी नहीं माना जा सकता। पाठालोचन का महत्व ही इसी अर्थ के लिए है पर यथार्थ यह है कि पाठालोचन प्रक्रिया में 'अर्थ' का विशेष महत्त्व नहीं हो सकता। वह सहायक अवश्य है। 'शब्द' के अर्थ का ज्ञान अध्ययन परिमाण-सापेक्ष्य है । यदि 'क' का ज्ञान बहुत सीमित है तो कभी-कभी वह एक क्षेत्र के बहुप्रचलित शब्द का अर्थ भी नहीं जानेगा और अर्थ को दृष्टि में रखेगा तो अपने सीमित ज्ञान से त्रुटिपूर्ण संशोधन कर देगा । जैसे यदि कोई ब्रज में प्रचलित 'हटरी' से परिचित नहीं है तो वह सूरसागर में इस शब्द को 'हट री' (हटरी) कर सकता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में 'हटरी' कोई शब्द ही नहीं । पाठालोचनकार भी शब्दों के समस्त अर्थों से परिचित होगा, विशेषतः कृतिकालीन अर्थ से यह सम्भव नहीं। अतः पाठ विज्ञान से जो रूप निर्धारित हो उसे ही रखना चाहिये, क्योंकि कोई ऐसा शब्द हो सकता
1. मुप्त, माताप्रसाद (डॉ.)-पृथ्वीराज रास3, पृ. 31
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240/पाण्डलिपि-विज्ञान
है, जिसका अर्थ अागे ज्ञान-वर्द्धन के साथ प्राप्त हो । जैसे सांस दुग्रालि के उदाहरण से सिद्ध है।
___ एक प्रश्न यह उठता है कि यदि किसी ग्रन्थ की अन्य प्रतियाँ न मिलती हों, केवल एक ही प्रति उपलब्ध हो, और वह लेखक के हाथ की प्रति न हो तो क्या उसका भी सम्पादन हो सकता है ? सामान्य पाठालोचक कहेगा कि नहीं हो सकता।
किन्तु मैं समझता हूँ कि उसका भी सम्पादन या पाठालोचन हो सकता है। ऐसे ग्रन्थ के सम्पादन के लिए यह आवश्यक है कि आन्तरिक बाह्य साक्ष्य से यह जाना जाय कि ग्रन्थ का रचना-काल क्या था, ग्रन्थ कहाँ लिखा गया ? क्या एक ही स्थान पर लिखा गया ? या, कवि घूमता-फिरता रहा, अतः ग्रन्थ का कुछ अंश कहीं लिखा गया, कुछ कहीं फलतः कागज बदला, स्याही बदली । जिस स्थान पर कवि रहता था, वहाँ का वातावरण कैसा था ? किस प्रकार की भाषा उस क्षेत्र में बोली जाती थी। ऐसे कवि कौनसे हैं जिनसे उसके रचयिता का परिचय था। उसके क्षेत्र में और काल में कौनसे ग्रन्थ लिखे गये और उनकी भाषा तथा शब्दावली कैसी थी? आदि बातों का सम्यक् पता लगाये । ये बाह्य साक्ष्य इस पाठालोचन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
किन्तु ऐसे पाठालोचन के लिए बाहा साक्ष्य से अधिक महत्त्वपूर्ण है अन्तरंग का ज्ञान कुछ ऐसी ही प्रक्रियाओं से पाठ के उद्घाटन में काम लेना होता है। जिनका उपयोग इतिहास-पूरातत्वान्वेषी शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों के पाठ के उद्घाटन के लिए करते हैं
___ इसमें 'अर्थ-न्यास' को अवश्य महत्त्व देना होगा क्योंकि उसी का अनुमान सम्पूर्ण ग्रन्थ के अध्ययन के उपरान्त लगाया जा सकता है। सम्पूर्ण ग्रन्थ का सम्यक अध्ययन करने से शब्दावली और वाक्य-पद्धति का भी संशोधक को इतना परिचय हो जाता है कि वह संदिग्ध अथवा त्रुटित स्थलों की पूर्ति प्रायः उपयुक्त शब्द या वाक्य से कर सकता है। ऐसे अनुमान को सदा कोष्ठकों ( ) में बन्द करके रखना चाहिये । इन कोष्ठकों से यह पता चल सकेगा कि ये स्थल सम्पादक के सुझाव हैं।
ऐसे पाठ निर्धारण में सांख्यिकी (Statistics) का भी उपयोग हो सकता है । शब्दों के कई रूप मिलते हों उनमें कौनसा रूप लेखक का अपना प्रामाणिक हो सकता है इसकी कसोटी सांख्यिकी द्वारा प्रावृत्ति निर्धारित करके की जा सकती है। सांख्यिकी से से शादों के विविध रूपों की आवृत्तियाँ (Frequencies) देखी जा सकती हैं।
जिस ग्रन्थ का सम्पादन किया जा रहा है, उसकी भाषा का व्याकरण भी बना लेना चाहिये। इसके द्वारा वाक्य रचना के प्रामाणिक आदर्श स्वरूप की परिकल्पना हो सकती है । यदि इसके रचयिता की कोई अन्य कृति मिलती हो तो उससे तुलनापूर्वक इस ग्रन्थ के पाठ के कितने ही संदिग्ध स्थलों को प्रामाणिक बनाया जा सकता है ।
ऐसे ग्रन्थों में शब्दानुक्रमणिका देना उपयोगी रहता है ।
पाठानुसंधान (Textual Creticism) भाषा-विज्ञान (Linguistics) का महत्त्वपूर्ण अंग है। अतः इसके सिद्धान्त वैज्ञानिक हो गये हैं। ऊपर उसी वैज्ञानिक पद्धति पर कुछ प्रकाश डाला गया है।
इस वैज्ञानिक पद्धति के प्रचलन से पूर्व हमें पाठ-सम्पादन के कई प्रकार मिलते हैं ।
एक पद्धति तो सामान्य पद्धति थी-किसी ग्रन्थ को एक प्रति मिली, उसके ही आधार पर 'प्रेस-कापी' तैयार कर दी गई। हस्तलिखित ग्रन्थों में शब्द-शब्द में अन्तर नहीं
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पाठालोचन/241
किया जाता था । एक शीर्ष-रेखा से शब्द-शब्द को जोड़कर लिखा जाता था. यथा- ..
प्रागेचलेबहुरिरघुराई
ऋष्यमूकपर्वतनिय राई इस पद्धति का सम्पादक जो अधिक से अधिक कर सकता है वह यह है कि अपनी बुद्धि का उपयोग करके चरण-बन्ध को तोड़कर 'शब्द-बन्ध' से पांडुलिपि प्रस्तुत कर दे । यह शब्द 'बन्ध' वह अपने शब्दार्थ ज्ञान के आधार पर ही करता था। स्पष्ट है कि ऐसे सम्पादन का कोई वैज्ञानिक महत्त्व नहीं । पर किसी अच्छी प्रति का ऐसा पाठ भी प्रकाशित हो जाय तो यह महत्त्व तो उसका है ही कि एक अच्छा ग्रन्थ प्रकाश में पाया।
दूसरी पद्धति को पाठान्तर पद्धति कह सकते हैं। पाठ संशोधक एकाधिक ग्रन्थ एकत्र कर लेता है। उन ग्रन्थों में से सरसरे अध्ययन के उपरान्त जो अर्थ आदि की कसौटी पर ठीक प्रतीत हुआ, उसे मूल पाठ मान लिया और नीचे पाद टिप्पणियों में अन्य ग्रन्थों से पाठान्तर दे दिये । वैज्ञानिक पाठालोचन पाठान्तर देने का भी क्रम रहता, इस पद्धति में वैसा नहीं होता।
तीसरी पद्धति को भाषा-अादर्श पद्धति कह सकते हैं । इस पद्धति में जिस ग्रन्थ का सम्पादन करना है उसकी वर्तनी के रूपों का निर्धारण और व्याकरण विषयक नियमों का निर्धारण उस ग्रन्थ का अध्ययन करके और उस कृति की और उस काल की अन्य रचनाओं से तुलनापूर्वक कर लिया जाता है । इस प्रकार उस ग्रन्थ की भाषा का आदर्श रूप खड़ा कर लिया जाता है और उसी के आधार पर पाठ का संशोधन प्रस्तुत कर दिया जाता है ।
इन पद्धतियों का वैज्ञानिक पद्धति के समक्ष क्या मूल्य हो सकता है. सहज ही समझा जा सकता है। पाठ-निर्माण
पाठ का पुनर्निर्माण, वह भी प्रामाणिक निर्माण, भी पाठालोचन का ही एक पक्ष है। एजरटन महोदय ने पन्चतन्त्र के पाठ का पुनर्निर्माण किया था। पाठ-निर्माण में उनका कार्य श्रादर्श कार्य माना गया है।
एजरटन महोदय ने 'पंचतंत्र पुनर्निर्मिति' नामक ग्रन्थ में विविध क्षेत्रों से प्राप्त पंचतंत्र के विविध रूपों को लेकर उनमें पाये जाने वाले अन्तरों और भेदों को दृष्टि में रख कर उसके 'मूलरूप' का निर्माण करने का प्रयत्न किया। पंचतंत्र के विविध रूपान्तरों में कहानियों में पागम, लोप और विषयक मिलते हैं। प्रथम, प्रश्न यही उपस्थित होता है कि तब पंचतंत्र का मूलरूप क्या रहा होगा और उसमें कौन-कौनसी कहानियाँ थीं और वे किस क्रम में रही होंगी। यह माना जाता है कि विश्व में लोकप्रियता की दृष्टि से बाइबिल के बाद पंचतंत्र का स्थान है। इसी कारण पंचतंत्र के कितने ही संस्करण मिलते हैं। उनमें अन्तर है-अतः पंचतंत्र के मूलरूप का निर्माण करने की समस्या भी 'पाठालोचन' के अन्दर ही आती है।
इसके लिए एजरटन महोदय ने वंशवृक्ष बनाया । वह इस प्रकार है : वंशवृक्ष,
प्राचीनतर पंचतंत्र के संस्करणों के आन्तरिक सम्बन्ध दिखाने के लिए।
1. Edgerton, Franklin-The Panchatantra Reconstructed, Vol. II, p. 48.
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242 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
*Ur-Pañcatantra
1
* Ur-Pa
• Ur-SP 1
1 *Ur-T
*Northwestern Brhatkatha
!
• Pahlata
८
4Ur-N
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* Ur-Spl
Arabic
PIO
Southern Pañcatantra
Simplicior
Syriac
Somadeva
Tantrakhyayıka
Hitopadesa
Nepalese Pañcatantra
Kşemendra
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Pornabhadra
Indicates hypothetical versions. Italics indicate translations into other languages than Sanskrit
एजरटन महोदय ने 'पंचतंत्र' के पुननिर्माण में जिस प्रक्रिया का पालन किया है, उसकी चर्चा उन्होंने खण्ड 2 के तृतीय अध्याय में की है ।
उनकी एक स्थापना यह है कि मूल (पंचतंत्र ) के सम्बन्ध में उस समय तक कुछ
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पाठालोचन/243
भी नहीं कहा जा सकता जब तक कि यह निर्धारित न हो जाय कि कौनसे संस्करण द्वितीय स्थानीय रूप में परस्पर अन्तरतः सम्बन्धित हैं।
दो संस्करणों में द्वितीय स्थानीय आन्तरिक सम्बन्ध (Secondary interrelationship) से यह अभिप्राय है कि मूल पंचतन्त्र से वाद के और उससे तुलना में द्वितीय स्थानीय (Secondary) प्रति की सर्वमान्य (Common) मूलाधार (Archetype) ग्रंथ की प्रति से पूर्णतः या अशतः उनकी उद्भावना (Descent) या अवतीर्णता की स्थिति इस उभावना या अवतीर्णता को सिद्ध करने के तीन ही मार्ग हैं :
एक----यह प्रमाण (सबूत) कि उन संस्करणों में ऐसी सामग्री और बाते प्रचुर मात्रा में हैं, जो मूल ग्रन्थ में हो सकती हैं । दो या अधिक संस्करणों में वह महत्त्वपूर्ण सामग्री और वे विशिष्ट बातें ऐसे रूप में और इतनी मात्रा में मिलती हैं कि यह सम्भावना की आ सकती है कि यह सामग्री मूल से ही अवतीर्ण की गयी है, और उन सभी संस्करणों में वे ऐसे स्थानों पर नियोजित हैं, जिन पर स्वतन्त्र रूप से तैयार किया गया है, और वह किसी अन्य ग्रन्थ से अवतीर्ण नहीं हुअा है तो यह कैसे माना जा सकता है कि उनमें दी गई कहानियाँ एक ही क्रम में और एक जैसे स्थलों पर ही नियोजित होंगी, ऐसा हो नहीं सकता । अतः यदि कुछ प्रतियों या संस्करणों में कहानियों का समावेश एक जैसे क्रम और स्थलों पर मिले तो यह मानना ही पड़ेगा कि उनका सम्बन्ध किसी मूल स्रोत ने है ।
दूसरे-यह प्रमाण कि कितने ही संस्करणों या प्रतियों या रूपों में परस्पर बहुत छोटी-छोटी महत्त्वपूर्ण बातों में साम्य नियमितता भाषागत रूप-विधान में मिलता है। साथ ही यह साम्य भी कि साम्य प्रचुर मात्रा में है शोर ऐसा है जिसे संयोग मात्र माना जा सकता । ऐसे अवतरणों का तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित होता है।
तीसरा--प्रमाण (सबूत) कुछ दुर्बल बैठता है । वह प्रमाण यह है कि जो रूप या संस्करण हमारे समक्ष हैं वे एक वृहद् पूर्ण संस्करण के अंश हैं, और वह संस्करण सर्वसामान्य मूल का ही है।
एजरटन महोदय इन तीन कसौटियों में से पहली दो को अधिक प्रामाणिक मानते हैं, यदि इन तीनों से विविध प्रतियों का अन्तर सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता तो यह मानना होगा कि वे मूल पंचतन्त्र की स्वतन्त्र शाखाएँ हैं, जो एक-दूसरे से सम्बन्धित नहीं ।
तब उन्होंने यह प्रश्न उठाया है कि यह कैसे माना जाय कि मल में कोई 'पंचतंत्र' था भी, क्योंकि कहानियाँ लोक प्रचलित हो सकती हैं, जिन्हें संकलित करके संग्रहकर्ताओं ने यह रूप दे दिया । उन्होंने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि पंचतंत्र के जितने भी हस्तलिखित ग्रन्थ मिलते हैं उनमें (1) वे सभी कहानियाँ समान रूप से विन्यस्त हैं, जिन्हें मूल माना जा सकता है। (2) और यह महत्त्वपूर्ण है कि वे सभी संस्करणों में एक ही क्रम में हैं तथा (3) अधिकांशतः कथा (Frame Story) समान हैं। (4) गभित कथाएँ अधिकांश संस्करणों में समान-स्थलों पर ही गुंथी हुई मिलती हैं। इन चारों बातों से सिद्ध होता है कि पंचतंत्रों में कहानियों के संग्रह का यह विशिष्ट बिन्यास एक दैवयोग मात्र या संयोग-मात्र नहीं हो सकता। इस कसौटी से वे कहानियाँ अलग छैट जाती हैं जो इन विविध संस्करगों के संग्रह-कर्ताओं ने अपनी रुचि से कहीं अन्यत्र से लेकर सम्मिलित करदी हैं।
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244/पाण्डुलिपि-विज्ञान
इन समस्त कसौटियों से अधिक प्रामाणिक कसौटी है सभी मूल कहानिया की भाषा और मुहावरे का साम्य । स्पष्ट है कि तब तक इतने संस्करणों में भाषा-साम्य नहीं हो सकता, जब तक कि वे किसी एक मुल से प्रतिलिपि मूल संस्करण से प्रतिलिपि रूप में प्रस्तुत न किये गये हों।।
इन कसौटियों से यह तो सिद्ध हो जाता है कि एक मूल ग्रन्थ अवश्य था।
यह भी है कि.... (1) जो बातें सभी संस्करणों या ग्रन्थों में ममान हैं, वे मूल में होनी चाहिये।
(2) यदि कुछ बातें किन्हीं एक दो पुस्तकों में छुट भी हों तो, उनका कोई महत्त्व नहीं।
(3) कुछ अत्यन्त भूक्ष्म बातें यदि स्वतन्त्र संस्करणों की अपेक्षाकृत कम संख्या में ममान रूप से मिलती हों, तब भी उन्हें अनिवार्यतः मूल का नहीं माना जा सकता।
(4) कुछ स्वतन्त्र संस्करणों में यदि अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण बातें समान रूप से मिलती है तो यह अधिक सम्भावना है कि वे मूल से ही पायी हैं। इनके सम्बन्ध में यह धारणा समीचीन नहीं मानी जा सकती कि इनका समावेश यों ही स्वतन्त्र रूप से हो गया है, क्योंकि ये अन्य स्वतन्त्र संस्करणों में नहीं मिलती। वरन् यह मानना अधिक मंगत होगा कि ऐसी विशिष्ट महत्त्वपूर्ण बातें अन्यों में छोड़ दी गई हैं।
(5) यदि पूरी की पूरी कहानियाँ कितनी ही स्वतंत्र प्रतिया में समानरूपेण समाविष्ट मिलती हैं, और वे भी प्रायः सभी में एक ही जैसे स्थलों पर, तो वे भी मूल से पायी माननी होगी। यदि बड़ी कहानियाँ स्वतन्त्र रूप से कहीं किसी कहानी में जोड़ी गयी होंगी तो उसकी स्थिति बिल्कुल भिन्न होनी । प्रथम स्थिति में कहानी जहाँ स्वाभाविक रूप से अपने स्थान पर जुड़ी समीचीन प्रतीत होगी, वहाँ दूसरी स्थिति में वह थेगरी (Patch) जैसी लगेगी । एजरटन से ये कुछ प्रमुख बातें हमने यहाँ दी है । जो बातें पंचतंत्र के पाठ के पुननिर्माण के लिए दी गयी हैं, वे किसी भी ग्रन्थ के पुनर्निर्माण में, उस ग्रन्थ के रूप और विषय के अनुसार उचित संशोधन-पूर्वक उपयोग में लायी जा सकती हैं। पूर्व में दी गई पाठालोचन-प्रक्रिया भी ऐसे पाठालोचन में उपयोग में लानी ही पड़ेगी, क्योंकि एजरटन ने भी भाषा (Verbal) पक्ष को पूरा महत्त्व दिया है ।
पाठालोचन या पाठ की पुनर्रचना या पुनर्मािण में कुछ और पक्ष भी हैं, उन पक्षों के लिए ठोस-वैज्ञानिक-पद्धति स्थापित हो चुकी है। इनमें से कुछ का उल्लेख संक्षेप में डॉ० छोटे लाल शर्मा ने अपने निबन्ध 'हिन्दी-पाठ-शोधन विज्ञान' में संक्षेप में यों किया है :
_ "कवि विशेष की व्यक्तिगत भापा (Ideobet) को समझने-परखने के और भी तरीके हैं
(1) हर्डन की सांख्यिकीय पद्धति----हर्डन प्रयोगावृत्ति को शैली का प्रधान लक्षण स्वीकार करता है । उसका कहना है कि जब दो लेखकों में एक ही प्रकार की प्रयोगावृत्ति दीख पड़ती है तो उसकी शक्ति और क्षमता की पुष्टि की सम्भावना बढ़ जाती है। उसकी यह सहज स्वीकृति है कि भाषा में नियम और आकस्मिकता-दोनों ही तत्त्व काम करते हैं, यहाँ तक कि शब्दों के चुनाव में भी आकस्मिकता का आग्रह रहता है । यह आकस्मिकता समसामयिक लेखकों की तुलना के अनन्तर ग्रन्थ-विशेष की प्राकस्मिक प्रयोगावृत्ति से स्पष्ट होती है जो पाठ-शोध में ही नहीं रचनाओं के कालक्रमिक निर्णय एवं पाठ-प्रामाणिकता आदि में विशेष मफल एवं उपादेय सिद्ध होती है।
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पाठालोचन/245
(2) तुलनात्मक भाषा वैज्ञानिक पद्धति-उक्त पद्धति में छन्द पर विशेष विचार किया जाता है । परिणामतः भाषाओं के पारिवारिक संबंधों का निर्धारण होता है और लुप्तप्रायः भाषाओं के उच्चार का आनुमानिक पुनरुद्धार प्रयोगवादी स्वन-वैज्ञानिकों ने छंद निर्माण की व्याख्या अनुतान की अभिरचना के आधार पर की है जो उस भाषा के बोलने वाले प्रयोग में लाते हैं । छंदों का अध्ययन तीन रूपों में किया जाता है (1) लेख वैज्ञानिक, (2) संगीतात्मक, और (3) ध्वनिक । लेख-विज्ञान में ठोक-ठीक ध्वनियों एवं अनुतानों का प्रयोग संगीतात्मक रूप में होता है । संगोतात्मक-अध्ययन में छंद संगीत की लय के सदृश होता है जिसका ज्ञापन संगीत-चिह्नक के द्वारा हो सकता है । यह पद्य के प्रात्मपरकतालोकन के झुकाव को समृद्ध करता है । ध्वनिक अध्ययन स्वराघात, प्रबलता तथा संधि को विभक्त करता है और अर्थ पर कोई ध्यान नहीं देता है । यह पद्य की ध्वनि का अनुक्रम स्वीकार करता है और अर्थ तथा शब्द एवं वाक्यांश गीमा (Boundary) के लिए परेशान नहीं होता है । इस प्रकार भाषा के खण्डेतर पुनः निर्माण के अनन्तर खण्डीय पुननिर्माण सरल हो जाते हैं क्योंकि खण्डेतर ध्वनि विस्तार खण्डीय व्यनियों के प्रयोग के नियामक होते हैं । त्रुटियाँ प्रायः विपरीत दिशा से पुनर्निर्माण के कारण होती हैं।
(3) संकल्पनात्मक पद्धति-उक्त पद्धति में अभिव्यंजना की इकाइयों को पार्यतिक रूप में संक्षिप्त किया जाता है और तब तर्क-संगत प्रमेयों का सरलीकरना प्रारम्भ होता है जो कहानी के अभिप्राय-परिगणन में सहायक होते हैं, जिसके सहारे कथ्य की तुलना की जाती है। काव्य में वे परिवेश के ग्रहण के तरीके को बताते हैं जिससे कविता का निर्माण होता है । इस प्रकार पाठ के संक्षिप्तीकरण से अलंकरण-काटि, निर्माण कला एवं रचनाकार की वैयक्तिक शैली स्पष्ट हो जाती है । यह पद्धति सूक्ष्म संरचनात्मक संक्राभ्य पद्धति से अनेक रूपों में भिन्न है । सूक्ष्म संरचना एक धारणा मात्र है जो भाषा-विशेष के वाक्यों की प्रजनक होती है। व्याकरण की सरलता से इसकी प्रकृति एवं अवयवों का निर्धारण होता है । संकल्पनात्मक प्रतिमान भावानयन है जो एक ही विषय से सम्बन्ध एक या अनेक वाक्यों के संक्षिप्तीकरण से उत्पन्न होता है । सूक्ष्म संरचना में हर शब्द की कैफियत तलाश करनी होती है लेकिन संकल्पनात्मक प्रतिमान परिवर्त्य सम्बन्धों के संक्षिप्तीकरण का उद्धरण मात्र है । फिर सूक्ष्म संरचना में भावानयन क्रमशः नहीं होता है, जबकि संकल्पनात्मक में क्रमशः होता है।
इन तीनों पद्धतियों के योग से कथ्य एवं भाषा दोनों का पुनः निर्माण प्रामाणिक रूप से सम्भव है और विकृतियों का निराकरण अत्यन्त सरल एवं सफल ।।
DO
1. शर्मा, छोटेलाल (डॉ.)-हिन्दी पाठ-शोधन विज्ञान-विश्वभारती पत्रिका (खण्ड 13, अङ्क 4),
पृ० 330।
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अध्याय
काल निर्धारण
पाण्डुलिपि प्राप्त होने पर पहली समस्या तो उसे पढ़ने की होती है। इसका अर्थ है । लिपि का उद्घाटन' । इस पर पहले 'लिपि समस्या' वाले अध्याय में चर्चा हो चुकी
दूसरी समस्या उस पांडुलिपि के काल-निर्धारण की होती है। प्रश्न यह है कि काल-निर्धारणा की समस्या खड़ी क्यों और कैसे होती है ?
हमें जो पांडुलिपियाँ प्राप्त होती हैं उन्हें 'काल' की दृष्टि से दो वर्गों में रखा जा सकता है:
एक वर्ग उन पांडुलिपियों का है जिनमें 'काल-संकेत' दिया हुआ है ।
दूसरा वर्ग उनका है जिनमें काल-संकेत का पूर्णतः अभाव है। 'काल-संकेत' से समस्या
सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि जिस पांडुलिपि में काल-संकेत हैं, उसके सम्बन्ध में तो कोई समस्या उठनी ही नहीं चाहिये । किन्तु वास्तव में काल-संकेत के कारगा अनेक कठिनाइयाँ और समस्याएं उठ खड़ी होती हैं और कोई-कोई समस्या तो ऐसी होती है कि सुलझने का नाम ही नहीं लेती । उदाहरणार्थ-पृथ्वीराज रासो में संवतों का उल्लेख है । उनको लेकर विाद अाज तक चला है। 'काल-सकेत' के प्रकार
___ वस्तुतः समस्या स्वयं 'काल-संकेत' में ही अन्तमुक्त होती है, क्योंकि 'काल-संकेत' के प्रकार भिन्न-भिन्न पांडुलिपियों में भिन्न-भिन्न होते हैं । इसीलिए काल-संकेत के प्रकारों से परिचित होना आवश्यक हो जाता है।
संकेत-संकेत' का पहला प्रकार हमें अशोक के शिलालेखों में मिलता है। वह इस कप में है:
द्वादसवमामि सितेन मया इदं प्राजापित इसमें अशोक ने बताया है कि मैंने यह लेख अपने राज्याभिषेक के 12वें वर्ष में प्रकाशित कराया।
अन्य लेखों में 'मया', 'मेरे द्वारा' या 'मैने' के स्थान पर 'देवनां प्रिय' या 'प्रियदर्शी' आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है; पर प्रायः सभी 'काल-संकेतों का प्रकार यही है कि काल-गणना अपने अभिषेक वर्ष से बतायी गयो है, यथा-राज्याभिषेक के आठवें इक्कीसवें वर्ष में लिखाया, आदि ।
अतः 'काल-संकेत' का पहला प्रकार यह हुआ कि अभिलेख लिखाने वाला राजा
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काल निर्धारण/247
काल-गणना के लिए अपने राज्याभिषेक के वर्ष का उल्लेख कर देता है। इस प्रकार को 'राज्यवर्ष' नाम दे सकते हैं।
अशोक के लेखों में केवल राज्याभिषेक के 'वर्ष' का आठवाँ, बारहवाँ, बीसवाँ वर्ष मादि दिया हुआ है। शुंगों के शिलालेखों में भी 'राज्यवर्ष' ही दिया गया है।
आन्ध्रों के शिलालेखों में 'काल-संकेत' में कुछ विस्तार पाया है। उदाहरणार्थ : गौतमी पुत्र मातकरिंग के एक लेख में काल-संकेत यों है
"सबछरे, १० + ८ कस परवे २ दिवमे" इसका अर्थ हुया कि 1 8वें वर्ष में वर्षा ऋतु के दूसरे पान का पहला दिन । यहाँ 18वां वर्ष गौतमी पुत्र सातकरिण के राजत्व-काल का है।
इसमें केवल राज्याभिषेक वर्ष-गणना का ही उल्लेख नहीं वरन् ऋतु पक्ष तथा दिन या तिथि का भी उल्लेख है।
'सबच्छर' संवत्सर शब्द वर्ष के लिए पाया है। इस समय भी राज्य वर्ष का ही उल्लेख मिलता है, यों तिथि-विषयक अन्य ब्यौरे इसमें हैं। ऋतुओं का उल्लेख है, मास का नहीं।
पाख (पक्ष) का उल्लेख है, प्रथम या द्वितीय पाख का। दिवस का भी उल्लेख है ।
तब महाराष्ट्र के क्षहरात और उज्जयिनी के महाक्षत्रपों के शिलालेख आते हैं। इन्होंने ही पहले ऋतु के स्थान पर मास का उल्लेख किया "बसे 40+2 वैशाख मासे'
इन्होंने ही पहले मास से बहुल (कृष्ण) या शुद्ध (शुक्ल) पक्ष का सन्दर्भ देते हुए तिथि दी "वर्ष द्विपंचाशे 50+2 फगुग बहुलम द्वितीय वारे ।" इस उद्धरण में 'वार' शब्द का भी पहले-पहल प्रयोग हुया है, दिवस प्रादि के लिए, 'मार्ग शीर्ष बहुल प्रतिपदा' में 'प्रतिपदा' या 'पड़वा' तिथि है, कृष्ण अथवा बहुल पक्ष की । इनके किसी-किसी शिलालेख में तो नक्षत्र का मुहूर्त तक दे दिया गया है, यथा :----
बैशाख शुद्ध पंचम-धन्य तिथौ रोहिणी नक्षत्र मुहूर्ते" पहले इन्हीं के शिलालेखों में नियमित संवत् वर्ष का उल्लेख हुग्रा, और उसके साथ राज्यवर्ष का उल्लेख भी कभी-कभी किया गया, यथा :
श्री-धरवर्मणा........स्वराज्याभि वृद्धि करे वैजयिके संवतत्सरे त्रयोदशमे ।
श्रावण बहुलस्य दशमी दिवसं पूर्वक मेत....20+ 1 अर्थात् श्रीधरवर्मा के विजयी एवं समृद्धिशाली तेरहवें राज्य वर्ष में और 201 वें (संवत्) में श्रावण मास के कृष्णपक्ष की दशमी के दिन....' विद्वानों का मत है कि राज्यवर्ष के अतिरिक्त जो वर्ष 201 दिया गया है वह शक संवत् ही है। यह द्रष्टव्य है कि 'शक' या 'शाके' शब्द का उपयोग नहीं किया गया, केवल 'वर्ष या संवत्सरे' से काम चलाया गया है।
1. अशोक के अभिलेख प्राचीनतम अभिलेख हैं। बस एक शिलालेख ही ऐमा प्राप्त हुआ है जो अशोक
मे पूर्व का माना जाता है। यह लेख अजमेर के अजायबघर में रखा हुआ है और बदली से प्राप्त हुआ था। इसमें भी दो पंक्तियों में काल संकेत हैं । एक पंक्ति में 'वीराय भगवतं' और दूसरी में 'चतुरासीति बम' । निस्कर्षत: यह वीर या महावीर के निर्वाण के चौरासीवें वर्ष में लिखा गया। अशोक पूर्व का लेख ओझाजी द्वारा विशिष्ट बताया गया है क्योकि यह वीर-निर्वाण से काल-गणना देता है।
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248, पाण्डुलिपि - विज्ञान
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है। शक संवत् जिस घटना से प्रारम्भ हुआ वह 78 ई० अवन्ति की विजय । इसी विजय के उपलक्ष्य में अवन्ति में हुआ जिसे प्रारम्भ में बिना नाम के काम में लिया गया। या शाके शब्द का प्रयोग नियमित रूप से होने लगा । शक सं० 500 से 1263 तक के शिलालेखों में वर्ष के साथ नीचे लिखी शब्दावली का प्रयोग किया गया :
संवत् के लेख के साथ 'शक' शब्द संवत् 500 के शिलालेखों से जुड़ा हुआ मिलता में घटी। वह थी चष्टण द्वारा 78 ई० में यह संवत् प्रारम्भ इसके बाद 500 वें वर्ष के शक
(1) शकनृपति राज्याभिषेक संवत्सर
(2) शकनृपति संवत्सर
(2) शकतृप संवत्सर
( 4 ) शकनृपकाल
( 5 ) शक संवत
( 6 ) शक (7) शाक'
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स्पष्ट है कि आरम्भ में 'राज्य वर्ष' के रूप में इस शकनृपति के राज्याभिषेक का संवत् माना गया । उस राज्याभिषेक का अभिप्राय शकों की विजय के उपरान्त हुए अभिषेक से था । इसी शक संवत् के साथ शालिवाहन शब्द भी जुड़ गया और यह 'शाके शालिवाहन' कहलाने लगा। इस प्रकार यह दक्षिण तथा उत्तर में लोकप्रिय हो गया । शिलालेखों में सबसे पहले हमें नियमित संवत् के रूप में शक संवत् का ही उल्लेख मिलता है | अतः 'काल संकेत' की एक प्रणाली तो राजा के शिलालेख यानी राजा द्वारा लिखाये गये शिलालेख के लिखे जाने के समय का उल्लेख उसी के राज्य के वर्ष के उल्लेख की प्रणाली में मिलता है । तब, नियमित संवत् देने की परिपाटी से दूसरे प्रकार का 'कालसंकेत' हमें मिलता है ।
इस शिलालेख से हमें
राज्य वर्ष किस प्रकार
इन काल संकेतों से भी कुछ समस्याएँ प्रस्तुत होती हैं जिनमें से पहली समस्या राजा के अपने राज्य वर्ष के निर्धारण की है । अशोक के 8वें वर्ष में कोई शिलालेख लिखा गया तो अशोक के सन्दर्भ में तो उसके राज्यकाल के 8वें वर्ष का ज्ञान उपलब्ध हो जाता है किन्तु इतिहास के कालक्रम में किसी राजा का से अपने स्थान पर बिठाया जायेगा, यह समस्या खड़ी होती है । यह समस्या तब कुछ कठिन हो सकती है जब वह राजा कोई ऐसा राजा हो जिसके राज्यारोहरण का वर्ष कहीं से भी उपलब्ध न होता हो । यथार्थ में ऐसे काल संकेत से ठीक-ठीक काल निर्धारण ऐसी स्थिति में तभी हो सकता है कि जब राजा के राज्यारोहरण-काल का ज्ञान हमें सन् संवत की उस प्रणाली में उपलब्ध हो सके जिसे हम अपने सामान्य इतिहास में काम में लाते हैं । जैसे, आधुनिक इतिहास में हम ई० सन् का उपयोग करते हैं और उसी के आधार पर ई० सन् के पूर्व की घटनाओं को भी ( ई० पू० द्वारा) द्योतित करते हैं ।
जब 'काल-संकेत' दूसरी प्रणाली से दिया गया हो जिसमें किसी नियमित संवत् का निर्देश हो तो समस्या यह उपस्थित होती है कि उसे उस कालक्रम में किस प्रकार यथास्थान बिठाया जाय जिसका उपयोग हम वर्तमान समय में इतिहास में करते हैं । जैसे
1. Pandey, Rajbali - Indian Palaeography, p. 191.
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काल निधारण/249
अशोक के काल से पूर्व का लिखा जो एक शिलालेख अजमेर के बडली ग्राम में मिला उसमें 'वीराय भगवत' पहली पंक्ति है और दूसरी पंक्ति 'चतुराशि बसे' है, जिसका अर्थ हुआ कि महावीर स्वामी के निर्वाण के 84वें वर्ष में । अब 84वें वर्ष का उल्लेख तो ऐसी घटना की ओर संकेत करता है जो एक प्रसिद्ध महापुरुष से जुड़ी हुई है, जिसके सम्बन्ध में उनके धर्म के अनुयायी जैन धर्मावलम्बियों ने निर्धान्त रूप से 'महावीर संवत्' या 'वीर निर्वाण संवत्' की गणना सुरक्षित रखो है । जैन लेखक अपने ग्रन्थों में निर्वाण संवत् का उल्लेख करते रहे हैं। श्वेताम्बर जैन मेरुतुङ्ग सूरि ने 'विचार थेणी' में बताया है कि 'महावीर संवत्' और विक्रम सं० में 470 वर्षों का अन्तर पाता है। इस गणना से महावीर संवत् का प्रारम्भ 527 ई० पू० में हुअा, क्योंकि विक्रम संवत का प्रारम्भ 57 ई० पू० में होता है और 470 वर्ष का अन्तर होने से 57+47)= 527 ई० पू० महावीर का निर्वाण संवत् हुआ । इस विधि से 3 संतों का पारस्परिक समन्वय हमें प्राप्त हो जाता है। विक्रम संवत् का 'वीर निर्धारण संवत्' से और दोनों का परस्पर 'ई० सन्' से। यदि 'वीर निर्वाण' के वर्ष का ज्ञान संदिग्ध हो तो इस प्रकार का 'काल-संकेत' किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सकेगा । यह स्थिति किसी छोटे और अज्ञात राजा के राज्यारोहण काल की हो सकती है क्योंकि उसे जानने के कोई पक्के प्रमारण हमारे पास नहीं हैं, वही स्थिति कुछ ऐसे कम प्रचलित अन्य संवतों के सम्बन्ध में भी हो सकती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि. किसी एक राजा के राज्यारोहण के सन्दर्भ से काल के संकेत से अधिक उपयोगी कालनिर्धारण की दृष्टि से नियमित संवत् का उल्लेख होता है। यों मूलतः यह नियमित संवत् भी किसी घटना से सम्बद्ध रहता है, हम देख चुके हैं कि 'शक संवत्' शक नृपति के राज्यारोहण के काल का संकेत करता है, 'वीर संवत्' का सम्बन्ध महावीर 'निर्वाण से है किन्तु 'गक संवत्' नियमित हो गया क्योंकि यह सर्वजन मान्य हो गया है ।
ऊपर काल-निर्धारण विषयक दो पद्धतियों का उल्लेख किया गया है--- (1) राज्यारोहण के काल के आधार पर, तथा (2) नियमित संवत् के उल्लेख से ।1 किन्तु ऐसे लेख भी हो सकते हैं जिनमें न राज्यारोहण से बर्ष की गणना दी गई हो, न नियमित संवत् का ही उल्लेख हो । ऐसी दशा में लेखों में संभित समकालीन राजाओं का व्यक्तियों के आधार पर कला-निर्धारण किया जाता है, यथा-अशोक के तेरहवें शिलालेख में अनेक समकालीन विदेशी शासकों के नाम आये हैं। यदि उनकी तिथियाँ प्राप्त हों तो अशोक की तिथि पाई जा सकती है । यूनानी राजा अंतियोकास द्वितीय का उल्लेख है। इनको तिथि ज्ञात है । ये ई० पू०261-46 तक पश्चिमी एशिया के शासक थे। द्वितीय टॉलमी का भी उल्लेख है जो उत्तरी अफ्रीका में ई० पू० 232-40 तक शासक था। इन समकालीन शासकों को तिथियों के आधार पर अशोक के राज्यारोहण का वर्ष ई० पू० 270 निकाला गया है।
नियम संवत् का उल्लेख कुषाण नरेशों के समय से मिलता है। आरम्भ के संवत् बयों में संवत् का नाम नहीं दिया गया, पर यह निर्धारित हो चुका है कि यह शक संवत्त है जो 78 ई० से आरम्भ हुआ। इससे आगे द्वितीय चन्द्रगुप्त के समय से गप्तों के लेखों में जो धो का निदेश है वह मी राज्य-वर्ष का न होकर गुप्त-संवत के वर्ष का है। यथा--- मानगुप्त का एरण स्तम्म का लेख, इसमें 191वें वर्ष का उल्लेख किया गया है, यह 191वां गुप्त संवत् है।
हर्षवर्धन की तिथियाँ 'हर्ष-संवत' की सूचक हैं । नेपाल के लेखों में भी हर्ष-संवत् है।
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250/पाण्डुलिपि-विज्ञान
इस प्रकार से तिथि निर्धारण करने में भी कठिनाइयाँ आती हैं : एक तो यह कठिनाई ठीक पाठ न पढ़े जाने से खड़ी होती है । गलत पाठ से गलत निष्कर्ष निकलेगा। 'हाथी गुंफा' के लेख में एक वाक्य यों पढ़ा गया-"पनंतरिय सन् वस सते राज मुरिय काले ।' स्तेन कोनो ने इसका अर्थ दिया 'मौर्य काल के 165वें वर्ष में। इसी के आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष भी निकाला कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक संवत् चलाया था जी मौर्यसंवत् (मुरिय काले) कहा गया। अब कुछ विद्वान् इस पाठ को ही स्वीकार नहीं करते । उनकी दृष्टि में ठीक पाठ है-'पानतरीय सब सहसेहि, मुखिय कल वोच्छिन ।" इसमें वर्ष या संवत् या काल का कोई संकेत नहीं। अव यह सिद्ध-सा है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने कोई मौर्य-संवत् नहीं चलाया था।
किन्तु किसी न किसी 'काल-संकेत' से कुछ न कुछ सहायता तो मिलती ही है, और समकालिता एवं ज्ञात मंवत की पद्धति में मन्तोपजनक रूप में नियमित संवत् में कालनिर्धारित किया जा सकता है।
पर काल निर्धारित करने में यथार्थ कठिनाई तब आती है, जब कोई काल संकेत रचना में न दिया गया हो । अधिकांश प्राचीन साहित्य में काल-संकेत नहीं रहते। वैदिक साहित्य का काल-निर्धारण कैसे किया जाय । इतिहास के लिए यह करना तो होगा ही। इस प्रकार की समस्या के लिए वर्ण्य-विषय में मिलने वाले उन संकेतों या उल्लेखों का सहारा लिया जाता है, जिनमें काल की ओर किसी भी प्रकार से इंगित करने की क्षमता होती है । अब इस प्रकार गे काल निर्धारण करने की प्रक्रिया को हम पाणिनि के उदाहरण से समझ सकते हैं :
पाणिनि की अष्टाध्यायी एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ से उसकी रचना का 'कालसंकेत' नहीं मिलता । अतः अष्टाध्यायी में जो सामग्री उपलब्ध है उसी के आधार पर समय का अनुमान विद्वानों ने किया है । ये अनुमान कितने भिन्न हैं, यह इसी से जाना जा सकता है कि एक विद्वान ने उसे 400 ई० पू० माना। गोल्डस्टुकर ने अष्टाध्यायी के अध्ययन के उपरान्त यह निर्धारित किया कि पाणिनि यास्क के बाद हुआ और बुद्ध से पूर्व था, क्योंकि अष्टाध्यायी से विदित होता है कि वह बुद्ध से परिचित नहीं था। पार० जी० भांडारकर यह मानते हैं कि पाणिनि दक्षिण भारत से अपरिचित थे, अतः इनकी दृष्टि में पाणिनि 7-8वीं शताब्दी ई० पू० में ही थे । 'पाठक' महोदय पाणिनि को महावीर स्वामी से कुछ पूर्व 'सातवीं शताब्दी ई० पू० के अन्तिम चरण में मानते हैं। डी० आर० भांडारकर ने पहले सातवीं शताब्दी में माना, बाद में छठी शताब्दी ई० पू० के मध्य सिद्ध किया । चार पेंटियर पाणिनि को 550 ई० पू० में विद्यमान मानते हैं, बाद में इन्होंने 500 ई०पू० को अधिक समीचीन माना। होलिक ने 350 ई० पू० का ही माना है । वेवर ने अष्टाध्यायी के एक सूत्र के भ्रमात्मक अर्थ के आधार पर पागिनि को सिकन्दर के प्राक्रमरण के उपरान्त का बताया।
ये सभी अनुमान अष्टाध्यायी की सामग्री पर ही खड़े किये गए हैं। ऐसे अध्ययन का एक पक्ष तो यह होता है कि पाणिनि किन बातों से अपरिचित था, जैसे-गोल्डस्टुकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पाणिनि पारण्यक, उपनिषद्, प्रातिशाख्य, वाजसनेयी संहिता, शतपथ ब्राह्मण, अथर्ववेद तथा पड्दर्शनों में परिचित नहीं थे। अतः निष्कर्ष निकला कि
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काल निर्धारण/ 251
जिन बातों से वह परिचित नहीं वह उन बातों से पूर्व हुआ। तो वह उपनिषद् युग से पूर्व
रहे होंगे ।
इसका दूसरा पक्ष है कि वह किनसे देरिचित था, यथा- ऋग्वेद, सामवेद और कृष्णयजुर्वेद से परिचित थे । फलतः जिनसे परिचित थे उनकी समयावधि के बाद और जिनसे परिचित उनके लोक प्रचलित होने के काल से पूर्व पानि विद्यमान रहे अर्थात् 400 ई० पु० ।
अव गोल्डस्टुकर के इस निष्कर्ष को अमान्य करने के लिए डा वासुदेव शरण अग्रवाल ने श्रष्टाध्यायी से ही यह बताया है कि (1) पारिपनि, 'उपनिषद्' शब्द से परिचित थे, पाणिनि महाभारत से भी परिचित थे, वे श्लोक और श्लोककारों का उल्लेख करते हैं, 'नटसूत्र, शिशु क्रन्दीय, यमसभीय, इन्द्रनर्तनीय जैसे संस्कृत के महान काव्यों का भी ज्ञान रखते ।
डाँ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने अष्टाध्यायी के भौगोलिक उल्लेखों से इस तर्क को भी मान्य कर दिया है कि पारिणनि 'दक्षिण' से अपरिचित थे । ग्रन्तरयन देश, ग्रश्मक. एवं कलिंग ग्रष्टाध्यायी में आये हैं ।
मस्करी परिव्राजकों के उल्लेख में मंखली गोसाल से परिचित थे । (पाणिनि) मंखली गोसाल बुद्ध के समकालीन थे । अतः इस सन्दर्भ से और कुमारश्रमरण और निर्वारण जैसे शब्दों के अष्टाध्यायी में आने से बौद्ध धर्म से उन्हें अपरिचित नहीं माना जा सकता ।
श्रविष्ठा ( या धनिष्ठा) को नक्षत्र-व्यूह में प्रथम स्थान देकर पाणिनि ने यह सिद्ध कर दिया है कि उनकी कालावधि की निम्नस्थ तिथि 400 ई० पू० हो सकती है । पाणिनि ने लिपि, लिपिकार, यवनानी लिपि तथा 'ग्रन्थ' शब्द का उपयोग किया है । यवनानी लिपि से कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला था कि भारत में यवनों से परिचय सिकन्दर के आक्रमण से हुआ, अतः अष्टाध्यायी में ' यवनानी लिपि' का श्राना यह सिद्ध करता है कि पाणिनि सिकन्दर के बाद हुए। पर यह 'यवनानी' शब्द प्रायोनियन ( Ionian ) ग्रीस निवासियों के लिए आया है, जिनसे भारत का सम्बन्ध सिकन्दर से बहुत पहले था ।
यहाँ काल-निर्धारण में अन्तरंग साक्ष्य का मूल्य बताने के लिए पारिपनि के सम्बन्ध में यह स्थूल चर्चा डॉ॰ वासुदेवशरण अग्रवाल के ग्रंथ India as Known to Panini (पाणिनि कालीन भारत) के आधार पर की गई है । विस्तार के लिए यही ग्रंथ देखें ।
यहाँ हमने यह बताने का प्रयत्न किया है कि किस ग्रंथ या ग्रंथकार के समय निर्धारण में उसके ग्रन्थ में आयी सामग्री के आधार पर भी निर्भर किया जा सकता है । उसके ग्रन्थ के अध्ययन से एक ओर तो यह ज्ञात होता है कि वह किन बातों नहीं था । तथा दूसरी ओर यह भी ज्ञात होता है कि वह किन बातों से
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से परिचित परिचित था । "
1. जैसे रुद्रट का समय निर्धारित करते हुए काणे महोदय ने बताया कि "वह ध्वनि- सिद्धान्त से पूर्णतः अपरिचित है ।" अतः वनिकार का समसामयिक था उससे कुछ पूर्व ।
2. काणे महोदय ने बताया है कि रुद्रट की भामह गोर उद्भट से बहुत निकटता है । रुद्रट ने मामह, दण्डी एवं उद्भट से अधिक अलंकारों की चर्चा की है और इसकी प्रणाली भी वैज्ञानिक है । किसी के विकास के चरणों के अनुमान को भी एक प्रमाण माना जा सकता है ।
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252/पाण्डुलिपि-विज्ञान
फिर यह आवश्यक होता है कि इन दोनों की सप्रमाण व्याख्या करके और उनके ऐतिहासिक काल के सन्दर्भ से उस कवि की समयावधि की ऊपरी काल-सीमा और निचली काल-सीमा सावधानीपूर्वक निर्धारित की जाय । इस सम्बन्ध में प्रचलित अनुश्रुतियों की भी परीक्षा की जानी चाहिये । प्राचीन साहित्य, ग्रंथ, हस्तलेख आदि के सम्बन्ध में इस 'अन्तरंग-साक्ष्य' की काल-गत परिणति की प्रक्रिया का बहुत सहारा लेना पड़ा है।
___ यह बात ध्यान में रखने की है कि अन्तरंग साक्ष्य या अन्तरंग संगत कथनों की कालगत परिणति प्रामाणिक और निर्धान्त रूप से स्थापित की जाय, जैसे--'श्राविष्ठा' का आदि नक्षत्र के रूप में उल्लेख सिद्ध करता है। अतः तर्क और प्रमाण प्रबल होने चाहिए, उदाहरणार्थ---यवनानी लिपि विषयक तर्क की प्रायोनियनों से भारत का सम्बन्ध सिकन्दर से पूर्व से था, प्रबल और पुष्ट तर्क माना जा सकता है।
दुर्बल और असंगत तर्क आगे के विद्वानों द्वारा काट दिये जाते हैं। दूसरे प्रवल तर्क देकर काल-निर्धारण करने का प्रयत्न निरन्तर होता रहता है। जैसे---साहित्यदर्पण को भूमिका में कारणे- महोदय ने लिखा है कि---Attempts are made to fix the age of both she and cut by reference to parallel passages from early writers and it is argued that they are later than these poets. Unless the very words are quoted I am not at all disposed to attach the slightes! weight to parallelism of thought. There is not monopoly in the realm of thought as was observed by the ध्वनिकार (iv II संवादास्तु भवन्त्येव बाहुल्येन सुमेधसामा) । कारणे महोदय ने यहाँ यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि केवल विचार-साम्य काल निर्धारण में सहायक नहीं, समान वाक्यावली अवश्य प्रमाण बन सकती है पर केवल शब्दावली साम्य ही पर्याप्त नहीं, सन्दर्भगत अभिप्राय-साम्य भी हो तो प्रमाण अच्छा माना जा सकता है। काल-संकेतों के रूप
काल निर्धारण में ऐसे लेखकों और ग्रन्थों के सम्बन्ध में तो कठिनाई आती ही है, जिनके काल के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता, किन्तु जहाँ काल-संकेत दिया गया है वहाँ भी यथार्थ काल निर्धारण में जटिल कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं । ऊपर 'शिलालेखों' के काल-सन्दर्भ में हमने यह देखा था कि एक लेख में 'मुरिय' पढ़ा गया और उसका अर्थ लगाया गया 'मौर्य संवत्' जबकि कुछ विद्वान यह मानते थे कि यह पाठ गलत है, गलत पढ़ कर गलत अर्थ किया गया, अतः मौर्य संवत् की धारणा निराधार है। किन्तु शिलालेखों में 'अंक' भी कभी-कभी ठीक नहीं पढ़े जाते, इसमे काल निर्धारण सदोष हो
1. प्रमाण के लिए बाह्य साक्ष्य का उपयोग किया जाता है। काणे ने रुद्रद के सम्बन्ध में बताया है कि
दसवीं शताब्दी के आगे के कितने ही लेखकों ने रुद्रट का उल्लेख किया है : "राजशेखर ने काव्यमीमांसा" में काकु वक्रोक्ति नाम शब्दालंकारों मिति रुद्रट'।" रुद्रट के एक छन्द को भो उद्धत किया है। प्रती हरिदुराज ने बिना नामोल्लेख किये उसके छंद उद्ध त किए हैं। धनिक की 'दश रूपावलोकन टीका में उद्धत है । लोचन में भी उल्लेख है । मम्मट ने रुद्रट का नाम लेकर आलोचना की है । इस
प्रकार यह सिद्ध हुआ कि रुद्रट 800--850 ई. के बीच हुए। 2. Kane, P. V. --Sahityadarpan (Introduction), p. 37.
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जाता है ।"
हम यहाँ यह देखेंगे कि ग्रन्थादि में 'काल - संकेत' किस-किस प्रकार से दिये गए हैं ? और उनके सम्बन्ध में क्या-क्या समस्याएं खड़ी हुई हैं
?
इतिहास से हमें विदित होता है कि सबसे पहले शिलालेख में जो अजमेर के पास वडली ग्राम में मिला था,
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1. अशोक से पूर्व में बीर संवत् (महावीर निर्वाण संवत् ) का उल्लेख दिया ।
2. अशोक के अभिलेखों में राज्य वर्ष का उल्लेख है ।
काल निर्धारण/ 253
3. आगे शकों के समय में राज्य व के साथ 'शक संवत्' का वर्ष दिया गया, हाँ, वर्ष संख्या के साथ 'शक' का नाम संवत् के साथ नहीं लगाया गया । वाद में 'शक' का नाम दिया ।
4. वर्ष या संवत्सर के साथ पहले ऋतुस्रों का उल्लेख, एवं उनके पात्रों का उल्लेख होने लगा | इसके साथ ही तिथि, मुहूर्त को भी स्थान मिलने लगा ।
असित पक्ष ऋतु शिशिर समान्नू ।
कवि ने इसमें संवत् दिया है : सत्रह सौ सोरह दस
5. बाद में ऋतुओं के स्थान पर महीनों का उल्लेख होने लगा । महीनों का उल्लेख करते हुए दोनों पाखों को भी बताया गया है। शुक्ल या शुद्ध और बहुल या कृष्णपक्ष भी दिया गया ।
6. इसी समय नक्षत्र (यथा- रोहिणी) का समावेश भी कहीं-कहीं किया गया ।
7. वर्ष संख्या श्रंकों में ही दी जाती थी पर किसी-किसी शिलालेख में शब्दों के श्रंक बताये गए हैं ।
8. हिन्दी के एक कवि 'सबलश्याम' ने अपने ग्रन्थ का रचना काल यों दिया है : संवत सत्रह से सोरह दस, कवि दिन तिथि रजनीस वेद रस ।
माघ पुनीत मकर गत भानू
रस
अर्थात् एकादशी ।
1716+101726
यह विक्रम संवत् है, क्योंकि हिन्दी में सामान्यतः इसी संवत् का उल्लेख हुआ है । संवत् का नामोल्लेख न होने पर भी हम इसे विक्रम संवत् कह सकते हैं ।
कवि ने तब दिन का उल्लेख किया : ' कवि दिन' का उल्लेख भी प्रदभुत है । कवि दिन =
शुक्रवार ।
तिथि अंकों में न लिखकर शब्दों में बतायी गयी है :
रजनीस
चन्द्रमा 1+
वेद
4+ 611
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1. देखिए - गुरु गुगा के पूर्वज का शिलालेख, शोध पत्रिका (वर्ष 22 अङ्क 1), सन् 1971 में श्री गोविन्द अग्रवाल का निबन्ध 'ओझा (बीकानेर) इतिहास के कुछ संदिग्ध स्थल । '
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254, पाण्डुलिपि-विज्ञान
tos
अENT
Dev.
131१२मारे ॥
श्री
बक
'ददरेवा' ग्राम में प्राप्त विद्यमान 'जैतसा' का शिलालेख
(जान कवि ने 'क्यामखा रासो' (सम्वत् [1273] में क्यामखानी चौहानों की वंशावली प्रस्तुत की है, उसमें गोगाजी व जैतसी का भी उल्लेख है । अतः इसके आधार पर जैतसी गोगाजी के वंशज हैं ।)
-माघ सुदि १४ चंद्रवार, (सम्वत् १३७६)
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काल निर्धारण/255
माघ महीने के असित पक्ष अर्थात् कृष्णपक्ष में ऋतु शिशिर, तथा
भानु मकर के-यह पवित्र संयोग । इसमें कवि ने ऋतु का भी उल्लेख किया है और महीने का भी । स्पष्ट है कि यह कवि मामान्य परिपाटी से अपने को भिन्न सिद्ध करने के प्रयत्न
काल संकेत की सामान्य पद्धति यह है कि यदि कवि शब्दों में काल-संकेत देता है तो वह संवत् को शब्दांकों में रखता है, तिथि को नहीं । इस कवि ने तिथि को शब्दांकों में रखा है जो क्रमश: 1,4,6 होता है। अतः तीनों को जोड़कर (11) तिथि निकाली गयी। पर संवत् को अंकों में दिया है, उसे भी वैशिष्ट्य के साथ सत्रह से सोरह + दस । यहाँ भी संवत् जोड़ के प्राप्त होता है-संवत् सत्रह से छब्बीस - 1726 ।
इस बात में भी यह अनोखा है कि इसमें महीना भी दिया गया है और ऋतु भी साथ है । यह पद्धति किसी-किसी अभिलेख में भी मिलती है ।
काल-संकेत की यह एक जटिल पद्धति मानी जा सकती है। सामान्य पद्धति
अब हम देखेंगे कि सामान्य पद्धति क्या होती है : सामान्य पद्धति में संवत अंकों में किन्तु अक्षरों में दिया जायेगा। 1726 को अक्षरों में 'सत्रह सै छब्बीस' लिखा जायेगा। कहीं-कहीं पांडुलिपियों में संवत् को अक्षरों में देकर उसी के साथ अंकों में भी लिख दिया गया है, यथा 'सत्रह मै छब्बीस १७२६' तिथि भी अंकों में अक्षरों के द्वारा अर्थात् ग्यारस (११)।
सामान्य रूप से संवत् और तिथि के साथ दिन का, महीने का और पक्ष का उल्लेख भी किया जाता है।
इस रूप के अतिरिक्त जो कुछ भी वैशिष्ट्य लाया जाता है, वह कवि-कौशल माना जायेगा।
___ यह सन्-संवत् रचना के काल के लिये ही नहीं दिया जाता, इससे लिपि-काल भी द्योतित किया जाता है, लिपिकर्ता भी अपना वैशिष्ट्य दिखा सकता है। कठिनाइयाँ
अब कुछ यथार्थ कठिनाइयों के उदाहरणों से यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि कठिनाई का मूल कारण क्या है ? पुष्पिका
संवत् पर टिप्परिणयां 1. बीसल देव रासो की एक प्रति में 1. प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'बारह से रचना-तिथि यों दी गई है :
बहोत्तराहां' का अर्थ 1212 किया बारह से बहोत्तराहां मॅझारि,
है। बहोत्तर द्वादशोत्तर का रूपान्तर जेठ बदी नवमी बुधिवारि । नाल्ह रसाइण आरम्भइ ।
2. बहोत्तर को बहत्तर (72) का रूपाशारदा तुठी ब्रह्म कुमारि ।
न्तर क्यों न माना जाय । लाला कासमीरां मुख मंडनी।
सीताराम ऐसा ही मानते हैं।
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256/पाण्डुलिपि-विज्ञान
राम प्रगासों बीमल दे राई । ___एक अन्य प्रति में यों है.... संवत सहा सतिहत्तरई जारिण।
3. इस पाठ से संवत् सत्तहत्तर अर्थात नल्ह कवीमरि कही अमृतवारिण ।
1077 निकलता है। गुण गुथ्थउ च उहाग का। मुकलपक्ष पंचमी श्रावणमास । रोहिणी नक्षत्र सीहामरणउ । एक अन्य प्रति में--- संवत तेर सतोत्तरइ जाणि
4. इसमें 1377 संवत् आता है। सुक पंचमी नइ श्रावण मास, 5. इसका एक अर्थ हो सकता है : हस्त नक्षत्र रविवार सुं
सतोत्तरह = शत उत्तर एकसौ तेर -
13 : अर्थात् 1013 एक अन्य में--- संवत सहस तिहत्तर जारिण
6. हममे संवत 1073 निकलता है। नाल्ह कबीसरि सरसिय वारिण डॉ० गुप्त ने एक अन्य प्रति के आधार पर एक संवत् 1309 और बताया है। उन्होंने इस प्रति को 'अ० सं०' नाम दिया है।
'बीसलदेव रास' के रचना काल के सम्बन्ध में कठिनाइयों का एक कारण तो यह है कि विविध उपलब्ध पांडुलिपियों में संवत् विषयक पंक्तियों में पाठ-भेद है । पाँच प्रकार के पाठ-भेद ऊपर बताये गये हैं । इतने संवतों में से वास्तविक संवत कौन-सा है, इसे पाठालोचन के सिद्धान्त से भी निर्धारित नहीं किया जा सका। बहुत बड़े विद्वान पाठालोचक डॉ० गुप्त ने टिप्पणी में दिये पूर्व संवत् को नहीं लिया शेष छ: को लेकर किसी निर्णय पर न पहुँच सकने के कारण व्यंग्यात्मक टिप्पणी दी है जो पठनीय है : “चैत्रादि और कार्तिकादि, दो प्रकार के वर्षों के अनुसार इन छः की बारह तिथियाँ बन जाती हैं और यदि 'गत' और 'वर्तमान्' संवत् लिये जायें तो उपर्युक्त से कुल चौबीस तिथियाँ होती हैं" । डॉ० गुप्त ने पाठ-भेद की कठिनाई का समाधान निकालने की बजाय तद्विषयक कठिनाइयाँ और बढ़ा के प्रस्तुत कर दी हैं । स्पष्ट है कि पाठालोचन के सिद्धान्त से किसी एक पाठ को वे प्रामाणिक नहीं मान सके । किन्तु यह भी सच है कि काल-निर्धारण में आने वाली कठिनाइयों की ओर भी ठीक संकेत किया है : संवत का प्रारम्भ कहीं त्रादि से माना जाता है तो कहीं कार्तिकादि मे-ग्रतः ठीक-ठीक तिथि निर्धारण के समय इस तथ्य को भी ध्यान में रखना पड़ता है। दूसरे संवत् का उल्लेख 'गत' के लिये भी होता है, और 'वर्तमान' के लिये भी होता है : यथार्थ तिथि निर्धारण में इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होता है । अत: काल-निर्धारण में ये भी यथार्थ कठिनाइयाँ मानी जा सकती है।
पाठ-भेदों से उत्पन्न कठिनाई के बाद एक कठिनाई उचित अर्थ विषयक भी दिखाई पड़ती है। मान लीजिये कि एक ही पाठ 'बारह से बहात्तराहा मझारि' ही मिलता तो
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काल निर्धारण 257
भी कठिनाई थी कि 'वहोत्तराहां' का अर्थ प्राचार्य शुक्ल की भांति 1212 किया जाए या 12 मै 72 (1272) किया जाय । आचार्य शुक्ल ने 1212 के साथ तिथि को पंचांग से पुष्ट कर लिया है, क्योंकि कवि ने केवल संवत् ही नहीं दिया वरन् महीना-जेठ, पक्ष वदी (कृष्ण पक्ष), तिथि नवमी और दिन बुधवार भी दिया है । 1212 को प्रामाणिक मानने के लिये यह विस्तृत विवरण पंचांग सिद्ध हो तो संवत् भी सिद्ध माना जा सकता था। पर पाठ-भेदों के कारण यह सिद्ध संवत् भी अप्रामाणिक कोटि में पहुँच गया।
अतः अर्थान्तर की कठिनाई पंचांग के प्रमाण से दूर होते-होते, पाठान्तर के झमेले में निरर्थक हो गई।
पाठ-दोष की कठिनाई हस्तलेखों में बहुत मिलती है, यथा--- "संवत् श्रुति शुभ नागश शि, कृष्णा कार्तिक मास
__रामरसा तिथि भूमि सुत वामर कीन्ह प्रकास' यहाँ टिप्पणी यह दी गई है कि "शुभ के स्थान पर जूग किये बिना कोई अर्थ नहीं बैठता ।" अत: 'शुभ' पाठ-दोष का परिणाम है। 'पाठ-दोष' को दूर करने का वैज्ञानिक साधन, पाठालोचन ही है, पर जहाँ मात्र ग्रन्थ-विवरण लिये गये हों वहाँ दोष की ओर इंगित कर देना भी महत्त्वपूर्ण माना जायगा, 'शुभ' के स्थान पर 'जुग' रखने का परामर्श पाठालोचन के अभाव में अच्छा परामर्श माना जा सकता है । इस कवि की प्रकृति भी 'अंकों' को शब्दों में देने की हैं : इसीलिये तिथि तक भी राम = 3 एवं रसा = | ( = 13 = त्रयोदशी) अंकानां वामतो गति: से बतायी है ।
___ पाठ-दोष का यह रूप उस स्थिति का द्योतक है जिसमें मूल पाठ से प्रति प्रस्तुत करने में दोष आ जाता है।
'पाठ-दोष' के लिये 'भ्रान्त-पठन' मूल कारण होता है । एक और उदाहरण तेरहवें खोज विवरण से दिया जाता है
किन्तु लिपिकारों ने प्रतिलिपि में ऐसी भयंकर भूलें की हैं कि ग्रन्थारम्भ का समय 'एकादश संवत् समय और पाठ निराधार' हो गया है, जिसका अर्थ होगा 11+ 60 = 71 जो निरर्थक है । पहला शब्द 'एकादश' नहीं है, यह 'सत्रहस' होना चाहिये अर्थात् 1700 +60 = 1760, जो समाप्ति काल के पद्य से सिद्ध हो जाता है :
"गये जो विक्रम वीर विताय । सत्रह से अरू साठि गिनाय"
ऐसे ही एक लिपिकार ने 'साठि' का 'पाठि' करके ५२ वर्ष का अन्तर कर दिया है। फिर भी यह तो बहुत ही आश्चर्यजनक है कि दो भिन्न-भिन्न लिपिकारों ने 'सत्रह सै' को 'एकादश' कैसे पढ़ लिया ? अवश्य ही यह दोष उस प्रति में रहा होगा, जिससे इन दोनों ने प्रतिलिप की है।
अथवा, यह विदित होता है कि इस प्रकार 'सत्रह सै' को 'एक दश' लिखने वाले दो व्यक्तियों में से एक ने दूसरे से प्रतिलिपि की तभी एक के भ्रान्त पाठ को दूसरे ने भी
1. 2.
योदश वैवार्षिक विवरण, पृ० 28। वही, पृ० 861
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258/पाण्डुलिपि-विज्ञान
दे दिया । एक कारण यह भी हो सकता है कि मूल की लेखन-पद्धति कुछ ऐसी हो कि 'सत्रह सै', 'एकादश' पढ़ा गया । 'साठ का पाठ भी भ्रान्त वाचना पर निर्भर करता है।
इसी प्रकार एक पाठ में है : सौलह से बालीस में संवत अवधारू चैतमास शुभ पछ पुण्य नवनी भृगुवारू ।
इसमें चालीस का हो 'बालीस' हो गया है। एक अन्य पाठ से 'चालीस' की पुष्टि होती है । स्पष्ट है कि यह 'बालीस' बयालीस (42) नहीं है ।।
यह 'पाठ-दोष' या भ्रान्त वाचना कभी-कभी इतनी विकृत हो सकती है कि उसका मूल कल्पित कर सकना इतना सरल नहीं हो सकता जितना कि बालीस को चालीस रूप में शुद्ध बना लेना। ऐसा एक उदाहरण यह हैरी भव बक्र सोनाणइ नंदु जुत
करी सम्य (समय) जानी, असाढ़ मी सीत सुम पंचमी
सनी को वासर मानी। इस काल द्योतक पद्य का प्रथम चरण इतना भ्रष्ट है कि इसका मूल रूप निर्धारित करना कठिन ही प्रतीत होता है। पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने जो कल्पना से रूप प्रस्तुत किया है वह उनकी विद्वता और पांडित्य से ही सिद्ध हो सका है। उन्होंने सुझाव दिया है कि इसका मूल पाः यह हो सकता है
"विधि भव वक्त्र सुनाग इन्दुजुत करी समय जानी" और इसका अर्थ किया है : विधि वक्त्र भव वक्त्र नाग
8
इंदु
अत: संवत् हुअा 1854
हमने यह देखा कि पुष्पिकानों में संवत् का उल्लेख होता था और यह संवत् विक्रम संवत् था। ऊपर के सभी उदाहरण विक्रम संवत् के द्योतक हैं, किन्तु ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं, जैसे ये हैं :
संमत सत्रह से ऐकानवे होई एगारह मै सन पैतालिस सोई अगहन मास पछ अजीपारा तीरथ तीरोदसी सुकर संवारा । इसमें 'अजीबारा' का रूप तो 'उजियारा' अर्थात् शुक्ल : उज्वल पक्ष है 'तीरथ'
1. हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्धों का अठारह
वार्षिक विवरण, पृ.18।
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गलत छपा है यह 'तिथि' है । 'तीरोदसी' त्रयोदशी का रूप से दृष्टव्य है वह यह है कि इसमें संवत् 1791 गया है । एक पुष्पिका इस प्रकार है :
काल निर्धारण / 259
विकृत रूप है । किन्तु जो विशेष दिया गया है और सन् 1145 दिया
"सन बारह से ग्रसी हैं, संवत देह बताय बोन इस से बोनतीस में सो लिखि कहे उ बुझाय ||
यहाँ कवि ने सन् बताया 1280 और उसका संवत् भी बताया है : 1929 | संवत् तो विक्रमी है, सन् है फसली । ऊपर भी सन् से फसली सन् ही अभिप्रेत है ।
जायसी के उल्खों को लीजिये । वे 'ग्राखिरी कलाम' में लिखते हैं
"मा अवतार मोर नव सदी तीस बरिख कवि ऊपर बदी ।" X X X सन् नव से सैंतालिस अहै । कथा आरम्भ बैन कवि कहै
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1.
जायसी ने सन् का उल्लेख किया है । यह सन् है हिजरी तो स्पष्ट है कि हिन्दी रचनाओं में हिजरी सन् का भी उल्लेख है और 'फसली' सन् का भी ।
भारत के अभिलेखों और ग्रन्थों में दो या तीन संवत् या सन् ही ही संवतों -सनों का उल्लेख हुआ है । इसलिए उन्हें अपने प्रचलित ईस्वी नियमित संवतों में उन्हें बिठाने में कठिनाई होती है ।
विविध सन्-संवत्
वर्ष में लिखा गया था । लेखों में 'वीर संवत्' का
हम यहाँ पहले उन संवतों का विवरण दे रहे हैं जो हमें भारत में शिलालेखों और अभिलेखों में मिले हैं। यह हम देख चुके हैं कि पहले बडली के शिलालेख में 'वीर संवत्' का उपयोग हुआ । यह शिलालेख महावीर के निर्वारण से 84वें इस एक अपवाद को छोड़ कर बाद में शिलालेखों और अन्य उपयोग नहीं हुआ, हाँ, जैन ग्रन्थों में इसका उपयोग आगे चलकर हुआ है । फिर अशोक के शिलालेखों में और आगे राज्य-वर्ष का उल्लेख हुआ है । नियमित संवत्
नहीं आये, कितने सन् और विक्रमी
सबसे पहले जो नियमित संवत् प्रभिलेखों के उपयोग में आया वह वस्तुतः 'शक
संवत्' था ।
शक संवत्
शक संवत् अपने 500वें वर्ष तक प्रायः बिना 'शक' शब्द के मात्र 'वर्षे' या कभीकभी मात्र 'संवत्सरे' शब्द से अभिहित किया जाता रहा ।
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roresai darfie विवरण, १० 124 1
जायसी लिखित 'पद्मावत' के रचनाकाल के सम्बन्ध में भी मतभेद हैं, पाट-भेद से कोई इसे 'सन् नव से सताइस आहे' मानते हैं, विद्वानों में इसका अच्छा विवाद रहा है ।
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260, पाण्डुलिपि-विज्ञान
. शक 500वें वर्ष से 1262वें वर्ष के बीच इसके साथ 'शक' शब्द लगने लगा, जिसका अभिप्राय यह था कि 'शकनृपति के राज्यारोहण के समय से' । शाके शालिवाहने
फिर चौहदवीं शताब्दी में शक के साथ शालिवाहन और जोड़ा जाने लगा। 'शाकेणालिवहन-संवत् वही शक-संवत् था, पर नाम उसे शालिवाहन का और दे दिया गया।
शक-संवत् विक्रम संवत् से 135 वर्ष उपरान्त अर्थात् 78 ई० में स्थापित हुआ। इस प्रकार विक्रम सं० से 135 वर्ष का अन्तर शक-मंवन में है और ईस्वी सन् से 78 वर्ष का। पूर्वकालीन शक-संवत्
यह विदित होता है कि शकों ने अपने प्रथम भारत-विजय के उपलक्ष्य में 71 या 61 ई० पू० में एक संवत् चलाया था। इसे पूर्वकालीन शक-संवत् कह सकते हैं। विम कडफिस का राज्य-काल इसी संवत् के 19 1वें वर्ष में समाप्त हुआ था। यह संवत् उत्तर पश्चिमी भारत के कुछ क्षेत्र में उपयोग में आया था। बाद का शक-संवत् पहले दक्षिण में प्रारम्भ हुआ फिर समस्त भारत में प्रचलित हुआ। जैसा ऊपर बताया जा चुका है यह 78वें ईस्वी संवत् में प्रारम्भ हुआ था । कुषाण-संवत्
(यही कनिष्क संवत् भी कहलाता है)
इसकी स्थापना सम्राट कनिष्क ने ही की थी। वह संवत् कुछ इस तरह लिखा जाता था --- "महाराजस्य देवपुत्रस्य कणिकस्य मंवत्सरे 10 ग्रि 2दि 9।" इसका अर्थ था कि महाराजा देव पुत्र कनिष्क के संवत्सर 10 की ग्रीष्म ऋतु के दूसरे पाख के नवमें दिन या नवमी तिथि को।।
कनिष्क ने यह संवत् ई० 120 में चलाया था । इसका प्रचलन प्रायः कनिष्क के वंशजों में ही रहा । 100 वर्ष के लगभग ही यह प्रचलित रहा होगा। इसके बाद उसी क्षेत्र में पूर्वकालीन शक-संवत् का प्रचार हो गया । कृत, मालव तथा विक्रम संवत्
कृत, मालव तथा विक्रम संवत् नाम से जो संवत् चलता है वह राजस्थान और मध्यप्रदेश में संवत् 282 से उपयोग में आता मिलता है ।
ये नाम तो तीन हैं : पहले 'कृत-संवत्' का उपयोग मिलता है, बाद में इसे मालव कहा जाने लगा और उसके भी बाद इसी को 'विक्रम-संवत्' भी कहा गया। अाज विद्वान इस तथ्य को कि कृत, मालव तथा विक्रम संवत् एक संवत् के ही नाम हैं निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं । इन नामों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं : 1. "कृतयोंर्द्वयोवर्ष शतयोर्द्वय शीतयौं : 200+80+2 चैत्र पूर्णमास्याम्" ।। 2. श्री मालवगरणाम्नाते प्रशस्ते कृतसंज्ञिते । कष्टयधिके प्राप्ते समाशत चतुष्टये । दिने
1. Pandey. R. B.-Indian Palaeography, p. 199.
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काल निर्धारण/261
आम्बोज शुक्लस्य पचमयामथ सत्कृते ।। इसमें कृत को मालवगण का संवत् बताया गया है। मालवकालाच्छरदां षटत्रिंशत्-संयुते प्वतीतेषु । नवसु शतेषु मघाविह।। इसमें केवल मालव-काल का उल्लेख हुअा है । विकम संवत्सर 1103 फाल्गुन शुक्ल पक्ष तृतीया ।
इसमें केवल 'विक्रम संवत्' का उल्लेख है । 1103 के बाद विक्रम नाम का ही विशेष प्रचार रहा और प्रायः समस्त उत्तरी भारत में यह संवत् प्रचलित हो गया (बंगाल को छोड़ कर)।
यह संवत् 57 ई० पू० में प्रारम्भ हुआ था इसमें 135 जोड़ देने से शक-संवत् मिल जाता है।
विक्रम संवत् के सम्बन्ध में ये बातें ध्यान में रखने योग्य हैं :
1. उत्तर में इस संवत का प्रारम्भ चैत्रादि है। चैत्र के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से यह चलता है।
2. यह उत्तर में पूर्गिणमान्त है-पूर्णिमा को समाप्त माना जाता है।
3. दक्षिण में यह कार्तिकादि है । कार्तिक के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है और 'अमान्त' हैं, अमावस्या को समाप्त हुया माना जाता है । गुप्त संवत् तथा वलभी संवत्
विद्वानों का निष्कर्ष है कि गुप्त-संवत् चन्द्रगुप्त-प्रथम द्वारा चलाया गया होगा । इसका प्रारम्भ 319 ई० में हुआ। यह चैत्रादि संवत् है और चैत्र के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है । इसका उल्लेख 'गतवर्ष' के रूप में होता है, जहाँ 'वर्तमान' वर्ष का उल्लेख है, वहाँ एक वर्ष अधिक गिनना होगा।
वलभी (सौराष्ट्र) के राजाओं ने गुप्त-संवत् को ही अपना लिया था पर उन्होंने अपनी राजधानो 'वलभी के नाम पर इस संवत् का नाम 'गुप्त' से बदल कर 'वलभी' संवत् कर दिया था, क्योंकि वलभी संवत् भी 319 ई० में प्रारम्भ हुग्रा, अतः गुप्त और वलभी में कोई अन्तर नहीं। हर्ष-संवत्
यह संवत् श्री हर्ष ने चलाया था। श्री हर्ष भारत का अन्तिम सम्राट माना जाता है। अलबरूनी ने बताया कि एक काश्मीरी पंचांग के आधार पर हर्ष विक्रमादित्य से 664 वर्ष बाद हुआ। इस दृष्टि से हर्ष-संवत् 599 ई० में प्रारम्भ हुआ। हर्ष-संवत् उत्तरी भारत में ही नहीं नेपाल में भी चला और लगभग 300 वर्ष तक चलता रहा ।
ये कुछ संवत् अभिलेखों और शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि के आधार पर प्रामक्षिक हैं। इन्हें प्रमुख संवत् कहा जा सकता है। इनको ऐतिहासिक हस्तलेखों के काल-निर्धारमा में सहायक माना जा सकता है ।
पर, भारत में और कितने ही संवत् प्रचलित हैं जिनका ज्ञान होना इसलिये भी
1. वही, पृ. 2001 2. वही, पृ० 2011
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262 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
आवश्यक है कि पांडुलिपि - विज्ञानार्थी को न जाने कब किस सन् संवत् से साक्षात्कार हो
जाय ।
सप्तर्षि संवत्
लौकिक-काल, लौकिक-संवत्, शास्त्र-संवत्, पहाड़ी-संवत् या कच्चा - संवत् । ये सप्तर्षि-संवत् के ही विविध नाम हैं :
इसे सप्तर्षि -
पंजाब में भी था । आधार पर कहा गया है । ये
इस
सप्तर्षि - संवत् काश्मीर में प्रचलित रहा है । पहले संवत् सप्तर्षि (सातों तारों के विख्यात मंडल) की चाल के सप्तर्षि 27 नक्षत्रों में से प्रत्येक पर 100 वर्ष रुकते हैं । प्रकार 2700 वर्षों में ये एक चक्र पूरा करते हैं । यह चक्र काल्पनिक ही बताया गया है । फिर नया चक्र आरम्भ करते हैं । इस संवत् को लिखते समय 100 वर्ष पूरे होने पर शताब्दी का अंक छोड़ देते हैं, फिर 1 से आरम्भ कर देते हैं। इस संवत् का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है और इसके महीने पूर्णिमांत होते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कि उत्तरी भारत में विक्रम संवत् के होते हैं ।
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इसका अन्य संवतों से सम्बन्ध इस प्रकार है :
शक से - शताब्दी के अंक रहित सप्तर्षि-संवत् में 46 जोड़ने से शताब्दी के अंकरहित शक (गत ) संवत् मिलता है। 81 जोड़ने से चैत्रादि विक्रम (गत ), 25 जोड़ने से कलियुग (गत ), और 24 या 25 जोड़ने से ई० सं० आता है ।
कलियुग - संवत्'
भारत-युद्ध - संवत् एवं युधिष्ठर संवत् भी यही है :
यह सामान्यतः ज्योतिष ग्रन्थों में लिखा जाता है, पर कभ-कभी शिलालेखों पर भी मिलता है ।
बुद्ध-निर्वाण सवत्
इसका प्रारम्भ ई०पू० 3102 से माना जाता है ।
चैत्रादि गत विक्रम संवत् में 3044 जोड़ने से,
गत शक संवत् में 3179 जोड़ने से,
और ईसवी सन् ये 3101 जोड़ने से गत कवियुग संवत् ग्राता है ।
J.
बुद्ध - निर्वाण के वर्ष पर बहुत मतभेद हैं। पं० गौरीशंकर हीराचन्द श्रभाजी 487 ई०पू० में अधिक सम्भव मानते हैं । अतः बुद्ध-निर्वारण संवत् का प्रारम्भ 487 ई०पू० से माना जा सकता है । बुद्ध-निर्वाण-संवत् का उल्लेख करने वाले शिलालेखादि संख्या में बहुत कम मिले हैं।
बार्हस्पत्य-संवत्सर
ये दो प्रकार के मिलते हैं एक 12 वर्ष का दूसरा 60 वर्ष का ।
कलियुग - संवत् भारत-युद्ध की समाप्ति का द्योतक है और युधिष्ठिर के राज्यारोहण का भी । अतः इसे भारत युद्ध - सवत् एवं युधिष्ठिर संवत् कहते हैं । कलियुग नाम से यह न समझना चाहिये कि इसी संवत् से कलि आरम्भ हुआ । कलियुग कुछ वर्ष पूर्व आरम्भ हो चुका था ।
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काल निर्धारण 263
बारह वर्ष का
ईसवी सन् की सातवीं शताब्दी से पूर्व इस संवत् का उल्लेख मिलता है। बृहस्पति की गति के आधार पर इसका 12 वर्ष का चक्र चलता है। इसके वर्ष महीनों के नाम चंत्र, वैशाखादि पर ही होते हैं पर बहुधा उनके पहले 'महा' शब्द लगा दिया जाता है, जैसे--महाचैत्र, महाफाल्गुन आदि । अस्त होने के उपरान्त जिस राशि पर बृहस्पति का उदय होता है, उस राशि या नक्षत्र पर ही उस वर्ष का माम 'महा' लगा कर बताया जाता है। साठ (60) वर्ष का
दूसरा संवत्सर 60 वर्ष के चक्र का है। बृहस्पति एक राशि पर एक वर्ष के 361 दिन, 2 घड़ी और 5 पल ठहरता है । इसके 60 वर्षों में से प्रत्येक को एक विशेष नाम दिया जाता है। इन साठ वर्षों के ये नाम हैं :
1. पूभव, 2. विभव, 3. शुक्ल, 4. प्रमोद, 5. प्रजापति, 6. अंगिरा, 7. श्रीमुख, 8. भाव, 9. युवा, 10. धाता, 11. ईश्वर, 12. बहुधाय, 13. प्रभायी, 14. विक्रम, 15. वृष. 16. चित्रभानु, 17. सुभानु, 18. तारग, 19. पाथिव, 20. व्यय, 21. सर्वजित, 22. सर्वधारी, 23. विरोधी, 24. विकृति, 25. खर, 26. नन्दन, 27. विजय, 28. जय, 29. मन्मथ, 30. दुर्भुख, 31. हेमलव, 32. विलंबी, 3... विकारी, 31. शार्वरी, 35. प्लव, 36. शुभकृत, 37. शोभन, 38. क्रोधी, 39. विश्वावसु, 40. पराभव, 41. प्लवन, 42. कीलक, 4.2. सौम्य, 44. साधारण, 5. विरोधकृत, 46. परिधावी, 47. प्रभादी, 48. प्रानन्द, 49. राक्षस, 50. अनल, 51. पिंगल, 52. कालयुक्त, 53. सिद्धार्थी, 54. रौद्र, 55. दुर्मति, 56. दुंदुभी, 57. रुधिरोद्गारी, 58. रक्ताक्ष, 59. क्रोधन और 60. क्षय ।।
इस संवत्सर का उपयोग दक्षिण में ही अधिक हुआ है उत्तरी भारत में बहुत कम । बार्हस्पत्य-संवत् का नाम निकालने की विधि वाराहमिहिर ने यों बतायी है
जिस शक संवत् का वार्हस्पत्य वर्ष नाम मालूम करना इष्ट हो उसका गत शक संवत् लेकर उसको 11 से गुरिणत करो, गुणनफल को चौगुना करो, उसमें 8589 जोड़ दो जो जोड़ पाये उसमें 3750 से भाग दो, भजनफल को इष्ट गत शक संवत् में जोड़ दो जो जोड़ मिले उसमें 60 का भाग दो, भाग देने के बाद जो शेष रहे उस संख्या को यह उक्त प्रभवादि सूची में जो नाम क्रमात् पाये वही उस इष्ट गत शक संवत् का बार्हस्पत्य-वर्ष का नाम होगा।
दक्षिण बार्हस्पत्य-संवत्सर का नाम यों निकाला जा सकता है कि 38 गत शक संवत् में 12 जोड़ों और योगफल में 60 का भाग दो-जो शेष बचे उस संख्या का वर्ष नाम अभीष्ट वर्ष नाम है या इष्ट गत कलियुग-संवत् में उस नियमानुसार पहले 12 जोड़ो, फिर 60 का भाग दो-जो शेष बचे उसी संख्या का प्रभवादि क्रम से नाम बार्हस्पत्य-वर्ष का अभीष्ट नाम होगा। ग्रह परिवृत्ति-संवत्सर
यह भी 'चक्र प्राश्रित' मंवत् है। इसमें 90 वर्ष का चक्र रहता है । 90 वर्ष पूरे होने पर पुनः 1 से प्रारम्भ होता है । इसमें भी शताब्दियों की संख्या नहीं दी जाती, केवल वर्ष संख्या ही रहती है, इसका प्रारम्भ ई० पूर्व 24 से हुआ माना जाता है।
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264/पांडुलिपि-विज्ञान
इस संवत् को निकालने की विधि-..
1. वर्तमान कलियुग संवत् में 72 जोड़ कर 90 का भाग देने पर जो शेष रहे वह संख्या ही इस संवत्सर का वर्तमान वर्ष होगा।
2. वर्तमान शक संवत् में 11 जोड़कर 90 का भाग दीजिये । जो शेष बचे उसी संख्या वाला इस संवत्मर का वर्तमान वर्ष होगा। हिजरी सन्
यह सन् मुसलमानों में चलने वाला सन् है । मुसलमानों के भारत में आने पर यह भारत में भी चलने लगा।
__इसका प्रारम्भ 15 जुलाई 622 ई० तथा संवत् 679 श्रावण शुक्ला 2, विक्रमी की शाम से माना जाता है, क्योंकि इसी दिन पैगम्बर मुहम्मद साहब ने मक्का छोड़ा था, इस छोड़ने को ही अरबी में 'हिजरह' कहा जाता है। इसकी स्मृति का सन् हुआ हिजरी सन् । इस सन् की प्रत्येक तारीख सायंकाल से प्रारम्भ होकर दूसरे दिन सांयकाल तक चलती है। प्रत्येक महीने के 'चन्द्र दर्शन' से महीने का प्रारम्भ माना जाता है, अतः यह चन्द्र वर्ष है।
___ इसके 12 महिनों के नाम ये हैं : 1-मुहर्रम, 2-सफर, 3-रवी उल अव्वल, 4रवी उल आखिर या रवी उस्सानी, 5-जमादि उल अव्वल, 6-जमादिउल आखिर या जमादि उस्सानी, 7-रजब, 8-शाबान, 9-रमजान, 10-शव्वाल, 11-जिल्काद और 12जिलहिज्ज । म० भ० अोझा जी ने बताया है कि 100 सौर वर्षों में 3 चन्द्र वर्ष 24 दिन
और 9 घड़ी बढ़ जाती हैं । ऐसी दशा में ईसवी सन् (या विक्रम संवत्) और हिजरी सन् का परस्पर कोई निश्चित अन्तर नहीं रहता, वह बदलता रहता है। उसका निश्चय गणित से ही होता है। 'शाहूर' सन् 'सूर' सन् या 'अरबी सन्
इसका प्रारम्भ 15 मई, 1344 ई० तद्नुसार ज्येष्ठ शुक्ल 2,1401 विक्रमी से जबकि सूर्य भृगशिर नक्षत्र पर आया था, 1 मुहर्रम हिजरी सन् 745 से हुआ था, इसके महीनों के नाम हिजरी सन् के महीनों के नाम पर ही हैं । पर, इसका वर्ष सौर वर्ष होता है, हिजरी की तरह चन्द्र नहीं। जिस दिन सूर्य मृगशिर नक्षत्र पर आता है, 'मृगेरवि'; उसी दिन से इसका नया वर्ष प्रारम्भ होता है, अतः इसे 'मृग-साल' भी कहा जाता है।
इस सन् में 599-600 मिलाने से ईसवी सन् मिलता है और 656-657 जोड़ने से से विक्रम संवत् मिलता है । इस सन् के वर्ष अंकों की बजाय अंक द्योतक अरबी शब्दों में लिखे जाते हैं । यह सन् मराठी में काम में लाया जाता था। मराठी में अंकों के द्योतक अरबी शब्दों में कुछ विकार अवश्य पा गया है, जो भाषा-वैज्ञानिक-प्रक्रिया में स्वाभाविक है। नीचे अंकों में लिये अरबी शब्द दिये जा रहे हैं और कोष्ठक में मराठी रूप । यह मराठी रूप अोझाजी ने मोलेसेवर्थ के मराठी अंग्रेजी कोश मे दिये हैं :
1--अहद् (अहदे, इहदे) 2-अन्ना (इसन्ने) 3-सलालह (सल्लीस)
-अखा
....
1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, . 190
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5- दुम्मा (खम्मस)
6 - सित्त ( सिन 5 = सित्त)
7- सवा (सब्बा)
8- समानिया ( सम्मान)
9 - तसा ( तिस्सा)
10- अशर
11- अहद् अशर
12- अस्ता ( इसने ) अशर
13 - सलासह (सल्लास ) अशर
14- श्ररबा अशर
20- प्रशरीन्
30- सलासीन (सल्लासीन)
40- अरबईन्
50 - खम्सीन्
60 - सित्तीन ( सित्तन)
70 - सवीन् (सब्बैन)
80 - समानीन ( सम्मानीन)
90 - तिसईन ( तिस्सन)
100 - माया (मया )
200 - मतीन (मयातन)
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काल निर्धारण / 265
300 - सलास माया (सल्लास माया)
400 अरबा माया
1000 - लफ् (अलफ )
10000 - अशर अलफ्
इन अंक-सूचक शब्दों में सन् लिखने से पहिले शब्द से इकाई, दूसरे से दहाई, तीसरे से सैंकड़ा और चौथे से हजार बतलाये जाते हैं जैसे कि 1313 के लिए 'सलासो श्रो सलास माया व अलफ '1 लिखा जायेगा ।
फसली सन्
यह सन् अकबर ने चलाया । फसली शब्द से ही विदित होता है कि इसका 'फसल' से सम्बन्ध है । 'रबी' श्रौर 'खरीफ' फसलों का हासिल निर्धारित महीनों में मिल सके इसके लिये इसे हिजरी सन् 971 में अकबर ने प्रारम्भ किया । हिजरी 971 वि० सं० 1620 में और ईस्वी 1563 में पड़ा। इस फसली सन् में वर्ष तो हिजरी के रखे गये पर वर्ष सौर (चांद्रसौर) वर्ष के बराबर कर दिया गया। महीने भी सौर ( या चन्द्रसौर) भान के माने गये ।
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यह सन् अब तक भी कुछ न कुछ प्रचलित है, पर अलग-अलग क्षेत्र में इसका आरम्भ अलग-अलग माना जाता है, यथा :
1.
भारतीय प्राचीन लिपिमाला. पृ० 191 ।
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266/पाण्डुलिपि-विज्ञान
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पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा बंगाल में इसका आरम्भ आश्विन, कृष्णा 1 (पूर्णिमान्त) से, अतः इस सन में 592-93 जोड़ने से ईसवी सन् और 649-50 जोड़ने से विक्रम सं० मिल जाता है।
दक्षिण में यह संवत् कुछ बाद में प्रचलित हुआ । इससे उत्तरी और दक्षिणी फसली 'सनों' में सवा दो वर्ष का अन्तर हो गया--दक्षिण के फसली सन् से विक्रम संवत् जानने के लिये उसमें 647-48 जोड़ने होंगे और ईसवी सन के लिये 590-91 जोड़ने होंगे :
संवतों का सम्बन्ध सन् प्रचलित प्रारम्भ
मास और वर्ष सौर
विक्रम सं० ईसवी सन्
निकालना निकालना 1
5 विलायती सन् उड़ीसा तथा बंगाल सौर आश्विन अर्थात् कन्या संक्राति । मासक्रम चैत्रादि
649-50 592-93 के कुछ भागों में जिस दिन संक्रान्ति का प्रवेश उसी
जोड़ने से जोड़ने से दिन पहला दिन अमली सन् उड़ीसा के व्यापा- भाद्रपद शुक्ला 12 से
रियों में एवं कच
हरियों में बंगाली सन् या बंगाल में सौर बैशाख, मेष संक्रान्ति से
महीने सौर (मतः पाख, एव तिथि नहीं) 650-51 593-94 बंगालाब्द बंगीब्द संक्रान्ति प्रवेश के दूसरे दिन से
जोड़ने से जोड़ने से चिटगाँव में ___ बंगाली सन् से 45 वर्ष पीछे
595-96 638-39
जोड़ने से जोड़ने से इलाही सन् अकबर ने हिजरी अकबर के राज्यारोहण की तिथि 2 ईरानी : ईरानी महीनों के अनुसार इस 1912 1555--56
सन् के स्थान पर रबी उस्सानी हिजरी 963 से 25 सन् के महीनों के नाम 1-फरवर- जोड़ने से जोड़ने से प्रचलित किया दिन पीछे ईरानी वर्ष के पहिले महीन दीन 2-उदिवहिश्त, 3-खुर्दाद, 4-तीर,
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फरवरदीन के पहले दिन से, तद्नुसार 5-अमरदाद, 6-शहरेवर, 7-मेहर, 11 मार्च 1556 ई० चैत्र कृष्णा 8-आवाँ (माबान्), 9--प्राज़र (प्रादर), अमावस सं0 1612 से ।
10-दे, 11-बहमन, 12--अस्फदिपारमद् ईरारी सन् के अनुसार दिनों के अंक नहीं होते शब्दों में उनके नाम दिये जाते हैं । संख्या क्रम से नाम ये हैं : 1-अहुर्मज्द, 2-बहमन, 3-3 5-स्पंदारमद्, 6-खुर्दाद, 7-मुरदाद (अमरदाद), 8-देपाहर, 9-प्राजर (प्रादर), 10-आवाँ (आवान्), 11खुरशेद्, 12-माह (म्होर), 13-तीर, 14-गोश, 15-देपमेहर, 16-मेहर, 17-सरोश, 18-रश्नह, 19-फरवरदीन, 20-बेहराम, 21-राम, 22--गोवाद, 23-देपदीन, 24--दीन, 25-अर्द (प्राशीश्वंग) : आस्ताद्, 27-प्रास्मान्, 28जमिश्राद, 29--मेहरेस्पंद, 30-अनेरा, 31-रोज, 32-शव । इनमें से 30 तो ईरानियों के दिनों (तारीखों) के ही हैं
और अन्तिम दो नये रखे गये हैं 11 1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 193।
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काल निर्धारण/267
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ime-
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268/पाण्डुलिपि-विज्ञान
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6 कलचुरी संवत् 1. किसने चलाया 26 अगस्त 249 ई० तद्नुसार
305-6 248-49 या येरिसंवत् अज्ञात ! आश्विन शुक्ल 1, सं० 306 से
जोड़ने से जोड़ने से कुटक 2. दक्षिण गुजरात आरम्भ
गत चैत्रादि कोकण, मध्य
विक्रम सं० प्रदेश के शिला
लेखों में। 3. चालुक्य, गुर्जर, सद्रक, कलचुरी, कूटक वंश के राजाओं के हैं । ई. सन् 1207 के बाद
इसका प्रचलन बन्द । भाटिक (भट्टीक) जैसलमेर । भाटी राजाओं के पूर्वज भट्टिक
680-81 623-24 संवत् द्वारा।
जोड़ने से
जोड़ने से कोल्लम (कोलम्ब) मलाबार से कन्या- उत्तरी मलाबार में कन्या संक्रांति वर्ष सौर महिनों के नाम संक्रांति नाम
824-25 या परशुराम कमारी एवं पिन- सौर आश्विन से प्रारम्भ । दक्षिणी से या चैत्रादि नाम से वर्तमान संवत
जोड़ने से संवत् वैल्लि
मलाबार में सिंह-संक्रान्ति सौर
भाद्रपद से। नेवार (नेपाल) नेपाल में प्रचलित 20 अक्टूबर 879 ई. तद्नुसार
गत नेपाल सं. गत में संवत् कार्तिक शु. 1936 वि. सं.
में 935-36 878-79 (चैत्रादि) से
जोड़ने से जोड़ने से
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काल निर्धारण 269
संवतों और सनों का यह विवरण संक्षेप में दिया गया है। हस्तलेखों में विविध मंवतों और सनों का उपयोग मिलता है। उन संवतों के परिज्ञान से ऐतिहासिक कालक्रम में उन्हें बिठाने में सहायता मिलती है, इससे काल-निर्णय की समस्या का समाधान भी एक मीमा तक होता है। इस परिज्ञान की इतिहासकार को तो आवश्यकता है ही, पांडुलिपिविज्ञानार्थी के लिये भी है, और कुछ उससे अधिक ही है, क्योंकि यह परिज्ञान पांडुलिपिविज्ञानार्थी की प्रारम्भिक आवश्यकता है, जबकि इतिहासकार के लिये भी सामग्री प्रदान करने वाला यह विज्ञानार्थी ही है।
सन्-संवत् को निरपेक्ष कालक्रम (Absolute chronology) माना जाता है, फिर प्रत्येक सन या संवत अपने ग्राप में एक अलग इकाई की तरह राज्य-काल-गणना की तरह काल-क्रम को ठीक विठाने में अपने आप में सक्षम नहीं है । अशोक के राज्यारोहण के पाठवें या बारहवें वर्ष का ऐतिहासिक कालक्रम में क्या महत्त्व या अर्थ है। मान लीजिये अशोक कोई राजा 'क' है, जिसके सम्बन्ध में हमें यह ज्ञात ही नहीं कि वह कब गद्दी पर बैठा । इस 'क' के राज्य वर्ष का ठीक ऐतिहासिक काल-निर्धारण तभी सम्भव है जब हमें किसी प्रकार की अपनी परिचित काल-क्रम की शृंखला, जैसे ई० सन् या वि० सं० में 'क' के राज्यारोहण का वर्ष विदित हो, अतः किसी अन्य साधन से अशोक का ऐतिहासिक काल-निर्धारण करना होगा । जैसा कि हम पहले देख नुके हैं, अशोक ने तेरहवें शिलालेख में समसामयिक कुछ विदेशी राजाओं के नाम लिये हैं जैसे-यूनानी राजा आंतिप्रोकस द्वितीय का उल्लेख है और उत्तरी अफ्रीका के शासक द्वितीय टालेमी का भी है। टालेमी का शासन-काल ई० पू० 288-47 था । डॉ. वासुदेव उपाध्याय ने बताया है कि 'इस तिथि 282 में से 12 वर्ष (अभिषेक के 8वें वर्ष में तेरहवाँ लेख खोदा गया तथा अशोक अपने अभिषेक से चार वर्ष पूर्व सिंहासनारूढ़ हुया था) घटा देने में ई०पू० 270 वर्ष अशोक के शासक होने की तिथि निश्चित हो जाती है। अतः अशोक 'क' के समकालीन 'ख', 'ग' की निर्धारित तिथि के आधार पर 'क' के राज्यारोहण की तिथि निर्धारित की जा सकी।
इसी प्रकार विविध संवतों में भी परस्पर के सम्बन्ध का सूत्र जहाँ उपलब्ध हो जायगा वहाँ एक को दूसरे में परिणा करके परिचित या ख्यात कालक्रम-शृंखला बैठाकर सार्थक काल-निर्णय किया जा सकता है।
यथा 'लक्ष्मणसेन संवत्' के निर्धारण में ऐसे उल्लेखों में सहायता मिलती है जैसे 'स्मृति तत्वामृत' तथा 'नरपतिजय चयां टीका' नामक हस्तलिखित ग्रन्थों में मिले हैं । पहली में पुष्पिका में ल० सं० 505 शाके 1546' और दूसरी में 'शाके 1536 ल'
उपाध्याय, वासुदेव (डॉ.) प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ. 210 सी. एम. डफ ने 'द क्रोनोलाजी आप इंडियन हिस्ट्री' में इस सम्बन्ध में यों लिखा है :-Among hi, Contemporaries were Antioth:s ll of Syria (B. C. 260-247), Ptolemy PhiladeIphos (285-247), Antigonos gonatos of Makedomia (278-242), Magas of kyrene (d. 258), and Alexander of eperios (between 262 and 258), who have been identified with the kings mentioned in his thirteenth edict, Senart has come to somewhat different conclusions regarding Asoka's initial date Faking the synchronism of the greek kings as the basis of his calculation, he fixes. Asoka's accession in B.C. 273 and His coronation in 269..
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270/पाण्डुलिपि-विज्ञान
सं० 494 लिखा है । लक्ष्मणसेन के एक संवत् के समकालीन समकक्ष दूसरे शक-संवत् का उल्लेख है। इससे दोनों का अन्तर विदित हो जाता है और हम जान जाते हैं कि यदि लक्ष्मणसेन संवत् में 1041 जोड़ दिये जायें तो शक संवत् मिल जायेगा। शक संवत से अन्य संवतों और सन् के वर्ष ज्ञात हो सकेंगे। फलतः किसी अन्य संवत् से सम्बन्ध होता है, तो काल-चक्र में यथास्थान बिठाने में सहायता मिलती है।
___ कुछ ऐसे सन् या संवत् भी हैं, जिनसे किसी अज्ञात संवत् का सम्बन्ध ज्ञात हो जाय तब भी काल-क्रम में ठीक स्थान जानना कठिन रहता है और इसके लिये विशेष गरिणत का सहारा लेना पड़ता है । जैसे हिजरी सन् से संवत् विदित भी हो जाय तब भी गणित की विशेष सहायता लेनी पड़ती है क्योंकि इसके महीने और वर्षों का मान बदलता रहता है क्योंकि यह शुद्ध चान्द्र-वर्ष है। पंचांगों में यदि इस संवत् का भी उल्लेख हो तो उसकी सहायता से भी इसको काल-क्रम में ठीक स्थान या काल जाना जा सकता है। संवत्-काल जानना
भारत में काल-संकेत विषयक कुछ बातें ऊपर बतायी जा चुकी हैं। अब तक हम देख चुके हैं कि पहले राज्यवर्ष का उल्लेख और उस वर्ष का विवरण अक्षरों में दिया गया, बाद में अक्षरों और अंकों दोनों में, और फिर अंकों में ही। बाद में ऋतुओं के भी उल्लेख हुए-ग्रीष्म, वर्षा और हेमन्त, ये तीन ऋतुएँ बतायी गई, उनके पास (पक्ष) और उनके दिन भी दिये गये । आगे महीनों का उल्लेख भी हुआ। राज्य-वर्ष से भिन्न एक संवत् का
और उल्लेख किया जाने लगा। नियमित संवत् के प्रचार से राज्य-वर्ष के उल्लेख की प्रथा धीरे-धीरे उठ गई, संवत् के साथ महीने, शुक्ल या कृष्ण पक्ष, तिथि और बार या दिन को भी बताया जाने लगा।
इतने विस्तृत विवरण के साथ और भी बातें दी जाने लगीं-जैसे-शशि, संक्रान्ति, नक्षत्र, योग, करण, लग्न, मुहूर्त आदि ।
इस सम्बन्ध में यह जानना आवश्यक है कि भारत में दो प्रकार के वर्ष चलते हैं सौर या चान्द्र ।
वर्ष का प्रारम्भ कार्तिकादि, चैत्रादि ही नहीं होता आषाढ़ादि और श्रावणादि भी होता है।
सौर वर्ष राशियों के अनुसार बारह महीनों में विभाजित होता है, क्योंकि एक राशि पर सूर्य एक महीने रहता है, तब दूसरी राशि में संक्रमण करता है, इसलिये वह दिन संक्रान्ति कहलाता है, जिस राशि में प्रवेश करता है उसी की संक्रान्ति मानी जाती है, उसी दिन से सूर्य का नया महीना आरम्भ होता है।
बारह राशियाँ इस प्रकार हैं : ___1. मेष मेष राशि से सौर वर्ष प्रारम्भ होता है, यह मेष राशि का महीना बंगाल में बैशाख और तमिलभाषी क्षेत्र में चैत्र (या चित्तिरह) कहलाता है] | 2. वृष, 3. मिथुन, 4. कर्क, 5. सिंह, 6. कन्या, 7. तुला, 8. वृश्चिक, 9. धनुष, 10. मकर, 11. कुम्भ तथा 12. मीन । मेष से मीन तक सूर्य की राशि-यात्रा भी प्रारम्भ से अन्त तक एक वर्ष में होती है। पंजाब तथा तमिलभाषी क्षेत्रों में सौर माह का प्रारम्भ उसी दिन से माना जाता है जिस दिन संक्रान्ति होती है, पर बंगाल में संक्रान्ति के दूसरे दिन से महीने
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काल निर्धारण/271
का प्रारम्भ होता है । सौर माह राशियों के नाम से होता है । सौर माह में तिथियाँ 1 से चलकर महीने के अन्तिम दिन तक की गिनती में व्यक्त की जाती हैं । सौर माह, 29, 30, 31 या 32 दिन का होता है, अतः इसकी तिथियाँ एक से चलकर 29, 30, 31, 32 तक चली जाती हैं। चान्द्र वर्ष में ऐसा नहीं होता। उसमें महीना पहले दो पाखों में बाँटा जाता है । कृष्णपक्ष और शुक्ल पक्ष बदी या सुदी ये दो पाख प्रायः 15+15 तिथियों के होते हैं। ये प्रतिपदा से अमावस होकर द्वितीया (दौज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पाँच), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातें), अष्टमी (आठे), नवमी (नौमी), दशमी (दसमी), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस), पूर्णिमा (15) और अमावस्या (30) तक चलती है। ये सभी तिथियाँ कहलाती हैं और 15 तक की गिनती में होती हैं। उत्तरी भारत में चान्द्रवर्ष का मास पूणिमान्त माना जाता है क्योंकि पूर्णिमा को समाप्त होता है और कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है । नर्मदा के दक्षिण के क्षेत्र में चान्द्रवर्ष का महीना अमान्त होता है और शुक्ल पक्ष (सुदी) की प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है।
चान्द्रवर्ष के महीने उन नक्षत्रों के नाम पर रखे गये हैं जिन पर चन्द्रमा पूर्णकलाओं मे युक्त होता है, यानी पूर्णिमा के दिन से नक्षत्र और महिनों के नाम इस प्रकार हैं :
1. चित्रा-चंत्र (चैत) 2. विशाखा-वैशाख (वैसाख) 3. ज्येष्ठा-ज्येष्ठ (जेठ) । 4. अषाढ़ा-आषाढ़ (प्रसाढ़) 5. श्रवण-श्रावण (सावन) 6. भद्रा-भाद्रपद (भादों) 7. अश्विनी-आश्विन (या आश्वयुज) = (क्वार) 8. कृतिका-कार्तिक (कातिक) 9. मृगशिरा-मार्गशीर्य (आग्रहायन-अगहन)
('अग्रहायन' सबसे आगे का 'अयन'--यह नाम सम्भवतः इसलिये पड़ा कि बहुत प्राचीन काल में वर्ष का प्रारम्भ चैत्र से न होकर 'मार्ग शीर्ष'
से होता था-अतः यह सबसे पहला या अगला महिना था ।) 10. पुष्य-पौष (पूस या फूस) 11. मघा-माघ 12. फाल्गु-फाल्गुण
काल-संकेतों में कभी-कभी 'योगों' का उल्लेख भी मिलता है। 'योग' सूर्य और चन्द्रमा की गति की ज्योतिष्कीय संगति को कहा जाता है। ऐसे योग ज्योतिष के अनुसार 27 होते हैं। इन्हें भी नाम दिया गया है। अतः नाम से 27 योग ये हैं---1. विष्कंभ, 2. प्रीति, 3. आयुष्मत, 4. सौभाग्य, 5. शोमन, 6. अतिगंड 7. सुकर्मन, 8. धृति, 9. शूल, 10. गण्ड, 11. वृद्धि, 12. ध्र व, 13. व्याधात, 14. हर्षण, 15. बज्र, 16. सिद्धि या अस्त्रज, 17. व्यतीपात, 18. वरीयस, 19. परिधि, 20. शिव, 21. सिद्ध, 22. साध्य, 23. शुभ, 24. शुक्ल, 25. ब्रह्वन्, 26. ऐन्द्र तथा 27. वैघति ।
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272 /पाण्डुलिपि-विज्ञान
'योग' की भाँति ही 'करण' का भी उल्लेख होता है। करण तिथि के अर्धाश को कहते हैं, और इनके भी विशिष्ट नाम रखे गये हैं : पहले सात करण होते हैं जिनके नाम हैं : 1. बव, 2. बालव, 3. कौलव, 4. तैतिल, 5. गद, 6. वरिणज एवं 7. विष्टि (भांद्र या कल्याण)। ये सात चक्र के रूप में आठ बार प्रयोग में आते हैं और इस प्रकार 56 अर्द्ध तिथियों का काम देते हैं । ये 56 अर्द्ध तिथियाँ सुदी प्रतिपदा से लेकर बदी 14 (चौदस) तक पूरी होती हैं। अब चार अर्द्ध तिथियाँ शेष रहती हैं, बदी का चौदस से सुदी प्रतिपदा तक की-इन करणों के नाम हैं : 8. शकुनि, 9. चतुष्पद, 10. किन्तुघ्न और 11. नाग । काल संकेतों में कभी-कभी करण का नाम भी पा जाता है, जैसे 1210 विक्रमी के अजमेर के शिलालेख में ।
भारतीय कालगणना के आधार सीधे और सपाट न होकर जटिल हैं। इससे कालनिर्णय में अनेक अड़चनें पड़ती हैं :
पहले, तो यह जानना ही कठिन होता है कि वह संवत् कार्तिकादि, चैत्रादि, आषाढ़ादि या श्रावणादि है, दूसरे--प्राभान्त है या पूणिमान्त है। फिर,
तीसरे-ये वर्ष कभी वर्तमान (या प्रवर्तमान) रूप में कभी गत विगत या प्रतीत रूप में लिखे जाते हैं। इनकी और पहले 'वीसलदेव रासो' के काल-निर्णय के सम्बन्ध में डॉ० माताप्रसाद गुप्त का उद्धरण देकर ध्यान आकर्षित कर दिया जा चुका है।
इन सबसे बढ़कर कठिनाई होती है इस तथ्य से कि तिथि लिखते समय लेखक से गणना में भी भूल हो जाती है ।
यह त्रुटि उस गणक या ज्योतिषी के द्वारा की जा सकती है जो लेख लिखने वाले को बताता है। उसका गणिक का ज्ञान या ज्योतिष का ज्ञान सदोष हो सकता है। पत्रों या पंचांगों में भी दोष पाये जाते हैं। आज भी कभी-कभी वाराणसी और उज्जन पंचांगों में तिथि के प्रारम्भ में ही अन्तर मिलता है, जिससे विवाद खड़े हो जाते हैं और यह विवाद पत्रों (पंचांगों) में भी प्रकट हो उठता है। जब आज भी यह मौलिक त्रुटि हो सकती है, तब पूर्व-काल में तो और भी अधिक सम्भव थी। गांवों, नगरों की बात छोड़िये कभी-कभी तो राजदरबारों में भी अयोग्य ज्योतिषियों के होने का ऐतिहासिक उल्लेख मिलता है । कलचुरि 'रत्नदेव द्वितीय' के सन् 1128 ई० के सो लेख से यह सूचना मिलती है कि दरबार में ज्योतिषियों से ठीक गणित ही नहीं होती थी और वे 'ग्रहण' का समय ठीक निर्धारित नहीं कर पाते थे । तब पद्मनाभ नाम के ज्योतिषी ने बीज-संस्कार किया' जिससे तिथियों का ठीक निर्धारण हो सका। राजा ने पद्मनाभ को पुरस्कृत किया, अतः ज्योतिषियों से भी भूल हो सकती है । ऐसी दशा में काल संकेत सदोष हो जायेंगे।
___इससे किसी लेख या अभिलेख का काल-निर्धारण कठिन हो जाता है और यह आवश्यक हो जाता है कि दिये हुए काल-संकेत को परीक्षा के उपरान्त ही सही माना जाय । जैसा ऊपर बताया जा चुका है विविध ज्योतिष केन्द्रों के बने पंचांगों और पत्रों में अलगअलग प्रकार से गणना होने के कारण तिथियों का मान अलग-अलग हो जाता है । इससे दी हुई तिथि की परीक्षा से भी सन्तोष नहीं हो पाता, वह तिथि एक पंचांग से ठीक और दूसरे से, गलत सिद्ध होती है। इससे परीक्षक को विविध पंचांगों की भिन्नता में
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काल निर्धारण/ 273
संगत तिथि के अनुसन्धान के आधार का निर्णय करने या कराने की योग्यता भी होनी चाहिये । वैसे आधुनिक ज्योतिषी एल० डी० स्वामीकन्नुपिल्ले की 'इण्डियन ऐफिमेरीज' से भी सहायता ली जा सकती है । शब्द में काल-संख्या
___ यह भी हम पहले देख चुके हैं कि भारत में शब्दों में अंकों को लिखने की प्रणाली रही है । इस प्रणाली से भी काल-निर्णय में कठिनाइयाँ खड़ी हो जाती हैं। यह कठिनाई तब पैदा होती है जब जो शब्द अंक के लिए दिया गया है उससे दो-दो संख्याएँ प्राप्त होती हैं : जैसे सागर या समुद्र से दो संख्याएँ मिलती हैं, 4 भी और 7 भी। एक तो कठिनाई यही है कि सागर शब्द से 4 का अंक लिया जाय या 7 का । पर कभी कवि दोनों को ग्रहण करता है, जैसे----
'अष्ट-सागर-पयोनिधि-चन्द्र' यह जगदुर्लभ की कृति उद्धव चमत्कार का रचना-काल है। इसमें 'सागर' भी है और इसी का पर्याय 'पयोनिधि' है । क्या दोनों स्थानों के अंक 4-4 समझे जायें, या 7-7 माने जायें या किसी एक का 4 और दूसरे का 7, इस प्रकार इतने संवत् बन सकते हैं :
1448 1778 1748
1478 'नेत्र सम युग चन्द्र' से होगा 1 + 2 = युग, = 3, पुन: 3 (नेत्र)। इसमें युग को '4' भी माना जा सकता है और नेत्र को '2' भी।
__ वस्तुतः ऐसे दो या तीन अंक बतलाने वाले शब्दों में व्यक्त संवत् को ठीक-ठीक निकालने में अलंध्य कठिनाई भी हो सकती है। तभी उक्त सन्दर्भ से डी० सी० सरकार ने यह टिप्पणी की है
"Indeed it would have been difficult to determine the date of the composition of the work, inspite of the years in both the eras being quoted".
उक्त पुस्तक में ये संवत् अंकों में भी साथ-साथ दिये गये है, अतः कठिनाई हल हो जाती है। किन्तु यदि अंकों में संवत् न होता तो उसे तिथि और दिन और पक्ष (शुक्ल या कृष्ण) तथा महीने के साथ पंचांगों में या 'इण्डियन एफीमेरीज' से निकाला जा सकता था।
अंक जब शब्दों में दिये जाते हैं, या अन्यथा भी, भारतीय लेखन में, 'अंकाना वामतो गतिः' की प्रणाली अपनायी जाती रही है अर्थात् अंक उलटे लिखे जाते हैं, मानो लिखना है '1233' तो 3 3 2 1' लिखा जाएगा और शब्दों में 'नेत्र राम पक्ष चन्द्र'-(नेत्र) 3, (राम) 3, (पक्ष) 2, (चन्द्र) 1, जैसे रूप में लिखा जाएगा किन्तु यह देखा गया है कि इस पद्धति का अनुकरण भी बहुधा नहीं किया गया है। कितनी ही पुष्पिकानों (Calophones)
- 1.
Sircar D.C.-Indian Epigraphy, p. 229.
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274, पाण्डुलिपि - विज्ञान
में सन् संवत् सीधी गति से ही दे दिया गया है। इससे भी कठिनाई उपस्थित हो जाती है ।
यथा - संवत् 13 सैंतालीस समै माहा तीज सुद ताम || मखहीयो पोहता सरग हांथांपूरे हाम | 1
या
सतरं से पचानवें कोतुक उत्तम वास ।
वद पष प्राठमवार रवि कीनौ ग्रन्थ प्रगास || 2
या
संवत् सत्रह से वरष ता ऊपरि चौबीस || सुकल पुष्य कातिक विषै दसमी सुन रजनीस ||
या
संवत सहसँ गये वर्ष दशोत्तर श्रौर ।
भादव सुदि एकादशी गुरुवार सिर भौर ॥
या
संवत् सोलह सोलोतरं श्राषातीज दीवस मनषरं ।। जोड़ी जैसलमेर मंभार बाँच्या सुख पाने संसार ॥15
या
अष्टादस बत्तीस में । बदि दसमी मधुमास । करी दीन बिरदावली । या अनुरागी दास ॥
या
संमत पनरे से पीचौतरै पुनम फागुरण मास ॥ पंच सहेली वररणवी कवि छीहल परगास ॥ 7
या
यदि चैत साठ बरस तिथि चौदिसिगुरुवार । बंधे कवित्त सुवित्त परि कुंभल मेर मारि ॥
या
समत उगरणी और बतीसा || चौदह भादू दीत को बासा ॥
7. बही, पृ. 501 8. वही, पृ.53
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1. मेनारिया, मोतीलाल - राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज (प्रथम भाग ) १० 21
2. वही, पृ. 101
3. वही, पृ. 22
4. वही, पृ. 361
5. वही, पृ. 37
6. वही, पृ. 45।
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काल निर्धारण/275
उत्तम पुला रो पक्ष बुद होई । लिख्यो प्रतीति कर प्रांनो सोई ।।
अथवा माघ सुदी तिथि पूरना षग पुष्प अरू गुरुवार
गिनि अठारह से बरस पुनि तीस संवत सार ॥2 अब हम यहां डी० सी० सरकार की 'इण्डियन ऐपीग्राफी' से एक राजवंश के लेखों में दिये गये उनके राज्यारोहण (Regnal) संवत् का ऐतिहासिक कालक्रम में सगत स्थान निर्धारण करने की प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए पूरी गवेषणा को संक्षेप में दे रहे हैं, साथ ही प्रक्रिया को समझाने के लिए टिप्पणियां भी दी जा रही हैं । यह हम इसलिए कर रहे हैं कि इस एक उदाहरण से सीधी और जटिल तथा परिस्थितिपरक साक्षियों का एकसाथ ज्ञान हो सकेगा।
प्रश्न 'भौमकार-संवत्' से सम्बन्धित है। भौमकार वंश ने 200 वर्षों के लगभग उड़ीसा में राज्य किया। इनके लेखों तथा इनके अधीनस्थ राज्यों के लेखों में इस संवत् का उल्लेख मिलता है। डी.सी. सरकार का विवरण
टिप्परिणयाँ 1. भौमकार राजाओं का संवत् इस वंश 1. यह पहली स्थापनाएँ हैं जो इस वंश
के प्रथम राजा के राज्यारोहण काल के शिलालेखों एवं अन्य लेखों से मिले से ही प्रारम्भ हुआ होगा। इस वंश संवतों के आधार पर विद्वान इतिहासके अठारह राजाओं ने लगभग दो कार ने की हैं शताब्दी उड़ीसा पर राज्य किया। इसी राजवंश के मिले संवतों के धर्म महादेवी सम्भवतः इस वंश की तारतम्य को मिलाकर इतनी स्थापना अन्तिम शासिका थी जिसका राज्य तो की ही जा सकती थी। प्रश्न अब भौमकार संवत् के 200वें वर्ष के यह है कि दो-सौ वर्ष यह संवत् चला । लगभग समाप्त हो गया।
ये 200 वर्ष हमारे आधुनिक ऐतिहासिक कालक्रम के मानक में ई० सन् में कहाँ रखे जा सकते है ?
2. एकमात्र अभिलेख-विज्ञान (पेलियो- 2. कीलहान का अनुमान लिपि की विशे
ग्राफी) ही की सहायता से काल-निर्णय षता के आधार पर था, पर सरकार ने किया जा सकता था सो कीलहान ने ऐतिहासिक घटनाक्रम देकर उसे दण्डी महादेवी की गंजम प्लेटों का असम्भव सिद्ध कर दिया है-फलतः काल अभिलेख लिपि-विज्ञान के ऐतिहासिक घटनाक्रम यदि निश्चित आधार पर तेरहवीं शताब्दी ई० के है तो उसके विरुद्ध कोई अनुमान नहीं लगभग माना है। इन प्लेटों में एक माना जा सकता। में भीमकार संवत् 180 वर्ष पड़ा है।
- 1.
2.
वही, पृ. 79। वही, पृ. १08 ।
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276, पाण्डुलिपि-विज्ञान
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टिप्परिणयाँ सरकार ने इन ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया है1. गंग राजा की विजय 1078 2. इस राजा ने सोमवंशियों 1147 से जीता
ई० के बीच इससे यह निष्कर्ष भी निकाला कि गंगवंश की विजय से पूर्व तो भौमकार वंश का राज्य होगा ही, वरन् वह सोमवंश के शासन से भी पूर्व होगा ।
डी. सी. सरकार का विवरण
सरकार कीलहान के इस अनुमान की काट करते हैं-इसके लिए वे गंगवंश के अनन्तवर्मन कोडगंवा की पुरी-कटक क्षेत्र की विजय का उल्लेख करते हैं। इस गंग राजा का समय 1078-1147 (47) ई० निश्चित है, अतः उड़ीसा के पुरी कटक क्षेत्र पर गंगवंश का अधिकार 12 वीं शती के प्रथम चरण में हो गया था। तब भौमकार इस क्षेत्र में 13वीं शती तक कैसे विद्यमान रह सकते हैं ? दूसरे, उक्त गंगराजा ने पुरी-कटक को सोमवंशियों से छीना था या जीता था। अतः भौमकारों का शासन इस क्षेत्र पर उन सोमवंशियों से भी पूर्व रहा होगा, जो गंगवंश से पूर्व पुरीकटक क्षेत्र पर शाशन कर रहे थे। अतः कीलहान का अनुमान इन ऐतिहासिक घटनामों से कट जाता है। फलतः भौमकारों का समय 1100 ई० से पूर्व होगा।
2. बी--इसी प्रसंग में सरकार यह भी कहते हैं कि भौमकारों ने अपने लेखों में सदा अंक प्रतीकों (numeral symbols) का उपयोग किया है, (Figure) का नहीं। इस तथ्य से यही सिद्ध होता है कि उनका 1000 ई० के बाद राज्य नहीं चला।
कीलहान के अनुमान के आधार को सरकार ने अभिलेख-लिपि-विज्ञान से भी काटा है-अंक प्रतीकों का प्रयोग 1000 ई० तक रहा। बाद में संख्या का प्रयोग होने लगा । अतः सिद्ध है कि लेखों में 'संख्या' का प्रयोग प्रचलित होने से पूर्व, यानी 1000 ई० से पूर्व के भौमकारों के लेख हैं, क्योंकि उनमें अंक-प्रतीक हैं। अत: भौमकार भी 1000 ई० से पूर्व हुए।
इस प्रकार सरकार ने भौमकारों के काल की निचली सीमा भी निर्धारित कर दी।
अभिलेख-लिपि-विज्ञान अक्षरों के
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काल निर्धारण/277
डी. सी. सरकार का विवरण
टिप्पणियां
रूपों तथा लेखन-वैशिष्ट्यों के आधार पर काल-निर्धारण में सहायक होता है.---जब कोई अन्य साधन न हो तो
इसे आधार माना जा सकता है । 3. फिर सरकार ने सिल्वियन लेवी का 3. उसमें सरकार ने उन साक्षियों का
सुझाव दिया है कि चीनी स्रोतों में उल्लेख किया है, जो विदेश से मिली जिस महायानी बौद्ध राजा का नाम हैं, और समसामयिक है। मिलता है, जो बु-चन (ोड़-उडीसा) चीनी में भारतीय भीमकारों के का राजा था और जिसने स्वहस्ताक्षर- किसी राजा के नाम जो अर्थ दिया है, युक्त एक पांडुलिपि चीनी सम्राट को उससे एक विद्वान् ने एक राजा के, 795 ई० में भिजवाई थी, वह भौम- दूसरे ने दूसरे के नाम को तद्वत् स्वीकार कार वंश का राजा शुभाकर प्रथम था। किया है। चीनी में इस राजा के नाम का अनुवाद चीनी में इस घटना का सन् दिया यों दिया है : भाग्यशाली सम्राट, जो हमा है, जिससे ई० सन हमें विदित हो वही करता है जो सुकृत्य है, सिंह, इस जाता है और उक्त रूप में काल-निर्णय चीनी विवरण के आधार पर लेवी ने सम्भव हो जाता है। शुभाकर प्रथम को वह राजा माना है और इसका मूल नाम शुभकरसिंह (या केसरिन) होगा, यह कल्पना की है।
प्रार० सी० मजूमदार ने चीनी विवरण के आधार पर उक्त शुभाकर प्रथम के पिता को वह राजा माना है जिसने 795 ई० में पुस्तक भेजी थीइसका नाम था 'शिवकर प्रथम उन्मत्त सिंह।
इन आधारों पर भीमकार-वंश के राज्य की दो शताब्दियां, 750-95) ई० या 775-975 ई० के बीच स्थिर होती हैं। 4. भांडारकर ने भी इनका काल-निर्णय . 4. सरकार ने भांडारकर की लिपि-पठन किया-इस आधार पर कि भीमकार- की भूल बताकर लिपि-विज्ञान के उस संवत् और 606 ई० वाले 'हर्ष संवत्' महत्त्व को और सिद्ध किया है, जिसमे को एक माना जाय । इस गणना से वह काल-निर्णय में सहायक होता है । भौमकार 606-806 ई० में हुए। सरकार की आलोचना है कि अभिलेख
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278/पाण्डुलिपि-विज्ञान
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डी. सी. सरकार का विवरण
टिप्पणियां लिपि-विज्ञान से भीमकारों का समय बाद का बैठता है। सरकार ने यह भी दिखाया है कि भांडारकर ने 100 और 200 के जो प्रतीक इन लेखों में आये हैं उन्हें पढ़ने में भूल कर दी हैलु-100 और लू-200 । ये 'लु' को 'लू' पढ़ गये हैं। 5. अब सरकार महोदय एक अन्य ज्ञात काल से इस अज्ञात की गुत्थी सुलझाना चाहते हैं।
इसके लिए इन्होंने धृतिपुर और वंजुलवक के भंज राजाओं का आधार लिया है, उनमें से रणभंज को सोमवंशी सम्राट महाशिव गप्त ययाति प्रथम (970-1000 ई०) का समकालीन सिद्ध किया है और उधर पृथ्वी महादेवी उपनाम त्रिभुवन महादेवी द्वितीय को उक्त सोमवंशी सम्राट् की पुत्री बताया है। इस भौमकर शती के लेखों का एक संवत् 158 है। यह भौमकर संवत् है। पृथ्वी महादेवी के बौड (Baud)
ये समस्त तर्क और युक्तियाँ ज्ञात प्लेट का संवत् 158 और उसके पिता सन् संवतों के समसामयिक संवतों की सोमवंशी महाशिवगुप्त ययाति प्रथम स्थापना कर उनसे भोमकारों के संवत् का अपने राज्य के नवम् वर्ष का दान- का सम्बन्ध बिठाकर इस अज्ञात संवत् लेख सरकार ने प्रायः एक ही समय के प्रारम्भ को ज्ञात करने के लिए दिये के माने हैं । यह नवम् राज्य-वर्ष सन् गये हैं। 978 ई० में पड़ता है। अतः भौम- ___इसमें कोई सन्देह नहीं कि कई ज्ञात कार संवत् का प्रारम्भ इसमें से 158 सम्बन्धों की सन्धि बिठाकर अज्ञात की पृथ्वी महादेवी के लेख का वर्ष घटा समस्या हल करने की पद्धति महत्त्वपूर्ण देने से 820 ई० प्राता है । यही सन् अनुमानतः भौमकार संवत् के प्रारम्भ का सन् हो सकता है, इसके बाद नहीं। 6. अन्त में, सरकार ने शत्रु भंज के लेख 6. उक्त ऐतिहासिक घटना और राज्य
में आये विस्तृत तिथि-विवरण को कालों के साम्यों से जो वर्ष मिलता है
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काल निर्धारण/279
डी. सी. सरकार का विवरण लिया है। इसमें भौमकार वंश सम्वत् 198 के साथ यह विवरण भी दिया है : विषुव-संक्रान्ति, रविवार, पंचमी, मगशिरा नक्षत्र । अब इस सबकी पंचांग में खोज करने पर उस काल में 23 मार्च, 1029 ई० को ही उक्त तिथि बैठती है। इस गणना से भौमकर-सम्वत् 831 ई० से प्रारम्भ हुआ ।
टिप्पणियाँ उसमें और इसमें 11 वर्ष का अन्तर है। यह अन्तिम ज्योतिषीय प्रमाण अधिक अकाट्य लगता है, क्योंकि जो विवरण तिथि का लेख में है उस विवरण की तिथि एक-एक शताब्दी में दो-चार ही हो सकती है, अतः यह निष्कर्ष प्रामाणिक माना जा सकता है ।
इस एक उदाहरण से विस्तारपूर्वक हमने उस पद्धति का दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न किया है, जिससे अज्ञात तक पहुँचने के प्रयत्न किये जाते हैं। ये समस्त प्रयत्न अन्तिम को छोड़कर बाह्य साक्ष्यों और प्रमाणों पर ही निर्भर करते हैं।
अब हमें यह देखना है कि जहाँ किसी भी प्रकार के सन्-सम्वत् का उल्लेख न हो वहाँ काल-निर्णय या निर्धारण की पद्धति क्या अपनायी जाती है । साक्ष्य : बाह्य अन्तरंग
ऐसे लेखपत्र या ग्रन्थ का काल-निर्णय करने में जिन बातों का आश्रय लेना पड़ता है उनमें से कुछ ये हैं : 1. बाह्य साक्ष्य :
क-बाह्य उल्लेख-अन्य कवियों द्वारा उल्लेख ख-अनुश्रुतियों-कवि-विषयक लोक-प्रचलित अनुश्रुतियाँ ग-ऐतिहासिक घटनाएँ घ-सामाजिक परिस्थितियाँ
ङ-सांस्कृतिक-उपादान 2. अन्तरंग साक्ष्य :
क-अन्तरंग साक्ष्य का स्थूल पक्ष 1. लिपि 2. कागज-लिप्यासन 3. स्याही 4. लेखन-पद्धति 5. अलंकरण 6. अन्य ख-अन्तरंग साक्ष्य : सूक्ष्म पक्ष 1. विषयवस्तु से 2. ग्रन्थ में आये उल्लेखों में
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280/पाण्डुलिपि-विज्ञान
(क) ऐतिहासिक उल्लेख (ख) कवियों-ग्रन्थकारों के उल्लेख (ग) समय-वर्णन (घ) सांस्कृतिक बातें (ङ) सामाजिक परिवेश 3. भाषा वैशिष्ट्य से (क) व्याकरणगत (ख) शब्दगत
(ग) मुहावरागत 3. वैज्ञानिक
क-प्राप्ति-स्थान की भूमि का परीक्षण ख-वृक्ष परीक्षण ग-कोयले से
प्रादि
बाह्य साक्ष्य
जब किसी ग्रंथ में रचना-काल न दिया गया हो तो इसके निर्णय के लिए बाह्य साक्ष्य महत्त्वपूर्ण रहता है।
इसका एक रूप तो यह होता है कि सन्दर्भ ग्रन्थ में देखा जाये । ऐसी पुस्तकें और सन्दर्भ ग्रन्थ मिलते हैं जिनमें कवि और इनके ग्रंथों का विवरण दिया होता है। उदाहरणार्थ, 'भक्तमाल और उसकी टीकाओं' में कितने ही भक्त कवियों के उल्लेख हैं। उनकी सामग्री में आये संकेतों से कवि या उसकी कृति के काल-निर्धारण में सहायता मिल सकती है । अन्य साक्षियों और प्रमाणों के अभाव में कम से कम 'भक्तमाल' में पाये उल्लेख से कालनिर्धारण की दृष्टि से निचली सीमा तो मिल ही जाती है, क्योंकि जिन कवियों का उल्लेख उसमें हुअा है, वे सभी 'भक्तमाल' के रचना-काल से पूर्व ही हो चुके होंगे। दूसरे शब्दों में उनका समय 'भक्तमाल' के रचना-काल के बाद नहीं जा सकता। ..
किन्तु इस सम्बन्ध में भी एक बात ध्यान में रखनी होगी कि 'भक्तमाल' जैसी कृतियों में, जैसे सभी कृतियों में सम्भव है प्रक्षिप्तांश या क्षेपक हों, ऐसे अंश हों जो बाद में जोड़े गये हों । प्रक्षेपों की विशेष चर्चा पाठालोचन वाले अध्याय में की गयी है, अतः ऐसे सन्दर्भ ग्रन्थ के उसी अंश के ऊपर निर्भर किया जा सकता है जो मूल है, क्षेपक नहीं। इन सन्दर्भ ग्रन्थों में ऐसे ग्रन्थ भी हो सकते हैं जो पूरी तरह किमी कवि पर ही लिखे गये होंजैसे 'तुलसी--चरित' और 'गोसाई-चरित ।'
तुलसी चरित महात्मा रघुवरदास रचित है। ये तुलसी के शिष्य थे। यह ग्रन्थ आकार में महाभारत के समान कहा गया है और 'गोसाई चरित' के लेखक बेणी माधवदास हैं । यह वृहद् ग्रन्थ था जो आज उपलब्ध नहीं। बेणीमाधवदास ने इस 'गोसाई चरित' से दैनिक पाठ के लिए एक छोटा संस्करण तैयार किया-यह 'मूल गुसाई चरित' कहलाया, यह उपलब्ध है। बेणीमाधवदास गोस्वामी तुलसीदास के अन्तेवासी थे। इसमें इन्होंने
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काल निर्धारण/281
并开并许并
तुलसीदास की क्रमबद्ध विस्तृत जीवन-कथा दी है और जहाँ-तहाँ सम्वत् भी यानी कालसंकेत भी दिये हैं। अतः तुलसी की जीवन घटनाओं और उनकी विविध कृतियों की तिथियाँ हमें इस ग्रन्थ से प्राप्त हो जाती हैं- इससे बड़ी भारी काल-निर्णय सम्बन्धी समस्या हल होती प्रतीत होती है।
इसमें तुलसी विषयक सम्बत् निम्न रूप में दिये गये हैं : 1. जन्म-सं० 1554 (रजिया राजापुर) 2. माता की मृत्यु तुलसी जन्म से चौथे दिन 3. विवाह-सम्वत् 1583 में 4. पत्नी का शरीर त्याग एवं तुलसी को विरक्ति
सं0 1589 में 5. सूरदास तुलसी से मिले और अपना 'सागर' दिखाया
,, 1616 में 6. रामगीतावली कृष्णगीतावली का संग्रह
, 1628 में रामचरितमानस का प्रारम्भ
1631 में 8. दोहावली संग्रह
1640 में वाल्मीकि रामायण की प्रतिलिपि
1641 में 10. मतसई रची
1642 में 11. मित्र टोडर की मृत्यु
, 1669 में 12. जहांगीर मिलने आया
, 1670 में 13. मृत्यु
,, 1680 में
श्रावण श्यामा तीज किन्तु स्वयं ऐसे सभी बहिःसाक्ष्यों की प्रामाणिकता भी सबसे पहले परीक्षणीय होती है । 'मूल गुसाई चरित' की प्रामाणिकता की. जब ऐसी ही परीक्षा की गई तो विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह 'मूल गुसाई चरित' अप्रामाणिक है। यह क्यों अप्रामाणिक है, इसके लिए डॉ० उदयभानुसिंह ने 14 कारण और तर्क संकलित किये हैं जो इस प्रकार हैं :
'मूल गोसाई चरित' सं० 1687 की कार्तिक शुक्ला नवमी को रचा गया ।
'मूल गोसाई चरित' अविश्वसनीय पुस्तक है। इसकी अविश्वसनीयता के मुख्य कारण हैं :
1. यह पुस्तक ऐसे अलौकिक चमत्कारों से भरी पड़ी है जिन पर विश्वास करना किसी विवेकशील के लिए असम्भव है।
2. इसमें कहा गया है कि तुलसी के बाल्यकाल में उनके भरण-पोषण की चिन्ता चुनियां, पार्वती, शिव और नरहर्यानिंद ने की। स्पष्ट है कि तुलसी जीविका के विषय में निश्चित रहे। इसके विपरीत, कवि के स्वर में स्वर मिलाकर यह भी कह दिया गया है कि उस बालक का द्वार-द्वार डोलना हृदय-विदारक था । ये परस्पर विरोधिनी उक्तियाँ असंगत है।
3. इसके अनुसार एक प्रेत ने तुलसी को हनुमान का दर्शन करा कर राम दर्शन ___1. सिह. उदयभानु (डॉ.)-तुलसी काम्य मीमांसा, पृ. 23-25।
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282/पाण्डुलिपि-विज्ञान
का मार्ग प्रशस्त किया। किन्तु अन्तस्साक्ष्य से सिद्ध है कि तुलसी भूतप्रेत पूजा के विरोधी
4. इसमें 'विनय पत्रिका' को 'रामविनयावली' नाम दिया गया है। कोई ऐसी प्रति नहीं मिलती जिसमें यह नाम उपलब्ध हो। हाँ, रामगीतावली नाम अवश्य पाया जाता है।
. 5. इसके अनुसार 'गीतावली' (सं० 1616-18) कवि की सर्वप्रथम कृति है । 'कृष्णगीतावली' (सं० 1628), 'कवितावली' (सं० 1628-42), 'रामचरित मानस' (1631-33), 'विनय पत्रिका' (1639), 'रामललानहछु' (1639), 'जानकी मंगल' (1639), 'पार्वती मंगल' (1639) और दोहावली (1640) बारह वर्षों के आयाम में लिखी गयी। सं० 1670 में चार पुस्तकों की रचना हुई : 'बरबै रामायण', 'हनुमान बाहक', 'वैराग्य मंदीपनी' तथा 'रामाज्ञा प्रश्न'। इसमें अनेक प्रसंगतियाँ अवेक्षणीय हैं। 'गीतावली'-जैसी प्रौढ़ कृति प्रारम्भिक बतलायी गयी है और 'वैराग्य संदीपनी' एवं रामाज्ञा-प्रश्न' के सदृश अप्रौढ़ कृतियाँ अन्तिम । तीस वर्षों (1640-70) तक कवि ने कोई रचना नहीं की । क्या उसकी प्रतिभा मूच्छित हो गई थी ?
6. इसमें 'रजियापुर' (राजापुर) को तुलसी का जन्म स्थान कहा गया है। लेकिन ऐतिहासिक स्रोतों से सिद्ध है कि सं० 1813 तक उस स्थान का नाम 'विक्रमपुर' रहा है ।
7. इसके अनुसार सं० 1616 में सूरदास ने चित्रकूट पहुँचकर तुलसी को 'सागर' दिखाया और आशीष माँगा । सं० 1616 तक तो तुलसी ने एक भी रचना नहीं की थी।
और उनकी कीर्ति 'रामचरित मानस' की रचना (सं0 1631) के बाद फैली। उन्हें 'सागर' दिखाने की क्या तुक थी? यह भी हास्यास्पद लगता है कि वयोवृद्ध, प्रतिष्ठित और अंधे सूरदास ने चित्रकूट जाकर उन्हें 'सागर' दिखाया।
8. इसमें वर्णित है कि सं० 1616 में मीराबाई ने तुलसी को पत्र लिखा था । मीरां मं० 1603 तक दिवंगत हो चुकी थीं, 1616 में उन्होंने पत्र कैसे लिखा?
9. यद्यपि लेखक ने केशवदास-सम्बन्धी घटनाओं के निश्चित समय का स्पष्ट निर्देश नहीं किया है तथापि सन्दर्भ से अवगत है कि वे 1643 के लगभग तुलसी से मिले और सं० 1650 के लगभग केशव के प्रेत ने तलसी को घेरा। स्वयं केशवदास के अनुसार 'रामचन्द्रिका' का रचनाकाल सं० 1658 है, न कि सं० 1643 । और, यह गप्प की हद है कि केशव ने रात भर में 'रामचन्द्रिका' का निर्माण कर डाला----अपने को अप्राकृत कवि सिद्ध करने के लिए। इसके अतिरिक्त सं० 1651 के लगभग केशव का प्रेत तुलसी से कैसे मिला ? यह तथ्य निर्विवाद है कि उनका देहान्त सं० 1670 के बाद हुआ । उन्होंने अपनी 'जहांगीर-जस-चन्द्रिका' का रचना काल सं० 1669 बतलाया है ।
• 1. दोहावली, 65; रामचरितमानस, 2/1671 2. मोरह से अट्ठावना कातक मुदि बुधवार ।
रामचन्द्र की चन्द्रिका तव लीनो अवतार । रामचन्द्रिका, 1/6 3. सौरह से उनहत्तरां माधव मास विचारु । जहाँगीर सक साहि की करी चन्द्रिका चारु ।।
जहाँगीर जस चन्द्रिका, 2।
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काल निर्धारण/283
10. दिल्लीपति (अकबर) और जहांगीर वाली महत्त्वपूर्ण घटनाओं का इतिहास में कोई संकेत नहीं मिलता। अतः वे तथ्य-विरुद्ध हैं।
____11. 'चरित' के अनुसार टोडर की सम्पत्ति का बँटवारा उनके उत्तराधिकारी पुत्रों के बीच किया गया । परन्तु बँटवारे का पंचायतनामा उपलब्ध है । इस 'पंचायतनामे' से प्रमाणित है कि यह बँटवारा उनके पुत्र और पोत्रों के बीच हुआ था ।1
12. इसमें कहा गया है कि तुलसी के शाप के फलस्वरूप हाथी ने गंग को कुचल डाला । ऐतिहासिक तथ्य यह है कि जिस गंग को हाथी से कुचलवाया गया था वह औरंगजेब का समकालीन था । औरंगजेब सं० 1715 में बादशाह हुआ था। इसलिये सं० 1639 में गंग की कथित दुर्घटना सम्भव नहीं हो सकती।
13. इसके अनुसार नाभादास 'विप्रसंत' थे । इस विषय में कोई साक्ष्य नहीं है । परम्परा में उनको 'हनुमानवंशी' अथवा डोम माना गया है।
14. 'चरित' में उल्लिखित तिथियों में से तुलसी के जन्म (सं० 1554, श्रावण शुक्ला 7, कर्क के बृहस्पति-चन्द्रमा, वृश्चिक के शनि), यज्ञोपवीत (सं० 1651, माघशुक्ला 5, शुक्रवार), विवाह (सं० 1583, ज्येष्ठ शुक्ला 13, गुरुवार), पत्नी निधन (सं० 1589, आषाढ़ कृष्णा 10, बुधवार), मानस-समाप्ति (सं० 1633, मार्गशीर्ष शुक्ला 5, मंगलवार) और स्वर्गवास (सं0 1680, श्रावण कृष्ण 3, शनिवार), की तिथियाँ गणना योग्य हैं । पुरातत्त्व-विभाग से जाँच करवा कर डॉ० रामदत्त भारद्वाज ने बतलाया है। कि इनमें से केवल यज्ञोपवीत और विवाह की तिथियाँ ही सत्यापित हैं । डॉ. माता प्रसाद गुप्त ने पत्नी-देहान्त की तिथि को भी शुद्ध माना है । शेष चार तिथियाँ किसी भी गणनाप्रणाली से शुद्ध नहीं उतरती । तुलसी के अंतेवासी की यह अनभिज्ञता 'चरित' की प्रामाणिकता को खण्डित करती है।"
संख्या 5 में डॉ सिंह ने तुलसी की विविध कृतियों के काल को अप्रामाणिक बतलाने के लिये उनकी प्रौढ़ता को आधार बनाया है। यह साहित्यिक तर्क महत्त्वपूर्ण है। 'गीतावली' कवि की प्रारम्भिक कृति नहीं हो सकती, वह प्रौढ़ कृति है। डॉ माता प्रसाद गुप्त ने अपने शोध प्रबन्ध 'तुलसीदास' में इन ग्रन्थों के रचनाकाल का निर्धारण वैज्ञानिक विधि से किया है। वह दृष्टव्य है।
संख्या 7 में दिया संवत् इसलिये अमान्य बताया गया है कि वह असंगत है : सूर तो 'सागर' पूरा कर चुके थे, और तुलसी 1616 तक एक भी रचना नहीं कर पाये थेतब सूर जैसे अंधे और वृद्ध व्यक्ति का 1616 से तुलसी जैसे विख्यात व्यक्ति से आशीष लेने जाने में संगति नहीं बैठती।
संख्या 8 में घटना को असम्भवता के आधार पर अप्रामाणिक बताया गया है। मीरां की मृत्यु 1603 तक हो चुकी थी, 1616 में पत्र लिखना असम्भव बात है ।
संख्या 9 में अप्रामाणिकता का आधार 'तथ्य-विरोध' है । तथ्य यह है केशव ने
1
पनावर
पंचायतनामे के शब्द हैं-अनंदराम बिन टोडर विन देवराय व कँधई विन रामभद्र विन टोडर
मजकूर । 2. यह संवत् 1561 होना चाहिए । 3. गोस्वामी तुलसीदास, पृ० 48 । 4. तुलसीदास, पृ. 47।
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284 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
रामचन्द्रिका 1658 में रची। मूल गुसांई चरित में 1643 व्यंजित होती है । फिर, तथ्य है कि केशव की मृत्यु 1670 के बाद हुई, तब 1651 में केशवका प्रेत तुलसी से कैसे मिला, यह तथ्य - विरोधी बात है अतः अमान्य है ।
संख्या 14 में संवत् दिये गये हैं उनमें तिथियाँ तथा अन्य विस्तार भी हैं जिनसे उनकी परीक्षा 'गरणना' द्वारा की जा सकती है। 'पुरातत्त्व विभाग' की गणना से तथा डॉ० माताप्रसाद गुप्त की गणना से कई तिथियाँ अमान्य हैं, क्योंकि वे सत्यापित नहीं होतीं । 'गरणना' का आधार सबसे अधिक वैज्ञानिक और प्रामाणिक होता है ।
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इस प्रकार हमने इस एक उदाहरण से देखा है कि 'प्रौढ़ता द्योतक क्रम की श्रवहेलना प्रसंगति असम्भावना, तथ्य विरोध एवं 'गणना' से प्रसिद्ध होना कुछ ऐसी बातें हैं जिनसे प्रामाणिकता श्रमान्य हो जाती है ।
ऐसा 'बहिःसाक्ष्य' यदि प्रामाणिक हो तो बहुत महत्त्वपूर्ण हो सकता है । यतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि बहिःसाक्ष्य को महत्त्व देते समय उसकी प्रामाणिकता की परीक्षा हो जानी चाहिये । जो प्रामाणिक है, वही महत्त्व का हो सकता है । कितने ही ऐसे कवि या व्यक्ति हो सकते हैं जिनका पता ही बहिःसाक्ष्य से लगता है । जैसे—उपर्युक्त 'तुलसी चरित' और उसके लेखक का पहला उल्लेख 'शिवसिंह सेंगर' के 'शिवसिंह सरोज' में मिलता है । पर वह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ । जो उपलब्ध हुआ बनावटी ग्रन्थ है ।
इसी प्रकार संस्कृत आचार्य भामह ने दो स्थानों पर एक मेधाविन् का उल्लेख किया है । 'त एत उपमादोषाः सप्त मेघाविनोदिताः ' ( II - 40 ) तथा ' यथासंख्यमथोत्प्रेक्षामलंकार विदुः । संख्यानमिति मेधाविनोत्प्रेक्षाभिहिता क्वचित' 1 इनसे विदित होता है कि किसी मेघावी या मेघाविन् ने उपमा के सात दोष बताये हैं, तथा वह 'यथासख्य' अलंकार को 'संख्यान' नाम देता है, और उसको अलंकार नहीं कहता । इस उल्लेख से 'मेघाविन्' का नाम सामने आता है जिससे पहले विद्वान् परिचित नहीं थे। तब, भामह के बाद इसकी पुष्टि मिसाधु से भी हो जाती है, मेघाविन् या मेघाविरुद्र नाम का प्राचार्य हुआ है -- यह भी अलंकारशास्त्र का प्राचार्य था । भामह के उल्लेख से 'मेघाविन्' की निचली काल सीमा भी निर्धारित हो जाती है । भामह की कालावधि काणे ने 500 और 600 ई० के बीच दी है। 500 भामह के काल की ऊपरी सीमा और 600 निचली अवधि | 'मेघाविन्' भामह से पूर्व हुए थे ।
इस प्रकार बाह्य उल्लेखों से अज्ञात कवि का पता भी चलता है, और उसकी निचली कालावधि भी ज्ञात हो जाती है ।
ऐसे प्रसंग पांडुलिपि - विज्ञानार्थी के लिये चुनौती का काम करते हैं कि वह प्रयत्न करे और ऐसे कवि की किसी कृति का उद्घाटन करे ।
1.
अनुश्रुतिया जन श्रुति
लोक में प्रचलित प्रवादों को एकत्र कर परीक्षापूर्वक प्रामाणिक मान कर उनके आधार पर काल विषयक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । जैसे-यह जनश्रुति कि मीराँ ने तुलसी को पत्र लिखा था, और तुलसी ने भी उत्तर दिया था । यदि यह सत्यापित हो
Kane. P. V. -- Sahityadarpan (Introduction), P. XII.
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काल निर्धारण/285
मकता तो दोनों समकालीन हो जाते और कालक्रम में तुलसी पहले रखे जाते क्योंकि वे इतनी ख्याति पा चुके थे कि मीराँ उनसे परामर्श मांग सकी। मीराँ उनसे उम्र में छोटी सिद्ध होती, पर जैसा हम ऊपर देख चुके हैं कि यह जनश्रुति सत्यापित नहीं होती। मीरा तुलसी से पहले ही दिवंगत हो चुकी थीं । अतः जनश्रुति का मूल्य उस समय तक नगण्य है जब तक कि अन्य ठोस आधारों से वह प्रामाणिक न सिद्ध हो जाय । फिर भी, जनश्रुति का मंकलन और अध्ययन अपेक्षित तो है ही। उसमें से कभी-कभी महत्त्वपूर्ण खोई कड़ी मिल सकती है। इतिहास एवं ऐतिहासिक घटनाएँ
ऐतिहासिक घटनाएँ बाह्य साक्ष्य हैं । इनकी सहायता प्रायः किसी अन्तःसाक्ष्य के सहारे से ली जा सकती हैं । स्वतन्त्र रूप से भी इतिहास सहायक हो सकता है । जैसेवामन के सम्बन्ध में राजतरंगिणी में उल्लेख है कि वह जयापीड़ का मन्त्री था और व्यूहलर ने बताया है कि काश्मीरी पंडितों में यह जनश्रुति है कि यह जयापीड़ का मन्त्री वामन ही 'काव्यालंकार-सूत्र' का रचयिता और 'रीति' सम्प्रदाय का प्रवर्तक है। इस ऐतिहासिक आधार पर 'वामन' का काल 800 ई० के लगभग निर्धारित किया जा सकता है। इस सम्बन्ध का कोई सन्दर्भ हमें बामन की कृति में नहीं मिलता । इतिहास का उल्लेख और अनुश्रुति से पुष्टि-ये दो बातें ही इसका आधार हैं । हाँ, अन्य वहिःसाक्ष्यों से पुष्टि अवश्य हाता है । अतः किसी भी ऐसे स्वतन्त्र ऐतिहासिक उल्लेख की अन्य विधि से भी पुष्टि की जानी चाहिये।
कवि के अन्तःसाक्ष्य के सहारे इतिहास या ऐतिहासिक घटना के आधार पर कालनिर्णय करने की दृष्टि से 'भट्रि' को ले सकते हैं।
भट्टि ने 'भट्टि काव्य' में लिखा है कि 'काव्य मिदं विहितं मया वलाभ्यां श्रीधरसेननरेन्द्रपालितायाम्"।
इससे प्रकट होता है कि भट्टि ने राजा श्रीधरसेन के आश्रय में वलभी में 'भट्टि काव्य' की रचना की, किन्तु रचने का काल नहीं दिया । अब इनका काल-निर्धारण करने के लिए वलभी के श्रीधरसेन का काल निश्चित करना होगा, और इसके लिये इतिहास से सहायता लेनी होगी। इतिहास से विदित होता है कि 'श्रीधरसेन प्रथम' का कोई लेख नहीं मिलता। श्रीधरसेन द्वितीय का सबसे पहला लेख वलभी सं० 252 का है जो 571 ई० का हुआ । श्रीधरसेन चतुर्थ का अन्तिम लेख वलभी संवत् 332 का मिला है, जो ई० सन् 651 का हुआ । इसी प्रकार श्रीधरसेन के उत्तराधिकारी द्रोणसिंह का लेख वलभी संवत् 183 अर्थात् 502 ई. का मिला है । अत: भट्टि का समय 500 से 650 ई. के बीच होना चाहिये । मन्दसौर के सूर्य मन्दिर के शिलालेख का सन् 473 ई. है। इसके लेखक वत्सभट्टि को बी. सी. मजूमदार ने 'भट्टि काव्य' से साम्य के आधार पर भट्टि माना है । तब भट्टि श्रीधरसेन प्रथम के समय में हुए जो 500 ई. से पहले था।
स्पष्ट है कि श्रीधरसेन नाम के चार राजा हुए, अतः समस्या रही कि किस श्रीधरसेन के समय भट्टि हुए, तब 'काव्य साम्य' के आधार पर वत्सभट्टि और 'भट्टि काव्य' रचयिता भट्टि को एक मान कर वत्सभट्टि के 413 ई. के लेख से भट्टि को प्रथम श्रीधरसेन के समय 500 ई. से पहले का मान लिया गया।
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286/पांडुलिति-विज्ञान
'कृति' में काल का संकेत न होने पर अन्त साक्ष्य के किसी सूत्र को पकड़ कर इतिहास की सहायता से काल-निर्धारण के रोचक उदाहरण मिलते हैं । एक है नाट्य-शास्त्र के काल-निर्णय की समस्या । अनेक विद्वानों ने अपनी तरह से 'नाट्य-शास्त्र' का रचनाकाल निर्धारित करने के प्रयत्न किये हैं, पर कारणे महोदय ने प्रो० सिल्वियन लेवी का एक उदाहरण दिया है कि उन्होंने 'नाट्य-शास्त्र' में सम्बोधन सम्बन्धी शब्दों में 'स्वामी' का आधार लेकर और चष्टन जैसे भारतीय शक शासक के लेख में चष्टन के लिये 'स्वामी' का उपयोग देखकर यह सिद्ध किया कि भारतीय 'नाट्य-कला' का प्रारम्भ भारतीय शकों के क्षत्रपों के दरबारों से हुअा-अर्थात् विदेशी शक-राज्यों की स्थापना से पूर्व भारतवासी नाटक से अनभिज्ञ थे । नाट्य-शास्त्र में 'स्वामी' शब्द का सम्बोधन भी शक शासकों के दरबारों में प्रचलित शिष्ट प्रयोगों से लिया गया है। इन क्षत्रपों के राज्यकाल में ही प्राकृत भाषामों का स्थान संस्कृत लेने लगी-या, भाषा विषयक प्रवृत्ति का परिवर्तन विदेशी शासन का प्रभाव था जो नाट्य-शास्त्र से विदित होता है । काणे महोदय की यह टिप्पणी इस विषय पर दृष्टव्य है :
"Inspite of the brilliant manner in which the arguments are advanced, and the vigour and confidence with they are set forth, the theory that the Sanskrit theatre came into existence at the court of the Kshatrapas and that the supplanting of the Prakrits by classical sanskrit was led by the foreign Kshatrapas appears, to say the least, to be an imposing structure built upon very slender foundations"l
इससे यह सिद्ध होता है कि इतिहास की सहायता लेते समय भी बहुत सावधानी बरतनी चाहिये । यह भी परीक्षा कर लेनी चाहिये कि कहीं प्रक्रिया उलटी तो नहीं । चष्टन के लेख में 'स्वामी' का प्रयोग कहाँ से कैसे आ गया ? क्या यह शक शब्द है ? जब ऐसा नहीं तो स्पष्ट है कि लेखक या सूत्रधार या शिल्पकार, जिसने चष्टन का लेख तैयार किया या उत्कीर्ण किया वह, भारतीय नाट्य-शास्त्र से परिचित था, वहीं से सम्बोधन के लिये संस्तुत शब्दों में से 'स्वामी' शब्द को लेकर उसने चष्टन के लिये उसका प्रयोग किया। यह स्थिति अधिक संगत है।
___अतः यह भी देखना होगा कि किसी स्थापना के लिये क्या कोई अन्य विकल्प भी है, यदि कोई अन्य विकल्प भी हो तो उसका समाधान भी कर दिया जाना चाहिये ।।
इतिहास के कारण कवि द्वारा दिये काल संकेत को लेकर संकट या झमेले भी खड़े हो सकते, हैं, इसे भी ध्यान में रखना होगा। इसके लिये 'जायसी' के पद्मावत का उदाहरण महत्त्वपूर्ण है। इसको डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में उनके ग्रन्थ 'पद्मावत' के मूल और सजीवनी भाष्य की भूमिका से उद्धृत किया जा रहा है :
“जायसी कृत दूसरा महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उल्लेख पद्मावत में है । उसमें सूरवंशी सम्राट शेरशाह का शाहे वक्त के रूप में वर्णन किया गया गया है :
सेरसाहि दिल्ली सुलतानू । चारिउ खण्ड तपइ जस भानू । 1311
1.
Kane, P.V.-Sahityadarpan (Introduction). P. VIII.
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काल. निर्धारण/287
जायसी के वर्णन से विदित होता है कि शेरशाह उस समय दिल्ली के सिंहासन पर बैठ चुका था और उसका भाग्योदय चरम सीमा पर पहुँच गया था । हुमायूं के ऊपर शेरशाह की विजय चौसा युद्ध में 26 जून, 1539 को और कन्नौज के युद्ध में 17 मई, 1540 को हई । दिल्ली के सुलतान पद पर उसका अभिषेक 26 जनवरी, 1542 को हना । जायसी ने पद्मावत के प्रारम्भ में तिथि का उल्लेख इस प्रकार किया है :
सन नौस संतालिस ग्रहै । कथा प्रारम्भ बैन कवि कहै ।।24।।
इसका 947 हिजरी 1540 ई० होता है। उस समय शेरशाह हुमायूं को परास्त करके हिन्दुस्तान का सम्राट बन चुका था, यद्यपि उमका अभिषेक तब तक नहीं हुआ था। 947 के कई नीचे लिखे पाठान्तर मिलते हैं :
1. गोपाल चन्द्र जी की तथा माताप्रसाद जी की कुछ प्रतियाँ
927 हि = 1521 ई० पद्मावत का अलाउल कृत बंगला अनुवाद 927 हि० = 1551 ई० 2. भारत कला भवन काशी की कैथी प्रति
936 हि० = 1530 ई० 3. 1109 हि० (1697 ई०) में लिखित माताप्रसाद की प्रति द्वि० 3
945 हि० = 1539 ई० 4. माताप्रसाद जी की कुछ प्रतियां, तथा रामपुर की प्रति
947 हि० = 1540 ई० 5. बिहार शरीफ की प्रति
948 हि० = 1542 ई० 927,936, 945, 947, 948 इन पाँच तिथियों में हस्तलिखित प्रतियों के साक्ष्य के आधार पर 927 पाठ सबसे अधिक प्रामाणिक जान पड़ता है। पद्मावत की सन् 1801 की लिखी एक अन्य प्रति में भी ग्रन्थ रचना-काल 927 मिला था (खोज रिपोर्ट, 14वाँ वार्षिक विवरण, 1929-31, पृ० 62)। 927 पाठ के पक्ष में एक तर्क यह भी है कि यह अपेक्षाकृत क्लिष्ट पाठ है । विपक्ष में यही युक्ति है कि शेरशाह के राज्यकाल से इसका मेल नहीं बैठता । शुक्ल जी ने प्रथम संस्करण में 947 पाठ रखा था, पर द्वितीय संस्करण में 927 को ही मान्य समझा क्योंकि अलाउल के अनुवाद में उन्हें यही सन् प्राप्त हा था । अवश्य ही यह एक ऐसी साक्षी है जो उस पाठ के पक्ष में विशेष ध्यान देने के लिये विवश करती है। 927 या 947 की संख्या ऐसी नहीं जिसके पढ़ने या अर्थ समझने में रुकावट होती। अतएव उसके भी जब पाठ-भेद हए तो उसका कुछ सविशेष कारण ऐसा होना चाहिये जो सामान्यतः दूसरे प्रकार के पाठान्तरों में लागू नहीं होता । मैंने अर्थ करते समय शेरशाह वाली युक्ति पर ध्यान देकर 947 पाठ को समीचीन लिखा था, किन्तु
1.
यह अनुवाद 1645-1652 के बीच मुदूर अराकान राज्य के मन्त्री मगन ठाकुर ने अलाउल नामक कवि से कराया थासेख मुहम्मद जती। जखने रचिले पुथी। संख्या सप्तविंश नव शत । सन नौ से छत्तीस जब रहा। कथा उरेहि वएन कवि-कवि कहा। (भारत कला भवन, काशी की कैथी प्रति)
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288/पाण्डुलिपि-विज्ञान
अब प्रतियों की बहुल सम्मत्ति एवं क्लिष्ट पाठ की युक्ति पर विचार करने से प्रतीत होता है कि 927 मूल पाठ था और जायसी ने पद्मावत का आरम्भ इसी तिथि में अर्थात् 1521 में कर दिया था। ग्रन्थ की समाप्ति कब हुई, कहना कठिन है, किन्तु कवि ने उस काल के इतिहास की कई प्रमुख घटनाओं को स्वयं देखा था। बाबर के राज्य काल का तो स्पष्ट उल्लेख है ही (आखिरी कलाम 811)। उसके बाद हुमायूं का राज्यारोहण (836 हि.), चौसा में शेरशाह द्वारा उसकी हार (945 हि.), कन्नौज में शेरशाह की उस पर पूर्ण विजय (947 हि०), फिर शेरशाह का दिल्ली के सिंहासन पर राज्याभिषेक (948 हि०), ये घटनाएँ उनके जीवन काल में घटीं । मेरे मित्र श्री शम्भुप्रसाद जी बहुगुणा ने मुझे एक बुद्धिमत्तापूर्ण सुझाव दिया है कि पद्मावत के विविध हस्तलेखों की तिथियाँ इन घटनाओं से मेल खाती हैं । हि० 927 में प्रारम्भ करके अपना काव्य कवि ने कुछ वर्षों में समाप्त कर लिया होगा। उसके बाद उसकी हस्तलिखित प्रतियाँ समय-समय पर वनती रहीं । भिन्न तिथियों वाले सब संस्करण समय की आवश्यकता के अनुकूल चालू किये गये ! 927 वाली कवि लिखित प्रति मूल प्रति थी। 936 वाली प्रति की मूल प्रति हुमायं के राज्यारोहण की स्मृति रूप में चीलू की गई। हि० 945 वाली प्रति जिसका माता प्रसाद जी गुप्त ने पाठान्तर में उल्लेख किया है, शेरशाह की चौसा युद्ध में हुमायूं पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त चालू की गई । 947 वाली चौथी प्रति शेरशाह की हुमायूं पर कन्नौज विजय की स्मृति का संकेत देती है । पाँचवीं या अन्तिम प्रति 948 हि० की है, जब शेरशाह दिल्ली के तख्त पर बैठ कर राज्य करने लगा था । मूल ग्रन्थ जैसे का तैसा रहा, केवल शाहे वक्त वाला अंश उस समय जोड़ा गया । पद्मावत जैसे महाकाव्य की रचना के लिए चार वर्षों का समय लगा होगा । सम्भावना है कि उसके बाद कवि कुछ वर्षों तक जीवित रहा हो । पद्मावत के कारण उसके महान व्यक्तित्व की कीर्ति फैल गई होगी। शेरशाह के अभ्युदय काल में कवि का बादशाह से साक्षात् मिलन भी बहुत सम्भव है । इस सम्बन्ध में पद्मावत का यह दोहा ध्यान आकृष्ट करता है :
दीन्ह असीस मुहम्मद करहु जुगहि जुग राज ।
पातसाहि तुम्ह जग के जग तुम्हार मुहताज ।। 1318-9 दोहे के शब्दों में जो आत्मीयता है और प्रत्यक्ष घटना जैसा चित्र है, वह इंगित करता है कि जैसे वृद्ध कवि ने स्वयं सुलतान के सामने हाथ उठा कर आशीर्वाद दिया हो । इस घटना के बाद ही शाहे वक्त की प्रशंसा वाला अंश शुरू में जोड़ा गया होगा। रामपुर की प्रति में इस अंश का स्थान भी बदला हुआ है। उसमें माताप्रसाद जी के दोहों की संख्या का पूर्वापर क्रम यह है—दो 12, 20 (गुरू महदी..."), 18 (सेयद असरफ.......), 19 (उन्ह घर रतन.......") 13, 14, 15, 16, 17, 21 अर्थात् शेरशाह वाले पाँच दोहों को गुरु-परम्परा के वर्णन के बाद रखा गया है। इससे अनुमान होता है कि बाद में बढ़ाए हए इस अंश का ठीक स्थान कहाँ हो, इस बारे में प्रतियों की कम से कम एक परम्परा में विकल्प अवश्य था ।"1
इस उद्धरण से काल-निर्णय में झमेले के लिये तीन कारण सामने आते हैं, पहला पाठ-भेद-5 पाठ-भेद मिले । पाठालोचन से भी इस सम्बन्ध में अन्तिम अकाट्य निर्णय
1. अग्रवाल, वासुदेव शरण (डॉ.!-पद्मावत. पृ. 45-47 !
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काल निर्धारण 289
नहीं किया जा सका । यों 927 हिजरी का पक्ष डॉ० अग्रवाल को भी भारी लगता है। कारण यही है कि यह कई प्रतियों में है।
दूसरा-काल-संकेत में केवल सन् का उल्लेख है, विस्तृत तिथि-विवरण-तिथि, दिन, महीना, पक्ष नहीं दिया गया, अतः गणना और पंचांग से शुद्ध 'काल' की परीक्षा नहीं हो सकती।
तीसरा कारण है, ऐतिहासिक उल्लेख : "से रसाहि दिल्ली सुलतानू चारिउ खण्ड तपइ जस भानू ।।"
यह शेरशाह का दिल्ली का सुलतान होना ऐतिहासिक काल-क्रम में 927, 936, 945 हिजरी से मेल नहीं खाता । 947 कुछ ठीक बैठता है। पर "तपे जस भान" तो 948 हि० में ही सम्भव था । इस ऐतिहासिक घटना ने 927 से असंगत होकर यथार्थ अमेला खड़ा कर दिया है।
इसके समाधान में ही यह अनुमान प्रस्तुत करना पड़ा कि जायसी ने पद्मावत की रचना प्रारम्भ तो 927 हिजरी में की, केवल 'शाहेवक्त' विषयक पंक्तियाँ सन् 948 हि० में लिखीं।
सन् के विविध पाठ-भेदों को विविध ऐतिहासिक घटनाओं का स्मारक मानने की कल्पना भी इतिहास की पृष्ठभूमि से संगति बिठाने की दृष्टि से रोचक है । प्रामाणिक कितनी हैं, यह कहना कठिन है । सामाजिक परिस्थितियाँ एवं सांस्कृतिक उल्लेख
यह पक्ष भी उभयाश्रित है । अंतरंग से उपलब्ध सामाजिक एवं सांस्कृतिक सामग्री की संगति बाह्य साक्ष्य से बिठाकर काल-निर्णय में सहायता ली जाती है । बाह्य साक्ष्य काल-निर्धारण में प्रमुख रहता है अतः इसे बाह्य साक्ष्य में रखा जा सकता है।
__ यह भी तथ्य है कि सामाजिक और सांस्कृतिक आधार को काल-क्रम निर्धारण में उपयोगी बनाने के लिए उनका स्वयं का काल-क्रम किसी अन्य प्राधार से, वह अधिकांशतः ऐतिहासिक हो सकता है, सुनिश्चित करना होगा।
यह भी ध्यान में रखना होगा कि सामाजिक और सांस्कृतिक सामग्री को बिल्कुल अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता । दोनों का इतना अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है कि दोनों को एक मान कर चलना ही अधिक समीचीन प्रतीत होता है।
सांस्कृतिक एवं सामाजिक साक्ष्य से काल-निर्धारण का उदाहरण डॉ० माताप्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित 'बसन्त विलास और उसकी भाषा' शीर्षक पुस्तक से मिलता है। - डॉ० माताप्रसाद गुप्त से पूर्व 'बसन्त विलास' के काल-निर्णय का प्रयत्न प्रो० डब्ल्यू० नारमन ब्राउन और उनसे पूर्व श्री कान्तिकाल बी० व्यास कर चुके थे। इन दोनों ने भाषा को आधार मान कर ऊपरली और निचली काल सीमाएँ निर्धारित की थीं-वे थीं 1400-1424 के बीच ।
__ इसका खण्डन और अपने मत का संकेत उक्त पुस्तक की भूमिका में रचना-काल शीर्षक में संक्षेप में यों दिया है :
"कृति के रचना-काल का उसमें कोई उल्लेख नहीं है। उसकी प्राचीनतम प्राप्त
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290/पाण्डुलिपि-विज्ञान
प्रति सं० 1508 की है, इसलिये यह उसकी रचना-तिथि की एक सीमा है। सं० 1508 की प्रति का पाठ अवश्य ही कुछ-न-कुछ प्रक्षेप-पूर्ण हो सकता है, क्योंकि वही सबसे बड़ा है, और पाठान्तरों की दृष्टि से अनेक स्थलों पर उससे भिन्न प्रतियों के पाठ अधिक प्राचीन ज्ञात होते हैं, इसलिये, रचना का समय सामान्यतः उससे काफी पहले का होना चाहिये। यह स्पष्ट है जैसा ऊपर कहा जा चुका है, प्रायः विद्वानों ने रचना की उक्त प्राचीनतम प्राप्त प्रति की तिथि मे उसे एक शताब्दी पूर्व माना है । किन्तु मेरी समझ में यहां उन्होंने अटकल से ही काम लिया है। पूरी रचना आमोद-प्रमोद और क्रीडापूर्ण नागरिक जीवन का ऐसा चित्र उपस्थित करती है जो मुख्य हिन्दी प्रदेश में 1250 वि० की जयचन्द पर मुहम्मद गौरी की विजय के अनंतर और गुजरात में 1356 वि० के अलाउद्दीन के सेनापति उलुगखां की विजय के अनंतर इस्लामी शासन के स्थापित होने पर समाप्त हो गया था । इसलिये रचना अधिक से अधिक विक्रमीय 14वीं शती के मध्य, ईस्वी 13वीं शती-की होनी चाहिये ।
फिर डॉ० गुप्त ने विस्तारपूर्वक 'बसन्त विलास' के उद्धरणों से उस जन-जीवन का विवरण दिया है और तब निष्कर्षतः लिखा है कि :
"इस व्याख्या से यह स्पष्ट ज्ञात होगा कि तेरहवीं शती ईस्वी की मुसलमानों की उत्तर-भारत-विजय से पूर्व का ही नागरिक जीवन रचना में चित्रित है। मुसलमानों के शासन के अन्तर्गत इस प्रकार की स्वच्छन्दता से नगर के युवक-युवतियों की नगर के क्रीड़ावनों में मिलने की कोई कल्पना नहीं कर सकता है जैसी वह इस काव्य में वर्णित हुई है । कवि किसी पूर्ववर्ती ऐतिहासिक युग का इसमें वर्णन भी नहीं करता है, वह अपने ही समय के बसन्त के उल्लास-विलास का वर्णन करता है, इसलिये मेरा अनुमान है कि 'वसन्तविलास' का रचना-काल सं० 1356 के पूर्व का तो होना ही चाहिये और यदि वह सं० 1250 से भी पूर्व की रचना प्रमाणित हो तो मुझे आश्चर्य न होगा। सम्भव है उसकी भाषा का प्राप्त रूप इस परिणाम को स्वीकार करने में बाधक हो। किन्तु भाषा प्रतिलिपिपरम्परा में घिसकर धीरे-धीरे अधिकाधिक आधुनिक होती जाती है। इसलिये भाषा का स्वरूप प्राप्त परिणाम को स्वीकार करने में बाधक नहीं होना चाहिये ।"3
इस उद्धरण से उस प्रणाली का उद्घाटन होता है जिससे सांस्कृतिक-सामाजिक सामग्री को काल-निर्धारण का आधार बनाया जा सकता है।
इसमें सांस्कृतिक सामाजिक जीवन का, बसन्त के अवसर का आमोद-प्रमोद वणित है। डॉ० गुप्त ने इस आधार को लेकर एक ऐतिहासिक घटना के परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया है । वह घटना है उत्तरी भारत और गुजरात पर इस्लामी विजय और शासनइनका काल विदित है 1250 तथा 1356। कल्पना यह है कि इस समय के बाद ऐसा जीवन जिया नहीं जा सकता था; न कवि उसका ऐसा सजीव वर्णन ही कर सकता था।
1. (अ) वाह्य माक्ष्य की दृष्टि से काल संकेत युक्त प्रतिलिपि की महत्वपूर्ण होती है, यह इससे सिद्ध
होता है। (आ) यथा-श्री मंजुलाल मजमुदार--गुजराती साहित्य ना स्वरूपो पश्च विभाग पृ. 225 । गुप्त, माताप्रसाद (डॉ.)-बसंत विलास और उसको भाषा, पृ. 4-51 गुप्त, माताप्रसाद (डॉ.)-बसंत विलास और उसकी भाषा, पृ. 8।
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काल निर्धारण/291
वैसा वर्णन उस काल में रहने वाला कवि ही कर सकता है। 'बसन्त विलास' से उसकी वर्तमानकालिकता प्रकट है । स्पष्ट है कि एक प्रकरण का मेल इतिहास काल-क्रम वाली एक घटना से स्थिर किया गया, तब काल-विषयक निष्कर्ष पर पहुँचा गया।
इस काल-निर्धारण में भाषा का साक्ष्य बाधक प्रतीत होता था क्योंकि गुप्त से पूर्व दो विद्वानों ने भाषा के साक्ष्य पर ही 1400-1425 के बीच काल-निर्धारित किया था, अतः इस तर्क को इस सिद्धान्त से काट दिया कि 'प्रतिलिपि परम्परा' में भाषा अधिकाधिक आधुनिक होती जाती है ।
स्पष्ट है कि सांस्कृतिक बाह्य साक्ष्य + इतिहास-सिद्ध कालक्रमयुक्त घटना से यहाँ निष्कर्ष निकाला गया है।
जिस प्रकार समाज और संस्कृति को उक्त रूप में काल-निर्धारण के लिये साक्ष्य बनाया जा सकता है, उसी प्रकार धर्म, राजनीति, शिक्षा, आर्थिक तत्त्व, ज्योतिष आदि भी अपनी-अपनी तरह से काल सापेक्ष होते हैं, अतः काल-निर्धारण में मात्र किसी एक प्राधार से काम नहीं चल पाता, जितनी भी बातों में काल-सूचक बीज होने की सम्भावना हो सकती है, उनकी परीक्षा की जाती है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने पाणिनि का काल-निर्णय करने में साहित्यिक तर्क (Literary argument),1 मस्करी परिव्राजक : एक. विशेष शब्द,' बुद्ध धर्म, श्राविष्ठा प्रथम नक्षत्र, नन्द से सम्बन्ध, राजनीतिक सामग्री (data), यवनानी लिपि का उल्लेख, पशु विषयक कथान्त स्थान नाम, क्षुद्रक-मालय' पाणिनि और कौटिल्य, सिक्कों का साक्ष्य, व्यक्ति-नाम (गोत्रनाम, एवं नक्षत्र-नाम के आधार पर), पाणिनि और जातक, पाणिनि तथा मध्यम पंथ आदि की परीक्षा की। स्पष्ट है कि काल-निर्धारण में एक नहीं अनेक प्रकार के साक्ष्यों की परीक्षा करनी होती है। पहले के तर्कों और प्रमाणों की समीचीनता सिद्ध या प्रसिद्ध करनी होती है । बाह्य साक्ष्य में से बहुत से अंतरंग साक्ष्य से गुंथे हुए हैं । अंतरंग साक्ष्य
अंतरंग साक्ष्य को दो पक्षों में बाँट सकते हैं, एक है स्थूल पक्ष, दूसरा है सूक्ष्म । स्थूल पक्ष का सम्बन्ध उन भौतिक वस्तुओं से होता है जिनसे ग्रंथ निर्मित हुआ है। इसे वस्तुगत पक्ष कह सकते हैं, जैसे-ग्रन्थ का कागज, ताड़पत्र आदि । उसका आकार-प्रकार भी कुछ अर्थ रखते ही हैं । स्याही भी इसमें सहायक हो सकती है। इसी स्थूल पक्ष का एक और पहलू है : लेखन । लेखन व्यक्तिगत पहल माना जा सकता है। व्यक्ति अर्थात् लेखक
1. वस्तुत: यह तर्क गोल्डस्टुकर के इस तर्क को काटने के लिये दिया है कि पाणिनि आरण्यक, उपनिषद,
प्रातिशाख्य, वाजसनेयी सहिता, शतपथ ब्राह्मण, अथर्ववेद और षड्-दर्शन से परिचित नहीं थे, अत: यास्क के बाद पाणिनि हुए थे।
यह सिद्ध करने के लिये कि इस व्यक्ति से पाणिनि परिचित थे, अत: इसके बाद ही हए। 3. गोल्डस्टकर के इस तर्क का खंडन करने के लिये कि पाणिनि बुद्ध से पूर्व हुए।
ज्योतिष पर आधारित साक्ष्य । 5. ऐतिहासिक आधार । 6. एक विशेष जाति संबंधी । .7. गणों का संघ एवं सैन्य संगठन तथा युद्ध-विद्या सम्बन्धी। 8. कुछ विशिष्ट शब्दों से दोनों परिचित थे, इस आधार पर काल निर्धारण में सहायता ।
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292/पाण्डुलिपि-विज्ञान
या लिपिकार का लिखने का अपना ढंग होता है। इसमें लिपि का पहला स्थान है : इसमें देखना होता है कि कौनसी लिपि में लेखक ने लिखा है ? यही नहीं, वरन् यह भी देखना होता है कि जिस लिपि में उसने लिखा है, उसके किस रूप में और अक्षर के किस प्रकार में लिखा है । लिपि का भी इतिहास होता है, और उसकी वर्णमाला के अक्षरों का भी होता है । प्रत्येक लेखक कालगत स्थिति में अपनी पद्धति में लिखता है। इसे भी क्या काल-निर्धारण का प्राधार बनाया जा सकता है, यह देखना होता है। लेखन में अलंकरणों का भी स्थान होता है । लिपि को भी विविध प्रकार से अलंकृत किया जाता है, तथा लेख में जहाँ-तहाँ मंगल उपकरणों से तथा अन्य प्रकार से सजाया जाता है। क्या इनसे भी काल-निर्णय में कोई सहायता मिल सकती है, यह भी देखना होगा । पृष्ठांकन प्रणाली का अन्तर भी इसी वर्ग में प्रायेगा। सचित्र ग्रन्थ हो तो चित्र-योजना पर भी काल-निर्धारण की दृष्टि से विचार करना होगा। इनके बाद हमें यह अनुसंधान भी करना होगा कि क्या कोई और ऐसा तत्त्व हो सकता है जो व्यक्तिगत पक्ष में प्राता हो और उक्त वस्तुओं में न आ पाया हो । अब हम पहले वस्तुगत पक्ष में कागज को लेते हैं। कागज = लिप्यासन
यहां कागज का व्यापक अर्थ लिया गया है, इसीलिए इसे 'लिप्यासन' नाम दिया गया है। यह हम पहले देख चुके हैं कि लिप्यासन में पत्थर, ईंट, धातु, चमड़ा, पत्र, छाल, कागज आदि सभी पाते हैं ।
हम यह देख चुके हैं कि लिप्यासनों के प्रकारों से लेखन के विभिन्न युगों से सम्बन्ध है। इंटों पर लेखन ईसा के 3000 वर्ष पूर्व तक हुआ, यह माना जा सकता है। इसी प्रकार 3000 ई०पू० से पेपीरस के खरड़ों (Rolls) का युग चलता है। ई०पू० 1000 से 800 के बीच कोडेक्स या चर्म-पुस्तकों का युग प्रारम्भ हुआ माना जा सकता है। तब कागज का प्रारम्भ चीन से होकर यूरोप पहुंचा। सन् 105 ई० से कागज का प्रचार ऐसा हा कि अन्य लिप्यासनों का उपयोग समाप्त हो गया। भारत में कागज सिकन्दर के समय में भी बनता था किन्तु ईंटों के बाद पत्थर, और उसके बाद ताड़-पत्र एवं भूर्ज-पत्रों का उपयोग विशेष होता रहा। भूर्ज-पत्र से भी अधिक ताड़-पत्र का उपयोग भारत में हुअा है। ___ कागज का प्रचार सबसे अधिक हुआ है।
. ये लिप्यासन काल-निर्धारण में केवल इसीलिये सहायक माने जा सकते हैं कि इन पर भी काल का प्रभाव पड़ता है। काल का प्रभाव अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों में अलग-अलग पड़ता है। नेपाल में ताड़-पत्रीय संस्कृत ग्रन्थों के अनुसन्धान के विवरण में यह उल्लेख है कि ताड़पत्र-ग्रन्थों के लिये नेपाल का वातावरण, जलवायु अनुकूल है । वहाँ कालगत प्रभाव जलवायु से कुछ परिसीमित हो जाता है। फिर भी, प्रभाव पड़ता तो है ही । इसी काल-प्रभाव को अभी तक केवल अनुमान से ही बताया जाता रहा है। यह अनुमान पांडुलिपि-विज्ञानवेत्ता या पांडुलिपियों से सम्बन्धित व्यक्ति के अनुभव पर निर्भर करता है। अनुभवी व्यक्ति ग्रन्थ के कागज का रूप देख कर यह बात बता सकता है कि अनुमानतः यह पुस्तक कितनी पुरानी हो सकती है। यह अनुभवाश्रित अनुमान अन्य प्रयोग मे पुष्ट भी होना चाहिये । यदि प्रमाण मे पुष्ट नहीं होता तो यह तभी तक दुर्बल
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काल निर्धारण 293
अाधार के रूप में बना रहेगा जब तक कि या तो इसे खंडित नहीं कर दिया जाता या पुष्ट नहीं कर दिया जाता है।
हाँ, एक स्थिति ऐसी हो सकती है जिससे अनुभवाश्रित अनुमान अधिक महत्त्व का हो सकता है । दो हस्तलेखों की तुलना में एक पुरानी प्रति अपनी जीर्णता-शीर्णता आदि के कारण निश्चय ही कुछ वर्ष दूसरे से पहले की मानी जा सकती है। अनुसंधान विवरणों और हस्तलेखों के काल-निरर्णायक तर्कों में प्रति की प्राचीनता भी एक आधार होती है।
वास्तविक बात यह है कि काल-क्रम की दृष्टि से कागजों के सम्बन्ध में दो बातों पर अनुसंधानपूर्वक निर्णय लिया जाना चाहिये। एक तो कागजों के कई प्रकार मिलते हैं। हाथ के बने कागज भी स्थान भेदों से कितने ही प्रकार के हैं, और इसी प्रकार मिल के बने कागजों के भी कितने ही भेद हैं। इनमें परस्पर काल-क्रम निर्धारित किया जाना चाहिये ।
__ हमारे यहाँ 20वीं शताब्दी से पूर्व हाथ का बना कागज ही काम में आता था । प्रायः सभी पांडुलिपियाँ उन्हीं कागजों पर लिखी मिलती हैं ।
अब यह आवश्यक है कि कोई वैज्ञानिक विधि रासायनिक या राश्मिक आधार पर ऐसी आविष्कृत की जाय कि ग्रन्थ के कागज की परीक्षा करके उनके काल का वैज्ञानिक अनुमान लगाया जा सके ।
___ जब तक ऐसा नहीं होता तब तक अनुभवाश्रित अनुमान मे जो सहायता ली जा सकती है, ली जानी चाहिये । स्याही
स्याही को भी काल-निर्णय में कागज की तरह ही सहायक माना जा सकता है । काल का प्रभाव स्याही पर भी पड़ता ही है, पर उसको जानने के लिए और उस प्रभाव से समय को प्रांकने के लिए कोई निभ्रान्त साधन नहीं है।
इन दोनों के सम्बन्ध में एक विद्वान का कथन है कि “जब किसी संग्रह के ग्रन्थों को देखते हैं तो उसकी विभिन्न प्रतियाँ विभिन्न दशाओं में मिलती हैं। कोई-कोई ग्रन्थ तो कई शताब्दी पुराना होने पर भी बहुत स्वस्थ और ताजी अवस्था में मिलता है। उसका कागज भी अच्छी हालत में होता है, और स्याही भी जैसी की तैसी चमकती हुई मिलती है, परन्तु कई ग्रन्थ बाद की शताब्दियों के लिखे होने पर भी उनके पत्र तड़कने से और अक्षर रगड़ से विकृत पाये जाते हैं।"
- इस कथन से यही निष्कर्ष निकलता है कि कागज और स्याही को काल-निर्णय का साधन बनाते समय बहुत सावधानी अपेक्षित है, और उन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखना होगा जिनसे कागज और स्याही पर कालगत प्रभाव या तो पड़ा ही नहीं, या बहुत कम पड़ा, या कम पड़ा, या सामान्य पड़ा, या अधिक पड़ा।
पांडुलिपि-विदों ने काल-निर्गय में जहाँ इन दोनों का उपयोग किया है वहाँ तुलना के आधार पर ही किया है। लिपि
लिपि काल-निर्धारण में सहायक हो सकती है, क्योंकि उसका विकास होता आया
1. श्री गोपाल नारायण बहरा की टिप्पणियाँ।
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294/पाण्डुलिपि-विज्ञान
है, उस विकास में अक्षरों के लिपि-रूपों में परिवर्तन हुए हैं, जिन्हें काल-सीमाओं में बाँधा गया है । अक्षर का एक लिपि-रूप एक विशेष काल-सीमा में चला, फिर उसमें विकास या परिवर्तन हुआ और नया रूप एक विशेष काल-सीमा में प्रचलित रहा । आगे भी इसी प्रकार होता गया और विविध अक्षर-रूप विविध काल-सीमाओं में प्रचलित मिले। इस कारण एक विशेष अक्षर-रूप वाली लिपि को उस विशेष काल-अवधि का माना जा सकता है, जिसमें लिपि-वैज्ञानिकों ने उसे प्रचलित सिद्ध किया है।
शिलालेखों एवं अभिलेखों में लिपि के विकास की इन कालावधियों को सुविधा के लिये नाम भी दे दिये गये हैं।
अशोक-कालीन ब्राह्मी लिपि की कालावधि ई०पू० 500 से 300 ई० तक मानी गई । इस बीच में इसके अक्षर-रूपों में कुछ परिवर्तन हुए मिलते हैं। इन परिवर्तनों से एक नया रूप चौथी शती ई० में उभर उठता है ।
इसे गुप्तलिपि का नाम दिया गया, क्योंकि गुप्त सम्राटों के काल में इसका अशोक कालीन ब्राह्मी से पृथक् रूप उभर पाया । गुप्तलिपि का यह रूप छठी शती ई० तक चला। अन्य परिवर्तनों के साथ इसमें एक वैशिष्ट्य यह मिलता है कि सभी अक्षरों में कोण तथा सिरे या रेखा का समावेश हुआ । इसी को 'सिद्ध मातृका' का नाम दिया गया है।
इस लिपि में छठी से नवमी शताब्दी के बीच फिर ऐसा वैशिष्ट्य उभरा जो इसे गुप्तलिपि से पृथक कर देता है। ये वैशिष्ट्य हैं (1) गुप्तलिपि के अक्षरों की खड़ी रेखाएँ नीचे की ओर बायीं दिशा में मुड़ी मिलती हैं तथा (2) मात्राएँ टेढ़ी और लम्बी हो गई हैं, इसलिए इन्हें 'कुटिलाक्षर' या 'कुटिल लिपि' कहा गया। वहीं-कहीं 'विकटाक्षरा' भी नाम है।
- 'सिद्ध मातृका' से 'नागरी लिपि' का विकास हुआ। इसका आभास तो सातवीं शती से ही मिलता है, पर नवमी शताब्दी से अभिलेख और ग्रन्थ इस लिपि में लिखे जाने लगे । 11वीं शती में इसका व्यापक प्रयोग होने लगा।
यह स्थूल काल-विधान दिया गया है, यह बताने के लिए कि विशेष युग में लिपि का विशेष रूप मिलता है, अतः किसी विशेष लिपि-रूप से उसके काल का भी अनुमान लगाया जा सकता है, और लगाया भी गया है।
ग्रन्थों में उपयोग में आने पर भी लिपि-विकास रुकता नहीं, मन्द हो सकता है। यही कारण है कि ग्रन्थों की लिपियों में भी काल-भेद से रूपान्तर मिलता है, अतः उसके अाधार को काल-निर्णय का आधार किसी सीमा तक बनाया जा सकता है :
इसके लिए 'राउलवेलि' के सम्बन्ध में यह उद्धरण उदाहरणार्थ दिया जा सकता है । 'राउलवेलि' एक कृति या ग्रन्थ ही है, जो शिलालेख के रूप में धार से प्राप्त हुआ है। यह प्रिंस ऑव वेल्स म्यूजियम, बम्बई में सुरक्षित है ।
___ इस शिलांकित कृति में रचना-काल नहीं दिया गया। इसकी अन्तरंग सामग्री से किसी ऐतिहासिक व्यक्ति या घटना का भी संधान नहीं मिलता। इस कारण इतिहास से भी काल-निर्धारण में सहायता नहीं मिलती। अतः इस कृति के सम्पादक डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने लिखा:
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काल निर्धारण/295
"रचना का नाम 'राउल वेल' =राजकुल-विलास है, इसलिये शिलालेख के व्यक्ति राजकुल के प्रतीत होते हैं। किन्तु प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री से इन पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता है। लेख के अन्त में दोनों छोरों पर दो प्राकृतियाँ हैं, जिनमें से एक भग्न है, जो शेष है वह कमल-वन की है, और जो भग्न है निश्चय ही वह भी उसी की रही होगी। इस प्रकार की प्राकृतियाँ लेखों के अन्त में उनकी समाप्ति सूचित करने के लिए दी जाती हैं । ऐसी परिस्थितियों में लेख का समय निर्धारण केवल लिपि-विन्यास के प्राधार पर सम्भव है। इसकी लिपि सम्पूर्ण रूप से भोज देव के 'कूर्मशतक' वाले धार के शिलालेख से मिलती है (दे० इपिग्राफिया इंडिका, जिल्द 8, पृ० 241)। दोनों में किसी भी मात्रा में अन्तर नहीं है, और उसके कुछ बाद के लिखे हुए अर्जुनवर्मनदेव के समय के 'पारिजात मंजरी' के धार के शिलालेख की लिपि किंचित् बदली हुई है (दे० इपिग्राफिया इंडिका, जिल्द 8, पृ० 96) इसलिये इस लेख का समय 'कूर्मशतक' के उक्त शिलालेख के आस-पास ही अर्थात् 11वीं शती ईस्वी होना चाहिये ।"
इस उदाहरण से स्पष्ट है कि लिपि भी काल-निर्धारण में सहायक हो सकती है। लिपि का विशेष रूप काल से सम्बद्ध है, और ज्ञात कालीन रचना की लिपि से तुलना पर साम्य देखकर काल-निर्णय किया जा सकता है । 'कूर्मशतक' भोजदेव की कृति है, उसका काल भोजदेव के काल के आधार पर ज्ञात माना जा सकता है। जिस काल में 'कूर्मशतक' की रचना हुई, उसके कुछ समय बाद को शिलांकित 'पारिजात-मंजरी' की लिपि भिन्न है, अतः ‘राउलबेल' की लिपि उससे पूर्व की और 'कूर्मशतक' के समकालीन ठहरती है तो रचनाकाल 11वीं शती माना जा सकता है।
इसमें 1 लिपि साम्य, और 2. लिपि-भेद के दो साक्ष्य लिये गये हैं। वास्तव में, लिपि के अक्षरों और मात्रात्रों के रूप ही नहीं अलंकरणों के रूप का भी काल-निर्धारण में साक्ष्य मानना होगा।
ऐतिहासिक दृष्टि से तो 'भारतीय लिपि और भारतीय अभिलेख' विषयक रचनाओं में लिपियों के कालगत भेदों और उनके अक्षरों और मात्राओं के रूपों में अन्तर का उल्लेख सोदाहरण और सचित्र हुआ है। किन्तु ग्रन्थों की लिपियों का इतना गहन और विस्तृत अध्ययन नहीं हश्रा। लिपि के अाधार पर ग्रन्थों के काल-
निर्धारण की दृष्टि से शताब्दी क्रम से ग्रन्थों में मिलने वाले लिपि-अन्तरों और वैशिष्ट्यों का अध्ययन होना चाहिये। इसका कुछ प्रयत्न 'लिपि-समस्या' वाले अध्याय में किया भी गया है । पर, वह अपर्याप्त
इस सम्बन्ध में पहला महत्त्वपूर्ण कार्य क० मु० हिन्दी तथा भाषा-विज्ञान-विद्यापीठ के अनुसन्धानाधिकारी विद्वद्वर पं० उदयशंकर शास्त्री का है। इन्होंने परिश्रमपूर्वक कालक्रम से मिलने वाले अक्षर, मात्रा और अंकों के रूप शिलालेख आदि के साथ ग्रन्थों के आधार पर भी दिये हैं। इस अध्ययन को पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को और आगे बढ़ाना चाहिये । इनका यह फलक हमने 'लिपि समस्या' शीर्षक अध्याय में दिया है । उसमें कुछ और रूप भी हमने जोड़े हैं ।
1. गुप्त, माताप्रसाद, (डॉ.)-राउल वेल और उसकी भाषा, पृ. 191 2. दृष्टव्य-अध्याय-51
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296/पाण्डुलिपि-विज्ञान
लिपि रचना-काल निर्धारण में तभी यथार्थ सहायता कर सकती है जब काल-क्रम से प्राप्त प्रायः सभी या अधिकांश हस्तलेखों से अक्षर, मात्रा और अंक के रूप तुलनापूर्वक कालक्रमानुसार दिये जायें और कालक्रमानुसार उनके वैशिष्ट्य भी प्रस्तुत किये जायें। लेखन-पद्धति, अलंकरण आदि
वैसे तो लेखन-पद्धति, अलंकरण आदि का भी सम्बन्ध कालावधि से होता ही है, क्योंकि लिखने की पद्धति, उसे अलंकृत करने के चिह्न और उपादान, इनसे सम्बन्धित संकेताक्षरों और चिह्नों का प्रयोग, मांगलिक तत्त्वों का अंकन, सभी का काल-सापेक्ष प्रयोग होता है। इनसे प्रयोग को काल-क्रम में बाँधकर अध्ययन किया जा सकता है, और तब काल-निर्धारण में इनकी सहायता ली जा सकती है । यथा---- संकेताक्षरों की कालावधि : पाँचवीं शताब्दी ईस्वी 1. स, समु, सव, सम्व या संवत- संवत्सर के लिए पूर्व 2. प
पक्ष के लिए 3. दि या दिव
दिवस के लिए 4. गि, गृ०, ग्र०
ग्रीष्म के लिए 5. व या वा
वर्ष (प्रा० वासी) के लिए 6. हे या हेम आदि
हेमन्त के लिए पांचवीं शती से और 1. दू०
दूतक के लिए प्रागे 2. रू०
रूपक के लिए 3. द्वि०
द्वितीया के लिए 4. नि०
'निरीक्षित' के लिए, निबद्ध
के लिए 5. महाक्षनि (संयुक्त शब्द) महाक्षपटलिक-निरीक्षित के
लिए 6. श्रीनि
श्रीहस्त श्रीचरण निरीक्षित
के लिए
7. श्री नि महासाम
श्री हस्तनिरीक्षित एवं महासंधिविग्रहिक निरीक्षित के
लिए। वस्तुतः काल-निर्णय में सहायक होने की दृष्टि से अभी संकेताक्षरों को काल-क्रम और कालावधि में बाँधकर प्रस्तुत करने के प्रयत्न नहीं हुए।
लेखन-पद्धति में ही सम्बोधन और उपाधिबोधक शब्द भी स्थान रखेंगे। हम देख चुके हैं कि शब्दों के लेख में 'स्वामी' सम्बोधन को देख कर और नाट्यशास्त्र में राजा के लिये उसे प्रयुक्त बताया देखकर कुछ विद्वान् नाट्य कला का प्रारम्भ भी विदेशी शकशासकों से मानने लगे थे।
सम्बोधन और उपाधिबोधक शब्दों को काल-क्रम से इस प्रकार रखा जा सकता
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काल निर्धारण/297
272-232 ई० पू०
द्वितीय शती ई०पू०
प्रथम अर्धांश
द्वितीय शती ई०पू०
प्रथम शती ई०पू०
राजन् (अशोक जैसे सम्राट के लिए देवी (राज्ञी-रानी) महाराजा (भारतीय यूनानी शासकों के लिए) महाराज्ञी (महादेवी) तृतर (संस्कृत त्रातः रक्षक राजा के लिए)
अप्रकरण (सं. अप्रत्यग्र, जप्रतिद्वन्द्वी रहित) 5. राजन् (यह शब्द भी प्रयोग में था)
महरजस रजरजस (या रजदिरजस) महतस (सं० महाराजस्य राजराजस्य महतः
या राजाधिराजस्य महतः) 7. महाराजाधिराज या भट्टारक महाराज
राजाधिराज । महाराजाधिराज परमभट्टारक 8. महाराज (7. के अाधीन राजा) 9. राजाधिराज परमेश्वर 10. पंच महाशब्द-'प्राप्त पंचमहा शब्द' या
'समाधिगत पंच महाशब्दः' पंचमहाशब्द-1. महाप्रतिहार
या 2. महासंधिविग्रहिक अशेष महाशब्द--3. महाअश्वशालाधिकृत
4. महाभाण्डागारिक 5. महासाधनिक
चौथी शती ईसवी (गृप्त काल)
6ठी शती ईसवी 9वीं, 10वीं शती ई०
अथवा
1. महाराज 2. महासामन्त 3. महाकार्ताकृतिक 4. महादण्डनायक 5. महाप्रतिहार
अथवा
पंचमहाशब्दपंच महावाद्य आदि ऐसी उपाधियों और नामों की एक लम्बी सूची बनायी जा सकती है और प्रत्येक को कालावधि ऐतिहासिक काल-क्रमणिका में स्थिर की जा सकती है, तब ये काल-निर्धारण में अधिक सहायक हो सकते हैं ।
इसी प्रकार से अन्य वैशिष्ट्य भी लेखन-पद्धति में काल-भेद से मिलते हैं, जिन्हें बाल-तालिका में यथा-स्थान निबद्ध करना चाहिये और पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को स्वयं ऐसी कालक्रम तालिकाएं बना लेनी चाहिये।
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298/पाण्डुलिपि-विज्ञान
इसी प्रकार अलंकरण-विधान भी काल-क्रमानुसार मिलते हैं, अतः इनकी भी सुची प्रस्तुत की जा गकती है और काल-क्रम निर्धारित किया जा सकता है । अन्तरंग पक्ष : सूक्ष्म साक्ष्य
ऊपर स्थूल-पक्ष पर कुछ विस्तार से चर्चा की गई है। अब सूक्ष्म साक्ष्य पर भी संक्षेप में दिशा-निर्देश उचित प्रतीत होता है। सूक्ष्म साक्ष्य में वह सब कुछ समाहित किया जाता है जो स्थूल पक्ष में नहीं आ पाता । इसमें पहला साक्ष्य भाषा का है। भाषा
___ भाषा का विकास और रूप-परिवर्तन भी काल-विकास के साथ होता है, अतः भाषा का गम्भीर अध्येता उसकी रूप-रचना और शब्द-सम्पत्ति तथा व्याकरणगत स्थिति के आधार पर विकास के विविध चरणों को कालावधियों में बाँटकर, काल-निर्धारण में महायक के रूप में उसका उपयोग कर सकता है। इसका एक उदाहरण 'बसन्त विलास' के काल-निर्धारण का दिया जा सकता है। यह हम देख चुके हैं कि 'बसन्त-विलास' में काल विषयक पुष्पिका नहीं है । तब डॉ० माताप्रसाद गुप्त से पूर्व जिन विद्वानों ने 'बसन्त विलास' का सम्पादन किया था उन्होंने भाषा के साक्ष्य को ही महत्त्व दिया था। उनके तर्क को डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने संक्षेप में यों दिया है :
"श्री व्यास (श्री कान्तिलाल बी० व्यास) ने 1942 में प्रकाशित अपने पूर्वोक्त संस्करण में कृति की रचना-तिथि पर बड़े विस्तार से विचार किया है (भूमिका पृ० 29-37)। उन्होंने बताया है कि सं० 1517 के लगभग लिखते हुए रत्नमन्दिर गरिण ने अपनी 'उपदेशतरंगिणी' में 'बसन्त-विलास' का एक दोहा उद्धृत किया है, और रचना की सबसे प्राचीन प्रति, जो कि चित्रित भी हैं, सं० 1508 की है, इससे स्पष्ट है कि रचना विक्रमीय 16वीं शती को प्रारम्भ में ही पर्याप्त ख्याति और लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी थी।" (यहां तक बाह्य साक्ष्यों का उपयोग किया गया है) “साथ ही उन्होंने लिखा है कि भाषा की दृष्टि से विचार करने पर कृति की तिथि की दूसरी सीमा सं० 1350 वि० मानी जा सकती है । भाषा-सम्बन्धी इस साक्ष्य पर विचार करने के लिए उन्होंने सं० 1330 में लिपिबद्ध 'आराधना', सं० 1369 में लिपिबद्ध 'अतिचार' सं० 1411 में लिखित 'सम्यक्तव कथानक' सं० 1415 में लिखित 'गौतम रास' सं0 1450 में लिखित 'मुग्धावबोध औक्तिक,' सं० 1466 में लिखित 'श्रावक अतिचार', सं० 1478 में लिखित 'पृथ्वी चन्द्र चरित्र' तथा सं० 1500 में लिखित 'नमस्कार बालावबोध' से उद्धरण देते हुए उनकी भाषाओं से 'वसन्त-विलास' की भाषा की तुलना की है और लिखा है कि 'बसन्त-विलास' की भापा 'श्रावक अतिचार' (सं० 1466) तथा 'मुग्धावबोधौक्तिक, (सं० 1450) से पूर्व की और 'सम्यक्त्व कथानक' (सं० 1411) तथा 'गौतम रास' (सं0 1412) के निकट की ज्ञात होती है । इस भाषा सम्बन्धी साक्ष्य से तथा इस तथ्य से कि रत्नमन्दिर गणि के समय (सं० 1517) तक कृति ने पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी, यह परिणाम निकाला जा सकता है कि 'बसन्त-विलास' की रचना सं0 1400 के आस-पास हुई थी। इसलिए मेरी राय में विक्रमीय 15वीं शती का प्रथम चतुर्थांश ही (सं0 1400-1425) 'बसन्त विलास' का सम्भव रचनाकाल होना चाहिये (भूमिका पृ० 37)।"1 1. गुप्त, माताप्रसाद (डॉ०)--बसन्त-विलास और उसकी भाषा, (भूमिका), पृ. 4।..
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काल निर्धारण/299
डॉ० गुप्त के इस उद्धरण से स्पष्ट होता है कि 'बसन्त-विलास' के काल-निर्धारण में भाषा-साक्ष्य के लिए 1330 से लेकर 1500 संवत् तक के काल-युक्त प्रामाणिक ग्रन्थों को लेकर उनसे तुलनापूर्वक बसन्त-विलास के काल का निर्धारण किया गया है। इसमें मुख्य साक्ष्य भाषा का ही है ।
भाषा का साक्ष्य सहायक के रूप में अन्य साक्ष्यों और प्रमाणों के साथ पा सकता
वस्तुविषयक साक्ष्य
वस्तु-विषयक साक्ष्य में वस्तु सम्बन्धी बातें आती हैं; उदाहरणार्थ, भारत के नाट्यशास्त्र के काल निर्धारण में एक तर्क यह दिया जाता है कि नाट्यशास्त्र में केवल चार अलंकारों का उल्लेख है : कारणे महोदय ने लिखा है :
“(h) All ancient writers on alankara, Bhatti (between 500-650 A.C.), Bhamaha, दण्डी, उद्भट, define more than thirty figures of speech, भरत defines only four, which are the simplest viz. उपमा, दीपक, रूपक and यमक, भरत gives a long disquisition on metres and on the prakrits and would not have scrupled to define more figures of speech if he had known them. Therefore he preceded these writers by some centuries atleast. The foregoing discussion has made it clear that the ICANTET can not be assigned to a later date than about 300 A.C." 1.. अलंकारों की संख्या 2. अलंकारों की सरल प्रकृति 3. ज्ञात प्राचीनतम अलंकार-शास्त्रियों द्वारा बताये गये संख्या में 35 अलंकार। 4. यदि भरत को चार से अधिक अलंकार विदित होते या उस काल में प्रचलित होते
तो वह उनका वर्णन अवश्य करते, जैसे छन्द-शास्त्र और प्राकृत भाषाओं का
किया है : निष्कर्ष-उन के समय चार अलंकार ही शास्त्र में स्वीकृत थे ।। 5. चार की संख्या से 35-36 अलंकारों तक पहुंचने में 200-300 वर्ष तो अपेक्षित
ही हैं । यह काणे महोदय का अपना अनुमान है-जिसके पीछे हैं नये अलंकारों की उद्भावना में लगने वाला सम्भावित समय ।
स्पष्ट है कि यहाँ 'वस्तु के अंश' को आधार मान कर काल-निर्णय में सहायता ली गई है।
___ इसी प्रकार 'वस्तु' का उपयोग काल-निर्धारण के लिए किया जा सकता है। पागिनि के काल-निर्धारण में डॉ० अग्रवाल ने वस्तुगत सन्दर्भो से ही काल-निर्धारण किया है, उपनिषद्, श्लोक श्लोककार मस्कंक्त नट सूत्र, शिशक्रन्दीय, यमसभीय, इन्द्रजननीय, अन्तरयन देश, दिष्ट मति, निर्वाण, कुमारी श्रमणा चीवरयते, औत्तराधर्य, श्रविष्ठा यवनानी लिपि तथा अन्य भी पाणिनि के सूत्रों में आने वाले शब्दों से काल-निर्धारण में
1. Kane, P.V.. Sahitya darpan-(Introductjon), p XI
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300/पाण्डुलिपि-विज्ञान
सहायता ली गई है। ये सभी वर्ण्य वस्तु के अंश हैं। ये सभी ग्रंथ गत साहित्यिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, ज्योतिष आदि के उल्लेख हैं, अतः उनकी सहायता से इन शब्दों से काल-सन्दर्भ ढूंढा जा सका है।
तात्पर्य यह है कि काल-निर्धारण एक समस्या है, जिसे अंतःसाक्ष्य के आधार पर अनेक विधियों से सुलझाने का प्रयत्न किया जा सकता है। पाण्डुलिपि-विज्ञानार्थी को इस दिशा में सहायक सिद्ध हो सकने के लिए विविध विषयगत काल-क्रमानुसार तालिकाएँ प्रस्तुत करनी चाहिये । वैज्ञानिक प्रविधि
___ काल-निर्धारण विषयक हमारा क्षेत्र ‘पांडुलिपि' का ही है, किन्तु जब पांडुलिपि भूमि-गर्भ में दबी मिले और सन्-संवत् या तिथि आदि के जानने का कोई साधन न हो तो कुछ अन्य वैज्ञानिक साधनों का उपयोग किया जा सकता है, किया जाता है जैसे-- मोहनजोदड़ों से मिलने वाली सामग्री । इसके काल-निर्धारण के लिए एक प्रणाली तो पहले से प्रचलित थी, पृथ्वी पर जमे पर्तों के आधार पर :
"As the result of exacavations carried out at the statue of Ramses II, at Memphis in 1850, Horner ascertained that I feet 4 inches of mud accumulated since that monument had been erected, i.e. at the rate of 3} inches in the century."
__ इसी प्रकार भूमि के मिट्टी के पर्तों के अनुसार जिस गहराई पर वस्तु मिली है, उसका प्रानुमानिक काल निर्धारित किया जा सकता है, प्रायः किया भी जाता रहा है। यदि उस भूमि पर वृक्ष उगे हुए हैं तो वृक्षों के तने काट कर देखने पर उसमें एक के ऊपर एक कितने ही पर्त दिखाई पड़ते हैं, उनके आधार पर उस वृक्ष का भी समय निर्धारित किया जा सकता है । भूमि और वृक्ष दोनों के परतों से उस वस्तु का काल प्राप्त हो सकता है । ये दोनों ही प्रणालियाँ वैज्ञानिक हैं। ज्योतिष की गणना की पद्धति भी वैज्ञानिक ही है। पर अभी हाल ही में संयुक्त राज्य के प्रो० एम० सी० लिब्बी ने रेडियोऐक्टिव कार्बन से काल-निर्धारण की वैज्ञानिक विधि का उद्घाटन किया। टाटा इंस्टीट्यूट ऑव फंडामेण्टल रिसर्च नामक बम्बई स्थित संस्थान ने 1951 से 'रेडियो-कार्बन काल-निर्धारण विभाग' स्थापित कर रखा है, इसकी प्रयोगशाला में 'कार्बन' रेडियोधर्मिता के आधार पर कालनिर्धारण की विशद पद्धति विकसित करली है। इससे वस्तुओं के काल-निर्धारण का कार्य मम्पन्न किया जाता है। इसके परिणामों में 100 वर्षों का ही हेर-फेर रहता है, अन्यथा बहुत ही ठीक काल ज्ञात हो जाता है।
इस अध्याय में हमने काल-निर्धारण सम्बन्धी समस्याओं, कठिनाइयों और उनके समाधान के प्रयत्नों का संक्षेप में उल्लेख किया है-यह उल्लेख भी संकेतरूप में ही है, केवल दिशा-निर्देशन के लिए । वस्तुतः व्यक्तियों की प्रतिभा अपनी समस्याओं और कठिनाइयों के समाधान के लिए अपना रास्ता स्वयं निकालती है। कवि निर्धारण समस्या
___ कवि-निर्धारण की समस्या तो बहुत ही जटिल है। कितनी हो उलझनें उसमें पाती हैं, कितने ही सूत्र गुथे रहते हैं, वे सूत्र भी अनिश्चित प्रकृति वाले होते हैं ।
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काल निर्धारण/301
इनसे कभी-कभी जटिल समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं। कभी-कभी यह जानना कठिन हो जाता है कि कृति का कवि कौन है।
इस समस्या के कई कारण हो सकते हैं : 1. कवि ने नाम ही न दिया हो जैसे ध्वन्यालोक में ।
कबि ने नाम ऐसा दिया हो कि वह सन्देहास्पद लगे। 3. कवि ने कुछ इस प्रकार अपने नाम दिये हों कि प्रतीत हो कि वे अलग
अलग कवि हैं—एक कवि नहीं—सूरदास, सूर, सूरज आदि या ममारिक और मुवारक या नारायणदास और नाभा । कवि का नाम ऐसा हो कि उसके ऐतिहासिक अस्तित्व को सिद्ध न किया जा
सके, यथा, चन्दवरदायी। 5. ग्रन्थ सम्मिलित कृतित्व हो, कहीं एक कवि का तो कहीं दूसरे का नाम दिया
गया हो । जैसे--'प्रवीण सागर' का 6. ग्रन्थ अप्रामाणिक हो और कवि का जो नाम दिया गया हो, वह झूठा हो
यथा-'मूल गुसाईचरित', बाबा बेणीमाधवदास कृत। 7. कवि में पूरक कृतित्त्व हो इससे यथार्थ के सम्बन्ध में भ्रान्ति होती हो,
जैसे-चतुर्भुज का मधुमालती और पूरक कृतित्व उसमें गोयम का।। 8. विद्वानों में किसी ग्रन्थ के कृतिकार कवि के सम्बन्ध में परस्पर मतभेद हो । 9. ग्रन्थ के कई पक्ष हों, यथा-मूल ग्रन्थ, उसकी वृत्ति और उसकी टीका । हो
सकता है मूल ग्रन्थ और वृत्ति का लेखक एक ही हो या अलग-अलग होंजिससे भ्रम उत्पन्न होता हो । उदाहरणार्थ ध्वन्यालोक की कारिका एवं
वृत्ति । 10. लिपिकार को ही कवि समझ लेने का भ्रम, आदि। ऐसे ही और भी कुछ
कारण दे सकते हैं।
एक उदाहरण लें-संस्कृत में 'ध्वन्यालोक' के लेखक के सम्बन्ध में समस्या खड़ी हुई । 'ध्वन्यालोक' का अलंकार-शास्त्र या साहित्य शास्त्र के इतिहास में वही महत्त्व है जो पाणिनि की अष्टाध्यायी का भाषा-शास्त्र में और वेदान्तसूत्र का वेदान्त में । ध्वन्यालोक से ही साहित्य-शास्त्र का ध्वनि-सम्प्रदाय प्रभावित हुआ। ध्वन्यालोक के तीन भाग हैं : पहले में हैं 'कारिकाएँ', दूसरे में हैं वृत्ति, यह गद्य में कारिकायों की व्याख्या करती है, तीसरा है उदाहरण । -इन उदाहरणों में से अधिकाँश पूर्वकालीन कवियों के हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि ये तीनों अंश एक लेखक के लिखे हुए हैं या दो के । दो इसलिए कि वृत्ति और उदाहरण वाले अंश तो निःसंदेह एक ही लेखक के हैं, अतः मुख्य प्रश्न यह है कि क्या कारिकाकार और वृत्तिकार एक ही व्यक्ति हैं ? यह प्रश्न इसलिए जटिल हो जाता है कि 'ध्वन्यालोक' के 150 वर्ष बाद अभिनवगुप्त पादाचार्य ने इस पर लोचन नामक टीका लिखी और ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें उन्होंने आनन्दबर्धन को वृत्तिकार माना है, कारिकाकार नहीं।
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302/पाण्डुलिपि-विज्ञान
इस 'ध्वन्यालोक' की पुष्पिका में इसका नाम 'सहृदयालोक' भी दिया गया है और काव्यालोक भी । 'सहृदयालोक' के आधार पर एक विद्वान् ने यह सुझाव दिया कि 'सहृदय' कवि का या लेखक का नाम है, इसी ने कारिकाएं लिखीं। 'सहृदय' को कवि मानने में प्रो० सोवानी ने लोचन के इन शब्दों का सहारा लिया है : 'सरस्वत्यास्तत्त्वं कविसहृदयाख्यं विजयतात् ।' यह ध्यान देने योग्य है कि यहाँ सहृदय का अर्थ सहृदय अर्थात् साहित्य का
आलोचक या वह जो हृदय के गुणों से युक्त है, हो सकता है । 'कवि सहृदय' का अर्थ 'सहृदय' नाम का कवि नहीं वरन् कवि एवं सहृदय व्यक्ति है। 'सहदय' के द्वयर्थक होने से किसी निर्णय पर निश्चयपूर्वक नहीं पहुंचा जा सकता।
किन्तु 'सहृदय' नामक व्यक्ति ध्वनि सिद्धान्त का प्रतिपादक था इसका ज्ञान हमें 'अभिघावृत्ति-भातृका' नामक ग्रंथ से, मुकुल और उसके शिष्य प्रतिहारेन्दुराज के उल्लेखों से विदित होता है । तो क्या 'कारिका' का लेखक 'सहृदय' था।
राजशेखर के उल्लेखों से यह लगता है कि आनन्दवर्धन ही कारिकाकार है और वृत्तिकार भी--अर्थात् कारिका और वृत्ति के लेखक एक ही व्यक्ति हैं।
उधर प्रतिहारेन्दुराज यह मानते हुए कि कारिकाकार 'सहृदय' है, आगे इंगित करते हैं कि वृत्तिकार भी 'सहृदय' ही हैं ?
प्रतिहारेन्दुराज ने प्रानन्दवर्धन के एक पद्य को 'सहृदय' का बताया है। उधर 'वक्रोक्ति जीवितकार' ने आनन्दवर्धन को ही ध्वनिकार माना है। समस्या जटिल हो गईक्या सहृदय कोई व्यक्ति है ? लगता है, यह व्यक्ति का नाम है। तब क्या यही कारिकाकार है और बृत्तिकार भी । या वृत्तिकार आनन्दवर्धन हैं, और क्या वे ही कारिकाकार भी हैं ? क्या कारिकाकार और वृत्तिकार एक ही व्यक्ति हैं या दो अलग-अलग व्यक्ति हैं ?
इस विवरण से यह विदित होता है कि समस्या खड़ी होने का कारण है : 1. कवि ने ध्वन्यालोक में कहीं अपना नाम नहीं दिया। 2. एक शब्द 'सहृदय' द्वयर्थक है-व्यक्ति या कवि का नाम भी हो सकता है और
सामान्य अर्थ भी इससे मिलता है। 3. किसी ने यह माना कि कारिकाकार और वृत्तिकार एक है और वह सहृदय है;
नहीं, वह अानन्दवर्धन है, एक अन्य मत है। 4. किसी ने माना कारिकाकार भिन्न है और वृत्तिकार भिन्न है।
इन सबका उल्लेख करते हुए और खण्डन-मण्डन करते हुए काणे महोदय ने निष्कर्षतः लिखा है कि :
“At present I feel inclined to bold (though with hesitation) that the लोचन is right and that प्रतीहारेन्दुराज, महिमभट्ट, क्षेमेन्द्र and others had not the correct tradition before them. It seems that may was eithers the name or title of the कारिकाकार and that आनन्दवर्धन was his pupil and was very closely associated with him. This would serve to explain the confusion of authorship that arose within a short time. Faint indications of this relationship may be traced in the ध्वन्यालोक. The word "सहृदय मनः
1. Kane, P V.-Sahityadarpan (Introdution), p. LX.
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काल निर्धारण/303
प्रीतये' in the first कारिका is explained in the वृत्ति as 'रामायणमहाभारत प्रभतिनि लक्ष्ये सर्वत्र प्रसिद्ध व्यवहारं लक्षयतां सहृदयानामानन्दो मनसि लभतां प्रतिष्ठिामिति प्रकाश्यते'. It will be noticed that the word प्रीति is purposely rendered by the double meaning word अानन्द (pleasure and the author आनन्द). The whole sentence may have two meanings 'may pleasure find room in the heart of the men of taste etc. and 'may aria (the author) secure regard in the heart of the (respected) ay who defined (the nature of ध्वनि) to be found in the रामायण &e'. Similary the words सहृदयोदयलाभ mat: in the last verse of the afat may be explained as 'for the sake of the benefit viz. the appearance of man of correct literary taste' or 'for the sake of securing the rise (of the fame) of सहृदय (the author).1
काणे महोदय के उक्त अवतरण से स्पष्ट है कि विविध साक्ष्यों, प्रमाणों से उन्हें यही समीचीन प्रतीत हुआ कि 'सहृदय' और 'पानन्दवर्धन' को अलग-अलग माने, सहृदय
और ग्रानन्द में गुरु-शिष्य जैसा निकट-सम्बन्ध परिकल्पित करें, और 'सहृदय' एवं 'प्रीति' जैसे शब्दों को श्लेष मानकर एक अर्थ को 'सहृदय' नाम के व्यक्ति तथा दूसरे को 'प्रानन्द' नाम के व्यक्ति के लिए प्रयुक्त मानें। कवि ने 'सहृदय' को ध्वनिकार का नाम नहीं माना, 'उपाधि' माना है, क्योंकि 'ध्वनि' में 'सहृदय' शब्द का बहुल प्रयोग हुआ है, इसलिए उन्हें यह उपाधि दी गई। उपाधि दी गई या 'सहृदय' उपाधि है इसका कोई अन्य बाह्य या अन्तरंग प्रमाण नहीं मिलता।
जो भी हो, इस उदाहरण से कवि-निर्धारण विषयक समस्या और समाधान की प्रक्रिया का कुछ ज्ञान हमें होता है ।
कभी दो कवियों के नाम-साम्य के कारण यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि अमुक कृति किस कवि की है।
'काल-निर्धारण' के सम्बन्ध में 'बीसलदेव रासो' का उल्लेख हो चुका है । कुछ विद्वानों ने यह स्थापना की कि बीसलदेव रासो का रचयिता 'नरपति' वही 'नरपति' है जो गुजरात का एक कवि है जिसने सं० 1548 ई० तथा 1503 ई० में दो अन्य ग्रन्थों की रचना की । इन विद्वानों ने दोनों को एक मानने के लिए दो अाधार लिये
1--भाषा का आधार, और 2-कुछ पंक्तियों का साम्य इस स्थापना को अन्य विद्वानों ने स्वीकार नहीं किया। उनके आधार ये रहे--- 1--नाम-गुजराती नरपति ने कहीं भी 'नाहू' शब्द अपने नाम के साथ नहीं
___ जोड़ा, जैसाकि बीसलदेव रासो के कवि ने किया है । 2-भाषा-भाषा 'बीसलदेव' रास की 16 वीं शती की नहीं, 14 वीं शती की है ।
Kane, P.V.-Sahityadarpan (Introduction), p. LXIV.
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304/पाण्डुलिपि-विज्ञान
3-साम्य-(क) कुछ पंक्तियों में ऐसा साम्य है जो उस युग के कितने ही कवियों
__ में मिल सकता है। (ख) जो सात पंक्तियाँ तुलनार्थ दी गई हैं, उनमें से चार वस्तुतः
प्रक्षिप्त अंश की हैं, शेष तीन का साम्य बहुत साधारण है, जिसे
यथार्थ में आधार नहीं बनाया जा सकता। 4-विषय-भेद--गुजराती नरपति की दोनों रचनाएँ जैन धर्म सम्बन्धी हैं । ये जैन
थे, अतः वस्तु की प्रकृति और कवि के विश्वास-क्षेत्र में स्पष्ट
अन्तर होने से दोनों एक नहीं हो सकते । यह विवाद यह स्पष्ट करता है कि एक नाम के कई कवि हो सकते हैं और उससे कौनसी रचना किस कवि की है, यह निर्धारण करना कठिन हो जाता है। नाम साम्य के कारण कई भ्रान्तियाँ खड़ी हो सकती हैं, यथा-एक 'भूषण' विषयक समस्या को उदाहरणार्थ ले सकते हैं : 'भूषण' कवि का नाम नहीं उपाधि हैं । अतः खोजकर्ताओं ने 'भूषण' का असली नाम क्या था, इस पर अटकलें भी लगायीं। जब एक विद्वान् को 'मुरलीधर कवि भूषण' की कृतियाँ मिली तो उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने घोषित किया कि 'भूषण' का मूल नाम 'मुरलीधर' था । इस प्रकार यह भ्रम प्रस्तुत हुआ कि 'भूषण' और 'मुरलीधर कवि भूषण' दोनों एक हैं । तब अन्तरंग और बाह्य साक्ष्य से यह निष्कर्ष निकाला गया कि दोनों कवि भिन्न हैं । क्यों भिन्न हैं, उसके कारण तुलनापूर्वक निम्नलिखित बताये गये हैं : महाकवि भूषण
__ मुरलीधर कवि भूषण 1. इनके पिता का नाम रत्नाकर है। 1. इनके पिता का नाम रामेश्वर है। 2. इनका स्थान त्रिविक्रमपुर (तिकवांपुर) 2. इन्होंने स्थान का नाम नहीं दिया । _है तथा गुरु का नाम धरनीधर था। 3. इनके आश्रयदाता हृदयराम सुत रुद्र ने 3. इनके आश्रयदाता देवीसिंह देव ने इन्हें
इन्हें 'भूषण' की उपाधि दी। "कुल 'कवि भूषण' की उपाधि दी। सूलंक चित्रकूट पति साहस शील समुद्र। कवि भूषण पदवी दई हृदयराम सुत
रुद्र ।" (शिवराज भूषण)। 4. इनके एक प्राश्रयदाता शिवाजी थे। 4. इनके एक आश्रयदाता हृदयशाह गढ़ा
धिपति थे। 5. इन्होंने केवल अलंकार ग्रन्थ लिखा 5. इन्होंने रस, अलंकार और पिंगल तीनों
जिसका वर्ण्य इतना अलंकार नहीं पर रचना की। पिंगल को इन्होंने जितना शिवराज का यशवर्णन था। कृष्ण-चरित बना दिया है। 6. इनका रचना-काल 1730 के लगभग 6. इनका रचना-काल 1700-1723 है।
7. इनकी भनिता है 'भूषण भनत' और
अधिकांण इन्होंने इसी रूप में या केवल भूषण नाम से छाप दी है।
7. इन्होंने 'कविभूषण' छाप बहुधा दी हैं।
कभी-कभी केवल 'भूषण' छाप भी है, 'भनत' शब्द का प्रयोग सम्भवतः नहीं किया। 8. इन्होंने अपने समस्त ग्रन्थों को 'प्रकाश' नाम दिया।
8. इन्होंने अपने ग्रन्थों को 'भूषण' नाम दिया।
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महाकवि भूषरण
9. इनकी प्राप्त सभी रचना वीररस की हैं ।
11.
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काल निर्धारण / 305
मुरलीधर कवि भूषरण
9. इनकी रचना में शृंगार और कृष्णचरित का प्राधान्य है ।
10. रचना अध्याय अन्त की कथा या
ग्रंथ के अन्त की पुष्पिका बहुत सामान्य हैं, अतः 'कविभूषरण' की पद्धति से बिल्कुल भिन्न है ।
ये शिवाजी के भक्त थे, शिवाजी को अवतार मानने वाले ।
कोई-कोई कृति किसी कवि विशेष के नाम से रची गई होती हैं पर उस कवि का ऐतिहासिक अस्तित्व कहीं न मिलने पर यह कह दिया जाता है कि यह नाम ही बनावटी हैं । पृथ्वीराज रासो को अप्रामाणिक, 16वीं - 17वीं शती का और प्रक्षिप्त मानने के लिए जब विद्वान् चल पड़े तो, यह भी किसी ने कह दिया कि इतिहास से किसी ऐसे चन्द का पता नहीं चलता जो पृथ्वीराज जैसे सम्राट का लँगोटिया यार रहा हो और पृथ्वीराज पर ऐसा प्रभाव रखता हो, जैसा रासौ से विदित होता है और जो सिद्ध कवि हैं । अतः यह नाम मात्र किसी चतुर की कल्पना का ही फल हैं, किन्तु एक जैन ग्रंथ में चन्दबरदायी के कुछ छन्द मिल गये तो मुनि जिनविजय जी ने यह मिथ्या धारणा चन्दबरदायी का अस्तित्व वो बाह्य साक्ष्य से सिद्ध हो गया। हुआ है।
खण्डित कर दी । तो अब
रासो फिर भी खटाई में पड़ा
10. इनकी पुष्पिकाओं में प्राश्रयदाता का विशद वर्णन तथा अपने पूरे नाम मुरलीधर कवि भूषरण के साथ पिता के नाम का भी उल्लेख है ।
11. ये कृष्ण-भक्त थे ।
इसी प्रकार की समस्या तब खड़ी होती है जब एक कवि के कई नाम मिलते हैंजैसे महाकवि सूरदास के सूरसागर के पदों में 'सूरदास' 'सूरश्याम', 'सूरज', 'सूरस्वामी' आदि कई छापें मिलती हैं। क्या ये छापें एक ही कवि की हैं, या अलग-अलग छाप वाले पद अलग-अलग कवियों के हैं । यद्यपि आज विद्वान् प्रायः यही मानते हैं कि ये सभी छापे 'सूरदास' की हैं, फिर भी, यह समस्या तो है ही और इन्हें एक कवि की हो छापें मानने के लिए प्रमाण और तर्क तो देने ही पड़ते हैं ।
'नलदमन' नामक एक काव्य को भी सूरदास का लिखा बहुत समय तक माना गया, किन्तु बाद में जब यह ग्रन्थ प्राप्त हो गया तब विदित हुआ कि इसके लेखक सूरदास सूफी हैं, और महाकवि सूरदास से कुछ शताब्दी बाद में हुए । अब यह ग्रन्थ क० मुं० हिन्दी तथा भाषा - विज्ञान विद्यापीठ, आगरा विश्वविद्यालय, आगरा से प्रकाशित भी हो गया है ।
अतः हमने देखा कि कितने ही प्रकार से 'कवि' कौन है या कौनसा है की समस्या भी पांडुलिपि - विज्ञानार्थी के लिये महत्त्वपूर्ण है ।
एक और प्रकार से यह समस्या सामने प्राती है : कवि राज्याश्रय में या किसी अन्य व्यक्ति के आश्रय में है । ग्रन्थ रचना कवि स्वयं करता है, पर उस कृति पर नाम - छाप अपने आश्रयदाता की देता । इसके कारण यह निर्धारण करना आवश्यक हो जाता है। कि वस्तुतः उसका रचनाकार कौन है ?
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उदाहरण ' के लिये 'शृंगारमंजरी' ग्रन्थ है, कुछ लोग इसे 'चिन्तामरिण' कवि की रचना मानते हैं, कुछ उनके प्राश्रयदाता 'बड़े साहिब' प्रकबर साहि की । इस सम्बन्ध में
1. सत्येन्द्र ( डॉ० ) --ब्रज साहित्य का इतिहास, पृ० 366 ।
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306/पाण्डुलिपि-विज्ञान
ब्रज साहित्य के इतिहास से ये पंक्तियाँ उद्धृत करना समीचीन प्रतीत होता है ।।
"कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि यह शृंगारमंजरी बड़े साहिब अकबर साहि की लिखी हुई है, क्योंकि पुस्तक के बीच-बीच में बड़े साहिब का उल्लेख है, परन्तु ध्यान से देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह ग्रन्थ चिन्तामणि ने बड़े साहिब अकबर साहि के लिये लिखा । इसके अन्त का उदाहरण है :
'इति श्रीमान् महाराजधिराज मुकुटतटघटित मनि प्रभाराजिनी राजित चरणराजीवसाहिराज गुरुराज तनुज बड़े साहिब के अकबर साहि विरचिता श्रृंगार मंजरी समाप्ता ।"
निश्चय है कि लेखक स्वयं अपने लिए इस प्रकार से विशेषण नहीं लिख सकता था। ये विशेषरण बड़े साहिब के लिए 'चिन्तामणि' ने ही प्रयुक्त किये होंगे । 'शृंगार मंजरी' के प्रारम्भिक छंदों में 'चिन्तामणि' का नाम भी आया है, यथा :
सोहत है सन्तत विबुधन मौं मंडित कहे कवि चिन्तामनि सब सिद्धिन को घरु । पूरन के लाख अभिलाष सब लोगनि के जाके पंचसाख सदा लानत कनक झरु ।। सुन्दर सरूप सदा सुमन मनोहर है जाके दरसन जग नैननि को तापहरु ।। . पीर पातसाहि साहिराज रत्नाकर ते प्रकटित भये हैं बड़े साहिब कल्पतरु ।
इन्हीं बड़े साहिब को 'शृंगार मंजरी' के रचयिता के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए चिन्तामणि ने लिखा है
"गुरुपद कमल भगति मोद मगन ह सुवरन जुगल जवाहिर खचत है" "निज मत ऐसी" "भाँति थापित करत जाते औरनि के मत लघु लागत लचत है" । "सकल प्रवीन ग्रन्थ लपनि विचारि कहे चिन्तामणि रस के समूहन सचत है"। "साहिराज नन्द बड़े साहिब रसिकराज 'शृंगार मंजरी' ग्रन्थ रूचिर रचत है" ।
इससे प्रकट होता है कि यह ग्रन्थ बड़े साहिब के लिये उनके नाम पर चिन्तामणि ने ही लिखा । अपने आश्रयदाता के नाम से ग्रन्थ प्रारम्भ और समाप्त करने की परिपाटी उस समय प्रचलित थी। डॉ० नगेन्द्र की मान्यता है कि "यह ग्रन्थ बड़े साहिब ने मूलतः आंध्र की भाषा में रचा, फिर संस्कृत में अनूदित हुआ। उसकी छाया पर चिन्तामणि ने रचा।" यह भी सम्भव है।
ऐसे ही यह प्रश्न उठा है कि 'ममारिख' और 'मुबारक' छाप वाले कवि दो हैं या एक ही हैं' । एक ही पद्य में एक संग्रह में 'मुमारिख' का प्रयोग हुआ है और दूसरे संग्रह में एक छाप है 'मुबारक' तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दोनों नाम एक ही के हैं। 'मुबारक' ही उच्चारण-भेद से 'मुमारख', या 'ममारिख' हो गया है, किन्तु उक्त प्रमाण अपने आपमें प्रबल नहीं है। कुछ और भी प्रमाण ढूंढने होंगे कि तर्क अकाट्य हो जाय । पूरक कृतित्त्व में भी कवि विषयक भ्रान्ति हो सकती है।
___ चतुर्भुजदास कृत 'मधुमालती' में दो पूरक कृतित्त्व हुये हैं : 1-माघव नाम के कवि द्वारा, 2-गोयम (गौतम) कवि द्वारा ।
पूरक कृतित्त्व में किसी पूर्व के या प्राचीन ग्रन्थ में किसी कवि को कोई कमी दिखाई
1. सत्येन्द्र, (डॉ.) ब्रज साहित्य का इतिहास, पृ. 249 ।
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काल निर्धारण/307
पड़ती है तो वह उसकी पूर्ति करने के लिए अपनी ओर से कुछ प्रसंग बढ़ा देता है, और इसका उल्लेख भी वह कहीं या पुष्पिका में कर देता है । गोयम कवि ने उस प्रसंग का उल्लेख कर दिया है, जो उसने जोड़े हैं, अतः उसके कृतित्त्व को 'चतुर्भुजदास' के कृतित्त्व से अलग किया जा सकता है, और यह निर्देश किया जा सकता है कि किस अंश का कवि कौन है।
पर 'प्रक्षेपों' के सम्बन्ध में यह बताना सम्भव नहीं। प्रक्षेप वे अंश होते हैं जो कोई अन्य कृतिकार किसी प्रसिद्ध ग्रन्थ में किसी प्रयोजन से बढ़ा देता है और अपना नाम नहीं देता । आज पाठालोचन की वैज्ञानिक प्रक्रिया से प्रक्षेपों को अलग तो किया जा सकता है, पर यह बताना असम्भव ही लगता है वह अंश किस कवि ने जोड़े हैं।
कभी-कभी एक और प्रकार से कवि-निर्धारण सम्बन्धी समस्या उठ खड़ी होती है । वह स्थिति यह है कि रचनाकार का नाम तो मिलता नहीं पर लिपिकार ने अपना नाम आदि पुष्पिका में विस्तार से दिया है। कभी-कभी लिपिकार को ही कृतिकार समझने का भ्रम हो जाता है, अतः लिपिकार कौन है और कृतिकार कौन है, इस सम्बन्ध में निर्णय करने के लिए ग्रन्थ की सभी पुष्पिकानों को बहुत ध्यानपूर्वक देखना होगा तथा अन्य प्रमाणों की भी सहायता लेनी होगी।
कभी मूल पाठ में आये कवि नाम का अर्थ संदिग्ध रहता है। यद्यपि एक परम्परा उसका ऐसा अर्थ स्वीकार कर लेती है, जो शब्द से सिद्ध नहीं होता, यथा-'सन्देश रासक में कवि का नाम 'अद्दहमारण' दिया हुआ है, 'सन्देशरासक' की दो संस्कृत टीकाओं में अद्दहमान का 'अब्दुलरहमान' मूल रूप स्वीकार किया है। उनके पास कवि को 'अब्दुलरहमान' मानने का क्या प्राधार था, यह विदित नहीं । शब्द स्वयं इस नाम को संकेतित करने में भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से कुछ असमर्थ है । अब्दुल का 'अद्द' और रहमान का 'हमाण' कैसे हुआ होगा । डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी को यह टिप्पणी देनी पड़ी है-'किन्तु यहाँ भी कवि ने शब्द गठन में कुछ स्वतन्त्रता का परिचय दिया है। अब्दुल रहमान में रहमान मुख्य पद है । इसमें से प्रारम्भ के अक्षर को छोड़ना उचित नहीं था।' डॉ० द्विवेदी ने यह टिप्पणी यही मान कर की है कि संस्कृत टीकाकारों ने जो नाम सुझाया है 'अब्दुल रहमान' वह ठीक है। कवि अपने नाम के साथ भी श्लेष के मोह से खिलवाड़ कर सकता है और उसको कोई विकृत रूप दे सकता है, यह कुछ अधिक जचने वाली बात नहीं लगती। हो सकता है 'अद्दहमाण' 'अब्दुलरहमान' न होकर कुछ और नाम हो । समस्या तो यह है ही। कुछ ने इसे समस्या ही माना है, पर क्योंकि कोई और उपयुक्त समाधान सप्रमाण नहीं है, अतः लकीर पीटी जा रही है ?
तो पाठ का रूप ही ऐसा हो सकता है कि या तो कवि का नाम ठीक प्रकार से निकाला ही न जा सके, या जो निकाला जाय वह पूर्णतः संतोषप्रद न हो तो आगे अनुसंधान की अपेक्षा रहती है।
इसी प्रकार किसी काव्य की कवि ने स्पष्ट रूप से कोई पुष्पिका न दी हो, जिसमें कवि-परिचय हो या कवि का नाम ही हो, तो भी कवि का नाम उसकी छाप से जाना जा सकता है, पर ऐसी भी कृतियाँ हो सकती हैं, जिनमें कुछ शब्द इस रूप में प्रयुक्त हुए हों कि वे नाम-छाप से लगें; उदाहरणार्थ 'बसन्त विलास' में कवि ने प्रारम्भ किया है कि मैं
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308 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
पहले सरस्वती की अर्चना करता हूँ फिर 'बसन्त विलास' की रचना करता हूँ, पर कहीं अपना नाम या अपनी नाम छाप नहीं दी । किन्तु दो शब्द कुछ इस रूप में प्रयुक्त हुए हैं कि उन्हें नाम छाप भी मान लिया जा सकता है। एक है 'त्रिभुवन', दूसरा 'गुणवन्त' । डॉ० गुप्त द्वारा सम्पादित ग्रन्थ में संख्या 3 के छन्द में
बसन्त तरणा गुरण महमह्या सवि सहकार । त्रिभुवन जय जयकार पिकारव करई अपार ||
छंद - 17
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बनि बिलसई श्री नन्दन चन्दन चन्द चु मीत । रति अनइ प्रीतिसिउं सोहए मोहए त्रिभुवन चीतु ।। "
इन दोनों छंदों में 'त्रिभुवन' कवि की नाम छाप जैसा लगता है, क्योंकि इसकी यहाँ अन्य सार्थकता विशेष नहीं। 'त्रिभुवन' शब्द यहाँ भी न हो तो भी अर्थ पूरा मिलता है । पहले में 'कोकिल जयजयकार' कर रहा है से अर्थ पूरा हो जाता है । त्रिभुवन या तीनों लोकों में जय-जयकार कर रहा है, से कोई विशेष अभिप्राय प्रकट नहीं होता इसी प्रकार दूसरे छंद में 'चित्त को मोहता' है से अर्थ पूर्ण है । 'त्रिभुवन' का 'चित्त मोहता' है में 'त्रिभुवन' कवि छाप से सार्थकता रखता प्रतीत होता है, 'तीनों लोकों का चित्त मोहित करता है' या मोहित होता है में कोई वैशिष्ट्य नहीं लगता ।
इसी प्रकार अन्तिम 84 वें छन्द में 'गुरणवन्त' शब्द आया है :
इरिण परि साह ति रीझवी सीझवी आरणई ठांइ धन-धन ते गुणवन्त बसन्त विलासु जे गाई ||
इसमें अन्तिम पंक्ति का यह अर्थ अधिक सार्थक लगता है कि गुणवन्त नामक कवि कहता है कि वे धन्य हैं जो बसन्त विलास गायेंगे । इसका यह अर्थ करना कि 'वे गुणवन्त जो बसन्त विलास गायेंगे धन्य होंगे' उतना समीचीन नहीं लगता क्योंकि 'गुणवन्त' शब्द के इस अर्थ में कोई वैशिष्ट्य नहीं प्रतीत होता है । यदि यह बसन्त - विलास का अन्तिम छन्द माना जाये, जैसा डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने माना है, तो काव्यान्त में गुणवन्त कवि की छाप हो, यह सम्भावना और बढ़ जाती है। यह प्रस्ताविक उक्ति (Hypothesis) ही है : क्योंकि
·
1. किसी अन्य विद्वान् ने इन्हें नाम छाप के लिये स्वीकार नहीं किया । इसके रचनाकार कवि का नाम सोचने का प्रयास नहीं किया ।
2. 'नाम' के अतिरिक्त जो इस शब्द का अर्थ होता है वह अर्थ उतना सार्थक भले
1. गुप्त, माताप्रसाद (डॉ०) बसंत विलास और उसकी भाषा, पृ० 19
2. वही पृ० 21
3. वही पृ० 29
ही न हो, पर अर्थ देता है ही ।
3. ऊपर जो तर्क दिये गये हैं उनकी पुष्टि में कुछ और ठोस तर्क तथा प्रमाण होने चाहिये । 'त्रिभुवन' या 'गुणवन्त' नाम के कवियों की विशेष खोज करनी होगी ।
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काल निर्धारण 309
इस प्रकार केवल काल-निर्णय के सम्बन्ध में ही समस्याएं नहीं खड़ी होती 'कविनिर्धारण' के सम्बन्ध में भी उठती हैं। इस समस्या के भी कितने ही पक्ष होते हैं। उनमें से कुछ पर हमने उदाहरण सहित कुछ प्रकाश डाला है। सभी उदाहरण इस क्षेत्र के कार्यकर्ताओं और विद्वानों से ही लिये गये हैं ।
पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को अपनी प्रतिभा से इस दिशा में उपयोगी कार्य करना होगा, और उसको काल-निर्णय और कवि-निर्णय की समस्या के लिए और अधिक ठोस वैज्ञानिक प्राधार निर्मित करने होंगे । इस अध्याय में जितना इस समस्या पर उदाहरणार्थ कुछ ग्रन्थों के मंथन का सहारा लिया गया है, ठोस सिद्धान्तों तक पहुँचने के लिए उसे और भी अधिक ग्रन्थों का मंथन करना होगा।
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प्रध्याय
शब्द और अर्थ की समस्या
पाण्डुलिपि-विज्ञान की दृष्टि से अब तक जो चर्चाएं हुई हैं वे महत्त्वपूर्ण हैं, इसमें मन्देह नहीं । पर, ये सभी प्रयत्न पाण्डुलिपि की मूल-समस्या अथवा उसके मूल-रूप तक पहुँचने के लिए सोपानों की भाँति थे। पाण्डुलिपि का लेखन, लिप्यासन, लिपि, काल या कवि मात्र से सम्बन्ध नहीं, उसका मूल तो ग्रन्थ के शब्दार्थों में है, अतः 'शब्द और अर्थ' पाण्डुलिपि में यथार्थतः सबसे अधिक महत्त्व रखते हैं।
शब्द और अर्थ में शब्द भी एक सोपान ही हैं । यह सोपान ही हमें कृतकार के अर्थ तक पहुंचाता है । शब्द के कई प्रकार के भेद किये गये हैं। शब्द भेद
___ एक भेद है : रूढ़, यौगिक तथा योगरूढ़ । यह भेद शब्द के द्वारा अर्थ-प्रदान की प्रक्रिया को प्रकट करता है । ये प्रक्रियाएँ तीन प्रकार की हो सकती हैं :
रूढ़-शब्द का एक मूल रूप मानना होगा, यह मूल शब्दे कुछ अर्थ रखता है, और उस शब्द के मूल रूप के साथ यह अर्थ 'रूढ़' हो गया है। सामान्यतः इस शब्द-रूप से मिलने वाले रूढ़ अर्थ के सम्बन्ध में कोई प्रश्न नहीं उठता कि 'घोड़ा' जो अर्थ देता है, क्यों देता है ? 'घोड़ा' शब्द-रूप का जो अर्थ हमें मिलता है, वह रूढ़ है क्योंकि इन दोनों का अभिन्न सम्बन्ध न जाने कब से इसी प्रकार का रहा है, अतः शब्द के साथ उसका अर्थ परम्परा या रूढ़ि से सर्वमान्य हो गया है । इसी प्रकार 'विद्या' भी रूढ़ शब्द है और 'बल' भी वैसा ही किन्तु 'विद्याबल', 'विद्यार्थी', 'विद्यालय' आदि शब्दों के अर्थ में प्रक्रिया कुछ भिन्न है। यहाँ रूढ़ शब्द तो है ही पर एक से अधिक ऐसे शब्द परस्पर मिल गये हैं, इनका योग हो गया है, अतः ये यौगिक हो गये हैं। इनमें से प्रत्येक शब्द अपने रूढ अर्थ के साथ परस्पर मिला है, और ये परस्पर मिलकर यानी 'यौगिक' होकर अर्थाभिव्यक्ति को वैशिष्ट्य प्रदान करते हैं । 'विद्या-बल' से उस शक्ति का अर्थ हमें मिलता है जो विद्या में अन्तनिहित है. और विद्या में से विद्या के द्वारा प्रकट हो रहा है।
तीसरी प्रक्रिया में दो या अधिक शब्द परस्पर इस प्रकार का योग करते हैं कि उनके द्वारा जो अर्थ मिलता है, वह निर्मायक शब्दों के रूढार्थों से भिन्न होता हुआ भी, रूप में यौगिक उस शब्द को, एक अलग रूढार्थ प्रदान करता है, यथा जलजे शब्द जल+ज (= उत्पन्न) दो शब्दों का 'यौगिक' है, यौगिक अर्थ में जल से उत्पन्न सभी वस्तुएं, मछली, मीप, मूंगा, मोती, इससे सांकेतिक होंगी, किन्तु इसका अर्थ 'कमल' नाम का पुष्प विशेष होता है। उसका यह अर्थ इस शब्द के रूप के साथ रूढ़ हो गया है। जल+ज का अर्थ जल से उत्पन्न मोती, सीप, घोंघे, सेवार प्रादि सभी ग्राह्य हों तो शब्द यौगिक रहेगा पर केवल पुष्प विशेष से इसका अर्थ रूढ़ि ने बाँध दिया है, अतः इसे 'योगरूढ़' कहा जाता है ।
शब्द के ये भेद अर्थ-प्रक्रिया को समझने में सहायक हो सकते हैं, पर ये भेद
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शब्द और अर्थ की समस्या/311
-
पांडुलिपि-विज्ञानार्थी के लिए सीधे-सीधे उपयोगी नहीं हैं, और पांडुलिपि-विज्ञान की दृष्टि मे सीधे-सीधे ये भेद कोई समस्या नहीं उठाते । आधुनिक भाषा-वैज्ञानिकों के लिए प्रत्येक भेद समस्याओं से युक्त है । 'शब्द' का रूप और उसके साथ अर्थ की रूढ़ता स्वयं एक ममस्या है।
फिर व्याकरण की दृष्टि से संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया ग्रादि के भेद भी हमें यहाँ इष्ट नहीं, क्योंकि इनका क्षेत्र भाषा और उसका शास्त्र है।
शब्दों के भेद विविध शास्त्रों के अनुसार और आवश्यकता के अनुसार किये जाते हैं । यहाँ संक्षेप में इन विविध भेदों की संकेत रूप में एक तालिका दे देना उपयोगी होगा । ये इस प्रकार हैं :शास्त्र एवं विषय
शब्द-भेद 1. व्याकरण, रचना एवं गठन
1. रूढ़, 2. योगिक, (अंतःकेन्द्रित) एवं 3.
___ योगरूढ़ (बहिःकेन्द्रित) 2. व्याकरण : भाषा-विज्ञान
1. समास शब्द, 2. पुनरुक्त शब्द, 3. अनुबनावट
करण मुलक, 4. अनर्गल शब्द, 5. अनुवाद
युग्म शब्द, 6. प्रतिध्वन्यात्मक शब्द । .. व्याकरण+भाषा-विज्ञान : शब्द 1. तत्सम, 2. अर्द्ध-तत्सम, 3. तद्भव, विकास
4. देशज, 5. विदेशी। 4. व्याकरण : कोटिगत
(क) 1. नाम, 2. आख्यात, 3. उपसर्ग,
4. निपात । कोटिगत (शब्दभेद)
(ख) 1. संज्ञा, 2. सर्वनाम, 3. विशेषण, 4. क्रिया, 5. क्रिया विश्लेषण, 6. समुच्चय बोधक, 7. सम्बन्ध सूचक, 8. विस्मयादि
बोधक। 5. प्रयोग सीमा के आधार पर
1. काव्य शास्त्रीय, 2. संगीतशास्त्रीय (विशेषतः पारिभाषिक)
3. सौन्दर्यशास्त्रीय, 4. ज्योतिषशास्त्रीय
आदि विषय सम्बन्धी। 6. अर्थ-विज्ञान
1. समानार्थी (पर्यायवाची), 2. एकार्थवाची, 3. नानार्थवाची (अनेकार्थी), 4.समान
रूपी, भिन्नार्थवाची (श्लेषार्थी) आदि । 7. काव्य-शास्त्र
वाचक, लक्षक और व्यंजक
हमारा क्षेत्र है पांडुलिपि में आये या लिखे गये शब्द, जो लिखे गये वाक्य के अश हैं, और जिनसे मिलकर ही विविध वाक्य बनते हैं, जिनकी एक वृहद् श्रृंखला ही ग्रन्थ बना देती है । ग्रन्थ रचना में प्रयुक्त शब्दावली निश्चय ही सार्थक होती है । अर्थ-ग्रहण शब्द-रूप पर निर्भर करता है, जैसे-शब्द हो, 'मानुस' हों तो' तो इनका अर्थ होगा कि 'यदि मैं मनुष्य
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312 पाण्डुलिपि-विज्ञान
होऊँ' और यदि शब्द-रूप हो, मानु सही तो' तो अर्थ होगा कि' 'यदि मैं मान (रूठने को
1 2 3 4 5 सहन करु तो इससे स्पष्ट है कि अक्षरावली दोनों में बिल्कुल एक-सी है : 'मा नु स हों तों'। केवल शब्द रूप खड़े करने से भिन्नता आई है । पहले पाठ में 1, 2, 3 अक्षरों को एक शब्द माना गया है और '3' भी स्वतन्त्र शब्द है और 4 भी, दूसरे पाठ में शब्द-रूप बनाने में 1+2 को एक शब्द, 3+4 को दूसरा, 5 को स्वतन्त्र शब्द पूर्ववत् ।
फलतः पहले पाठ में जो शब्द-रूप बनाए गए, उनसे एक अर्थ मिला। उन्हीं अक्षरों से दूसरे पाठ में अन्य शब्द-रूप खड़े किये गये जिससे उस अक्षरावली का अर्थ बदल गया ।
इस उदाहरण से अत्यन्त स्पष्ट है कि अर्थ का आधार 'शब्द-रूप' है । 'शब्द-रूप' में मूल आधार 'अक्षरयोग' है, ये अक्षर-योग हमें लिपिकार या लेखक द्वारा लिखे गये पृष्ठो से मिलते हैं।
पाण्डुलिपि में शब्द-भेद हम निम्न प्रकार कर सकते है : 1. मिलित शब्द
इसमें शब्द अपना रूप अलग नहीं रखते । एक-दूसरे से मिलते हुए पूरी पंक्ति को एक ही शब्द बना देते हैं, ऐसा प्रायः पांडुलिपि-लेखन की प्राचीन प्रणाली के फलस्वरूप होता है, यथा “मानुसहोंतोवहींसखा नवसौंमिलिगोकुलगोपगुवारनि" ।
___ इसमें से शब्द-रूप खड़े करना पाठक का काम रहता है और वह अपनी तरह से शब्द खड़े कर सकता है : यथा-मानु' स.' तोव' हीर' सखान'........आदि शब्द होंगें या 'मानुस' हों' तो' वहीं रसखान........आदि शब्द होगें । मिलित शब्दों से पाठक उन्हें अपने ढंग से 'भंग' करके मुक्त शब्दों का रूप दे सकता है और अपनी तरह से अर्थ निकाल सकता है। 2. विकृत शब्द
(अ) मात्रा विकृत (ब) अक्षर विकृत (स) विभक्त अक्षर विकृति युक्त (द) युक्ताक्षर विकृति युक्त (त) घसीटाक्षर विकृति युक्त
(थ) अलंकरण निर्भर विकृति युक्त 3. नव रूपाक्षरयुक्त शब्द 4. लुप्ताक्षरी शब्द 5. पागमाक्षरी (6. विपर्याक्षरी शब्द 7. संकेताक्षरी शब्द (Abbreviated Words) 8. विशिष्टार्थी शब्द (Technical Expression)1 1. Sircar, D. C. Indian Epigraphy P. 327.
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शब्द और अर्थ की समस्या/313
9. संख्यावाचक शब्द 10. वर्तनीच्युत शब्द 11. भ्रमात् स्थानापन्न शब्द 12. अपरिचित शब्द
पांडुलिपि को दृष्टि में रखकर हमने जो शब्द-भेद निर्धारित किये हैं वे ऊपर दिए गए हैं । किसी ग्रन्थ के अर्थ तक पहुंचने के लिए हमने शब्द को इकाई माना है । इनमें से बहुत-से शब्द विकृति के परिणाम हो सकते हैं । पाठालोचक इनका विचार अपनी तरह से करता है। उस पर पाठालोचन वाले अध्याय में लिखा जा चुका है । पर डॉ. चन्द्रभान रावत ने इस विषय पर जो प्रकाश डाला है, उसे इन शब्द भेदों के अन्तरंग को समझने के लिए, यहाँ दे देना समीचीन प्रतीत होता है ।
_ "मुद्रण-पूर्व-युग में पुस्तकें हस्तलिखित होती थीं। मूल प्रति की कालान्तर में प्रतिलिपियाँ होती थीं । प्रतिलिपिकार प्रादर्श या मूल-पाठ की यथावत् प्रतिलिपि नहीं कर सकता । अनेक कारणों से प्रतिलिपि में कुछ पाठ सम्बन्धी विकृतियां पा जाना स्वाभाविक है । इन अशुद्धियों के स्तरों को चीरते हुए मूल आदर्श-पाठ तक पहुँचना ही पाठानुसन्धान का लक्ष्य होता है। विकृतियों की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है : उम समस्त पाठों को विकृत-पाठ की संज्ञा दी जायेगी जिनके मूल लेखक द्वारा लिखे होने की किसी प्रकार की सम्भावना नहीं की जा सकती और जो लेखक की भाषा, शैली और विचारधारा में पूर्णतया विपरीत पड़ते हैं। इन अशुद्धियों के कारण ही पाठानुसन्धान की आवश्यकता होती है । इस प्रक्रिया के ये सोपान हो सकते हैं :
1. मूल लेखक की भाषा, शैली और विचारधारा से परिचय, 2. इस ज्ञान के प्रकाश में अशुद्धियों का परीक्षण, 3. इन सम्भावित अशुद्धियों का परीक्षण, 4. पाठ-निर्माण, 5. पाठ-सुधार तथा 6. आदर्श-पाठ की स्थापना पाट-विकृतियों के मूल कारणों का वर्गीकरण इस प्रकार दिया जा सकता है :
( स्रोतगत : मूल पाठ विकृत हो।
( सामग्रीगत : पन्ने फटे हों, अक्षर अस्पष्ट हों। ___ 1. बाह्य विकृतियाँ ( क्रमगत : पन्नों का क्रम नियोजन दोषपूर्ण हो या छन्दक्रम
(
दूषित हो । (एक से अधिक स्रोत हों।
1. अनुसंधान-पृ० 269-271. 2. वर्मा, विमलेश कान्ति-पाठ विकृतियां और पाठ मम्बन्धी निर्धारण में उनका महत्व-परिषद पत्रिका ___ (वर्ष 3, अंक 4) पृ. 48. 3. Encyclopaedia Britanica-Postgate Essay.
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314/पाण्डुलिपि-विज्ञान
(प्रतिलिपिकार की असावधानी । 2. अंतरंग विकृतियाँ : (प्रतिलिपिकार का भ्रम : प्रक्षेप, वर्णभ्रम, अङ्कभ्रम । .
(प्रतिलिपिकार का अपना आदर्श और सही करने की इच्छा । ___ कुछ अशुद्धियाँ दृष्टि-प्रसाद के कारण हो सकती हैं और कुछ मनोवैज्ञानिक । दृष्टि-प्रमाद में पाठ्यह्रास, पाठ्यवृद्धि और पाठ-परिवर्तन पाते हैं । मनोवैज्ञानिक में प्रादर्श के अनुसार मूल पाठ की अशुद्धियों को समझकर उनको सुधारने की प्रवृत्ति पाती है । हाल ने इन पर एक और प्रकार से विचार किया है। इन्होंने पाठ विकृतियों के तीन भेद किये हैं : भ्रम तथा निवारण के उपाय, पाठ-ह्रास और पाठ-वृद्धि ।
भ्रम 13 प्रकार के माने गये हैं : समान-अक्षर सम्बन्धी भ्रम, सादृश्य के कारण शब्दों का गलत लिखा जाना, संकोचों की अशुद्ध व्याख्या, गलत एकीकरण, अथवा गलत पृथक्करण, शब्द-रूपों का समीकरण और समीपवर्ती रचना को आश्रय देना, अक्षर या वाक्य-व्यत्यय, संस्कृत का प्राकृत में या प्राकृत का संस्कृत में गलत ढंग से प्रतिलिपित होना, उच्चारण-परिवर्तन के कारण अशुद्धि, अंक-भ्रम, व्यक्तिवाचक संज्ञाओं में भ्रम, अपरिचित शब्दों के स्थान पर परिचित शब्दों का प्रयोग, प्राचीन शब्दों के स्थान पर नवीन शब्दों का प्रयोग तथा प्रक्षेप अथवा अज्ञात भाव से की गई भूलों का सुधार।
पाठ-हास में शब्दों का लोप पाता है। यह लोप साधारण भी हो सकता है और आदि-अन्त के साम्य के कारण भी हो सकता है। पाठवृद्धि में (1) परवर्ती अथवा पार्श्ववर्ती सन्दर्भ के कारण पुनरावृत्ति, (2) पंक्तियों के बीच अथवा हाशिये पर लिखे पाठ का समावेश, (3) मिश्रित पाठान्तर अथवा (4) सदृश लेख के प्रभाव के कारण वृद्धि ।
अनुसन्धान के इस क्षेत्र में डॉ० माताप्रसाद गुप्त का स्थान आधिकारिक है । उन्होंने विकृतियों के आठ प्रकार माने हैं : (1) सचेष्य पाठ विकृति, (2) लिपि-जनित, (3) भाषा-जनित, (4) छन्द-जनित, (5) प्रतिलिपि-जनित, (6) लेखन-सामग्री-जनित, (7) प्रक्षेप-जनित और (8) पाठान्तर-जनित । लिपिकार के द्वारा सचेष्ट पाठ-विकृति में अपने ज्ञान और तर्क से संशोधन करने की प्रवृत्ति ही है। अन्य सभी कथित प्रकार स्वयं स्पष्ट है । भाषा जनित भ्रमों में शब्दों का अनुपयुक्त प्रयोग, तद्भव शब्दों को संस्कार-शोध के उद्देश्य से तत्सम रूप देना और आवश्यकतानुसार भाषा को परिनिष्ठित बनाने का उद्योग करना पाते हैं।
ऊपर हमने जो शब्द भेद दिये हैं, उनके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि पांडुलिपि के सम्पर्क में आने पर अन्य बातों के साथ लिपि की समस्या हल हो जाने पर पांडुलिपि विज्ञानार्थी को पांडुलिपि की भाषा से परिचित होना होता है, और उसके लिए पहली 'इकाई' शब्द है, पांडुलिपि में शब्द हमें किन रूपों में मिल सकते हैं, उन्हीं को इन भेदों में प्रस्तुत किया गया है । ये शब्द-भेद पांडुलिपि को समझने के लिए आवश्यक हैं, अतः आवश्यक है कि इन भेदों को कुछ विस्तार से समझ लिया जाय ।
1.
Hall, F. W.-Companion to Classical Test श्री मिथिनेश कान्ति वर्मा, परिषद् पत्रिका (वर्ष 3, अङ्क4), पृ.50 पर उद्धत । अनुसन्धान की प्रक्रिया।
2.
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शब्द और अर्थ की समस्या / 315
मिलित शब्दों के सम्बन्ध में कुछ विस्तार से आरम्भ में ही दिया गया है । मिलित शब्दों में पहली समस्या शब्द के यथार्थ रूप को निर्दिष्ट करना है अर्थात् ऊपर दिये गये उदाहरण में यह निर्दिष्ट करना होगा कि 'मानु सहों' या 'मानुस हों' में से कवि को अभिप्रेत शब्दावली कौनसी हो सकती है । इसके लिए पूरे चरण को ही नहीं, पूरे पद को शब्दों में स्थापित करना होगा, और तब पूरे सन्दर्भ में शब्द रूप का निर्धारण करना होगा ।
इस प्रक्रिया में भंग-पद और अभंग पद - श्लेष को भी दृष्टि में रखना होगा । मिलित शब्दावली में से ठीक शब्द रूपों को न पकड़ने के कारण अर्थ में कठिनाई पड़ेगी ही । यहाँ इसके कुछ उदाहरण और देना समीचीन होगा । 'नवीन' कवि कृत 'प्रबोध सुधासर' के छन्द 901 के एक चरण में 'शब्द-रूप' यों ग्रहरण किये गये हैं: 'तू तो पूजे आँख तले वह तनखत ले' 'शब्द रूप देने वाले को पूरे सन्दर्भ का ध्यान न रहा । मिलित शब्दावली से ये शब्द-रूप यों ग्रहरण किये जाने चाहिये थे' 'तू तौ पूजे प्राखत ले' आदि । श्रख तले से अर्थ नहीं मिलता । प्राखत = प्रक्षत = चावल से अर्थ ठीक बनता है ।
साथ ही, किसी शब्द का रूप भौतिक कारणों से क्षत-विक्षत हुआ है तो उसकी पूर्ति करनी होती है । शिला पर होने से कोई चिप्पट उखड़ जाने से अथवा किसी स्थल के घिस जाने से' कागज फट जाने से, दीमक द्वारा खा लिये जाने से अथवा अन्य किसी कारण से शब्द रूप क्षत-विक्षत हो सकता है । इस स्थिति में पूरे पाठ की परिकल्पना कर शब्द के क्षतांश की पूर्ति करनी होगी । ऐसे प्रस्तावित या अनुमानित शब्दांश को कोष्ठकों में ( ) रख दिया जाता है : उदाहरण के लिए 'राउलवेल' की पंक्तियाँ दी जा सकती हैं : पहली पंक्ति
(1)
रोडे राउल बेल बखारणा
जइ
नमः सिध
*****
(2)
(3) इ आयणु ज
(4)
जा जेम्ब जाणइ सो तेम्ब वखारणइ ।
हासे तो से राजइ रारणइ
(5)
(6)
........
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(7)
दूसरी पंक्ति
भा
(8) उ भाव इ
इतने से अंश में अर्थात् पहली पंक्ति और दूसरी पंक्ति के आरम्भ में 8 स्थल ऐसे हैं जो क्षत हैं । अब पाठ-निर्माण की दृष्टि से (1) पर (ऊं) की कल्पना की जा सकती है । (2) के स्थान पर ( भ्यः ||) रखा जा सकता है । संख्या 3 के क्षत स्थान की पूर्ति में कल्पना सहायक नहीं हो पाती है, अतः इसे बिन्दु ........ लगाकर ही छोड़ दिया जायेगा । 4 के खाली स्थान पर ज के साथ (पी) ठीक बैठता है। 5 का अंश पूरे उपवाक्य का होगा, इसी प्रकार संख्या 6 का भी इनकी पूर्ति के लिए । शब्दों तक भी कल्पना से नहीं
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316/पाण्डुलिपि-विज्ञान
पहुँचा जा सकता, अतः इन्हें बिन्दुओं से रिक्त ही दिखाना होगा। 6 संख्या पर छन्द समाप्ति की (1) हो सकती है। 7वें पर (ल) ठीक रहेगा, किन्तु ऐसे पाठोद्धार में जो शब्द अक्षत उपलब्ध हैं, अर्थ तक पहुँचने के लिए उनमें भी किसी संशोधन का सुझाव देना आवश्यक हो सकता हैं जिससे कि वाक्य का रूप व्याकरणिक की दृष्टि से ठीक अर्थ देने में सक्षम हो जाय । ऐसे सुझावों को छोटे कोष्ठकों ( ) में रखा जा सकता है।
दूसरे प्रकार के शब्दों को विकृत शब्द कह सकते हैं। विकारों के कारणों को दृष्टि में रखकर 'विकृत शब्दों' के 6 भेद किये गये हैं : - पहला विकार मात्रा-विषयक हो सकता है, जो विकार मात्रा की दृष्टि से बाज हमें सामान्य लेखन में मिलता है, वह इन पाण्डुलिपियों में भी मिल जाता है। हम देखते हैं कि बहुत से व्यक्ति 'रात्रि' को 'रात्री' लिख देते हैं। किसी-किसी क्षेत्र विशेष में तो यह एक प्रवृत्ति ही हो गई है कि लघु मात्रा के लिए दीर्घ और दीर्घ के लिए लघु लिखी जाती है। भ्रभात् किसी अन्य मात्रा के लिए अन्य मात्रा लिख दी जा सकती है । इसका एक उदाहरण डॉ० माहेश्वरी ने यह दिया है : ___139 धीरै > धोरै । ई > प्रो
(अ) यहाँ लिपिक ने '' की मात्रा को कुछ इस रूप में लिखा कि वह 'नो' पढ़ी गयी । इसी प्रकार 'ओ' की मात्रा को ऐसे लिखा जा सकता है कि वह 'ई' पढ़ी आय । 1846 में मनरूप द्वारा लिखित मोहन विजय-कृत 'चन्द-चरित्र' के प्रथम पृष्ठ की 13वीं पंक्ति में दायीं ओर से सातवें अक्षर से पूर्व का शब्द 'अनुप' में मात्रा विकृति है, यह यथार्थ में 'अनूप' है । इसी के पृ० 3 पर ऊपर से सातवीं पंक्ति में 16वें अक्षर से पूर्व शब्द लिखा है, 'अगुढ़' जो मात्रा-विकृति का ही उदाहरण है । इसकी पुष्टि दूसरे चरण की तुक के शब्द "दिगमूढ़' से हो जाती है । "दिगमढ़' में लिपिक ने दीर्घ 'ऊ' की मात्रा ठीक लगाई है। 'मात्रा-विकृति' के रूप कई कारणों से बनते हैं : 1-मात्रा लमाना ही भूल गये । यथा डॉ० माता प्रसाद गुप्त को 'सन्देश रासक' के 24वें छन्द में द्वितीय चरण में 'रिणहई' शब्द मिला है, डॉ० गुप्त मानते हैं कि यहाँ 'पा' मात्रा भूल से छूट गई है । शब्द होगा 'पहाई'। डॉ० माता प्रसाद गुप्त ने बताया है कि 'उ' बाद में 'उ' तथा 'नो' दोनों ध्वनियों के लिए प्रयुक्त होने लगा था । यथा--सन्देश रासक छंद 72 प्रोसहे > उसहे । 2-यह विकृति दो मात्राओं में अभेद स्थापित हो जाने से हुई है। ऐसे ही 'दिव' का 'दय' । 3-यह अनवधानता से हुआ है । 4-'स्मृति-भ्रम' से भी विकृति होती है, जैसे-~-'फरिसउ' लिखा गया 'फरुसउ' के लिए। 5वां कारण वह अनवधानता है जिसमें मात्रा कहीं की कहीं लग जाती है । यह 'मात्राव्यत्यय' इस शब्द में देखा जा सकता है-'बिसुंठल्यं लिखा मिला है 'विसंठुलयं' के लिए।
(आ) अक्षर-विकृत शब्द उन्हें कहेंगे जिनमें 'अक्षर' ऐसे लिखे गये हों कि उन्हें कुछ का कुछ पढ़ लिया जाय। डॉ० माहेश्वरी ने ऐसे अक्षरों की एक सूची प्रस्तुत की है,
1. 'सन्देश रासक' में 100वें छन्द में दूसरे चरण में 'पाडिल्लो' शब्द मिला है। डॉ० माताप्रसाद गुप्त
का मत है कि यह 'पडिल्ली' होगा यहाँ 'ई' का मात्रा-लेखन या पाठ प्रसाद से 'ओ' की मात्रा हो गयी। (भारतीय साहित्य-जनवरी, 1960, पृ. 103)। इससे भी डॉ० माहेश्वरी के उदाहरण
की पुष्टि होती है। ऐसी माना बिकृति का कारण "स्मृति-प्रम' भी हो सकता है। 2. भारतीय साहित्य (जनवरी 1960), पृ. 101,104,1081
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शब्द और प्रर्थ की समस्या/317 जिसे अक्षरविकृति को समझने के लिए उदाहरणार्थ यहाँ दिया जाता है। उन्हें वर्गों के अनुसार दिया जा रहा है
नागरी लिपि जन्य भूलें क वर्ग
च वर्ग क-फाक,फ.क.फ घ. पाप-प
झ-ल। भारी लारी रामगग,ग गम्भ । " .
झ-ऊ। झल, अल घ-ध
मऊ। ६-बच-ब
__-घ (क) ख- स्व
च-व (चःच,व) ज-ताज जज
च-ब।
डम.भ। डेरा मेरा मक,कम 3-क। 35, 3क) ड-८ फ रु.5 - ड
' कनु.नु । (बंगला लिपि के कारण)
त वर्ग थई ध.ब-थ । थापशप छ.ब-व थाबाब>बाथोबड़ो- बोबड़ा तटात.त-त.
ण्यण ।
पाण्य ट- ट,ट.ट इ-315.5,3 दद ८८
नस्तान.न,न:न,त द-व। ८,८,८.८ न-ब (नचाई बचाई। न-र (कैथी में, न-२ मि .न
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318/पाण्डुलिपि-विज्ञान
अन्तस्थ वर्ग
य
पवर्ग भ
-नाम.म.न.प.मय • फ-काफ.क.फफ.क म-समममम - म.स ज्या ग्या नयाभाग
र: द । र रद- र.द म: म लत्त वन। न नजन रन् ।हा-या , धान्या
र: ट17
का हलन्ना
बाबरबाब) संयुक्ताक्षर वर्ग
उष्मवर्ण वर्ग त्रात,त
सम्म त्र:नत्र,त्र
म.म- स.म हड
इ.इ.ह Tी। काका-काकी
11-माई ज-अ । अ-3 3-x - ध कमोदरी करनादरी
> कामादरी ए-ऐ - (गुरमुखी) 3- । (कबीर P110) ५. 2 मेंमाती - मैमाती इ.ओ। धोरै ।
व्यंजन मात्रा
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शब्द और अर्थ की समस्या/319
भ्रामक प्रक्षर रूप
य> थाथ-य माय माथ भ- ऊजझगी अगी
- बा(% छ) ड-कान-ड(73) डावड़ा कावड़ा घबब-घ)
लाष> लाब राए -रा(रा-ए) यह 'उ' की मात्रा भी हो सकती
... है। बंगाली लिपी का प्रभाव है । क्र-त्रु(क-क्र,' 'उ'
हेयो हेरची दा- थाटा-टा) चटोचयो सांख्या- साया
- सायम पघर पस
(इ) विभक्त अक्षर = विकृत शब्द, यथा-ऊर्ध्व' को विभक्त करके 'कर' लिखना इसी कोटि में आयेगा । 'ऊरध' 'तद्भव' माना जायेगा और पांडुलिपि की दृष्टि से यहाँ विभक्त-अक्षर है । 'ऊर्ध्व' का 'ऊर्व' फिर 'ऊरध' । इसमें 'र' को 'ध' से विभक्त करके लिखा गया है । 'प्रात्म' को 'चन्द-चरित्र' में 'पातम' लिखा गया है । 'परिसह थी प्रातम गुण पुष्टी युगतिनी प्राप्ति विचार है'
__ (पन्ना 82 चन्दचरित्र का हस्तलेख) ऐसे ही अध्यात्म को 'अध्यातम' लिखा गया है ।
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320/पाण्डुलिपि-विज्ञान
मा
'लुबधो' मिलेगा, लुब्धो के लिए । 'चन्दचरित्र' (पन्ना 79 पूर्व)
(ई) युक्ताक्षर-विकृति-युक्त शब्द-शब्द परस्पर विभक्त न होकर युक्त हों और तब उनमें से किसी में भी यदि कोई विकार आ जाता है तो वे ऐसे ही वर्ग में आयेंगे, यथा'कीतिलता' द्वितीय पत्लव छं. 7 में 'महाजन्हि' का एक पाठ 'महजन्हि' मिलता है । यह विकृति हमारे इसी वर्ग के शब्दों में आयेगी ।
इसी सम्बन्ध में प्रावट्टवट्ट 'विवट्टवट्ट' पर 'कीतिलता' के संजीवनी भाष्य में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने जो टिप्पणी दी है वह इस प्रकार है :
प्रावट्ट वट्ट विवट्ट-श्री बाबूरामजी के संस्करण में 'अति बहुत भांति विवट्ट वट्टहि' पाठ है और पाठ टिप्पणी में वट्ट पाठान्तर दिया है । वस्तुतः यहाँ पाठ-संशोधन की समस्या इस प्रकार है। मूल संस्कृत शब्द आवर्त-विवर्त के प्राकृत में आवत्त-विवत्त और पावट्ट विवट्ट ये दो रूप होते हैं । (पासद्द 152, 998, 999) । संयोग से विद्यापति ने 'कीर्तिलता' में तीनों शब्द-रूपों का प्रयोग किया है :
1-आवर्त विवर्त रोलहों, नअर नहिं नर समुद्रो (2 1 112) 2-पावत्त विवत्ते पन परिवत्ते जुग परिवत्तन माना (4 1 114)
इस प्रकार यह लगभग निश्चित ज्ञात होता है कि यहाँ प्रति बहुत वट्ट का मूल पाठ प्रावट्ट वट्ट ही था । विवट्ट वट्ट तो स्पष्ट ही है ।
'पावट्ट वट्ट विवट्ट वट्ट मे युक्ताक्षरों की विकृति की लीला स्पष्ट है । कीर्तिलता में ही एक स्थान है पर यह चरण है :
पाइग्ग पत्र भरे भउं पल्लानिन उं तुरंग' यहाँ 'पाइग्गा' शब्द 'पायग्गाट्ट का युक्ताक्षर विकृत शब्द हैं 'गा' का 'ग्गा' कर दिया गया है ।
इसी प्रकार 'ढोला मारू रा दूहा' 16 में 'ऊलंबे सिर हथ्थड़ा' इस दोहे के 'ऊलंबी' शब्द का एक पाठ 'उक्कंबी भी हैं , इसमें 'ल' को क 'युक्ताक्षर' मानकर लिखा गया है, अतः यह भी इस वर्ग का शब्द रूप है।
'चन्दचरित्र' की पांडुलिपि में 83वें पृष्ठ पर ऊपर से दूसरी पंक्ति में 'सज्जन उद्धरज्यो जी' को इस रूप में लिखा गया है।
उद्धरज्यजी
इसमें युक्ताक्षर 'ज्य' को जिस रूप में लिखा गया है उस रूप को विकृति माना जा सकता है।
कवि हरचरणदास की 'कवि-प्रिया भरण' टीका है केशव की कवि प्रिया पर है उसकी एक पांडुलिपि 1902 की प्रतिलिपि है। उसमें 149वें पृष्ठ पर कवि ने अपना जन्म संवत् दिया है । प्रतिलिपिकार ने उसे यों लिखा है :
7 सत्रहसो सटि मही वकि को जन्म विचारि ।
1. अग्रवाल, वासुदेवशरण (डॉ.)-कीतिलता. पृ० 60-61 । 2. मनोहर, शम्भूसिंह-ढोला मारू रा दूहा, पृ. 156।
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युक्त अक्षर - विकृत रूप' शब्द रेखांकित है । यह है छ्यासठ = 66 ।
इस पृष्ठ से आगे के पन्ने में कृष्ण से अपना सम्बन्ध बताने के लिए लिखा है कि मुनि सांडिल्ल महान ।
" पूरोहित श्रीनन्द के
हैं तिनके हम गोत मैं मोहन मो जजमान ।।16।। "
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शब्द और अर्थ की समस्या / 321
यहाँ 'सांडिल्ल' में 'युक्ताक्षर विकृति' स्पष्ट है, शांडिल्य 'सांडिल्ल' हो गये हैं । यहाँ भाषा विज्ञान की दृष्टि से इसकी व्याख्या की जा सकती है, यह और बात है । अग्रसमीकरण से ल्य का 'य' 'ल' में समीकृत हो गया है, पर युक्ताक्षर की दृष्टि से विकति भी विद्यमान है, इसीलिए इसे हम इस वर्ग में रखते हैं ।
( उ ) घसीटाक्षर विकृति युक्त शब्द
कभी-कभी कोई पांडुलिपि 'घसीट' में लिखी जाती है । त्वरा में लिखने से लेख घसीट में लिख जाता है । घसीट में अक्षर विकृत होते ही हैं । चिठ्ठी-पत्रियों में, सरकारी दस्तावेजों में, दफ्तरी टीपों में, ऐसे ही अन्य क्षेत्रों में घसीट में लिखना नियम ही समझना चाहिये । अधिकारी व्यक्ति त्वरा में लिखता है और उसे अभ्यास ही ऐसा हो गया होता है कि उसका लेखन घसीट में ही हो जाता है । इसी कारण कितने ही विभागों में घसीट पढ़ने का भी अभ्यास कराया जाता है और इस विषय में परीक्षाएं भी ली जाती हैं । स्पष्ट है कि घसीटाक्षरों को अभ्यास के द्वारा ही पढ़ा जा सकता है । अभ्यास में यह आवश्यक होता है कि घसीट लेखक की लेखन प्रवृत्ति को भली प्रकार समझ लिया जाय । उससे घसीट पढ़ने में सुविधा होती है ।
प्र.प्र.स
(35) घसीट की भाँति ही व्यक्ति-वैशिष्ट्य की दृष्टि से अलंकरण - निर्भर - विकृति-युक्त शब्द भी कभी-कभी किन्हीं पांडुलिपियों में मिल जाते हैं । अलंकरण युक्त अक्षर को भी पहले समझने पढ़ने में कठिनाई होती है ।
'अलंकरण' का अर्थ है किसी भी 'अक्षर' को उसके स्वाभाविक रूप में सन्तुलित प्रकार से न लिखकर कुछ कलामय या अनोखा रूप देकर लिखना, उदाहरणार्थ : 'प' | यह 'प' का सन्तुलित रूप है: अब इसको लिपिकार कितने ही रूपों में लिख सकता है, अलंकरण की प्रवृत्ति से अक्षररूपों के साथ शब्द-रूप भी बदलते हैं हम अलंकर की प्रवृत्ति को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में एक अक्षर के आधार पर देख सकते हैं को ले सकते हैं । देवनागरी में 'अलंकरण' की प्रवृत्ति ई० पू०
।
।
इसके लिए 'अ' अक्षर
की पहली शताब्दी से ही
दृष्टिगोचर होने लगती है । इसे शताब्दी-क्रम से नीचे के फलक से समझा जा सकता है ।
अशोक कालीन
ई०
पू० पहिली मथुरा ई० पहिली दूसरी श० पभोसा नासिक
मथुरा
लेखा
भु
४
त
४६
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322/पाण्डुलिपि-विज्ञान
तीसरी जगायपेट
477-78 ई.
दूसरी से चौथी
कूड़ा
571-72
पाली
छठी शताब्दी ऊष्णीष विजय धारणी पुस्तक की होयुजी (जापान)
मठ की प्रति के अन्त में दी गई वर्ण माला से
1वीं . शताब्दी मामलपुर
661 ई० क डेश्वर
मा
689 ई० झालरापाटन
8वीं शती मावलीपुर
837 ई. जोधपुर
861 8 61 पटिमाना घटिपाला
म
न
अ
अ.
४
11वीं शती उज्जैन
1122 ई० तर्षडिधी
11as ई. असम
शु
६
अ
12 वीं हस्राकाल (पूरी वर्णमाला से)
इसी प्रकार अन्य अक्षरों में भी अक्षारालंकरण मिलते हैं। ग्रन्थों में भी इनका विविध रूप में प्रयोग मिलता है, अतः अलंकरण के प्रभाव को समझकर ही 'शब्द-रूप' का निर्णय करना होगा। हस्तलेखों में से पांडुलिपियों में मिलने वाले अलंकरणों का कम संकलन हुआ है, किन्तु भारतीय शिलालेखों के अलंकरणों पर चर्चा अवश्य हुई है । डॉ० अहमद हसन दानी ने 'इंडियन पेलियोग्राफी' में इस पर व्यवस्थित ढंग से प्रकाश डाला है । इस सम्बन्ध में उनकी पुस्तक से एक चित्रफलक अलंकरण के स्वरूप को भारतीय लिपि में दिखाने के लिए यहाँ देने का हम अपने लोभ का संवरण नहीं कर सकते : (चित्र पृ. 323 पर)। (ए) नवरूपाक्षर युक्त-शब्द
कभी-कभी पांडुलिपि में हमें ऐसे शब्द मिल जाते हैं जिनमें कोई-कोई अक्षर अनोखे रूप में लिखा मिलता है। यह अनोखा रूप एक तो उस युग में उस अक्षर का प्रचलित रूप ही था, दूसरे लिपिकार की लेखनी से विकत होने के कारण और अनोखा हो गया। इन दोनों प्रकारों पर 'लिपि समस्या' वाले अध्याय में चर्चा हो चुकी है।
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शब्द और अर्थ की समस्या/323
मसंवृत वर्णमाला .
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324/पाण्डुलिपि-विज्ञान (अं) संकेताक्षरी शब्द
संकेताक्षरी शब्दों की चर्चा ऊपर हो चुकी है । पूरे शब्दों को जब उसके एक छोटे अंश के द्वारा ही अभिहित कराया जाता है तो यह निरर्थक-सा छोटा अक्षर-संकेत पूरे शब्द के रूप में ही ग्राह्य होता है । 'स' का प्रयोग 'सम्बत्सर' के लिए हुआ मिलता है। ऐसे ही प्रयुक्त संकेतों की सूची एक पूर्व के अध्ययन में दी जा चुकी है । पांडुलिपि-विज्ञानार्थी अपने लिए ऐसी सूचियाँ स्वयं प्रस्तुत कर सकता है। नाम-संकेत की दृष्टि से 'अहहमाणा' हम देख चुके हैं कि इसमें 'अब्दुल' का संकेत 'अद्द' और 'रहमाण' का संकेत 'हमान' है । ऐसे शब्द जिनमें संख्या से उस संख्या की वस्तुओं का ज्ञान होता है, संकेताक्षरी ही माने जायेंगे । कीर्तिलता में आया 'दान पंचम' भी ऐसा ही शब्द है । (अः) विशिष्टार्थी शब्द
पांडुलिपि-विज्ञानार्थी के लिए विशिष्टार्थी शब्दों का भेद महत्त्वपूर्ण है। यह रूप-गत नहीं है । कुछ शब्दों के कुछ विशिष्ट अर्थ होते हैं, और जब तक उन विशिष्ट अर्थों तक पांडुलिपि-विज्ञानार्थी नहीं पहुँचेगा उस स्थल का ठीक अर्थ नहीं हो सकेगा। ऐसे शब्दों के विशिष्ट क्षेत्रों का पता न होने के कारण सामान्य अर्थ किये जाते हैं, जिससे अर्थाभास मिलता है; यथार्थ अर्थ नहीं । ऐसे शब्दों से सामान्य अर्थ तक पहुंचने में भी शब्दों और वाक्यों के साथ खींचातानी करनी पड़ती है ।
यथा
"कहीं कोटि गंदा, कहीं वादि वंदा
कहीं दूर रिक्काविए हिन्दु गन्दा ।।"1 अब इसका एक अर्थ हुआ—'करोड़ों गुण्डे', कहीं 'बांदी बंदे' आदि । दूसरा अर्थ हुअा 'बहुत से गंदे लोग और बांदि बंदे' आदि । डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने बताया है कि 'गंदा' और 'वादि' विशिष्टार्थी शब्द हैं : गन्दा फा० गोयन्द : अर्थात्-गुप्तचर, वादी भी विशिष्टार्थक है : वादी = फरियादी
__ इसी प्रकार कीर्तिलता 2 190 का चरण है।
मषदूम नरावइ दोम जञो हाथ ददस दस गारो ।। इसमें प्रायः सभी शब्द विशिष्टार्थ देने वाले हैं : उन अर्थों से अपरिचित व्यक्ति इस पंक्ति का अर्थ खींचतान कर ऐसे करेंगे :
"मखदूम डोम की तरह दसों दिशाओं से भोजन ले पाता है" (?) या "मखदूम (मालिक) दशो तरफ डोम की तरह हाथ फैलाता है।"
डॉ० वासूदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है कि "इस एक पंक्ति में सात शब्द पारिभाषिक प्राकृत और फारसी के हैं ।'' ये शब्द विशिष्ट या पारिभाषिक शब्द हैं यह न जानने से ठीक-ठीक अर्थ तक नहीं पहुँचा जा सकता । इनके विशिष्ट अर्थ ये बताये गये हैं :
1. अग्रवाल, वासुदेवशरण, (डॉ.)-कीर्तिलता, पृ० 93 2. वही, पृ० 108
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1. मखदूम
2. नरावइ
3. दोष
4. हाथ
5. ददस
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6. दस
: दिखाता है ।
7. गार : नरक के जीव, प्रेतात्माएँ ।
: भूत प्रेत साधक मुसलमानी धर्म-गुरु
: प्रसविया -- अर्थात् जो नरक के जीवों या प्रेतात्माओं का अधिपति
हो ।
कीर्तिलता में एक पंक्ति है :
" सराफे सराहे भरे बे वि बाजू || "
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: यातना देना ।
: शीघ्र, जल्दी ।
: हदस, (अरबी) – प्रेतात्माओं को अंगूठी के नग में दिखाने की प्रक्रिया |
शब्द और अर्थ की समस्या / 325
1. वही, पृ० 95 2. वही, पृ० 145
"तोलन्ति हेरा लसूला पेप्राजू" । अर्थ करने वालों ने इसमें विशिष्टार्थक शब्दों को न पहचान सकने के कारण सराफे में लहसुन व प्याज और हल्दी तुलवा दी है । ठीक है, लला का ग्रर्थ लहसुन स्पष्ट है । प्याज का अर्थ भी स्पष्ट है । एक ने 'हेरा' को हलदी मान लिया । किंचित् ध्यान देने यह विदित हो जाता है कि एक इन अर्थों में 'प्रसंग' पर ध्यान नहीं रखा गया । वर्णन सराफे का है । सराफे में जौहरी बैठते हैं' । वहाँ हलदी,
लहसुन, प्याज जैसे खाने में काम आने वाले पदार्थ कहाँ ? तो 'प्रसंग' पर ध्यान नहीं दिया गया । दूसरे, इन शब्दों के विशिष्ट अर्थ पर भी ध्यान नहीं गया । लसूला का अर्थ लहसुनिया नाम का रत्न, 'पेश्राजू' का अर्थ 'फीरोजा' नाम का रत्न, और हेरा 'हीरा' हो सकता है, इस पर ध्यान नहीं गया, जो जाना चाहिये था । इसी प्रकार 'कीर्तिलता 2 में ही एक अन्य चरण है :
"चतुस्सम पल्वल करो परमार्थ पुच्छहि सियान" ।
इसमें 'चतुस्सम' शब्द है । किसी विद्वान के द्वारा इसमें आये 'चतुस्तम' का सामान्य अर्थ 'चौकोन' या 'चोकोर' कर लिया गया । वस्तुत: यह विशिष्टार्थक शब्द है । इसे लेकर हस्तलेखों के पाठों में भी गड़बड़झाला हुई है । वह गड़बड़झाला क्या है और इसका यथार्थ रूप और अर्थ क्या है, यह डॉ० किशोरीलाल के शब्दों में पढ़िये :
"डाँ० वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार जायसी - कृत पद्मावत में प्राप्त 'चतुरसम' पाठ को न समझने के कारण इसका पाठ 'चित्रसम' किया गया । फारसी में चित्रसम और 'चतुरसम' एक-सा पढ़ा जा सकता है, अतः 'चतुरसम' पाठ सम्पादक को क्लिष्ट लगा और 'चित्रसम' सरल । जायसी के मान्य विद्वान् आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल ने 'चित्रसम' पाठ ही माना। यही नहीं कहीं-कहीं उन्होंने 'चित्रसब' पाठ भी किया है—
करिस्नान चित्र सब सारहूँ — जायसी ग्रन्थावली पृ० 121 || शुद्ध पाठ 'चतुरसम' ही है । इसे डॉ० अग्रवाल ने पूर्ववर्ती रचनाओं से प्रमाणित भी किया है, यथा-जायसी से दो शताब्दी पूर्व के 'वर्ण रत्नाकार' में भी चतुःसम का प्रयोग मिला है -- ' चतुःसम हथ लिये
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326/पाण्डुलिपि-विज्ञान
मण्डु'--(वर्ण रत्नाकर पृ० 13) वर्णरत्नाकर से भी दो शती पूर्व हेमचन्द्र के 'अभिधान चिन्तामणि' से भी उन्होंने इसे प्रमाणित किया है
कर्पू रागुरुकक्कोल कस्तूरी चन्दनद्रवैः । 31302 स्पाद यक्षकर्दमो मित्रै र्वतिगात्रानुलेपकी । चंदनागरु कस्तूरी कुंकुमैस्तु चतु:समन् । चन्दनादि चत्वारि समान्यत्र चतुः समम्
अमिधान चिन्तामणि 31303 सबसे पुष्ट प्रमाण रामचरित मानस में मिला है__ बीथी सींची चतुरसम चौकें चारु पुराई
बालकांड 296110, काशिराज संस्करण डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने भी 'चित्रसम' पाठ ही अपनी जायसी ग्रन्थावली-काशिराज संस्करण में माना था लेकिन मानस के ऐसे प्रयोग को देख लेने पर उन्होंने अपने पूर्व पाठ को त्याग दिया। चतुरसम 'संस्कृत' के 'चतु सम' शब्द का विकृत रूप है, जिसका अर्थचंदन, अगरु, कस्तूरी और केसर का समान अंश लेकर निर्मित सुगंध है।"1
शिलालेखों और अभिलेखों में आने वाले पारिभाषिक और विशिष्टार्थक शब्दों पर विस्तार से विचार किया गया है, डी० सी० सरकार कृत 'इण्डियन एपीग्राफी' में आठवें अध्याय में जिसका शीर्षक है 'टेकनीकल ऐक्सप्रेशन' । (क) संख्या-वाचक शब्द
शिलालेखों, अभिलेखों और पांडुलिपियों में ऐसे शब्द मिलते हैं जिनका अपना अमिचार्थ नहीं लिया जाता। उनसे जो संख्या-बोध होता है, वही ग्रहण किया जाता है मानो वह शब्द नहीं संख्या ही हो। इस पर ऊपर के अध्याय में विचार किया जा चुका है । यहाँ तो इस ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए इसे शब्द-भेद माना है कि पांडुलिपि में
आये शब्दों का एक वर्ग संख्या का काम भी देता है, अतः ऐसे शब्द-रूपों को संख्या-रूप में ही मान्यता दी जानी चाहिये । (ख) वर्तनी च्युत शब्द
। ये ऐसे शब्द होंगे जिनमें वर्तनी की भूल हो गई हो, जैसे-'चंदचरित्र' में पहले पन्ने में दूसरी पंक्ति में 'सिंधु शलिल प्रवाह' आया है। यहाँ 'शलिल' वर्तनी च्युति है । 'मात्रा विकृति' कहीं-कहीं छंद की तुक या अन्य कारणों से जान-बूझकर कवि को करनी पड़ती है, उसे विकृति या वर्तनी-च्युति नहीं माना जायगा, किन्तु ऊपर के उदाहरण में 'स' के स्थान पर 'श' वर्तनी च्युति ही है। इसी प्रकार उसी पन्ने पर 11वीं पंक्ति में है : 'जब वार सार'।
इसमें भी 'जंबूतरूसार' में 'तरु' को 'तरू' लिखने में वर्तनी च्युति है । (ग) स्थानापन्न शब्द (भ्रमात् अथवा अन्यथा)
किसी चरण में एक शब्द ऐसा आया है कि अध्येता को समझ में नहीं आ रहा, 1. किशोरीलाल-सम्मेलन-पत्रिका (भाग 56, अंक 2-3), पृ. 179-180.
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शब्द और अर्थ की समस्या/327
अतः वह यह मान लेता है कि यह कोई शब्द नहीं है तब, उसके स्थान पर कोई अन्य सार्थक शब्द रखकर अपना अर्थ निकाल लेता है। इस प्रकार रखे गये शब्द ही स्थानापन्न कहे जायेंगे। पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को ऐसे शब्दों को पहचानने का अभ्यास अवश्य होना चाहिये।
इसका एक उदाहरण डॉ० अग्रवाल द्वारा सम्पादित 'कीतिलता' से ही और लेते हैं। 'कीतिलता' 21190 के चरण पर पारिभाषिक शब्दावली की दृष्टि से विचार किया जा चुका है । उसी में 'णारभो' पर डॉ० अग्रवाल ने जो टिप्पणी दी है उससे 'स्थानापन्नता' पर प्रकाश पड़ता है । उनकी टिप्पणी इस प्रकार है :1
"णारो-नरक के जीव, प्रेतात्मा । सं० नारक >प्रा० रणारय-नरक का जीव (पासद्द० 478)। यहां श्री बाबूराम सक्सेना जी की प्रति में 'ख' प्रति का पाठ 'नारों' पाद-टिप्पणी में दिया हुआ है, वही वस्तुतः मूल-पाठ था। जब इस पंक्ति का शुद्ध अर्थ प्रोझल हो गया तब अर्थ को सरल बनाने के लिए द्वारो यह अप-पाठ प्रचलित हुआ । स्पष्ट है कि मूल 'नारो' के स्थान पर 'द्वारओ' शब्द किसी लिपिकार ने स्थानापन्न कर दिया। 'णरो' से वह परिचित नहीं था, अतः उसे अपनी सूझ-बूझ से 'द्वारो' शब्द ठीक लगा।"
फलतः पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को हस्तलेखों में स्थानापन्नता की बात भी ध्यान में रखनी होगी। (घ) अपरिचित शब्द
___ हस्तलेख या पांडुलिपियां सहस्रों वर्ष पूर्व तक की मिलती हैं । वह युग हमारे युग से अनेक रूपों में भिन्न होता है । लिपि भिन्न होती है, शब्द-कोष भी भिन्न होता है, शब्दों के अर्थ भी भिन्न होते हैं। लिपि की समस्या हल हो जाने पर शब्दों की समस्या सामने आती है। ऊपर जो शब्द-रूप बताये गये हैं, उनके साथ ही ऐसे शब्द भी हो सकते हैं, जिनसे हम अपरिचित हों। एक लिपिकार ने अपरिचित शब्द के साथ जो व्यवहार किया उसे हम अभी ऊपर देख चुके हैं। उसने अपरिचित शब्द को हटा ही दिया । उसका तर्क रहा होगा कि "वह स्वयं जब ‘णारों' शब्द को नहीं जानता तो ऐसा कोई शब्द हो ही नहीं सकता" | उसने अपनी सूझबूझ से उससे मिलता-जुलता परिचित शब्द वहाँ रख दिया पर उसका उस तरह सोचना समीचीन नहीं था, अतः अपरिचित शब्द को अपरिचित मान कर उसके अनुसंधान में प्रवृत्त होना चाहिये और उस युग की शब्दावली को देखना चाहिए, जिस युग का वह ग्रंथ है, जिसमें वह अपरिचित शब्द मिला है ।
__ अपरिचित शब्दरूप में ऐसे शब्द भी आयेंगे जिनके सामान्य अर्थ से हम भले ही परिचित हों पर उसका विशिष्ट अर्थ भी होता है। वे किसी ऐसे क्षेत्र के शब्द हो सकते हैं, जिनसे हमारा परिचय नहीं, और विशेषतः उस युग के विशिष्ट क्षेत्र की शब्दावली से जिस युग में वह पांडुलिपि प्रस्तुत की गयी थी। प्राचीन काव्यों में ऐसे विशिष्ट शब्द पर्याप्त मात्रा में मिल सकते हैं ।
प्रथमतः परिचित लगने वाले किन्तु मूलतः विशिष्टार्थक ऐसे शब्द-रूपों की चर्चा 1. अग्रवाल, वासुदेव शरण (डॉ.)-कोतिलता, पृ. 1101
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328/पाण्डुलिपि-विज्ञान ऊपर हो चुकी है। यहाँ 'अपरिचित रूप' की दृष्टि से 'कीतिलता' से एक और उदाहरण दे
कीतिलता के 2133 वें दोहे का पाठ डॉ० अग्रवाल ने यों दिया है :
"हद्दहि हट्ट भमन्तो दूअो राज कुमार ।।214
दिठिट कुतूहल कज्ज रस तो इट्ठ दरबार ।।2151" इस दोहे में 'कज्ज रस' दो शब्द हैं। इन शब्दों के रूपों से प्रथमतः हम अपरिचित नहीं प्रतीत होते, किन्तु युगीन शब्दावली की दृष्टि से ये विशिष्टार्थक हैं, अतः इन्हें अपरिचित माना जा सकता है । प्रसंग दरबार का है अतः उस सन्दर्भ में इसका अर्थ ग्रहण करना होगा। डॉ० अग्रवाल की 'कज्ज' और 'रस' पर टिप्पणी पठनीय है : वे लिखते हैं :
"21 5. कज्जावेदन, न्यायालय या राजा के सामने फरियाद । सं० कार्य>प्रा. कज्ज का यह एक पारिभाषिक अर्थ भी था। कार्य =अदालती फरियाद । (स्वैरालापे
मी वयस्यापचारे कार्यारम्भे लोकवादाश्रये च । कः श्लेषः कष्टशब्दाक्षराणां पुष्पापोडे कण्टकानां यथैव ।। पद्मप्राभृतकम् श्लोक 18॥ कार्यारम्भ का अर्थ यहाँ लिखित फरियाद या अदालती अर्जी दावा है । “पादताडितकम्' में अर्जी देने वाले वादी या फरियादी लोगों को कार्यक कहा गया है, "अधिकरणगतोऽपि कोशतां कार्यकारणाम्" । कालिदास ने भी कार्य शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त किया है । वहिनिष्क्रम्य ज्ञायतां कः कः कार्यार्थोति (मालविकाग्निमित्र, आप्टे, मोनियर विलियम्स सं० कोश)। रस-सं० रस V>प्रा० रस =चिल्लाकर कहना।
कज्ज रस=अपनी फरियाद कहने के लिए। ___ स्पष्ट है कि कज्ज या कार्य और रस दोनों अतिपरिचित शब्द हैं पर प्रसंग विशेष से अर्थ पर पहुँचने के लिए मूलतः अपरिचित हैं । ऐसे शब्दों को विशिष्टार्थक कोटि में रखा जा सकता है, पर क्योंकि ये रूपतः विशिष्टार्थक नहीं सामान्य ही लगते हैं, अतः इन्हें 'अपरिचित' कोटि में रखा जा सकता है।
अब एक उदाहरण अपरिचित शब्द की लीला का 'काव्य-निर्णय' के दोहे में देखिये । 'चन्दमुखिन के कुचन पर जिनको सदा बिहार ।
'ग्रहह करें ताही करन चरबन फेरवदार ॥''चरबन फेरवदार' पर टिप्पणी करते हुए डॉ. किशोरीलाल ने जो लिखा है उसे यहाँ उद्धृत किया जाता है । इससे अपरिचित शब्दों की लीला स्पष्ट हो सकेगी । डॉ. किशोरीलाल ने सम्मेलन पत्रिका में लिखा है :
__. “इस (चरबन फेरवदार) का पाठ विभिन्न प्रतियों में किस प्रकार मिलता है उसे देखें
(1) भारत जीवन प्रेस काशीवाली प्रति का पाठ-'चखन फेरवदार' । (2) वेलवेडियर प्रेस प्रयाग वाली प्रति का पाठ- "चिरियन फेरवदार' (3) बेंकटेश्वर प्रेस बम्बई की प्रति का पाठ-'चखदन फेरवदार' (4) कल्याण दास ज्ञानवापी वाराणसी का पाठ-'चंखन फेरवदार'
1. वही, पृ. 120-121 । 2. किशोरीलाल, (डॉ.)--सम्मेलन पत्रिका (भाग 56, संख्या 2-3) पृ. 181-1821
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शब्द और अर्थ की समस्या/329
वास्तव में फेरवदार' का अर्थ शृगालिनी है, उसे न समझने के कारण फैखदार' आदि पाठ स्वीकर किया गया और चर्वण के अर्थ अनभिज्ञ रहने के कारण 'चखन' आदि मन-गढन्त पाठों की कल्पना करने पड़ी । इस प्रकार के पाठ-गढन्त के नमूने अन्यत्र भी मिलते हैं । ब्रजभाषा के पुराने टीकाकार सरदार कवि ने 'रसिक-प्रिया" की टीका में इस प्रकार का स्पष्ट उल्लेख किया है कि किस तरह लौच (रिश्वत) शब्द से परिचित न रहने के कारण लोगों ने किसी-किसी प्रति में लोंच कर दिया है । 'लोच' शब्द वाली पंक्तियाँ हैं :
"जालगि लोंच लुगाइन दै दिन नानन चावत साँझ पहाऊँ" 'रसिक प्रिया, केशवदास 5/12 प्र० सं० पृ० 75 नवल किशोर प्रेस, लखनऊ ।
पाषण-मद्रणालय, मथरा से प्रकाशित ग्वालकवि कृत 'कवि-हदय-विनोद' में एक शब्द 'बांधकीपौरि' मिला है । इस शब्द से परिचित न रहने के कारण 'ग्वाल रत्नावली' के सम्पादक ने 'बांधनी' और 'पौरि' दो भिन्न शब्दों की कल्पना करली और 'पौरि'की टिप्पणी दी है 'घर में' जो अर्थ की दृष्टि से नितान्त अशुद्ध है । संक्षिप्त शब्द-सागर' में भी इस शब्द के शुद्ध अर्थ को देखा जा सकता था । वहाँ इसका अर्थ इस प्रकार किया गया है : 'बांधनीपौर'-पशुत्रों के बांधने का स्थान (संक्षिप्त शब्द-सागर, पृ० 803) । बाधनीपौरि वाली पंक्तियाँ हैं—'फिर बांधनी-पौरि सुहावनि है (कविहृदयविनोद,) पृ० 89) । इसी प्रकार 'कविहृदयविनोद' के अन्य छन्द के पाठ की दुर्गति ही नहीं की गई वरन् उसका बड़ा विचित्र रूप देखने को मिला है :
"खासो है तमासो चलि देख सुखमा सों वीर, कुंज में भवासी है मयूर मंजु लाल की। चारु चांदनी की वर विमल विछावन पै,
चंदवा तन्यौ है, रविनाती रंगलाल की।" अंतिम अंश होना तो चाहिये-'री बनाती रंगलाल की ।' किन्तु सम्पादक जी ने उसे 'रविनाती' (सूर्य का नाती) समझा।
इस उद्धरण से और इसमें दिये उदाहरणों से अपरिचित शब्दों की पांडुलिपि-विज्ञान की दृष्टि से लीला सिद्ध हो जाती है । कुपठित
___इन रूपों के अतिरिक्त शब्द की दृष्टि से 'कूपठित' शब्द की ओर भी ध्यान जाना चाहिये । 'कुपठित' शब्द उन शब्दों को कहते हैं, जो लिपिकारं ने तो ठीक लिखे हैं किन्तु पाठक द्वारा ठीक नहीं पढ़े जा सके । एक शब्द था बस रेणु । 'त्रसरेणु' ही लिखा गया था किन्तु 'त्र' के चिमटे की दोनों रेखाएँ परस्पर मिल-सी रही थीं, अतः 'व' पढ़ी गई । 'व' पढने से अर्थ ठीक नहीं बैठ रहा था, तब सम्पादक ने आतिशी शीशे (Magnifying glass) की सहायता ली तो समझ में आया कि वह 'ब' नहीं त्र है, और 'कुपठित' शब्द सुपठित हो
1. यह शब्द 'फेरू-दार' होगा । फेख-शृगाल, अत: फेख-श्रगाल और दार-दारा, स्त्री---शृगालिनी 2 किशोरीलाल-सम्मेलन-पत्रिका (भाग 56, संख्या 2-3), पृ० 181-82.
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330/पाण्डुलिपि-विज्ञान
गया, तथा अर्थ ठीक बैठ गया, अतः ऐसे कुपठित शब्दों के जाल से भी बचने के उपाय पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को करने होंगे।
यहाँ तक हमने शब्दरूपों की चर्चा की। लिपि के उपरान्त शब्द ही इकाई के रूप में उभरते हैं- और ये शब्द ही मिलकर चरण या वाक्य का निर्माण करते हैं । ये चरण या वाक्य ही किसी भाषा की यथार्थ इकाई होते हैं शब्द तो इस इकाई को तोड़कर विश्लेषित कर अर्थ तक पाठक द्वारा पहुँचने की सोपानें हैं । यथार्थ अर्थ शब्द में नहीं सार्थक शब्दावली की सार्थक वाक्य-योजना में रहता है । वस्तुतः किसी भी पांडुलिपि का निर्माण या रचना किसी अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए होती है । यह विश्लेषित शब्द यदि अपने ठीक रूप में ग्रहण नहीं किया गया तो अर्थ भी ठीक नहीं मिल सकता । भर्तृहरि ने 'वाक्य-पदीय' में ब
"प्रात्मरूपं यथा ज्ञाने ज्ञेय रूपंच दृश्यते
अर्थरूपं तथा शब्दे स्वरूपश्च प्रकाशते ।" अर्थात् ज्ञान जैसे अपने को और अपने ज्ञेय को प्रकाशित करता है उसी प्रकार शब्द भी अपने स्वरूप को तथा अपने अर्थ को प्रकाशित करता है ।।
शब्द के साथ अर्थ जुड़ा हुआ है । अर्थ से ही शब्द सार्थक बनता है । यह सार्थकता शब्द में यथार्थत: पदरूप से आती है । वह वाक्य में जो स्थान रखता है, उसके कारण ही उसे वह अर्थ मिलता है जो कवि या कृतिकार को अभिप्रेत होता है।
अर्थ समस्या
पांडुलिपि-विज्ञानार्थी के लिए अर्थ की समस्या भी महत्त्व रखती है । अर्थ ही तो ग्रंथ की आत्मा होती है । 'शब्द-रूप' की समस्या तो हम देख चुके हैं कि मिलित शब्दावली में से ठीक शब्द-रूप पर पहुँचने के लिए भी अर्थ समझना आवश्यक है और ठीक अर्थ पाने के लिए ठीक शब्द-रूप । यहाँ एक और उदाहरण 'कीतिलता' से लेते हैं। डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने यह भूमिका देते हुए कि "इन पूर्व टीकाओं में कीर्तिलता के अर्थों की जो स्थिति थी उसकी तुलना वर्तमान संजीवनी टीका के अर्थों से करने पर यह समझा जा सकेगा कि कीर्तिलता के अर्थों की समस्या कितनी महत्त्वपूर्ण थी
और उसे किस प्रकार उलझा हुआ छोड़ दिया गया था।" अपने इस कथन को पुष्ट करने के लिए उन्होंने बहुत-से स्थलों की चर्चा की है । इसी सन्दर्भ में पहली चर्चा है इस पंक्ति की:
(1) भेन करन्ता मम उवइ दुज्जन वैरिण होइ । 1/22 डॉ० अग्रवाल ने इस पर लिखा है कि
"बाबूरामजी ने 'मेक हन्ता मुझजई' पाठ रखा है जो 'क' (प्रति) का है । अक्षरों को गलत जोड़ देने से यहाँ उन्होंने अर्थ किया है-यदि दुर्जन मुझे काट डाले अथवा मार डाले तो भी वैरी नहीं । उन्होंने टिप्पणी में 'भे कहन्ता' देते हुए अर्थ दिया है.--'यदि दुर्जन मेरा भेद कह दे ।' शिवप्रसाद सिंह ने इसे ही अपनाया है । वास्तय में 'अ' प्रति से इसके मूल पाठ का उद्धार होता है । मूल का अर्थ है-मर्म का भेद करता हुआ दुर्जन पास
1. डॉ. किशोरीलाल के निबन्ध 'प्राचीन हिन्दी काव्य पाठ एवं अर्फ विवेचन' से उद्धृत । सम्मेलन
पत्रिका (भाग 56, सं. 2-3), पृ. 187 ।
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शब्द और अर्थ की समस्या/331
आवे तो भी शत्रु नहीं होगा । 'उवई' <प्राकृत-अवहट्ठ घातु, जिसका अर्थ पास आना है ।।
इस विवेचन से एक ओर तो यह स्पष्ट होता है कि 'मिलित शब्दावली' में से शब्दरूप बनाते समय अक्षरों को गलत जोड़ देने से गलत शब्द बन जाता है । भेषकहन्ता । करन्ता, में से 'भेप्रक' बनाने में 'कहन्ता' या करन्ता के 'क' को भेअ से जोड़कर 'भेप्रक' बना दिया है, यह गलत शब्द बन गया । इससे अर्थ गलत हो गया, उलझ गया और समस्या बना रह गया।
दूसरी यह बात विदित होती है कि एक अपरिचित शब्द 'उवह' पूर्व टीकाकारों ने ग्रहण नहीं किया। यह प्राकृत-अवहठ का रूपान्तर था ।
अतः अर्थ-समस्या के दो कारण ये प्रकट हुए : 1. मिलित शब्दावली में से ठीक शब्द-रूप का न बनना, और 2. किसी अपरिचित शब्द को परिचित शब्दों की कोटि में लाने की असमर्थता ।
डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'सन्देश-रासक' के समस्यार्थक स्थलों पर प्रकाश डालते हुए 'पारद्द' शब्द के सम्बन्ध में बताया है कि 'पारद' शब्द का यह अर्थ (अर्थात् जुलाहा) अज्ञातपूर्व अवश्य है । देशीनाममाला कोश में उन्हें यह शब्द नहीं मिला, हाँ, 'पारद्ध' मिला और 'पारद्ध' अग्र समीकरण से 'पारद्द' हो सकता है । 'पारद्ध' के अर्थ कोश में दिये हैं : प्रबद्ध, सतृष्ण और गृह में आया हुआ । तन्तुवाय या 'जुलाहा' अर्थ नहीं हैं । उधर टीकाकारों ने इसका अर्थ 'जुलाहा' किया है-आगे कवि ने अपने को कोरिय या कोरिया लिखा भी है, अतः जुलाहा तो वह था । इसलिए डॉ० द्विवेदी ने यह निर्देश भी दिया है कि "किसी शब्द के अन्य ग्रन्थों में न मिलने मात्र से उसके अर्थ के विषय में शंका उठाना उचित नहीं है । सम्भव है किसी अधिक जानकार को वह शब्द अन्यत्र मिल भी जाय ।"
इस कथन से यह तो सिद्ध हो गया कि 'पारद्द' शब्द पक्की तरह से अपरिचित शब्द है, रूप में भी और अर्थ में भी, वरन् उसके अर्थ का स्रोत केवल टीकाएँ हैं । इन टीकात्रों ने यह अर्थ पारद्द का किस आधार पर किया, किस प्रमाण से इसे सिद्ध किया, यह भी हमें विदित नहीं।
अतः कहीं-कहीं अर्थ-समस्या उक्त प्रकार से एक नया रूप ले लेती है। शब्द अपरिचित अर्थ परिचित किन्तु अप्रामाणिक आधार पर जिसका स्रोत तक ज्ञात नहीं । अर्थ परिचित है क्योंकि ग्रन्थ की टीका में मिल जाता है । टीका का स्रोत क्या है यह अविदित है ।
इसी पद्य में एक और प्रकार से अर्थसमस्या पर विचार किया गया है । यह है 'मी र से रण (नं) स्स' पर व्याकरण की दृष्टि से विचार । पद्य में 'मी र से ग स्स' शब्द है, टीकाकारों ने 'मी र से नाख्य' रूप में इसकी ब्याख्या की है । अर्थ की यह समस्या डॉ० द्विवेदी ने यो प्रस्तुत की है।
'पारदो मीरसेरणस्स' का अर्थ 'पारदो मीरसेनाख्यः' नहीं हो सकता । 'मीरसेणस्स' षष्ठयन्त पद है, उसकी ब्याख्या 'मीर सेनाख्यः' प्रथमांत पद के रूप में नहीं होनी चाहिये ।'
1. अग्रवाल, वासुदेवशरण (डॉ.)-कोतिलता, पृ. 19-20 । 2 द्विवेदी, हजारीप्रसाद-संदेश रासक, पृ. 11।
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332/पाण्डुलिपि-विज्ञान
स्पष्ट है कि टीकाकारों ने व्याकरण रूप पर (मीरसेन का प्रयोग षष्ठ्यन्त में है इस पर) ध्यान नहीं दिया, अतः अर्थ की समस्या जटिल हो गयी। अर्थ की दृष्टि से व्याकरण के प्रयोग पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है ।
इसे भी स्पष्ट करते हुए डॉ० द्विवेदी लिखते हैं कि 'कम से कम आरद्द' की 'गृह आगत' करने में 'मीरसेणस्स' की संगति बैठ जाती है । 'पारद' शब्द का अर्थ 'तन्तुवाय न भी होता हो तो यह अर्थ ठीक बैठ जाता है । "मीरसेन के घर आया हुआ, (विशेषण विच्छित्ति वश जुलाह) भी) उसी का पुत्र कुल-कमल प्रसिद्ध अद्दहमारण हुआ।" यह अर्थ ठीक जमता है ।
व्याकरण पर ध्यान न देने से भी अर्थ-समस्या जटिल हो जाती है, यह इस उदाहरण से सिद्ध है।
सन्देश रासक के ही एक शब्द के सम्बन्ध में डॉ० द्विवेदी ने यह स्थापना की है कि शब्द के जिस रूपान्तर को अर्थ के लिए ग्रहण किया गया है वह न केवल व्याकरण-म्मत ही होना चाहिये, भाषा-शास्त्र द्वारा अनुमोदित भी होना चाहिये, तभी ठीक अर्थ प्राप्त हो सकता है । यह स्थापना उन्होंने अधड्डीगउ' शब्द पर विचार करते हुए की है । इस शब्द का अर्थ टिप्पणककार ने बताया है 'अझैद्विग्न' (= प्राधा उद्विग्न) और अवचूरिकाकार ने अध्वोद्विग्न' (= रास्ता चलने से उद्विग्न या थका हुग्रा-सा)। यह अर्थ इसलिए किया गया कि दोनों ने उड्डीण को उद्विग्न का रूपान्तर मान लिया । द्विवेदी जी ने बताया है कि सं० रा० में उद्विग्न का रूपान्तर 'उब्विन्न' हा है, और कई स्थलों पर पाया है फिर यहाँ उद्विग्न का रूप उविन्न ही होना चाहिये था 'उड्डोण' नहीं । 'उड्डीरण' भाषा शास्त्र से उद्विग्न का रूपान्तर नहीं ठहर सकता, अतः इसका अर्थ उद्विग्न भी नहीं किया जा सकता । 'उड्डीण' का अर्थ 'उड़ता हुअा' और पूरे शब्द का अर्थ होगा आधा उड़ता हुआ
सा।
अर्थ की समस्या का एक कारण होता है-किसी शब्द-रूप में वाह्य-साम्य से अर्थ कर बैठना । सं० रा० में एक शब्द है 'कोसिल्लि' इसका बाह्यसाम्य 'कुशल' से मिलता है, अतः टिप्पणक और अवचूरिका में (श० 22) इसका अर्थ 'कुशलेन अर्थात् कुशलतापूर्वक' कर दिया गया । पर 'देशीनाममाला' में इस शब्द का अर्थ दिया गया है प्राभूतम् । स्पष्ट है कि टिप्पणक और अवचूरिका में लेखकों ने इस शब्द के यथार्थ अर्थ को ग्रहण करने का प्रयत्न नहीं किया । प्राभृतम् अर्थ ठीक है, यह डॉ० द्विवेदी का अभिमत है ।
शब्द-रूप को अर्थ की दृष्टि से समीचीन मानने में छन्द की अनुकूलता भी देखनी होती है । डॉ. द्विवेदी ने सं०रा० में उत्हवइण केणइ विरहज्झल पुणावि अग्रंपरिहिसयहिं' में बताया है कि छन्द की दृष्टि से इसमें दो मात्राएँ अधिक होती हैं । उनका सुझाव है कि 'सी' तथा 'ज' प्रति के पाठ में 'विरहहव' शब्द है, 'विरहगझल' के स्थान पर यही ठीक है। 'हव' का अर्थ अग्नि है । इसी अर्थ में सं०रा० में अन्यत्र भी पाया है। इसी प्रकार छन्ददोष भी दूर हो जाता है, इसीलिए डॉ० द्विवेदी इसे कविसम्मत भी मानते हैं। 1. द्विवेदी, हजारीप्रसाद-संदेश-रासक, पृ० 12 । 2. वही, पृ० 21 । 3. वही, पृ० 531
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शब्द और अर्थ की समस्या/333
इस प्रकार हमने पाण्डुलिपि की दृष्टि से अर्थ की समस्या को विविध पहलुओं से देखा है । इसमें हमने पाण्डुलिपियों के अर्थ-विशेषज्ञों के साक्ष्यों का सीधे उपयोग किया है ।
किन्तु इसी के साथ सामान्यतः अर्थ-ग्रहण के उपायों का शास्त्र में (काव्य-शास्त्र में) जिस रूप में उल्लेख हुअा है, उसका भी विवरण अत्यन्त संक्षेप में दे देना उचित होगा।
काव्य शास्त्र द्वारा प्रतिपादित तीन शब्द शक्तियों से सभी परिचित हैं, वे हैं : अभिधा, लक्षणा तथा व्यंजना ।
एक शब्द के कोष में कई अर्थ होते हैं । स्पष्ट है कि कितने ही शब्द अनेकार्थी होते हैं, किन्तु एक रचना में एक समय में एक ही अर्थ ग्रहण किया जा सकता है, ऐसी 14 बातें काव्य-शास्त्रियों ने बतायी हैं जिनके कारण अनेकार्थी शब्दों का एक ही अर्थ माना जाता है, ये 14 बातें हैं : 1. संयोग, 2. वियोग, 3. साहचर्य, 4. विरोध, 5. अर्थ, 6. प्रकरण, 7. लिंग, 8. अन्य सान्निधि, 9. सामर्थ्य, 10. औचित्य, 11. देश, 12. काल, 13. व्यक्ति, एवं 14. स्वर।
किसी भी शब्द का एक अर्थ पाने के लिए इन बातों की सहायता ली जाती है। इनका विस्तृत ज्ञान किसी भी काव्य-शास्त्रीय ग्रन्थ (जैसे-काव्य प्रकाश) से किया जा सकता है । वस्तुतः इतना तो किसी भी अर्थ को प्राप्त करने के लिए प्रारम्भिक ज्ञान ही माना जा सकता है।
इस सम्बन्ध में आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने जो चेतावनी दी है, यह ध्यान में रखने योग्य है । वे कहते हैं, "प्राचीन कवियों के प्रयुक्त शब्दों का अर्थ करने में विशेष सावधानी की आवश्यकता है। एक ही शब्द विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है।" इस वाक्य में प्राचार्य महोदय ने देशभेद से शब्दार्थ-भेद की ओर संकेत किया है, अतः अर्थ-ग्रहण के लिए ग्रन्थ और लेखक के देश का भी ध्यान रखना होता है । यही बात काल के सम्बन्ध में भी है । कालभेद से भी शब्दार्थ-भेद हो जाता है ।
विशिष्ट ज्ञान, जो पाण्डुलिपि-विज्ञानार्थी में अपेक्षित है, उसकी ओर कुछ संकेत ऊपर किये गये हैं । विविध विद्वानों के अर्थानुसंधान के प्रयत्न भी उनके उद्धरणों और उदाहरणों सहित बताये गये हैं । इनसे अर्थ तक पहुँचने की व्यावहारिक प्रक्रियाओं का ज्ञान होता है। उससे मार्ग का निर्देश मात्र होता है।
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अध्याय 9
रख-रखाव
पाण्डुलिपियों के रख-रखाव की समस्या
पारडुलिपियों के रख-रखाव की समस्या भी अन्य समस्याओं की भाँति ही बहुत महत्त्वपूर्ण है । हम यह देख चुके हैं कि पाण्डुलिपियाँ ताड़पत्र, भूर्जपत्र, कागज, कपड़ा, लकड़ी, रेशम, चमड़े, पत्थर, मिट्टी, चाँदी, सोने, ताँबे, पीतल, काँसे, लोहे, संगमरमर, हाथीदांत, सीप, शंख आदि पर लिखी गई हैं, अतः रख-रखाव की दृष्टि से प्रत्येक की अलगअलग देख-रेख आवश्यक होती है।
___डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द अोझा ने बताया है कि "दक्षिण की अधिक ऊष्ण हवा में ताडपत्र की पुस्तकें उतने अधिक समय तक रह नहीं सकतीं जितनी कि नेपाल आदि शीत देशों में रह सकती हैं।"
यही कारण है कि उत्तर में नेपाल में ताड़पत्र पुस्तकों की खोज की गई तो ताड़पत्र की पुस्तकें अच्छी दशा में मिलीं। इसी कारण से 11वीं शताब्दी से पूर्व के ग्रन्थ कम मिलते हैं । 11वीं शती से पूर्व के ताड़पत्र के ग्रन्थ इस प्रकार मिले हैंदूसरी ईस्वी शताब्दी एक नाटक की पाण्डुलिपि का
अंश जो त्रुटित है। चौथी ईस्वी शताब्दी ताड़पत्र के कुछ टुकड़े। काशगर से मैकर्टिन
द्वारा भेजे हुए। छठी ईस्वी शताब्दी
1. प्रज्ञापारमिता-हृदय-सूत्र । । जापान के होरियूजी 2. ऊष्णीष-विजय-धारणी (बौद्ध मठ में ।
ग्रन्थ)। सातवीं ईस्वी शताब्दी स्कन्द-पुराण ।
नेपाल ताड़पत्र
संग्रह । नवीं (859 ई०) शताब्दी परमेश्वर-तन्त्र ।
केम्ब्रिज संग्रह में। दसवीं (906 ई०) शताब्दी लंकावतार ।
नेपाल के ताड़पत्र
संग्रह में । और बस ।
यही स्थिति भोजपत्र पर लिखी पुस्तकों की है। ये भूर्जपत्र या भोजपत्र पर लिखी पुस्तकें अधिकांश काश्मीर से मिली हैं
1. भारतीय प्राचीन लिपि-माला, पृ. 1431
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रख-रखाव/335
दूसरी-तीसरी शताब्दी ई० धम्मपद
खोतान (मध्य एशिया) भाषा-प्राकृत,
से प्राप्त । लिपि-खरोष्ठी। ) चौथी शताब्दी ई० संयुक्तागम सूत्र (संस्कृत) खोतान से प्राप्त । छठी , ,
मि० बेबर को प्राप्त ग्रन्थ पाठवीं , , अंकगणित
बख्शाली से प्राप्त । इन पर महामहोपाध्याय प्रोझाजी की टिप्पणी है कि "ये पुस्तकें स्तूपों के भीतर रहने या पत्थरों के बीच गढ़े रहने से ही उतने दीर्घकाल तक बच पायी हैं, परन्तु खुले वातावरण में रहने वाले भूर्जपत्र के ग्रन्थ ई०स० की 15वीं शताब्दी से पूर्व के नहीं मिलते, जिसका कारण यही है कि भूर्जपत्र, ताड़पत्र या कागज अधिक टिकाऊ नहीं होता।"1
इन उल्लेखों से विदित होता है कि1. ताड़पत्र-भूर्जपत्र आदि यदि कहीं स्तूप आदि में या पत्थरों के बीच बहुत भीतर
दाब कर रखे जाएँ तो कुछ अधिक काल तक सुरक्षित रह सकते हैं । 2. ऐसे खुले ग्रन्थ 4-5 शताब्दी से पूर्व के नहीं मिलते अर्थात् 4-5 शताब्दी तो चल
सकते हैं, अधिक नहीं।
इसी प्रकार की कागज के ग्रन्थों की भी स्थिति है । पांचवीं शताब्दी ई० 4 ग्रन्थ
कुगिअर (म०ए०) में (मि० बेवर को मिले) यारकंद से 60 मील भारतीय गुप्त-लिपि में दक्षिण, जमीन में गड़े लिखे
मिले। संस्कृत ग्रन्थ
काशगर (म०ए०) में कागज के सम्बन्ध में भी अोझाजी ने यही टिप्पणी दी है कि "भारतवर्ष के जलवायु में कागज बहुत अधिक काल तक नहीं रह सकता।"
ऊपर उदाहरणार्थ जो तथ्य दिये गये हैं उनसे यह सिद्ध होता है कि ताड़पत्र, भूर्जपत्र, या कागज या ऐसे ही अन्य लिप्यासन यदि बहुत नीचे या बहुत भीतर दाब कर रखे जायें तो दीर्घजीवी हो सकते हैं । पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि ऐसे दा हुए ग्रन्थ भी ई० सन् की पहली-दूसरी शताब्दी से पूर्व के प्राप्त नहीं होते ।
इसका एक कारण तो भारत पर विदेशी आक्रमणों का चक्र हो सकता है । ऐसे कितने ही अाक्रमणकारी भारत में पाये जिन्होंने मन्दिरों, मठों, बिहारों, पुस्तकालयों, नगरों, बाजारों को नष्ट और ध्वस्त कर दिया, जला दिया।
अपने यहाँ भी कुछ राजा ऐसे हुए जिन्होंने ऐसे ही कृत्य किये । अजयपाल के सम्बन्ध में टॉड ने लिखा है कि
1. भारतीय प्राचीन लिपि-माला, पृ०1441 2. वही, पृ० 1451
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336/पाण्डुलिपि-विज्ञान
"इसके शासन में सबसे पहला कार्य यह हुआ कि उसने अपने राज्य के सब मन्दिरों को, वे आस्तिकों के हों अथवा नास्तिकों के, जैनों के हों अथवा ब्राह्मणों के, नष्ट करवा दिया । इसी में आगे यह भी बताया गया है कि "समधर्मानुयायियों के मतभेदों और वैमनस्यों के कारण भी लाखों की क्षति पहुँची है । उदाहरणार्थ-तपागच्छ और खरतरगच्छ नामक मुख्य (जैन धर्म के) भेदों के आपसी कलह के कारण ही पुराने लेखों का नाश अधिक हुअा है और मुसलमानों द्वारा कम ।"2 टॉड को यह तथ्य स्वयं विद्वान् जैनों के मुख से सुनने को मिला।
___ अतः ग्रन्थों और लेखों के नाश में साम्प्रदायिक विद्वेष का भी बहुत हाथ रहा है, सम्भवतः बाहरी आक्रमणों से भी अधिक । यद्यपि अलाउद्दीन के आक्रमण का उल्लेख करते हुए टॉड ने लिखा है कि "सब जानते हैं कि खून के प्यासे अल्ला (अभिप्राय अलाउद्दीन से है) ने दीवारों को तोड़कर ही दम नहीं ले लिया था वरन् मन्दिरों का बहुत-सा माल नींवों में गड़वा दिया, महल खड़े किये और अपनी विजय के अन्तिम चिह्नस्वरूप उन स्थलों पर गधों से हल चलवा दिया, जहाँ वे मन्दिर खड़े थे ।"3
अतः इन स्थितियों के कारण ग्रन्थों के रख-रखाव के साथ ग्रन्थागारों या पोथीभंडारों को भी ऐसे रूप में बनाने की समस्या थी कि किसी आक्रमणकारी को आक्रमण करने का लालच ही न हो पाये । इसीलिये ये भण्डार तहखानों में रखे गये । टॉड ने बताया है कि “यह भण्डार नये नगर के उस भाग में तहखानों में स्थित हैं जिसको सही रूप में अणहिलवाड़ा का नाम प्राप्त हुअा है। इस स्थिति के कारण ही यह अल्ला (उद्दीन) की गिद्ध-दृष्टि से बचकर रह गया अन्यथा उसने तो इस प्राचीन श्रावास में सभी कुछ नष्ट कर दिया था ।"
टॉड महोदय का यही विचार है कि भू-गर्भ स्थित होने के कारण यह भण्डार बच गया, क्योंकि ऊपर ऐसा कोई चिह्न भी नहीं था जिससे आक्रमणकर्ता यह समझ कर अाकर्षित होता कि यहाँ भी कोई नष्ट करने योग्य सामग्री है।
"जैन ग्रन्थ भंडार्स इन राजस्थान' में डॉ० कासलीवाल जी ने भी बताया है कि : अत्यधिक असुरक्षा के कारण ग्रन्थ भण्डारों को सामान्य पहुँच से बाहर के स्थानों पर स्थापित किया गया । जैसलमेर में प्रसिद्ध जैन-भण्डार इसीलिए बनाया गया कि उधर रेगिस्तान में आत्रमण की कम सम्भावना थी। साथ ही मन्दिर में भूगर्भस्थ कक्ष बनाये जाते थे और आक्रमण के समय ग्रन्थों को इन तहखानों में पहुँचा दिया जाता था । सांगानेर, आमेर, नागौर, मौजमाबाद, अजमेर, जैसलमेर, फतेहपुर, दूनी, मालपुरा तथा कितने ही अन्य (जैन) मन्दिरों में आज भी भूगभित कक्ष हैं, जिनमें ग्रन्थ ही नहीं मूर्तियाँ भी रखी जाती हैं । आमेर में एक वृहद् भण्डार था, जो भू-गभं कक्ष में ही था और अभी केवल तीस वर्ष पहले ही ऊपर लाया गया। जैसलमेर के प्रसिद्ध भण्डार का सम्पूर्ण अंश तहखाने में ही सुरक्षित था । ऐसे तहखानों में ही ताड़पत्र की पुस्तकें तथा कागज की बहुमूल्य पुस्तकें रखी
1. टॉड, जेम्स-पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ. 202 । 2. वही, पृ. 2981 3. वही, पृ. 2371 4. वही, पृ 2461
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रख-रखाव/337
जाती थीं। लोग । ऐसा विश्वास करते हैं कि इससे भी बड़ा भण्डार जैसलमेर में अब भी भूगर्भस्थ-कक्ष में है ।"1
सामान्य पहुंच से दूर स्थानों पर ग्रन्थ-भण्डारों के रखने के कई उदाहरण मिलते हैं। डॉ. रघुवीर ने मध्य एशिया में तुन्ह्वाँङ स्थान की यात्रा की थी। यह स्थान बहुत दूर रेगिस्तान से घिरा हुआ है । यहाँ पहाड़ी में खोदी हुई 476 से ऊपर गुफाएं हैं जिनमें अजन्ता जैसी चित्रकारी है, और मूर्तियां हैं । यहाँ पर एक बन्द कमरे में, जिसमें द्वार तक नहीं था, हजारों पांडुलिपियाँ बन्द थीं, आकस्मिक रूप से उनका पता चला । एक बार नदी में बाढ़ आ गई, पानी ऊपर चढ़ पाया और उसने उस कक्ष की दीवार में संध कर दी जिसमें किताबे बन्द थीं। पुजारी ने ईंटों को खिसका कर पुस्तकों का ढेर देखा । कुछ पुस्तकें उसने निकाली । उनसे विश्व के पुराशास्त्रियों में हलचल मच गई। सर औरील स्टाइन दौड़े गये
और 7000 खरड़े (Rolis) या कुंडली ग्रन्थ वहाँ के पुजारी से खरीद कर उन्होंने ब्रिटिश म्यूजियम को भेज दिये । 'ट्रेजर्स प्रॉव द ब्रिटिश म्यूजियम' में इसका विवरण जो दिया गया है :
___ "Perhaps his (Stein's) most exciting discovery, towever, was in a walled-up chamber adjoining the caves of the thousand Buddhas at Tuahuang on the edge of the Gobi Desert. Here he fou'd a vast library of Chinese Manuscript rolls and block prints, many of them were Buddhist texts translated from the Sanskrit. The climate which had driven away the traders hy depriving them of essential water supplies had favoured the documents they had left behind. The paper rolls seemed hardly damaged by age. Stein's negotiations with the priest incharge of the santuary proved fruitful. He purchased more than 7,000 paper rolls' and sent them back to the British Museum. Among them are 380 pieces bearing dates between A. D. 406 and 995. The most celebrated single item is a well-pre served copy of the Diamond Sutra, printed from wooden blocks, with a date corresponding to 11 May, A. D. 868. This scroll has been acclaimed as the world's oldest printed book’, and it is indeed the earliest printed text complete with date known to exist."'3
सभी ग्रन्थ अच्छी दशा में मिले । कहाँ सातवीं-आठवीं ईस्वी शताब्दी से पूर्व के ग्रन्थ कहाँ बीसवीं शताब्दी ई०, इतने दीर्घकाल तक अच्छी दशा में अच्छी तरह सुरक्षित (Well Preserved) ग्रन्थों के रहने का कारण एक तो दूर-दराज का रेगिस्तानी पहाड़ी
1. Kastiwal, K. C. (Dr.) -- Jain Grantha Bhandars in Rajasthan, p 23--24. 2. आचार्य रघुवीर की डायरी के आधार पर उक लेख में डॉ. लोकेशचन्द ने बताया है कि यह 17
नं० की गुफा थी। इसमें 30,000 वलपिता (Paper rolls) थीं। उन्होंने यह भी बताया है कि स्टाइन के बाद पेरिस के अध्यापक पेलियो आये; यहाँ 6 महीने रहे और बहुत-सी बलयिताएँ ले गये । शेष 8000 पेचिद में रखी गई।
-धर्मयुग, 23 दिसम्बर, 1973 '3. Francis, Frank (Ed.)-Treasures of the British Museum, p. 251.
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338 पाण्डुलिपि-विज्ञान
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तुन्ह्वाङ को 476 गुफाओं का डॉ० लोकेशचन्द्र द्वारा प्रस्तुत किया गया रेखाचित्र-विशाल रेगिस्तानी क्षेत्र में यह फैली हुई हैं । हान वंश के समय जहाँ चीनी सैनिकों को मशालें देश की रक्षा करती थीं । इन्हीं मशालों के कारण इसका नाम तुन् (धधकती) ह्वाङ (केतु) पड़ा।
रेगिस्तान, पहाड़, नदी के कारण यह सुरक्षित स्थान माना गया ।
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रख-रखाव/339
स्थान दूसरे, रखने की व्यवस्था—जिस कक्ष में उन्हें रखा गया था वह अच्छी तरह बन्द कर दिया गया था, यहाँ तक कि बौद्ध पुजारी को भी उनका पता ही नहीं था कि वहाँ कोई ग्रन्थ-भण्डार भी है । उसका आकस्मिक रूप से ही पता लगा ।
___ इसी प्रकार हम बचपन में यह अनुश्रुति सुनते आये थे कि सिद्ध लोग हिमालय की गुफाओं में चले गये हैं। वहाँ वे आज भी तपस्या कर रहे हैं। डॉ० बंशीलाल शर्मा ने 'किन्नौरी लोक-साहित्य' पर अनुसंधान करते हुए एक स्थान पर लिखा है :
___ “निङपा-लामा भी कन्दराओं में प्राचीन ग्रन्थों व लामानों की खोज करने लगे और उनके शिष्यों ने इन स्थानों में साधना प्रारम्भ की । उन लोगों का कथन था कि इन गुप्त स्थानों पर पदमसम्भव द्वारा रचित ग्रन्थ हैं तथा इस धर्म में विश्वास करने वाले कुछ महात्मा भी कन्दराओं में छिपे बैठे हैं ।"2
___ इन्होंने मौखिक रूप से मुझे बताया था कि वे एक बौद्ध लामा के साथ एक कन्दरा में होकर एक विशाल बिहार में पहुंचे, जहाँ सब कुछ सोने से युक्त जगमगा रहा था। इन्हें वहाँ एक ग्रन्थ देखना और समझना था, अतः हिमालय की कन्दराओं और गुफाओं में ग्रन्थभण्डारों की बात केवल कपोल-कल्पना ही नहीं है।
___ तात्पर्य यह है कि सुरक्षा और स्वस्थता की दृष्टि से हिमालय की गुफाओं में भी ग्रन्थ रखे गये । बिहारों में तो पुस्तकों का संग्रह रहता ही था, उसकी पूजा भी की जाती थी। श्री राम-कृष्ण कौशल ने 'कमनीय किन्नौर'3 में बताया है कि "15 पाषाढ़ की कानम् में 'कंजुरजनों' उत्सव मनाया जाता है । इस अवसर पर सब शिक्षित अथवा अशिक्षित जन श्रद्धाभाव से कानम् बिहार के वृहद् पुस्तकालय के दर्शनों के लिए जाते हैं । कानम् का यह पुस्तकालय ज्ञान-मन्दिर के रूप में प्रतिष्ठित है।"
इन उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि ग्रन्थों की रक्षा की दृष्टि से ही पुस्तकालयों के स्थान चुने जाते थे और उन स्थानों में सुरक्षित कक्ष भी उनके लिए बनाये जाते थे । साथ ही उनका ऊपर का रूप भी ऐसा बनाया जाने लगा कि आक्रमणकारी का ध्यान उस पर न जाय।
'भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला' के लेखक मुनि श्री पुन्यविजय जी ने 'पुस्तकु अने ज्ञान भण्डारोनु रक्षण' शीर्षक में बताया है कि पुस्तकों और ज्ञान-भण्डारों के रक्षण की आवश्यकता चार कारणों से खड़ी होती है :
(1) राजकीय उथल-पुथल (2) वाचक की लापरवाही
आचार्य रघबीर के सुपुत्र डॉ. लोकेशचन्द ने अपने लेख 'मध्य एशिया की धधकती गुफाओं में आचार्य रघुबीर' शीर्षक लेख (धर्मयुग : 23 दिसम्बर, 1973) में बताया है कि "यह शिलालेख मोगाओ गुफा में है ओ तुन्ह्मा की सबसे पहली गुफा है। थाङ्कालीन शिलालेख के अनुसार सन् 366 में भारतीय भिक्षु लोछुन ने इसका मंगलारम्भ किया था।" (पृ.28)। सो स्पष्ट है कि 4थी शताब्दी ईस्वी में इन गुफाओं का आरम्भ हो गया था। शर्मा, बंशीलाल (डॉ.)-किन्नौरी लोक-साहित्य (अप्रकाशित शोध-प्रबंध), पृ. 501 । कौशल, रामकृष्ण-कमनीय कित्रीर, पृ. 22 । भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 1091
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340 पाण्डुलिपि-विज्ञान
(3) चूहे, कंसारी आदि जीव-जन्तु के आक्रमण, और (4) बाहर का प्राकृतिक वातावरण ।
राजकीय उथल-पुथल की दृष्टि से रक्षा के लिए उन्होंने लिखा है, "आ तेमज आना जेवा बीजा उथल-पाथलना जमानामां ज्ञान भण्डारोनी रक्षा माटे बहारथी सादां दिखातां मकानों मां तेने राखवान्तं प्रांवता ।" यद्यपि मुनि पुण्यविजय जी यह मानते हैं कि कितने ही बड़े मन्दिरों में जो भूगर्भस्थ गुप्त स्थान हैं वे बड़ी मूर्तियों को सुरक्षित रखने के लिए हैं क्योंकि उनको अनायास ही स्थानान्तरित नहीं किया जा सकता था। इससे भी यह बात सिद्ध है कि मन्दिरों में गुप्त स्थान थे और हैं और, उनमें ग्रन्थ-भण्डारों को भी सुरक्षित किया गया। कुछ ग्रंथ-भण्डारों के तहखानों में होने के प्रमाण कर्नल टॉड की साक्षी से ही मिल जाते हैं, तो ये दोनों उपाय राजकीय उथल-पुथल से रक्षा करने के लिए काम में लाये जाते थे।
वाचकों और पाठकों की लापरवाही से बचने के लिए जो बातें की जाती थीं उनमें से एक तो यह कि वाचकों के ऐसे संस्कार बनाये जाते थे कि जिससे वे पुस्तकों के साथ प्रमाद न कर सकें। दूसरे, इसी सांस्कृतिक शिक्षण की व्याप्ति भारत के घर-घर में देखी जा सकती है, यथाः जहाँ लिखने-पढ़ने की कोई वस्तु, पुस्तक हो, दवात हो, लेखनी हो, कागज का टुकड़ा ही क्यों न हो, नीचे जमीन पर कहीं गिर जाय, अशुद्ध स्थल पर गिर जाय, अशुद्ध हाथों से छू जाए तो उसे पश्चाताप के भाव से सिर पर लगा कर तब यथास्थान रखने की सांस्कृतिक परम्परा आज भी मिलती है । इससे ग्रन्थों और तद्विषयक सामग्री की रक्षा की भावना सिद्ध होती है।
पुस्तकों को पढ़ने के लिए या तो चौकी का उपयोग होता था या सम्पुटिका (टिखटी) का उपयोग किया जाता था। इससे पुस्तक का जमीन से स्पर्श नहीं होता था। यह भी नियम था कि स्वच्छ होकर, हाथ-पैर धोकर पुस्तक पढ़ी जानी चाहिये । वैसे यह नियम यद्यपि हमारे समय से धीरे-धीरे केवल धार्मिक पुस्तकों के लिए लागू होने लगा था। फिर भी, इसकी प्रकृति से भी पता चलता है कि पुस्तकों की सुरक्षा की दृष्टि से उनके प्रति अत्यधिक आदर-भाव पैदा किया जाता था, वे पुस्तकें किसी भी विषय की क्यों न हों । इसी को मुनिजी ने इन शब्दों में बताया है "पुस्तकन् अपमान थाइ नहीं, ते बगड़े नहीं, तेने चानु बने के उड़े नहीं, पुस्तक ने शर्दी गर्मी वगेरेनी असर न लागे ये माटे पुस्तक ने पाठांनि वचमा राखी तेने ऊपर कबुल्टी अने बंधन वीटानि तेने सांपड़ा ऊपर राखता । जे पाना वाचनमां चालू होय तेमने एक पाटी ऊपर मूहकी, तेने हाथनो पासेवो ना लागे ये माटे पानू अने अंगुठानी वचमा काम्बी के छेवटे कागज ना टुकड़ो जे बुकाई राखी ने वांचता । चौमासानी ऋतुमां शर्दी भरमा वातावरणो समयानां पुस्तन ने भेज न लागे अने ते चोंटीन जाय ये माटे खास वाचननों उपयोगी पानाते बहारराखी वाकीनां पुस्तक ने कवली कपडु वगैरे लपेटी ने राखता।'' इन विवरणों से स्पष्ट है कि वाचन-पठन के लिए टिखटी पर पुस्तक रखी जाती थी। सब प्रकार के स्वच्छ होकर पढ़ने बैठते थे । पन्ने न खराब हों इसलिए काम्बी या पटरी जैसी वस्तु पंक्तियों के सहारे रखकर पड़ते थे, इस प्रकार से उँगलियाँ नहीं लग पाती थीं। गर्मी-सर्दी से बचने के लिए ग्रन्थों को कपड़े के थैले,
1.
भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 1131
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रख-रखाव/341
बस्ते में बन्द करके रखते थे या उन्हें संदूक या पेटी में । उनके ऊपर ग्रन्थ-विषयक प्रावश्यक सूचना भी रहती थी।
चूहे तथा कंसारी एवं अन्य जीव-जन्तुओं से रक्षा के लिए मुनिजी ने प्राचीन-जैनपरम्परा में घोड़ा बद्ध या सं० उग्रगंधा पुस्तकों की संग्रह-पेटियों में डाली जाती थी । कपूर का उपयोग भी इसीलिए किया जाता था। इसी के लिए यह विधान था कि पुस्तकें दोनों ओर से दावड़ों से दाब कर पुट्ठों को पावों में रख कर खूब कस कर बाँध दें। फिर इन्हें बस्तों में बाँध कर पेटी में रख दें। बाहरी प्राकृतिक वातावरण से रक्षा
___इस सम्बन्ध में मुनिजी ने बताया है कि धूप में ग्रन्थ नहीं रखे जाने चाहिये । यदि ग्रन्थों में चौमासे या बरसात की नमी बैठ गई हो तो धूप से बचा कर ऐसे गर्म स्थान में रख कर सुखाना चाहिये, जहाँ छाया हो।
पुस्तकों में नमी के प्रभाव से पन्ने कभी-कभी चिपक जाते हैं । ऐसा स्याही के बनाने में गोंद मात्रा से अधिक पड़ जाने से होता है । नमी से बचने के लिए एक उपाय तो यही बताया गया है कि पुस्तक को बहुत कस कर बाँधना चाहिये, इससे कीड़े-मकोड़े से ही रक्षा नहीं होती, वातावरण के प्रभाव से भी बच जाते हैं।
दूसरा उपाय यह बताया गया है कि चिपकने वाली स्याही वाले पन्नों पर गुलाल छिड़क देना चाहिये, इससे पन्ने चिपकेंगे नहीं।
चिपके हुए पन्नों को एक-दूसरे से अलग करने के लिए यह आवश्यक है कि आवश्यक नमी वाली हवा उसे दी जाय और तब धीरे-धीरे सम्भाल कर पन्नों को एक-दूसरे से अलग किया जाय या चौमासे में भारी बरसात की नमी का लाभ उठा कर पन्ने सम्भाल कर धीरे-धीरे अलग किये जायें, और बाद में उन पर गुलाल छिड़क दिया जाय, अर्थात् भुरक दिया जाय।
ताड़-पत्र की पुस्तकों के चिपके पन्नों को अलग-अलग करने के लिए भीगे कपड़े को पुस्तक के चारों ओर लपेट कर अपेक्षित नमी पहुँचायी जाय, और पन्ने जैसे-जैसे नम होते जायें, उन्हें अलग-अलग किया जाय ।
इस प्रकार जैन-शास्त्रीय परम्परा में ग्रन्थ-सुरक्षा के उपाय बताये गये हैं।
और, इसी दृष्टि से हम 1822 ई० में लिखे अलिवाड़े के ग्रन्थ-भण्डार (पोथीभण्डार) के टॉड के वर्णन से कुछ उद्धरण पुनः देते हैं :
क-"अब हम दूसरे उल्लेखनीय विषय पर पाते हैं वह है, पोथी-भण्डार अथवा पुस्तकालय जिसकी स्थिति जिस समय मैंने उनका निरीक्षण किया उस समय तक बिल्कुल अज्ञात थी।"
ख-"तहखानों में स्थित है।"
ग-"मेरे गुरु जी....... वहाँ पहुँचते ही सबसे पहले वे भण्डार की पूजा करने के लिए जा पहुँचे । यद्यपि उनकी सम्मानपूर्ण उपस्थिति ही कुलुफ (मोहर) तोड़ने के लिए पर्याप्त थी परन्तु नगर-सेठ के आज्ञा पत्र बिना कुछ नहीं हो सकता था। पंचायत बुलाई गई
और उनके समक्ष मेरे यति ने अपनी पत्रावली अथवा हेमाचार्य की प्राध्यात्मिक शिष्यपरम्परा में होने का वंश-वृक्ष उपस्थित किया, जिसको देखते ही उन लोगों पर जादू का-सा असर हुआ और उन्होंने गुरुजी को तहखाने में उतर कर युगों पुराने भण्डार की पूजा करने
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342/पाण्डुलिपि-विज्ञान
के लिए आमन्त्रित किया ।"
घ-तहखाने के तंग, अत्यन्त घुटनपूर्ण वातावरण के कारण उनको इस (ग्रन्थ) अन्वेषण से विरत होना पड़ा।
ड.--"सूची की एक बड़ी पोथी है और इसको देख कर इन कमरों में भरे हुए ग्रन्थों की संख्या का जो अनुमान मुझे उन्होंने बताया उसे प्रकट करने में मुझे अपनी एवं मेरे गुरु की सत्य-शीलता को सन्देह में डालने का भय लगता है।" च-'वे ग्रन्थ (1) सावधानी से सन्दूकों में रखे हुए थे जो
(II) मुग्द अथवा कग्गार की लकड़ी (Caggar wood) के बुरादे से भरे
हुए थे । यह मुग्द का बुरादा कीटाणुओं से रक्षा करने का अचूक
उपाय है। छ-सूची में और सन्दूकों की सामग्री में बहुत अन्तर था।
ज-"इस संग्रह की रखवाली बड़े सन्देहपूर्ण ढंग से की जाती है और जिनका इसमें प्रवेश है वे ही इसके बारे में कुछ जानते हैं ।"
___ इन विवरणों से विदित होता है कि भारत में प्राचीन काल से ग्रन्थों की रक्षा के प्रति बहत सचेतन दृष्टि थी, इसके लिए स्थान के चुनाव, उसको आक्रमणकारी की दृष्टि से बचाने के उपाय, उनके रख-रखाव में अत्यन्त सावधानी तथा अत्यन्त पज्यभाव से उनके उपयोग की सांस्कृतिक आचारिकता पैदा करने के प्रयत्न निरन्तर रहे हैं ।
___ रख-रखाव की जिस व्यवस्था का कुछ संकेत ऊपर किया गया है, उसी की पुष्टि ब्यूलर के इस कथन से भी होती है :
(93) Wooden covers, cut according to the size of the sheets, were placed on the Bhurja and palm-leaves, which bad been drawn on strings, and this is still the custom even with the paper MSS.553 In Southern India the covers are mostly pierced by holes, through which the long strings are passed. The latter are wound round the covers and knotted. This procedure was usual already in early times554 and was observed in the case of the old palm-leaf MSS from Western and Northern India. But in Nepal the covers of particularly valuable MS$ (Pustaka) which have been prepared this manner are usually wrapped-up in dyed or even embroidered cloth. Only in the Jaina libraries the plam-leaf MSS sometimes are kept in small sacks of white cotton clotbwhich again are fitted into small boxes of white metal. The collections of MSS, which, frequently are catalogued, and occasionally. in monasteries and in royal courts, are placed under librarians generally are preserved in boxes of wood or cardboard. Only in Kashmir. where in accordance with Muhammadan usage the MSS are bound in leather, they are put on shelves, like our books.
1. Buhler, G.-Indian Palaeography. p. 147--48. 553. BerunI, Indial,171, (Sachau). 554. Cf. Harsacarita, 95, where the sutravestanam of a MS is mentioned.
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रख-रखाव/343
डॉ० ब्यह्लर के उक्त कथन से उन सभी बातों की पुष्टि हो जाती है, जो हमने अन्य स्रोतों से दी हैं । कर्नल टॉड ने कृमि, कीटों से रक्षा के लिए जिस बुरादे का उल्लेख किया है, उसकी चर्चा ब्यूलर महोदय ने नहीं की। अच्छे बड़े भण्डारों में सूची-पत्र (कैटेलॉग) भी रहते थे, यह सूचना भी हमें टॉड महोदय से मिली थी। यह अवश्य प्रतीत हुआ कि लम्बे उपयोग के कारण जो ग्रन्थ इधर-उधर हो गये उनसे सूचीपत्र का ताल-मेल नहीं बिठाया जाता रहा; इसीलिए सूचीपत्र और सन्दूकों के ग्रन्थों में अन्तर पाया गया। सिले थैली-नुमा बस्तों में ग्रन्थों की रखने की प्रथा भी केवल जैन ग्रन्थागारों में ही नहीं, अन्य ग्रन्थागारों में भी मिलती है । ग्रन्थागारों में ग्रन्थों के वेष्टनों के ऊपर ग्रन्थनाम, ग्रन्थकर्त्तानाम, लिपिकर्तानाम, रचनाकाल, लिपिकाल, ग्रन्थप्रदाता का नाम, श्लोक संख्या आदि सूचनाएँ दाबों पर, पाटों या पुट्ठों पर लिखी जाती थीं। इससे बस्ते या पेटी के ग्रन्थों का विवरण मिल जाता था।
बर्नेल मोहदय ने जाने कैसे यह आरोप लगा दिया था कि ब्राह्मण पांडुलिपियों को बुरी तरह रखते हैं । इसका ब्यूलर ने ठीक ही प्रतिवाद किया है कि यह समस्त भारत के सम्बन्ध में सही नहीं है, समस्त दक्षिण भारत के लिए भी ठीक नहीं। ब्यह्लर ने बताया है कि गुजरात, राजपूताना, मराठा प्रदेश तथा उत्तरी एवं मध्य भारत में कुछ अव्यवस्थित संग्रहों के साथ, ब्राह्मणों तथा जैनों के अधिकार में विद्यमान अत्यन्त ही सावधानी से सुरक्षित पुस्तकालयों को देखा है।
___इस कथन से भी यह सिद्ध होता है कि भारत में ग्रन्थों की सुरक्षा पर सामान्यतः अच्छा ध्यान दिया जाता था।
प्राचीन काल में पाश्चात्य देशों में पेपीरस के खरीतों (Scrolls) को सुरक्षित रखने के लिए पार्चमेण्ट के खोखे बनाये जाते थे और उनमें खरीतों को रखा जाता था । बहुत महत्त्व के कागज-पत्रों को रखने के लिए भारत में भी लोहे या टीन के ढक्कन वाले खोखों का उपयोग कुछ समय पूर्व तक होता रहा है ।
कागज में विकृतियाँ कुछ अन्य कारणों से भी होती हैं, उनमें से एक स्याही भी है । श्री गोपाल नारायण बहुरा ने इस सम्बन्ध में जो टिप्पणी प्रस्तुत की है उसमें उन बातों का उल्लेख किया है जिनसे पांडुलिपियाँ रुग्ण हो जाती हैं। इन बातों में ही स्याही के विकार से भी पुस्तकें रुग्ण हो जाती हैं यह भी बताया है। साथ ही इन विकारों से सुरक्षित रखने के उपायों का भी उल्लेख किया है ।
यहाँ तक हमने प्राचीनकालीन प्रयत्नों का उल्लेख किया है किन्तु आधुनिक युग तों वैज्ञानिक युग है । इस युग के वैज्ञानिक प्रयत्नों से पांडुलिपियों की सुरक्षा के बहुत उपयोगी साधन उपलब्ध हुए हैं। अभिलेखागारों (अर्काइब्स), पांडुलिपि संग्रहालयों (मैन्युस्क्रिप्ट
1. The Encyclopedia Americana (Vol. IV), p. 224. 2. देखें द्वितीय अध्याय, पृ.52-611 3. "The ink used in making records is also important in determing the longevity
of the record, certain kinds of ink tend to fade, the writing disappearing completely after a length of time. Other inks due to their acid qualities eat into the paper and destroy it. An ink in an alkaline medium containing a permanent pigment is what is required."
-Basu, Purendu-Archives and Records : What are They ?
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344/पाण्डुलिपि-विज्ञान
लाइब्रेरी) आदि में अब इन नये वैज्ञानिक ज्ञान और उपादानों और साधनों के कारण हस्तलेखागारों की उपयोगिता का क्षेत्र भी बढ़ गया है।
क्षेत्र को बढ़ाने वाले साधनों में दो प्रमुख हैं : एक है, माइक्रोफिल्म द्वारा दूसरा है, फोटोस्टैट । माइक्रोफिल्म के एक फीते पर कई हजार पृष्ठ उतारे जा सकते है, इस हर एक फीते पर कितने ही ग्रन्थ अंकित हो जाते हैं । ऐसा एक फीता छोटे-से डिब्बे में बन्द कर रखा जा सकता है । इस प्रकार ग्रंथ अपने लेखन-वैशिष्ट्य के साथ पृष्ठ या पन्ने के यथार्थ चित्र के साथ माइक्रोफिल्म पर उतार कर सुरक्षित हो जाता है । इसे वे शत्रु नहीं स्पर्श कर पाते जिनके कारण मूल ग्रन्थ की वस्तु को हानि पहुँचती है । हाँ, माइक्रोफिल्म की सुरक्षा की वैज्ञानिक विधियाँ भी हैं, जिनसे कभी किसी प्रकार की क्षति की प्रांशका होते ही उसे सुरक्षित किया जा सकता है।
किन्तु माइक्रोफिल्मांकित ग्रन्थ को आसानी से किसी भी व्यक्ति को माइक्रोफिल्म की प्रति करके दिया जा सकता है। इस पर व्यय भी अधिक नहीं होता। हाँ, माइक्रोफिल्मांकित ग्रन्थ को पढ़ने के लिए 'रीडर' (पठन-यन्त्र) की आवश्यकता होती है । बड़े संग्रहालयों में ये बहुत बड़े आकार के यन्त्र भी मिलते हैं। साथ ही 'मेजी-यन्त्र भी होता है । ऐसे पठन-यन्त्र भी हैं, जिनके साथ ही फिल्म-कैमरा भी लगा रहता है । क. मु. हिन्दी तथा भाषा-विज्ञान विद्यापीठ, आगरा में माइक्रोफिल्म कैमरा के साथ रीडर भी है । इस रीडर से पुस्तक का यथार्थ प्राकार ही दर्शित होता है।
___इसी प्रकार फोटो-स्टैट (Photo stat) यन्त्र से ग्रन्थ की फोटो-प्रतियां निकाली जा सकती हैं। ये ग्रन्थ-प्रतियाँ यथार्थ ग्रन्थ की भाँति ही उपयोगी मानी जा सकती हैं । ऐसी प्रतियाँ कोई भी पाठक प्राप्त कर सकता है, अतः सुरक्षा भी बढ़ती है, साथ ही उपयोगिता का क्षेत्र भी बढ़ जाता है।
आज पुस्तकालयों एवं अभिलेखागारों आदि के रख-रखाव ने स्वयं एक विज्ञान का रूप ग्रहण कर लिया है । इस पर अंग्रेजी में कितने ही ग्रन्थ मिलते हैं। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Archives of India) में अभिलेखागार में रख-रखाव (Archives-keeping)) में एक डिप्लोमा-पाठ्यक्रम का प्रशिक्षण भी दिया जाता है । पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को यह प्रशिक्षण भी प्राप्त करना चाहिए।
हम यहाँ संक्षेप में कुछ संकेतात्मक और काम-चलाऊ बातों का उल्लेख किये देते हैं जिससे इसके स्वरूप का कुछ प्राभास मिल सके और पांडुलिपि-विज्ञान का एक पक्ष अछूता न रह जाय ।
हम यह संकेत ऊपर कर चुके हैं कि जलवायु और वातावरण का प्रभाव सभी पर पड़ता है, तो वह लेखों और तत्सम्बन्धी सामग्री पर भी पड़ता है। किसका, कैसा, क्या प्रभाव पड़ता है, वह नीचे की तालिका में बताया गया है : ___जलवायु
प्रभाव 1. गर्म और शुष्क जलवायु कागज
तड़कने लगता (Brittle) है चमड़ा तथा सूख जाता है पूछा
वस्तु
1. मेज पर रख कर उपयोग में लाया जाने वाला यन्त्र ।।
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रख-रखाव/345
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जलवायु
वस्तु
प्रभाव
2. अधिक नमी (humidity)
कागज
सिकुड़ जाता है एवं सील जाता है। लोच पर प्रभाब है ।
3. तापमान में अत्यधिक
कागज वैविध्य [जाड़ों में 100 सें. (500 चमड़े एवं फा०) तथा गर्मी में 450 पुढे
(1130 फा०) तक 4. तापमान 320 सें० (90 फा०
एवं नमी 70 प्रतिशत
कीड़े-मकोड़ों, पुस्तक-कीट, सिल्वरफिश, कौत्रोच, दीमक और फफूद या चैपा उत्पन्न हो जाता है। बुरा प्रभाव । जल्दी नष्ट हो जाते
काग आदि
5. वातावरण में अम्ल-गैसों का
होना--विशेषतः सल्फर हाइड्रोजन से विकृत वाता
वरण। 6 धूल कण
7. सीधी धूप
कागज, चमड़ा, इनसे अम्ल-गैसों की घनता पुट्ठा आदि
आती है और फफू दाणु पनपते हैं । कागज आदि कागज आदि पर पड़ने वाली
सीधी धूप को पुस्तकों का शत्रु बताया गया है।
इससे कागज आदि विवर्ण हो जाते हैं, नष्ट होने लगते हैं तथा स्याही का रंग भी उड़ने लगता है।
उपाय :
भंडारग-भवन को 220 और 250 सें० (720 - 780 फा०) के बीच तापमान और नमी (humidity) 450 और 55 प्रतिशत के बीच रखा जाय । साधन :
वातानुकूलन-यन्त्र द्वारा वातानुकूलित भवन में उक्त स्थिति रह सकती है।
बहुत व्यय-साध्य होने से यदि यह सम्भव न हो तो अत्यधिक नमी को नियन्त्रित करने के लिए जल-निष्कासक रासायनिकों का उपयोग कर सकते हैं । ये हैं : ऐल हाइड्स कैलसियम क्लोराइड और सिलिका गैल (Silica gel)।
20-25 धन मीटर क्षमता के कक्ष के लिए 2-3 किलोग्राम सिलिका गेल पर्याप्त . है । इसे कई तश्तरियों में भर कर कमरे में कई स्थानों पर रख देना चाहिए। 3-4 घंटे
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346/पाण्डुलिपि-विज्ञान
के बाद यह सिलिका गेल और नमी नहीं सोख सकेगा क्योंकि वह स्वयं उस नमी से परिपूरित हो चुका होगा, अतः सिलिका गेल की दूसरी मात्रा उन तश्तरियों में रखनी होगी। पहले काम में आये सिलिका गेल को खुले पात्रों में रख कर गरम कर लेना चाहिये, इस प्रकार वह पुनः काम में आने योग्य हो जाता है ।
उक्त साधनों से वातावरण की नमी तो कम की जा सकती है, पर यह नमी कभीकभी कमरों में सीलन (Dampne s) होने से भी बढ़ती है। इस कारण यह आवश्यक है । कि भंडारण के कमरों को पहले ही देख लिया जाय कि उनमें सीलन तो नहीं है । भवन बनाने के स्थान या बनाने की सामग्री या विधि में कोई कमी रह गई है, इससे सीलन है, अतः मकान बनाते समय ही यह ध्यान रखना होगा कि भंडार-भवन सीलन-मुक्त विधि से बनाया जाय । यही इसका एकमात्र उपाय है । नमी और सील को कम करने में खुली स्वच्छ वायु का उपयोग भी लाभप्रद होता है, अतः भंडारण में खिड़कियाँ आदि इस प्रकार बनायी जानी चाहिये कि भंडार की वस्तुओं को खुली हवा का स्पर्श लग सके । कभी-कभी बिजली के पंखों से भी हवा की जा सकती है।
किन्तु साथ ही इस बात का ध्यान भी रखना होगा कि भंडार-कक्ष में वस्तुओं पर, कागज-पत्रों पर सीधी धूप न पड़े । इससे होने वाली हानि का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । यदि ऐसी खिड़कियाँ हों जिनमें से धूप सीधे ग्रन्थों पर पड़ती है, तो इन खिड़कियों में शीशे लगवा कर पर्दे डाल देने चाहिये, और इस प्रकार धूप के स्पर्श से रक्षा करनी चाहिये।
पांडुलिपियाँ रखने की अलमारियों का भी सुरक्षा की दृष्टि से बहुत महत्त्व है । एक तो अलमारियाँ खुली होनी चाहिये जिससे उन्हें खुली हवा लगती रहे और सील न भरे । दूसरे, ये अलमारियाँ लोहे की या किसी धातु की हों, और इन्हें दीवाल से सटा कर न रखा जाय, और परस्पर अलमारियों में भी कुछ फासला रहना चाहिए इससे सील नहीं चढ़ेगी । ये अलमारियाँ ही आदर्श मानी जाती हैं । दीवालों में बनायी हुई सीमेन्ट की अलमारियाँ भी ठीक नहीं बतायी गई हैं । धातु की अलमारियों में सबसे बड़ी सुविधा यह है कि इन पर मौसम और कीटों (दीमक आदि) का प्रभाव नहीं पड़ता, जो लकड़ी पर पड़ता है, फिर इन्हें अपनी आवश्यकता, सुरक्षा और उपयोग के अनुसार व्यवस्थित भी किया जा सकता है। पांडुलिपियों के शत्रु :
भुकड़ी (Mould) और फफूद नामक दो शत्रु हैं जो पांडुलिपियों में ही पनपते हैं । फफूद तो पुस्तकों में पनपने वाला वनस्पतीय-फंग्स (Fungus) होता है जबकि मोल्ड में शेष सभी अन्य सूक्ष्म अवयवाणु पाते हैं जो पांडुलिपियों में हो जाते हैं । यह पाया गया है कि ये 45° सें० (40 फा०) पर धीरे-धीरे बढ़ते हैं, पर 27-35 सें० (80-95° फा०) पर इनकी बहुत बढ़वार होती है। 38° सें० (100 फा०) से अधिक तापमान में इनमें से बहुत-से नष्ट हो जाते हैं, अतः इन्हें रोकने के लिए भंडारण भवन का तापमान 22-24° सें० (72-75° फा०) तक रखा जाना चाहिये । साथ ही नमी (ह्य मिडिटी 45-55 प्र० श० के बीच रहनी चाहिये ।।
यदि भंडारण-कक्ष को उक्त मात्रा में तापमान और नमी का अनुकूलन सम्भव न हो तो एक दूसरा उपाय थाईमल रसायन से वाष्प-चिकित्सा (Fumigation) है।
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रख-रखाव/347
थाईमल चिकित्सा की विधि :
एक वायु विरहित (एयरराइट) बाक्स या बिना खाने की अलमारी लें। इसमें नीचे के तल से 15 सें० मी० की ऊँचाई पर तार के जालों का एक बस्ता लगायें, उस पर ग्रन्थों को बीच से खोल इस प्रकार रखें कि उसकी पीठ ऊपर रहे और बह , रूप में रहे । थाईमल वाष्प-चिकित्सा के लिए जो ग्रन्थ इस यन्त्र में रखे जायें उनमें उक्त अवयवाणुमों ने जहाँ घर बनाये हों पहले उन्हें साफ कर दिया जाय । इस सफाई द्वारा फफूदादि एक पात्र में इकट्ठी कर जला दी जाय । उसे भंडार में न बिखरने दिया जाये । इससे बाद ग्रन्थ को यन्त्र में रखें । इसके नीचे तल पर 40-60 वाट का विद्युत लैंप रखें और उस पर एक तश्तरी में थाइमल रख दें जिससे लैंप की गर्मी से गर्म होकर वह थाइमल पांडुलिपियों को वाष्पित कर सके । एक क्यूबिक मीटर के लिये 100-150 ग्राम थाइमल ठीक रहता है। 6-10 दिन तक पांडुलिपियों को वाष्पित करना होगा और प्रतिदिन दो से चार घन्टे विद्युत लैम्प जला कर वाष्पित करना अपेक्षित है।
इससे ये सूक्ष्म अवयवाणु मर जायेंगे, पर जो क्षत और धब्बे इनके कारण उन पर पड़ चुके हैं, वे दूर नहीं होंगे।
जहाँ नमी को 75 प्रतिशत से नीचे करने के कोई साधन उपलब्ध नहीं हो वहाँ मिथिलेटेड स्पिरिट में 10 प्रतिशत थाइमल का घोल बनाकर, ग्रन्थागार में कार्य के समय के बाद संध्या को कमरे में उसको फुहार कर दिया जाय और खिड़कियाँ तथा दरवाजे रातभर के लिये बन्द कर दिये जायें । इन अणुओं के कमरे में ठहरे हुए सूक्ष्म तंतु, जो पुस्तकों पर बैठ कर फफद आदि पैदा करते हैं, नष्ट हो जायेंगे । इस प्रकार ग्रन्थागार की फफूंद आदि से रक्षा हो सकेगी। कीड़े-मकोड़े :
कई प्रकार के कीड़े-मकोड़े भी पांडुलिपियों और ग्रन्थों को हानि पहुँचाते हैं । ये दो प्रकार के मिलते हैं : एक प्रकार के कीट तो ग्रन्थ के ऊपरी भाग को, जिल्द आदि को, जिल्दबन्दी के ताने-बाने को, चमड़े को पुढे आदि को, हानि पहुंचाते हैं । इनमें एक तो सबके सुपरिचित हैं कोकोच, दूसरे हैं, रजत कीट (सिल्वर फिश) । यह कीट बहुत छोटा, पतला चाँदी जैसा चमकना होता है।
इनके सम्बन्ध में पहला प्रयत्न तो यह किया जाना चाहिये कि इनकी संख्या वृद्धि न हो। इसके लिए एक बात तो यह ध्यान में रखनी होगी कि भंडार-गृह में खाने-पीने की चीजें नहीं मानी चाहिये । इनसे ये आकर्षित होते हैं, फिर फलते-फूलते हैं। दूसरे, दीवालों में कहीं दरारें और सँधे हों तो उन्हें सीमेंट से भरवा दिया जाय, इससे कीड़ों के छिपने और फलने-फूलने के स्थान नहीं रहेंगे, और उनकी वृद्धि रुकेगी। साथ ही नेपथलीन की गोलियां अलमारियों में हर छः फीट पर रख दी जायें, इससे ये कीट भागते हैं । किन्तु इन कीटों से पूरी तरह मुक्ति पाने के लिए तो जहरीली दवाओं का छिड़काव करना होगा, ये हैंडी० डी० टी० पाट्रोव्यम, सोडियम फ्लोराइड आदि, इन्हें पुस्तकों पर नहीं छिड़कना चाहिये । अँधेरे कोनों, दरारों, छिद्रों और दीवालों आदि पर छिड़कना ठीक रहता है। इन जहरीले छिड़कावों का जहर ग्रन्थों पर छिड़का गया तो ग्रन्थ भी दाग-धब्बों से युक्त हो जायेंगे ।
ये कीट तो ऊपरी सतह को ही हानि पहुंचाते हैं, पर दो ऐसे कीट हैं जो ग्रन्थ के
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348/पाण्डुलिपि-विज्ञान
भीतर भाग को भी नष्ट करते हैं। इनमें से एक हैं, पुस्तक कीट (Book-worm), तथा दूसरा सोसिड (Psocid) है।
ये दोनों कीट ग्रन्थ के भीतर घुसपैठ कर भीतर के भाग को नष्ट कर देते हैं । बुकवोर्म या पुस्तक-कीट के लारवे तो ग्रन्थ के पन्नों में ऊपर से लेकर दूसरे छोर तक छेद कर देता है, और गुफाएँ खोद देता है । लारवा जब उड़ने लगता है तो दूसरे स्थानों पर पुस्तककीटों को जन्म देता है । इस प्रकार यह रोग बढ़ता है। सोसिड को पुस्तकों का जुं भी कहा जाता है । ये भीतर ही भीतर हानि पहुंचाते हैं, अतः इनकी हानि का पता पुस्तक खोलने पर ही विदित होता है ।
इनको दूर करने का इलाज वाष्प चिकित्सा है, पर यह वाष्प-चिकित्सा घातक गैसों से की जाती है-ये गैसें हैं, एथीलीन प्रॉक्साइड (Ethylene Oxide) एवं कार्बन डाई प्रॉक्साइड मिला कर वातशून्य (Vaccum) वाष्पन करना चाहिये । इसके लिए विशेष यन्त्र लगाना पड़ता है । यह यन्त्र व्यय-साध्य है, अतः बड़े ग्रन्थागारों की सामर्थ्य में तो हो सकता है, पर छोटे ग्रन्थागारों के लिए यह असाध्य ही है, अत: एक दूसरी विधि भी है : पैरा-डाइक्लोरो-बेनजीन (Para-dichloro benzene) या तरल किल्लोप्टेरा (Liquid Kelloptero) जो कार्बन टेट्राक्लोराइड और ऐथेलीन डाइक्लोराइड का सम्मिश्रण होता है, लिया जा सकता है । इसमें वाष्प-चिकित्सा के लिए एक स्टील की ऐसी अलमारी लेनी होगी, जिसमें हवा न घुस सके । इसमें खानों के लौह तख्तों में छेद कर दिये जाने चाहिये । इन तख्तों पर सम्पूर्ण लेखों को बिछा दिया जाता है और नत्थियों तथा ग्रन्थों को इस रूप में बीच खोल कर रख दिया जाता है ।
यदि पैरा-डाइक्लोरो-बेनजीन से वाष्पित करना है तो शीशे के एक जार (Jar) में एक घन मीटर के लिए 1.5 किलोग्राम उक्त रासायनिक घोल भर कर उक्त तख्तों के सबसे नीचे के तल में रख देना चाहिये और अलमारी बन्द कर देनी चाहिये । इसकी गैस हलकी होती है, अतः ऊपर की ओर उठती है । यह रसायन स्वयंमेव सामान्य तापमान में ही वाष्पित हो उठती है । सात-पाठ दिन तक रुग्ण ग्रन्थों को वाष्पित होने देना चाहिये ।
यदि किल्लोप्टेरा से वाष्पित करना है तो यह रसायन प्रति एक घन-मीटर के लिए 225 ग्राम के हिसाब से लेकर इसका पात्र सबसे ऊपर के तन्त्र में या खाने में रखना चाहिये । इसकी गैस या वाष्प भारी होती है, अतः यह नीचे की ओर गिरती है । सातआठ दिन इससे भी रुग्ण सामग्री को वाष्पित करना चाहिये । इससे ये कीट, इनके लारवे आदि सब नष्ट हो जायेंगे।
पर संधियों में या जिल्द बंधने के स्थान पर बनी नालियों में इनके जो अंडे होंगे वे नष्ट नहीं हो पायेंगे, और ये अंडें 20-21 दिनों में लारवे के रूप में परिणत होते हैं, अतः पूरी तरह छुटकारा पाने के लिए उक्त विधि से 21-22 दिन बाद फिर वाष्पित करने की आवश्यकता होगी। दीमक :
सभी जानते हैं कि दीमक का आक्रमण अत्यन्त हानिकर होता है । ऊपर जिन शत्रुओं का उल्लेख किया गया है वे दीमक की तुलना में कहीं नहीं ठहरते । दीमक का घर भूगर्भ में होता है। वहाँ से चल कर ये मकानों में, लकड़ी, कागज आदि पर आक्रमण करती
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रख-रखाव/349
हैं । ये अपना मार्ग दीवालों पर बनाती हैं जो मिट्टी से ढकी छोटी पतली सुरंगों के रूप में यह मार्ग दिखायी पड़ता है । पुस्तकों को भीतर से, बाहर से सब अोर से, खाती है, पहले भीतर ही भीतर खाती है।
___इनको जीवित मारने का कोई लाभ नहीं होता क्योंकि दीमकों की रानी औसतन 30 हजार अंडे प्रतिदिन देती है। कुछ को मार भी डाला गया तो इनके आक्रमण में कोई अन्तर नहीं पड़ सकता। इससे रक्षा का एक उपाय तो यह है कि नीचे की दीवाल के किनारे-किनारे खाई खोदी जाय और उसे कोलतार तथा क्रियोसोट (Creosote) तेल से भर दिया जाय । इन रासायनिक पदार्थों के कारण दीमक मकान में प्रवेश नहीं कर सकेगी।
____ यदि दीमक मकान में दिखायी पड़ जाय तो पहला काम तो यह किया जाना चाहिये कि वे समस्त स्थान, जहाँ से इनका प्रवेश हो सकता है, जैसे-दरारें, दोवालों के जोड़ या सभी फर्श में तड़के हुए स्थान और छिद्र तथा दीवालों में उभरे हुए स्थान, इन सभी को तुरन्त सीमेन्ट और कंकरीट से भर कर पक्का कर दिया जाय । यदि ऐसा लगे कि फर्श कहीं-कहीं से पोला हो गया है या फूल आया है या अन्दर जमीन खोखली है, तो ऊपर का फर्श हटा कर इन सभी पोले स्थानों और खोखलों को सफेद संखिया (White arsenic), डी० डी० टी० चूर्ण, पानी में सोडियम प्रार्सेनिक 1 प्रतिशत का घोल या 5 प्रतिशत डी० डी० टी० का घोल, 1 : 60 (4-5 लीटर प्रति मीटर) के हिसाब से उनमें भर दें । जब ये स्थान सूख जायें तब इन्हें कंकरीट सीमेन्ट से भर कर फर्श पक्का कर दिया जाय । ऐसी दीवालें भी कहीं से पोली या खोखली दिखाई पड़ें तो इनकी चिकित्सा भी इसी विधि से करदी जानी चाहिये । यदि लकड़ी की बनी चीजें, किवाड़ें आदि दीवालों से जुड़ी हुई हों तो ऐसे समस्त जोड़ों पर क्रियोसोट तेल चुपड़ देना होगा, यदि दीमक का प्रकोप अधिक है तो प्रति छठे महीने जोड़ों पर यह तेल लगाना होगा।
दीमक वाले मकान में दीवालों में बनी अलमारियों का उपयोग निषिद्ध है । यदि लकड़ी की अलमारियाँ या रैक है तो इन्हें दीवालों से कम से कम 15 सें० मी० दूर रखें और इनकी टाँगें कोलतार, क्रियोसोट तेल या डीलड्राइन ऐमलसन से हर छठे महीने पोत देना चाहिये। जमीन में दीमक हो तो आवश्यक है कि इन अलमारियों की टांगों को धातु के पात्रों में रखें और इन पात्रों में कोलतार या क्रियोसोट तेल भर दें। इससे भी पहले लकड़ी की जितनी भी चीजें हैं सभी को 20 प्रतिशत जिंक क्लोराइड को पानी में घोल बनाकर उससे पोत दें।
सबसे अच्छा तो यह है कि लकड़ी की वस्तुओं का उपयोग किया ही न जाय और स्टील के रैकों और अलमारियों का उपयोग किया जाय। .. ___ इस प्रकार इस भयानक शत्रु से रक्षा हो सकती है।
इन सभी बातों के साथ महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भंडारण के स्थान पर धूल से, मकड़ी के जालों से और ऐसी ही अन्य गन्दगियों से स्वच्छ रखना बहुत आवश्यक है ।
भंडारण के स्थान पर खाने-पीने की चीजें नहीं पानी चाहिये, उसमें रासायनिक पदार्थ भी नहीं रखे जाने चाहिये । सिगरेट आदि पीना पूर्णतः वजित होना चाहिये ।
आग बुझाने का यन्त्र भी पास ही होना चाहिये ।
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350/पाण्डुलिपि-विज्ञान
रख-रखाव में केवल शत्रुओं से रक्षा ही नहीं करनी होती है, परन्तु पांडुलिपियों को ठीक रूप में और स्वस्थ दशा में रखना भी इसी का एक अंग है । जब पांडुलिपियाँ कहीं से प्राप्त होती हैं तो अनेक की दशा विकृत होती है ।
इसमें नीचे लिखी बातें या विकृतियाँ सम्मिलित हैं : 1. सिकुड़ने, सिलवट, गुड़ी-मुड़ी हुए पत्र । 2. किनारे गुड़ी-मुड़ी हुए कागज (पत्र)। 3. कटे-फटे स्थल या किनारे । 4. तड़कने वाले या कुरकुरे कागज । 5. पानी से भीगे हुए कागज । 6. चिपके कागज। 7.. धुंधले या धुले लेख । 8. जले कागज । 9. कागजों पर मुहरों की विकृतियाँ ।
इन विकृतियों को दूर करने के अनेक उपाय हैं, पर सबसे पहले एक कक्ष चिकित्सा के लिए अलग कर देना चाहिये । इसमें निम्नलिखित सामग्री इस कार्य के लिए अपेक्षित है :
1. मेज जिस पर ऊपर शीशा जुड़ा हो । 2. छोटा हाथ प्रेस (दाब देने के लिए)।
Paper Trimmer)। 4. कैंची (लम्बी)। 5. चाकू। 6. Poring Knives | 7. प्याले (पीतल के या इनामिल किये हुए) । 8. तश्तरियाँ (पीतल की या इनामिल की हुई)। 9. ब्रश (ऊँट के बाल के 205-1.25 सें० मी० चौड़ी)। 10. Paper Cutting Slices (सींग के बने हो तो अच्छा है)।
फुटा। 12. सुइयाँ (बड़ी और छोटी)। 13. बोदकिन (छेद करने के लिए)। 14. तख्त इनामिल किए हुए। 15. शीशे की प्लेटें। 16. देगची लेई बनाने के लिए।
17. बिजली की इस्तरी । मरम्मत या चिकित्सा की विधि क-अपेक्षित सामग्री
डॉ० के० डी० भार्गव ने ये सामग्रियां बतायी हैं : 1. हाथ का बना कागज :-यह कागज केवल चिथड़ों का बना होना चाहिये । ये
11.
फटा।
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रख-रखाव/351
. चिथड़े सूती वस्त्रों के या क्षोम (linen) का या दोनों से मिलकर, इसका बना हो, यह
सफेद या क्रीम के रंग का हो। इसकी तोल 9-10 कि०ग्रा० (आकार 51x71 से. मी० फ० 500 कागज) होनी चाहिये । इसका पी० एच० 5-5 से कम न हो। अन्य वैशिष्ट्यिों के लिए मूल पुस्तक देखें ।।।
2. ऊलि (टिशू) पत्र :-पांडुलिपियों की चिकित्सा के लिये निम्न विशेषताओं वाला पत्र होना चाहिये :
(1) इसमें एलफा सैल्यूलोज 88 प्रतिशत से कम न हो, (2) तौल और आकार 25-35 कि० ग्रा० (63.5X127 सें० मी० 500
पत्रों)। (3) राख 0.5 प्रतिशत से अधिक नहीं । (4) पी० एच० 5.5 से कम नहीं । इसमें तेल या मोम के तत्त्व न हों।
3. शिफन (Chiffon) नालिवसन :-जिसमें जालरंध्र की संख्या 33X32 प्रति वर्ग सें० मी० (83 x 82 प्रति इंच) हो । इसकी मोटाई 0.085 मि०मी० (औसतन) हो। पी० एच० 60-6.51
4. तेल कागज या मोमी कागज :-यह ऐसा हो कि पानी न छने और डैक्सट्राइन या लेई (Starch Paste) की चिपकन को न पकड़े। साथ ही, इसके तैल और मोम के अंश कागज पर धब्बे न डाले ।
इनकी तौल निम्न प्रकार की हो तो अच्छा है, तैल कागज : 22:7 कि० ग्रा० (61x46 सें० मी० 500 पत्र) मोमी कागज
5. मलमल :-यह चित्रों और चार्टों पर चढ़ाई जाती है। यह मध्यम आकार की फुलस्कैप के दुगने आकार से भी बड़ी हो । बढ़िया किस्म की औसत से 0.1 मि.मी. मोटाई की। इसके सूत में कोई गांठ नहीं होनी चाहिये ।
6. लंकलाट :-(Long cloth)
7. सैल्यूलोज एसीटेट फायल :-यह पर्ण पांडुलिपि का परतोपचार (लेमीनेशम) करने के काम आता है, यह पर्ण 107 सें. मी. (42 इंच) चौड़े बेलनों के रूप में मिलता है। परतोपचार के लिए यह पर्ण ·0223 मि. मी. मोटाई का अच्छी लोच वाला, अर्द्धआर्द्रता कवचित (Semi-moisture proof), इसमें नाइट्रेट अंश न हो। चिकित्सा : 1. चौरस करना
पांडुलिपि-पत्र के किनारे तुड़े-मुड़े हों तो उन्हें चौरस कर देना चाहिये । इसके लिए पहले भीगे ब्लॉटिंग कागज को पन्नों के किनारों पर कुछ देर रख कर उन्हें नम किया जाय . 1. Bhargava, K. D.-Repair and Preservation of Records.
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352/पाण्डुलिपि-विज्ञान
फिर रखे ब्लॉटिंग कागज उस पर रखकर प्राइरन को कुछ गरम करके उसको स्तरित कर दिया जाय और हाथ के कागज की कतरन चिपका कर किनारे ठीक कर दिये जायें। यदि लिखावट दोनों ओर हो तो टिश्यू कागज का उपयोग किया जाय । यदि पत्र बीच में जहाँतहाँ कटा-फटा हो तो उन स्थानों पर पत्र की पीठ पर हाथ के कागज की चिप्पियाँ चिपका दें। यदि दोनों ओर लिखावट हो तो टिश्यू-कागज चिपका दें।
चिपकाने में गोंद और पेस्ट का उपयोग नहीं होना चाहिये, क्योंकि ये भीगने पर फूलते हैं और गरमी में सूखते हैं और सिकुड़ते हैं। इसके लिए मैदा की लेई जिसमें थोड़ा नीला थोथा हो तो अच्छा रहता है, किन्तु दो-तीन दिन बाद फिर नई लेई बनानी चाहिये । टिश्यू कागज का उपयोग किया जाय तो यह लेई नहीं, डेक्सट्राइन (dextrine) या स्टार्च की पतली लेई काम में लानी चाहिये । 2. अन्य चिकित्साएँ :
पूरा पूष्ठ पर्णन, टिश्यू चिकित्सा, शिफन् चिकित्सा तथा परतोपचार । तड़कने वाले (Brittle) कागजों का सैल्यूलाइज एसीटेट पर्ण से परतोपचार करना आधुनिक पद्धति है । इसके लिए समीचीन परतोपचारक प्रेस (दाब-यन्त्र) की आवश्यकता होती है, उसके अन्य उपकरण भी होते हैं । सब मिलाकर बहुत व्यय पड़ता है, एक लाख रुपया तो आसानी से लग सकता है, किन्तु इसके लिए विकल्प भी है, जहाँ इतना कीमती यन्त्रादि नहीं लिए जा सकते वहाँ विकल्प वाली पद्धति से परतोपचार (Lamination) किया जा सकता है । (क) पूर्ण पृष्ठ वर्णन
- पांडुलिपि का कागज तिरकना हो गया हो, उसका पूर्ण पृष्ठ वर्णन द्वारा चिकित्सा कर दी जाती है। पांडुलिपि एक अोर लिखी हो तो पीठ पर पूरे पृष्ठ पर वर्णन किया जाता है। हाँ, ऐसी पांडुलिपि के पन्ने की पीठ को पहले साफ कर लेना होगा। यदि पीठ पर पहले की चिप्पियाँ चिपकी हों तो उन्हें छुटा देना चाहिये । इसकी प्रयोग-विधि का वर्णन इस प्रकार है।
पांडुलिपि के पन्ने को मोमी कागजों या तैली कागजों के बीच में रख कर पानी में आधे से एक घंटे तक हुबा कर रखें, फिर निकाल लें। अब चिप्पियाँ आसानी से छुटाई जा सकती हैं। यदि पांडुलिपि की स्याही पानी में डालने से फैलती हो तो इसे पानी में न डुबाएँ, अन्य विधि का उपयोग करें : चिप्पियों के आकार की ब्लॉटिंग पेपर की चिप्पियाँ काट कर पानी में भिगो कर चिप्पियों के ऊपर रख दें। जब गोंद कुछ ढीला होने लगे तो
छुटा लें।
जब पांडुलिपि की पीठ साफ हो जाय तो पांडुलिपि के पन्ने के आकार से कुछ बड़ा हाथ का बना कागज (पूरा कागज चिथड़ों से बना) लिया जाय । यह कागज पानी में डुबा कर शीशे से युक्त मेज पर फैला दिया जाय, यदि मेज लकड़ी की हो और ऊपर शीशा न हो तो मोमी या तैली कागज उस पर फैला कर, इस कागज पर वह भीगा कागज फैलाया जाय और एक मुलायम कोमल कपड़े को फेर कर उसकी सिलवटें निकालकर उसकी कंडलित रूप में घड़ी कर लें, इस प्रकार वह बेलन के आकार का हो जायगा। तब पांडुलिपि के पन्ने को तैली कागज पर औंधा बिछा कर उस पर लेई (Starch Paste) ब्रश से कर दीजिए। कुंडलित हाथ बने कागज को एक छोर पर ठीक बिठा कर इस
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रख-रखाव/353
कागज को ऊपर फैला दें । साथ ही एक कपड़े से या रूई के swale से उसे पांडुलिपि पर दाब-दाब कर भली प्रकार जमा दें । तब पांडुलिपि को तैल-कागज पर से उठा लें और दाब में रख कर सूखने दें । इस समय पांडुलिपि की पीठ नीचे होगी। सूख जाने पर 23 मि. मी. पांडुलिपि मूल-पत्र के चारों ओर इस कागज की गोट छोड़कर शेष को कैची से कतर दीजिये । 2-3 मि. मी. चारों ओर इसलिये कागज छोड़ा जाता है कि पांडुलिपि के किनारे गुड़-मुड़ न हों। शिफन-चिकित्सा
शिफन या उच्च कोटि की पारदर्शी सिल्क का गाँज इन पांडुलिपियों पर लगाया जाता है जो बहुत जर्जर, स्याही से खाई हुई या कीड़ों ने खाली हो।
पांडुलिपि के पत्र को साफ कर लें । उस पर लगी चिप्पियों को हटा दें, और उसे मोमी या तैल कागज पर भली प्रकार बिछा दें । उस फिशन का टुकड़ा, जो पांडुलिपि से चारों ओर से कुछ बड़ा हो, फैला दें। अब ब्रश से लेई (स्टार्च पेस्ट) लगा दें-लेई लगाना बीचोंबीच केन्द्र से शुरू करें और चारों ओर फैलाते हुए पूरे शिफन पर लगा दें। इस पांडुलिपि को मोमी या तैल कागज सहित दूसरे मोमी या तेल कागज पर सावधानी से उलट दें जिससे सिलवटें न पड़ें । पहले वाला तैली कागज, जो अब ऊपर या गया है, उसे धीरे-धीरे पांडुलिपि से अलग कर लें, अब पांडुलिपि के इस ओर भी पहले की तरह शिफन का टुकड़ा बिछा कर बीच से लेई लगाना शुरू करें और पूरे शिफन पर लेई बिछा दें। अब उसे सूखने दें। आधा सूख जाने पर दूसरा तैली या मोमी कागज ऊपर से रख कर दाब-यन्त्र में या दो तख्ती के बीच रखकर ऊपर से दाब के लिए बोझ रख दें। पूरी तरह मुख जाने पर पांडुलिपि को सम्भाल कर निकाल लें और किनारों से बाहर निकले शिफन को कैंची से कतर दें।
यदि पांडुलिपि की स्याही पानी से घुलती हो या फैलती हो तो इस प्रक्रिया में कुछ अन्तर करना पड़ेगा । तैली या मोमी कागज पर पांडुलिपि से कुछ बड़ा शिफन का टुकड़ा बिछा दें और लेई (स्टार्च पेस्ट) बीच से प्रारम्भ कर चारों ओर बिछा दें। उस पर पांडुलिपि जमा दें। उसके ऊपर मोमी या तेली कागज फैला कर दाब दें। तब शिफन का दसरा टुकड़ा लेकर तली या मोमी कागज पर रख कर उपर्युक्त प्रकार से लेई लगा दें और उस पर पांडुलिपि उस पीठ की ओर से बिछा दें जिस पर शिफन नहीं लगा । उस पर मोमी या तैली कागज रख कर दाब में यथापूर्व सुखा लें। सूख जाने पर किनारों से बाहर निकले शिफन को कैंची से कतर दें । टिश्य-चिकित्सा
जिन पांडुलिपियों की स्याही फीकी नहीं पड़ी और जो अधिक जीर्ण नहीं हुए उनकी चिकित्सा टिश्यू-कागज से की जाती है । इसमें सरेसरहित इमिटेशन जापानी टिश्यू-कागज ही, जिसमें तेली या मोमी अंश न हों, काम में आता है । तैली या मोमी कागज पर पांडुलिपि साफ करके फैला दें । उस पर पतला लेप डेक्सट्राइन (Dextrine) का कर दें। पांडुलिपि से कुछ बड़ा उक्त प्रकार का टिश्यू कागज लेकर अब पांडुलिपि पर फैला दें और भीगे कपड़े या रूई के फाहे से इस कागज को पांडुलिपि पर दाब दें। इसी प्रकार पांडुलिपि की दूसरी ओर भी टिश्य कागज लगा दें।'
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354/पांडुलिपि-विज्ञान
यदि डैक्सट्राइन पेस्ट न मिल सके तो स्टार्च या मैदा की पतली लेई से काम चलाया जा सकता है । आजकल सरेस या लेई का उपयोग किया जाने लगा है। परतोपचार (लेमीनेशन)
परतोपचार के लिए एक यन्त्र अपेक्षित होता है। ऐसा यन्त्र भारतीय अभिलेखागार (नेशनल पार्काइब्स) में लगा है। यह बहुत व्यय-साध्य है। जो बहुत समर्थ ग्रन्थागार हैं वे : नेशनल पार्काइन्स से विस्तृत जानकारी प्राप्त कर अपने भण्डार में यह दाब-यन्त्र (प्रेस) लगवा सकते हैं । इस यन्त्र से सैल्यूलोज ऐसीटेट फाइल के परत पांडुलिपि-पत्र के दोनों ओर जड़ दिये जाते हैं। पांडुलिपि के पत्रों को और पुष्ट करने के लिए टिश्यू कागज भी फॉइल के साथ-साथ जड़ दिया जाता है । यह यन्त्र तो स्टीम से काम करता है। डब्ल्यू० जे० बरो (W. J. Barrow) ने एक विद्युत्-चालित-यन्त्र भी इसी कार्य के लिए निर्मित किया है । ये दोनों यन्त्र ही व्यय-साध्य हैं । हाथ से परतोपचार
किन्तु 1952 में भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार की प्रयोगशाला के श्री प्रो० पी० गोयल ने एक नवीन प्रणाली का आविष्कार किया था जिसे हाथ से परतोपचार की प्रणाली कहते हैं। यह प्रणाली अब किसी भी ग्रन्थागार में काम में लायी जा सकती है। इसमें न दाब की आवश्यकता है न गरमी पहुंचाने की आवश्यकता है ।
एक पॉलिश किये हुए शीशे के तख्ते पर उपचार-योग्य पांडुलिपि का पत्र फैला दिया जाता है । उसे साफ करके ही बिछाना होता है । इसके ऊपर सैल्यूलोज ऐसीटोन फॉइल, जो मूल पांडुलिपि के पन्ने से चारों ओर से कुछ बड़ा हो, फैला देते हैं । इसी के आकार का एक टिश्यू कागज इस फॉइल पर भली प्रकार बिछा दें : अब रूई का एक फाहा लेकर उसे ऐसीटोन में डुबो कर पोले-पोले टिश्यू कागज पर मलें। इस प्रकार ऐसीटोन का हलका लेप टिश्यू पर हो जाता है, जिसमें से ऐसीटोन छनकर सैल्यूलोज फॉइल तक पहुंचता है और उसे अर्द्ध-प्लास्टिक बना देता है । इस प्रकार टिश्यू कागज को पांडुलिपि पर भली प्रकार चिपका लेता है । सूख जाने पर दूसरी ओर भी इसी प्रकार उपचार करना चाहिए।
इस विधि के कई लाभ स्वीकार किये गये हैं। एक तो व्यय अधिक नहीं, दूसरे, विधि सरल है, तीसरे, इसमें स्याही नहीं फैलती, कागजों पर लगी मुहरें भी जैसी की तैसी बनी रहती हैं। पानी से भीगी पांडुलिपियों का उपचार
यदि पांडुलिपियाँ पानी में भीग गई हैं तो उन्हें तुरन्त बाहर निकाल लें और उनका उपचार करें, अन्यथा फफूंद आदि का भय रहता है ।
तुरन्त बाहर निकाल कर पहले जितना पानी उनमें से निचोड़ा जा सके, निचोड़ लें। फिर उन्हें खोल-खोल कर कमरे के अन्दर रखें और बिजली के पंखे से हवा दें। साथ ही प्रत्येक पन्ने को एक-दूसरे से अलग कर दें, यदि कुछ पन्ने चिपके दिखायी दें, तो उनको हलके से मौथरें (बिना धार के) चाकू से हलके से एक-दूसरे से अलग कर दें। अब प्रत्येक दो पन्नों के बीच में मोमी कागज या ब्लॉटिंग (सोख्ता) का पन्ना लगा दें। अब उन्हें
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रख-रखाव 355
भली प्रकार दाब कर बचा पानी भी निकाल दें। इन्हें फिर बिजली के पंखे के नीचे कमरे के अन्दर सूखने के लिए फैला दें । ये या तो मेजों पर फैलाये जांय या फिर अरगनियों - की डोरियों पर लटकाये जांय । यदि कहीं बिजली का पंखा न हो तो भण्डार-कक्ष के सभी दरवाजे और खिड़कियाँ खोल दें, ताकि स्वच्छ वायु इन पांडुलिपियों को सुखा दे । इन्हें जब तब लोटते-पलटते रहने की आवश्यकता है, जिससे इनमें सभी ओर हवा लग सके । ऐसी पांडुलिपियों को बिजली के हीटरों या धूप में नहीं सुखाना चाहिये ।
इनके सूख जाने पर या तो इन पर बिजली का पाइरन (इस्तरी) किया जाय या फिर अच्छी दाब में दाबा जाय ।
जो कागज ढेर के ढेर एक साथ सूखे हैं, उनके कागज परस्पर चिपके मिलेंगे, अतः बहुत सावधानी से उपचार करना होगा। पहले इन्हें भीगे ब्लॉटिंगों (सोख्तों) के बीच में रख कर वा अन्य विधि से कुछ नम किया जाय, तब मौथरे चाकू से एक-दूसरे से हलके हाथ से अलग कर दिया जाय ।
पं० उदयशंकर शास्त्री जी ने इसके लिए विधि बताते हुए लिखा है "इसकी उत्तम विधि यह है कि एक मटके में पानी भर कर रख दिया जाय, जब वह मटका पानी से बिल्कूल सीम जाय तब उसका पानी निकाल कर फेंक दें और ग्रन्थ को उसी में लकडी के एक गुटके के ऊपर रख दें और उस मटके का मुंह बन्द कर दें। कम से कम चार दिन के बाद ग्रन्थ को निकाल लेना चाहिये । इस पद्धति से ग्रन्थ के चिपके हुए पन्ने अपने-आप खुल जाते हैं ।"
रख-रखाव सम्बन्धी इन समस्याओं का स्थूल विवरण यहाँ दिया गया है जिससे मात्र दिशा-निर्देश होता है । फिर भी, इन समस्याओं के लिए तथा इनके अतिरिक्त और भी समस्याएँ सामने आ सकती हैं। उनके लिए इन विषयों के विशेषज्ञों से सहायता लेनी चाहिये । नेशनल पार्काइब्ज से हर प्रकार की सहायता मिल सकती है। आर्काइब्ज ने रखरखाव का एक डिप्लोमा पाठ्य-क्रम भी चलाया है । कागज को अम्ल (Acid) रहित करना
कागज के जीर्ण होने के कारणों की भी खोज करने के प्रयत्न हुए हैं। बाह्य कारणों का उल्लेख हो चुका है । उनका पता तो लगा ही लिया है, पर कागज के अन्दर कुछ ऐसे तत्त्व अवश्य हैं, जो उसके ह्रास के या उसकी जीर्णता के कारण बनते है, इस सम्बन्ध में बहुत अनुसन्धान, विशेषतः 18वीं और 19वीं शताब्दी के कागज पर किये गये हैं । निष्कर्ष यह निकाला कि कागज में अम्ल की अधिकता ही आंतरिक रूप से उसकी जीर्णता का कारण है, भले ही उसे प्रादर्श भण्डारों में रखा जाय, जहाँ तापमान 22-250 में और अपेक्षित नपी या आर्द्रता 45-55 प्रतिशत हो, कागज प्रान्तरिक अम्लता के कारण जीर्ण होगा । यह अम्लत्य कुछ तो उसमें बनाये जाने की प्रक्रिया में ही मिलता है, कुछ स्याही से तथा कुछ उन वस्तुओं से और वातावरण से जिनमें कागज रहता है । अम्ल-निवारण
अतः यह प्रावश्यक हो गया कि कागज को निरोग करने के लिए उसे अम्ल-रहित
1. शास्त्री, उदयशंकर-भारतीय साहित्य (जुलाई, 1949)-
121 ।
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356/पाण्डुलिपि-विज्ञान
किया जाय । डब्ल्यू. जे. बैरो (W. J. Barrow) ने इसके लिए बहुत कारगर चिकित्सा निकाली है । इस चिकित्सा में कैलमियम हाइड्रॉक्साइड और कैलसियम बाईकारबोनेट के घोल से कागज को स्नान कराते हैं । इससे कागज की अम्लता दूर हो जाती है तथा प्रागे भी अम्ल के प्रभाव से कागज की रक्षा हो जाती है, अतः अन्य वाह्य चिकित्सानों से पहले यह अम्ल-निवारण-चिकित्सा करनी चाहिये । राष्ट्रीय-अभिलेखागार (National Archives) में अम्ल-निवारण की जो पद्धति अपनायी जाती है, वह कुछ इस प्रकार है :
पहले दो घोल तैयार किये जांय : 1. कैलसियम हाइड्रॉक्साइड का घोल (घोल-1)
5-8 लीटर की क्षमता का शीशे का जार (Jar) लेकर उसमें प्राधा किलो अच्छी किस्म का खूब पिसा हुआ कैलसियम आक्साइड लें और 2-3 लीटर पानी लें और थोडा-थोडा चूर्ण जार में डालते जांय और तदनसार पानी भी डालें और उसे हलके-हलके चलाते जायें। यों हिलाते-हिलाते समस्त चूर्ण और पानी मिल कर दुधिया क्रीम-सी बन जायेगी। यह क्रिया बहुत हलके-हलके करनी है। यह घोल बन जाये, 10-15 मिनट बाद इस घोल को 25-30 लीटर की क्षमता के इनामिल्ड (Enamelled) या पोर्सीलेन के जार में भर देना चाहिये । अब फिर हलकेहलके चलाते हुए इसमें पानी डालना चाहिये, इस प्रकार घोल का आयतन 25 लीटर हो जाना चाहिये, अब इसे निथरने के लिए कुछ देर छोड़ देना चाहिये । इससे चूना नीचे बैठ जायगा । अब पानी को हलके से निथार कर अलग कर दिया जायगा और अब फिर धीरे-धीरे चलाते-चलाते उसमें पानी मिलाइए, यहाँ तक कि आयतन में फिर 25 लीटर पानी हो जाय । इस घोल को बराबर और खूब चलाते जाना चाहिये । 25 लीटर पानी हो जाने पर पुनः चूने को तल में बैठने दें। इस प्रकार अपेक्षा से अधिक चूना तल में बैठ जायगा । अब दूधिया रंग का पानी उसके ऊपर रहेगा । इसे निथार कर अलग कर लें। यही अपेक्षित घोल है, जो हमारे काम में आयेगा । बैठे हुए चूने में 25 लीटर पानी फिर मिलाइए और खूब अच्छी तरह चलाइए। फिर चूने को तल में बैठने दीजिए और ऊपर का दूधिया पानी निथार कर काम के लिये रख लीजिये । इस प्रकार वही मात्रा कैलसियम की 15-20 बार कैलसियम हाइड्रॉक्साइड का काम का घोल दे सकेगी। अब दूसरा घोल तैयार करें : कैलसियम बाइकार्बोनेट घोल (घोल-2) 25-30 लीटर की क्षमता का इनामिल्ड या पोसलेन के जार में 1/2 किलो बहुत महीन चूर्ण कै लसियम कानिट का घोल बनाये और उसे खूब चलाते-चलाते उसमें से कार्बन डाइआक्साइड गैस 15-20 मिनट तक प्रवाहित करें । इससे कैलसियम बाइकार्बोनेट का अपेक्षित घोल मिल जाता है। इसे बनाने की एक वैकल्पिक विधि भी है। पहले स्वच्छ (2) घोल को लेकर उसमें दुगना पानी मिलाइये, अब इस घोल को हिलाते-हिलाते चलाते-चलाते इसमें से कार्बन डाइऑक्साइड गैस प्रवाहित कीजिये, पहले इसका रंग सफेद हो
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रख-रखाव 357
जायगा, तब भी चलाते-चलाते और गैस प्रवाहित करें, अब यह स्वच्छ जल जैसा घोल हो जायगा। 30 लीटर के घोल को 30-48 मिनट तक गैसोपचार देना होता है । अपेक्षित घोल कैलशियम बाइकार्बोनेट का पाने के लिए।
जब ये दोनों घोल तैयार हो जाय तो निम्न विधि से पाण्डुलिपियों का निर्मलीक रगा किया जाना चाहिये : विधि
तीन इनामिल्ड तश्तरियाँ इतनी बड़ी कि उनमें अपने भण्डार से बड़ी पाण्डुलिपि समा सके, लें। एक तश्तरी में कैलशियम हाईड्रॉक्साइड का घोल (0.15 प्रतिशत का) दूसरी में ताजा स्वच्छ जल, तीसरी में कैलसियम बाइकाबोंनेट का घोल (0.15 प्रतिशत का) भर कर रखें। अब मोमी कागज (मोमी कागज की बजाय स्टेनलेस स्टील के तारों की वुनी पेटिका में रख कर भी डुबाया जा सकता है) पाण्डुलिपि के आकार से बड़ा लेकर उस पर पाण्डुलिपियों के इतने कागज रखें कि वे तश्तरियों के घोल में डूब सकें-- उन्हें मोगी कागज नीचे रख कर कैलशियम हाइड्रॉक्साइड के घोल में डुबा दें। 20 मिनट डूबे रहने दें, फिर निकाल कर पहले पाण्डुलिपियों में से घोल निचोड़ दें, तब दो मिनट के लिए इस पाण्डुलिपि को स्वच्छ जल में डुबो लें। अन्त में कैलशियम बाइकार्बोनेट के घोल में 20 मिनट तक रखें। उसमें से निकाल कर घोल निचोड़ देने के बाद फिर स्वच्छ जल में 2 मिनट के लगभग रखें । घोलों में और पानी में डुबोने पर तश्तरियों के घोलों और पानी को हलके-हलके तश्तरियों को एक अोर से कुछ उठा कर फिर दूसरी पोर मे कुछ उठा कर हिलाते रहना चाहिये।
__यह उपचार हो जाने के बाद पानी निचोड़ दें और कागजों के ऊपर दोनों ओर सोख्ते रख कर दाब से पानी सुखा दें, फिर उन्हें रैकों पर सूखने के लिए रख दें यह ध्यान रखना होगा कि जब तक ये पूरी तरह न सख जाय तब तक इनको उलटा-पलटा न जाय । अमोनिया गैस से उपचार
उक्त उपचार उन्हीं पाण्डुलिपियों का हो सकता है, जिनकी स्याही पक्की है, और जो पानी में न तो फैलती हैं, न घुलती हैं, अतः उपचार से पहले स्याही की परीक्षा करनी होगी। यदि स्याही पर पानी का प्रभाव पड़ता है, तो उसके कागज के निर्मलीकरण करने के लिए एक अन्य विकल्प से काम लेना होगा । यह विकल्प है अमोनिया गैस से उपचार । इसके लिए खानों वाली ऐसी अलमारी की आवश्यकता होती है जिसके खानों के तख्ते चलनी की भाँति छेदों से युक्त होते हैं । इन पर पाण्डुलिपियाँ खोल कर फैला दी जाती हैं। अब 1 : 10 अनुपात में पानी में अमोनिया का घोल बना कर एक तश्तरी में सबसे नीचे के खाने के तल में रख दें । इस प्रकार अमोनिया गैस कागजों का निर्मलीकरण कर देगी। चार-पाँच घण्टों के लिए अलमारी बिल्कुल बंद करके रखनी होगी। इसके बाद, इन पाण्डुलिपियों को 10-12 घण्टे स्वच्छ वायु में रखना होता है। ताड़पत्र एवं भोजपत्र का उपचार
कीड़े-मकोड़ों से रक्षा के लिए तो पंडी और घोड़ा बेच कपड़े में बाँध कर बस्तों
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358/पाण्डुलिपि-विज्ञान
में या अलमारियों में रखने से कीड़े-मकोड़े नहीं पाते । अाजकल नेपथलीन की गोलियाँ या कपूर से भी यह काम लिया जा सकता है।
तिरकने वाले (Brittle) ताड़ एवं भोजपत्रों का उपचार पहले कागज के लिए बताए शिफन-उपचार की विधि से किया जाना चाहिये । शिफन ताड़पत्र के ग्राकार से चारों ओर से कुछ बड़ी होनी चाहिये, ताकि पत्रों के किनारे क्षतिग्रस्त न हो सकें । कुछ विशेष सुरक्षा के लिए शिफन-उपचारित पाण्डुलिपियों को पाण्डुलिपि के योग्य पुटु के खोलों या बक्सों में रख देना चाहिये ।
ताड़पत्रों एवं भोजपत्रों पर धूल जम जाती है, जो उन्हें क्षति पहुँचाती है । इनमें से जिनकी स्याही पानी से प्रभावित न होती हो उनकी सफाई पानी में ग्लिसरीन (1:1) का घोल बना कर उससे रूई के फाहे से करनी चाहिये । जिनकी स्याही पानी मे प्रभावित होती हो, उनकी सफाई कार्बन टेट्राक्लोराइड या ऐसीटोन से की जानी चाहिये ।।
___ ताड़पत्र या भोजपत्र, जो काजल की स्याही से लिखे गये हैं, यदि उनकी स्याही फीकी पड़ जाय या उड़ जाय तो उनका उपचार नहीं हो सकता है, किन्तु यदि ताड़ात्र पर शलाका से कौर कर लिखा गया है तो उनकी स्याही उड़ जाने पर उपचार सम्भव है । तब ग्रेफाइट का चूर्ण रूई के पैड से उस ताड़पत्र पर मला जाता है और बाद में रूई के फाहे से उसे पोंछ दिया जाता है, जिससे ताड़पत्र में अक्षर स्याही से जगमगाने लगते हैं और ताडपत्र स्वच्छ भी हो जाता है।
यदि ताड़पत्र या भोजपत्र चिपक जायें तो इन्हें तरल, गर्म पैराफीन में डुबोया जाता है और तब बहुत अधिक सावधानी से एक-एक पत्र अलग किया जाता है । इस प्रक्रिया के लिए बहुत अभ्यास अपेक्षित है। बिना अभ्यास के पत्रों को अलग करने से ग्रन्थ की हानि हो सकती है, अतः दक्ष और अभ्यस्त हाथों से ही यह काम करना चाहिये ।
ऊपर ग्रन्थों के रख-रखाव और सुरक्षा और मरम्मत के लिए जो उपचार दिये गये हैं, उनमें डैक्सट्राइन तथा स्टार्च की लेई का उपयोग बताया गया है। इनके बनाने की विधि निम्न प्रकार है : डैक्स्ट्राइन की लेई डैक्स्ट्राइन
2.5 किलो पानी
5.) किलो लौंग का तेल
40 ग्राम सफ्परोल
40 ग्राम बेरियम कार्बोनेट विधि
एक पीतल की देगची में पानी उबालने रखें । 90° सें० का तापमान हो जाने पर डैक्स्ट्राइन का चूर्ण पानी में मिलाइये, धीरे-धीरे पानी को खुब चलाते जाइये ताकि डैक्स्ट्राइन समान रूप से मिले और गुठले न पड़ने पायें । 2.5 किलो डैक्स्ट्राइन इस विधि से मिलाने में 30-40 मिनट तक लग सकते हैं। अब इस घोल को बराबर चलाते जाइये और इसमें वेरियम कार्बोनेट और मिला दीजिये। तब लौंग का तेल और सपपरोल भी
80 ग्राम
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रख-रखाव/359
पानी
डाल दीजिये, और सबको एकमेल कर दीजिये। सबके भली-भाँति मिल जाने पर 6-8 मिनट तक पकाइये, तब प्राग से उतार लीजिये । डैक्स्ट्राइन की लेई तैयार हैं । मैदे (स्टार्च) की लेई मैदा
250 ग्राम
5.00 किलो लौंग का तेल
40 ग्राम सफ्फरोल
40 ग्राम बेरियम कानेट
80 ग्राम बनाने की विधि ऊपर जैसी है, केवल डेक्स्ट्राइन का स्थान मैदा ले लेती है। चमड़े की जिल्दों की सुरक्षा
कुछ पाण्डुलिपियाँ चमड़े की जिल्दों में मिलती हैं। चमड़ा मजबूत वस्तु है और पाण्डुलिपि की अच्छी रक्षा करता है। फिर भी वातावरण के प्रभाव से कभी-कभी यह भी प्रभावित होता है जिससे चमड़ा भी तड़कने लगता है, अतः चमड़े की सुरक्षा भी श्रावश्यक है।
इसके लिए पहले तो चमड़े को निरम्ल करना होगा । एक मुलायम कपड़े की गदेली से पहले जिल्द के चमड़े से धूल के करण बिल्कुल हटा दें। फिर 1-2 प्रतिशत सोडियम बैनजोएट (Sodium Benzoate) के घोल से भीगे फाहे से जिल्द पर वह घोल पोत दें और जिल्द को सूख जाने दें।
इसके बाद नीचे दी गई वस्तुओं से बने मिक्शचर से उसे उपचारित करें : 1. लेनोलिन एन्होड्स
300 ग्राम 2. शहद के छत्ते का मोम
15 ग्राम 3. सीडर वुड तेल
30 मिग्रा० 4. बेनजीन (Benzene)
350 मिग्रा० पहले बेनजीन को कुछ गरम करके उसमें मोम मिला दिया जाता है । तब सीडरवुड तेल मिलाते हैं और बाद में लेनोलिन इस मिक्शचर को खूब हिला कर काम में लेना चाहिये। इसे एक ब्रश से चमड़े पर भली प्रकार चुपड़ देना चाहिये । उसके सूख जाने पर भण्डार में यथास्थान रख दिया जाना चाहिये । इससे चमड़े की प्राव पहले जैसी हो जाती है, और वह भली प्रकार पुष्ट भी हो जाता है । । यह मिक्शचर अत्यन्त ज्वलनशील है, अतः प्राग से दूर रखना चाहिये । यह सावधानी बहुत आवश्यक है ।
वस्तुतः रख-रखाव का पूरा क्षेत्र 'प्रबन्ध-प्रशासन' के अन्तर्गत आता है । प्रबन्धप्रशासन एक अलग ही अंग है, जिस पर अलग से ही विचार किया जा सकता है । इसके लिए कितने ही प्रकार के प्रशिक्षण भी दिये जाने लगे हैं, यह सीधे हमारे क्षेत्र में नहीं आता है, पर रख-रखाव का पाण्डुलिपि पर बहुत प्रभाव पड़ता है, इसलिए कुछ चचा इस विषय की यहाँ भारतीय अभिलेखागार (नेशनल पार्काइब्ज) से प्रकाशित दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के प्राधार पर कर दी गई है।
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360. पाण्डुलिपि-विज्ञान
इस विषय के अच्छे ज्ञान के लिए इन्हीं पुस्तकों में कुछ चुनी हुई उपयोगी सामग्री का विवरण भी दिया गया है, उस विवरण में से कुछ का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है : Back. E. A.
Book-worms. पुस्तक-कीटों के सम्बन्ध में यह लेख 'द इंडियन प्रारका इब्स' नामक पत्रिका के खण्ड संख्या 2, 1947 में निकला । यह पत्रिका 'नेशनल आर्काइब्ज प्रॉव इंडिया', नई दिल्ली का
प्रकाशन है। Barrow, W. J. Manuscripts and Documents, Their Deteriora
tion and Restoration. यह पाण्डुलिपियों.और अभिलेखों के ह्रास और चिकित्सा पर, 'यूनिवर्सिटी प्रॉव वर्जीनिया, प्रेस', शारलौटस विले,
वरजीनिया का प्रकाशन है। Barrow, W. J... Procedure and Equipment in the Barrow
Method of Restoring Manuscripts and Docu
ments. बरो प्रणाली से पाण्डुलिपियों और अभिलेखों की चिकित्सा की प्रविधि और उसके लिए अपेक्षित यन्त्र-साधनादि पर
यह कृति 'यूनिवर्सिटी प्रॉव वरजीनिया प्रेस' से प्रकाशित है। Basu Purnendu
Common Enemies of Records. अभिलेखों के सामान्य शत्रुओं पर यह लेख 'द इंडियन
पारकाइब्ज' के खंड-5, अंक 1, 1951 में प्रकाशित ।। Chakravorti, S.
Vaccum Fumigation: A New technique for Preservation of Records. वाष्पीकरण से अभिलेखों की सुरक्षा पर यह कृति 'साइन्स एंड कल्चर' : अंक II (1943-44) में प्रकाशित । A Review of Lamination Process. परतोपचार चिकित्सा पर यह कृति 'द इंडियन आरकाइन्स
में खंड 1, अंक 4, 1947 में प्रकाशित । Goel, O. P.
Repair of Documents with Cellulose Acetate on small scale. यह सेल्यूलोज एसीटेट चिकित्सा पर लेख 'द इंडियन
पारकाइब्ज' खंड 7, अंक 2, 1953 में प्रकाशित । Gupta, R.C.
How to Fight White Ants. दीमक से रक्षा पर यह कृति 'द इंडियन प्रारकाइब्ज' खंड 8,
अंक 2, 1954 में प्रकाशित । Kathpadia, Y. P. Hand Lamination with Cellulose Acetate.
हाथ से सैल्यूलोज ऐसीटेट से परतीकरण चिकिल्सा पर ..
... कृति 'अमेरिकन प्राकिविस्ट', जुलाई, 1959 में प्रकाशित ।
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रख-रखाव/361
Majumdar, P. C. Birch-bark and Clay-coated Manuscripts.
भोजपत्र तथा मृदुलोपित पांडुलिपियों पर यह कृति 'द इंडियन प्रारकाइब्ज' के खंड-11, अंक-1-2, 1956 में
प्रकाशित । Ranbir Kishore
The Preservation of Rare Books and Manuscripts. दुर्लभ ग्रन्थों और पांडुलिपियों की सुरक्षा पर यह कृति 'द सनडे स्टेट्समेन' मार्च 1, 1955 में प्रकाशित । Preservation and Repair of Palm-leaf Manuscripts. ताड़पत्र की पांडुलिपियों की सुरक्षा और चिकित्सा पर यह कृति 'द इंडियन आरकाइब्ज' खण्ड-14 (जनवरी 1961
दिसम्बर 1962) में प्रकाशित । Talwar, V. V.
Record Materials : Their Deterioration and Preservation. अभिलेख सामग्री के रुग्ण होने और सुरक्षा पर यह कृति 'जनरल ऑव द मध्य-प्रदेश इतिहास परिषद', भोपाल,
अंक-11 (1962) में प्रकाशित । उक्त साहित्य से प्रस्तुत विषय पर कुछ और अधिक जानकारी मिल सकती है।
यहाँ हमने ऐतिहासिक दृष्टि से प्राचीन और उसके साथ नवीन वैज्ञानिक रक्षाप्रणालियों पर प्रकाश डाला है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि पांडुलिपि-विज्ञान के विद्यार्थी के लिए रख-रखाव के विषय में इतना ज्ञान अत्यन्त अपेक्षित है। उपसंहार :
... अब इस ग्रन्थ का समापन करते हुए इतना ही कहना और शेष है कि 'पांडुलिपिविज्ञान' की वस्तुतः यह प्रथम पुस्तक है। इसमें विविध क्षेत्रों से प्रावश्यक सामग्री लेकर एक सूत्र में गूंथ कर एक नये विज्ञान की आधार-शिला प्रस्तुत की गई है, भरोसा यह है कि इससे प्रेरणा लेकर यह विज्ञान और अधिक पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होगा ।
000
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परिशिष्ट-एक ( प्रथम अध्याय के पृष्ठ 17 के लिए यह परिशिष्ट है )
कुछ और प्रसिद्ध पुस्तकालय
क्रम संख्या
समय
स्थान/नाम
विवरण
1. 2300 ई० पू० से
पूर्व
2. 324 ई० पू० से
पूर्व
सीरिया में मिट्टी की इंटों पर लेख आधुनिक तैल्लमारडिख मिले हैं। इनकी लिपि क्यूनीफार्म रूप (Tellmardich) के की है। इन ईंटों के लेखों को पढ़ने के निकट]
प्रयत्न किए जा रहे हैं। ऐडले में प्राचीन प्रयत्न किराया संस्कृति का केन्द्र था। वहीं यह
पुस्तकालय था। तक्षशिला 'मिट्टी के सनम' में श्री कृष्ण चन्दर ने (सिकन्दर ने इसे बहुत लिखा है- "पंजा साहब से लौटकर समृद्ध और विशाल टेकनला आए, जहाँ पुराने जमाने की नगर पाया) सबसे पुरानी और ऐतिहासिक तक्ष
शिला यूनीवर्सिटी के खण्डहर खोदे जा रहे थे। तक्षशिला के एस्कीथियेटर, तक्षशिला के होस्टल, तक्षशिला के नहाने के तालाब यूनिवर्सिटी के दूसरे प्रबन्ध देख कर अक्ल दंग रह जाती है कि आज से हजारों वर्ष पूर्व इस पुरानी यूनिवर्सिटी में शिक्षा-दीक्षा की कितनी उत्तम और उच्च व्यवस्था थी ।" (धर्मयुग, 27 फरवरी, 1966, पृष्ठ 31)। यहीं पाणिनि जैसे वैयाकरण ने, जीनक जैसे वैद्य ने, और चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री ने यहीं शिक्षा पायी थी। ऐसे विश्वविद्यालय में ऐसा ही महान् पुस्तकालय रहा होगा। इसमें क्या संदेह किया जा सकता है ? इसके गंगू नामक स्तूप से खरोष्ठी लिपि में लिखा सोने का एक पत्तर जनरल कनिंघम को मिला था। इसमें एक
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परिशिष्ट-एक, 363
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पूर्व
प्राचार्य के पास 500 छात्र अध्ययन करते थे। इसमें विश्व ख्याति के कई प्राचार्य थे। "Takshila contained the celebrated University of Northern India (Rajovad-Jataka) up to the first century A. D. like Balabhi of Western, Nalanda of Eastern, Kanchipura of Southern and Dha akataka of
Central India." 3. 246 ई० पू० से पाटलिपुत्र/पटना 246 ई० पू० में तृतीय बौद्ध परिषद्
हुई थी। इसमें बौद्ध-सिद्धान्त ग्रन्थों पर चर्चा हुई थी । पाटलिपुत्र अजातशत्रु के दो मन्त्रियों ने बसाया था। मौर्यकाल
में यह विशिष्ट विद्या का केन्द्र था । 4. 140 ई० पू० काश्मीर पतंजलि काश्मीर में रहे थे।
काश्मीर सरस्वती मंदिर, यहाँ से पाठ व्याकरण ग्रंथ हेमचन्द्राचार्य
काश्मीर के लिए मंगाये गये थे। 6. 80 ई० पू० लंका बौद्ध ग्रन्थ लिपिबद्ध किये गये थे ।
लंका-हंगुरनकेत, बिहार इसके चैत्य में हजारों रुपये के बहुमूल्य (कडि जिले में) ग्रन्थ गढ़वा दिये गये थे। चाँदी के पत्रों
पर 'दिनय पिटक' के दो प्रकरण, अभिधम्म के सात प्रकरण तथा 'दीर्घनिकाय' गढ़वाये गये थे। चीन का यह पुस्तकालय भी प्राचीन होना चाहिए । तुनहाङ की शेष 8000 बलिताएँ इसी पुस्तकालय में भेज दी गयी थीं। (डॉ. लोकेशचन्द जी ने बताया है कि उनके पिताजी डॉ० रघुवीर इन 8000 वलिताओं की माइक्रोफिल्म करा लाये थे । ये उनके
संग्रह में हैं)। .9. 126 ई० .. उज्जैन उज्जैन बहुत पुराना नगर है । भारतीय
संस्कृति का यहाँ स्रोत था। सम्राट
पेइचिड
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364/पाण्डुलिपि-विज्ञान
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10. 160 ई०
आडिवीसां (उड़ीसा)
11. 160 ई०
धान्यकूट
12. 222 ई० ...
मध्य भारत
अशोक यहाँ रहे थे । विक्रमादित्य की राजधानी थी । यह नव-रत्नों की नगरी है । यहाँ ग्रन्थागार थे । भगवान कृष्ण के गुरु सांदीपनि का आश्रम अंकपाद उज्जैन से कुछ ही दूर है। महाभारत युग में यहाँ प्रसिद्ध विद्यापीठ था, भर्तृहरि की गुफा भी उज्जैन में है। भर्तृहरि विद्वान और योगी थे । उनके पास भी अच्छा ग्रन्थागार था। नागार्जुन ने विहार स्थापित कराये । इनमें पुस्तकालय होंगे ही। नागार्जुन ने यहाँ के मन्दिरों की परिख (railing) बनवायी। नागार्जुन ने बौद्ध विश्वविद्यालय भी स्थापित किया था, पुस्तकालय होगा ही। यहाँ से धर्मपाल इस वर्ष चीन गया । चीन में इसने 'पाति मोख्ख' का अनुवाद 250 ई० में किया था। Sang-hurui श्रमण ने विहार बनवाया। 251 ई० में अनुवाद कार्य आरम्भ किया। अनुवाद पीठ । 313 से 317 तक 'तुनह्वाङ' के श्रमण धर्मरक्ष ने अनुवाद कार्य किया। इसमें 30,000 वलिताएँ थीं। 1957 वि० में अनायास ही इनका पता चला था । सहस्र बुद्ध गुफा के चैत्थ की कुछ पाण्डुलिपियाँ भारत में मध्य एशियाई संग्रहालय में हैं । (266 ई० में 'चुफान्हु' अर्थात् 'धर्मरक्ष' श्रमण तुनह्वाङ लोपांग गया था। 366 से 100 वर्ष पूर्व ही 'तुनह्वाङ' में अच्छा पुस्तकालय स्थापित हो चुका होगा ।)
बू का राज्य
14. 252 ई०
लोपांग (चीन)
15. 366 ई०
तुनह्वाङ (मध्य एशिया) [गोवी रेगिस्तान के
किनारे]
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परिशिष्ट-एक/365
___1 2 16. 381 ई०..
3 ... कुभा
17. 383 ई० 18. 383 ई०
. चंग-अन (चीन)
लिअंग-पाउ (चीन)
यहाँ के श्रमण संघभूति ने चीनी भाषा में अनुवाद किया। गौतम संघ देव का अनुवाद पीठ था। कुमार जीव श्रमण ने यहाँ बहुत से बौद्ध ग्रन्थों का अनुवाद सन् 402 से 412 के बीच किया।
19. 500 ई० से थानेश्वर विश्वविद्यालय । इसका उल्लेख ह्वनसांग ने भी किया
है। हर्ष के गुरु 'गुणप्रभ' का इस
विश्वविद्यालय से सम्बन्ध रहा होगा। 20. 568 ई० से दुड्डा बौद्ध विहार बलभी सौराष्ट्र की राजधानी था । यहाँ पूर्व (वलभी) 84 जैन मन्दिर थे। यह बौद्ध विद्या
केन्द्र हो गया था । विश्वविद्यालय और पुस्तकालय यहाँ थे। Balabhi.... It became the capital of Saurashtra of Gujrat. It contained 84 Jain temples (SRAS XIII, 159) and afterwards became the seat of Buddhist learning in Western India in the seventh century
A.D., as Nalanda in Eastern India (Ancient Geographical Dictionary).
21. 630 ई० से पूर्व
नालंदा
हनत्सांग के भारत आगमन के समय यह प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था। उस समय इसमें धर्मपाल के शिष्य और उत्तराधिकारी शीलभद्र, भावाविवेक, जयसेन, चन्द्रगोमिन, गुणमति, वसुमित्र, ज्ञानचन्द्र एवं रत्नसिंह आदि प्रसिद्ध विद्वान् यहाँ प्राध्यापक थे। इनका उल्लेख ह्वेनसांग ने किया है। ज्ञानचंद्र एवं रत्नसिंह इत्सिग के भी प्राध्यापक थे, ऐसा इत्सिग ने लिखा है । ह्वेनसांग के समय में 10000 भिक्षु इसमें रहते
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366 पाण्डुलिपि-विज्ञान
__ 1 2
3 22. 8वीं शती ई. विक्रम शिला (बिहार) इस धर्मपाल ने स्थापित किया था, ऐसा
विश्वास है। इनके समय में इसके प्रमुख थे-श्रविद्ध ज्ञान पाद । इसके छह द्वार, जिन पर एक-एक विद्वान् पण्डित नियुक्त था । इस विश्वविद्यालय में वही व्यक्ति प्रवेश पा सकता था, जो शास्त्रार्थ में इन द्वार-पण्डितों को हरा देता था। 12वीं शती में इसे बख्त्यार
खिलजी ने नष्ट कर दिया था । 23. 10वीं शती से मरस्वती महल इसे महाराजा सरफोजी ने सन् 1798पूर्व तंजौर
1832 के बीच विशेष समृद्ध किया
था। 24. 1010 ई० धार, भोज भाण्डागार राजा भोज की नगरी थी। यहाँ भोज
द्वारा स्थापित विद्यालय एवं पुस्तकालय थे। सिद्धराज जयसिंह इसे अन्हिलवाड़ा
ले गये थे। 25. 11वीं शती से जैन भण्डार, श्री भण्डारकर ने बताया है कि यहाँ एक पूर्व जैसलमेर नहीं दस पुस्तक संग्रह हैं। (प्रकाशन
संदेश, पृष्ठ 7, अगस्त-अक्टूबर, 65)। 26. 1140 ई० भोज भण्डारगार सिद्धराज जयसिंह की मालव विजय पर
अन्हिलवाड़ा गया । उदयपुर
11 पुस्तकालय बीकानेर
19 पुस्तकालय हनुमानगढ़
1 पुस्तकालय श्री भण्डारकर ने ये नागौर
2 पुस्तकालय । पुस्तकालय देखे थे। प्रलवर
6 पुस्तकालय किशनगढ़
1 पुस्तकालय 27. 1242-1262 ई० चालुक्य-भाण्डागार, चालुक्य बीसलदेव या विश्वमल्ल का ।
अन्हिलवाड़ा 28. आदिम युग तक्षकोको (प्राचीन स्पेन के हरनंडी कार्टेज ने दिसम्बर, (1520 ई० से मैक्सिको) 1520 में तक्षकोको नगर पर विजय
प्राप्त की। इस अाक्रमण में यहाँ का उद्घाटन स्पेनवासी
एक विशाल पुस्तकालय जला दिया लोगों ने किया था)
गया। इसमें अनगिनत अमूल्य हस्तलिखित ग्रन्थ थे।
कुछ पूर्व इसका
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परिशिष्ट-एक 367
1
2
*29.
3 युकातान (प्राचीन मैक्सिको) युकातान प्रांत में मय जाति की हजारों
हस्तलिखित पुस्तकों के भण्डार थे । डीगो द लंदा नाम के स्पेनी पादरी ने उन सबकी होली जलवा दी। यह सब 16वीं शताब्दी में हुआ । (कादम्बिनी,
मार्च, 1975) मुल्ला अब्दुल कादिर हेमू ने नष्ट किया। (अकबरी दरबार) के पिता, मलूकशाह का पुस्तकालय,
30. 1540 ई०
के लगभग
बदायू
31. 1556 ई०
प्रागरा
अकबर का शाही पोथीखाना। 30,000 के लगभग
ग्रन्थ थे। पद्मसम्भव द्वारा स्थापित संस्कृत-तिब्बती भाषा के ग्रन्थों का तिब्बत का साम्ये विहार भण्डार था ।
पुस्तकालय 33. 1592 ई० अामेर-जयपुर पोथीखाना राजा भारमल्ल के समय से प्रारम्भ । . के लगभग
16000 दुर्लभ ग्रन्थ । 8000 महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का सूची पत्र 1977 में श्री गोपाल नारायण बोहरा द्वारा सम्पादित, प्रकाशित । आमेर-जयपुर राजघराने ने अपने 400 वर्षों के राज्य
काल में इस संग्रह को समृद्ध बनाया । 34. 19वीं शती से प्रस्त्राखान (रूस) पाण्डुलिपि भण्डार है। अग्रदास कृत
ध्यान मजरी की प्रतिलिपि अस्त्राखान में 1808-9 ई० में की गयी। यहाँ हिन्दी और पंजाबी की भी पुस्तकें मिली हैं । यहाँ बुखारा में प्रतिलिपि की गयी अनेक हिन्दी पुस्तकें मिली हैं । गुरु विलास तो सचित्र है । (धर्मयुग, 21
अक्टूबर, 1973) 35. 1871 ई० से बुखारा यहाँ पुस्तकालय होना चाहिए, क्योंकि पूर्व
यहाँ से अनेक ग्रन्थ प्रतिलिपि होने के बाद अस्त्राखान गए। (धर्मयुग, 8 मार्च, 1970, पृ० 23)
पूर्व
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368/पाण्डुलिपि-विज्ञान
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3
..
.
A
वही।
37.
. खुत्तन . - काशगर
वही। दंदा उइलिक यहाँ ग्रन्थ भण्डार होना चाहिए, क्योंकि
यहाँ से ही एक असली ब्राह्मी ग्रन्थ नकली ग्रन्थ तैयार करने वाले इस नाम
अखुन के पास मिला था । यहाँ के खंड
... हरों में दबे अन्य ग्रन्थ भी मिले थे । प्राच्य विद्या मन्दिर, बड़ौदा यहाँ अनेक पाण्डुलिपियों से वाल्मीकि
रामायण का पाठ संशोधन हो रहा है। लाल भाई दलपत भाई इसमें अच्छे हस्तलेख उपलब्ध हैं। एक भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, 676 पृष्ठों की सचित्र तुलसी कृत अहमदाबाद रामचरितमानस है जिसमें एक पंक्ति
नागरी में और एक पंक्ति फारसी लिपि में है, (सम्भव है यह कृति 18वीं शती
की होगी।) 41. 11 मार्च, राष्ट्रीय अभिलेखागार, 1. स्थापना के समय इसका नाम था-- 1891 को नई दिल्ली
'इंपीरियल रेकार्ड डिपार्टमेंट' । स्थापित
2. नई दिल्ली के भवन में आने पर इसे 'राष्ट्रीय अभिलेखागार' का नाम दिया गया।
इसमें महत्त्वपूर्ण अभिलेख तो सुरक्षित हैं ही, 1 लाख के लगभग ग्रंथ भी हैं। माइक्रोफिल्म के रूप में भी
लाखों पृष्ठों की सामग्री संग्रहित है। 42. 1891 पटना : खुदाबख्श इसमें 12000 पाण्डुलिपियाँ हैं और ओरियंटल पुस्तकालय 50,000 मुद्रित पुस्तकें। यह पहले
खुदाबख्श का निजी पुस्तकालय था । खुदाबख्श को अपने पिता मुहम्मदबख्श (1815-1876) में उत्तराधिकार में मिला था। खुदाबख्श ने उसमें बहुत वृद्धि की और 1891 में उसे सार्वजनिक पुस्तकालय का रूप दे दिया ।
इसमें कुरान का एक पन्ना 1300 वर्ष पुराना सुरक्षित है। हाफिज का दीवान अत्यन्त मूल्यवान माना जाता
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परिशिष्ट-एक/369
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है । इस पर हुमायू, जहाँगीर और शाहजहाँ के हस्ताक्षरों में कुछ टीपें हैं । 400 वर्ष पुरानी अरबी की पुस्तकों में कुछ वे पुस्तकें भी हैं जो सुन्दर हस्तलिपि में स्पेन की पुरानी राजधानी कोसेडोला में लिखी गयी थीं। हिन्दी की भी कुछ ऐसी पुस्तकें जो ज्ञात नहीं थीं, इस पुस्तकालय में मिली हैं।
अब तक इसके तीस सूची पत्र प्रकाशित हो चुके हैं । इन्हें वैपटिस्ट मिशन प्रेस, कलकत्ता ने छापा है । इनमें केवल पुस्तकालय की आधी पुस्तकों का ही विवरण है । इन सूचीपत्रों को आदर्श माना जाता है।
43. 1904 ई० भारती भाण्डारगार, या
के आसपास सरस्वती भाण्डारगार या (न्यूहलर के शास्त्र भाण्डार
अनुसार) 44.
उज्जैन: सिंधिया पुस्तकालय
इसमें 10000 के लगभग पुस्तकें हैं। इनमें ढाई हजार के लगभग दुर्लभ ग्रन्थ हैं । इसमें एक ग्रन्थ गुप्तकालीन लिपि में लिखा हुआ है । यह चालीस पृष्ठों का है । इस पुस्तकालय ने यह ग्रन्थ काश्मीर के गिलगिट क्षेत्र से बीस वर्ष पूर्व प्राप्त किया था । पाँच सौ वर्ष पूर्व के भोज पत्र पर लिखे ग्रन्थ भी इसमें हैं । इसी प्रकार ताड़ पत्र पर सुन्दर हस्तलिपि में लिखे 25 ग्रन्थ भी हैं। मुगलकालीन अदालत और काश्मीर के शासक के बीच हुए पत्राचार के मौलिक दस्तावेज यहाँ सुरक्षित हैं, ये फारसी में
45. 1912 भरतपुराः श्रीगोपालनारायण इसमें लगभग चार हजार पाण्डुलिपियाँ
सिंह ने इसे निजी पुस्तकालय हैं। इसमें सबसे पुरानी लिखी पुस्तके
के रूप में विकसित ताड़पत्र वाली हैं। उसके बाद क्रम में किया
भोजपत्र की पुस्तकें आती हैं, तब पुराने
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370/पाण्डुलिपि-विज्ञान
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कागज को पुस्तकें । इस ग्रन्थागार की ये पुस्तकें बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं : 'शाहनामा', यह फिरदौसी की कृति है । यह 500 पृष्ठों का ग्रन्थ है। इसमें 52 चित्र हैं। पृष्ठों के बीच में जो चित्र हैं वे सोने और नीलम के रंगों से बनाये गए हैं । यह कृति काबुल-कंधार के सूबेदार अली मर्दानखाँ ने अकबर को भेंट में दी थी।
सिकन्दरनामा 17वीं शती से पूर्व की कृति है । लेखक हैं-निजामी । इसमें भी चित्र हैं । सोने और नीलम के रंगों का प्रयोग इनमें भी है।
'मुताउल हिन्द' अकबर के हकीम सलामत अली की कृति है । यह विश्व कोष है। इसमें दर्शन, गणित और भौतिक विज्ञान, रसायन और संगीत पर भी अच्छी सामग्री है। यह ताड़पत्र की पाण्डुलिपियों के लिए प्रसिद्ध है । 448 पाण्डुलिपियाँ महामहोपाध्याय ह० प्र०, शास्त्री जी ने बतायी थी, सन् 1898-99 ई० में। इसमें 5000 पाण्डुलिपियाँ शास्त्री जी ने बतायी हैं।
नेपाल : दरबार पुस्तकालय
47.
नेपाल : यूनीवर्सिटी पुस्तकालय
48.
पूना : भंडारकर रिसर्च 49. 1320 ई० इंस्टीट्यूट विजयनगर
50. 14वीं शती
मिथिला = तिरहुल
तुंगभद्रा के तट पर । यादव वंश के राज्य-काल में विद्या का केन्द्र । प्रसिद्ध वैदिक भाष्यकार सायणाचार्य यहीं के राजा के मन्त्री थे।
यह हिन्दू विद्या का केन्द्र था। यहाँ के ब्राह्मण राजाओं के समय में महाकवि मैथिल कोकिल विद्यापति हुए थे । राजा का नाम था शिवसिंह । यह चैतन्य महाप्रभु का प्रादुर्भाव स्थल . . है । यह भी हिन्दू-विद्या केन्द्र के रूप में
प्रतिष्ठित हुअा।
नदिया/नवद्वीप
51. 14वीं-15वीं
शती
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परिशिष्ट-एक/371
4
12 52. 7वीं शती
ई० से पूर्व
दुर्वासा पाश्रम विक्रमशिला संघाराम
वैशाली
53. 443 ई०पू०
377 ई०पू० से
यहाँ गुफाएं हैं जो पहाड़ों में खुदी हई है । चंपा की यात्रा में ह्वेनसांग यहाँ अाया था । बौद्ध तीर्थ है। यह वृज्जियों/लिच्छवियों की राजधानी थी। यहाँ बौद्ध धर्म का द्वितीय संघ सम्मेलन हुआ था। इससे यहाँ धार्मिक ग्रन्धागार था, यह अनुमान किया जा सकता है। यहाँ भी 'तक्षशिला' जैसा विद्या केन्द्र था। 500 विद्यार्थियों को पढ़ाने की क्षमता वाले प्राचार्य यहाँ थे । तक्षशिला की भांति ही यह वैदिक शिक्षा और विद्या के लिए प्रसिद्ध था।
54. प्रावैदिक / वैदिक
काशी
55. वैदिक काल
नैमिषारण्य
भृगु वंशी शौवक ऋषि का ऋषिकुल नैमिषा राज्य में था। इसमें दस सहस्र अन्तेवासी रहते थे।
56. रामायणकाल
प्रयाग: भारद्वाज
आश्रम
इस काल का यह विशालतम आश्रम था । यह भारद्वाज ऋषि का आश्रम था।
57.
॥
अयोध्या
अयोध्या नगर के पास ब्रह्मचारियों के श्राश्रम और छात्रावासों का रामायण में उल्लेख है।
पाल वंश को स्थापित करने वाले गोपाल ने यहाँ एक बौद्ध विहार बनवाया था।
58. 7वीं-8वीं अोदन्तपुरी ___शती से पूर्व (बिहार शरीफ) 59. 1801 ई० . इंडिया ऑफिस
में स्थापित लाइब्ररी, लन्दन
इसमें 250000 मुद्रित पुस्तकें : 175000 पूर्वी भाषाओं में शेष यूरोपीय भाषाओं में । पूर्वी में 20000 हिन्दी की, 20,000 संस्कृत-प्राकृत की, 24000 बंगला की, 10,000 गुजराती की, 9000 मराठी की, 5000 पंजाबी की, 15000 तमिल की, 6000 तेलुगु की, 5500 अरबी की, 5500 फारसी की हैं।
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372/पाण्डुलिपि-विज्ञान
12
"भारतीय विषयों पर यूरोपीय भाषामों में लिखे 2000 हस्तलेख हैं। पूर्वी भाषाओं के हस्तलेख 20,000 हैं । यहाँ 8300 संस्कृत के, 3200 अरबी के, 4800 फारसी के, 1900 तिब्बती के, 160 हिन्दी के, 30 बंगला के, 140 गुजराती के, 250 मराठी के, 50 उड़िया के, 60 पश्तों के, 270 उर्दू के, 250 बर्मी के, 110 इंडोनेशिया के, 111 मो-सो के, 21 स्यामी के, 70 सिंघली के, 23 तुर्की के हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। और भी बहुत से अभिलेख हैं। (21 दिसम्बर, 1969 के धर्मयुग में प्रकाशित श्री जितेन्द्र कुमार मित्तल, प्राध्यापक, प्रयाग विश्वविद्यालय के लेख, इंगलैण्ड में भारतीय अनुसंधान की विरासत के आधार पर ।)
भारतीय संग्रहालय जिनमें पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं क्रमांक नाम
स्थापित 1. मद्रास संग्रहालय
1851 ई० 400 ताम्र पत्र ऐतिहासिक महत्त्व के
विवरण
2. नागपुर संग्रहालय
3. लखनऊ संग्रहालय
1863 ई० नागपुर में भौंसले राजवंश की पाण्डु
लिपियाँ हैं। 1863 ई० सचित्र पोथियाँ, कुण्डली प्रकार की
पोथी आदि हैं। 1890 ई० जैनधर्म के कल्पसूत्रों की पाण्डुलिपियाँ,
ताम्रलेख ताड़पत्रीय पोथियाँ, चित्रित
जन्मपत्रियाँ आदि हैं। 1908 ई० इसमें शिला लेखांकित नाटक सुरक्षित
4. मूरत विचेस्टर संग्रहालय
5. अजमेर संग्रहालय
1920 ई० रामचरितमानस की सचित्र प्रति ।
6. भारत कला भवन,
वाराणसी
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परिशिष्ट-एक/373
1 2 7. मध्य एशियाई संग्रहालय 1929 ई० प्रारचेस्टीन द्वारा लायी गयी तुनहाङ
की 'सहस्र बुद्ध गुफा' से प्राप्त अगणित
पांडुलिपियाँ, रेशमी पड़ सुरक्षित । 8. पाशुतोष संग्रहालय, कलकत्ता 1937 ई० कागज पर लिखी प्राचीन पांडुलिपियाँ
नेपाल से प्राप्त, 1105 ई० की यहाँ
1937 ई० मचित्र तथा अन्य दुर्लभ पांडुलिपियाँ ।
9. गंगा स्वर्ण जयन्ती
संग्रहालय, बीकानेर 10. अलवर संग्रहालय
11. कोटा संग्रहालय
1940 ई० इसके पांडुलिपि विभाग में 7000
पोथियाँ सुरक्षित हैं जो संस्कृत, फारसी, हिन्दी आदि की हैं । हाथी दाँत पर लिखित पुस्तक 'हफ्त वद काशी' भी इसमें है। यह अस्थि या दाँत के लिप्यासन वाली पाण्डुलिपियों का उदाहरण है। अनेक महत्त्वपूर्ण पोथियाँ हैं, कुडली प्रकार की भी हैं, और एक इञ्च परिमारण की मुष्टा भी है। विभिन्न युगों और शैलियों को मूल्यवान सचित्र पाण्डुलिपियाँ हैं । सचित्र पोथियाँ। मुल्ला दाऊद का 'लोरचन्दा' की पाण्डुलिपि का कुछ अंश यहाँ उपलब्ध
12. प्रयाग संग्रहालय
13. राष्ट्रीय संग्रहालय 14. शिमला संग्रहालय
15. सालार जंग संग्रहालय, हदराबाद
अट्ठारहवें कक्ष में दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ
16. कुतुबखाना-ए-सैयदिया, टौंक
इस परिशिष्ट में कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकालयों या ग्रन्थागारों का उल्लेख दिया गया है। इनमें से बहुतों का ऐतिहासिक महत्त्व रहा है। वे ग्रन्थागार, वे विश्वविद्यालय, वे विहार और संघाराम अाज अतीत के गर्भ में खो चुके हैं। इनसे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि संसार में किस समय ग्रन्थागारों का कितना महत्त्व था। इस सूची में कितने ही स्थानों पर, ग्रन्थागार होने की सम्भावना अनुमान के आधार पर मानी गई है । जहाँ विशाल विश्वविद्यालय होंगे, जहाँ संघाराम एवं विहार होंगे, जहाँ अनुवाद करने कराने के केन्द्र होंगे, जहां परिषदें हुई होंगी, वहाँ पर यह अनुमान किया जा सकता है कि ग्रन्थागार होंगे ही।
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374/पाण्डुलिपि-विज्ञान
उक्त सूची में इन ग्रन्थागारों के विद्यमान होने का वर्ष भी दिया गया है। ये भी अधिकांशतः अनुमानाभित ही हैं । पांडुलिपि-विज्ञान की दृष्टि से इन ग्रन्थागारों के संकेत से, उनमें स्थान और स्थूल विशेषताओं से कुछ आवश्यक सामान्य ज्ञान मिल जाता है ।
परिशिष्ट-दो काल-निर्धारण : तिथि विषयक समस्या
काल-निर्धारण में 'तिथि' विषयक एक समस्या तब सामने आती है जब तिथि का उल्लेख उस तिथि के स्वामी के नाम से किया जाता है। उदाहरणार्थ-'वीरसतसई' का यह दोहा है :
"बीकम बरसां बतियो, गणचौचन्द गुणीस ।।
बिसहर तिथ गुरु जेठ बदि, समय पलट्टी सीस ।" डॉ० शम्भूसिंह मनोहर ने बताया है कि
"विषहर तिथि का यहाँ सीधा-सादा एवं स्पष्ट अर्थ है--'पंचमी' (विषधर की तिथि)।" आगे बताते हैं कि “वंश भास्कर" में सूर्यमल्ल ने तिथि निर्देश में प्रायः एक विशिष्ट पद्धति का अनुसरण किया है । वह यह कि उन्होंने कहीं-कहीं तिथियों का ज्योतिषशास्त्र में निर्देशित उनके स्वामियों के आधार पर नामोल्लेख किया है। उदाहरणार्थत्रयोदशी को कवि ने वंशभास्कर में 'मनसिज तिथ' कह कर ज्ञापित किया है, क्योंकि त्रयोदशी का स्वामी कामदेव है, यथा
सक खट बसु सत्रह १७८६ समय,
उज्ज मास अवदात । कूरम मालव कुंच किय,
मनसिज तिथ अवदात ।।
इसी भाँति चतुर्दशी को उन्होंने 'शिव की तिथि कह कर सूचित किया है, चतुर्दशी के स्वामी शिव होने के कारण
"संवत मान अंक वसु सत्रह १७८६ ।
अरु सित बाहुल भालचन्द अह ।।" इस विवेचन से स्पष्ट है कि तिथि का उल्लेख उस तिथि के स्वामी या देवता के नाम से भी किया गया । "ज्योतिष तत्त्व सुधार्णक" नामक ज्योतिष ग्रन्थ में तिथियों के स्वामियों/देवताओं के नाम इस श्लोक द्वारा बताये गए हैं :
अथ तिश्यधिदेवनामाहअग्निः प्रजापति गौरी गणेशोऽहि गुरु रविः । शिवो दुर्गान्तको विश्वोहरिः कामो हरः शशी । पितर; प्रति पदादीना तिथीनामधियाः क्रमात् ॥इति।। -~-वीरसतसई का एक दोहा : एक प्रत्यालोचना, ले. डॉ. शम्भूसिंह मनोहर,
'विश्वम्भरा', वर्ष 7, अंक 4, 1972 ।
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परिशिष्ट-तीन
ग्रन्थ सूची
1. अग्रवाल, वासुदेव शरण (डॉ.) : कीर्तिलता, साहित्य सदन, चिरगाँव, झांसी
___(1962) "
: पद्मावत, संजीवनी भाष्य-वही। ,, , : हर्षचरित, सांस्कृतिक अध्ययन, विहार राष्ट्र
भाषा परिषद्, पटना, 19641 4. अग्रवाल, वासुदेवशरण (डॉ०) : पोद्दार अभिनन्दन ग्रन्थ, ब्रज साहित्य मण्डल, तथा सत्येन्द्र (डॉ०)
मथुरा, 1952 । 5. आर्य मंजु श्री कला : त्रिवेन्द्रम सीरीज । 6. उपाध्याय, वासुदेव (डॉ.) : प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन,
मोतीलाल बनारसीदास, पटना (61) । 7. प्रोझा, गौरीशंकर हीराचन्द : भारतीय प्राचीन लिपि माला, मुन्शीराम
मनोहरलाल, दिल्ली (59)। 8. कौशल, रामकृष्ण
: कमनीय किन्नौर । 9. गरुड़ पुराण 10. गुप्त, किशोरीलाल (डॉ०) : सरोज सर्वेक्षण, हिन्दुस्तानी एकेडेमी,
इलाहाबाद (67)। 11. गुप्त जगदीश (डॉ०) : प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला, नेशनल
पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली (1967) । गुप्त, माताप्रसाद (डॉ०) तुलसीदास, हिन्दी परिषद्, प्रयाग विश्व
विद्यालय, 1953 । , , . ... पृथ्वीराज रासो, साहित्य सदन, चिरगांव,
झाँसी। बसंत विलास और उसकी भाषा, क. मु. हिन्दी
तथा भाषा विज्ञान विद्यापीठ, आगरा । ___ ,
: राउर बेल और उसकी भाषा, मित्र प्रकाशन
प्राइवेट लि०, इलाहाबाद, 1962 । 16. गुप्त माताप्रसाद (डॉ०), नाहटा, : बीसलदेव रास ।
अगरचन्द 17. गैरोला, वाचस्पति
: अक्षर अमर रहें। 18. जैन समवायोग सूत्र 19. टॉड, जेम्स
: पश्चिमी भारत की यात्रा, मंगल प्रकाशन,
जयपुर।
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22.
"
376/पाण्डुलिपि-विज्ञान 20. तिवारी, भोलानाथ (डॉ०) : भाषा विज्ञान, किताब महल, इलाहाबाद,
(1977)। 21. तुलसीदास
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(1949)। 23. दलाल, चिमनलाल द० : लेख पद्धति, बड़ौदा केन्द्रीय पुस्तकालय,
(1925)। 24. दशकुमार चरित 25. दश वैकालिक सूत्र हरिभद्री टीका 26. दैवी पुराण 27. द्विवेदी, हजारीप्रसाद (डॉ०) : संदेश रासक, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकार (प्राइवेट)
लि०, बम्बई, 1965। 28. द्विवेदी, हरिहरनाथ : महाभारत (पांडवचरित) विद्या मन्दिर प्रकाशन,
ग्वालियर, 1973। 29. नाथ, राम (डॉ.)
मध्यकालीन भारतीय कलाएं और उनका विकास, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी,
जयपुर (1973)। 30. पत्र कौमुदी 31. पद्म पुराण 32. पन्नवरणा सूत्र 3. प्रवीण सागर
: (हस्तलिखित-पं० कृपाशंकर तिवारी का
व्यक्तिगत संग्रह, जयपुर)। 34. भारद्वाज, रामदत्त (डॉ०) : गोस्वामी तुलसीदास, भारतीय साहित्य मंदिर,
दिल्ली (1962)। 35. मजूमदार, मंजुलाल : गुजराती साहित्य ना स्वरूप । 36. मत्स्यपुराण 37. मनोहर, शम्भूसिंह (डॉ०) : ढोला मारु रा दूहा, स्टूडेण्ट बुक कम्पनी,
जयपुर, 1966 । 38. माहेश्वरी, हीरालाल (डॉ०) : जाम्भोजी, विष्णोई सम्प्रदाय और साहित्य,
बी० आर० पब्लिकेशन्स, कलकत्ता, 1970 । 39. मिश्र, गिरिजाशंकर प्रसाद : भारतीय अभिलेख संग्रह, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ (अनुवादक)
अकादमी, जयपुर। 40. मिश्रबन्धु
: मिश्रबन्धु विनोद, गंगा पुस्तक माला कार्यालय,
लखनऊ (1972)। 41. मुनि जिनविजयजी
: विज्ञप्ति त्रिवेणी। 42. मुनि पुण्यविजयजी
: भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला। 43. राज, जोन
: राज तरंगिणी। 44. लेफमन्न, एस०
: ललित विस्तर हाले--(1902)। . 45. वर्णक समुच्चय
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परिशिष्ट-तीन/377
46. वृहद् कल्प-सूत्र 47. शर्मा, नलिन विलोचन : साहित्य का इतिहास दर्शन, बिहार राष्ट्रभाषा
परिषद, पटना (1960)। 48. शर्मा, बंशीलाल (डॉ०) : किन्नौरी लोक साहित्य, ललित प्रकाशन,
लैहडी सटेल, विलासपुर (1976) 49. शर्मा हनुमानप्रसाद : जयपुर का इतिहास । 50. शाङ्गधर पद्धति 51. शुक्ल, जयदेव (सं०) : वासवदत्ता कथा । 52. सत्येन्द्र (डॉ०)
: अनुसंधान, नन्दकिशोर एण्ड सन्स, वाराणसी ।
ब्रज साहित्य का इतिहास, भारती भण्डार,
इलाहाबाद (1967)। सिंह, उदयभानु (डॉ०) तुलसी काव्य मीमांसा, राधाकृष्ण प्रकाशन,
दिल्ली (67)। 55. सिन्हा, सावित्री (डॉ.) : अनुसंधान प्रक्रिया, दिल्ली विश्वविद्यालय,
दिल्ली। 56. सेंगर, शिवसिंह : शिवसिंह सरोज, शिवसिंह सेंगर, लखनऊ,
2 1966। 57. Agarwal, V. S, (Dr.) i India as known to Paniņi, University
of Lucknow, Lucknow (1953). 58. Agarwalla, N. D. : On Common Script, Bharat Art
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खोज, (साहित्य संस्थान, उदयपुर)। : श्री खम्भात, शान्तिनाथ, प्राचीन ताडपत्रीय
जैन ज्ञान भण्डार नूं सूची पत्र । 5. हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों का त्रैवार्षिक विवरण (नागरी प्रचारिणी सभा, काशी) । 6. Sastri, H. P.
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पत्रिकाएँ
(1) धर्मयुग, (2) परम्परा, (3) परिषद् पत्रिका, (4) भारतीय साहित्य, (5) राजस्थान भारती, (6) विश्व भारती, (7) वीणा, (8) शोध पत्रिका, (9) स्वाहा, (10) सम्मेलन पत्रिका, (11) सप्त सिन्धु, (12) Journal of the Asiatic Society of Bengal. (13) Journal of the United Provinces Historical Society. (14) Orientalia Loveniensta Periodica. (15) Hindustan Times Weekly.
ODE
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विश्वविद्यालयों द्वारा की जाने वाली शोध और अनुसंधान में जिन विषयों में पांडुलिपि का उपयोग करना पड़ता है, उनके लिए तो यह अनिवार्य ग्रन्थ है ही, स्वतन्त्र रूप से पांडुलिपियों की खोज और अध्ययन करने वालों के लिए भी यह अत्यधिक उपादेय सिद्ध होगा। इसमें पांडुलिपि विषयक विविध पहलुओं पर वैज्ञानिक दृष्टि से प्रामाणिक सामग्री संजोयी गयी है। ऐसे ग्रन्थ का अभाव बहुत समय से अनुभव किया जा रहा था, जिसकी पूर्ति अब हो रही है। एम. फिल्. के छात्रों के लिए भी यह उपयोगी सिद्ध होगा। इस ग्रन्थ में पहली बार पांडुलिपि विषयक वैज्ञानिक पद्धति का निरूपण हुआ है। (स्व०) डॉ. सत्येन्द्र, जन्म 1907 / एम. ए. 1933, पीएच. डी. 1947 डि. लिट. 19571 लेखक कलकत्ता और राजस्थान विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभागाध्यक्ष पद पर कार्य कर चुके हैं। हिन्दी जगत् के प्रख्यात् एवं मूर्धन्य आलोचक, सम्पादक, शोधक और विद्वान् रहे हैं / अनेकानेक शीर्ष कोटि के ग्रन्थों के प्रणेता होने के साथसाथ लोक साहित्य, पांडुलिपि-विज्ञान, हिन्दी साहित्य का इतिहास आदि क्षेत्रों में मौलिक शोधों के प्रवर्तक भी रहे हैं। मूल्य : 55.00 रुपये For Private and Personal Use Only