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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 180/पाण्डुलिपि-विज्ञान और दूसरा चरण है उससे संप्रेषण का काम लेना । इसे हम 2. बिब-लिपि का नाम दे सकते हैं। इस चित्र से स्पष्ट है कि स्वस्तिक पूजा और छत्र-अर्पण के पूरे शान्तिमय भाव को प्रेषित करने के लिए, पूजा-भाव में पशुओं के मादर के समावेश की कथा को और पूजाविधान को हृदयंगम कराने के लिए चित्र-लेखक इस चित्र के द्वारा बिम्बों से संप्रेषित करना चाहता है । अतः यह लिपि का काम कर उठा है । यह लिपि ध्वनियों की नहीं, बिम्बों की है। छत्रधारी मनुष्य कितने ही हैं, अतः वे लघु प्राकृतियों में हैं। 'बिम्ब धीरे-धीरे रेखाकारों के रूप में परिवर्तित हो उठता है । तब हम इसे 3. रेखाकार चित्र-लिपि कह सकते हैं। सहनर्तन, जम्बूद्वीप (पचमढ़ी) आरोही नर्तक, कुप्पगल्लु (बेलारी, रायचूर, द० भा० ) 4-तब, पागे बिम्ब-लिपि और रेखाचित्र-लिपि के संयोग से 'चित्रलिपि' प्रस्तुत १.11.11 ऐरिजोना (अमेरिका) में प्राप्त चित्र लिपि, जो प्राचीनतम लिपियों में से एक है] For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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