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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 248, पाण्डुलिपि - विज्ञान www.kobatirth.org है। शक संवत् जिस घटना से प्रारम्भ हुआ वह 78 ई० अवन्ति की विजय । इसी विजय के उपलक्ष्य में अवन्ति में हुआ जिसे प्रारम्भ में बिना नाम के काम में लिया गया। या शाके शब्द का प्रयोग नियमित रूप से होने लगा । शक सं० 500 से 1263 तक के शिलालेखों में वर्ष के साथ नीचे लिखी शब्दावली का प्रयोग किया गया : संवत् के लेख के साथ 'शक' शब्द संवत् 500 के शिलालेखों से जुड़ा हुआ मिलता में घटी। वह थी चष्टण द्वारा 78 ई० में यह संवत् प्रारम्भ इसके बाद 500 वें वर्ष के शक (1) शकनृपति राज्याभिषेक संवत्सर (2) शकनृपति संवत्सर (2) शकतृप संवत्सर ( 4 ) शकनृपकाल ( 5 ) शक संवत ( 6 ) शक (7) शाक' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्पष्ट है कि आरम्भ में 'राज्य वर्ष' के रूप में इस शकनृपति के राज्याभिषेक का संवत् माना गया । उस राज्याभिषेक का अभिप्राय शकों की विजय के उपरान्त हुए अभिषेक से था । इसी शक संवत् के साथ शालिवाहन शब्द भी जुड़ गया और यह 'शाके शालिवाहन' कहलाने लगा। इस प्रकार यह दक्षिण तथा उत्तर में लोकप्रिय हो गया । शिलालेखों में सबसे पहले हमें नियमित संवत् के रूप में शक संवत् का ही उल्लेख मिलता है | अतः 'काल संकेत' की एक प्रणाली तो राजा के शिलालेख यानी राजा द्वारा लिखाये गये शिलालेख के लिखे जाने के समय का उल्लेख उसी के राज्य के वर्ष के उल्लेख की प्रणाली में मिलता है । तब, नियमित संवत् देने की परिपाटी से दूसरे प्रकार का 'कालसंकेत' हमें मिलता है । इस शिलालेख से हमें राज्य वर्ष किस प्रकार इन काल संकेतों से भी कुछ समस्याएँ प्रस्तुत होती हैं जिनमें से पहली समस्या राजा के अपने राज्य वर्ष के निर्धारण की है । अशोक के 8वें वर्ष में कोई शिलालेख लिखा गया तो अशोक के सन्दर्भ में तो उसके राज्यकाल के 8वें वर्ष का ज्ञान उपलब्ध हो जाता है किन्तु इतिहास के कालक्रम में किसी राजा का से अपने स्थान पर बिठाया जायेगा, यह समस्या खड़ी होती है । यह समस्या तब कुछ कठिन हो सकती है जब वह राजा कोई ऐसा राजा हो जिसके राज्यारोहरण का वर्ष कहीं से भी उपलब्ध न होता हो । यथार्थ में ऐसे काल संकेत से ठीक-ठीक काल निर्धारण ऐसी स्थिति में तभी हो सकता है कि जब राजा के राज्यारोहरण-काल का ज्ञान हमें सन् संवत की उस प्रणाली में उपलब्ध हो सके जिसे हम अपने सामान्य इतिहास में काम में लाते हैं । जैसे, आधुनिक इतिहास में हम ई० सन् का उपयोग करते हैं और उसी के आधार पर ई० सन् के पूर्व की घटनाओं को भी ( ई० पू० द्वारा) द्योतित करते हैं । जब 'काल-संकेत' दूसरी प्रणाली से दिया गया हो जिसमें किसी नियमित संवत् का निर्देश हो तो समस्या यह उपस्थित होती है कि उसे उस कालक्रम में किस प्रकार यथास्थान बिठाया जाय जिसका उपयोग हम वर्तमान समय में इतिहास में करते हैं । जैसे 1. Pandey, Rajbali - Indian Palaeography, p. 191. For Private and Personal Use Only ---
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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