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जाता है ।"
हम यहाँ यह देखेंगे कि ग्रन्थादि में 'काल - संकेत' किस-किस प्रकार से दिये गए हैं ? और उनके सम्बन्ध में क्या-क्या समस्याएं खड़ी हुई हैं
?
इतिहास से हमें विदित होता है कि सबसे पहले शिलालेख में जो अजमेर के पास वडली ग्राम में मिला था,
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1. अशोक से पूर्व में बीर संवत् (महावीर निर्वाण संवत् ) का उल्लेख दिया ।
2. अशोक के अभिलेखों में राज्य वर्ष का उल्लेख है ।
काल निर्धारण/ 253
3. आगे शकों के समय में राज्य व के साथ 'शक संवत्' का वर्ष दिया गया, हाँ, वर्ष संख्या के साथ 'शक' का नाम संवत् के साथ नहीं लगाया गया । वाद में 'शक' का नाम दिया ।
4. वर्ष या संवत्सर के साथ पहले ऋतुस्रों का उल्लेख, एवं उनके पात्रों का उल्लेख होने लगा | इसके साथ ही तिथि, मुहूर्त को भी स्थान मिलने लगा ।
असित पक्ष ऋतु शिशिर समान्नू ।
कवि ने इसमें संवत् दिया है : सत्रह सौ सोरह दस
5. बाद में ऋतुओं के स्थान पर महीनों का उल्लेख होने लगा । महीनों का उल्लेख करते हुए दोनों पाखों को भी बताया गया है। शुक्ल या शुद्ध और बहुल या कृष्णपक्ष भी दिया गया ।
6. इसी समय नक्षत्र (यथा- रोहिणी) का समावेश भी कहीं-कहीं किया गया ।
7. वर्ष संख्या श्रंकों में ही दी जाती थी पर किसी-किसी शिलालेख में शब्दों के श्रंक बताये गए हैं ।
8. हिन्दी के एक कवि 'सबलश्याम' ने अपने ग्रन्थ का रचना काल यों दिया है : संवत सत्रह से सोरह दस, कवि दिन तिथि रजनीस वेद रस ।
माघ पुनीत मकर गत भानू
रस
अर्थात् एकादशी ।
1716+101726
यह विक्रम संवत् है, क्योंकि हिन्दी में सामान्यतः इसी संवत् का उल्लेख हुआ है । संवत् का नामोल्लेख न होने पर भी हम इसे विक्रम संवत् कह सकते हैं ।
कवि ने तब दिन का उल्लेख किया : ' कवि दिन' का उल्लेख भी प्रदभुत है । कवि दिन =
शुक्रवार ।
तिथि अंकों में न लिखकर शब्दों में बतायी गयी है :
रजनीस
चन्द्रमा 1+
वेद
4+ 611
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1. देखिए - गुरु गुगा के पूर्वज का शिलालेख, शोध पत्रिका (वर्ष 22 अङ्क 1), सन् 1971 में श्री गोविन्द अग्रवाल का निबन्ध 'ओझा (बीकानेर) इतिहास के कुछ संदिग्ध स्थल । '