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216/पाण्डुलिपि-विज्ञान
अब यह स्पष्ट है कि प्रत्येक लिपिक अपनी ही पद्धति से प्रतिलिपि प्रस्तुत करेगा। हम इस सम्बन्ध में 'अनुसंधान' में जो लिख चुके हैं उसे उद्धृत करना समीचीन समझते हैं : पाठ की अशुद्धि और लिपिक
"प्राचीनकाल में प्रेस के अभाव में ग्रंथों को लिपिक द्वारा लिखवा-लिखवा कर पढ़ने वालों के लिए प्रस्तुत किया जाता था । फल यह होता था कि लिपिक की कितनी ही प्रकार की अयोग्यताओं के कारण पाठ अशुद्ध हो जाता था, यथा लिपिक में रचयिता की लिपि को ठीक-ठीक पढ़ने की योग्यता न हो तो पाठ अशुद्ध हो जायगा। सभी लेखकों के हस्तलेख सुन्दर नहीं होते, यदि लिपिक बुद्धिमान न हुआ और ग्रंथ के विषय से अपरिचित हुआ अथवा उसका शब्दकोष बहुत सीमित हुअा तो वह किसी शब्द को कुछ का कुछ लिख सकता है।
शब्द विकार : काल्पनिक
____ 'राम' को राय पढ़ लेना या 'राय' को राम पढ़ लेना असम्भव नहीं । र और व (र व) को 'ख' समझा जा सकता है । ऐसे एक नहीं अनेक स्थल किसी भी हस्तलिखित ग्रंथ को पढ़ने में आते हैं, जहाँ किंचित् असावधानी के कारण कुछ का कुछ पढ़ा जा सकता है और फलतः लिपिक भ्रम से कुछ का कुछ लिख सकता है। इस भ्रम की परम्परा लिपिक से लिपिक तक चलते-चलते किसी मूल शब्द में भयंकर विकार पैदा कर देती है, परिणामतः काव्य के अर्थ ही कुछ के कुछ हो जाते हैं, उदाहरणार्थ--- लेखक ने लिखा
-राम पहले लिपिक ने पढ़ा दूसरे ने इसे पढ़ा -राच (लिखने में य की शीर्ष रेखा कुछ हटा ली तो
'य' को 'च' पढ़ लिया गया ।) तीसरे ने इसे पढ़ा ---सच (उसे लगा कि र और 'पा' के डंडे के बीच 'स'
बनाने वाली रेखा भूल से छूट गई है।) चौथे ने इसे पढ़ा
-सत्र ('च' लिपिक की शैली के कारण चत्र पढ़ा
जा सकता है।) पाँचवे ने इसे पढ़ा -रुच ('स' को जल्दी में रु के रूप में लिखा या पढ़ा
जा सकता है।) इस शब्द के विकार का यह एक काल्पनिक इतिहास दिया गया है, पर होता ऐसा ही है, इनमें संदेह नहीं । इसके कुछ यथार्थ उदाहरप भी यहाँ दिये जाते हैं : शब्द-विकार-~-यथार्थ उदाहरण 'पद्मावत'-~में "होइ लगा जेंवनार सुसारा-पाठः सा. प. गुप्त
___ "होइ लगा जेंवनार पसाहा---पाठः प्रा. शुक्ल एक ने 'ससारा' पढ़ा, दूसरे ने 'पसारा' ।
'मानस' के एक पाठ में एक स्थान पर 'सुसारा' है, बाबू श्यामसुन्दर दास के पाट में 'सुपारा' है।
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