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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 186, पाण्डुलिपि-विज्ञान पूर्व उन्होंने भी मेजर विल्फोर्ड की कुञ्जी का उपयोग न करने की बाबत दुःख प्रकट किया था । एक शोधकर्ता जिज्ञासु विद्वान को ऐसी बात पर दुःख होना स्वाभाविक भी है । परन्तु उस विद्वान ब्राह्मण की बताई हुई कुञ्जी का अधिक उपयोग नहीं हुआ, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार शोध-खोज के दूसरे कामों में मेजर विल्फोर्ड की श्रद्धा का श्राद्ध करने वाले चालाक ब्राह्मण के धोखे में वे आ गये इसी प्रकार इस विषय में भी वही बात हुई । कुछ भी हुआ हो, यह तो निश्चित है कि मेजर विल्फोर्ड के नाम से कहलाने वाली सम्पूर्ण खोज भ्रमपूर्ण थी। क्योंकि उनका पढ़ा हुआ लेख-पाठ कल्पित था और तदनुसार उसका अनुवाद भी वैसा ही निर्मूल था-युधिष्ठिर और पाण्डवों के वनवास एवं निर्जन जंगलों में परिभ्रमण की गाथाओं को लेकर ऐसा गड़बड़-घोटाला किया गया है कि कुछ समझ में नहीं आता। उस धूर्त ब्राह्मण के बताए हुए ऊटपटांग अर्थ का अनुसंधान करने के लिए विल्फोर्ड ने ऐसी कल्पना कर ली थी कि पाण्डव अपने वनवासकाल में किसी भी मनुष्य के संसर्ग में न आने के लिए वचनबद्ध थे। इसलिए विदुर, व्यास आदि उनके स्नेही सम्बन्धियों ने उनको सावधान करने की सूचना देते रहने के लिए ऐसी योजना की थी कि वे जंगलों में, पत्थरों और शिलाओं (चट्टानों) पर थोड़े-थोडे और साधारणतया समझ में न आने योग्य वाक्य पहले ही से निश्चित की हुई लिपि में संकेत रूप से लिख-लिख कर अपना उद्देश्य पूरा करते रहते थे। अंग्रेज लोग अपने को बहुत बुद्धिमान मानते हैं और हंसते-हंसते दुनिया के दूसरे लोगों को ठगने की कला उनको याद है परन्तु वे भी एक बार तो भारतवर्ष की स्वर्गपुरी मानी जाने वाली काशी के 'वृद्ध गुरु' के जाल में फँस ही गये, अस्तु । एशियाटिक सोसाइटी के पास दिल्ली और इलाहाबाद के स्तम्भों तथा खण्डगिरी के दरवाजों पर के लेखों की नकलें एकत्रित थीं, परन्तु विल्फोर्ड साहब की 'शोध' निष्फल चली जाने के कारण कितने ही वर्षों तक उनके पढ़ने का कोई प्रयत्न नहीं हुमा । इन लेखों के मर्म को जानने की उत्कट जिज्ञासा को लिए हुए मिस्टर बेम्स प्रिंसेप ने 1834-45 ई० में इलाहाबाद, रधिया और मथिमा के स्तम्भों पर उत्कीर्ण लेखों की छापें मंगवायी और उनको दिल्ली के लेख के साथ रखकर यह जानने का प्रयत्न किया कि उनमें कोई शब्द एक सरीखा है या नहीं। इस प्रकार उन चारों लेखों को पास-पास रखने से उनको तुरन्त ज्ञात हो गया कि ये चारों लेख एक ही प्रकार के हैं । इससे प्रिंसेप का उत्साह बढ़ा और उनकी जिज्ञासा पूर्ण होने की आशा बंध गई । इसके पश्चात् उन्होंने इलाहाबाद स्तम्भ के लेख के भिन्न-भिन्न आकृति वाले अक्षरों को अलग-अलग छाँट लिया। इससे उनको यह बात मालूम हो गयी कि गुप्त लिपि के अक्षरों की भांति इसमें भी कितने ही अक्षरों के साथ स्वरों की मात्राओं के भिन्न-भिन्न पाँच चिह्न लगे हुए हैं। इसके बाद उन्होंने पाँचों चिह्नों को 1. ऐसी ही एक घटना इतिहास में नेपोलियन के समय में हई थी। उस समय मिली फराऊनों की लिपि पढने के प्रयास हो रहे थे। फ्रान्स में शांपोलियो नाम का विदवान इस लिपि के उदघाटन में संलग्न थे। इसी समय शांपोलियों की एक पुस्तक मिली जिसके लेखक ने यह दावा किया था कि उसने लिपि पढ़ने की कूजी दल ली है। पर वह कुजी भी ठीक ऐसी ही काल्पनिक और निराधर थी जैसी काशी में 'वृद्ध गुरु' ने भारतीय लिपियों के लिए निकाली थी। शापोलियों ने उसकी पोल तत्काल खोल दी थी। अतः वहाँ वह छल इसने समय तक नहीं चल सका जितने समय तक भारत में For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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