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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्द और अर्थ की समस्या/327 अतः वह यह मान लेता है कि यह कोई शब्द नहीं है तब, उसके स्थान पर कोई अन्य सार्थक शब्द रखकर अपना अर्थ निकाल लेता है। इस प्रकार रखे गये शब्द ही स्थानापन्न कहे जायेंगे। पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को ऐसे शब्दों को पहचानने का अभ्यास अवश्य होना चाहिये। इसका एक उदाहरण डॉ० अग्रवाल द्वारा सम्पादित 'कीतिलता' से ही और लेते हैं। 'कीतिलता' 21190 के चरण पर पारिभाषिक शब्दावली की दृष्टि से विचार किया जा चुका है । उसी में 'णारभो' पर डॉ० अग्रवाल ने जो टिप्पणी दी है उससे 'स्थानापन्नता' पर प्रकाश पड़ता है । उनकी टिप्पणी इस प्रकार है :1 "णारो-नरक के जीव, प्रेतात्मा । सं० नारक >प्रा० रणारय-नरक का जीव (पासद्द० 478)। यहां श्री बाबूराम सक्सेना जी की प्रति में 'ख' प्रति का पाठ 'नारों' पाद-टिप्पणी में दिया हुआ है, वही वस्तुतः मूल-पाठ था। जब इस पंक्ति का शुद्ध अर्थ प्रोझल हो गया तब अर्थ को सरल बनाने के लिए द्वारो यह अप-पाठ प्रचलित हुआ । स्पष्ट है कि मूल 'नारो' के स्थान पर 'द्वारओ' शब्द किसी लिपिकार ने स्थानापन्न कर दिया। 'णरो' से वह परिचित नहीं था, अतः उसे अपनी सूझ-बूझ से 'द्वारो' शब्द ठीक लगा।" फलतः पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को हस्तलेखों में स्थानापन्नता की बात भी ध्यान में रखनी होगी। (घ) अपरिचित शब्द ___ हस्तलेख या पांडुलिपियां सहस्रों वर्ष पूर्व तक की मिलती हैं । वह युग हमारे युग से अनेक रूपों में भिन्न होता है । लिपि भिन्न होती है, शब्द-कोष भी भिन्न होता है, शब्दों के अर्थ भी भिन्न होते हैं। लिपि की समस्या हल हो जाने पर शब्दों की समस्या सामने आती है। ऊपर जो शब्द-रूप बताये गये हैं, उनके साथ ही ऐसे शब्द भी हो सकते हैं, जिनसे हम अपरिचित हों। एक लिपिकार ने अपरिचित शब्द के साथ जो व्यवहार किया उसे हम अभी ऊपर देख चुके हैं। उसने अपरिचित शब्द को हटा ही दिया । उसका तर्क रहा होगा कि "वह स्वयं जब ‘णारों' शब्द को नहीं जानता तो ऐसा कोई शब्द हो ही नहीं सकता" | उसने अपनी सूझबूझ से उससे मिलता-जुलता परिचित शब्द वहाँ रख दिया पर उसका उस तरह सोचना समीचीन नहीं था, अतः अपरिचित शब्द को अपरिचित मान कर उसके अनुसंधान में प्रवृत्त होना चाहिये और उस युग की शब्दावली को देखना चाहिए, जिस युग का वह ग्रंथ है, जिसमें वह अपरिचित शब्द मिला है । __ अपरिचित शब्दरूप में ऐसे शब्द भी आयेंगे जिनके सामान्य अर्थ से हम भले ही परिचित हों पर उसका विशिष्ट अर्थ भी होता है। वे किसी ऐसे क्षेत्र के शब्द हो सकते हैं, जिनसे हमारा परिचय नहीं, और विशेषतः उस युग के विशिष्ट क्षेत्र की शब्दावली से जिस युग में वह पांडुलिपि प्रस्तुत की गयी थी। प्राचीन काव्यों में ऐसे विशिष्ट शब्द पर्याप्त मात्रा में मिल सकते हैं । प्रथमतः परिचित लगने वाले किन्तु मूलतः विशिष्टार्थक ऐसे शब्द-रूपों की चर्चा 1. अग्रवाल, वासुदेव शरण (डॉ.)-कोतिलता, पृ. 1101 For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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