Book Title: Pandulipi Vigyan
Author(s): Satyendra
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

View full book text
Previous | Next

Page 366
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 332/पाण्डुलिपि-विज्ञान स्पष्ट है कि टीकाकारों ने व्याकरण रूप पर (मीरसेन का प्रयोग षष्ठ्यन्त में है इस पर) ध्यान नहीं दिया, अतः अर्थ की समस्या जटिल हो गयी। अर्थ की दृष्टि से व्याकरण के प्रयोग पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है । इसे भी स्पष्ट करते हुए डॉ० द्विवेदी लिखते हैं कि 'कम से कम आरद्द' की 'गृह आगत' करने में 'मीरसेणस्स' की संगति बैठ जाती है । 'पारद' शब्द का अर्थ 'तन्तुवाय न भी होता हो तो यह अर्थ ठीक बैठ जाता है । "मीरसेन के घर आया हुआ, (विशेषण विच्छित्ति वश जुलाह) भी) उसी का पुत्र कुल-कमल प्रसिद्ध अद्दहमारण हुआ।" यह अर्थ ठीक जमता है । व्याकरण पर ध्यान न देने से भी अर्थ-समस्या जटिल हो जाती है, यह इस उदाहरण से सिद्ध है। सन्देश रासक के ही एक शब्द के सम्बन्ध में डॉ० द्विवेदी ने यह स्थापना की है कि शब्द के जिस रूपान्तर को अर्थ के लिए ग्रहण किया गया है वह न केवल व्याकरण-म्मत ही होना चाहिये, भाषा-शास्त्र द्वारा अनुमोदित भी होना चाहिये, तभी ठीक अर्थ प्राप्त हो सकता है । यह स्थापना उन्होंने अधड्डीगउ' शब्द पर विचार करते हुए की है । इस शब्द का अर्थ टिप्पणककार ने बताया है 'अझैद्विग्न' (= प्राधा उद्विग्न) और अवचूरिकाकार ने अध्वोद्विग्न' (= रास्ता चलने से उद्विग्न या थका हुग्रा-सा)। यह अर्थ इसलिए किया गया कि दोनों ने उड्डीण को उद्विग्न का रूपान्तर मान लिया । द्विवेदी जी ने बताया है कि सं० रा० में उद्विग्न का रूपान्तर 'उब्विन्न' हा है, और कई स्थलों पर पाया है फिर यहाँ उद्विग्न का रूप उविन्न ही होना चाहिये था 'उड्डोण' नहीं । 'उड्डीरण' भाषा शास्त्र से उद्विग्न का रूपान्तर नहीं ठहर सकता, अतः इसका अर्थ उद्विग्न भी नहीं किया जा सकता । 'उड्डीण' का अर्थ 'उड़ता हुअा' और पूरे शब्द का अर्थ होगा आधा उड़ता हुआ सा। अर्थ की समस्या का एक कारण होता है-किसी शब्द-रूप में वाह्य-साम्य से अर्थ कर बैठना । सं० रा० में एक शब्द है 'कोसिल्लि' इसका बाह्यसाम्य 'कुशल' से मिलता है, अतः टिप्पणक और अवचूरिका में (श० 22) इसका अर्थ 'कुशलेन अर्थात् कुशलतापूर्वक' कर दिया गया । पर 'देशीनाममाला' में इस शब्द का अर्थ दिया गया है प्राभूतम् । स्पष्ट है कि टिप्पणक और अवचूरिका में लेखकों ने इस शब्द के यथार्थ अर्थ को ग्रहण करने का प्रयत्न नहीं किया । प्राभृतम् अर्थ ठीक है, यह डॉ० द्विवेदी का अभिमत है । शब्द-रूप को अर्थ की दृष्टि से समीचीन मानने में छन्द की अनुकूलता भी देखनी होती है । डॉ. द्विवेदी ने सं०रा० में उत्हवइण केणइ विरहज्झल पुणावि अग्रंपरिहिसयहिं' में बताया है कि छन्द की दृष्टि से इसमें दो मात्राएँ अधिक होती हैं । उनका सुझाव है कि 'सी' तथा 'ज' प्रति के पाठ में 'विरहहव' शब्द है, 'विरहगझल' के स्थान पर यही ठीक है। 'हव' का अर्थ अग्नि है । इसी अर्थ में सं०रा० में अन्यत्र भी पाया है। इसी प्रकार छन्ददोष भी दूर हो जाता है, इसीलिए डॉ० द्विवेदी इसे कविसम्मत भी मानते हैं। 1. द्विवेदी, हजारीप्रसाद-संदेश-रासक, पृ० 12 । 2. वही, पृ० 21 । 3. वही, पृ० 531 For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415