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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 50/पाण्डुलिपि-विज्ञान ब्राह्मणी श्वेतवर्णाच, रक्तवर्णाच क्षत्रिणी, बैश्यवी पीतवर्णाचः, आसुरी श्यामलेखिनी ।।1।। श्तेवे सुखं विजानीयात्, रक्त दरिद्रता भवेत् । पीते च पुष्कला लक्ष्मीः, आसुरी क्षयकारिणी ।।2।। चिताने हरते पुत्रमाधोमुखी हरते धनम् । वामे च हरते विद्यां दक्षिणां लेखिनी लिखेत् ।।3।। अग्र ग्रन्थिहरेदायुर्मध्य ग्रन्थिहरेद्धनम् । पृष्ठग्रन्थिहरेत सर्व निग्रन्थिं लेखिनी लिखेत् ।।4।। नवांगुलमिता श्रेष्ठा, अष्टौ वा यदि वाऽधिका, लेग्विनी लेखयेन्नित्यं धन-धान्य समागमः 151 इति लेखिनी विचारः ।। अष्टाङ गुलप्रमाणेन, लेखिनी सुखदायिनी, हीनायाः हीनं कर्मस्यादधिकस्याधिकं फलम् ।।1।। आद्य ग्रन्थीहरेदायुमध्य ग्रन्थी हरेद्धनम् । अन्त्य ग्रन्थीहरेन्सोख्यं, निर्ग्रन्थी लेखिनी शुभा ।। माथे ग्रन्थी मत (मति) हरे, बीच ग्रन्थी धन खाय, चार तसुनी लेखणे लखनारा कट जाय ।113 इन श्लोकों से विदित होता है कि लेखनी के रंग, उससे लिखने के ढंग, लेखनी में गांठे, लेखनी की लम्बाई आदि सभी पर शुभाशुभ फल बताये गये हैं, रंग का सम्बन्ध वर्ग से जोड़ कर लेखनी को भी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का माना गया है : सफेद वर्ण की लेखनी ब्राह्मणी -इसका फल है सुख लाल वर्ण की क्षत्राणी -इसका फल है दरिद्रता पीले वर्ण की वैश्यवी -इसका फल है पुष्कल धन, श्याम वर्ण की आसुरी होती है एवं इसका फल होता है धन-नाश । किन्तु इस समस्त शुभ-अशुभ के अन्तरंग में यथार्थ अर्थ यही है कि निर्दोष लेखनी ही सर्वोत्तम होती है, उसी से लेखक को लेखन करना उचित है । वैसे 'लेखनी' एक सामान्य शब्द है, जिसका प्रयोग तूलिका, शलाका, वर्णवर्तिका, वरिणका और वर्णक सभी के लिए होता था । पत्थर और धातु पर अक्षर 1. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 34। 2. यह प्रलोक स्व. चिमनलाल द. दलाल द्वारा सम्पादित 'लेख पद्धति' में भी आया है। 3. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ० 34। 4. दशकुमार चरित में । 5. कोशों में। 6. ललित-विस्तर में। For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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