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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 284 / पाण्डुलिपि - विज्ञान रामचन्द्रिका 1658 में रची। मूल गुसांई चरित में 1643 व्यंजित होती है । फिर, तथ्य है कि केशव की मृत्यु 1670 के बाद हुई, तब 1651 में केशवका प्रेत तुलसी से कैसे मिला, यह तथ्य - विरोधी बात है अतः अमान्य है । संख्या 14 में संवत् दिये गये हैं उनमें तिथियाँ तथा अन्य विस्तार भी हैं जिनसे उनकी परीक्षा 'गरणना' द्वारा की जा सकती है। 'पुरातत्त्व विभाग' की गणना से तथा डॉ० माताप्रसाद गुप्त की गणना से कई तिथियाँ अमान्य हैं, क्योंकि वे सत्यापित नहीं होतीं । 'गरणना' का आधार सबसे अधिक वैज्ञानिक और प्रामाणिक होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस प्रकार हमने इस एक उदाहरण से देखा है कि 'प्रौढ़ता द्योतक क्रम की श्रवहेलना प्रसंगति असम्भावना, तथ्य विरोध एवं 'गणना' से प्रसिद्ध होना कुछ ऐसी बातें हैं जिनसे प्रामाणिकता श्रमान्य हो जाती है । ऐसा 'बहिःसाक्ष्य' यदि प्रामाणिक हो तो बहुत महत्त्वपूर्ण हो सकता है । यतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि बहिःसाक्ष्य को महत्त्व देते समय उसकी प्रामाणिकता की परीक्षा हो जानी चाहिये । जो प्रामाणिक है, वही महत्त्व का हो सकता है । कितने ही ऐसे कवि या व्यक्ति हो सकते हैं जिनका पता ही बहिःसाक्ष्य से लगता है । जैसे—उपर्युक्त 'तुलसी चरित' और उसके लेखक का पहला उल्लेख 'शिवसिंह सेंगर' के 'शिवसिंह सरोज' में मिलता है । पर वह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ । जो उपलब्ध हुआ बनावटी ग्रन्थ है । इसी प्रकार संस्कृत आचार्य भामह ने दो स्थानों पर एक मेधाविन् का उल्लेख किया है । 'त एत उपमादोषाः सप्त मेघाविनोदिताः ' ( II - 40 ) तथा ' यथासंख्यमथोत्प्रेक्षामलंकार विदुः । संख्यानमिति मेधाविनोत्प्रेक्षाभिहिता क्वचित' 1 इनसे विदित होता है कि किसी मेघावी या मेघाविन् ने उपमा के सात दोष बताये हैं, तथा वह 'यथासख्य' अलंकार को 'संख्यान' नाम देता है, और उसको अलंकार नहीं कहता । इस उल्लेख से 'मेघाविन्' का नाम सामने आता है जिससे पहले विद्वान् परिचित नहीं थे। तब, भामह के बाद इसकी पुष्टि मिसाधु से भी हो जाती है, मेघाविन् या मेघाविरुद्र नाम का प्राचार्य हुआ है -- यह भी अलंकारशास्त्र का प्राचार्य था । भामह के उल्लेख से 'मेघाविन्' की निचली काल सीमा भी निर्धारित हो जाती है । भामह की कालावधि काणे ने 500 और 600 ई० के बीच दी है। 500 भामह के काल की ऊपरी सीमा और 600 निचली अवधि | 'मेघाविन्' भामह से पूर्व हुए थे । इस प्रकार बाह्य उल्लेखों से अज्ञात कवि का पता भी चलता है, और उसकी निचली कालावधि भी ज्ञात हो जाती है । ऐसे प्रसंग पांडुलिपि - विज्ञानार्थी के लिये चुनौती का काम करते हैं कि वह प्रयत्न करे और ऐसे कवि की किसी कृति का उद्घाटन करे । 1. अनुश्रुतिया जन श्रुति लोक में प्रचलित प्रवादों को एकत्र कर परीक्षापूर्वक प्रामाणिक मान कर उनके आधार पर काल विषयक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । जैसे-यह जनश्रुति कि मीराँ ने तुलसी को पत्र लिखा था, और तुलसी ने भी उत्तर दिया था । यदि यह सत्यापित हो Kane. P. V. -- Sahityadarpan (Introduction), P. XII. For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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