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150/ पाण्डुलिपि - विज्ञान
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शब्द भी खूब प्रयुक्त किया गया है। भूर्जपत्र, रेशम, लाल कपड़ा और तालपत्र के समान 'कागद' भी यन्त्र-मन्त्र और पताकाएँ यादि लिखने के काम में प्राता था । ग्रन्थ तो इस पर लिखे ही जाते थे । इसे 'शरण पत्र' भी कहा गया है।
प्रायः कहा जाता है कि सर्वप्रथम ईस्वी सन् 105 में चीन के लोगों ने कागज बनाया | परन्तु, ईसा से 327 वर्ष पूर्व जब यूनान के बादशाह सिकन्दर ने भारत पर हमला किया तब उसके साथ निग्रार्कस नामक सेनापति प्राया था । उसने अपने व्यक्तिगत अनुभव से लिखा है कि उस समय भारत के लोग रूई से कागज बनाते थे । निर्कस सिकन्दर की इस चढ़ाई के समय कुछ समय तक पंजाब में रहा था और उसने यहाँ के हालचाल का अध्ययन करके भारत के लोगों का विस्तृत वर्णन लिखा था, इसका संक्षिप्त रूप एरिश्रम ने अपनी 'इंडिका' नामक पुस्तक में उद्धृत किया है। मैक्समूलर ने भी 'हिस्ट्री ऑफ एंशियेष्ट संस्कृत लिटरेचर' नामक पुस्तक में इसी आधार पर भारतीयों के रूई को कूटकर कागज बनाने की कला से अवगत होने का उल्लेख किया है । इससे ज्ञात होता है कि रूई व चिथड़ों आदि को भिगो कर लुगदी बनाने तथा उसको कूटकर कागज बनाने की विधि से भारतवासी ईसा से चार शताब्दी पूर्व भी अच्छी तरह परिचित थे । परन्तु किसी भी प्रकार ऐसा कागज ताड़पत्र और भूर्जपत्र की अपेक्षा अधिक टिकाऊ और सुलभ नहीं था इसलिए इस पर लिखे ग्रन्थ कम मिलते हैं और उतने पुराने भी नहीं हैं ।
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फिर भी, यह अवश्य कहा जा सकता है कि एशिया और योरोप के अन्य देशों के मुकाबले में भारत ने कागज बनाने की कला पहले ही जान ली थी ।
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भारत में बहुत प्राचीनकाल से कागज बनता रहा है । यहाँ विविध स्थानों पर कागज बनाने के उद्योग स्थापित थे जिनके यत्किचित् परिवर्तित रूप अब भी पाये जाते हैं । कागज बनाना एक गृह उद्योग भी रहा है। काश्मीर, दिल्ली, पटना, शाहाबाद, कानपुर, अहमदाबाद, खंभात, कागजपुरा (अर्थात् दौलताबाद), घोसुण्डा और सांगानेर " श्रादि स्थान कागज बनाने के केन्द्र रहे हैं और इनमें से कई स्थान तो इसी उद्योग के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। दौलताबाद का एक बड़ा भाग तो कागजपुरा ही कहलाता था । अहमदाबाद, घोसुण्डा और सांगानेर में तो कई परिवार कागज का ही उद्योग करते थे और अब भी करते हैं । इन लोगों की बस्तियों में जाकर देखने पर कई मकानों की दीवारों पर रूई,
वाचस्पत्यम् पृ० 1855-56, Sanskrit English Dictionary - by M. M. Williams, P. 268. सुखानन्द कृत शब्दार्थ चिन्तामणि ।
सांगानेर कस्बा जयपुर से 8 मील दक्षिण में है । वहाँ का कागज उद्योग प्रसिद्ध है। सवाई जयसिंह के पुत्र सवाई ईश्वरीसिंह के समय में इस उद्योग को विशेष प्रोत्साहन मिला था। उनके समय में कागज की किस्म और माप कायम की गई और वह कागज 'ईश्वरसाही' कागज कहलाता था । कागज की चिकनाई के अनुसार उस पर राज्य की मोहर लगा दी जाती थी। तद्नुसार वह कागज 'दो मोहरिया' या 'डेढ़ मोहरिया' या 'मोहरिया' कहलाता था। इस व्यवसाय को करने वाले परिवार 'कागदी' या 'कागजी' नाम से प्रसिद्ध है । सांगानेरी कागज बहुत टिकाऊ होता है । भूतपूर्व जयपुर राज्य के बहीखाते, स्टाम्प पेपर और अन्य अभिलेख इसी कागज पर पाये जाते हैं । सामान्य रूप से सुरक्षित रखने योग्य सभी तहरीरें लिखने के लिए इसी का प्रयोग होता था। सत्रहवीं शताब्दी या इसके बाद में लिखे हुए बहुत-से ग्रन्थ भी सांगानेरी कागज पर लिखे पाये जाते हैं ।
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