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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रख-रखाव/347 थाईमल चिकित्सा की विधि : एक वायु विरहित (एयरराइट) बाक्स या बिना खाने की अलमारी लें। इसमें नीचे के तल से 15 सें० मी० की ऊँचाई पर तार के जालों का एक बस्ता लगायें, उस पर ग्रन्थों को बीच से खोल इस प्रकार रखें कि उसकी पीठ ऊपर रहे और बह , रूप में रहे । थाईमल वाष्प-चिकित्सा के लिए जो ग्रन्थ इस यन्त्र में रखे जायें उनमें उक्त अवयवाणुमों ने जहाँ घर बनाये हों पहले उन्हें साफ कर दिया जाय । इस सफाई द्वारा फफूदादि एक पात्र में इकट्ठी कर जला दी जाय । उसे भंडार में न बिखरने दिया जाये । इससे बाद ग्रन्थ को यन्त्र में रखें । इसके नीचे तल पर 40-60 वाट का विद्युत लैंप रखें और उस पर एक तश्तरी में थाइमल रख दें जिससे लैंप की गर्मी से गर्म होकर वह थाइमल पांडुलिपियों को वाष्पित कर सके । एक क्यूबिक मीटर के लिये 100-150 ग्राम थाइमल ठीक रहता है। 6-10 दिन तक पांडुलिपियों को वाष्पित करना होगा और प्रतिदिन दो से चार घन्टे विद्युत लैम्प जला कर वाष्पित करना अपेक्षित है। इससे ये सूक्ष्म अवयवाणु मर जायेंगे, पर जो क्षत और धब्बे इनके कारण उन पर पड़ चुके हैं, वे दूर नहीं होंगे। जहाँ नमी को 75 प्रतिशत से नीचे करने के कोई साधन उपलब्ध नहीं हो वहाँ मिथिलेटेड स्पिरिट में 10 प्रतिशत थाइमल का घोल बनाकर, ग्रन्थागार में कार्य के समय के बाद संध्या को कमरे में उसको फुहार कर दिया जाय और खिड़कियाँ तथा दरवाजे रातभर के लिये बन्द कर दिये जायें । इन अणुओं के कमरे में ठहरे हुए सूक्ष्म तंतु, जो पुस्तकों पर बैठ कर फफद आदि पैदा करते हैं, नष्ट हो जायेंगे । इस प्रकार ग्रन्थागार की फफूंद आदि से रक्षा हो सकेगी। कीड़े-मकोड़े : कई प्रकार के कीड़े-मकोड़े भी पांडुलिपियों और ग्रन्थों को हानि पहुँचाते हैं । ये दो प्रकार के मिलते हैं : एक प्रकार के कीट तो ग्रन्थ के ऊपरी भाग को, जिल्द आदि को, जिल्दबन्दी के ताने-बाने को, चमड़े को पुढे आदि को, हानि पहुंचाते हैं । इनमें एक तो सबके सुपरिचित हैं कोकोच, दूसरे हैं, रजत कीट (सिल्वर फिश) । यह कीट बहुत छोटा, पतला चाँदी जैसा चमकना होता है। इनके सम्बन्ध में पहला प्रयत्न तो यह किया जाना चाहिये कि इनकी संख्या वृद्धि न हो। इसके लिए एक बात तो यह ध्यान में रखनी होगी कि भंडार-गृह में खाने-पीने की चीजें नहीं मानी चाहिये । इनसे ये आकर्षित होते हैं, फिर फलते-फूलते हैं। दूसरे, दीवालों में कहीं दरारें और सँधे हों तो उन्हें सीमेंट से भरवा दिया जाय, इससे कीड़ों के छिपने और फलने-फूलने के स्थान नहीं रहेंगे, और उनकी वृद्धि रुकेगी। साथ ही नेपथलीन की गोलियां अलमारियों में हर छः फीट पर रख दी जायें, इससे ये कीट भागते हैं । किन्तु इन कीटों से पूरी तरह मुक्ति पाने के लिए तो जहरीली दवाओं का छिड़काव करना होगा, ये हैंडी० डी० टी० पाट्रोव्यम, सोडियम फ्लोराइड आदि, इन्हें पुस्तकों पर नहीं छिड़कना चाहिये । अँधेरे कोनों, दरारों, छिद्रों और दीवालों आदि पर छिड़कना ठीक रहता है। इन जहरीले छिड़कावों का जहर ग्रन्थों पर छिड़का गया तो ग्रन्थ भी दाग-धब्बों से युक्त हो जायेंगे । ये कीट तो ऊपरी सतह को ही हानि पहुंचाते हैं, पर दो ऐसे कीट हैं जो ग्रन्थ के For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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