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19. मध्य (उद्धरण)
20 अन्त (उद्धरण)
21. ग्रन्थ में आयी सभी पुष्पिकाएँ
पांडुलिपि प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान / 91
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शोध-विवरण का यह प्रारूप अपने-अपने दृष्टिकोण से घटा-बढ़ा कर बनाया जा सकता है । इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि कोई भी महत्त्वपूर्ण बात छूट नहीं सकती है और सूचनाएँ क्रमांक युक्त हैं । यथार्थ से इन ग्रंकों का उपयोग भी लाभप्रद हो सकता है ।
विवरण लेखन मे दृष्टि
डॉ० नारायणसिंह भाटी ने 'परम्परा'" में डॉ० टेसीटरी के राजस्थानी ग्रन्थ सर्वेक्षण अंक' में सम्पादकीय में डॉ० टेसीटरी के शोध सिद्धान्तों को संक्षेप में अपने शब्दों में दिया है । वे इस प्रकार हैं :
1. " ग्रन्थ का परिचय देने से पहले उन्होंने बड़े गौर से उसे आद्योपान्त पढ़ा है तथा पूरे ग्रन्थ में कोई भी उपयोगी तथ्य मिला है उसका उल्लेख अवश्य किया है ।
2. डिंगल में पद्य और गद्य दोनों ही विधाओं के अधिकांश ग्रन्थ ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित हैं । अतः उन्होंने इतिहास को कहीं भी अपनी दृष्टि प्रोल नहीं होने दिया है । उस समय कर्नल टॉड के 'राजस्थान' के अतिरिक्त यहाँ का कोई प्रामाणिक इतिहास प्रकाशित नहीं था । अतः ऐसी स्थिति में भी ऐतिहासिक तथ्यों पर टिप्पणी करते समय लेखक ने सचेष्ट जागरूकता का परिचय दिया है और अनेक स्थलों पर अपना मत व्यक्त करते हुए शोधकर्त्ताओं के लिए कई गुत्थियों को सुलझाने का भी प्रयास किया है ।
3. कृति में से उद्धरण चुनते समय प्रायः इतिहास, भाषा अथवा कृति के लेखक व संवत् आदि तथ्यों को पाठक के सम्मुख रखने का उद्देश्य रखा है । उद्धरण अक्षरशः उसी रूप में लिए गये हैं जैसे मूल में उपलब्ध हैं ।
4. एक ही ग्रन्थ 'प्रायः अनेक कृतियाँ संगृहीत है परन्तु प्रत्येक कृति का शीर्षक लिपिकर्ता द्वारा नहीं दिया गया है । ऐसी कृतियों पर सुविधा के लिए टॅसीटरी ने अपनी ओर से राजस्थानी शीर्षक लगा दिये हैं ।
1. परम्परा (28--29), पृ. 1-2 ।
5. जो कृतियाँ ऐतिहासिक व साहित्यिक दृष्टि से मूल्यवान नहीं हैं उनका या तो उल्लेख मात्र कर दिया है या निरर्थक समझ कर छोड़ दिया है. परन्तु ऐसे स्थलों पर उनके छोड़े जाने का उल्लेख अवश्य कर दिया है ।
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