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काल निर्धारण/255
माघ महीने के असित पक्ष अर्थात् कृष्णपक्ष में ऋतु शिशिर, तथा
भानु मकर के-यह पवित्र संयोग । इसमें कवि ने ऋतु का भी उल्लेख किया है और महीने का भी । स्पष्ट है कि यह कवि मामान्य परिपाटी से अपने को भिन्न सिद्ध करने के प्रयत्न
काल संकेत की सामान्य पद्धति यह है कि यदि कवि शब्दों में काल-संकेत देता है तो वह संवत् को शब्दांकों में रखता है, तिथि को नहीं । इस कवि ने तिथि को शब्दांकों में रखा है जो क्रमश: 1,4,6 होता है। अतः तीनों को जोड़कर (11) तिथि निकाली गयी। पर संवत् को अंकों में दिया है, उसे भी वैशिष्ट्य के साथ सत्रह से सोरह + दस । यहाँ भी संवत् जोड़ के प्राप्त होता है-संवत् सत्रह से छब्बीस - 1726 ।
इस बात में भी यह अनोखा है कि इसमें महीना भी दिया गया है और ऋतु भी साथ है । यह पद्धति किसी-किसी अभिलेख में भी मिलती है ।
काल-संकेत की यह एक जटिल पद्धति मानी जा सकती है। सामान्य पद्धति
अब हम देखेंगे कि सामान्य पद्धति क्या होती है : सामान्य पद्धति में संवत अंकों में किन्तु अक्षरों में दिया जायेगा। 1726 को अक्षरों में 'सत्रह सै छब्बीस' लिखा जायेगा। कहीं-कहीं पांडुलिपियों में संवत् को अक्षरों में देकर उसी के साथ अंकों में भी लिख दिया गया है, यथा 'सत्रह मै छब्बीस १७२६' तिथि भी अंकों में अक्षरों के द्वारा अर्थात् ग्यारस (११)।
सामान्य रूप से संवत् और तिथि के साथ दिन का, महीने का और पक्ष का उल्लेख भी किया जाता है।
इस रूप के अतिरिक्त जो कुछ भी वैशिष्ट्य लाया जाता है, वह कवि-कौशल माना जायेगा।
___ यह सन्-संवत् रचना के काल के लिये ही नहीं दिया जाता, इससे लिपि-काल भी द्योतित किया जाता है, लिपिकर्ता भी अपना वैशिष्ट्य दिखा सकता है। कठिनाइयाँ
अब कुछ यथार्थ कठिनाइयों के उदाहरणों से यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि कठिनाई का मूल कारण क्या है ? पुष्पिका
संवत् पर टिप्परिणयां 1. बीसल देव रासो की एक प्रति में 1. प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'बारह से रचना-तिथि यों दी गई है :
बहोत्तराहां' का अर्थ 1212 किया बारह से बहोत्तराहां मॅझारि,
है। बहोत्तर द्वादशोत्तर का रूपान्तर जेठ बदी नवमी बुधिवारि । नाल्ह रसाइण आरम्भइ ।
2. बहोत्तर को बहत्तर (72) का रूपाशारदा तुठी ब्रह्म कुमारि ।
न्तर क्यों न माना जाय । लाला कासमीरां मुख मंडनी।
सीताराम ऐसा ही मानते हैं।
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