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326/पाण्डुलिपि-विज्ञान
मण्डु'--(वर्ण रत्नाकर पृ० 13) वर्णरत्नाकर से भी दो शती पूर्व हेमचन्द्र के 'अभिधान चिन्तामणि' से भी उन्होंने इसे प्रमाणित किया है
कर्पू रागुरुकक्कोल कस्तूरी चन्दनद्रवैः । 31302 स्पाद यक्षकर्दमो मित्रै र्वतिगात्रानुलेपकी । चंदनागरु कस्तूरी कुंकुमैस्तु चतु:समन् । चन्दनादि चत्वारि समान्यत्र चतुः समम्
अमिधान चिन्तामणि 31303 सबसे पुष्ट प्रमाण रामचरित मानस में मिला है__ बीथी सींची चतुरसम चौकें चारु पुराई
बालकांड 296110, काशिराज संस्करण डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने भी 'चित्रसम' पाठ ही अपनी जायसी ग्रन्थावली-काशिराज संस्करण में माना था लेकिन मानस के ऐसे प्रयोग को देख लेने पर उन्होंने अपने पूर्व पाठ को त्याग दिया। चतुरसम 'संस्कृत' के 'चतु सम' शब्द का विकृत रूप है, जिसका अर्थचंदन, अगरु, कस्तूरी और केसर का समान अंश लेकर निर्मित सुगंध है।"1
शिलालेखों और अभिलेखों में आने वाले पारिभाषिक और विशिष्टार्थक शब्दों पर विस्तार से विचार किया गया है, डी० सी० सरकार कृत 'इण्डियन एपीग्राफी' में आठवें अध्याय में जिसका शीर्षक है 'टेकनीकल ऐक्सप्रेशन' । (क) संख्या-वाचक शब्द
शिलालेखों, अभिलेखों और पांडुलिपियों में ऐसे शब्द मिलते हैं जिनका अपना अमिचार्थ नहीं लिया जाता। उनसे जो संख्या-बोध होता है, वही ग्रहण किया जाता है मानो वह शब्द नहीं संख्या ही हो। इस पर ऊपर के अध्याय में विचार किया जा चुका है । यहाँ तो इस ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए इसे शब्द-भेद माना है कि पांडुलिपि में
आये शब्दों का एक वर्ग संख्या का काम भी देता है, अतः ऐसे शब्द-रूपों को संख्या-रूप में ही मान्यता दी जानी चाहिये । (ख) वर्तनी च्युत शब्द
। ये ऐसे शब्द होंगे जिनमें वर्तनी की भूल हो गई हो, जैसे-'चंदचरित्र' में पहले पन्ने में दूसरी पंक्ति में 'सिंधु शलिल प्रवाह' आया है। यहाँ 'शलिल' वर्तनी च्युति है । 'मात्रा विकृति' कहीं-कहीं छंद की तुक या अन्य कारणों से जान-बूझकर कवि को करनी पड़ती है, उसे विकृति या वर्तनी-च्युति नहीं माना जायगा, किन्तु ऊपर के उदाहरण में 'स' के स्थान पर 'श' वर्तनी च्युति ही है। इसी प्रकार उसी पन्ने पर 11वीं पंक्ति में है : 'जब वार सार'।
इसमें भी 'जंबूतरूसार' में 'तरु' को 'तरू' लिखने में वर्तनी च्युति है । (ग) स्थानापन्न शब्द (भ्रमात् अथवा अन्यथा)
किसी चरण में एक शब्द ऐसा आया है कि अध्येता को समझ में नहीं आ रहा, 1. किशोरीलाल-सम्मेलन-पत्रिका (भाग 56, अंक 2-3), पृ. 179-180.
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