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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 238, पाण्डुलिपि-विज्ञान अलीगढ़ की बोली में द्वाली चमड़े की डोरी या तस्में को कहते हैं। काश देखने से ज्ञात हुया कि फारसी में दवाल या दुवाल रकाब के तस्में को कहते हैं (स्टाइनगास फारसी कोश पृ. 539)। क्रुक ने दुप्रालि, दुमाल का अर्थ चमडे की बग्घी, हल आदि बाँधने का तस्मा किया है (ए रूरल एण्ड एग्रीकल्चरल ग्लासरी, पृ० 91)। जियाउदीन बरनी ने तारीखे फिरोजशाही में अलाउद्दीनकालीन वस्त्रों के विवरण में बुरदा नामक वस्त्र को 'दवाले लाल' अर्थात लाल डोरियों का धारीधार कपड़ा लिखा है (सैयद अतहर अब्बास रिजवी, खिलजी कालीन भारत, पृ. 82, तारीखे फिरोजशाही का हिन्दी अनुवाद)। इन अर्थों पर विज्ञार करने से मुझे निश्चय हो गया कि प्रस्तुत प्रसंग में डोरी का वाचक दुअाल शब्द नितांत क्लिष्ट पाठ था, और वही कविकृत मूल पाठ था । पद्मावत की एक ही हस्तलिखित प्रति में अभी तक यह शुद्ध पाठ प्राप्त हुआ है (गोपालचन्द जी को फारसी लिपि की प्रति जो बहुत सुलिखित है-यही गुप्त जी की 'च.' । प्रति है)। सम्भव है भविष्ठा में किसी और अच्छी प्रति में भी यह पाठ मिल जावे । रामपुर की प्रति का पाठ इस समय विदित नहीं है। इस प्रकार इस पंक्ति का कविकृत पाठ यह हुा-- ___ सांस दुआलि मन मथनी गाढ़ी। हिए चोट बिनु फूट न साढ़ी ।। सांस दुग्राली मा डोरी है। शूनलजी ने 'डांडि' पाठान्तर को प्रसंगवश डोरी अर्थ में ही लिया है पर डांडि पाठ किसी प्रति में नहीं मिला। मूल पाठ दुप्रालि होने में सन्देह नहीं । सांस का ठीक उपमान डोरी ही हो सकती है दहेंडि नहीं । ___इसमें डॉ. अग्रवाल ने एक 'बाह्य' सम्भावना से 'दुआलि' पाठ को प्रामाणिक सिद्ध किया है। डॉ० गुप्त ने ग्रन्थों में प्राप्त किसी पाठान्तर को ठीक नहीं माना, और 'दहेंडि' की कल्पना 'अर्थ-न्यास' के आधार पर की। यह प्रयत्न पाठालोचन के सिद्धान्त के अधिक अनुकूल नहीं। पाठ की प्रामाणिकता की दृष्टि से 'शब्दों' को तत्कालीन 'रूप' और 'अर्थों' से भी पुष्ट करने की आवश्यकता है। जैसे 'पद्मावत' के अनेक शब्दों के अर्थ 'आईने अकबरी' के द्वारा पुष्ट होते हैं । इसी प्रकार से अन्य समकालीन कवियों की शब्दावली अथवा तत्कालीन नाममालाओं से 'शब्दों' की पुष्टि की जा सकती है। पाठ-सिद्धान्त निर्धारित हो जाने के बाद, जिसका पूर्ण विवेचन ऊपर लिखे ढंग से प्रारम्भ में किया जाना चाहिये, एक पृष्ठ पर एक छन्द रहना चाहिये और उसके नीचे जितने भी पाठान्तर मिलते हैं वे सभी दे दिये जाने चाहिये । पाठान्तर किस-किस प्रति के क्या-क्या हैं, इसका भी संकेत रहना चाहिये। डॉ० भाताप्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित 'पृथ्वीराज रासउ' से एक उदाहरण लेकर इस बात को भी स्पष्ट किया जा सकता है । साटिका--'छन्त या मद गंध घ्राण* लुब्धा आलि भूरि पाच्छादिता । (1) गुंजाहार अधार सार गुन या2 रुजा पया भासिता । (2) अग्रे या स्रति कुंडला करि नवं तुंडीर*X उद्धारया x 1 (3) सोंयं पातु गणेस सेस सफलं प्रिथिराज काव्ये हितं । (4) पाठान्तर ---- x चिह्नित शब्द धा. में नहीं है। * चिह्नित शब्द ना. में नहीं है। 1. अग्रवाल, वासुदेव शरण (डॉ.)-गद्मावत (प्राक्कथन), पृ० 26 । For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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