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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काल निर्धारण/ 251 जिन बातों से वह परिचित नहीं वह उन बातों से पूर्व हुआ। तो वह उपनिषद् युग से पूर्व रहे होंगे । इसका दूसरा पक्ष है कि वह किनसे देरिचित था, यथा- ऋग्वेद, सामवेद और कृष्णयजुर्वेद से परिचित थे । फलतः जिनसे परिचित थे उनकी समयावधि के बाद और जिनसे परिचित उनके लोक प्रचलित होने के काल से पूर्व पानि विद्यमान रहे अर्थात् 400 ई० पु० । अव गोल्डस्टुकर के इस निष्कर्ष को अमान्य करने के लिए डा वासुदेव शरण अग्रवाल ने श्रष्टाध्यायी से ही यह बताया है कि (1) पारिपनि, 'उपनिषद्' शब्द से परिचित थे, पाणिनि महाभारत से भी परिचित थे, वे श्लोक और श्लोककारों का उल्लेख करते हैं, 'नटसूत्र, शिशु क्रन्दीय, यमसभीय, इन्द्रनर्तनीय जैसे संस्कृत के महान काव्यों का भी ज्ञान रखते । डाँ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने अष्टाध्यायी के भौगोलिक उल्लेखों से इस तर्क को भी मान्य कर दिया है कि पारिणनि 'दक्षिण' से अपरिचित थे । ग्रन्तरयन देश, ग्रश्मक. एवं कलिंग ग्रष्टाध्यायी में आये हैं । मस्करी परिव्राजकों के उल्लेख में मंखली गोसाल से परिचित थे । (पाणिनि) मंखली गोसाल बुद्ध के समकालीन थे । अतः इस सन्दर्भ से और कुमारश्रमरण और निर्वारण जैसे शब्दों के अष्टाध्यायी में आने से बौद्ध धर्म से उन्हें अपरिचित नहीं माना जा सकता । श्रविष्ठा ( या धनिष्ठा) को नक्षत्र-व्यूह में प्रथम स्थान देकर पाणिनि ने यह सिद्ध कर दिया है कि उनकी कालावधि की निम्नस्थ तिथि 400 ई० पू० हो सकती है । पाणिनि ने लिपि, लिपिकार, यवनानी लिपि तथा 'ग्रन्थ' शब्द का उपयोग किया है । यवनानी लिपि से कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला था कि भारत में यवनों से परिचय सिकन्दर के आक्रमण से हुआ, अतः अष्टाध्यायी में ' यवनानी लिपि' का श्राना यह सिद्ध करता है कि पाणिनि सिकन्दर के बाद हुए। पर यह 'यवनानी' शब्द प्रायोनियन ( Ionian ) ग्रीस निवासियों के लिए आया है, जिनसे भारत का सम्बन्ध सिकन्दर से बहुत पहले था । यहाँ काल-निर्धारण में अन्तरंग साक्ष्य का मूल्य बताने के लिए पारिपनि के सम्बन्ध में यह स्थूल चर्चा डॉ॰ वासुदेवशरण अग्रवाल के ग्रंथ India as Known to Panini (पाणिनि कालीन भारत) के आधार पर की गई है । विस्तार के लिए यही ग्रंथ देखें । यहाँ हमने यह बताने का प्रयत्न किया है कि किस ग्रंथ या ग्रंथकार के समय निर्धारण में उसके ग्रन्थ में आयी सामग्री के आधार पर भी निर्भर किया जा सकता है । उसके ग्रन्थ के अध्ययन से एक ओर तो यह ज्ञात होता है कि वह किन बातों नहीं था । तथा दूसरी ओर यह भी ज्ञात होता है कि वह किन बातों से For Private and Personal Use Only से परिचित परिचित था । " 1. जैसे रुद्रट का समय निर्धारित करते हुए काणे महोदय ने बताया कि "वह ध्वनि- सिद्धान्त से पूर्णतः अपरिचित है ।" अतः वनिकार का समसामयिक था उससे कुछ पूर्व । 2. काणे महोदय ने बताया है कि रुद्रट की भामह गोर उद्भट से बहुत निकटता है । रुद्रट ने मामह, दण्डी एवं उद्भट से अधिक अलंकारों की चर्चा की है और इसकी प्रणाली भी वैज्ञानिक है । किसी के विकास के चरणों के अनुमान को भी एक प्रमाण माना जा सकता है ।
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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