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पाण्डुलिपियों के प्रकार/141
एकादशस्वतीतेषु संवत्सर शतेषु च ।
एकोनपंचाशति च गतेष्वदेषु विक्रमात् ।। 10701 धातु-पत्रों पर ग्रन्थ
'वासुदेव हिंडि' में प्रथम खण्ड में ताम्रपत्रों पर पुस्तक लिखवाये जाने का उल्लेख मिलता है :
"इयरेण तंबपत्तेसु तणुभेसु रायल क्खवणं रएऊरणं निहालारसेणं तिम्मेऊरण तंबभायणे पोत्थाओ पाक्खितो, निक्खितो, नयरबाहिं दुवावेढमझे ।" पत्र 189
अन्य धातुओं, जैसे रौप्य, सुवर्ण, कांस्य आदि के पत्रों पर लिखी गयी पुस्तकों का उल्लेख नहीं मिलता। हाँ, विविध यन्त्र-मन्त्र, विविध उद्देश्यों की पूर्ति निमित्त ऐसे धातुपत्रों पर अवश्य लिखे जाते थे । पंच धातु के मिश्रण से बने पत्रों पर भी ये लिखे जाते थे, इसी प्रकार 'अष्टधातु के मिश्रण से बने पत्रों पर भी यन्त्र-मन्त्र लिखे जाते थे, पर इन्हें 'पुस्तक' या ग्रन्थ नहीं माना जा सकता।
मृण्मय ईट और मिट्टी (Clay) के पात्रों पर लेख
इंटों और मिट्टी के बरतनों पर भी लेख लिखवाये जाते थे। इसके प्रमाण ईसा से पूर्व के मिलते हैं । मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खननों में भी ऐसी ईंटें और मृण्मय-पात्र पाये गए हैं जिन पर लेख खुदे हुए हैं। मिट्टी के ढेलों (या धोंधों) पर मुहरें लगी हुई हैं। मिट्टी पर मुहर अंकित करने का रिवाज तो अभी 20-25 वर्ष पहले तक (सन् 1950 तक) राजस्थान के गाँवों में चालू था । जिन गाँवों में राजस्व, उत्पन्न हुए अन्न का बाँटा या हिस्सा लेकर वसूल किया जाता था वहाँ पर किसान के खेत में पैदा हुए अनाज की राशि के किनारों पर और बीच में भी मिट्टी को गोली करके उसके ढेले या धोंधे बनाकर रख दिए जाते थे और उन पर लकड़ी में खुदी हुई मुद्रा का ठप्पा लगा दिया जाता था। इसे 'चाँक' कहते थे । लकड़ी के ठप्पे में प्रायः 'श्रीरामजी', ये चार अक्षर चार खानों में
___ उलटे खुदे होते थे जो मिट्टी के धोंधे की परत पर सुलटे रूप में उभर कर HTRA आते थे । इस चाँक को लगाने वालों के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं तोड़ता तास था। इसे 'कच्ची चाँक' कहते थे । यह प्रायः अाज लगाकर कल तोड़ लो
जाती थी क्योंकि अनाज घड़ों में भर-भर कर बाँटा जाता था और पूरे गाँव
1.
अन्य सूचना :
कि चित्वं यन्महीपालो भुनक्तिस्माखिलां महीम् ।। यस्य गीर्वाणमन्त्रीव मंत्री गौरोऽभवत् सुधीः ।।।10।।
प्रशस्ति रियमत्कीर्णा पवर्गापदमशिल्पिना देवस्वामिसुतेन श्रीपयनाथ सृरालये ॥11॥
तथैव सिंहवाजेन माइलेन चशिल्पिना।
प्राप्नुवन्तु समुत्कीर्णान्यक्षराणियपार्थताम् ।।12।। भारतीय जन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ.27 । वही, पृ. 271
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