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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठालोचन/237 और रूप में प्रयोग मिलता है। इस प्रयोग की प्रावृत्ति की सांख्यिकी (Statistics) प्रामाणिकता को पुष्ट करती है । __ 'अर्थ' की समीचीनता की उद्भावना भी प्रामाणिकता को पुष्ट करती है । इसे हम डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के कुछ उद्धरणों से स्पष्ट करेंगे। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जी ने पद्मावत की टीका की भूमिका में प्रचुर तुलनात्मक विवेचना से यह सिद्ध किया है कि डॉ० माताप्रसाद गुप्त का वैज्ञानिक विधि से संशोधित पाठ शुक्ल जी के पाठ से समीचीन है। उसमें एक स्थान पर एक उदाहरण यों दिया हुआ है-- (34) शुक्लजी--जीभा खोलि राग सौं मढ़े । लेजिम घालि एराकलि चढ़े । शिरेफ ने कुछ संदेह के साथ पहली अर्द्धाली का अर्थ किया है ---- तोपों ने कुछ संगति के साथ अपना मुंह खोला । वस्तुतः यह जायसी की प्रतिक्लिष्ट पंक्ति थी जिमका मूल पाठ इस प्रकार था गुप्तजी-जेबा खोलि राग सौं मढ़े । इसमें जेबा, खोल, राग तीनों पारिभाषिक शब्द हैं। शाह की सेना के सरदारों के लिए कहा गया है कि वे जिरहबख्तर (जेबा), झिलमिल टोप (खोल) और टाँगों के कवच (राग) से ढके थे। 512/4 में भी 'राग' मूलपाठ को बदलकर 'सजे' कर दिया गया । इसमें 'जेवा', 'खोलि', 'राग' ये पारिभाषिक शब्द हैं । अतः इस विषय के बाह्य प्रमाण से इसकी पुष्टि होती है, और 'शक्ल' जी के पाठ की अपेक्षा इस वैज्ञानिक-विधि मे प्राप्त पाठ की समीचीनता सिद्ध होती है। पाठानुसंधान में भ्रम से अथवा संशोधन-शास्त्र के नियमों के पालन में असावधानी से अभीष्ट पाठ और अर्थ नहीं मिल सकता। इसे समझाने के लिए डॉ० अग्रवाल ने अपनी ही एक भ्रान्ति का उल्लेख यों किया है : "इस प्रकार की एक भ्रान्ति का मैं सविशेष उल्लेख करना चाहता हूँ क्योंकि वह इस बात का अच्छा नमूना है कि कवि के मूल पाठ के निश्चय करने में संशोधन शास्त्र के नियमां के पालन की कितनी आवश्यकता है और उसकी थोड़ी अवहेलना से भी कवि के अभीष्ट अर्थ को हम किस तरह खो बैठते हैं। 152/4 का शुक्लजी का पाठ इस प्रकार सांस डांडि मन मथनी गाढ़ी । हिये चोट बिनु फूट न साढ़ी ।। माताप्रसाद जी को डांडि के स्थान पर वेध, वोठ, वैठ, वोइठा, दुध, दहि, दधि, दंवाल, डीढ इतने पाठान्तर मिले । सम्भव है और प्रतियों में अभी और भी भिन्न पाठ मिलें । मनेर शरीफ की प्रति में प्रोट पाठ है। गुप्त जी को इनमें से किसी पाठ से सन्तोष नहीं हा । अतएव उन्होंने अर्थ की आवश्यकता के अनुसार अपने मन से 'दहेंडि' इस पाठ का सुझाव दिया, पर उसके आगे प्रश्न चिह्न लगा दिया--स्वांस दहेंडि (?) मन मंथनी गाढ़ी । हिये चोट बिनु फूट न साढ़ी । मैंने इस प्रश्न चिह्न पर उचित ध्यान न ठहरा कर सांस दही की हांडी है, मन दृढ़ मथानी है, ऐसा अर्थ कर डाला। प्रसंगवश श्री अम्बाप्रसाद सुमन के साथ इस पंक्ति पर पुनः विचार करते हुए इसके प्रत्येक पाठान्तर को जब मैं देखने लगा तो 'दवाल' शब्द पर ध्यान गया । 'श्री सुमन' जी ने सुनते ही कहा कि 1. अग्रवाल, वासुदेव शरण (डॉ.)-पद्मावत (प्राक्कथन), पृ. 19 । For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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