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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपियों के प्रकार/143 सरकंडे की छाल अपने यहाँ मँगाना शुरू किया था और उसी को लिखने के आसन के काम में लेते थे। फिर धीरे-धीरे योरोप में इसका व्यवसाय फैलने लगा और अरबों के शासनकाल में तो इटली आदि देशों में पेपायरस की खेती भी होने लगी और उनसे छाल निकाल कर लिखने की सामग्री बनायी जाने लगी। 704 ई० में अरबों ने समरकंद को जीत लिया और वहाँ पर ही सर्वप्रथम उन्होंने रुई और चिथड़ों से कागज तैयार करने की कला सीखी । इसके बाद दमिश्क (Damuscus) में भी कागज बनने लगा। ईसा की नवीं शताब्दी में सबसे पहले कागज पर अरवी में ग्रन्थ लिखे गए और अरबों द्वारा बारहवीं शताब्दी के अासपास योरोप में कागज का प्रवेश हुआ और पेपायरस का प्रचलन बन्द हो गया। चमड पर लेख देवी पुराण में पुस्तक दान का उल्लेख है। उसमें ताड़पत्र पर पुस्तक लिखवाकर उमे चर्म से सम्पुटित करने का विधान है-- श्री ताड़पत्र के सञ्चे समे पत्रसुसञ्चिते । विचित्र काञ्चिकापावें चर्मणा सम्पुटीकृते ।। इससे ज्ञात होता है कि भारत में पुस्तक-लेखन के क्रम में चर्म का भी उपयोग होता था परन्तु बहुत कम क्योंकि यहाँ ताड़पत्र और भूर्जपत्र पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते थे । वैसे ब्राह्मणों और जैनों में चर्म का स्पर्श वजित भी माना गया है । बौद्ध ग्रन्थों में अवश्य ही चमड़े को भी लेखन-सामग्री में गिनाया गया है। जिस प्रकार कवि सम्राट कालीदास ने हिमालय के वर्णन में (क्र सं.) किन्नर सुन्दरियों द्वारा भूर्जत्वच पर धातुरस (गेरु) से लिखे गए प्रेमपत्रों की उपमा बिन्दु-मण्डित हाथी की सूड से दी है उसी प्रकार सुबन्धुकृत 'वासवदत्ता' नाम की आख्यायिका में भी रात्रि में काले आकाश में छिटके हुए चाँद-तारों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि प्राकाश अँधेरे रूपी काले रंग (मषी) से रंगे हुए चर्मपत्र के समान है जिम पर विधाता विश्व का हिसाब लगा रहा है और संसार की शून्यता के कारण चाँदरूपी व डिया के टुकड़े से उस पर तारारूपी शून्य बिन्दुएँ अंकित कर रहा है । "विश्वं गणयतो विधातुः शशिकाठिनीखण्डेन तमोमषीश्योमेऽजिन इव वियति संसारस्यातिशून्यत्वाच्छून्य बिन्दव इव ।" डॉक्टर वल्हर को भी जैसलमेर के वृहद् ज्ञान-भण्डार में हस्तलिखित ग्रन्थों के साथ कुछ चर्मपत्र मिले थे जो पुस्तकें लिखने अथवा उनको आवेष्टित करने के लिए ही एकत्रित । किये गए थे। परन्तु यह सब होते हुए भी भारत में लेखन के लिए चर्मपत्र का प्रयोग स्वल्प मात्रा में ही होता था । यूनान, अरब, योरोप और मध्य एशिया आदि स्थानों में लिखने के लिए चर्मपत्र का प्रयोग बहुधा पाया जाता है । सोक्रेटीज (सुकरात) से जब पूछा गया-"आप 1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 147 । 2. दूल्हर्स इन्सक्रिप्शन रिपोर्ट, पृ० 95।। 3. पार्चमेण्ट चमड़े में ही बना होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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