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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ix ) इस कलात्मकता के साथ भी पांडुलिपि विज्ञान का हमने इस पुस्तक में निरूपित किया है। पर मुझे लगता है कि यह पुस्तक पांडुलिपि-विज्ञान की भूमिका ही हो सकती है, इसके द्वारा पांडुलिपि-विज्ञान की नींव रखी जा रही है। __ पांडुलिपि का रूप बदलता रहा है और बदलता रहेगा। पांडुलिपि-विज्ञान की समस्त सम्भावनाओं को दृष्टि में रख कर अपनी भूमि प्रस्तुत करनी होगी। पांडुलिपि सावयव इकाई है और प्रत्येक अवयव घनिष्ठ रूप से परस्पर सम्बद्ध है, किन्तु विकास-क्रम में इनमें से प्रत्येक में परिवर्तन की सम्भावनाएँ हैं। विकास-यात्रा में इकाई के किसी भी अवयव में परिवर्तन आने पर पांडुलिपि के रूप में भी परिवर्तन आयेगा तद्नुकूल ही उसकी वैज्ञानिक समीक्षा में भी और विज्ञान के द्वारा उन्हें ग्रहण करने में भी। पांडुलिपि के प्रत्येक अवयव से सम्बन्धित ज्ञान-विज्ञान और अनुसंधान का अपनाअपना इतिहास है। प्रत्येक के विकास के अपने सिद्धान्त हैं । इन अवयवों की अलग सत्ता भी है पर ये पांडुलिपि-निर्माण में जब संयुक्त होते हैं तो बाहर से भी प्रभावित होते हैं और संयुक्त समुच्चय की स्थिति में पांडुलिपि से भी प्रभावित होते हैं, उनसे पांडुलिपि भी प्रभावित होती है। यह सब-कुछ प्रकृत नियमों से ही होता है। हाँ, उसमें मानव-प्रतिभा का योगदान भी कम नहीं होता । पांडुलिपि-विज्ञान में इन सभी क्रिया-प्रतिक्रियाओं को भी देखना होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पांडुलिपि-विज्ञान का क्षेत्र बहुत विशद् है, बहुत विविधतापूर्ण है और विभिन्न ज्ञान-विज्ञानों पर आश्रित है। भला मुझ जैसा अल्प-ज्ञान वाला व्यक्ति ऐसे विषय के प्रति क्या न्याय कर सकता है ! पर पांडुलिपियों की खोज में मुझे कुछ रुचि रही है जो इस बात से विदित होती है कि मेरा प्रथम लेख जो कृष्णकवि के “विदुरप्रजागर" पर था और “माधुरी" में सम्भवतः 1924 ई० के किसी अंक में प्रकाशित हुआ था, एक पांडुलिपि के आधार पर लिखा गया था। फिर श्री महेन्द्र जी (अब स्वर्गीय) ने मुझे सन् 1926 के लगभग से नागरी प्रचारिणी सभा, आगरा के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज का अधिकारी नियुक्त कर दिया। इससे पांडुलिपियों और अनुसंधान में रुचि बढ़नी ही चाहिए थी। इसी सभा के पांडुलिपि-विभाग का प्रबन्धक भी मुझे रहना पड़ा। मथुरा के पं० गोपाल प्रसाद व्यास (आज के लब्धप्रतिष्ठित हास्यरस के महाकवि, दिल्ली हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधान मन्त्री तथा पद्मश्री से विभूषित एवं हिन्दी हिन्दुस्तान के सम्पादकीय विभाग के यशस्वी सदस्य) हस्तलेखों की खोज के खोजकर्ता नियुक्त किये गये। वहीं मथुरा में श्री त्रिवेदी (अब स्वर्गीय) काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज करने आये । मुझसे उन्हें स्नेह था, वे मेरे पास ही ठहरे। इस प्रकार कुछ समय तक प्रायः प्रतिदिन हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज पर बातें होती। इन सभी बातों से यह स्वाभाविक ही था कि हस्तलिखित ग्रंथों और उनकी खोज में मेरी रुचि बढ़ती। उधर ब्रज-साहित्य-मण्डल की मथुरा में स्थापना हुई । उसके लिए भी हस्तलेखों में रुचि लेनी पड़ी। जब मैं क० मु० हिन्दी विद्यापीठ में था तो वहाँ भी हस्तलेखों का संग्रहालय स्थापित किया गया। यहाँ अनुसंधान पर होने वाली संगोष्ठी में हस्तलेखों के अनुसंधान पर वैज्ञानिक चर्चाएँ करनी और करानी पड़ी। पं० उदयशंकर शास्त्री ने विद्यापीठ का हस्त-लेखागार सम्भाला । वे भी इस विषय में निष्ण त् For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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