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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 198/पाण्डुलिपि-विज्ञान रधिया और मथिया के स्तम्भों पर के लेखों की छापें मंगवाई और उनको देहली के लेख से मिलाकर यह जानना चाहा कि उनमें कोई शब्द एक-सा है या नहीं। इस प्रकार उन चारों लेखों को पास-पास रखकर मिलाने से तुरन्त ही यह पाया गया कि ये चारों लेख एक ही हैं । इस बात से प्रिन्सेप का उत्साह बढ़ा और उसे अपनी जिज्ञासा पूर्ण होने की दृढ़ आशा बंधी। फिर इलाहाबाद के स्तम्भ के लेख से भिन्न-भिन्न आकृति के अक्षरों को अलग-अलग छांटने पर यह विदित हो गया कि गुप्ताक्षरों के समान उनमें भी कितने अक्षरों के साथ स्वरों की मात्राओं के पृथक्-पृथक् पाँच चिह्न लगे हुए हैं, जो एकत्रित कर प्रकट किये गये। इससे अनेक विद्वानों को उक्त अक्षरों के यूनानी होने का जो भ्रम था वह दूर हो गया। स्वरों के चिह्नों को पहिचानने के बाद मि. प्रिन्सेप ने अक्षरों के पहिचानने का उद्योग करना शुरू किया और उक्त लेख के प्रत्येक अक्षर को गुप्तलिपि से मिलाना और जो मिलता गया उसको वर्णमाला के क्रमवार रखना प्रारम्भ किया। इस प्रकार बहुत-से अक्षर पहिचान में आ गये। पादरी जेम्स स्टिवेन्सन् ने भी प्रिन्सेप की भांति इसी शोध में लग कर 'क', 'ज', 'प' और 'ब' अक्षरों को पहिचाना और इन अक्षरों की सहायता से लेखों को पढ़कर उनका अनुवाद करने का उद्योग किया गया परन्तु कुछ तो अक्षरों के पहिचानने में भूल हो जाने, कुछ वर्णमाला पूरी ज्ञात न होने और कुछ उन लेखों की भाषा को संस्कृत मानकर उसी भाषा के नियमानुसार पढ़ने से वह उद्योग निष्फल हुमा। इससे भी प्रिन्सेप को निराशा न हुई। ई० सं० 1836 में प्रसिद्ध विद्वान लँसन् ने एक बैट्रिअन् ग्रीक सिक्के पर इन्हीं अक्षरों में अंगयां क्लिस का नाम पढ़ा। ई० सं० 1837 में मि. प्रिन्सेप ने सांची के स्तूपों से सम्बन्ध रखने वाले स्तम्भों आदि पर खुदे हुए कई एक छोटे-छोटे लेखों की छापें एकत्र कर उन्हें देखा तो उनके अन्त के दो प्रक्षर एक-से दिखाई दिये और उनके पहिले प्रायः 'स' अक्षर पाया गया जिसको प्राकृत भाषा के सम्बन्ध कारक के एक वचन का प्रत्यय (संस्कृत 'स्य' से) मानकर यह अनुमान किया कि ये सब लेख अलग-अलग पुरुषों के दान प्रकट करते होंगे और अंत के दोनों प्रक्षर, जो पढ़े नहीं और जिनमें से I. जर्नल ऑफ दी एशियाटिक सोसाइटी ऑफ गंगाल, जिल्द 3, पृ. 7, प्लेट 51 2. अशोक के लेखों की लिपि मामूली देखने वाले को अंग्रेजी या ग्रीक लिपि का प्रम उत्पन्न करा दे, ऐसी है। टॉम कोरिअट नामक मुसाफिर ने अशोक के देहली के स्तम्भ के लेख को देखकर एस. हि वटकर को एक पत्र में लिखा कि "मैं इस देश (हिन्दुस्तान) के देली (देहली) नामक शहर में आया जहाँ पर 'बलेक्टर दी ग्रेट (सिकन्दर) ने हिन्दुस्तान के राजा पोरस को हराया और अपनी विजय की यादगार में उसने एक वृहत् स्तम्भ खड़ा करवाया जो अब तक वहाँ विद्यमान है" (केरस' बाँयेजिज एंड ट्रेवल्स, जि.9 पृष्ठ 423 क. आ. स. रि. जि. 1 पृष्ठ 163) इस अरह जब टॉम कोरिअट ने अशोक के लेख वाले स्तम्भ को बादशाह सिकन्दर का खड़ा करवाया हबा मान लिया तो उस पर के लेख के पढ़े न जाने तक दूसरे युरोपिअन् यानी आदि का उसकी लिपि को ग्रीक मान लेना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पादरी एडवर्ड टेरी ने लिखा है कि टॉम कोरिअट ने मुझसे कहा कि मैंने देली (देहली) में ग्रीक लेख वाला एक बहुत बड़ा पाषाण का स्तम्भ देखा जो "अलेक्बैंडर दी ग्रेट' ने उस प्रसिद्ध विजय की यादगार के निमित्त उस समय वहाँ पर खड़ा करवाया था" (क. आ. स..रि. जि. 1, पृ०163-64) इसी तरह दूसरे लेखकों ने उस लेख को ग्रीक लेख मान लिया था। 3. जर्नल ऑफ दी एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, जि.3, पृ.4851 4. 'न' को '' पढ़ लिया था और 'द' को पहिचाना न था। For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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