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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठालोचन/243 भी नहीं कहा जा सकता जब तक कि यह निर्धारित न हो जाय कि कौनसे संस्करण द्वितीय स्थानीय रूप में परस्पर अन्तरतः सम्बन्धित हैं। दो संस्करणों में द्वितीय स्थानीय आन्तरिक सम्बन्ध (Secondary interrelationship) से यह अभिप्राय है कि मूल पंचतन्त्र से वाद के और उससे तुलना में द्वितीय स्थानीय (Secondary) प्रति की सर्वमान्य (Common) मूलाधार (Archetype) ग्रंथ की प्रति से पूर्णतः या अशतः उनकी उद्भावना (Descent) या अवतीर्णता की स्थिति इस उभावना या अवतीर्णता को सिद्ध करने के तीन ही मार्ग हैं : एक----यह प्रमाण (सबूत) कि उन संस्करणों में ऐसी सामग्री और बाते प्रचुर मात्रा में हैं, जो मूल ग्रन्थ में हो सकती हैं । दो या अधिक संस्करणों में वह महत्त्वपूर्ण सामग्री और वे विशिष्ट बातें ऐसे रूप में और इतनी मात्रा में मिलती हैं कि यह सम्भावना की आ सकती है कि यह सामग्री मूल से ही अवतीर्ण की गयी है, और उन सभी संस्करणों में वे ऐसे स्थानों पर नियोजित हैं, जिन पर स्वतन्त्र रूप से तैयार किया गया है, और वह किसी अन्य ग्रन्थ से अवतीर्ण नहीं हुअा है तो यह कैसे माना जा सकता है कि उनमें दी गई कहानियाँ एक ही क्रम में और एक जैसे स्थलों पर ही नियोजित होंगी, ऐसा हो नहीं सकता । अतः यदि कुछ प्रतियों या संस्करणों में कहानियों का समावेश एक जैसे क्रम और स्थलों पर मिले तो यह मानना ही पड़ेगा कि उनका सम्बन्ध किसी मूल स्रोत ने है । दूसरे-यह प्रमाण कि कितने ही संस्करणों या प्रतियों या रूपों में परस्पर बहुत छोटी-छोटी महत्त्वपूर्ण बातों में साम्य नियमितता भाषागत रूप-विधान में मिलता है। साथ ही यह साम्य भी कि साम्य प्रचुर मात्रा में है शोर ऐसा है जिसे संयोग मात्र माना जा सकता । ऐसे अवतरणों का तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित होता है। तीसरा--प्रमाण (सबूत) कुछ दुर्बल बैठता है । वह प्रमाण यह है कि जो रूप या संस्करण हमारे समक्ष हैं वे एक वृहद् पूर्ण संस्करण के अंश हैं, और वह संस्करण सर्वसामान्य मूल का ही है। एजरटन महोदय इन तीन कसौटियों में से पहली दो को अधिक प्रामाणिक मानते हैं, यदि इन तीनों से विविध प्रतियों का अन्तर सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता तो यह मानना होगा कि वे मूल पंचतन्त्र की स्वतन्त्र शाखाएँ हैं, जो एक-दूसरे से सम्बन्धित नहीं । तब उन्होंने यह प्रश्न उठाया है कि यह कैसे माना जाय कि मल में कोई 'पंचतंत्र' था भी, क्योंकि कहानियाँ लोक प्रचलित हो सकती हैं, जिन्हें संकलित करके संग्रहकर्ताओं ने यह रूप दे दिया । उन्होंने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि पंचतंत्र के जितने भी हस्तलिखित ग्रन्थ मिलते हैं उनमें (1) वे सभी कहानियाँ समान रूप से विन्यस्त हैं, जिन्हें मूल माना जा सकता है। (2) और यह महत्त्वपूर्ण है कि वे सभी संस्करणों में एक ही क्रम में हैं तथा (3) अधिकांशतः कथा (Frame Story) समान हैं। (4) गभित कथाएँ अधिकांश संस्करणों में समान-स्थलों पर ही गुंथी हुई मिलती हैं। इन चारों बातों से सिद्ध होता है कि पंचतंत्रों में कहानियों के संग्रह का यह विशिष्ट बिन्यास एक दैवयोग मात्र या संयोग-मात्र नहीं हो सकता। इस कसौटी से वे कहानियाँ अलग छैट जाती हैं जो इन विविध संस्करगों के संग्रह-कर्ताओं ने अपनी रुचि से कहीं अन्यत्र से लेकर सम्मिलित करदी हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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