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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org लिपि-समस्या: 177 भागते कुत्ते को बताने के लिए वह कुत्ते को भागनं की मुद्रा में रेखांकित करने का प्रयत्न करेगा। भले ही उसके पास अभी कुत्ते के लिए वाणी या भाषा में कोई शब्द न हो, न भागने के लिए ही कोई शब्द हो । चित्रलिपि इस प्रकार भाषा के जन्म से पूर्व की संकेत लिपि की स्थानापन्न हो सकती थी। चित्रलिपि के लिए केवल वस्तुविम्ब अपेक्षित था। इतिहास से भी हमें यही विदित होता है कि चित्रलिपि ही सबसे प्राचीन लिपि है। आनुष्ठानिक टोने के चित्रों से आगे बढ़कर उसने चित्रलिपि के माध्यम से वस्तुबिम्बों की रेखाकृतियां पैदा की तथा प्रानुष्ठानिक उत्तराधिकार में देवी-देवताओं के काल्पनिक मूर्तरूपों या बिम्बों की अनुकृतियों का उपयोग भी किया। मित्र की चित्रलिपि इसका एक अच्छा उदाहरण है। इसके सम्बन्ध में "एनसाइक्लोपीडिया ऑव रिलीजन एण्ड ऐथिक्स" में उल्लेख है कि चित्रमय प्रत्याभिव्यक्ति अपने आप में अभिव्यक्ति की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ थी। अभिव्यक्ति की यह प्रतिबन्धता विचार और भाषा के द्वारा प्रस्तुत की गई थी। इन प्रतिवन्धताओं के कारण बहुत पहले ही चित्रमय प्रत्याभिव्यक्ति दो भिन्न शाखाओं में बँट गयी । एक सजावटी कला और दूसरी चित्राक्षरिक लेखन (जर्नल ग्राव ईजिप्ट, आक्योलाजी, ii [19 15), 71-75)। इन दोनों शाखामों का विकास साथसाथ होता गया और एक-दूसरे से मिलकर भी निरन्तर विकास में सहायक होती गई । कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि एक ने दूसरे के क्षेत्र में भी हस्तक्षेप किया 11 . इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दो प्रक्रियामां के योग से मिस्र की प्राचीन लिपि अपना रूप ग्रहण कर रही थी । चित्रों से विकसित होकर ध्वनि के प्रतीक के रूप में लिपि का विकास एक जटिल प्रक्रिया का ही परिणाम हो सकता है । कारण स्पष्ट है कि 'चित्र' दृश्य वस्तुबिम्ब से जुड़े होते हैं । इन वस्तुबिम्बों का ध्वनि से सीधा सम्बन्ध नहीं होता है । वस्तु को नाम देन पर चित्र ध्वनि से जुड़ता है। पर नाम कई ध्वनियों से युक्त होता है, इधर ध्वनि-समुच्चय में से एक ध्वनि-विशेष को उस वस्तुबिम्ब के चित्र से जोड़ना और चित्र का विकास वर्ण (letter) के रूप में होना,-इतना हो चुकने पर ही ध्वनि और लिपि-वर्ण परस्पर सम्बद्ध हो सकेगे और 'लिपि-वर्ण' आगे चलकर .मात्र एक ध्वनि का प्रतीक हो सकेगा। यह तो इस विकास का बहुत स्थूल विवरण है। वस्तुतः इन प्रक्रियाओं के अंतरंग में कितनी ही जटिलताएँ गुंथी रहती हैं। पर माज तो सभी भाषाएँ 'ध्वनि मूलक' हैं, किन्तु पांडुलिपि वैज्ञानिक को तो कभी प्राचीनतम लिपि का या किसी लिपि के पूर्व रूप का सामना करना पड़ सकता है। उसके सामन मिस्र के पेपीरस पा सकते हैं। साथ ही भारत में 'सिन्धु-लिपि' के लेख पाना तो बड़ा बात नहीं । सिन्धु की एक विशेष सभ्यता और संस्कृति स्वीकार की गयी है । नये अनुसन्धानों से 'सिन्धु-सभ्यता' के स्थल राजस्थान एवं मध्य भारत तथा अन्यत्र भी मिल रह है ओर उनकी विपि के लेख भी मिल रहे हैं । तो ये लेख कभी भी पांडुलिपि-वैज्ञानिक 1. Tho inability of pictorial represenation, as such, to meet all the exigencies of expressibn imposed by thought and language early led to its bifurcation into inu two separate ranches of illustrative art and hieroglyphic writing (Journal oi Eyyit Arecholuyy, 11. (1915) 71-75). There two branches persued their Qeve foment pari passų and in constant combination with one another, and it not seldom happened that one of them encroached upon the domain of its feliow........." -Encyclopaedia of Religion and Ethics (Vol.IX), p.787. For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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