SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-समस्या/189 में ब्राह्मी लेखों की भाषा के समान प्राकृत है, पहलवी मान लेने की भूल हुई । इस प्रकार ग्रीक लेखों की सहायता से खरोष्ठी लिपि के बहुत-से अक्षरों की तो जानकारी हुई परन्तु भाषा के विषय में भ्रान्ति होने के कारण पहलवी के नियमों को ध्यान में रखकर पढ़ने से अक्षरों को पहचानने में अशुद्धता आने लगी जिससे थोड़े समय तक इस कार्य में अड़चन पड़ती रही । परन्तु 1838 ई० में दो बाक्ट्रिमन् ग्रीक सिक्कों पर पालि लेखों को देखकर दूसरे सिक्कों की भाषा भी यही होगी, यह मानते हुए उसी के नियमानुसार उन लेखों को पढ़ने से प्रिंसेप का काम आगे चला और उन्होंने एकसाथ 17 अक्षरों को खोज निकाला। प्रिंसेप की तरह मिस्टर नॉरिस ने भी इस विषय में कितना ही काम किया और इस लिपि के 7 नये अक्षरों की शोध की। बाकी के थोड़े से अक्षरों को जनरल कनिंघम ने पहचान लिया और इस प्रकार खरोष्ठी की सम्पूर्ण वर्णमाला तैयार हो गई। __ यह भारतवर्ष की पुरानी से पुरानी लिपियों के ज्ञान प्राप्त करने का संक्षिप्त इतिहास है । उपर्युक्त वर्णन से विदित होगा कि लिपि-विषयक शोध में मिस्टर प्रिंसेप ने बहुत काम किया है। एशियाटिक सोसाइटी की ओर से प्रकाशित 'सैन्टनरी रिव्यू' नामक पुस्तक में 'एन्श्यण्ट इण्डिअन अलफाबेट' शीर्षक लेख के प्रारम्भ में इस विषय पर डॉ० हॉर्नली लिखते हैं कि "सोसाइटी का प्राचीन शिलालेखों को पढ़ने और उनका भाषान्तर करने का अत्युपयोगी कार्य 1834 ई० से 1839 ई. तक चला। इस कार्य के साथ सोसाइटी के तत्कालीन सेक्रेटरी, मि० प्रिंसेप का नाम, सदा के लिए संलग्न रहेगा, क्योंकि भारतविषसक प्राचीन-लेखनकला, भाषा और इतिहास सम्बन्धी हमारे अर्वाचीन ज्ञान की आधारभूत इतनी बड़ी शोध-खोज इसी एक व्यक्ति के पुरुषार्थ से इतने थोडे समय में हो सकी।" प्रिंसेप के बाद लगभग तीस वर्ष तक पुरातत्व संशोधन का सूत्र जेम्स फग्र्युसन, मॉर्खम किट्टो, एडवर्ड टॉमस, अलेक्जेण्डर कनिंघम, वाल्टर इलियट, मे डोज टेलर, स्टीवेन्सन्, डॉ० भाउदाजी आदि के हाथों में रहा । इनमें से पहले चार विद्वानों ने उत्तर हिन्दुस्तान में, इलियट साहब ने दक्षिण भारत में और पिछले तीन विद्वानों ने पश्चिमी भारत में काम किया । फर्ग्युसन साहब ने पुरातन वास्तु-विद्या (Architecture) का ज्ञान प्राप्त करने में बड़ा परिश्रम किया और उन्होंने इस विषय पर अनेक ग्रन्थ लिखे । इस विषय का उनका अभ्यास इतना बढ़ा-चढ़ा था कि किसी भी इमारत को केवल देखकर वे सहज ही में उसका समय निश्चित कर देते थे। मेजर किट्टो बहुत विद्वान तो नहीं थे परन्तु उनकी शोधक बुद्धि बहुत तीक्ष्ण थी। जहाँ अन्य अनेक विद्वानों को कुछ जान न पड़ता था वहाँ वे अपनी गिद्ध जैसी पैनी दृष्टि से कितनी ही बातें खोज निकालते थे । चित्रकला में वे बहुत निपुण थे। कितने ही स्थानों के चित्र उन्होंने अपने हाथ से बनाए थे और प्रकाशित किए थे। उनकी शिल्पकला विषयक इस गम्भीर कुशलता को देखकर सरकार ने उनको बनारस के संस्कृत कॉलेज का भवन बनवाने का काम सौंपा । इस कार्य में उन्होंने बहुत परिश्रम किया जिससे उनका स्वास्थ्य गिर गया और अन्त में इंगलैण्ड जाकर वे स्वर्गस्थ हुए। टॉमस साहब ने अपना विशेष ध्यान सिक्कों और शिलालेखों पर दिया । उन्होंने अत्यन्त परिश्रम करके ई० सं० पूर्व 246 से 1554 ई० तक के लगभग 1800 वर्षों के प्राचीन इतिहास की शोध की। जनरल कनिधम ने प्रिंसेप का अवशिष्ट For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy