________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पाण्डुलिपि-विज्ञान और उसकी सीमाएँ/15
उनके निर्माण की प्रविधि को समझना तथा यह निर्धारित करना कि वे इन रूपों में किस उद्देश्य के लिए उपयोग में लाये जाते थे-इन सभी बातों को आज इस विज्ञान के क्षेत्र में माना जाता है । पहले इसमें मुहरबंद (Sealing) करने की पद्धतियों का अध्ययन भी एक विषय था । अब यह विषय अलग विज्ञान बन गया है ।
अतः यह विषय भी किसी सीमा तक पाण्डुलिपि-विज्ञान का ही अंग है। पांडुलिपि-विज्ञान
पुस्तकें ज्ञान-विज्ञान का माध्यम हैं । ये पुस्तकें प्राचीन काल में पांडुलिपियों के रूप में ही होती थीं । अतः सभी प्राचीन पुस्तकालय पांडुलिपि-पुस्तकालय ही थे ।
इन प्राचीन पुस्तकालयों के इतिहास से हमें विदित होता है कि सबसे पहले पुस्तकालय मिस्र में प्रारम्भ हुए होंगे । मिस्र में पेपीरस पर ग्रंथ लिखे जाते थे । ये खरीते (Srolls) के रूप में होते थे । इन ग्रंथों में से एक पेपीरस ग्रन्थ ब्रिटिश संग्रहालय में है वह 133 फुट लम्बा है । ये खरीते गोलाकार लपेट कर रखे जाते थे । पेपीरस बहुत जल्दी नष्ट हो जाता है, अतः यह सम्भावना है कि बहुत से खरीते (स्क्रॉल) और ऐसे पुस्तकालय जिनमें वे रखे गये थे, ऐसे मिट गये हैं कि उनका हमें पता तक नहीं। फिर भी, जो कुछ ज्ञात हो सका है, उसके आधार पर विदित होता है कि पेपीरस स्क्रॉलों के ग्रन्थ ई० पू० 2500 में मिस्र में विद्यमान थे।
पेपीरस के साथ-साथ या कुछ पहले से बेबीलोन (असीरिया) में मिट्टी की ईटों (Clay tablets) पर लिखा जाता था । आधुनिक युग की ऐतिहासिक खुदाई से निन्हेवेह में 10,000 लेख-ईंटें मिलीं, इससे निन्हेवेह में उनके पुस्तकालय का अस्तित्व सिद्ध होता है । मोहेनजोदड़ों में भी मिट्टी की पकाई हुई मुहरें प्राप्त हुई हैं जिन पर लेख लिखे गये हैं ।
ईटां और पेपीरस के बाद पार्चमेण्ट (चर्मपत्र) का उपयोग हुआ, उसके बाद कागज का उपयोग हुआ।
__ भारत में मोहेनजोदड़ों की लिपि का विकास 3000 ई० पू० में हो चुका होगा। यहां भी लेखयुक्त मुहरें या ताबीज मिले हैं। बाद में ग्रंथों के लिए वृक्षों के पत्र और छाल का उपयोग पहले हुा । ताड़पत्र और भोजपत्र से ग्रंथ-रचना के लिए लिप्यासन का काम लिया जाने लगा । धातुपत्रों का भी उपयोग किया गया । भारतेतर क्षेत्रों में प्राचीन पुस्तकालयों की जो सूचना प्राज उपलब्ध है वह नीचे की तालिका से जानी जा सकती
वर्ष (लगभग)
स्थापनकर्ता
लिप्यासन
स्थान 2
ग्रन्थ 3
पेपीरस पेपीरस
1. ई. पू. 2500 गिजेह (Gizeh) - 2. ई. पू. 1400 अमर्ना - एमेह्रोटौप तृतीय
(Amenio top III) 3. ई. पू. 1250 थीवीज .- रेमेज (Remese) 1. इन्हें वलयिताएँ, कुण्डलियां अथवा 'खरड़ा' भी कहते हैं ।
For Private and Personal Use Only