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पाण्डुलिपियों के प्रकार/151
रद्दी कागज और चिथड़ों को भिगोकर गलाने के बाद लुगदी बनाकर कूट कर बनाए हुए कागज चिपके हुए मिलेंगे, जो सूखने के लिए लगाये जाते हैं। सूखने पर इनको शंख या कौड़ी अथवा हाथीदाँत के गोल टुकड़ों से घोंटकर चिकना बनाया जाता है जिससे स्याही इधर-उधर नहीं फैलती।
इसी प्रकार देश में काश्मीरी, मुगलिया, अरवाल, साहबखानी, खम्भाती, शरिणया, अहमदाबादी, दौलताबादी ग्रादि बहुत प्रकार के कागज प्रसिद्ध हैं और इन पर लिखी हुई पुस्तकें विविध ग्रन्थ-भण्डारों में प्राप्त होती हैं। विलायती कागज का प्रचार होने के बाद भी ग्रन्थों और दस्तावेजों को देशी हाथ के बने कागजों पर लिखने की परम्परा चाल रही है । वास्तव में, अब तो हाथ का बना कागज हाथ के बने कपड़े के साथ संलग्न हो गया है और यत्र-तत्र खादी भण्डारों में हाथ के बने देशी कागज बेचने के कक्ष भी दिखाई देते हैं । देशी कागजों का टिकाऊपन इसी बात से जाना जा सकता है कि सरकारी या गैर-सरकारी अभिलेखागारों में जो कागज-पत्र रखे हुए हैं उनमें से विलायती कागज (चाहे पार्चमैण्ट ही क्यों न हो) पर लिखे हुए लेख देशी कागज पर लिखी सामग्री के आगे फीके और जीर्ण लगते हैं। ग्रन्थागारों में भी देशी कागज पर लिखी प्राचीन पांडुलिपियाँ ऐसी निकलती हैं मानों अभी-अभी की लिखी हुई हों। इन कागजों के नामकरण के विषय में यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि कोई कागज अपने निर्माण-स्थान के नाम से जाना जाता है, तो कोई अपने निर्माता के नाम से । किसी-किसी का नाम उसमें प्रयुक्त सामग्री से भी प्रसिद्ध हुया है, जैसे-शरिणया, मोमिया, बाँसी, भोंगलिया इत्यादि ।
मध्य एशिया में यारकंद नामक नगर से 60 मील दक्षिण में 'कुगिनर' नामक स्थान हैं । वहाँ मिस्टर वेबर को जमीन में गड़े हुए चार ग्रन्थ मिले जो कागज पर संस्कृत भाषा में गुप्त लिपि के लिखे हुए बताये जाते हैं। डॉ० हार्नली का अनुमान है कि ये ग्रन्थ ईसा की पाँचवीं शताब्दी के होने चाहिए । इसी प्रकार मध्य एशिया के ही काशगर आदि स्थानों पर जो पुराने संस्कृत ग्रन्थ मिले हैं वे भी उतने ही पुराने लगते हैं ।
भारत में प्राप्त कागज पर लिखित प्रतियों में वाराणसी के संस्कृत विश्वविद्यालय में सरस्वती भवन पुस्तकालय स्थित भागवत पुराण की एक मिश्रित प्रति का उल्लेख मिलता है। इसकी मूल पुष्पिका का संवत् 1181 (1134 ई०) बताया गया है ।
राजस्थान-प्राच्य-विद्या-प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रह में आनन्दवर्धन कृत ध्वन्यालोक पर अभिनवगुप्त विरचित ध्वन्यालोकलोचन टीका की प्राचीनतम प्रति संवत् 1204 (1146 ई०) की है । इसके पत्र बहुत जीर्ण हो गए हैं, पुष्पिका की अन्तिम पंक्तियाँ भी झड़ गई हैं परन्तु उसकी फोटो प्रति संगह में सुरक्षित है ।
___ महाराजा जयपुर के निजी संग्रह 'पोथीखाना' में पद्मप्रभ सूरि रचित 'भुवनदीपक' पर उन्हीं के शिष्य सिंह तिलक कृत वृत्ति की संवत् 1326 त्रि. की प्रति विद्यमान है । इस वृत्ति का रचना काल भी संवत् 1326 ही है और यह बीजापुर नामक स्थान पर
1. भारतीय प्राचीन लिपि माला, पृ० 1451 व्हलर द्वारा संग्रहीत गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, सिन्ध
और खानदेश के खानगी पुस्तक संग्रहालयों की सूची, भाग 1, पृ. 238 पर इन ग्रंथों का उल्लेख
देखना चाहिए। 2. मैन्युस्क्रिप्ट्स फ्रॉम इण्डियन कलैक्शन्स, नेशनल म्यूजियम, 1964,1.8।
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