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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपि-ग्रन्थ रचना-प्रक्रिया / 31 पास प्रभूतं रचना - सामग्री हो और सम्प्रदाय - विशेष का हो, ऐसी स्थिति में यदि वह ईमानदार है, तब तो ठीक है, अन्यथा बड़ी भारी सतर्कता बरतनी पड़ेगी । यह पता लगाना बड़ा कठिन होगा कि कौनसा अंश किस रूप में उसका स्वयं का है, और कौनसा नहीं । यह प्रश्न और भी जटिल हो जाता है, जब हम इस बात को ध्यान में रखते हैं कि मध्ययुग में पूरक - कृतित्व की भी सुदीर्घ परम्परा रही है । इससे भी अधिक क्षेपकों की । तब प्रश्न यह है ( 1 ) क्या सम्बन्धित समस्या पूरक-कृतित्त्व या क्षेपक के स्वरूप से उपस्थित हुई है ? (2) क्या वह ऐसे लिपिकार की स्वयं की रचना है ? (3) क्या यत्र-तत्र से कुनबा जोड़ने का प्रयास ? यदि प्रति एक ही मिली है तो और भी जटिलता बढ़ती है, क्योंकि तब पाठालोचन की दृष्टि से आँकने का साधन नहीं रहता । डा० माहेश्वरी के इस विवेचन से लिपिकार के एक ऐसे पक्ष पर प्रकाश पड़ता है, जिसे हमें पाठालोचन में भी ध्यान में रखना होगा । लेखन डेविस डिरिजर ने लिखा है कि "प्राचीन मिस्र वासियों ने लेखन का जन्मदाता या तो थोथ (Thoth) को माना है, जिसने प्रायः सभी सांस्कृतिक तत्त्वों का श्राविष्कार किया था, या यह श्रय प्राइसिस को दिया है, बेबीलोनवासी माईक पुत्र नेवो (Nebo) नामक देवता को लेखन का आविष्यकारक मानते हैं । यह देवता मनुष्य के भाग्य का देवता भी है । एक प्राचीन यहूदी परम्परा में मूसा को लिपि (Script) का निर्माता माना गया है। यूनानी पुराणगाथा (मिस्र) में या तो हर्मीज नामक देवता को लेखन का श्रेय दिया गया है, या किसी अन्य देवता को । प्राचीन चीनी, भारतीय तथा अन्य कई जातियाँ भी लेखन का मूल देवी ही मानते हैं । लेखन का अतिशय महत्त्व ज्ञानार्जन के लिए सदा ही मान्य रहा है, उधर लेखन का प्रपढ़ लोगों पर जादुई शक्ति के जैसा प्रभाव पड़ता है ।" " यह बताया जा चुका है कि लेखन का आरम्भ आदिम आनुष्ठानिक आचरण और टोने के परिवेश में हुआ । यही कारण है कि सभी भाषाएँ और उनकी लिपियाँ देवी - उत्पत्ति वाली मानी गई हैं और उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ और ग्रन्थ भी दैवी कृति हैं । भारत के वेद अपौरुषेय हैं ही । प्राचीन मिस्र वासियों ने अपनी प्राचीन भाषा को 'देवताओं की वाणी' या 'मन्त्र' नाम दिया था । मद्वन्त्र ( Maw-ntr) संस्कृत मन्त्र का ही रूपान्तरण प्रतीत होता है । इस दृष्टि से यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि आज भी या आज से कुछ पूर्व भी लेखन कार्य को धार्मिक महत्त्व दिया गया और लेखक को सब प्रकार की शुचिता से युक्त होकर ही लेखन में प्रवृत्त होने की परम्परा बनी । लेखनमात्र को इतना पवित्र माना गया कि लिप्यासन --- कागज, पत्र आदि भी पवित्र मान लिये गए । भारत में कैसा ही कागज क्यों न हो अब से 20-25 वर्ष पूर्व अत्यन्त पावन माना जाता था । कागज का टुकड़ा भी यदि पैर से छू जाता था तो उसे धार्मिक अवमानना मान 1. Diringer, David-The Alphabet, p. 17. For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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