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184:पाण्डुलिपि-विज्ञान
18.34 ई० तक पुरातत्त्व सम्बन्धी वास्तविक काम बहुत थोड़ा हो पाया था, उस समय तक केवल कुछ प्राचीन ग्रन्थों का अनुवाद ही होता रहा था। भारतीय इतिहास के एक मात्र सच्चे साधन रूप शिलालेखों सम्बन्धी कार्य तो उस समय तक नहीं के बराबर ही हुआ था। इसका कारण यह था कि प्राचीन लिपि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त होना अभी बाकी था।
___ ऊपर बतलाया जा चुका है कि संस्कृत भाषा सीखने वाला पहला अंग्रेज चार्ल्स विल्किन्स् था और सबसे पहले शिलालेख की ओर ध्यान देने वाला भी वही था। उसी ने 1785 ई० में दीनाजपुर जिले में बदाल नामक स्थान के पास प्राप्त होने वाले स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख को पढ़ा था। यह लेख बंगाल के राजा नारायणलाल के समय में लिखा गया था। उसी वर्ष में, राधाकांत शर्मा नामक एक भारतीय पण्डित ने टोमरा वाले दिल्ली के अशोक स्तम्भ पर खुदे हुए अजमेर के चौहान राजा अनलदेव के पुत्र बीसलदेव के तीन लेखों को पढ़ा। इनमें से एक लेख की भित्ति 'संवत् 1220 बैशाख सुदी 5' है। इन लेखों की लिपि बहुत पुरानी न होने के कारण सरलता से पढ़ी जा सकी थी। परन्तु उसी वर्ष जे० एच० हेरिंग्टन ने बुद्धगया के पास वाली नागार्जुनी और बराबर को गुफागों में से मौखरी वंश के राजा अनन्त वर्मा के तीन लेख निकलवाये जो ऊपर वणित लेखों की अपेक्षा बहुत प्राचीन थे। इनकी लिपि बहुत अंशों में गुप्तकालीन लिपि से मिलती हुई होने के कारण उनका पढ़ा जाना अति कठिन था । परन्तु, चासं विल्किन्स् ने चार वर्ष तक कठिन परिश्रम करके उन तीनों लेखों को पढ़ लिया और साथ ही उसने गुप्त लिपि की लगभग प्राधी वर्णमाला का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया।
गुप्तलिपि क्या है, इसका थोड़ा सा परिचय यहाँ करा देता हूँ। आजकल जिस लिपि को हम देवनागरी (अथवा बालबोध) लिपि कहते हैं उसका साधारणतया तीन अवस्थाओं में से प्रसार हुआ है । वर्तमान काल में प्रचलित प्राकृति से पहले की आकृति कुटिल लिपि के नाम से कही जाती थी। इस आकृति का समय साधारणतया ईस्वीय सन् को छठी शताब्दी से 10वीं शताब्दी तक माना जाता है। इससे पूर्व की आकृति गुप्त-लिपि . के नाम से कही जाती है । सामान्यतः इसका समय गुप्त-वंश का. राजस्वकाल गिना जाता है । अशोक के लेख इसी लिपि में लिखे गये हैं। इसका समय ईसा पूर्व 500 से 350 ई. त . माना जाता है।
सन् 1818 ई० से 1823 ई० तक कर्नल जेम्स टॉड ने राजपूताना के इतिहास की शाध-खोज करते हुए राजपूताना और काठियावाड़ा में बहुत-से प्राचीन लेखों का पता लगाया। इनमें से सातवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक के अनेक लेखों को तो उक्त कनल भाहब क गुरु यति ज्ञानचन्द्र ने पढ़ा था । इन लेखों का सारांश अथवा अनुवाद टॉड साहव ने अपने राजस्थान' नामक प्रसिद्ध इतिहास में दिया है।
__सन् 1828 ई० में बी० जी० वेविंग्टन ने मागल्लपुर के कितने ही संस्कृत और तामिल लेखों को पढ़कर उनकी वर्णमाला तैयार की। इसी प्रकार वाल्टर इलियट ने प्राचीन कनाड़ी अक्षरों का ज्ञान प्राप्त करके उसकी विस्तृत वर्णमाला प्रकाशित की।
ईस्वी सन् 1834 में केप्टेन ट्रॉयर ने प्रयाग के अशोक स्तम्भ पर उत्कीरा गुप्तवंशी राजा समुद्रगुप्त के लेख का बहुत-सा अंश पढ़ा और फिर उसी वंश में डा० लिने
1.. इसका वास्तविक नाम है-एनल्स एण्ड एण्टीक्विटीज ऑफ राजस्थान ।
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