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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-समस्या/187 एकत्रित करके प्रकट किया। इससे कितने ही विद्वानों का इन अक्षरों के यूनानी अक्षर होने सम्बन्धी भ्रम दूर हो गया। अशोक के लेखों की लिपि को देखकर साधारणतया अंग्रेजी अथवा ग्रीक लिपि की भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है । टॉम कोरिएट नामक यात्री ने अशोक के दिल्ली वाले स्तम्भलेख को देखकर एल. व्हीटर को एक पत्र में लिखा था कि "मैं इस देश के दिल्ली नामक नगर में आया हूँ कि जहाँ पहले अलेक्जेण्डर ने हिन्दुस्तान के पोरस नामक राजा को हराया था और अपनी विजय की स्मृति में एक विशाल स्तम्भ खड़ा किया था जो आज भी यहाँ पर मौजूद है।" पादरी एडवर्ड टेरी ने लिखा है कि "टॉम कोरिएट ने मुझे कहा था कि उसने दिल्ली में ग्रीक लेख वाला एक स्तम्भ देखा था जो अलेक्जेण्डर महान् की स्मृति में वहाँ पर खड़ा किया गया था।" इस प्रकार दूसरे भी कितने ही लेखकों ने इस लेख को ग्रीक लेख ही माना था। उपर्युक्त प्रकार से स्वर-चिह्नों को पहचान लेने के बाद मि० जेम्स प्रिंसेप ने अक्षरों के पहचानने का उद्योग प्रारम्भ किया। उन्होंने पहले प्रत्येक अक्षर को गुप्त लिपि के अक्षरों के साथ मिलाने और मिलते हुए अक्षरों को वर्णमाला में शामिल करने का क्रम अपनाया। इस रीति से बहुत-से अक्षर उनकी जानकारी में आ गये। ... पादरी जेम्स स्टीवेन्सन् ने भी प्रिंसेप साहब की तरह इसी शोधन में अनुरक्त होकर 'क' 'ज' 'थ' 'प' और 'व' अक्षरों को पहचाना और इन्हीं अक्षरों की सहायता से पूरे लेखों को पढ़कर उनका अनुवाद करने का मनोरथ किया, परन्तु कुछ तो अक्षरों की पहचान में भूल होने के कारण, कुछ वर्णमाला की अपूर्णता के कारण और कुछ इन लेखों की भाषा को संस्कृत समझ लेने के कारण यह उद्योग पूरा-पूरा सफल नहीं हुआ। फिर भी प्रिंसेप को इससे कोई निराशा नहीं हुई। सन् 1835 ई० में प्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञः प्रो० लॉसेन ने एक ऑस्ट्रियन ग्रीक सिक्के पर इन्हीं अक्षरों में लिखा हुआ अंग थाँ किलस का नाम पढ़ा । परन्तु 1837 ई. के प्रारम्भ में मि० प्रिंसेप ने अपनी अलौकिक स्फुरणा द्वारा एक छोटासा 'दान' शब्द-पोध निकाला जिससे इस विषय की बहुत-सी ग्रन्थियाँ एकदम सुलझ गई। इसका विवरण इस प्रकार है । ई० स० 1837 में प्रिंसेप ने साँची स्तूप आदि पर खुदे हुए कितने ही छोटे-छोटे लेखों की छापों को एकत्रित करके देखा तो बहुत-से लेखों के अन्त में दो अक्षर एक ही सरीखे जान पड़े और उनके पहले 'स' अक्षर दिखाई पड़ा जिसको प्राकृत भाषा की छठी विभक्ति का प्रत्यय (संस्कृत 'स्य' के बदले) मानकर यह अनुमान किया कि भिन्न-भिन्न लेख भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा किये हुए दानों के सूचक जान पड़ते हैं। फिर उन एक सरीखे दिखने वाले और पहचान में न आने वाले दो अक्षरों में से पहले के साथ । 'T' (श्रा की मात्रा) और दूसरे के साथ '' (अनुस्वर चिह्न) लगा हुपा होने से उन्होंने निश्चय किया कि यह शब्द 'दान' होना चाहिये । इस अनुमान के अनुसार 'द' और 'न' की पहचान होने से आधी वर्णमाला पूरी हो गयी झऔर उसके आधार पर दिल्ली, इलाहाबाद, सांची, मेथिया, रधिया, गिरनार, धौरमी आदि स्थानों से प्राप्त अशोक के विशिष्ट लेख सरलतापूर्वक पढ़ लिये गये । इससे यह भी निश्चित हो गया कि इन लेखों की भाषा, जैसा कि अब तक बहुत-से लोग मान रहे थे, संस्कृत नहीं है वरन् तत्स्थानों में प्रचलित देशभाषा थी (जो साधारणतया उस समय प्राकृत नाम से विख्यात थी)। इस प्रकार ब्राह्मी लिपि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ और उसके योग से भारत के For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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