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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/59 है और तत्काल उससे लिखी हुई पंक्तियाँ काली पड़ जाती हैं या पत्र का वह भाग छिक जाता है, अतः एक ही पत्र में विभिन्न पंक्तियाँ विभिन्न प्रकार की देखने में आती हैं । प्रतियों की यह खराबियाँ संक्रामक भी होती हैं। कई बार हम देखते हैं कि किसी प्रति के आद्य और अन्त्य पत्र के अतिरिक्त शेष पत्र स्वस्थ दशा में होते हैं । इसका कारण यह होता है कि बस्ते में जब कई प्रतियाँ वाँधी जाती हैं तो उस प्रति के ऊपर नीचे कोई रुग्ण प्रतियाँ रख दी जाती हैं जिनकी स्याही व कागज की विकृति बीच की प्रति के ऊपर-नीचे के पत्रों में पहुंच जाती है । इसीलिए जहाँ तक हो सके वहाँ तक एक प्रति को दूसरी से पृथक् रखना चाहिए । इसके लिए प्रत्येक प्रति को एक स्वच्छ और रूखे सफेद कागज में लपेटना चाहिए (अखबारी कागज में कभी नहीं) और फिर उसको कार्डबोर्ड के दो समाकृति के टुकड़ों के बीच में रखकर वेष्टित करना चाहिए जिससे न तो कार्डबोर्ड का असर प्रति पर पड़ सके और न अन्य प्रति का रोग ही उसमें पहुँच सके । रंगीन स्याही रंगीन स्याहियां का उपयोग भी ग्रन्थ लेखन में प्राचीन काल से ही होता रहा है । इसमें लाल स्याही का उपयोग बहुधा हुआ है । लाल स्याही के दो प्रकार थे-एक अलता की, दूसरी हिंगलू की। डॉ. पाण्डेय ने बताया है कि--"Red ink was mostly used in the MSS for marking the medial signs and margins on the right and the left sides of the text, sometimes the endings of the chapters, stops and the phrases like 'so and so and said thus' were written with red ink.'2 ओझाजी इनसे पूर्व यह बता चुके हैं कि 'हस्तलिखित वेद के पुस्तकां में स्वरों के चिन्ह, और सब पुस्तकों के पन्नों पर की दाहिनी और बांयी ओर की हाशिये की दो-दो खड़ी लकीरें अलता या हिंगली से बनी हुई होती हैं । कभी-कभी अध्याय की समाप्ति का अंश एवं 'भगवानुवाच्', 'ऋषिरुवाच' आदि वाक्य तथा विरामसूचक खड़ी लकीरें लाल स्याही से बनाई जाती हैं । ज्योतिषी लोग जन्म-पत्र तथा वर्षफल के लम्बे-लम्बे खरड़ों में ग्वड़े हाशिये, आड़ी लकीरें तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की कुण्डलियाँ लाल स्याही से ही बनाते हैं। फलतः काली के बाद लाल स्याही का ही स्थान प्राता है। पाश्चात्य जगत् में भी लाल स्याही का कुछ ऐसा ही उपयोग होता था। चमकीली लाल स्याही का उपयोग पाश्चात्य जगत् में पुराने ग्रन्थों में सौन्दर्यवर्द्धन के लिए हाता था। इससे प्रारम्भिक अक्षर तथा प्रथम पंक्तियाँ और शीर्षक लिखे जाते थे, इसी से वे 'स्वैरिक्स' कहलाते थे और लेखक कहलाता था 'रुब्रीकेटर' । इसी का हिन्दोस्तानी में अर्थ है 'सुर्जी' । जिसका अर्थ लाल भी होता है और शीर्षक भी। उधर भारत में लाल के बाद 1. हिंगली को शुद्ध करके लाल स्याही बनाने की अच्छी विधि भा. ज. श्र. सं. अने लेखन कला में पृ.45 पर दी हुई है। 2. Pandey, Bajbali-Indian Poleography, p.85. 3. भारतीय प्राचीन लिपिमाला पृ० 1561 4. '-of coloured varieties red was the most common......' -Pandey, Rajbali Indian Palaeography, p. 85. For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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