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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्याय 6 पाठालोचन 'लिपि' की समस्या के पश्चात् 'पाठ' आता है। प्रत्येक ग्रन्थ का मूल लेखक जो लिखता है वह मूल पाठ होता है । मूल पाठ-स्वयं लेखक के हाथ का लिखा हुआ पाठ बहुत महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान वस्तु होती है । यदि किसी भी हस्तलेखागार में किसी भी ग्रंथ का मूल पाठ सुरक्षित है तो उस ग्रंथागार की प्रतिष्ठा और गौरव बहुत बढ़ जाता है। ऐसी प्रति का मूल्य वस्तुतः रुपये-पैसों में नहीं आंका जा सकता। अतः ऐसे ग्रंथ पर आगाराध्यक्ष को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है । मूल-पाठ के उपयोग मूल-पाठ के कितने ही उपयोग हैं । कुछ उपयोग निम्नलिखित प्रकार के हैं : 1- लेखक की लिपि-लेखन शैली का पता चलता है जिससे उसको लिखते समय की स्थिति और अभ्यास का भी ज्ञान हो जाता है। 2-उसकी अपनी वर्तनी-विषयक नीति का पता चलता है । 3-ग्रंथ-संघटन सम्पादन में मूल-पाठ प्रादर्श का काम दे सकता है। वस्तुतः पाठालोचन-विज्ञान इस मूलपाठ की खोज करने वाला विज्ञान ही है। 4-मूल-पाठ से लेखक की शब्दार्थ-विषयक-प्रतिभा का शुद्ध ज्ञान होता है। 5-मूलपाठ से अन्य उपलब्ध पाठों को मिलाने से पाठान्तरों और पाठभेदों में लिपि, वर्तनी और शब्दार्थ के रूपान्तर में होने वाली प्रक्रिया का पता चल जाता है। इस प्रक्रिया का ज्ञान अन्य पाठालोचनों में बहुत सहायक हो सकता है। 6--मूलपाठ के कागज, स्याही, पृष्ठांकन, तिथिलेखन, चित्र, हाशिया, हड़ताल उपयोग, आकार, ग्रंथन आदि से बहुत-सी ऐतिहासिक बातें विदित हो सकती हैं या उनकी पुष्टि-अपुष्टि हो सकती है । कागज-स्याही आदि के अलग-अलग इतिहास में भी ये बातें उपयोगी हैं । लिपिक का सर्जन अतः हस्तलेखाधिकारी को अपेक्षित है कि वह इनके सम्बन्ध में सामान्य वैज्ञानिक और ऐतिहासिक सूचनाएँ अपने पास रखे । ये सूचनाएँ उसके स्वयं के लिए भी उपयोगी और मार्ग-दर्शक हो सकती हैं । किन्तु सभी हस्तलेख मूलपाठ में नहीं होते हैं । वे तो मूलपाठ के वंश की आगे की कई पीढ़ियों से आगे के हो सकते हैं। मूलपाठ से प्रारम्भ में जितनी प्रतिलिपियाँ तैयार हुई वे सभी मूलपाठ के वंश की प्रथम स्थानीय संताने मानी जा सकती हैं । मूल-पाठ से ही मान लीजिये तीन लिपिक प्रतिलिपि प्रस्तुत करते हैंवह इस प्रकार : पहला लिपिक-3 प्रतियाँ दूसरा लिपिक --2 प्रतियाँ तीसरा लिपिक -4 प्रतियाँ For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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