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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-समस्या/197 पर एक नयी प्रणाली (दाहिने से बाँए) का उसी लेख में समावेश करना चाहता था। इसलिए उलटे क्रम (दाहिने से बाएं) का भी उसने उपयोग किया। किन्तु इस कृत्रिम रूप के आधार पर कोई गम्भीर सिद्धान्त स्थिर करना युक्तिसंगत न होगा। ब्राह्मी को, दिल्ली के अशोक स्तम्भ पर अंकित ब्राह्मी को, : एक व्यक्ति ने यूनानी लिपि माना था, और उस ब्राह्मी लेख को अलेक्जेंडर की विजय का लेख माना था। काशी के ब्राह्मण ने एक मनगढन्त भाषा और उसकी लिपि बतायी, किसी ने उनको तंत्राक्षर बताया; एक जगह किसी ने पहलवी माना; और भी पक्ष प्रस्तुत हुए, पर प्रत्येक लेख की स्थिति और उनका परिवेश, उनका स्थानीय इतिहास तथा अन्य विवरणों की ठीक जानकारी हुई और तब तुलना से वे अक्षर ठीक-ठीक पढ़े जा सके हैं । पर सिन्धुघाटी की सभ्यता विषयक विविध समस्याएँ अभी समस्याएँ ही बनी हुई हैं । यह सभ्यता भी केवल सिन्धुघाटी तक सीमित नहीं थी, अब तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी इसके गढ़ भूमि-गर्भ में गभित मिले हैं। लगता यह है कि महान जलप्लावन से पूर्व की यह संस्कृति-सभ्यता थी। पानी के साथ मिट्टी बह पायी और उनमें ये नगर दब गये। पर ये सभी कल्पनाएँ हैं और अधिक उत्खनन से कहीं कोई ऐसी कुंजी मिलेगी जो इसका रहस्य खोल देगी। तो पांडुलिपि-विज्ञान के जिज्ञासु के लिए उन अड़चनों, कठिनाइयों और अवरोधों को समझने की आवश्यकता है जिनके कारण किसी अज्ञात लिपि का उद्घाटन सम्भव नहीं हो पाता। . वे अड़चनें हैं : (1) किसी सांस्कृतिक परम्परा का न होना। ऐसी परम्परा प्राप्त होनी चाहिये जिसमें विशेष लिपि को बिठाया जा सके।. .... (2) ठीक इतिहास का अभाव तथा इतिहास की विस्तृत जानकारी का प्रभाव या ....विद्यमान ऐतिहासिक ज्ञान में अनास्था। (3) अयथार्थ और अप्रामाणिक पूर्वाग्रहों का होना । (4) तुलना से समस्या का मोर जटिल होना। (5) लिपि-विषयक प्रत्येक समस्या के सम्बन्ध में भ्रम होना । (6) लिपि में लिखी भाषा का ठीक ज्ञान न होना, यथा-प्राकृत के स्थान पर पहलवी और प्राकृत के स्थान पर संस्कृत भाषा समझकर किये गये प्रयत्न विफल हो गये थे। ऊपर हम 'स्वाहा' से लिये गये उद्धरण में ब्राह्मी लिपि पढ़ने के प्रयत्नों की सामान्य रूप-रेखा पढ़ चुके हैं । यहाँ महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचन्द मोझा से भी इस सम्बन्ध में एक उद्धरण दिया जाता है, इससे ब्राह्मी लिपि के पढ़ने के प्रयत्नों का अच्छा ज्ञान हो सकेगा। बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के संग्रह में देहली और इलाहाबाद के स्तम्भों तथा खंडगिरि के चट्टान पर खुदे हुए लेखों की छापें आ गई थीं, परन्तु विल्फर्ड का यत्न निष्फल होने से अनेक वर्षों तक उन लेखों के पढ़ने का उद्योग न हुआ। उन लेखों का आशय जानने की जिज्ञासा रहने के कारण जेम्स प्रिन्सेप के ई० सं० 1834-35 में इलाहाबाद, उपाध्याय, वासुदेव-प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० 249 । For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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