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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काल निर्धारण/261 आम्बोज शुक्लस्य पचमयामथ सत्कृते ।। इसमें कृत को मालवगण का संवत् बताया गया है। मालवकालाच्छरदां षटत्रिंशत्-संयुते प्वतीतेषु । नवसु शतेषु मघाविह।। इसमें केवल मालव-काल का उल्लेख हुअा है । विकम संवत्सर 1103 फाल्गुन शुक्ल पक्ष तृतीया । इसमें केवल 'विक्रम संवत्' का उल्लेख है । 1103 के बाद विक्रम नाम का ही विशेष प्रचार रहा और प्रायः समस्त उत्तरी भारत में यह संवत् प्रचलित हो गया (बंगाल को छोड़ कर)। यह संवत् 57 ई० पू० में प्रारम्भ हुआ था इसमें 135 जोड़ देने से शक-संवत् मिल जाता है। विक्रम संवत् के सम्बन्ध में ये बातें ध्यान में रखने योग्य हैं : 1. उत्तर में इस संवत का प्रारम्भ चैत्रादि है। चैत्र के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से यह चलता है। 2. यह उत्तर में पूर्गिणमान्त है-पूर्णिमा को समाप्त माना जाता है। 3. दक्षिण में यह कार्तिकादि है । कार्तिक के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है और 'अमान्त' हैं, अमावस्या को समाप्त हुया माना जाता है । गुप्त संवत् तथा वलभी संवत् विद्वानों का निष्कर्ष है कि गुप्त-संवत् चन्द्रगुप्त-प्रथम द्वारा चलाया गया होगा । इसका प्रारम्भ 319 ई० में हुआ। यह चैत्रादि संवत् है और चैत्र के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है । इसका उल्लेख 'गतवर्ष' के रूप में होता है, जहाँ 'वर्तमान' वर्ष का उल्लेख है, वहाँ एक वर्ष अधिक गिनना होगा। वलभी (सौराष्ट्र) के राजाओं ने गुप्त-संवत् को ही अपना लिया था पर उन्होंने अपनी राजधानो 'वलभी के नाम पर इस संवत् का नाम 'गुप्त' से बदल कर 'वलभी' संवत् कर दिया था, क्योंकि वलभी संवत् भी 319 ई० में प्रारम्भ हुग्रा, अतः गुप्त और वलभी में कोई अन्तर नहीं। हर्ष-संवत् यह संवत् श्री हर्ष ने चलाया था। श्री हर्ष भारत का अन्तिम सम्राट माना जाता है। अलबरूनी ने बताया कि एक काश्मीरी पंचांग के आधार पर हर्ष विक्रमादित्य से 664 वर्ष बाद हुआ। इस दृष्टि से हर्ष-संवत् 599 ई० में प्रारम्भ हुआ। हर्ष-संवत् उत्तरी भारत में ही नहीं नेपाल में भी चला और लगभग 300 वर्ष तक चलता रहा । ये कुछ संवत् अभिलेखों और शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि के आधार पर प्रामक्षिक हैं। इन्हें प्रमुख संवत् कहा जा सकता है। इनको ऐतिहासिक हस्तलेखों के काल-निर्धारमा में सहायक माना जा सकता है । पर, भारत में और कितने ही संवत् प्रचलित हैं जिनका ज्ञान होना इसलिये भी 1. वही, पृ. 2001 2. वही, पृ० 2011 For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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