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328/पाण्डुलिपि-विज्ञान ऊपर हो चुकी है। यहाँ 'अपरिचित रूप' की दृष्टि से 'कीतिलता' से एक और उदाहरण दे
कीतिलता के 2133 वें दोहे का पाठ डॉ० अग्रवाल ने यों दिया है :
"हद्दहि हट्ट भमन्तो दूअो राज कुमार ।।214
दिठिट कुतूहल कज्ज रस तो इट्ठ दरबार ।।2151" इस दोहे में 'कज्ज रस' दो शब्द हैं। इन शब्दों के रूपों से प्रथमतः हम अपरिचित नहीं प्रतीत होते, किन्तु युगीन शब्दावली की दृष्टि से ये विशिष्टार्थक हैं, अतः इन्हें अपरिचित माना जा सकता है । प्रसंग दरबार का है अतः उस सन्दर्भ में इसका अर्थ ग्रहण करना होगा। डॉ० अग्रवाल की 'कज्ज' और 'रस' पर टिप्पणी पठनीय है : वे लिखते हैं :
"21 5. कज्जावेदन, न्यायालय या राजा के सामने फरियाद । सं० कार्य>प्रा. कज्ज का यह एक पारिभाषिक अर्थ भी था। कार्य =अदालती फरियाद । (स्वैरालापे
मी वयस्यापचारे कार्यारम्भे लोकवादाश्रये च । कः श्लेषः कष्टशब्दाक्षराणां पुष्पापोडे कण्टकानां यथैव ।। पद्मप्राभृतकम् श्लोक 18॥ कार्यारम्भ का अर्थ यहाँ लिखित फरियाद या अदालती अर्जी दावा है । “पादताडितकम्' में अर्जी देने वाले वादी या फरियादी लोगों को कार्यक कहा गया है, "अधिकरणगतोऽपि कोशतां कार्यकारणाम्" । कालिदास ने भी कार्य शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त किया है । वहिनिष्क्रम्य ज्ञायतां कः कः कार्यार्थोति (मालविकाग्निमित्र, आप्टे, मोनियर विलियम्स सं० कोश)। रस-सं० रस V>प्रा० रस =चिल्लाकर कहना।
कज्ज रस=अपनी फरियाद कहने के लिए। ___ स्पष्ट है कि कज्ज या कार्य और रस दोनों अतिपरिचित शब्द हैं पर प्रसंग विशेष से अर्थ पर पहुँचने के लिए मूलतः अपरिचित हैं । ऐसे शब्दों को विशिष्टार्थक कोटि में रखा जा सकता है, पर क्योंकि ये रूपतः विशिष्टार्थक नहीं सामान्य ही लगते हैं, अतः इन्हें 'अपरिचित' कोटि में रखा जा सकता है।
अब एक उदाहरण अपरिचित शब्द की लीला का 'काव्य-निर्णय' के दोहे में देखिये । 'चन्दमुखिन के कुचन पर जिनको सदा बिहार ।
'ग्रहह करें ताही करन चरबन फेरवदार ॥''चरबन फेरवदार' पर टिप्पणी करते हुए डॉ. किशोरीलाल ने जो लिखा है उसे यहाँ उद्धृत किया जाता है । इससे अपरिचित शब्दों की लीला स्पष्ट हो सकेगी । डॉ. किशोरीलाल ने सम्मेलन पत्रिका में लिखा है :
__. “इस (चरबन फेरवदार) का पाठ विभिन्न प्रतियों में किस प्रकार मिलता है उसे देखें
(1) भारत जीवन प्रेस काशीवाली प्रति का पाठ-'चखन फेरवदार' । (2) वेलवेडियर प्रेस प्रयाग वाली प्रति का पाठ- "चिरियन फेरवदार' (3) बेंकटेश्वर प्रेस बम्बई की प्रति का पाठ-'चखदन फेरवदार' (4) कल्याण दास ज्ञानवापी वाराणसी का पाठ-'चंखन फेरवदार'
1. वही, पृ. 120-121 । 2. किशोरीलाल, (डॉ.)--सम्मेलन पत्रिका (भाग 56, संख्या 2-3) पृ. 181-1821
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