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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ग्रन्थों के अन्य प्रकार 1. प्राकार के आधार पर : यहाँ तक हमने ग्रन्थ लिखने के साधन या आधार की दृष्टि से ग्रन्थों के प्रकार बताये । प्राचीनतम हस्तलिखित प्रतियाँ प्रायः लम्बी और पतली पट्टियों के रूप में ही प्राप्त होती हैं, जिनको एक के ऊपर एक रखकर गड्डी बनाकर रखा जाता है। एक-एक पट्टी को पत्र कहते हैं । 'पत्र' नाम इसलिए दिया कि ये पोथियाँ ताड़पत्रों या भूर्जपत्रों पर लिखी जाती थीं। बाद में तत्समान प्रकार के मांडपत्र या कागज बनाए जाने लगे । अव वह 'पत्र' शब्द चिट्ठी के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है। 'पता' भी पत्र से ही निकला है । ग्रतः प्राचीन पुस्तकें छूटे या खुले पत्राकार रूप में ही होती थीं। इनके छोटे-बड़े प्रकार का भेद बताने के लिए जो शब्द प्रयुक्त हैं उनसे पता चलता है कि पोथियाँ पाँच प्रकार की होती थीं । दशवेकालिक सूत्र की हरिभद्रकृत टीका में एवं निशीथचूर्णी आदि में पुस्तकों के 5 प्रकार इस तरह गिनाये गये हैं 1 - ( 1 ) गण्डी, (2) कच्छपी, (3) मुष्टी, (4) सम्पुटफलक और (5) छेदपाटी, छिवाडी या सृपाटिका 12 गण्डी जो पुस्तक मोटाई और चौड़ाई में समान होकर लम्बी ( Rectangular) होती है वह 'गण्डी' कहलाती है। जैसे पत्थर की 'कतली' होती है उसी प्रकार की यह पुस्तक होती है । ताड़पत्र पर या ताड़पत्रीय ग्राकार के कागजों पर लिखी हुई पुस्तकें 'गण्डी' प्रकार की होती है । कच्छपी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपियों के प्रकार / 157 कच्छप या कछुए के आकार की अर्थात् किनारों पर सँकरी और बीच में चौड़ी पुस्तकें कच्छपी कहलाती हैं। इनके किनारे या छोर या तो त्रिकोण होते हैं अथवा गोलाकार | 'गंडी कच्छवि मुट्ठी संyडफलए छिवाडीय' एगे पुत्ययपण, चक्खाण मिणं भवेतस्य ।। वाल्ल पुहत्त हि, गण्डी पत्थो उ तुल्लगों दीहो । कच्छवि अन्ते तणुओ, मज्झे पिलो मुणेयब्बो चउरं गुलदी हो वा ग्ट्टाहि मुट्ठि पुत्यगो अह्वा । चउरं गुलदीहोच्चि, चउरंगी होइ विन्नेओ ।। सम्पुङगो दुगनाई फलगावोच्छं मेत्ता है । तणुपत्तूसियरुबो, होई छिवाड़ी बुहा वेंति ।। दी होवा हस्सो वा, जो पिहुलो होइ अप्पवाहल्लो । तं मुणियसमयसारा, छिवाडियोत्यं भणतीह ॥ - दश वैकालिक हरिभद्री टीका, पत्र 25 'मुनि पुण्य विजय जी : भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला में पृ० 22 पर 25 वीं पाद टिप्पणी से उद्धत | For Private and Personal Use Only 2. मुनि पुण्य विजयजी ने भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला में पृ० 22 की 26 वी पाद टिप्पणी में बताया है कि कुछ विद्वान् छिवाड़ी को सुपटिक मानते हैं । किन्तु मुनिजी वृर्हक्ल्पसूत्र वृत्ति तथा स्थानांग सूत्र टीका आदि मान्य ग्रन्थों के आधार पर छिवाड़ी को 'छेदपाटी' ही मानते हैं ।
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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