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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपियों के प्रकार/183 हमने यहाँ चित्र से चलकर ध्वनि-मूलक लिपियों तक के विकास की चर्चा अत्यन्त सक्षेप में और अत्यन्त स्थूल रूप में की है, ऐसा हमने यह जानने के लिए किया है कि लिपिविकास की कौन-कौनसी स्थितियाँ रही हैं और उनसे लिपि विकास के कौन-कौनसे स्थूल सिद्धान्तों का ज्ञान होता है । वस्तुतः पांडुलिपि-वैज्ञानिक के लिए लिपि-विकास को जानना केवल इसीलिए अपेक्षित है कि इससे विविध लिपियों से परिचित होने में और किसी भी लिपि के उद्घाटन में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सहायता मिल सकती है। इस दृष्टि से कुछ और बातें भी जानने योग्य हैं। यथा, एक यह कि लिपियाँ सामान्यतः तीन रूपों में लिखी जाती हैं--(1) दायें से बायीं ओर-जैसे फारसी लिपि (2) बायें से दायीं ओर जैसे, देवनागरी या रोमन, और (3) ऊपर से नीचे की ओरयथा, 'चीनी' लिपि । किसी भी अज्ञात लिपि के उद्घाटन (decipher) या पठन के लिए यह जानना प्रथम आवश्यकता है कि वह लिपि दायें से बायें, बायें से दायें या ऊपर से नीचे की ओर लिखी गयी है । वस्तुतः यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि प्राचीन काल में मिस्र की चित्रलिपि में, और भारत की प्राचीन देवनागरी में हमें दायें से बायें और बायें से दायें दोनों रूपों में लिखने के उदाहरण मिल जाते हैं, और एकाध ऐसे भी कि एक पंक्ति बायें से दायें और दूसरी दायें से बायें हो, पर आज यह द्वत किसी भी लिपि में शेष नहीं रह गया । हाँ, प्राचीनकाल की लिपि को पढ़ने के लिए लिपि के इस रूप को भी ध्यान में रखना होगा। अज्ञात लिपियों को पढ़ने (उद्घाटन) के प्रयास : हम यह जानते हैं कि हिन्दी की वर्णमाला या लिपि का विकास अशोक कालीन लिपि से हुआ । आज भारत के पुरातत्त्ववेत्ताओं में ऐसे लिपि-ज्ञाता हैं जो भारत में प्राप्त सभी लिपियों को पढ़ सकते हैं । हाँ, “सिन्धु-लिपि' अब भी अपवाद है । इसे पढ़ने के कितने ही प्रयल हुए हैं पर सभी सुझाव के या प्रस्ताव के रूप में ही हैं। किन्तु एक समय ऐसा भी था कि प्राचीन लिपियों को पढ़ने वाला कोई था ही नहीं। फिरोजशाह तुगलक ने एक विशाल अशोक-स्तम्भ मेरठ से दिल्ली मंगवाया कि उस पर खुदा लेख पढ़वाया जा सके । पर कोई उसे नहीं पढ़ सका । वह उसने एक भवन पर खड़ा कर दिया। इन स्तम्भों को कहीं-कहीं लालबुझक्ककड़ लोग भीम का गिल्ली-डण्डा आदि भी बता देते थे । लिपियों के सम्बन्ध में यह अन्धकार-युग था। फिर आधुनिक युग में भारत की लिपियों को कैसे पढ़ा जा सका । इसका रोचक विवरण मुनि जिनविजय जी के शब्दों में पढ़िये "इस प्रकार बिभिन्न विद्वानों द्वारा भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों विषय ज्ञान प्राप्त हुमा और बहुत-सी वस्तुएँ जानकारी में आई परन्तु प्राचीन लिपियों का स्पष्ट ज्ञान अभी तक नहीं हो पाया था। प्रतः भारत के प्राचीन ऐतिहासिक ज्ञान पर अभी भी अन्धकार का आवरण ज्यों का त्यों पड़ा हुआ था । बहुल-से विद्वानों ने अनेक पुरातन सिक्कों और शिलालेखों का संग्रह तो अवश्य कर लिया था परन्तु प्राचीन लिपि-ज्ञान के अभाव में वे उस समय तक उसका कोई उपयोग न कर सके थे । भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास के प्रथम अध्याय का वास्तविक रूप में प्रारम्भ 1837 ई० में होता है । इस वर्ष में एक नवीन नक्षत्र का उदय हुआ जिससे भारतीय पुरातत्त्व विद्या पर पड़ा हुआ पर्दा दूर हुआ । ऐशियाटिक सोसाइटी की स्थापना के दिन से For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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