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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 156/पाण्डुलिपि-विज्ञान सुलेख सिखाने के लिए आगे का क्रम यह होता था कि पाटियों के एक अोर लाल लाख का रोगन लगा दिया जाता और दूसरी ओर काला या हरा रोगन लेपा जाता था 11 फिर इन पर हरताल की पीली-सी स्याही या खड़िया या पाण्डु की सफेद सी स्याही से लिखाया जाता था। दैनिक प्रयोग में बहुत से दुकानदार पहले लकड़ी की पाटी पर कच्चा हिसाब टीप लेते थे (आजकल स्लेट पर लिख लेते हैं) और फिर यथावकाश उसे स्याही से पक्की बही में उतारते थे। इसी तरह ज्योतिषी लोग भी पहले खोर पाटे पर कुण्डलियाँ ग्रादि खींच कर गणित करते थे, पुती हुई पाटियों पर भी जन्म, लग्न, विवाह लग्न आदि टीप लेते थे और फिर उनके अाधार पर हस्तलेख तैयार कर देते थे । खोर-पाटे पर लिखने को ज्योतिष-शास्त्र में 'धुलीकर्म' कहते हैं । _ विद्वान भी ग्रन्थ रचना करते समय जैसे आजकल पहले रूल पेंसिल से कच्चा मसविदा कागज पर लिख लेते हैं अथवा किसी पद्य का स्फुरण होने पर स्लेट पर जमा लेते हैं और बाद में उसको निर्णीत करके स्थायी रूप से लिखते या लिखवा लेते हैं। उसी तरह पुराने समय में ऐसे प्रारूप काष्ठ-पट्टिकाओं पर लिखने का रिवाज था। जनों के 'उत्तराध्ययन सत्र' की टीका की रचना नैमिचन्द्र नामक विद्वान ने संवत् 1129 में की थी। उसमें इस प्रकार पाटी से नकल करके सर्वदेव नामक गणि द्वारा ग्रन्थ लिखने का उल्लेख है-- पट्टिका तोऽलिखच्नेमाँ सर्वदेवाभिधो मरिणः । ग्रात्मकर्मक्षयायाथ परोपकृति हेतवे ।। 14 ।। खोतान से भी कुछ प्राचीन काष्ठ-पट्टिों के मिलने का उल्लेख है । इन पर खरोष्ठी लिपि में लेख लिखे हैं। वर्मा में रोगनदार फलकों पर पाण्डुलिपि लिखी जाती है । ऑक्सफोर्ड की वोडलेयन पुस्तकालय में एक अासाम से प्राप्त काष्ठ-फलकों पर लिखी एक पाण्डुलिपि बतायी जाती है। : कात्यायन और दण्डी ने बताया है कि बाद-पत्र फलकों पर पाण्डु (खड़िया) से लिखे जाते थे और रोगन वाले फलकों पर शाही शासन लिखे जाते थे। ग्रन्थों के दोनों ओर जो काष्ठफलक (या पटरी) लगाकर ग्रंथ बाँधे जाते हैं, उन पर भी स्याही से लिखी सूक्तियाँ अथवा मूल ग्रंथ का कोई अंश उद्ध त मिल जाता है जो स्वयं रचनाकार अथवा लेखक (प्रतिलिपिकर्ता) द्वारा लिखा हुआ होता है । कभी-कभी काष्ठ स्तम्भों पर लेख खोदे गये, जैसे किरारी से प्राप्त स्तम्भ पर मिले हैं । भज की गुफा की छतों की काष्ठ महराबों पर भी लेख उत्कोर्ण मिले हैं। ब्रज में "हिरमिच' पोती जाती थी जिससे पट्टी लाल हो जाती थी। फिर उस पर घोंटा किया जाता था। 'घोंटा' शीशे के बड़े गोल छल्ले के आकार का लगभग तीन अंगुल चौड़ाई का होता था। उमसे घोंटने पर पट्टी चिकनी हो जाती थी उस पर खडिया के घोल से लिखा जाता था For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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