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316/पाण्डुलिपि-विज्ञान
पहुँचा जा सकता, अतः इन्हें बिन्दुओं से रिक्त ही दिखाना होगा। 6 संख्या पर छन्द समाप्ति की (1) हो सकती है। 7वें पर (ल) ठीक रहेगा, किन्तु ऐसे पाठोद्धार में जो शब्द अक्षत उपलब्ध हैं, अर्थ तक पहुँचने के लिए उनमें भी किसी संशोधन का सुझाव देना आवश्यक हो सकता हैं जिससे कि वाक्य का रूप व्याकरणिक की दृष्टि से ठीक अर्थ देने में सक्षम हो जाय । ऐसे सुझावों को छोटे कोष्ठकों ( ) में रखा जा सकता है।
दूसरे प्रकार के शब्दों को विकृत शब्द कह सकते हैं। विकारों के कारणों को दृष्टि में रखकर 'विकृत शब्दों' के 6 भेद किये गये हैं : - पहला विकार मात्रा-विषयक हो सकता है, जो विकार मात्रा की दृष्टि से बाज हमें सामान्य लेखन में मिलता है, वह इन पाण्डुलिपियों में भी मिल जाता है। हम देखते हैं कि बहुत से व्यक्ति 'रात्रि' को 'रात्री' लिख देते हैं। किसी-किसी क्षेत्र विशेष में तो यह एक प्रवृत्ति ही हो गई है कि लघु मात्रा के लिए दीर्घ और दीर्घ के लिए लघु लिखी जाती है। भ्रभात् किसी अन्य मात्रा के लिए अन्य मात्रा लिख दी जा सकती है । इसका एक उदाहरण डॉ० माहेश्वरी ने यह दिया है : ___139 धीरै > धोरै । ई > प्रो
(अ) यहाँ लिपिक ने '' की मात्रा को कुछ इस रूप में लिखा कि वह 'नो' पढ़ी गयी । इसी प्रकार 'ओ' की मात्रा को ऐसे लिखा जा सकता है कि वह 'ई' पढ़ी आय । 1846 में मनरूप द्वारा लिखित मोहन विजय-कृत 'चन्द-चरित्र' के प्रथम पृष्ठ की 13वीं पंक्ति में दायीं ओर से सातवें अक्षर से पूर्व का शब्द 'अनुप' में मात्रा विकृति है, यह यथार्थ में 'अनूप' है । इसी के पृ० 3 पर ऊपर से सातवीं पंक्ति में 16वें अक्षर से पूर्व शब्द लिखा है, 'अगुढ़' जो मात्रा-विकृति का ही उदाहरण है । इसकी पुष्टि दूसरे चरण की तुक के शब्द "दिगमूढ़' से हो जाती है । "दिगमढ़' में लिपिक ने दीर्घ 'ऊ' की मात्रा ठीक लगाई है। 'मात्रा-विकृति' के रूप कई कारणों से बनते हैं : 1-मात्रा लमाना ही भूल गये । यथा डॉ० माता प्रसाद गुप्त को 'सन्देश रासक' के 24वें छन्द में द्वितीय चरण में 'रिणहई' शब्द मिला है, डॉ० गुप्त मानते हैं कि यहाँ 'पा' मात्रा भूल से छूट गई है । शब्द होगा 'पहाई'। डॉ० माता प्रसाद गुप्त ने बताया है कि 'उ' बाद में 'उ' तथा 'नो' दोनों ध्वनियों के लिए प्रयुक्त होने लगा था । यथा--सन्देश रासक छंद 72 प्रोसहे > उसहे । 2-यह विकृति दो मात्राओं में अभेद स्थापित हो जाने से हुई है। ऐसे ही 'दिव' का 'दय' । 3-यह अनवधानता से हुआ है । 4-'स्मृति-भ्रम' से भी विकृति होती है, जैसे-~-'फरिसउ' लिखा गया 'फरुसउ' के लिए। 5वां कारण वह अनवधानता है जिसमें मात्रा कहीं की कहीं लग जाती है । यह 'मात्राव्यत्यय' इस शब्द में देखा जा सकता है-'बिसुंठल्यं लिखा मिला है 'विसंठुलयं' के लिए।
(आ) अक्षर-विकृत शब्द उन्हें कहेंगे जिनमें 'अक्षर' ऐसे लिखे गये हों कि उन्हें कुछ का कुछ पढ़ लिया जाय। डॉ० माहेश्वरी ने ऐसे अक्षरों की एक सूची प्रस्तुत की है,
1. 'सन्देश रासक' में 100वें छन्द में दूसरे चरण में 'पाडिल्लो' शब्द मिला है। डॉ० माताप्रसाद गुप्त
का मत है कि यह 'पडिल्ली' होगा यहाँ 'ई' का मात्रा-लेखन या पाठ प्रसाद से 'ओ' की मात्रा हो गयी। (भारतीय साहित्य-जनवरी, 1960, पृ. 103)। इससे भी डॉ० माहेश्वरी के उदाहरण
की पुष्टि होती है। ऐसी माना बिकृति का कारण "स्मृति-प्रम' भी हो सकता है। 2. भारतीय साहित्य (जनवरी 1960), पृ. 101,104,1081
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