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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 222 / पाण्डुलिपि-विज्ञान www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नहीं करता तो प्रक्षिप्तांश किसके रचे हैं, यह समस्या बनी रहती, जैसी कि 'रामचरितमानस' के गंगावतरणादि के सम्बन्ध में बनी हुई है । ( 3 ) कभी-कभी कवि के अधूरे काव्य को उसी कवि के पुत्र या शिष्य पूरा करते हैं या उसमें आगे कुछ परिवर्द्धन करते हैं, और कभी-कभी पूर्व कृतित्व को भी संशोधित कर देते हैं । (4) किसी बिखरी सामग्री को एक व्यवस्था में रखते समय बीच की लुप्त कड़ियों को जोड़ने के प्रयत्न भी कविगरण करते हैं, और ये कड़ियां या तो व्यवस्था करने वाला कवि अपने कौशल से जोड़ देता है, जैसे कुशललाभ ने लोक प्रचलित 'ढोला मारू रा दूहा' के दोहे को लेकर उन्हें एक व्यवस्था में बांधा और कथा - पूर्ति के लिए बीच-बीच में चौपाई द्वारा अपना कृतित्व दिया। इस प्रकार पूरक कृतित्व के रूप में वह एक अन्य कृति में अपने कृतित्व का समावेश करता है या फिर वह किसी अन्य कवि से उपयोग सामग्री ले लेता है और अपनी पाठ्य-कृति में जोड़ देता है | (5) मुक्तकों के संग्रह ग्रन्थों में समान-भाव के मुक्तक अन्य कवियों के भी स्थान पा लें तो आश्चर्य नहीं । ऐसे संग्रहों में नाम छाप भी बदल दी जाती है । 'सूरसागर' में ऐसे पद मिलते हैं जो किसी अन्य कवि के हो सकते हैं । यह नाम छाप की अदला-बदली कभी-कभी लोक-क्षेत्र में अत्यन्त लोकप्रिय कवियों के साथ हो जाती है | कबीर, मीरा, सूर, तुलसी की छाप गायक चाहे जिस पद में लगा देता है । फलतः पाठानुसंधान का धर्म है कि ऐसे प्रक्षेपों या क्षेपकों को वैज्ञानिक प्रणाली से पहचाने और उन्हें निकाल कर प्रामाणिक मूल प्रस्तुत करें। यह वैज्ञानिक प्रणाली से होना चाहिये, स्वेच्छा या वैज्ञानिक ढंग से नहीं । अवैज्ञानिक ढंग से स्वेच्छ या जैनोडोटस जैसे विद्वान ने होमर की कृति का सम्पादन करते समय बहुत सा अंश निकाल दिया था । उसकी में वह अंश प्रक्षिप्त था, जबकि आगे के विद्वानों ने वैज्ञानिक पद्धति से पाया कि वे अंश प्रक्षिप्त नहीं थे 1 छूट : प्रक्षेपों की भांति ही काव्य में 'छूट' भी हो सकती है । प्रतिलिपिकार कभी तो प्रमाद में कोई पंक्ति, शब्द या अक्षर छोड़ जाता है पर कभी वह प्रतिलिपि किसी विशेष दृष्टि से करता है और कुछ अंशों को अपने लिए अनावश्यक समझ कर छोड़ देता है । पाठालोचन का यह कार्य भी होता है कि ऐसी छूटों की भी प्रामाणिक मूल पाठ की प्रतिष्ठा करके वह पूर्ति करे । अप्रामाणिक कृतियाँ : यहीं यह बताना भी आवश्यक है कि कभी-कभी ऐसी कृतियाँ भी मिल जाती हैं जो पूरी की पूरी प्रामाणिक होती है । उस ग्रन्थ का रचयिता, जो कवि उस ग्रन्थ में बताया गया है, यथार्थतः वह उसका कर्त्ता नहीं होता । इस छल का उद्घाटन पाठालोचन ही कर सकता है । 1. Smith. William, (Ed)--Dictionary of Greek and Roman Biography and Mythology, p. 510-512. For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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